Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

Gita of Sri Krishna Narrated by My guru Shiva

गीता शास्त्र पर एक मनन

एकं शास्त्रं देवकी पुत्र गीतं, एको देव देवकी पुत्र एव |
एको मंत्रस्तस्य नामानी यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ||

यह चरअचर सम्पूर्ण जगत परमात्मा की अष्टधामूल प्रकृति, परमात्मा की त्रिगुणमयी माया और परमात्मा की चेतना का संयोग है, परमात्मा का ही नृत्य है, परमात्मा की ही लीला है | परमपिता परमात्मा ने जगत की उत्पत्ति के उपरान्त, जगत के पालन और उन्नति हेतु, प्रजापतियों ब्रह्मा आदि को रचकर, बुद्धि ही ब्रह्मा है, उसके द्वारा वेदौक्त रूप प्रवृति विषयक धर्म का सिद्धांत दिया, सांसारिक उन्नति ही जिसका उद्देश्य और फल होता है , ऐसा प्रेय का ज्ञान इहलोक अर्थात् इस शरीर और परलोक अर्थात् प्राप्ति वाले शरीर तथा देवत्व की प्राप्ति तक ही सीमित होता है और यही इस प्रवृति विषयक वेद रूपी धर्म का उद्देश्य होता है | यह प्रवृति विषयक अर्थात् जिसके आश्रय हो मनुष्य इस संसार में प्रवृत होता है, ऐसा प्रवृति विषयक वैदिक धर्म यद्यपि स्वर्गादिक भोगों और देवत्त्व की प्राप्ति का साधन है | तब भी प्राणी तो अपने शुभाशुभ कर्मों के कारण कर्म-फल से बंधा, इन्द्रियों, मन और बुद्धि के अधीन भोगों को भोगने हेतु प्रकृति से बंधा रहता है | ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी गठरी शयनं’, शुभ-अशुभ कर्मों के फल स्वरुप स्वर्गादिक भोग मिले अथवा अधम योनियों सा नरक रूपी जीवन, प्राणी माया के पाश से पशुवत सा बंधा ही रहता है, संसार चक्र में भ्रमण करता ही रहता है, आवागमन लगा ही रहता है | माया से उत्पन्न अज्ञान के कारण कर्मफल से बंधा यह प्राणी भिन्न-भिन्न योनियों में अलग-अलग शरीर पाता है तथा पुण्य कर्मों के फल-स्वरुप मनुष्य शरीर पा कर भी मायाजनित अज्ञान के कारण यह मनुष्य अपने ही स्वरुप को नहीं जान पाता, हृदय स्थित समष्टि परमात्मा के स्वरूप को, आत्मा को नहीं जान पाता और हृदय स्थित स्व-स्वरूप को, आत्मा को ना जान पाने के कारण ही परमात्मा को नहीं जान पाता | इस वेद रूपी प्रवृति विषयक धर्म से अधिक से अधिक स्वर्ग और देवताओं तक का ही ज्ञान होता है | इससे आगे का हाल वेदौक्त्त धर्म नहीं जानता | जगतपिता, परमपिता, देवों के देव परमदेव, परमात्मा का ज्ञान नहीं होता |

जब सांसारिक ऐश्वर्यों, भोगों, स्व-संबंधों, स्वर्गादिक भोगों और देवत्त्व आदि से भी प्राणी की तृष्णा नहीं जाती, अंतर्मन में शांति नहीं होती, संपूर्ण पृथ्वी का साम्राज्य और स्वर्ग का आधिपत्य भी प्राणी के दुःख, असंतोष और संताप को हरने में सफल नहीं होते, कोई भी सांसारिक अथवा स्वर्गादिक भोग भी तृप्ति का कारण नहीं बन पाता | तब संबंधो से, भोगों से वैराग्य सा हो जाता है और प्राणी अंत:करण की शांति की तलाश करता है | इसी परमशांति हेतु, अध्यात्मिक उन्नति हेतु, विवेक, वैराग्य हेतु ही परमात्मा ‘निवृति विषयक धर्म’ का सिद्धांत कहते है | निवृति विषयक अर्थात् जिसके आश्रय हो मनुष्य संसार बंधन से मुक्त हो पाता है, काम्यकर्मों का, कर्मफल की आसक्ति का, भोगों का त्याग कर सर्वथा आसक्तिरहित हो ईश्वर की प्रार्थना किये जाने पर यही प्रवृति विषयक वैदिक धर्म आगे चलकर अंत:करण की शुद्धि का कारण बनता है, शांति का कारण बनता है और यही अंत:करण की शुद्धता मनुष्य को विवेक एवं वैराग्य द्वारा सांसारिक सुख-दुःख रूपी द्वन्दों से पार कराकर, निवृति विषयक धर्म को धारण करने में कारक होती है | जिसे मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण कहते हैं, परमगति, परमधाम कहते हैं, उस परंधाम की प्राप्ति में कारण होती है | अनन्य भाव अर्थात् परमात्मा के अतिरिक्त्त अन्य कोई भी भाव मन में ना हो, ऐसे अनन्य भाव से परमात्मा की शरण में पहुंचा, यह परमात्मा का सनातन अंश, जीवात्मा, हृदयस्थ इष्ट को, आत्मा को जान परमात्मा के बोध को प्राप्त कर, अंततः परमात्मा को प्राप्त होता है |  

परमात्मा श्री कृष्ण द्वारा उपदेशित ‘गीता शास्त्र’ संसार बंधन से, काम्यकर्मों से, कर्मफल से, भोगों से, रागद्वेष से, सुखदुःख आदि द्वन्दों से निवृति का मार्ग है तथा संसार से यह जो निवृति है, अपने स्वरुप का, आत्मा का यह जो बोध है  तथा सर्वस्य व्याप्त आत्मा अर्थात् परमात्मा का ज्ञान है और परंभाव की प्राप्ति है, यही मुक्ति है, मोक्ष है, निर्वाण है | ‘गीता’ इसी परमपद की प्राप्ति के मार्ग का विधिविधान है, मोक्ष परायण साधक की रहनी, साधन और साधना को बताने वाला शास्त्र तथा श्रीकृष्ण की अमृतमय वाणी है, परमात्मा की अनुग्रह सहित अमूल्य देन है, ‘गीता शास्त्र’ | परन्तु मोक्ष अकार्य है, किसी भी प्रकार की चेष्टाओं से प्राप्त होने वाला नहीं है, किसी भी प्रकार का बौद्धिक ज्ञान अथवा तथा कथित योग अथवा भक्ति आदि इसे प्राप्त करने के साधन नहीं हैं और ना ही गीता शास्त्र का आजन्म पाठ ही किसी को मुक्ति दे सकता है, वस्तुतः मोक्ष में प्राप्य जैसा कुछ भी नहीं है | गीता शास्त्र में परमात्मा श्री कृष्ण का निश्चित किया हुआ अर्थ, दिशा-निर्देश है कि केवल आत्म-ज्ञान से ही मुक्ति संभव है और आत्म-ज्ञान संभव है, मनुष्य के ‘स्व-भाव’ के रूपांतरण स्वरुप प्राप्त ‘परं-भाव’ से, कारण कि अप्राप्य की प्राप्ति तो ज्ञान और कर्म से हो सकती है, परन्तु जो नित्य प्राप्त है, उसकी प्राप्ति को कैसा ज्ञान और कैसा कर्म ? परमात्मा सदैव नित्य प्राप्त है तथा प्राणी परमात्मा का ही सनातन अंश है, जो अपने स्वरूप को विस्मरण किये बैठा है | अत: स्वयं की प्राप्ति को, स्वयं के स्मरण को, कैसा ज्ञान, कैसा कर्म ?   

वस्तुतः ‘कर्म’ शब्द से हम इस जन्म में ही नहीं अपितु पूर्वजन्मों में भी परिचित रहे हैं तथा संस्कारों के कारण कर्म का एक स्वरुप, एक कल्पना, कृत्य की एक परिभाषा हम जानते हैं और यही संस्कार, यही पूर्वज्ञान हमें गीताशास्त्र को आत्मसात नहीं करने देता | योगेश्वर श्री कृष्ण ने निश्चय पूर्वक कहा है कि ‘जब तेरी बुद्धि सांसारिक मोह अर्थात् भोगों और संबंधों के मोह और शास्त्रीय मोह अर्थात् भिन्न-भिन्न प्रकार के शास्त्र-ज्ञान के मोह से विचलित बुद्धि मुक्त हो जाएगी और एक परमात्मा की वाणी के प्रति स्थिर हो जाएगी, उस काल में जो सुनने योग्य है उसे तू सुन पाएगा, और सुन कर जो जानने योग्य है उसे जान पाएगा | (२/५२,५३) प्रभु द्वारा यहाँ कहा सांसारिक मोह तो कुछ-कुछ समझ आता है | इस देह का मोह, देह के संबंधों का मोह, भोगों का मोह, भोग के लिए संग्रहित साधनों का मोह, ममता, अहंकार रूपी सांसारिक मोह तो समझ आता है और इस सांसारिक मोह रूपी बंधन से प्रत्येक मनुष्य कभी न कभी, किन्हीं कारणों से मुक्त होना भी चाहता है | ऐसा सदैव होता है कि सांसारिक मोह से, व्यक्तिगत कारणों से वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ जान  पड़ता है, परन्तु ऐसा वैराग्य कभी फलित नहीं हो पाता, क्योंकि ऐसे वैराग्य के कारण मनुष्य पुनः तथाकथित प्रवृति विषयक वैदिक ज्ञान, जो प्रकृति के तीनों गुणों से भावित होता है, उस ज्ञान की शरण में जाता है, तथाकथित योग का, तथाकथित भक्ति और ध्यान का सहारा भी लेता है, परन्तु अन्त में स्वयं को प्रकृति के पाश में ही पाता है, बंधन से मुक्ति नहीं होती, क्योंकि प्रवृति विषयक वैदिक धर्म सदैव ही बंधनकारी है, इसीलिए परमात्मा यहाँ कहते है कि शास्त्रीय मोह का त्याग अनिवार्य है | शास्त्रीय मोह अर्थात् कुलधर्म, राजधर्म, पुत्रधर्म, पतिधर्म, देवी-देवताओं की मान्यताओं का, परम्पराओं का धर्म, यह धर्म वस्तुतः धर्म ना होकर सामाजिक व्यवस्थाएं हैं, समाज का अत्ति आवश्यक एवं अनिवार्य अंग हैं, समाज को इसकी आवश्यक्ता है, परन्तु व्यक्तिगत रूप से ऐसा धर्म जो सामाजिक मान्यताओं पर, समाज को एक सूत्र में बांधें रखने हेतु नियमों पर आधारित होता है, बंधनकारी होता है | मुक्ति को, मोक्ष को, परमात्मा से एकी भाव को केवल सनातन धर्म ही हेतु है, सनातन धर्म अर्थात् जो सदैव एक रस धर्म है, जिसका कभी नाश नहीं होता, जिसमें कभी काल के परिपेक्ष से कोई परिवर्तन नहीं होता और समस्त सृष्टि में केवल एक परमतत्त्व परमात्मा ही सनातन है तथा व्यष्टि रूप में आत्मा ही सनातन है | उस आत्मा से, परमात्मा से एकीभाव को, परंभाव को प्राप्त करने वाला धर्म ही सनातन धर्म है , आत्मा, आत्मज्ञान, परंभाव को, परमात्मा को साक्षात् कराने में जो धर्म सक्षम है वही सनातन धर्म है |

गीता शास्त्र के अध्ययन हेतु कोई भी पूर्वज्ञान अथवा पूर्वज्ञान से उपजे पूर्वाग्रह रूपी मोह, मूढ़ता आदि का सर्वथा नि:षेध है, क्योंकि योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ही ‘कर्म क्या है, अकर्म क्या है ? इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित रहता है, इसलिए वह कर्म तेरे लिये अच्छी तरह से कहूँगा, जिसे जानकार तो ‘अशुभात मोक्ष्यसे’ (४/६) अशुभ से अर्थात् संसार बंधन से मुक्त होकर, मोक्ष को प्राप्त होगा | सारांशतः गीता शास्त्र में वर्णित कर्म एक ऐसा कर्म है, जो संसार बंधन से मुक्ति दिलाता है | यह वे कृत्य नहीं है, जिनसे हम इस बंधनकारी संसार में पर्वृत होतें है | अगर गीतोक्त कर्म ही संसार बंधन से मुक्ति दिला सकता है, तब तो बहुत सरल है, कर लीजिये गीता शास्त्र का पठन पाठन और हो जाओगे भव सागर से पार, परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है, शास्त्र पढ़ कर, बौद्धिक ज्ञान के अतिरिक्त, परंभाव जैसा कुछ भी प्राप्त नहीं होता तथा इस विषय पर भी श्रीकृष्ण ने प्रकाश डाला है, परमात्मा के अनुसार ‘इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला नि:संदेह कुछ भी नहीं है, और इस ज्ञान की, आत्मज्ञान की प्राप्ति को तू स्वयं, शास्त्रों से नहीं, योग की परिपक्व अवस्था में, योग के पराकाष्ठाकाल में, जब योग सिद्ध होगा उस काल में, अपनी आत्मा में स्थित होकर, हृदयस्थ परमात्मा के परायण होकर पाएगा | संसार में कहीं भी निवृति विषयक ज्ञान, आत्मज्ञान उपलब्ध नहीं है, ना ही प्रभु के उपदेशों में, आत्मज्ञान गुरुशिष्य के संवाद का विषय ही नहीं है, कहने सुनने का विषय नहीं है, यह तो हृदयस्थ ईष्ट के परायण हो, हृदय देश में स्थित हो कर, हृदयस्थ ईष्ट के दिशानिर्देश के पालन करते हुए, योगस्थ होकर ही इस आत्मज्ञान की प्राप्ति का विधान है | यह गीता शास्त्र उसी हृदयस्थ परमात्मा का उपदेश है, उसी का दिशानिर्देश है, जब प्रभु ही हृदय देश में सारथि बन मार्ग-दर्शन करें, तभी यह शास्त्र आत्मसात हो पाता है, हृदयस्थ ईष्ट का, आत्मा का साक्षात्कार हो पाता है |

इस आत्मज्ञान के अतिरिक्त जो भी ज्ञान है, वह बाह्यज्ञान है, बौद्धिकज्ञान है | ऐसा बौद्धिकज्ञान अगर प्रवृति विषयक है, तो ”प्रेय” का साधन है | अत: अविद्या ही है, अज्ञान ही है | अगर यह ज्ञान, “गीता शास्त्र” की भांति निवृति विषयक भी है, तो भी परमगति, परममार्ग, परमार्थ का साधन मात्र ही है, “श्रेय” का साधन है, अत: इसे ज्ञान कहतें है, विद्या कहतें है, परन्तु यह भी आत्मज्ञान नहीं है | तब आत्मज्ञान क्या है ? इस पर प्रभु कहतें है कि “अध्यात्मविद्या विद्यानां” (१०/३२) अध्यात्म को जानने की विद्या ही विद्याओं में सर्वोपरि है और वह मैं हूँ | तथा “ज्ञानं ज्ञानवतामहम्” (१०/३८) ज्ञानियों का ज्ञान मैं हूँ अर्थात् जिन पुरुषों ने आत्मा को साक्षात् कर लिया है, आत्मज्ञान को पा लिया है वह आत्मज्ञान भी मैं हूँ और साथ ही साथ प्रभु यह भी कहतें है, कि “स्वभाव: अध्यात्मं उच्यते”, (८/३) स्वभाव को ही अध्यात्म कहा जाता है | अत: मनुष्य के स्व-भाव पर प्रकाश डालने वाली विद्या ही अध्यात्मविद्या है, इस अध्यात्मविद्या  के अध्ययन-मनन और “गीता शास्त्र” में कहे योग (कर्म) के अनुष्ठान स्वरूप, इस अध्यात्मविद्या से मनुष्य के स्व-भाव का रूपांतरण होकर, मनुष्य प्रकृतिजन्य भावों से पार पाकर, परंभाव की प्राप्ति का अधिकारी होता है, इसी परंभाव से आत्मा का और सर्वत्र व्याप्त आत्मा अर्थात् परमात्मा का ज्ञान होता है, यही आत्मज्ञान है | परमात्मा के साक्षात्कार के साथ मिलने वाली जानकारी का नाम ही “आत्मज्ञान” है | इसके अतिरिक्त अन्य जो भी है, वह केवल बौद्धिक ज्ञान है, वस्तुतः अज्ञान ही है, अविद्या ही है | यह तो हुआ गीता शास्त्र के अनुसार ज्ञान पर एक संक्षिप्त मनन |

अब वह “कर्म” क्या है ? जिसे प्रभु ने कहा था कि इसे जानकार तू “अशुभात मोक्ष्यसे” | जैसे ज्ञान की पराकाष्ठा है, परमात्मा का साक्षात्कार | उसी प्रकार निवृति विषयक कर्म का भी एक स्वरूप है, तथा उसकी प्राप्ति को जो भी कृत करा जाता है, वही “गीतोक्त कर्म” है | परमात्मा श्रीकृष्ण के अनुसार “भुतभावोउद्भवकर: विसर्ग: कर्मसंज्ञित:” (८/३) भूतों के अर्थात् मनुष्यों के वह संकल्प, वह भाव जो शुभ-अशुभ कर्मों को उद्भव करते हैं, उनका कारण बनतें हैं , उनका त्याग, उनका विसर्जन ही “कर्म” कहलाता है | यही कर्म की पराकाष्ठा है, यही सम्पूर्ण कर्म है, अन्यथा यह शुभ-अशुभ कर्म ही तो कर्म-फल का कारण बनते है, बंधनकारी होते है, संसार बंधन में हेतु होते है, माया में आवागमन का कारण बनते है | अत: परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा प्रस्तावित “गीतोक्त कर्म” एक ऐसा कर्म है, कृत है | जो संसार बंधन का, कर्म बंधन का ही नाश करता है | इसी को प्रभु ने कहा है कि “नियतं कुरु कर्म त्वं”(३/८) तथा “यज्ञार्थात कर्मण: अन्यत्र लोक: अयं कर्मबन्धन:” (३/९) यज्ञ के निमित्त करे गये नियतं कर्म ही “यज्ञार्थात कर्म” है, इनके अन्यत्र समस्त कर्म इसी लोक के बंधन है | अत: स्पष्ट है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने एक क्रिया विशेष कृत का, कर्म का प्रतिपादन करा है, जिसका आचरण, अनुष्ठान ही यज्ञार्थात कर्म है, “गीतोक्त कर्म” है, योगेश्वर श्रीकृष्ण का कृष्णयोग है |

अभी तक जितना मनन करा, आइए उससे “गीता शास्त्र” में प्रवेश करने का प्रयास करें | अपने समस्त पूर्वज्ञान और पूर्वाग्रह को छोड़कर, स:शब्द वह जानने का प्रयत्न करें कि योगेश्वर श्रीकृष्ण वस्तुतः कहतें क्या हैं ? बिना किसी हठ अथवा पूर्वज्ञान से भावित हुए कि उस शास्त्र में ऐसा कहा है अथवा उस शास्त्र में इस कथन को इस रूप में कहा गया है तथा इस भाव से भी “गीता शास्त्र” का अध्ययन ना करें कि प्रभु ने यह उपदेश ज्ञान विषयक कहा, यह योग विषयक और यह भक्ति विषयक अथवा यह कर्म विषयक कहा है | अपने स्व-भाव को जैसे भक्ति-भाव को, कर्म-भाव को, योग-भाव को, ज्ञान को, पूर्वाग्रह को त्याग करके, अगर आप कृष्ण परायण हो अनन्य-भाव से “गीता शास्त्र” का अध्ययन करेंगे तो यह शास्त्र निश्चित रूप से समझने में तथा समझ कर इस बौद्धिक ज्ञान पर मनन करने से, उस पर आचरण करने में भी बहुत सुगम एवं सरल है | “गीता शास्त्र” के विषय में महामुनि व्यास ने भी यही कहा है कि यह अध्यात्मविद्या योगशास्त्र रूपी है अर्थात् यह मनुष्य के स्व-भाव (अध्यात्म) पर अध्ययन-मनन करने की विद्या का शास्त्र है, और इस अध्यात्म विद्या के अध्ययन-मनन स्वरूप मनुष्य जिन निवृति विषयक कर्मो में प्रवृत होने का अधिकारी है वही संसार बंधन का नाश करने वाले यज्ञार्थ कर्म कृष्णयोग रूपी योगशास्त्र है | यही “गीता शास्त्र” है - “ब्रह्मविद्या (अध्यात्मविद्या) योग शास्त्र” | “गीता शास्त्र” पर आदिशंकराचार्य काल से ही बहुत सी टीकाएँ, व्याख्याएं उपलब्ध हैं, निश्चित ही जितनी टीकाएँ “गीता शास्त्र” पर है, उतनी टीकाएँ शायद ही किसी अन्य भारतीय शास्त्र अथवा सम्पूर्ण विश्व के किसी भी शास्त्र पर उपलब्ध हों | फिर भी मैं “गीता शास्त्र” की एक व्याख्या अपने शब्दों में अर्थात् इस शास्त्र से मैंने कैसे समझा, क्या जाना, मेरे लिए इस शास्त्र का क्या अर्थ है, क्या भावार्थ है, मैंने इस शास्त्र को कैसे आत्मसात करा | इन्ही कारणों से मै इस शास्त्र की एक व्याख्या करना चाहता हूँ | जबकि इतनी टीकाएँ उपलब्ध हैं, तो एक और व्याख्या क्यों ? कारण यह कि मैं “गीता शास्त्र” की एक ऐसी प्रति का अभिलाषी हूँ, जिसमें परमात्मा के समस्त उपदेश निष्पक्ष भाव से हों, मेरी समझ, मेरे अनुभव, मेरे भाव, और मेरे विचारों के अनुरूप हों | मै कोई संस्कृत का आचार्य अथवा विद्वान् नहीं हूँ और  ना ही कोई साहित्कार, टीकाकार अथवा लेखक हूँ | अपितु “गीता शास्त्र” के अध्ययन-मनन को लेकर मेरे साथ एक-दो समस्याएँ हैं और मैं उनका समाधान करना चाहता हूँ | उन समस्याओं के कारणों को भी यहाँ कहता हूँ |

पहला कारण – इस समस्या को मैंने गीता की हर टीका मे पाया है | मैं हाथ जोड़कर परमपिता परमात्मा और अपने सद्गुरु शिवबाबा से विनती करता हूँ कि मेरे ऐसे विचार में कोई भी मलिनता हो तो मुझे अज्ञानी जान क्षमा करें | समस्या यह है कि “गीता शास्त्र” की प्रत्येक टीका, प्रत्येक व्याख्या, व्याख्याकार के चरित्र पर ज्यादा निर्भर जान पड़ती है, वनस्पत प्रभु के उपदेशों पर | परमात्मा के प्रति भक्ति-भाव से भावित स्वामी प्रभुपाद “गीता शास्त्र” को भक्ति-योग बना देते हैं, तो आदिशंकराचार्य अपने स्व-भाव के अनुरूप इसमें केवल ज्ञान योग ही देखतें हैं, मेरे गुरु स्वामी अड़गडानन्दजी श्रीकृष्ण को एक योगेश्वर के रूप में देखते हैं, तो सम्पूर्ण गीता योग-शास्त्र हो जाती है, स्वामी रामसुखदासजी गीता को सांसारिक दिनचर्या हेतु भी अत्यंत उपयोगी देखते हैं, तो प्रवृतिरूप धर्म में ही गीता की व्याख्या कर देते हैं, जबकि गीता एक निवृति विषयक शास्त्र है | एक बार पुनः गुरुजनों, महापुरूषों और विद्वानों के प्रति व्यक्तिगत टिप्पड़ी अथवा परमात्मा श्रीकृष्ण के शब्दों में कहें तो दोष दृष्टि रखने के अपराध भाव के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ | वैसे भी इस “गीता शास्त्र” का जो भी थोड़ा बहुत बौद्धिक ज्ञान है, वह इन्ही महापुरुषों के प्रसाद रूपी व्याख्यायों का अमृतपान है | और स्वामी अड़गडानन्दजी को तो मैं इस “गीता शास्त्र” के अध्ययन हेतु अपना गुरु ही मानता हूँ | इन सभी महापुरुषों की चरण वन्दना करते हुए पुनः पुनः क्षमा याचना करता हूँ | परमात्मा श्रीकृष्ण और मेरे शिवबाबा के चरणों में नमन करते हुए कहता हूँ कि मैं ना तो कोई भक्त हूँ, ना ही कोई ज्ञानी, ना योगी, ना तपस्वी और ना ही कोई साधक हूँ | एक साधारण सा अधम संस्कारों वाला जीव हूँ, परन्तु “गीता शास्त्र” को परमात्मा श्रीकृष्ण के ही अर्थों में जानने और समझने की जिज्ञासा और अभिलाषा रखता हूँ | “गीता शास्त्र” की एक ऐसी व्याख्या का अभिलाषी हूँ, जहाँ “गीता शास्त्र” का निष्पक्ष अर्थ हो और साथ हो उसका निष्पक्ष भावार्थ, बिना किसी योगी, ज्ञानी अथवा भक्त होने के पूर्वाग्रह के साथ |

दूसरा कारण – “गीता शास्त्र” की इस प्रकार निष्पक्ष व्याख्या में, किसी भी अन्य ग्रन्थ अथवा शास्त्र से, “गीता शास्त्र” के उपदेशों के प्रति अथवा शब्दार्थ या भावार्थ के सम्बन्ध में या समर्थन में कोई टीका, कोई उदाहरण भी ना हो, ऐसा मेरा मत है | “गीता शास्त्र” को विशुद्ध रूप से परमात्मा श्रीकृष्ण के ही शब्दों में जानने की अभिलाषा है | किसी भी स्थिति में तुलसीदास की रामयण से, कबीरदास की वाणी से, पुराणों से, उपनिषदों से, पतंजलि के सूत्रों से, भागवत से अथवा अन्य किसी भी ग्रंथ से कोई भी श्लोक, दोहा, स्तुति, अथवा सूत्र जो भी हो, उसे मैं “गीता शास्त्र” के उपदेशों के संबंध में अथवा समर्थन में, अध्ययन-मनन हेतु उपयोग नहीं करना चाहता | मेरे अनुभव में इससे वर्ण-संकरता का दोष होता है, परमात्मा श्रीकृष्ण ने उपदेशों को जिस भाव से कहा है, उन भावों पर व्याख्याकार के उदाहरणों से, व्याख्याकार की अपनी भावनाओं का असर प्रभु के उपदेशों में जो भाव है उनपर भी होता है, यही वर्ण-संकरता का दोष है | पूर्णावतार परमात्मा श्रीकृष्ण और उनकी अमृतमय वाणी गीता अपने आप में ही सम्पूर्ण शास्त्र है | उनके मत को, उनकी शिक्षाओं को, उनके उपदेशों को, उनकी अमृतमय वाणी से व्यक्त अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र के संबंध मे अथवा समर्थन में, अन्य शास्त्रों से कुछ भी कहना सुखकर, प्रीतिकर नहीं लगता | ऐसी प्रतीति होती है कि सूर्य को भी दीयों से इंगित करने की क्या आवश्यक्ता है ? मेरे अपने अनुभव से अन्य शास्त्रों से लिए गये प्रसंग “गीता शास्त्र” के अध्ययन-मनन में मन और बुद्धि को भ्रमित और विचलित ही करतें है | शायद अंतर्यामी परमात्मा का भी यही मंतव्य था, जब उन्होंने कहा कि “शास्त्रीय मोह से विचलित तेरी बुद्धि जब मुक्त हो स्थिर हो जाएगी, उस काल में ही जो सुनने योग्य है उसे तु सुन पाएगा और सुन कर जो जानने योग्य है उसे जान पाएगा”| (२/५३) अत: “गीता शास्त्र” की एक ऐसी प्रति का अभिलाषी हूँ, जिसमें प्रभु के उपदेशों के साथ अन्य शास्त्रों से कोई संबंध अथवा समर्थन रूपी प्रसंग ना हो | 
                        
तीसरा कारण – “गीता शास्त्र” के लगभग सभी व्याख्याकारों का मत है कि इसमें ज्ञान-योग, कर्म-योग, भक्ति-योग, ध्यान-योग आदि कितने ही विषयों का समावेश है, और आप अपनी प्रवृति के अनुसार आपको जो भी रुचिकर लगे, उस मार्ग से भगवत् प्राप्ति कर सकते हैं | इन्ही मत-मतान्तरों से मेरी बुद्धि भी भ्रमित और विचलित रहती थी | एक लम्बी अवधि तक मै एकांतवास कर “गीता शास्त्र” का नित्य पाठ करता और कर्म, ज्ञान, ध्यान एवं भक्ति विषयक उपदेशों को, उन-उन योग के आधार पर अलग-अलग सूचि क्रमांक अनुसार विभागपूर्वक लिखकर उनका अध्ययन-मनन करता रहा | ताकि परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा कहे प्रत्येक योग को भली-भांति समझ पाऊँ | परन्तु अन्तत: असफलता ही हाथ लगी, तथा इसके  कारण की अनुभूति भी हुई | अगर आप किसी भी महापुरुष के उपदेशों को खंडित कर उन खण्डों में अपनी रूचि के अनुसार परमार्थ का साधन ढूढेंगे तब असफलता तो क्या, मार्ग से ही च्युत होने का भी भय होता है | इसीलिए समस्त साधकों से करबद्ध विनती है कि आप भी “गीता शास्त्र” में कोई मार्ग ना ढूंढे | अगर ऐसा ही करना है तो बहुत मार्गी हैं, बहुत पंथ हैं, बहुत संप्रदाय हैं, वहां जाइये | “गीता शास्त्र” आपके लिए नहीं है | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने किसी भी पुर्वप्रचलित विधि विशेष का, ज्ञान का, योग का, ध्यान अथवा भक्ति का उपदेश अर्जुन के प्रति नहीं कहा है | योगेश्वर श्रीकृष्ण का स्वरुपस्थ हो, योगस्थ हो अर्जुन के प्रति कहा यह जो “श्रीकृष्ण-अर्जुन” संवाद है, यह अद्वितीय है | किसी भी महापुरुष ने ऐसा सुगम और सरल निवृति विषयक मार्ग ना कभी इससे पूर्व कहा है और ना भविष्य में ही कोई ऐसा परमार्थ का साधन कह सकेगा | यह उपदेश ना नारद के भक्ति सूत्र की भांति है, ना पतांजलि का योग है, ना इसमें अष्टांगयोग की साधना और ध्यान है और ना ही यह ब्रहम सूत्र आदि की भांति कोई ज्ञान शास्त्र है | परमात्मा श्रीकृष्ण ने इस शास्त्र के द्वारा मनुष्य के स्व-भाव का यज्ञार्थ कर्मों के आचरण स्वरूप, परं-भाव में रूपांतरण की विधि-विशेष का वर्णन करा है, जिसमें ज्ञान का, भक्ति का, ध्यान का तथा योग का आवश्यकता अनुसार और विधि-विशेष के नियमानुसार समावेश करा गया है |

अगर आप कर्मयोग की दृष्टि से देखें तो शुभ अशुभ कर्मों के फल भोगने हेतु ही प्राणी का संसार में आवागमन लगा रहता है | ज्ञानयोग की दृष्टि से अज्ञान ही इस आवागमन का कारण है तथा भक्ति-योग के साधक कहतें है कि भक्त की भगवान से विमुखता ही आवागमन का कारण है | परन्तु गीताकार इन कारणों को भिन्न नहीं मानता | गीताकार के अनुसार यह सभी एक दूसरे के पूरक मात्र हैं | संसार में प्रचलित भक्तिभाव को परमार्थ मार्ग हेतु परमात्मा श्रीकृष्ण “सशर्त” ही स्वीकार करते है | प्रभु के अनुसार परमार्थ मार्ग हेतु भक्ति में, अन्य-अन्य देवताओं के प्रति सकाम भाव से समर्पित न हो कर, अनन्य भाव से हृदयस्थ ईष्ट के प्रति एकीभाव, आसक्ति और कामना रहित निष्कामभाव से समर्पित होना चाहिये | तथाकथित ज्ञानयोग में कहे ज्ञान को प्रभु केवल बौद्धिक ज्ञान की दृष्टि से ही देखतें है अथवा ऐसा कहें कि परमात्मा का ज्ञानयोग में कहे बौद्धिकज्ञान को ले केवल इतना ही उद्देश्य है कि “तत्वज्ञानार्थदर्शनम्” (१३/११) अर्थात् तत्वज्ञान के अर्थ रूप सर्वत्र परमात्मा के दर्शन करने की योग्यता ही प्रभु के अनुसार इस ज्ञान का उद्देश्य है | वासुदेवसर्वम् भाव से भावित रहना ही इस ज्ञान की उपयोगिता है | प्रभु की दृष्टि में ज्ञान तो केवल आत्मज्ञान ही है, अन्यत्र जो भी ज्ञान है, वह इस लोक का बंधन है | तथा साधना ? यज्ञार्थ कर्मों के अनुष्ठान को ही प्रभु इस परमार्थ मार्ग की साधना और ध्यान कहतें हैं | और योग ? योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार जिससे दुखों के संयोग का ही वियोग हो उसे योग जानना चाहिये | तात्पर्य यह कि जिन नियतं कर्म, यज्ञार्थ कर्मो के आचरण से संसार रूपी दु:खों का और दुःख रूपी संसार बंधन का वियोग होता हो, वही “योग” है | जीवन निर्वाह को समभाव से आचरण करने को तथा जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु यज्ञार्थ कर्मों के अनुष्ठान को ही प्रभु “योग” कहते है | परमार्थ मार्ग हेतु, मुक्ति, मोक्ष हेतु यह जो परमात्मा का उपदेश है, उसमें अनन्य भाव से एका भक्ति, “तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्” हेतु बौद्धिक ज्ञान, जीवन निर्वाह को समभाव तथा परं-भाव की प्राप्ति को यज्ञार्थ कर्मों का ऐसा समन्वय और सामंजस्य है कि आप इस शास्त्र को केवल कृष्ण परायण हो अखंड रूप से “कृष्णयोग" कह कर ही स्वीकार कर सकतें हैं | अन्यथा अगर आप इस शास्त्र में कोई ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग अथवा भक्ति मार्ग की खोज में रहेंगें तो मेरे अनुभव से आपके हाथ असफलता ही लगेगी |

चौथा और अंतिम कारण- परमात्मा श्रीकृष्ण ने मुख्यतः कृष्णयोग का उपदेश गीता शास्त्र में दिया है | इस कृष्णयोग की, यज्ञार्थ कर्मों की सिद्धि हेतु अंत में परमात्मा अनन्य भाव से सगुण-साकार परमात्मा की, हृदयस्थ ईष्ट की एका भक्ति द्वारा शरणागति को ही उत्तम बताते हुए इस कृष्णयोग रूपी प्रवचन का समापन करते हैं | इस प्रकार परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित “गीता शास्त्र” का पहला भाग, जो बारह अध्यायों तक है, उसका समापन होता है | इस पहले भाग मे किस प्रकार मनुष्य परमात्मा को साक्षात् कर सकता है, इसका स्पष्ट चित्रण है | परमात्मा के साक्षात्कार को ही  श्रीकृष्ण “योग” कहते हैं | प्रभु के अनुसार “जिससे दुखों के संयोग का ही वियोग होता हो, वही “योग” है, ऐसा जानना चाहिये” | अर्थात् जिससे संसार रूपी दुखों का और दुःख रूपी संसार बंधन का नाश होता है, वही “योग” है | इसके पश्चात् अंतिम छ: अध्यायों में सांख्य दृष्टि से “तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्” (१३/११) तत्त्वज्ञान के अर्थरूप सर्वत्र परमात्मा के दर्शन हेतु योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को “सांख्य दर्शन” का उपदेश देते हैं | एक अन्य संदर्भ में प्रभु यह भी स्पष्ट करते हैं कि इस शास्त्र में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा कही गईं हैं | एक “सांख्य निष्ठा” तथा दूसरी “योग निष्ठा” | “गीता शास्त्र” का पहला भाग जो बारह अध्यायों तक विस्तार लिये है, मुख्यतः “योग निष्ठा” पर आधारित है तथा दूसरा भाग जो अंतिम छ: अध्यायों में वर्णित है, “सांख्य दर्शन” पर आधारित है | जब परमात्मा श्रीकृष्ण ने ही “योग” और “सांख्य” को इतना स्पष्ट रूप से कहा है, तब प्रत्येक अध्याय को “अर्जुन विषादयोग”, “सांख्ययोग”, “कर्मयोग”, कर्मसन्यासयोग”, आत्मसंयमयोग”, “अक्षरब्रह्मयोग” इत्यादि कहकर, “गीता शास्त्र” के टीकाकार क्या संकेत देना चाहते हैं ? परमात्मा ने अर्जुन को एक परमार्थ मार्ग कहा, दुखों के संयोंग के वियोग को प्रोत्साहित करा, परमात्मा को साक्षात् करने की विधि-विशेष बताई और इसे “योग” कहा | तब गीता शास्त्र के टीकाकार गीता के अठाहर अध्यायों में अठारह योग कहाँ से खोज लाते हैं ? ऐसा कहकर क्या गीता शास्त्र के यह टीकाकार जिज्ञासुओं को भ्रमित और विचलित नहीं करते ? परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित एक सुगम और सरल परमार्थ मार्ग से किस प्रकार गीता शास्त्र के टीकाकार अठारह मार्ग पा जातें हैं ? अथवा यह वैसा ही है, जैसा प्रभु ने पूर्व में ही स्पष्ट करा था, कि “बहुशाखा हि अनन्ता: च बुद्ध्य: अव्यवासयिनाम” (२/४१) अर्थात् अस्थिर विचार, विवेकहीन तथा निश्चय ही अनन्त भेदोंवाली बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती | तात्पर्य यह है की जिनकी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती ऐसे मनुष्य अनन्त भेदोंवाली बुद्धि को धारण किये होते हैं | तो क्या यह अठारह योगों की खेती ऐसी ही अनिश्चयात्मक बुद्धि की ख़त-पतवार रूपी उपज नहीं है ? अन्यथा निश्चयात्मक बुद्धि को प्राप्त मनुष्य किस प्रकार अर्जुन के विषाद में भी योग को पाता है ? अर्जुन के विषाद में योग का कौन सा सूत्र पाया इन टीकाकारों ने ? और यह “कर्मसन्यासयोग” ? परमात्मा श्रीकृष्ण ने कर्मसन्यास को परमार्थ हेतु ही नहीं, अपितु सांसारिक आचरण की दृष्टि से भी इसे नकारा है | परमात्मा ने स्पष्ट कहा है कि मनुष्य एक क्षण भी कर्म करे बिना नहीं रह सकता | प्रकृति के गुणों से बंधा हुआ मनुष्य स्व-भाव जन्य कर्मों को परवश हुआ करता है | तब इस नकारे हुए “कर्मसन्यास” में भी यह टीकाकार कौन सा योग अथवा योग का कौन सा सूत्र पा जाते हैं ? कि कर्मसन्यास भी एक योग हो जाता है | वो भी श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित, अखंड रूप से कहे इस परमार्थ मार्ग में !!

इन्ही कारणों से मैं “गीता शास्त्र” का अध्ययन करता हुआ भी भ्रमित रहता था | शास्त्र को संशय रहित हो कर आत्मसात नहीं कर पाता था | अन्त में मैं अपने सद्गुरु शिवबाबा और गीताकार श्रीकृष्ण के कृपा प्रसाद से तथा स्वामी अड़गडानन्दजी द्वारा रचित गीता शास्त्र की व्याख्या यथार्थ गीता से प्राप्त दिशा-निर्देशों का अनुसरण करते हुए, मैंने स्वयं ही अपने लिए “गीता शास्त्र” की एक व्याख्या करने का निश्चय किया | गत चार-पांच वर्षों से इस शास्त्र के अध्ययन-मनन का सही मार्ग इन महापुरुषों की कृपा प्रसाद से ही प्राप्त हुआ है | आज तक परमात्मा श्रीकृष्ण के अमृतमय उपदेशों को जितना आत्मसात कर पाया हूँ, उसी को यहाँ संकलित कर “गीता शास्त्र” की एक व्याख्या का प्रयास कर रहा हूँ | गीताकार श्रीकृष्ण और अपने सद्गुरु शिवबाबा के चरणों में पुनः पुनः नमन करते हुए मैं अपने इस प्रयास की सफलता की, गीता शास्त्र की एक निष्पक्ष व्याख्या की कामना करता हूँ |

अन्त में श्री गणेश और माँ सरस्वती को नमन करते हुए, भगवान वेदव्यासजी के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए, अपने शिवबाबा से आशीर्वाद की कामना और योगेश्वर श्रीकृष्ण से दिव्यदृष्टि की आशा रखते हुए, आइए “गीता शास्त्र” में अध्ययन-मनन हेतु प्रवेश करते हैं |    

                                                
~~~~~  ॐ तत् सत्  ~~~~~


 संजय शर्मा, जयहरीखाल, उत्तराखंड

  (महाशिवरात्रि) २७ फरवरी २०१४