** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
सप्तमोध्यायः
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः |
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ||
(७/१)
मयि
आसक्त मनाः पार्थ योगम् युञ्जन् मत् आश्रयः |
असंशयम्
समग्रम् माम् यथा ज्ञास्यसि तत् शृणु || (७/१)
मयि(मुझमें),
आसक्त(आसक्त),
मनाः(मनवाला),
पार्थ(पृथा पुत्र),
योगम्(योग से),
युञ्जन्(युक्त),
मत्(मेरे),
आश्रयः(आश्रय)
| असंशयम्(संशयरहित), समग्रम्(समग्र रूप से),
माम्(मुझको),
यथा(जिस प्रकार),
ज्ञास्यसि(ज्ञात करेगा) तत्(उसको),
शृणु(सुन)
|| (७/१)
पार्थ
! मुझमें आसक्त मनवाला (और) मेरे आश्रय योग से युक्त होकर जिस प्रकार समग्र रूप से
मुझको संशयरहित ज्ञात करेगा,उसको सुन | (७/१)
मुझको संशयरहित ज्ञात करेगा तात्पर्य यह
कि परमतत्त्व परमात्मा में आसक्त मनवाला, उनके ही आश्रय जब योग से युक्त होता है,
तब वह केवल आत्मज्ञान को ही नहीं, केवल स्वस्वरूप को ही नहीं, केवल हृदयस्थ
परमात्मा के साक्षात्कार को नहीं अपितु परमतत्त्व परमात्मा के समग्र रूप को भी
ज्ञात कर लेता है और इस तथ्य में कोई भी संशय नहीं रहता, कि यह ज्ञातअज्ञात
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, इस ब्रह्माण्ड का प्रत्येक कण उस परमतत्त्व परमात्मा का ही
प्रसार है | इस सृष्टि के प्रत्येक तत्त्व से परमात्मा की अनुभूति होती है,
‘वासुदेव सर्वम्’ भाव की अनुभूति होती है | परमात्मा के इस समग्र रूप को कौन जान
पाता है ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मुझमें आसक्त मन वाला अर्थात्
जिसका मन हृदयस्थ परमात्मा के अतिरिक्त कहीं भी विचरण नहीं करता तथा मेरे आश्रय
अर्थात् जिसने अब संसार के आश्रय का त्याग कर दिया हो, संसार का आश्रय अर्थात्
देह, देह के संबंधो और देह के भोगों का त्याग कर केवल हृदयस्थ ईष्ट के आश्रय होकर,
उनके उपदेशानुसार योग से युक्त हुआ योग का आचरण करता हो, ऐसा योगी परमतत्त्व
परमात्मा के समग्र रूप को संशयरहित ज्ञात कर लेता है |
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने अध्याय छह तक अर्जुन को जो भी उपदेश कहे हैं, उन उपदेशों का स्वरूप,
उन उपदेशों का दिशा निर्देश आत्मवान होने को, आत्मपरायण होकर हृदयस्थ ईष्ट के
प्रति श्रद्धा और समर्पण के साथ आत्मज्ञान की प्राप्ति हेतु है, हृदयस्थ ईष्ट के
साक्षात्कार हेतु हैं | परन्तु यहाँ कहते हैं कि मुझमें आसक्त मनवाला, मेरे आश्रय
योग से युक्त होकर जिस प्रकार समग्र रूप से मुझको संशयरहित ज्ञात करेगा उसको सुन |
तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण अब अर्जुन को परमतत्त्व परमात्मा के समग्र रूप
का, कण-कण में उनकी उपस्थिति का, उनकी विभूतियों का, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही जिसकी
अभिव्यक्ति है, उस अक्षय ब्रह्म का जो ज्ञान है, उस ज्ञान का उपदेश कहने जा रहे
हैं | परन्तु साधकों से निवेदन है कि तत्त्व का बौद्धिक ज्ञान और उस बौद्धिक ज्ञान
से प्राप्त अनुभूति में जो भिन्नता और विलक्षणता है, उसका ध्यान रखें, तत्त्व के
बौद्धिक ज्ञान से केवल सूचनात्मक प्राप्ति होती है और अनुभूति से उस तत्त्व में भी
परमात्मा का साक्षात्कार होता है और सृष्टि के प्रत्येक तत्त्व में परमात्मा को
साक्षात् किये योग सिद्ध साधक ही एक चुंटी विभूति से सांसारिक लोगों के दुःखो को
हरने की क्षमता रखते हैं | यहाँ यह कहने का तात्पर्य है कि परमात्मा के समग्र रूप
का गीता शास्त्र के पाठ द्वारा बौद्धिक ज्ञान और योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहे अनुसार
उनमें आसक्त मनवाला, उनके आश्रय होकर योग से युक्त साधक जिस प्रकार ज्ञात करता है
वह दो भिन्न और विलक्षण तत्त्व हैं | यहाँ ‘ज्ञान’ और ‘ज्ञात’ का तत्त्व भेद जानने
योग्य है | सूचनाओं और जानकारियों का संग्रह ज्ञान है और साक्षात् करना ज्ञात करना
है और जो ज्ञात कर लेता है, वही सिद्ध है, उसीको योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि
यह ब्रह्म में स्थित पुरुष की स्थिति है, उस पुरुष के प्रत्येक कर्म ब्रह्ममय हो
जाते हैं, वह स्वयं ही ब्रह्ममय हो जाता है, सबका ईश्वर, महेश्वर हो जाता है और
यही योगेश्वर श्रीकृष्ण की स्थिति है | मानव शरीर से ही ब्रह्म की प्राप्ति संभव
है, अक्षय ब्रह्म कभी भी देह धारण नहीं करता |
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः |
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते
|| (७/२)
ज्ञानम्
ते अहम् स विज्ञानम् इदम् वक्ष्यामि अशेषतः |
यत्
ज्ञात्वा न इह भूयः अन्यत् ज्ञातव्यम् अवशिष्यते || (७/२)
ज्ञानम्(ज्ञान को),
ते(तेरे लिये),
अहम्(मैं),
स(साथ),
विज्ञानम्(विज्ञान के), इदम्(इस),
वक्ष्यामि(कहूँगा), अशेषतः(कुछ भी शेष ना रखकर),
| यत्(जिसको),
ज्ञात्वा(ज्ञात करके),
न(नहीं),
इह(इस लोक में),
भूयः(फिर),
अन्यत्(अन्य कुछ भी),
ज्ञातव्यम्(ज्ञात करने को), अवशिष्यते(शेष रह जाता है)
|| (७/२)
मैं तेरे लिये इस ज्ञान को, कुछ भी शेष ना रखकर, विज्ञान के साथ
कहूँगा, जिसको ज्ञात करके इस लोक में फिर अन्य कुछ भी ज्ञात करने को शेष नहीं रह
जाता | (७/२)
योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ
कहते हैं कि मैं तेरे लिये इस ज्ञान को, मेरे समग्र रूप के ज्ञान को, कुछ भी शेष
ना रखकर अर्थात् बौद्धिक रूप से फिर जानने योग्य इस सृष्टि में कुछ भी शेष नहीं
रहता, उस ज्ञान को विज्ञान सहित कहूँगा | तथ्य को प्रमाणित करना विज्ञान कहलाता
है, अतः तात्पर्य यह कि मेरे समग्र रूप का साक्षात् करने का जो ज्ञान है, उस ज्ञान
को प्रमाण सहित मैं तेरे लिये कहूँगा तथा जिसको ज्ञात करके अर्थात् केवल सूचनात्मक
रूप में सुनकर नहीं अपितु योग के आचरण द्वारा इसे साक्षात् करके, ज्ञात करके इस
लोक में फिर अन्य कुछ भी ज्ञात करने को शेष नहीं रह जाता |
योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ
कहते हैं कि जिसको ज्ञात करके इस लोक में फिर अन्य कुछ भी ज्ञात करने को शेष नहीं
रह जाता | तब क्या इसका यह अभिप्राय हुआ कि परलोक को अथवा अन्य लोकों को ज्ञात
करने को तो शेष रह जाता है ? वस्तुतः यहाँ लोक से योगेश्वर का अभिप्राय इस देह से
है, यह मानव देह ही, यह मनुष्य योनि ही ब्रह्म को प्राप्त करने में सक्षम योनि है,
अन्य सभी देव, ब्रह्मा इत्यादि योनियाँ भोग योनियाँ हैं, उनसे ब्रह्म तत्त्व की
प्राप्ति का विधान नहीं है | अतः योगेश्वर श्रीकृष्ण का अभिप्राय यह है कि हृदयस्थ
ईष्ट के साक्षात्कार से ब्रह्म में स्थिति, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण, परमगति,
परमधाम जो भी कहो उसकी प्राप्ति तो हो जाती है, परन्तु परमात्मा के समग्र रूप को
भी साक्षात् करा योगी ब्रह्ममय हो जाता है, उसके लिये अन्य कुछ भी ज्ञात करना शेष
नहीं रह जाता, वह सृष्टि के विज्ञान का भी ज्ञाता हो जाता है, वह योग का भी ईश्वर
योगेश्वर हो जाता है |
सृष्टि के विज्ञान का
ज्ञाता अर्थात् योगेश्वर अर्थात् वह सर्व सामर्थ्यवान अर्थात् श्लोक संख्या
(५/१४,१५) में कहे अनुसार ‘प्रभु’ और ‘विभु’ हो जाता है | इस प्रकार ब्रह्म से
युक्त प्रभु का सामर्थ्य कहने में नहीं आता, इसे इस तरह समझे कि वह योगेश्वर
द्रौपदी के बर्तन से एक दाना चावल खाकर ऋषि दुर्वासा और उसकी समस्त साधु मंडली की
उदर अग्नि को शान्त करने में सामर्थ्य हो जाता है, द्रौपदी के चीरहरण के समय वह
प्रभु शुन्य से ही वस्त्र प्रदान कर सकता है, वह विभु जब चाहे चक्र धारण कर सकता
है और महाभारत में जयद्रथ युद्ध के अवसर पर सूर्य को ग्रहण लगा, उस सूर्य को पुनः
ग्रहण मुक्त कर सकता है | परमतत्त्व परमात्मा के समग्र रूप को साक्षात्
करने का अन्यथा अन्य अर्थ हो भी क्या सकता है ?
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति
तत्त्वतः || (७/३)
मनुष्याणाम्
सहस्त्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये |
यतताम्
अपि सिद्धानाम् कश्चित् माम् वेत्ति तत्वत्तः || (७/३)
मनुष्याणाम्(मनुष्यों में से),
सहस्त्रेषु(हजारों), कश्चित्(कोई),
यतति(यत्न करता है),
सिद्धये(सिद्धि के लिये)
| यतताम् (यत्न करने वाले),
अपि(भी),
सिद्धानाम्(सिद्धों में से), कश्चित्(कोई),
माम्(मुझको),
वेत्ति(विदित करता है),
तत्वत्तः (तत्त्वरूप से )
|| (७/३)
हजारों
मनुष्यों में से कोई सिद्धि के लिये यत्न करता है, यत्न करनेवालों सिद्धों में से
भी कोई मुझको तत्त्व रूप से विदित करता है | (७/३)
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हजारों
में से कोई सिद्धि के लिये यत्न करता है, यहाँ जिन हजारों की चर्चा योगेश्वर कर
रहे हैं यह गिनने को उपस्थित हजारों लोगों की, अश्रद्धालुओं की चर्चा नहीं हैं
अपितु जो महापुरुषों की वाणी को सुनकर योग के प्रति उत्सुक भी होते हैं परन्तु इधर
महापुरूषों का प्रवचन समाप्त हुआ और उधर उनका मन फिर संसार में रमा, ऐसे हजारों
मनुष्यों में से जो परमात्मा को भजते हैं, उनमें से कोई सिद्धि के लिये यत्न करता
है और यत्न करनेवालों सिद्धों में से भी कोई विरला ही परमात्मा को तत्त्व रूप से विदित
करता है अर्थात् परमात्मा को समग्र रूप से जान पाता है |
यहाँ से अगले ग्यारह श्लोकों में अर्थात्
श्लोक संख्या (७/१४) तक योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने समग्र रूप की प्राथमिक व्याख्या
करते हैं, अन्यथा बाहरवें अध्याय तक परमात्मा के समग्र रूप की, उनकी विभूतियों की,
उनके ऐश्वर्य की, परमात्मा के विश्वरूप की, अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र की ही
व्याख्या योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रति करते हैं | पहले चार श्लोकों में
ज्ञान, फिर विज्ञान |
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च |
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ||
(७/४)
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्
|
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ||
(७/५)
भूमिः
आपः अनलः वायुः खम् मनः बुद्धिः एव च |
अहंकारः
इति इयम् भिन्ना प्रकृतिः अष्टधा || (७/४)
अपरा
इयम् इतः तु अन्याम् प्रकृतिम् विद्धि मे पराम् |
जीव
भूताम् महाबाहो यया इदम् धार्यते जगत् || (७/५)
भूमिः(पृथ्वी),
आपः(जल),
अनलः(अग्नि),
वायुः(वायु),
खम्(आकाश),
मनः(मन),
बुद्धिः(बुद्धि),
एव(भी),
च(और)
| अहंकारः(अहंकार), इति(इस प्रकार),
इयम्(यह), मे(मेरी), भिन्ना(विभक्त),
प्रकृतिः(प्रकृति),
अष्टधा(आठ प्रकार से)
|| (७/४)
अपरा(जो परं नहीं है, जड़
रूप),
इयम्(यह),
इतः(इससे),
तु(परन्तु),
अन्याम्(अन्य),
प्रकृतिम्(प्रकृति), विद्धि(जानो),
मे (मेरी),
पराम्(जो परं है, चेतन रूप)
| जीव(जीव),
भूताम्(देह रूपी),
महाबाहो(महाबाहो),
यया(जिससे),
इदम्(यह),
धार्यते (धारण किया जाता है),
जगत्(जगत)
|| (७/५)
भूमि,
जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी, इस प्रकार आठ प्रकार से विभक्त
यह मेरी प्रकृति है |
यह ‘अपरा’ अर्थात् परम नहीं है, जड़ रूप है, परन्तु इससे अन्य मेरी ‘पराम्’ प्रकृति
जानो, ‘पराम्’ अर्थात् जो परं, चेतन रूप है | महाबाहो ! जिससे यह जीवरूपी जगत धारण किया
जाता है | (७/४,५)
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश यह पंच
महाभूत कहलाते हैं, दृश्य अदृश्य सम्पूर्ण जगत का जो भी अस्तित्त्व है, वह इन पंच
महाभूतों का ही संयोग है | यहाँ ध्यान देने योग्य योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहा
गया इनका क्रम है, स्थूल रूप से सूक्ष्म रूप को प्राप्त होता हुआ यह परमात्मा की
प्रकृति का क्रम है | प्रकृति का सबसे स्थूल रूप पृथ्वी है तथा इसमें जल, अग्नि,
वायु और आकाश और इनके गुणों का भी समावेश है | इसी प्रकार इससे सूक्ष्म रूप जल का
है, जिसमें अग्नि, वायु और आकाश तथा उनके गुणों का का समावेश है, जल से सूक्ष्म
अग्नि, जिसमे वायु और आकाश का तथा वायु में आकाश का समावेश है अर्थात् समस्त भूत
आकाश में समाहित हैं | इन पंच महाभूतों से सूक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुद्धि और
बुद्धि से भी सूक्ष्म अहंकार है | इस प्रकार आठ प्रकार से विभक्त यह परमात्मा की
प्रकृति है | इसके उपरान्त योगेश्वर श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि यह आठ प्रकार से
विभक्त प्रकृति ‘अपरा’ अर्थात् परं नहीं है, अपितु जड़ रूप है | इससे अन्य परमात्मा
की एक ‘परं’ प्रकृति है, ‘परं’ अर्थात् चेतन रूप प्रकृति है | इसी चेतन रूप
‘जीवरुपा’ प्रकृति से यह ‘जीवरूपी’ जगत, पंचभोतिक देह को धारण किया जाता है |
यहाँ जड़ प्रकृति के सबसे सूक्ष्म तत्त्व
अहंकार और इस जीवरूपी ‘चेतन’ प्रकृति पर एक मनन लाभकारी होगा | जिस प्रकार एक देहधारी
दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देख कर, दर्पण से तादाम्य स्थापित करके कहता है कि
दर्पण में ‘मैं’ हूँ | उसी प्रकार परमात्मा का यह परं प्रकृति का तत्त्व जो
‘जीवरूपी’ जगत अर्थात् देह धारण करता है, जिसे जीवात्मा भी कहते हैं, परमात्मा का
सनातन अंश ‘जीवात्मा’ प्रकृति से तादाम्य कर ‘मैं और मेरा’ के भाव से भावित हो
जाता है, यह ‘मैं और मेरा’ का भाव ही अहंकार है | वस्तुतः यह अहंकार चेतन प्रकृति
के कारण ही है, परं प्रकृति के कारण ही है परन्तु अपरा प्रकृति से, जड़ प्रकृति से
तादाम्य कर अपने को प्रकृति से, जड़ता से बांधें रखता है, इसीलिए योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘अहंकार भी’ | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण का ‘भी’ कहने का यही
तात्पर्य है कि अहंकार है तो चेतन प्रकृति के कारण परन्तु जड़ प्रकृति से बंधन के
कारण यह भी जड़ प्रकृति ही है | मनुष्य का जितना बड़ा अहंकार उतनी ज्यादा उसकी जड़ता
और जितना सूक्ष्म अहंकार उतनी ज्यादा उसकी चेतनता | जिस काल में आत्मज्ञान की
प्राप्ति स्वरूप ‘मैं और मेरा’ का भाव गिर जाता है, मिट जाता है, उसी क्षण इस
‘जीवरूपी’ परं प्रकृति का, परमात्मा के सनातन अंश का अपरा प्रकृति से, जड़ प्रकृति
से संबंध विच्छेद हो जाता है, जीव देह मुक्त हो जाता है | यही परमात्मा की लीला है
|
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय |
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ||
(७/६)
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ||
(७/७)
एतत्
योनीनि भूतानि सर्वाणि इति उपधारय |
अहम्
कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयः तथा || (७/६)
मत्तः
पर तरम् न अन्यत् किञ्चित् अस्ति धनञ्जय |
मयि
सर्वम् इदम् प्रोत्तम् सूत्रे मणिगणाः इव || (७/७)
एतत्(यह दोनों), योनीनि(योनियों के), भूतानि(प्राणियों),
सर्वाणि(समस्त),
इति(ऐसा),
उपधारय(समझो)
| अहम्(मैं),
कृत्स्नस्य(सम्पूर्ण), जगतः(जगत का),
प्रभवः(उत्पत्ती का),
प्रलयः(प्रलय का),
तथा(तथा)
|| (७/६)
मत्तः(मुझसे),
पर(परे),
तरम्(श्रेष्ठ कारण),
न(नहीं),
अन्यत्(अन्यत्र),
किञ्चित्(कुछ भी),
अस्ति(है),
धनञ्जय(धनंजय)
| मयि(मुझमे),
सर्वम्(सर्व),
इदम्(यह),
प्रोत्तम्(गुँथा हुआ है), सूत्रे(धागे में),
मणिगणाः(मणियों के),
इव(सदृश्य)
|| (७/७)
ऐसा
समझो (कि) समस्त प्राणी इन दोनों प्रकृति से हैं (और) मैं समस्त जगत का उत्पत्ति
तथा प्रलय हूँ | (७/६)
धनंजय
! मुझसे परे कुछ भी अन्यत्र श्रेष्ठ नहीं है, यह सब मुझमें, धागे में मणियों के
सदृश्य, गुँथा हुआ है | (७/७)
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि समस्त
प्राणी जगत इन दोनों प्रकृति के संयोग से उत्पन्न हैं अर्थात् समस्त प्राणी जगत की
नाशवान देह तो मेरी अष्टधामूल प्रकृति से है और उनकी चेतना मेरी परं प्रकृति
अर्थात् जीवरुपा चेतन प्रकृति से है तथा मैं समस्त जगत का अर्थात् केवल जीवरुपा
जगत का ही नहीं अपितु जड़रूपी इस सृष्टि का भी उत्पत्ति और प्रलय हूँ | यहाँ
योगेश्वर श्रीकृष्ण का उत्पत्ति और प्रलय से तात्पर्य सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की
उत्पत्ति और प्रलय से नहीं अपितु सृष्टि चक्र से है, सृष्टि के परिवर्तन से है |
कभी सरस्वती नदी थी परन्तु अब नहीं है, ऐसी उत्पत्ति और प्रलय | जीव का जन्म और
मृत्यु, वनस्पति की उगना और समाप्त होना, ऐसी उत्पत्ति और प्रलय | यहाँ जो भी होता
है, उसी एक परमतत्त्व परमात्मा के विधिविधान के अनुसार होता है | इस तथ्य को
स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि
धनंजय ! मेरे अतिरिक्त अर्थात् परमात्मा
के अन्यत्र इस जगत के होने का, इस जड़ और चेतन जगत के होने का कोई भी श्रेष्ठ कारण
नहीं है अर्थात् इस जगत के होने में जो हेतु है, जैसे मुझसे ही इस जगत की उत्पत्ति
और प्रलय है, ऐसा ही कोई अन्य अव्यक्त कारण हो, ऐसा भी नहीं है, केवल मैं ही
एकमात्र वह अव्यक्त कारण हूँ और यह सब मुझमे धागे में मणियों के सदृश्य गुँथा हुआ
है अर्थात् जो भी है, वह मैं ही हूँ, मेरे ही कारण है, मुझसे अन्यत्र अन्य कोई
कारण नहीं है |
इस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस
अध्याय में अपने समग्र रूप के ज्ञान को कहा, अब इस समग्र रूप में अर्थात् जड़
तथा चेतन रूप में परमतत्त्व परमात्मा किस
प्रकार स्थित हैं, उसका वर्णन करते हैं | परन्तु उससे पहले एक मनन | क्या
परमतत्त्व परमात्मा का यही समग्र रूप है अथवा इसके अन्यत्र भी परमात्मा का कोई
अन्य रूप है ? वस्तुतः जैसे जैसे हम आगे गीता शास्त्र का अध्ययन करेगें तब ज्ञात
होगा कि परमात्मा के रूपों का कोई अन्त ही नहीं है | अध्याय आठ में ‘काल’ के
तत्त्व को कहकर, परमात्मा के रूप का ‘कालातीत’ रूप का वर्णन है, अध्याय नौ में
मनुष्यों के प्रकृति से बंधन के कारण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मनुष्यों के
सभी ‘भाव’ मेरा ही रूप है | इसी प्रकार अध्याय दस में परमात्मा की विभूतियों का
वर्णन करते हुए उनके समग्र रूप को कहते हैं तथा अध्याय ग्यारह में परमात्मा के
विश्वरूप का वर्णन है और जैसा अध्याय नौ में कहते हैं कि मनुष्यों के समस्त ‘भाव’
मुझसे ही होते हैं, अपने उसी रूप को अन्त में बाहरवें अध्याय में भक्ति भाव को, श्रेष्ठ
भाव कहते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण परमतत्त्व परमात्मा को हृदयस्थ रूप में तथा समग्र
रूप में साक्षात् करने को कहते हुए अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र रूपी अपने
प्रवचनों को विराम देते हैं | अध्याय तेरह से अन्त तक शुद्ध रूप से सांख्यदर्शन का
वर्णन है | आइये अब इस अध्याय में कहे परमात्मा के समग्र रूप के ज्ञान को जानने
हेतु जो विज्ञान योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा उस पर मनन करते हैं |
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः |
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ||
(७/८)
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि
विभावसौ |
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ||
(७/९)
रसः
अहम् अप्सु कौन्तेय प्रभा अस्मि शशि सुर्ययोः |
प्रणवः
सर्व वेदेषु शब्दः खे पौरुषम् नृषु || (७/८)
पुण्यः
गन्धः पृथिव्याम् च तेजः च अस्मि विभावसौ |
जीवनम्
सर्व भूतेषु तपः च अस्मि तपस्विषु || (७/९)
रसः(रस),
अहम्(मैं),
अप्सु(जल में),
कौन्तेय(कौन्तेय),
प्रभा(प्रकाश),
अस्मि(हूँ),
शशि(चन्द्र),
सुर्ययोः(सूर्यका)
| प्रणवः (ओंकार),
सर्व(समस्त),
वेदेषु(वेदों में),
शब्दः(शब्द),
खे(आकाश में),
पौरुषम्(पौरुष),
नृषु(पुरूषों में)
|| (७/८)
पुण्यः(पुण्य),
गन्धः(गंध),
पृथिव्याम्(पृथ्वी में), च(और),
तेजः(तेज),
च(और),
अस्मि(हूँ),
विभावसौ(अग्नि में)
| जीवनम् (जीवन),
सर्व(समस्त),
भूतेषु(प्राणियों का),
तपः(तप),
च(और),
अस्मि(हूँ),
तपस्विषु(तपस्वियों का)
|| (७/९)
कौन्तेय
! जल में रस, चन्द्र, सूर्य का प्रकाश, समस्त वेदों में ‘ॐ’, आकाश में शब्द,
पुरूषों का पौरुष मैं हूँ | (७/८)
और
पृथ्वी में पवित्र गंध और अग्नि में तेज हूँ, समस्त प्राणियों का जीवन और
तपस्वियों का तप हूँ | (७/९)
उपर्युक्त दोनों श्लोकों में से पहले पंच
महाभूतों पर मनन | योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार पृथ्वी में पवित्र गन्ध, जल में
रस, अग्नि में तेज और सूर्य, चन्द्र की प्रभा और आकाश में शब्द मैं हूँ, यहाँ प्रकृति
के पांचवे महाभूत वायु की तन्मात्रा स्पर्श को योगेश्वर ने नहीं कहा है परन्तु इस
जड़ रूपी व्यक्त अपरा प्रकृति की जिन तन्मात्राओं को योगेश्वर ने कहा है, उसके
अनुसार वायु की तन्मात्रा स्पर्श है |
जैसा पहले मनन कर आये हैं कि शरीर तो
स्थितप्रज्ञ महापुरुषों का ही होता है परन्तु ब्रह्म की स्थिति का स्पर्श पा लेने
के पश्चात् वह पुरुष अव्यक्त ब्रह्म का यंत्र मात्र होता है, अब उस शरीर से बोलता,
उठता, बैठता ब्रह्म ही है | उसी प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार प्रकृति के
यह पंच महाभूत उसी अव्यक्त अक्षय ब्रह्म के व्यक्तस्वरूप हैं और इनकी तन्मात्राएँ अर्थात्
इनके गुण धर्म स्वयं परमात्मा ही है | यह तो हुआ ज्ञान, अब वह विज्ञान क्या है, वह
प्रमाण क्या है कि यह पंच महाभूत परमात्मा से हैं और इनकी तन्मात्राएँ स्वयं
परमात्मा ही है |
जिस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने देह
देही के भेद को स्पष्ट करते हुए कहा था कि यह देही अव्यक्त, अचिन्त्य और
निर्विकार, सनातन, पुरातन, अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य स्वरूप है और यह
मेरा ही सनातन अंश है और इस देही की यह देह अन्त को, नाश को प्राप्त होने वाली है,
परिवर्तनशील है | उसी प्रकार जड़ प्रकृति के यह पंच महाभूत तो देह के समान व्यक्त
रूप से हैं, परिवर्तनशील हैं परन्तु इनकी तन्मात्राएँ अव्यक्त रूप से हैं, अचिन्त्य,
निर्विकार, अजन्मा, नित्य, सनातन, पुरातन, अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य
स्वरूप है | अतः स्पष्ट है कि पंच महाभूतों की यह तन्मात्राएँ अव्यक्त अक्षय
ब्रह्म का ही अंश है, ब्रह्म स्वरूप ही है | उदहारण स्वरूप पृथ्वी तत्त्व की
तन्मात्रा गंध है, जैसे गुलाब की गंध अथवा चंदन की गंध | कैसी है यह गंध ? तो केवल
यही कहा जा सकता है कि गुलाब की गंध गुलाब जैसी है, चंदन की गंध चंदन जैसी है, इसके
अतिरिक्त इस विषय में अन्य कुछ कहा भी नहीं जा सकता | वस्तुतः यह गंध अव्यक्त,
अचिन्त्य, निर्विकार, अजन्मा, नित्य, सनातन, पुरातन, अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य,
अशोष्य स्वरूप है | यह कह पाना की यह गंध कैसी है, यह वाणी का विषय नहीं है | इसी
प्रकार परमात्मा कैसा है, परमात्मा जैसा है, यह वाणी का विषय नहीं है | जिस प्रकार
परमात्मा अव्यक्त, अचिन्त्य और निर्विकार, अजन्मा, नित्य, सनातन, पुरातन,
अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य स्वरूप है | उसी प्रकार पृथ्वी तत्त्व की गंध
भी अव्यक्त, अचिन्त्य और निर्विकार, अजन्मा, नित्य, सनातन, पुरातन, अच्छेद्य,
अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य स्वरूप है | देखने, सुनने, कहने के विषय से परे है | इसी
प्रकार जल में रस, जैसे शहद का स्वाद, अग्नि का तेज और प्रभा, वायु का स्पर्श
अर्थात् कोई भी स्पर्श और आकाश में शब्द अर्थात् वाणी के गुण धर्म आदि भी देखने,
सुनने, कहने के विषय से परे है | यह इस तथ्य का प्रमाण अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण
द्वारा कहा विज्ञान सहित ज्ञान हुआ कि यह पंच महाभूत अक्षय ब्रह्म से हैं और इन
तन्मात्राओं का अव्यक्त भाव स्वयं परमात्मा ही है | अब अन्य संदर्भो पर मनन |
‘पुरूषों में पुरुषार्थ मैं हूँ’ पुरुष अर्थात् नवद्वार
रूपी पुर में रहनेवाला परमात्मा का सनातन अंश, उस जीवरुपा शक्ति का, जीवात्मा का,
देही का पुरुषार्थ काम्यकर्मों के परवश हो भोगों में रमण करने में नहीं अपितु जीवन
यात्रा की सिद्धि में है | अतः पुरूषों का पुरुषार्थ ‘मैं’ अर्थात् पुरुषार्थ
स्वरूप प्राप्ति परमात्मा है |
‘सम्पूर्ण वेदों में ओंकार मैं हूँ’ योगेश्वर श्रीकृष्ण आगे
कहते हैं कि ‘ॐ
तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः’ (१७/२३,पु०) अर्थात् ॐ तत् सत् - ऐसा तीन प्रकार का नाम
ब्रह्म का निर्देश करता है, संकेत करता है, स्मृति दिलाता है और ब्रह्म का परिचायक
है | साथ ही में कहते हैं कि ‘ब्राह्मणाः तेन वेदाः च यज्ञाः विहिताः
पुरा’ (१७/२३,उ०) अर्थात्
उसी ‘ॐ’ से आदिकाल में
ब्राह्मणत्व, ब्राह्मण जाति नहीं अपितु यज्ञार्थ कर्मों द्वारा प्राप्त
ब्राह्मणत्व, वेद और यज्ञार्थ कर्म अर्थात् यज्ञ रचे गये | तात्पर्य यह कि
परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति को जो भी विधान है, वह ‘ॐ’ से है तथा ‘ॐ’ ही अक्षय
ब्रह्म का परिचायक है | एक अन्य संदर्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं
कि जो पुरुष ‘ॐ इति’ ॐ इतना ही, जो अक्षय ब्रह्म का परिचायक है, उसका जप और मेरा
स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग कर जाता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है |
(८/१३) तात्पर्य यह कि सम्पूर्ण वेदों में अर्थात् जानने योग्य शास्त्रों में
जानने योग्य भी मैं ही हूँ |
‘समस्त प्राणियों का जीवन मैं हूँ’ प्राणियों की पंचभोतिक देह
तो गतप्राण होने पर भी रहती है परन्तु उसमें जीवन नहीं होता, उस देह से कोई चेष्टा,
कोई कृत नहीं होता | स्पष्ट है कि इस देह का जीवन, जीवरुपा चेतन शक्ति अब इस देह
में नहीं रही और योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी कहा है (७/५) कि मेरी परं प्रकृति अर्थात्
जीवरुपा शक्ति से ही यह जगत धारण करा जाता है | एक अन्य संदर्भ में भी, अन्य
शब्दों में भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यही कहा है कि ‘ममैवांशो जीवलोके
जीवभूतः सनातनः’ इस देह में
जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है | अतः समस्त प्राणियों का जीवन भी परमात्मा
ही हैं |
‘तपस्वियों का तप मैं हूँ’ ऐसा ही योगेश्वर श्रीकृष्ण
ने (८/४) में भी कहा है कि ‘अधियज्ञः अहम् एव अत्र देहे’ अर्थात् इस देह में यज्ञों का, तपों
का भोक्ता मैं हूँ और यहाँ कहते हैं कि तपस्वियों का तप मैं हूँ अर्थात् माया के
पाश से मुक्त होने को, जो इन्द्रियों, मन, बुद्धि और शरीर के प्रति संयम अग्नि
रूपी तप है उस तप का भोक्ता और उस तप का परिणाम भी मैं ही हूँ | यहाँ जानने और मनन
चिन्तन करने योग्य यह है कि पुरूषों का पुरुषार्थ, वेदों में ‘ॐ’ जीवों में उनका
जीवन और तपस्वियों का तप सभी परमात्मा के अव्यक्त, अचिन्त्य और निर्विकार तत्त्व
हैं | तथा इस क्रम में कहते हैं कि
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् |
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्
|| (७/१०)
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् |
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ||
(७/११)
बीजम्
माम् सर्व भूतानाम् विद्धि पार्थ सनातनम् |
बुद्धि
बुद्धि मताम् अस्मि तेजः तेजस्विनाम् अहम् || (७/१०)
बलम्
बल वताम् च अहम् काम राग विवर्जितम् |
धर्म
अविरुद्धः भूतेषु कामः अस्मि भरत ऋषभ || (७/११)
बीजम्(बीज),
माम्(मुझको),
सर्व(समस्त),
भूतानाम्(प्राणियों का),
विद्धि(जान),
पार्थ(पार्थ),
सनातनम्(सनातन)
| बुद्धि (बुद्धि),बुद्धि(बुद्धि),
मताम्(वालों की)
अस्मि(हूँ),
तेजः(तेज),
तेजस्विनाम्(तेजस्वियों का), अहम्(मैं)
|| (७/१०)
बलम्(बल),
बल(बल),
वताम्(वालोका),
च(और),
अहम्(मैं),
काम(काम),
राग(राग),
विवर्जितम्(रहित) | धर्म(धर्म),
अविरुद्धः(अनुसार), भूतेषु(प्राणियों में),
कामः(काम),
अस्मि(हूँ),
भरत(भरतवंशियों में),
ऋषभ(श्रेष्ठ)
|| (७/११)
पार्थ
! समस्त प्राणियों का सनातन बीज मुझको जान, मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और
तेजस्वियों का तेज हूँ | (७/१०)
भारतवंशियों
में श्रेष्ठ ! मैं बलवानों का कामना और आसक्तिरहित बल, प्राणियों में धर्मानुसार
काम हूँ | (७/११)
‘समस्त प्राणियों का सनातन बीज मुझको
जान’ यहाँ ध्यान देने योग्य है
कि परमात्मा स्त्री पुरुष के रज वीर्य की बात नहीं कर रहे हैं, रज वीर्य से ही
जन्म होता हो तब मृत्यु तो एकदम असम्भव है क्योंकी फिर जीवन का अन्य कोई कारण तो
हुआ नहीं, तब मृत्यु का क्या कारण हुआ ? वस्तुतः स्त्री पुरुष के मिलन से एक स्थूल
शरीर की उत्पत्ति होती है, जिसमें अपना कोई जीवन नहीं होता, वह केवल एक पंचभोतिक
देह होती है, अपितु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यहाँ सनातन बीज की बात कही है | सनातन
अर्थात् वह जीव जो इस स्थूल देह को धारण करने के कारण देही कहलाता है और वह इस
जीवभूत अर्थात् इस देह में परमात्मा का सनातन अंश जीवात्मा है (१५/७) और यह देही
भी अव्यक्त, अचिन्त्य और निर्विकार ही होता है |
‘बुद्धिमानों की बुद्धि मैं हूँ’ इस कृष्णयोग की प्रस्तावना
करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि ‘व्यवसाय आत्मिका
बुद्धिः एका इह कुरु नन्दन’ (२/४१,पु०) इसमें व्यावसायिक निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है, समबुद्धि से युक्त
कृष्णयोग परायण साधक अपनी साधना स्वरूप जिस अमृततत्त्व का अर्जन करता है, उसका
संचय होता है, उसका कभी नाश नहीं होता | इस नाशरहित अर्जन और संचय को परमात्मा
श्रीकृष्ण व्यावसायिक बुद्धि कहते हैं तथा इस अमृततत्त्व के संचय का उद्देश्य और
परिणाम भी एक ही होता है, परमतत्त्व से एकीभाव तथा यह परमतत्त्व रूपी परमात्मा भी
एक ही है, यह कभी एक से अनेक हुआ ही नहीं | अतः उस एक परमतत्त्व की प्राप्ति को
प्रयत्न करने वाली समबुद्धि भी एक ही और निश्चयात्मक होती है | अन्यथा अव्यवसायिक
पुरूषों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं | (२/४१) जिनका
चित्त मायाजनित कामनाओं द्वारा हर लिया गया है, भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त
उन पुरूषों की परमात्मा में निश्चयात्मक व्यावसायिक बुद्धि नहीं होती | (२/४४) इस
एक व्यावसायिक और निश्चयात्मक बुद्धि की प्रस्तावना करके योगेश्वर श्रीकृष्ण कर्म
के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म
में कर्म देखता है, वह पुरूषों में बुद्धिमान है, वह अचल रूप से आत्मपरायण हुआ
सम्पूर्ण रूप से कर्मों को करता है | (४/१८) सारांशतः स्पष्ट है कि जो अनेक
शास्त्रों से विचलित बुद्धि के कारण जो स्वर्ग और भोगों की कामना करते हैं, वह
बुद्धिमान नहीं है अपितु जिसकी बुद्धि योगपरायण हो परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति
को अर्पित है, वही बुद्धिमान पुरुष है और इन आत्मपरायण बुद्धिमानों की बुद्धि का अर्थात्
ऐसी बुद्धि का परिणाम, प्राप्ति भी मैं ही हूँ |
‘तेजस्वियों का तेज हूँ’ भारतीय शास्त्रों के
अनुसार ‘तेज’ शब्द की पराकाष्ठा ब्रह्मतेज है और कृष्णयोग परायण साधक जब हृदयस्थ
ईष्ट का चिंतन मनन करता हुआ, उर्ध्वगति को प्राप्त होता है, वह साधक तेज को
प्राप्त होता है तथा जिस काल में यह साधक अपना उत्थान करता हुआ ब्रह्म की प्राप्ति
करता है, उस काल में उस साधक का तेज ब्रह्म तत्त्व का स्पर्श कर उस अक्षय ब्रह्म
में विलय हो जाता है और साधक ब्रह्ममय हो जाता है | अतः तेजस्वियों का अर्थात्
अमृततत्त्व का पान करनेवाले योगपरायण साधकों की वह प्राप्ति जो ब्रह्म का
साक्षात्कार कराती है, मिलन कराती है , वह तेज है | अतः परमात्मा स्वरूप ही है | यह
तेज भी अव्यक्त,अचिन्त्य और निर्विकार है |
‘बलवानों का आसक्ति और कामनारहित बल मैं
हूँ’ वैसे तो सभी बलवान बनने की
चेष्टा करते हैं, कोई शरीर से, कोई धन से, कोई राज से तो कोई राजनीती से परन्तु
योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि आसक्ति और कामना रहित बल जो काम और राग से
परे है, वह बल मैं हूँ | स्वतः सिद्ध है कि पुरुष का जो बल, जो सामर्थ्य काम और
राग से परे होता है, वह परमात्मा को ही समर्पित होता है | क्योंकी
‘धर्म अविरुद्धः
भूतेषु कामः अस्मि भरत ऋषभ’ भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! धर्म के अनुकूल काम अर्थात्
प्राप्ति योग्य कामना मैं हूँ | किस धर्म के अनुकूल ? स्वर्ग परायण अथवा भोग
परायण, पाप पुण्यों वाले वैदिक धर्म के अनुकूल नहीं अपितु उस धर्म के अनुकूल जिसके
लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न
विद्यते | स्वल्पमप्यस्य
धर्मस्य त्रायते महतो भयात् || (२/४०) अर्थात् इसमें प्रयत्न के आरम्भ का नाश नहीं होता, कोई विपरीत
दोष भी विद्यमान नहीं है तथा इस धर्म का थोड़ा सा भी आचरण महान भय से रक्षा करता है
| (२/४०) उस धर्म के प्रति कामना भी मैं ही हूँ अर्थात् ऐसी कामना का परिणाम भी
मैं ही हूँ |
योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों का आगे
अध्ययन करने से पहले अब तक जो जाना उस पर एक मनन | योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि
उनकी अष्टधामूल प्रकृति और उनकी ही चेतन प्रकृति के संयोग से उत्पन्न यह सम्पूर्ण
सृष्टि, यह अखिल ब्रह्माण्ड सूत्र में मणियों के सदृश्य उनमें गुँथा हुआ है और इस
तथ्य को, इस ज्ञान को विज्ञान सहित कहकर, यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि सबका मूल
उदगम, कारण, आश्रय, आधार स्वयं परमतत्त्व परमात्मा ही हैं, उनके अतिरिक्त कोई अन्य
अव्यक्त कारण हो, ऐसा भी नहीं है | दृश्य अदृश्य, चल अचल, ज्ञात अज्ञात इस अखिल
ब्रह्माण्ड में जो भी है, उसके मूल में कारण परमतत्त्व परमात्मा ही हैं और इसी
तथ्य के साक्षात्कार भाव को ‘वासुदेव सर्वम्’ कहते हैं और अब योगेश्वर श्रीकृष्ण
द्वारा कहे तथ्यों पर एक संक्षिप्त मनन करते हैं |
उदाहरण
स्वरूप योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जल तत्त्व की तन्मात्रा अर्थात् रस मैं हूँ
| तात्पर्य यह कि रस की, स्वाद की अनुभूति तभी हो सकती है, जब वह जल रूप में स्वाद
तन्तुओ को प्राप्त हो, जैसे ईमली की गांठ को मुंह में डालने पर उसका रस, उसका
स्वाद तभी जान पड़ता है, जब वह ल़ार में घुलकर स्वाद तन्तुओ के संपर्क में आती है |
अतः एक तथ्य तो यह हुआ कि रस की, स्वाद की अनुभूति जल तत्त्व के माध्यम से ही होती
है | दूसरा जानने योग्य तथ्य यह है कि क्या परमात्मा शहद में मीठे, नमक में नमकीन,
ईमली में खट्टे अथवा मिर्च में तीखे हो जाते हैं, ऐसा नहीं है | पदार्थ का रस,
पदार्थ का स्वाद उस पदार्थ का अपना प्रकृतिजन्य गुणधर्म है, जबकि जल तत्त्व से जल
की तन्मात्रा की अभिव्यक्ति अर्थात् रस की अभिव्यक्ति परमात्मा तत्त्व है | कहने
का तात्पर्य यह कि शहद का, शबरी के बेरों का, यशोदा माता के माखन का स्वाद आज भी
वही है, क्योंकी परमात्मा सदैव एक रस ही है, वह सनातन, अव्यक्त, अचिन्त्य है, वाणी
का विषय नहीं है अतः उनकी तन्मात्राओं की अभिव्यक्ति भी एक रस ही है, सनातन है,
उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता | अब परमात्मा के इस जल तत्त्व में रस रूपी
अभिव्यक्ति के तीसरे तथ्य पर मनन करते हैं
कि परमात्मा की अष्टधामूल प्रकृति के कारण भी इस रस तत्त्व की अभिव्यक्ति में
परिवर्तन होता है, उदाहरण स्वरूप आम का फल लें | प्रकृति के गुणों के कारण आम
मीठा, खट्टा, स्वादहीन और कितने ही भिन्न से प्रतीत होते स्वादों में भासता है |
यह एक ही पदार्थ का भिन्न रस का गुणधर्म जल तत्त्व की तन्मात्रा रस का नहीं अपितु
उस वृक्ष के गुणधर्म है, जो प्रकृतिजन्य गुणों के कारण होते हैं और यह एक अत्यंत
ही महत्वपूर्ण तथ्य है, अन्यथा सभी आमों का रस परमात्मा स्वरूप होने से एक ही होना
चाहिये, परन्तु ऐसा नहीं है, यह हम जानते हैं |
और इसी प्रकार सभी प्राणी उसी एक
परमात्मा के सनातन अंश है, इस तथ्य के अनुसार सभी मनुष्यों का स्वभाव, गुणधर्म भी
एक जैसा और परमात्मा स्वरूप ही होना चाहिये, यही सत्य सा भासता भी है, क्योंकी
योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार समस्त प्राणियों का बीज, जीवन भी वही हैं, सबका मूल
उदगम, आधार, आश्रय भी वही हैं, तब क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि
मनुष्य का संसार से यह जो बंधन है उसके मूल में भी परमात्मा ही कारण है और ऐसा
होने से मनुष्य के बंधन का दोष परमात्मा को लगता है, परन्तु ऐसा नहीं है |
योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ‘निर्दोषम् हि समम् ब्रह्म’ (५/१९,उ०) वह ब्रह्म
निर्दोष और सम है अर्थात् वह ब्रह्म समस्त दोषों से परे निर्दोष भाव से स्थित है
और समस्त प्राणियों के प्रति समभाव से स्थित है | तब वह परमात्मा समस्त प्राणियों
का मूल कारण होने पर भी, मनुष्य के इस संसार बंधन के कारण से किस प्रकार लिप्त
नहीं है | इस तथ्य को, अपने समग्र रूप को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते
हैं कि
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये |
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि
|| (७/१२)
ये
च एव सात्त्विकाः भावाः राजसाः तामसाः च ये |
मत्तः
एव इति तान् विद्धि न तु अहम् तेषु ते मयि || (७/१२)
ये(जो),
च(और),
एव(ही),
सात्त्विकाः(सात्त्विक), भावाः(भाव),
राजसाः(रज),
तामसाः(तम),
च(और),
ये(जो)
| मत्तः (मुझसे),
एव(ही),
इति(ऐसा),
तान्(उनको),
विद्धि(जान),
न(नहीं),
तु(परन्तु),
अहम्(मैं),
तेषु(उनमे),
ते(वे),
मयि(मुझमे)
|| (७/१२)
और
जो सात्त्विक भाव ही है और जो राजस और तामस भाव हैं, मुझसे ही हैं, उनको ऐसा जान,
परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं | (७/१२)
इस श्लोक से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण ने
अपनी अष्टधामूल प्रकृति की तन्मात्राओं और जीवों के प्रति कहा कि जल में रस मैं
हूँ, अग्नि में तेज मैं हूँ, पुरूषों का पुरुषार्थ मैं हूँ और वेदों में प्रणव मैं
हूँ, इत्यादि | परन्तु यहाँ कहते हैं कि जो भी सात्विक, राजसिक और तामसिक भाव हैं,
वे मुझसे ही हैं | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण के व्यक्तव्य का बुनियादी भेद समझना
आवश्यक है | पूर्व में कहा कि ‘मैं हूँ’ अब इन भावों के प्रति कहते हैं कि ‘यह भाव
मुझसे हैं’ अर्थात् यह भाव मैं नहीं हूँ | योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि ‘जो
सात्त्विक भाव ही है और जो राजस और तामस भाव हैं, वे मुझसे ही हैं, उनको ऐसा जान’; तात्पर्य यह कि सम्पूर्ण
जगत जो इन भावों से भावित रहता है, वह भाव मुझसे ही हैं परन्तु मैं इन भावों में
और ये भाव मुझमे नहीं है | यहाँ तक कि जो सात्विक भाव ही है, वह भी मुझसे ही हैं,
परन्तु मैं सात्विक भाव में भी नहीं हूँ और सात्विक भाव भी मुझमें नहीं है |
इसलिये ही परमात्मा तत्त्व भावों से परे, अतीत यहाँ तक की सात्विक भावों से भी अतीत
हुआ ‘भावातीत’ कहा जाता है |
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इन भावों को
चौदहवें अध्याय में सांख्य दृष्टि से भलीभाँति वर्णित करा है, संक्षेप में
योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहे अनुसार यह भाव प्रकृतिजन्य हैं अर्थात् अष्टधामूल जड़
प्रकृति और चेतन प्रकृति, जीवरुपा प्रकृति के संयोग से उत्पन्न होते है | क्योंकी
यह दोनों प्रकृति परमात्मा से उत्पन्न हैं, इसलिये यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते
हैं कि यह भाव मुझसे ही होते हैं, ऐसा जान परन्तु वे मुझमें और मैं उनमें नहीं हूँ
| यह भाव जो जड़ रूपी अष्टधामूल प्रकृति और जीवरुपा चेतन प्रकृति के संयोग से
उत्पन्न होते है, यह क्या करते हैं, इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते
हैं कि
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् |
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ||
(७/१३)
त्रिभिः
गुण मयैः भावैः एभि सर्वम् इदम् जगत् |
मोहितम्
न अभिजानाति माम् एभ्यः परम् अव्ययम् || (७/१३)
त्रिभिः(तीन),
गुण(गुण),
मयैः(मयी),
भावैः(भावों से),
एभि(इन),
सर्वम्(समस्त),
इदम्(यह),
जगत्(जगत)
| मोहितम् (मोहग्रस्त होकर), न(नहीं),
अभिजानाति(जानता), माम्(मुझको),
एभ्यः(इनसे),
परम्(परं),
अव्ययम्(अविनाशी)
|| (७/१३)
इन
तीन गुणमयी भावों से यह समस्त जगत मोहग्रस्त होकर, इनसे परं अर्थात् अतीत मुझ
अविनाशी को नहीं जानता | (७/१३)
इन तीन गुणमयी भावों से अर्थात् यह जो
सत, रज और तम भाव पूर्व श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे गये हैं, यह भाव
गुणमयी हैं तात्पर्य यह कि यह जो भाव कहे गये हैं, इन तीनों भावों के संयोग वियोग
से ही, मिश्रण से ही मनुष्यों के जो भाव होते हैं, उनके अनुरूप ही मनुष्यों में
गुण उत्पन्न करते हैं और इन तीन गुणमयी भावों से यह समस्त जगत मोहग्रस्त हो रहा है
अर्थात् इन्ही भावों के कार्यरूप उत्पन्न गुणों से यह समस्त जगत दैवी अथवा आसुरी
गुणों से भावित हो रहा है यह गुण भावों के अनुरूप दैविक हो अथवा आसुरी, मनुष्यों
के यह गुण ही उन्हें मोहग्रस्त करते हैं, मोहग्रस्त अर्थात् उन्हें प्रकृति से
बांधे रखते हैं | यहाँ तक कि दैविक गुण निर्मल और पवित्र होने पर भी मनुष्यों को
मोहग्रस्त कर, स्वर्ग की कामना और ज्ञान के अभिमान से बांधे रखते हैं, समस्त जगत
को मोहग्रस्त करते हैं और इसी मोह के कारण उत्पन्न मूढ़ता से, इन भावों से परं
अर्थात् इन भावों से अतीत मुझ ‘भावातीत’ को, इन भावों के कारण उत्पन्न हुए गुणों
से भी अतीत मुझ ‘गुणातीत’ को, मुझ अविनाशी को यह मोहग्रस्त जगत नहीं जानता | यहाँ
जो दैवी और आसुरी गुणों की चर्चा हमने करी है और यह किस प्रकार मनुष्यों को बाँधते
हैं, इस का विस्तृत विवरण योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सोलहवें अध्याय में दिया है | यहाँ
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जितना कहा, उसी के अनुसार मनन करेंगे | यहाँ योगेश्वर कहते
हैं कि मुझ अविनाशी को यह मोहग्रस्त जगत नहीं जानता | तब इस मोह का कारण क्या है
और इस मोहभंग का उपाय क्या है ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं |
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||
(७/१४)
दैवी
हि एषा गुण मयी मम माया दुरत्यया |
माम्
एव ये प्रपद्यन्ते मायाम् एताम् तरन्ति ते || (७/१४)
दैवी(दैवी),
हि(क्योंकी),
एषा(यह),
गुण(गुण),
मयी(मयी),
मम(मेरी),
माया(माया),
दुरत्यया(बड़ी दुस्तर है),
| माम् (मुझको),
एव(ही),
ये(जो),
प्रपद्यन्ते(भजते हैं), मायाम्(माया का),
एताम्(इस),
तरन्ति(तरते हैं),
ते(वे)
|| (७/१४)
क्योंकी
यह गुणमयी मेरी दैवीमाया बड़ी दुस्तर है, जो मुझको ही भजते हैं वे इस माया को तरते
हैं | (७/१४)
समस्त जगत इन भावों से मोहग्रस्त रहता है
क्योंकी यह गुणमयी दैवीमाया बड़ी दुस्तर है, दुस्तर अर्थात् इसके प्रभाव से पार
पाना कठिन है | अष्टधामूल प्रकृति और चेतन प्रकृति के संयोग से उत्पन्न यह जो
सृष्टि है और जैसा योगेश्वर ने पहले कहा है, इस जीवरुपा चेतन शक्ति ने यह जगत धारण
किया हुआ है, यह जो संयोग है, इस को योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ अपनी दैवीमाया कहते
हैं क्योंकी यह सब उनसे ही उत्पन्न है, इसका कोई अन्यत्र कारण भी नहीं है | इतना
कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह दैवीमाया बड़ी ‘दुरत्यया’ है अर्थात् बड़ी
दुस्तर है, इसके पाश से, इन भावों से, इन गुणों से पार पाना बहुत कठिन है | अतः
स्पष्ट है कि मनुष्य का इस संसार से जो बंधन है वह इन भावों के कारण ही हैं और
भावों के पार जाना ही कृष्णयोग का अभिप्राय है, परन्तु मनुष्य के भावों का, उसके
गुणों का अपकर्ष उत्कर्ष होता रहता है, यह मनुष्य की विवेकबुद्धि के आधार पर उसके
आचरण पर निर्भर करता है, कृष्णयोग परायण होकर जब मनुष्य के अपने स्व-भाव का समभाव,
समबुद्धि से युक्त होकर रूपांतरण करता है, उस रूपांतरण स्वरूप प्राप्त परं-भाव ही
इस कृष्णयोग की कुंजी है और यही अध्यात्मविद्या है, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार
‘स्वभावः अध्यात्मम् उच्यते’ (८/३) स्वभाव अध्यात्म कहलाता है अर्थात्
स्व-भाव को जानने का ज्ञान, विद्या ही अध्यात्मविद्या है, ब्रह्म ज्ञान है और इस
ब्रह्मज्ञान को, इस अध्यात्मविद्या को ज्ञात करके जो योगपरायण साधक अपने स्व-भाव
को ज्ञात कर लेता है, वही कृष्णयोग परायण
साधक अपने स्व-भाव का रूपांतरण कर परं-भाव को प्राप्त करता है | यहाँ कृष्णयोग
परायण होकर अपने स्व-भाव को ज्ञात करना है, उसके बौद्धिक ज्ञान से यहाँ कोई
तात्पर्य नहीं है | अपने स्व-भाव को किस प्रकार ज्ञात करा जा सकता है, इस पर
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो मुझको ही भजते हैं अर्थात् मेरी शरण होते हैं,
वे इस माया को तरते हैं | परमात्मा की शरण किस प्रकार हुआ जाता है, उनको किस
प्रकार भजा जाता है, इस विषय पर एक मनन |
योगेश्वर श्रीकृष्ण पहले कह आये हैं कि
मैं आत्ममाया से, योगमाया से प्रकट होता हूँ तथा यह भी कहते हैं कि मैं ‘भावातीत’
हूँ, ‘गुणातीत’ हूँ और यहाँ इस श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपनी एक दूसरी
माया ‘दैवीमाया’ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मेरी अष्टधामूल प्रकृति और मेरी
ही चेतन प्रकृति के संयोग से उत्पन्न यह तीन भावों से भावित माया ‘दैवीमाया’ बड़ी
ही दुस्तर है | अतः स्पष्ट है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दो प्रकार की माया का
स्पष्टीकरण गीता शास्त्र में किया है | एक तो परमतत्त्व परमात्मा की आत्ममाया,
योगमाया है जो परमार्थ हेतु अर्थात् परम अर्थ हेतु है, जो परमतत्त्व परमात्मा को
साक्षात् कराती है, संसार बंधन से, आवागमन से मुक्ति दिलाती है और दूसरी
‘दैवीमाया’ है जो भावों से, गुणों से भावित रहती है, वह इन सांसारिक देवी देवतओं
की माया है, जो संसार में ही भटकाती है, स्वर्ग दिखाती है, नरक दिखाती है, उत्तम
अधम योनियों में घुमाती है, परमतत्त्व परमात्मा को विस्मृत कराकर, भावों से, गुणों
से भावित करके अपने से बांधे रखती है |
माया दोनों ही परमतत्त्व परमात्मा की है,
आत्ममाया भी और दैवीमाया भी | अब श्रद्धा मनुष्य की है कि वह किसकी शरण ग्रहण करता
है, वह आत्ममाया की शरण ग्रहण करके, आत्मपरायण होकर हृदयस्थ ईष्ट को भजता है अथवा
भावों से, गुणों से भावित होकर, आसक्ति और कामनाओं से दैवीमाया के देवी देवताओं को
पूजता है, द्रव्ययज्ञ करता है, मठों की, मंदिरों की शरण जाता है, पुण्य पाप के
शास्त्रों से भावित रहता है, सुखों की, स्वर्ग की कामना के कारण संसार बंधन को,
आवागमन को, ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी गठरी शयनं’ को स्वीकार करता है |
यहाँ तक योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने सृष्टि की रचना, इस सृष्टि के कण कण में परमात्मा तत्त्व की उपस्थिति
और इस सबका कारण, मुल उदगम, आश्रय और आधार उसी एक परमतत्त्व परमात्मा को बताया,
उसके पश्चात् उपर्युक्त तीन श्लोकों में समस्त प्राणियों के संसार बंधन के कारण को
स्पष्ट करते हुए गुणमयी दैवीमाया को स्पष्ट किया, अब योगेश्वर श्रीकृष्ण इन भावों से, गुणों से
भावित मनुष्यों का उनके स्वभाव के, गुणों के अनुसार वर्णन करते हैं |
जैसा कि हम सभी थोड़ा बहुत
जानते हैं कि दो प्रकार के मनुष्य होते है, आस्तिक और नास्तिक, आस्तिक अर्थात् जो
परमात्मा को पूजते हैं और नास्तिक अर्थात् जो किसी को भी नहीं पूजते | योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने गीता शास्त्र में आस्तिक को ‘सुकृतिनः’ और नास्तिक को ‘दुष्कृतिनः, कहा है |
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः
|
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ||
(७/१५)
न
माम् दुष्कृतिनः मूढाः प्रपद्यन्ते नर अधमाः |
मायया
अपहृत ज्ञानाः आसुरम् भावम् आश्रिताः || (७/१५)
न(नहीं),
माम्(मुझको),
दुष्कृतिनः(दुष्ट कर्म करनेवाले),
मूढाः(मूढ़जन),
प्रपद्यन्ते(भजते हैं), नर(नर),
अधमाः(अधम)
| मायया(माया से),
अपहृत(हरे हुए),
ज्ञानाः(ज्ञानवाले),
आसुरम्(आसुरी),
भावम्(भाव के),
आश्रिताः(आश्रितजन)
|| (७/१५)
माया
द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले, अधम नर, आसुरी भाव के आश्रित, दुष्कर्मी, मूढ़जन मुझको
नहीं भजते | (७/१५)
माया द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले तात्पर्य
यह कि जिन्हें परमात्मा की तीन भावों के अनुसार तीन गुणों वाली दैवीमाया ने
पूर्णतया मोहग्रस्त कर रखा है, जिनकी विवेकबुद्धि का पूर्णतया नाश कर रखा है, ऐसे
माया द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले अधम नर अर्थात् ऐसे मनुष्यों का आधार, आश्रय केवल
अधोगति है | इन मनुष्यों को पुनः मनुष्य योनि भी प्राप्त नहीं होती, वे केवल निम्न
योनियों में ही जन्म पाते है क्योंकी यह आसुरी भाव के आश्रित होते हैं | यह आसुरी
भाव के आश्रित अधम नरों का विस्तृत वर्णन आगे आयेगा | यह दुष्कर्मी अर्थात् यह
केवल दूषित कर्मों में ही लीन रहते हैं,
जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में कहा था कि ‘दूरेण हि अवरम्
कर्म बुद्धि योगात् धनञ्जय | (२/४९,पु०) धनंजय बुद्धि से युक्त कर्मों की अपेक्षा अन्य
कर्म अत्यंत ही निम्न श्रेणी के हैं, और यहाँ कहते हैं कि माया द्वारा हरे हुए
ज्ञानवाले अर्थात् जो विवेकबुद्धि से, योग बुद्धि से युक्त नहीं हैं, वे दुष्कर्मी
हैं, मूढ़ हैं, उनका ज्ञान माया द्वारा हरा जा चुका है | ऐसे लोग मुझको नहीं भजते |
मुझको अर्थात् आत्ममाया में स्थित मुझ परमात्मा को अथवा मेरी दैवीमाया में स्थित
देवी देवतओं को भी नहीं भजते | तब आपको भजता कौन है ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण
कहते हैं कि
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ||
(७/१६)
चतुः
विधाः भजन्ते माम् जनाः सुकृतिनः अर्जुन |
आर्तः
जिज्ञासुः अर्थार्थी ज्ञानी च भरत ऋषभ || (७/१६)
चतुः(चार),
विधाः(प्रकार के),
भजन्ते(भजते हैं),
माम्(मुझको),
जनाः(जन),
सुकृतिनः(अच्छे कर्म करनेवाले)
अर्जुन(अर्जुन)
| आर्तः(दुखी, पीड़ित),
जिज्ञासुः(जिज्ञासु), अर्थार्थी(अर्थ चाहने वाले),
ज्ञानी(ज्ञानी),
च(और),
भरत(भरतवंशियों में),
ऋषभ (श्रेष्ठ)
|| (७/१६)
भारतवंशियों
में श्रेष्ठ अर्जुन ! अच्छे कर्म करनेवाले चार प्रकार के लोग मुझको भजते हैं,
दुखी, जिज्ञासु, कामनाओं में आसक्त और ज्ञानी | (७/१६)
पूर्व श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने
जिन मनुष्यों को ‘दुष्कृतिनः’ कहकर संबोधित किया था,
उसके विपरीत जो परमात्मा को भजते हैं, उनको योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ ‘सुकृतिनः’ अर्थात् जिनका ज्ञान,
जिनकी विवेकबुद्धि का माया द्वारा हरण नहीं हुआ है, जो पुण्यकर्म और पापकर्म के
भेद को विस्मृत नहीं किये हुए हैं और इसी कारण अच्छे कर्म करनेवाले चार प्रकार के
लोग परमात्मा को भजते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने परमात्मा को भजने वाले मनुष्यों
को, उनके भावों के, गुणों के आधार पर उन्हें चार प्रकार से विभक्त करके कहा है |
वे चार प्रकार के भक्त क्रमशः आर्तः, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी हैं |
आर्तः अर्थात् जो सांसारिक क्लेशों से,
दुःखो से अर्थात् दैहिक, दैविक अथवा भौतिक दुःखो से पीड़ित हैं, वे दुःखो के निवारण
हेतु हृदयस्थ ईष्ट की, सांसारिक देवी देवतओं की शरण में जाते हैं | अर्थार्थी
अर्थात् कामनाओं में आसक्त, अर्थ हेतु अर्थात् सांसारिक भोग सामग्री की प्राप्ति
हेतु, सुखों की, भोगों की, स्वर्ग आदि की कामना रखनेवाले भी परमात्मा की शरण में
जाते हैं, उन्हें भजते हैं | तीसरा भक्त जिज्ञासु है, यह आर्तः और अर्थार्थी
भक्तों से परे परमात्मा तत्त्व को जानने की जिज्ञासा रखता है, जिस प्रकार अर्जुन
ने श्रेय की जिज्ञासा व्यक्त की थी, उसी प्रकार अथवा उससे उन्नत साधन परायण,
योगपरायण भक्त जिज्ञासु कहलाते हैं क्योंकी परमतत्त्व परमात्मा को अभी इन्होने
साक्षात् नहीं करा है परन्तु साक्षात्कार की जिज्ञासा रखते हैं, इसलिये जिज्ञासु
कहलाते हैं | तथा चोथे प्रकार के ज्ञानी भक्त के विषय में योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ
कहते हैं कि
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते
|
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः
|| (७/१७)
तेषाम्
ज्ञानी नित्य युक्तः एक भक्तिः विशिष्यते |
प्रियः
हि ज्ञानिनः अत्यर्थम् अहम् स च मम प्रियः || (७/१७)
तेषाम्(उनमें),
ज्ञानी(ज्ञानी),
नित्य(नित्य),
युक्तः(युक्त),
एक(एका),
भक्तिः(भक्ति, निष्ठ),
विशिष्यते(विशिष्ठ है) | प्रियः(प्रिय),
हि (क्योंकी),
ज्ञानिनः(ज्ञानीको),
अत्यर्थम्(अत्यधिक), अहम्(मैं),
स:(वह),
च(और),
मम(मुझे),
प्रियः(प्रिय है)
|| (७/१७)
उनमें
नित्य युक्त एकनिष्ठ ज्ञानी विशिष्ठ है, क्योंकी ज्ञानी को मैं अत्यधिक प्रिय हूँ
और वह मुझे प्रिय है | (७/१७)
उनमें से अर्थात् अभी पूर्व श्लोक में
कहे चार प्रकार के भक्तों में नित्य युक्त अर्थात् नित्य निरन्तर सतत धारावत
योगपरायण, योग से युक्त तथा एक निष्ठ ज्ञानी विशिष्ठ है | एक निष्ठ अर्थात्
योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार (२/५३) शास्त्रीय मोह से भी उपराम बुद्धि जिस काल में
परमात्मा के वचनों में एक निष्ठा को प्राप्त हो जाती है, तब साधक अचलरूप से
एकनिष्ठा को प्राप्त होकर ‘समाधौ’ अर्थात् परमात्मा को प्राप्त हो जाता है, परमात्मा
के साक्षात्कार को प्राप्त हो जाता है | योगेश्वर ने यहाँ इस भक्त को इससे भी
उत्तम भक्त कहा है क्योंकी यह नित्य
युक्त, एकनिष्ठ भक्त है अर्थात् जो साक्षात्कार के पश्चात् भी जहाँ यज्ञार्थ कर्म
करने से ना कोई लाभ है और ना यज्ञार्थ कर्म ना करने से कोई हानि, उसके पश्चात् भी
नित्य योग युक्त रहता है, यही ज्ञानी भक्त अर्थात् परमात्मा को साक्षात् करने के
पश्चात् भी नित्य योगयुक्त, एकनिष्ठ भक्त विशिष्ठ है क्योंकी ज्ञानी को मैं
अत्यधिक प्रिय हूँ, इसीलिये तो साक्षात्कार के पश्चात् भी नित्य एकनिष्ठ होकर
योगयुक्त रहता है तथा इस कारण वह परमात्मा को प्रिय है | परमात्मा को चारों भक्तों
में से यह ज्ञानी भक्त क्यों प्रिय है, उसे स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण
कहते हैं कि
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्
|
आस्थितः स: हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् || (७/१८)
उदाराः
सर्व एव एते ज्ञानी तु आत्मा एव मे मतम् |
आस्थितः
स:
हि युक्त आत्मा माम् एव अनुत्तमाम् गतिम् || (७/१८)
उदाराः(उदार हैं),
सर्व(सभी),
एव(ही),
एते(यह),
ज्ञानी(ज्ञानी),
तु(परन्तु),
आत्मा(आत्मा),
एव(ही),
मे(मेरा),
मतम्(मत में)| आस्थितः(स्थित है),
स: (वह),
हि(क्योंकी),
युक्त(युक्त),
आत्मा(आत्मा),
माम्(मुझमें),
एव(ही),
अनुत्तमाम्(अति उत्तम), गतिम्(गति)
|| (७/१८)
यह
सब ही (भक्त) उदार हैं, परन्तु ज्ञानी मेरे मत में आत्मा ही है, क्योंकी वह
युक्तात्मा अति उत्तम गति द्वारा मुझमें ही स्थित है | (७/१८)
यह सभी भक्त उदार है, भक्तों की यह
उदारता परमात्मा के प्रति नहीं अपितु स्वयं के प्रति है, इस सृष्टि का कोई नियन्ता
है, कोई विधिविधान है, इस भाव से, इस बुद्धि से भावित होकर वह परमात्मा तत्त्व को
भजता है, परमात्मा को विस्मरण ना करके वह अपने को अधोगति में नहीं डालता, यही इन
भक्तों की उदारता है | यह अन्य विषय है कि वह परमात्मा के किस स्वरूप को भजता है,
योगपरायण होकर एकनिष्ठा को प्राप्त कर वह हृदयस्थ ईष्ट को भजता है अथवा आसक्ति और
कामना से भावित होकर इस दैवीमाया के देवी देवतओं को भजता है, इस विषय पर योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने आगे विस्तार से प्रकाश डाला है | इस श्लोक में ज्ञानी के विषय में
कहते हैं कि
परन्तु ज्ञानी मेरे मत में ‘आत्मा’ ही है
अर्थात् उस साधक ने योगपरायण होकर केवल अपने स्वरूप को ही नहीं, आत्मज्ञान को ही
नहीं, हृदयस्थ ईष्ट के साक्षात्कार को ही नहीं अपितु मेरे स्वरूप को, जिसके लिये
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः’(१०/२०) मेरे हृदयस्थ
स्वरुप को, आत्मा को प्राप्त
कर लिया है क्योंकी वह युक्त
आत्मा अतिउत्तम गति द्वारा मुझमें ही स्थित है | मुझमें ही स्थित है अर्थात् अब वह
ब्रह्म स्वरूप ही है और यह स्थिति उसने अतिउत्तम गति द्वारा पायी है, अतिउत्तम गति
अर्थात् नित्ययुक्त, एक निष्ठा स्वरूप पायी है | यहाँ ध्यान देने योग्य यह है कि
जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में कहा है कि हजारों मनुष्यों में से कोई
सिद्धि के लिये यत्न करता है, यत्न करनेवालों सिद्धों में से भी कोई मुझको तत्त्व
रूप से विदित करता है | (७/३) अर्थात् यत्न करने वाले उन सिद्धों में से भी
जिन्होंने मुझ हृदयस्थ ईष्ट को साक्षात् करा है, उन सिद्धों में से भी जो कोई मुझे
तत्त्व रूप से अर्थात् मेरे समग्र रूप को साक्षात् कर पाता है, यह ज्ञानी भक्त ऐसा
सिद्ध है | इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ||
(७/१९)
बहूनाम्
जन्मनाम् अन्ते ज्ञानवान् माम् प्रपद्यते |
वासुदेवः
सर्वम् इति स महात्मा सुदुर्लभः || (७/१९)
बहूनाम्(अनेक),
जन्मनाम्(जन्मों के),
अन्ते(अन्त में),
ज्ञानवान्(ज्ञानी), माम्(मुझको),
प्रपद्यते(भजता है) | वासुदेवः(वसुदेव),
सर्वम्(सब कुछ),
इति(यह),
स: (वह),
महात्मा(महात्मा),
सुदुर्लभः(अत्यंत दुर्लभ है) || (७/१९)
अनेक जन्मों के अन्त में ज्ञानी ‘वासुदेवः सर्वम्’ ऐसा मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है | (७/१९)
अनेक जन्मों के अन्त में अर्थात् हृदयस्थ
ईष्ट से एकीभाव के पश्चात् भी नित्य निरन्तर योग युक्त साधक की जो प्राप्ति है, उस
पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह ज्ञानी ‘वासुदेवः सर्वम्’
भाव से मुझको भजता है अर्थात् सबकुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार मुझको प्रत्यक्ष
करता है, साक्षात् करता है, मेरे हृदयस्थ रूप को ही नहीं अपितु मेरे समग्र रूप को
भी साक्षात् करता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यहाँ
ज्ञानी भक्त का चित्रण किया और अर्जुन के समान जिज्ञासु भक्त के प्रति तो यह सम्पूर्ण
गीता शास्त्र ही समर्पित है, अब इससे आगे योगेश्वर श्रीकृष्ण आर्त और अर्थार्थी
भक्तों के विषय को लेते हैं, जो प्रकृतिजन्य भावों से, गुणों से भावित रहते हैं,
कामनाओं से भावित रहते हैं |
कामैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः
|
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ||
(७/२०)
कामैः
तैः तैः हृत ज्ञानाः प्रपद्यन्ते अन्य देवताः |
तम्
तम् नियमम् आस्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया | (७/२०)
कामैः(कामनाओं द्वारा),
तैः(उन),
तैः(उन),
हृत(हरा हुआ है),
ज्ञानाः(ज्ञान),
प्रपद्यन्ते(भजते हैं), अन्य(अन्य),
देवताः(देवताओं को)
| तम्(उन),
तम्(उन),
नियमम्(विधिविधान में),
आस्थाय(आस्था रखे हुए),
प्रकृत्या(प्रकृति, स्वभाव द्वारा),
नियताः (प्रेरित होकर),
स्वया(स्वयं की)
| (७/२०)
उन
उन कामनाओं द्वारा (जिनका) ज्ञान हरा हुआ है, स्वयं की ‘प्रकृत्या’ प्रकृति से,
स्वभाव द्वारा प्रेरित होकर, उन उन विधिविधान में आस्था रखते हुए अन्य देवतओं को
भजते हैं | (७/२०)
उन उन कामनाओं द्वारा जिनका ज्ञान हरा
हुआ है, श्लोक संख्या (७/१५) में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि माया के द्वारा
जिनका हरा हुआ है ऐसे ‘दुष्कृतिनः’| यहाँ इन दोनों के भेद पर मनन आवश्यक है, माया के द्वारा
जिनका ज्ञान हरा हुआ है, ऐसे ‘दुष्कृतिनः’, वस्तुतः मनुष्य शरीर पाकर भी पशुतुल्य
ही हैं, क्योंकी पशु और मनुष्य में केवल बुद्धि भेद है, पशु माया के पाश से बंधे
जीव हैं, जो केवल प्रकृतिजन्य गुणों के आधार पर जीवन व्यतीत करते हैं और वे मनुष्य
जिनका माया के द्वारा ज्ञान हरा हुआ है, वे भी प्रकृतिजन्य गुणों से ही जीवन
व्यतीत करते हैं, विवेकबुद्धि का, अच्छे बुरे का, पुण्य पाप का भेद वे नहीं जानते,
इन मनुष्यों के इन्ही भाव को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने आसुरी स्वभाव कहा है |
यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण जिन मनुष्यों के
संदर्भ में कह रहे हैं, उनका ज्ञान प्रकृति द्वारा नहीं अपितु उन मनुष्यों की
कामनाओं द्वारा हरा गया है | देह, देह के भोगों और देह के संबंधो को लेकर वे जो जो
कामनाएं करते हैं, उन उन कामनाओं द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, तात्पर्य यह
कि ऐसे मनुष्यों का स्वभाव पशुवत तो नहीं होता, ऐसे मनुष्य बुद्धि का आश्रय तो
लेते हैं परन्तु ‘प्रकृत्या’ प्रकृति के गुणों से, अपने स्वभाव द्वारा प्रेरित
होकर ऐसा मनुष्य कामनाओं द्वारा प्रेरित होकर कर्मों में प्रवृत होते हैं, जिसका
विस्तृत विवरण योगेश्वर आगे नौवें अध्याय में करेंगे और पूर्व में भी में कह आये
हैं कि जो कामनाओं में तन-मन से लिप्त हैं, जो पुण्यकर्मों के प्रशंसक वेद वाक्यों
में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि के अनुसार स्वर्ग ही परमप्राप्य तत्त्व है
और जो स्वर्ग से अधिक कोई अन्य उपलब्धि नहीं है, ऐसे वचन कहने वाले हैं | वे
अविवेकीजन जिस पुष्पित अर्थात् शोभायुक्त दिखावटी वाणी को कहते हैं, वे पाप पुण्य
कर्मफल रूपी जन्म तथा भोग एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की
क्रियाओं का विशेष रूप से वर्णन करते हैं, इस प्रकार जिनका चित्त कामनाओं द्वारा
हर लिया गया है, भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त उन पुरूषों की परमात्मा में
निश्चयात्मक व्यावसायिक बुद्धि नहीं होती | (२/ ४२,४३,४४) और यह भी स्पष्ट कर आये
हैं कि ऐसे मनुष्यों की बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती, अनन्त भेदों और शाखाओं वाली
होती है, ऐसे ही मनुष्यों के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कह रहे हैं कि कामनाओं
द्वारा जिनका ज्ञान हरा हुआ है, वह उन उन विधिविधान में आस्था रखते हुए ‘अन्य
देवतओं’ को भजते हैं |
यहाँ ‘अन्य देवताओं’ को और उन उन
विधिविधान को समझना भी आवश्यक है, अन्य देवतओं का प्रसंग गीता शास्त्र में यहाँ
पहली बार आया है | वस्तुतः जिस धर्म के प्रति अर्जुन ने कहा था कि ‘इति अनुशुश्रुम’ (१/४४), ऐसा हम सुनते
आये, सामाजिक मान्यताओं वाला धर्म, कामनाओं की पूर्ति हेतु धर्म, भोगों की, सुखों
की, स्वर्ग की प्राप्ति वाला धर्म, कुल धर्म इत्यादि | ऐसे धर्म में कामनाओं के
आधार पर विधिविधान की और देवताओं की रचना कर ली जाती है | वस्तुतः यह देवता
दैवीमाया के ही देवी देवता हैं, कामनाओं की पूर्ति तो करते हैं परन्तु कामनाओं से
अतीत होने को इस दैवीमाया में कोई विधिविधान नहीं है | तो क्या इन देवी देवतओं का
एक परमतत्त्व परमात्मा से अलग कोई व्यक्तित्त्व होता है क्योंकी योगेश्वर
श्रीकृष्ण में स्पष्ट रूप से कहा है, इस सृष्टि में, इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में
मेरे अन्यत्र कोई अन्य कारण नहीं है | तब यह ‘अन्य देवता’ और उन उन देवतओं का यह विधिविधान क्या है ? इसको स्पष्ट करते हुए
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि
यो यो यां यां तनुं भक्तः
श्रद्धयार्चितुमिच्छति |
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्
|| (७/२१)
यः
यः याम् याम् तनुम् भक्तः श्रद्धया अर्चितुम् इच्छति |
तस्य
तस्य अचलाम् श्रद्धाम् ताम् एव विदधामि अहम् || (७/२१)
यः(जो),
यः(जो),
याम्(जिस),
याम्(जिस),
तनुम्(देवता के रूप की),
भक्तः(भक्त),
श्रद्धया(श्रद्धापूर्वक),
अर्चितुम्(अर्चना, पूजा की), इच्छति(इच्छा रखता है),
| तस्य(उस), तस्य(उसकी), अचलाम्(अचल),
श्रद्धाम्(श्रद्धा), ताम्(उसमें), एव(ही),
विदधामि(करता हूँ),
अहम्(मैं)
|| (७/२१)
जो
जो भक्त जिस जिस देवता के रूप की श्रद्धापूर्वक अर्चनापूजा की इच्छा रखता है, उस
उस (भक्त की) श्रद्धा उसमें मैं ही अचल करता हूँ | (७/२१)
कामनाओं से परवश हुआ जो जो भक्त अर्थात्
आर्त अथवा अर्थार्थी भक्त जिस जिस कामनाओं से परवश होता है, उस उस कामना की पूर्ति
के लिये जिस जिस देवता के रूप की श्रद्धापूर्वक अर्चना पूजा की इच्छा रखता है,
तात्पर्य यह कि अपनी कामनाओं की पूर्ति को देवता के रूप की भी, उस देवता के
पंचभोतिक रूप की कल्पना करते हुए यह भक्त श्रद्धापूर्वक अर्चना पूजा का विधान भी
निर्धारित कर लेता है | उस उस भक्त की श्रद्धा उस उस देवता में, मैं ही अचल करता
हूँ | यहाँ ध्यान देने योग्य है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि उस उस भक्त की
श्रद्धा उस उस देवता में, मैं ही अचल करता हूँ | योगेश्वर आप ऐसा क्यों करते हैं ?
क्योंकी देवता नाम की कोई अन्य सत्ता होती, परमतत्त्व परमात्मा के अतिरिक्त इस
सृष्टि में कोई अन्य आश्रय, आधार, कारण होता तो वह ‘देव’ ही अपने भक्त की श्रद्धा
को स्थिर करता परन्तु ऐसी कोई भी सत्ता है ही नहीं, इसलिये परमात्मा ही उस भक्त की
श्रद्धा उस देवता में अचल करते हैं, स्थिर करते हैं | इस प्रकार योगेश्वर
श्रीकृष्ण अपने भक्तों की श्रद्धा उन उन देवताओं में स्थिर ही नहीं करते, अपितु
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते |
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ||
(७/२२)
सः
तया श्रद्धया युक्तः तस्य आराधनम् ईहते |
लभते
च ततः कामान् मया एव विहितान् हि तान् || (७/२२)
सः(वह),
तया(उस),
श्रद्धया(श्रद्धा से),
युक्तः(युक्त होकर),
तस्य(उसकी),
आराधनम्(आराधना),
ईहते(करता है)
| लभते(प्राप्त करता है),
च(और),
ततः(वहां से),
कामान्(कामनाओं को),
मया(मेरे),
एव(ही),
विहितान्(विधान द्वारा),
हि(निःसंदेह),
तान्(उनसे)
|| (७/२२)
वह
उस श्रद्धा से युक्त होकर उसकी आराधना करता है और उनसे मेरे ही विधान द्वारा उन
कामनाओं को निःसंदेह प्राप्त करता है | (७/२२)
पूर्व श्लोक के अनुसार परमात्मा ही उस
भक्त की श्रद्धा उस देवता में स्थिर करते हैं और वह भक्त उस श्रद्धा से युक्त होकर
उस देवता की आराधना करता है और मेरे ही विधान द्वारा उन कामनाओं को निःसंदेह
प्राप्त करता है | कामनाओं की प्राप्ति तो हो गयी परन्तु किसके द्वारा ? देवतओं के
द्वारा ? नहीं | मेरे ही अर्थात् परमतत्त्व परमात्मा के विधान द्वारा ही कामनाओं
की प्राप्ति होती है क्योंकी जैसा पहले मनन किया कि देवता नामक कोई सत्ता होती तो
भक्त की श्रद्धा भी वही स्थिर करती और श्रद्धा से युक्त भक्त की आराधना का फल भी
वही सत्ता देती, परन्तु ऐसी कोई भी सत्ता नहीं है, सर्वत्र उस एक परमतत्त्व
परमात्मा का विधान है | परन्तु भक्त को उसकी कामना की प्राप्ति तो हो ही जाती है,
तब इसमें अनुचित क्या है ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् |
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि
|| (७/२३)
अन्त
वत् तु फलम् तेषाम् तत् भवति अल्प मेधसाम् |
देवान्
देव यज्ञः यान्ति मत् भक्ताः यान्ति माम् अपि || (७/२३)
अन्त(अन्त),
वत्(वाले),
तु(परन्तु),
फलम्(फल),
तेषाम्(उन),
तत्(वह),
भवति(होते हैं),
अल्प(अल्प),
मेधसाम्(मति वालों के) |
देवान्(देवतओं को),
देव(देव),
यज्ञः(यज्ञ),
यान्ति(जाते हैं),
मत्(मेरा),
भक्ताः(भक्त),
यान्ति(जाता है),
माम्(मुझको),
अपि(भी)
|| (७/२३)
परन्तु
उन अल्प मतिवालों के वह फल अन्तवाले होते हैं, देवयज्ञ करनेवाले देवतओं को पाते
हैं, मेरा भक्त भी मुझे पाता है | (७/२३)
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी पूर्व में कहा
है कि ‘अहम्
कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयः तथा’ (७/६,उ०) मैं सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति और प्रलय रूप हूँ, सृष्टि का कारण
हूँ परन्तु उस जगत का उत्पत्ति और प्रलय, जो मेरी चेतन शक्ति द्वारा धारण किया
जाता है अर्थात् मेरी यह सम्पूर्ण सृष्टि, यावन्मात्र सम्पूर्ण जगत परिवर्तनशील और
मरणाधर्म है, यह सृष्टि जो दैवीमाया के अंतर्गत है, इसमें मेरे विधान अनुसार
उत्पत्ति, परिवर्तन और नाश होता ही रहता है, परन्तु सृष्टि का नाश, अन्त कभी नहीं
होता | इस विधान के अनुसार उन अल्पबुद्धि वालों के वह फल भी, जिनकी उत्पत्ति
देवतओं की आराधना स्वरूप होती है, अन्तवाले अर्थात् नाशवान होते हैं | अल्पबुद्धि
अर्थात् जिनकी बुद्धि का नाश माया द्वारा तो नहीं हुआ परन्तु जिनकी बुद्धि का नाश
उनकी कामनाओं द्वारा हुआ है, वे अल्पबुद्धि कहलाते हैं | जिसके लिये योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने कहा था कि इनकी बुद्धि अव्यवसायिक होती है, अव्यवसायिक अर्थात् किसका
अर्जन और संचय करना है, इस भेद को नहीं जानती क्योंकी व्यवसायिक बुद्धि वाले तो
योग परायण होकर, नाशवान फल की आसक्ति का त्याग करके, अविनाशी अमृततत्त्व का अर्जन
और संचय करते हैं, | अतः उन अल्पबुद्धि वालों के वह फल अन्तवाले, नाशवान होते हैं,
देवतओं की आराधना स्वरूप फल की, भोग की प्राप्ति की, उसे भोगा और उसका अन्त हो गया
| देवयज्ञ करनेवाले देवतओं को पाते हैं, अगर उन अल्पबुद्धि वालों की कामना सात्विक
और पवित्र भी हो, देवत्त्व की कामना भी हो तो वे देवतओं को पाते हैं, स्वर्ग पाते
हैं क्योंकी इससे श्रेष्ठ अविनाशी प्राप्ति को वे नहीं जानते | मेरा भक्त भी मुझे
पाता है, मुझे अर्थात् नाशवान फल को नहीं अपितु अविनाशी पद की प्राप्ति करता है,
जिसकी देवता भी याचना करते हैं |
अब
इन पूर्व श्लोकों में आये ‘अन्य देवतओं’ पर एक मनन, दैवीमाया के अंतर्गत यह अन्य
देवता कौन हैं ? योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि मैं आत्ममाया से, योगमाया से
प्रगट होता हूँ, अतः यह स्थापित तथ्य हुआ कि ब्रह्मत्व की प्राप्ति का विधान भी
आत्मपरायण होना, योगपरायण होना ही है | इस आत्ममाया से, योगमाया से ही परमात्मा की
प्राप्ति का विधान है, यही परमात्मा से साक्षात्कार कराती है, इसी साक्षात्कार
हेतु योगेश्वर श्रीकृष्ण के योगपरायण साधकों हेतु सर्वप्रथम कहा था कि पुरातन काल
में यज्ञों सहित प्रजा को रचकर प्रजापति ने कहा कि इन यज्ञों द्वारा तुम समृद्धि
को प्राप्त हो, यह तुम लोगों की
इष्टकामधुक अर्थात् ईष्ट संबंधी कामनाओं की पूर्ति करेगा | (३/१०) इस यज्ञ
के द्वारा तुम देवतओं को उन्नत करो, वे देवगण तुमको उन्नत करें, परस्पर उन्नत करते
हुए श्रेय को अर्थात् अविनाशी पद को, परमधाम को प्राप्त करोगे | (३/११) योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने जिन देवतओं की उन्नति का विधान किया था, वे देवता हृदय गुहा के
अन्तराल में, जहाँ परमात्मा के हृदयस्थ स्वरूप आत्मा का वास होता है, उस हृदय गुहा
के अन्तराल में परमदेव परमात्मा को प्राप्त करने हेतु दैविक सम्पदा का, दैविक
गुणों का, दिव्य अनुभूतियों का नाम है, जिनकी आराधना स्वरूप पुरुष दिव्य
अनुभूतियों से संपन्न होकर परमदेव की प्राप्ति हेतु देवत्त्व अर्जित करता है, यह
दैवी सम्पदा ही आसुरी सम्पदा का नाश करके उस तत्त्व की प्राप्ति कराती है, जिसे
अमृततत्त्व कहा जाता है |
परन्तु कालान्तर में अंतर्मुखी आराधना,
अंतर्मुखी आराध्य को मनुष्यों ने बहिर्मुखी कामनाओं से संलग्न कर दिया, अन्तर्मुखी
हृदयगुहा के समानांतर बहिर्मुखी देव गुहा अर्थात् एक मंदिर बनाकर, हृदयस्थ ईष्ट के
प्रति परमतत्त्व की प्राप्ति की आराधना का त्याग करके, कामनाओं की प्राप्ति हेतु
हृदयस्थ ईष्ट की मूर्तियाँ गढ़कर उसे इन मंदिरों में स्थापित कर दिया | योगपरायण
होकर यज्ञार्थ कर्मों के स्थान पर बाहर वेदियाँ रचकर, अनेक प्रकार के कर्मकाण्डों
का विधान कर लिया | कारण ? योगपरायण होकर साधना करने से तो उसी एक परमतत्त्व
परमात्मा की प्राप्ति का विधान है, परन्तु कामनाओं के कारण वह परमात्मा अब साध्य न
रहा, ध्येय ना रहा, अब मनुष्य का ध्येय कामनाओं की प्राप्ति और उनकी पूर्ति हेतु
काम्य कर्मों में प्रवृत होना हो गया | इसलिये इस सांसारिक कामनाओं की प्राप्ति
हेतु बहिर्मुखी मंदिर, बहिर्मुखी देवगुहा, बहिर्मुखी देव मूर्तियाँ, बहिर्मुखी
यज्ञ और बहिर्मुखी कर्मकाण्डों से बहिर्मुखी कामनाओं की, तुच्छ कामनाओं की
प्राप्ति में ही मनुष्य व्यस्त हो गया, इसीको को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अल्पबुद्धि
कहा क्योंकी जिस अन्तरात्मा की साधना स्वरूप, जिन हृदयस्थ ईष्ट की आराधना स्वरूप
मनुष्य परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति करता था, उसी साधना को बहिर्मुखी कर मनुष्य
अब अपनी तुच्छ कामनाओं की पूर्ति करता है |
हृदयस्थ ईष्ट का यही बहिर्मुखी सांसारिक
स्वरूप, दैवीमाया के अंतर्गत मनुष्य की कामनाओं की प्राप्ति के विधान को यह देवता
ही, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ‘अन्य देवतओं’ के नाम से जाने जाते हैं | वही
हृदयस्थ ईष्ट जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि यज्ञ द्वारा उन्नत देवता
तुम्हें इष्टान भोगान् अर्थात् ईष्ट सम्बन्धी भोगों को देते रहेंगे, तैः
दत्तान् अर्थात् केवल वे ही देनेवाले हैं
| जो इनको दिये बिना भोगता है, वह चोर ही है | (३/१२) योगेश्वर श्रीकृष्ण के
अनुसार ईष्ट सम्बन्धी भोगों को अर्थात् परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति को
अमृततत्त्व के अर्जन और संचय को, दैवी सम्पदा को ये देवता देते रहेंगे क्योंकी
केवल वे ही देनेवाले हैं | परन्तु जो इनको दिये बिना भोगता है अर्थात् जो हृदयस्थ
ईष्ट को ना भजकर, इन्हें कामनाओं की पूर्ति के लिये भजता है, वह चोर है क्योंकी
उसने परमतत्त्व की प्राप्ति के विधान को भोगों की प्राप्ति का विधान बना लिया |
योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार जीवन निर्वाह को आवश्यक भोगों की प्राप्ति केवल
समभाव, समबुद्धि से, कर्तव्य कर्म समझ कर करनी चाहिये, ना कि अन्य अन्य देवतओं की
आरधना द्वारा | योगेश्वर श्रीकृष्ण तो यहाँ तक कहते हैं कि अन्य देवतओं को पूजने
का सिद्धांत ही अयुक्तिसंगत है | (९/२३) तब भी यह जनसमुदाय आपको क्यों नहीं भजता ?
इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यते मामबुद्धयः |
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् || (७/२४)
अव्यक्तम्
व्यक्तिम् आपन्नम् मन्यते माम् अबुद्धयः |
परम्
भावम् अजानन्तः मम अव्ययम् अनुत्तमम् || (७/२४)
अव्यक्तम्(अव्यक्त),
व्यक्तिम्(स्वरूप को), आपन्नम्(प्राप्त हुआ),
मन्यते(मानते हैं),
माम्(मुझको),
अबुद्धयः(बुद्धिहीन)
| परम् (परं),
भावम्(भाव को),
अजानन्तः(ना जानते हुए),
मम(मेरे),
अव्ययम्(अविनाशी),
अनुत्तमम्(अत्ति उत्तम) || (७/२४)
मेरे
अति उत्तम अविनाशी परं भाव को ना जानते हुए, बुद्धि हीन मुझ ‘अव्यक्त’ को स्वरूप
को प्राप्त हुआ मानते हैं | (७/२४)
मेरे अतिउत्तम अविनाशी परं भाव को ना
जानते हुए, योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस तथ्य को आत्मसात करना ही मनुष्य मात्र की
दुविधा है, हम अपने स्व-भाव के कारण गुणाधीन हैं और योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने
परं-भाव के कारण गुणातीत हैं, गुणातीत परमात्मा जो कहता है, गुणाधीन मनुष्य उस
तथ्य को आत्मसात नहीं कर पाता | योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे अतिउत्तम
अविनाशी परं भाव को ना जानते हुए, बुद्धिहीन मनुष्य अर्थात् हम सभी, मुझ ‘अव्यक्त’
को अर्थात् देहधारी कृष्ण को नहीं अपितु जो कृष्ण नामक जीव से अपनी योगमाया से
प्रगट हुआ है, उस अव्यक्त स्वरूप को नहीं
जान पाता अपितु इसके विपरीत मुझ ‘अव्यक्त’ को स्वरूप को प्राप्त हुआ मानते हैं
अर्थात् देहधारी कृष्ण मानते हैं | इसी तथ्य को पुनः स्पष्ट करते हुए योगेश्वर
श्रीकृष्ण कहते हैं कि
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः |
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ||
(७/२५)
न
अहम् प्रकाशः सर्वस्य योग माया समावृतः |
मूढः
अयम् न अभिजानाति लोकः माम् अजम् अव्ययम् || (७/२५)
न(नहीं),
अहम्(मैं),
प्रकाशः(प्रत्यक्ष),
सर्वस्य(सभी को),
योग(योग),
माया(माया),
समावृतः( आवृत हुआ)
| मूढः(मूढ़ जन),
अयम्(यह),
न(नहीं),
अभिजानाति(जानते), लोकः(लोक),
माम्(मुझको),
अजम्(अजन्मा),
अव्ययम् (अविनाशी)
|| (७/२५)
मैं
योगमाया द्वारा भलीभाँति आवृत हुआ सभी के लिये प्रत्यक्ष नहीं होता, यह मूढ़जन लोक
(शरीर) में मुझ अजन्मा, अविनाशी को नहीं जानते | (७/२५)
मैं योगमाया द्वारा भलीभाँति आवृत हुआ
सभी के लिये प्रत्यक्ष नहीं होता तात्पर्य यह कि परमात्मा को प्रत्यक्ष देखने को
देह चक्षु नहीं अपितु ज्ञान चक्षु, आत्मज्ञान की आवश्यकता है, आत्मज्ञान की
प्राप्ति से पूर्व परमात्मा योगमाया से आवृत रहते हैं और योगेश्वर श्रीकृष्ण के
अनुसार ‘परन्तु जिन्होंने उस आत्मज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश कर दिया है, उनका
सूर्य की सदृश्य वह ज्ञान परमतत्त्व परमात्मा को प्रकाशित करता है | (५/१६) इसलिये
यह मूढ़जन लोक में अर्थात् इस शरीर में, देह में स्थित मुझ अजन्मा, अविनाशी को नहीं
जानते | क्योंकी जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने (४/६-९) में स्पष्ट किया है कि
परमतत्त्व परमात्मा किस प्रकार दिव्य रूप से प्रगट होते हैं और किस प्रकार दिव्य
कर्मो को करते हैं परन्तु हम मनुष्य परमात्मा के उस स्वरूप को ना जानकार केवल
देहधारी कृष्ण को ही जानते हैं क्योंकी गुणाधीन मनुष्य जहाँ तक देख पाता है, अपने
जैसी देह ही तो पाता है |
इसी कारण देह, देह के संबंधो और देह के
भोगों से भावित यह मनुष्य समुदाय ‘अन्य देवतओं’ को ही भजता है | अपने परं भाव को,
अजन्मा, अविनाशी स्वरूप को स्पष्ट करते हुए, योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं कि
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन |
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ||
(७/२६)
वेद
अहम् समतीतानि वर्तमानानि च अर्जुन |
भविष्याणि
च भूतानि माम् तु वेद न कश्चन || (७/२६)
वेद(जानता हूँ),
अहम्(मैं),
समतीतानि(भूत में हुए),
वर्तमानानि(वर्तमान में), च(और),
अर्जुन(अर्जुन),
| भविष्याणि (भविष्य में होंगे), च(और),
भूतानि(प्राणियों को)
माम्(मुझको),
तु(परन्तु),
वेद(जानता),
न(नहीं),
कश्चन(कोई भी)
|| (७/२६)
अर्जुन
! मैं भूतकाल में हुए और वर्तमान में (जो हैं) और भविष्य में होनेवाले प्राणियों
को जानता हूँ परन्तु मुझको कोई नहीं जानता | (७/२६)
योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने योगेश्वर स्वरूप
को, योग के भी ईश्वर होने को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अर्जुन ! मैं भूतकाल में
हुए, वर्तमान में जो हैं और भविष्य में होनेवाले समस्त प्राणियों को जानता हूँ,
परन्तु मुझको, मुझ योगेश्वर को, मेरे अजन्मा, अविनाशी स्वरूप को कोई नहीं जानता |
तात्पर्य यह कि परमतत्त्व परमात्मा भुत, वर्तमान और भविष्य रूपी काल से भी अतीत
‘कालातीत’ रूप से स्थित हैं, काल के सापेक्ष से, काल की गणना से भी परे हैं | यहाँ
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने समग्र रूप की एक और विभूति ‘कालातीत’ का संकेत भर दिया
है, इसका स्पष्टीकरण योगेश्वर श्रीकृष्ण अगले अध्याय में ‘सनातन अव्यक्त भाव’ और
‘अव्यक्तः अक्षरः इति उक्तः’ कह कर करेगें | इसी को ‘अहं एव अक्षय कालः’(१०/३३)
कहकर स्पष्ट करते हैं | यहाँ तो इन आर्त और अर्थार्थी भक्तों
के विषय में कहते हैं कि
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत |
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ||
(७/२७)
इच्छा
द्वेष समुत्थेन द्वन्द्व मोहेन भारत |
सर्व
भूतानि सम्मोहम् सर्गे यान्ति परन्तप || (७/२७)
इच्छा(इच्छा),
द्वेष(द्वेष),
समुत्थेन(द्वारा उत्पन्न),
द्वन्द्व(द्वंद्व),
मोहेन(मोहग्रस्त),
भारत(भारत)
| सर्व(समस्त),
भूतानि(प्राणी),
सम्मोहम्(सम्मोहित होकर),
सर्गे(संसार के जन्म मरण
चक्र में), यान्ति(जाते हैं),
परन्तप(परन्तप)
|| (७/२७)
परन्तप
भारत ! इच्छाद्वेष द्वारा उत्पन्न द्वंद्व से मोहग्रस्त समस्त प्राणी सम्मोहित
होकर संसार के जन्म मरण चक्र में जाते हैं | (७/२७)
इच्छा द्वेष द्वारा उत्पन्न द्वंद्व से
मोहग्रस्त समस्त प्राणी अर्थात् प्रकृतिजन्य भावों के कारण उनसे भावित होकर,
मोहग्रस्त होकर, अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये ‘अन्य देवताओं’ को भजते हुए समस्त
प्राणी संसार के जन्म मरण चक्र में जाते हैं | क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण के
अनुसार यह काम कभी ना तृप्त होने वाली अग्नि है, आप कितने ही जन्म इसकी तृप्ति में
लगा दे, यह तृप्त नहीं होती और मनुष्य संसार के जन्म मरण चक्र में घूमता ही रहता
है, माया के पाश से उसकी मुक्ति नहीं होती | तब क्या इस चक्र से बचने का कोई उपाय
नहीं है ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् |
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां
दृढव्रताः || (७/२८)
येषाम्
तु अन्तगतम् पापम् जनानाम् पुण्य कर्मणाम् |
ते
द्वन्द्व मोह निर्मुक्ताः भजन्ते माम् दृढव्रताः || (७/२८)
येषाम्(जिनका),
तु(परन्तु),
अन्तगतम्(अन्त हो गया है),
पापम्(पापों का),
जनानाम्(जनों का),
पुण्य(पुण्य),
कर्मणाम्(कर्मों द्वारा)
| ते(वे),
द्वन्द्व(द्वंद्व),
मोह(मोह से),
निर्मुक्ताः(भलीभाँति मुक्त होकर),
भजन्ते(भजते हैं),
माम्(मुझको),
दृढव्रताः(दृढ़ व्रतधारी) || (७/२८)
परन्तु
जिन लोगों का पुन्यकर्मो द्वारा पापों का अन्त हो गया है, वे दृढ़ व्रतधारी द्वंद्व
मोह से भलीभाँति मुक्त होकर मुझको भजते हैं | (७/२८)
परन्तु जिन लोगों का पुन्यकर्मों द्वारा
पापों का अन्त हो गया है, अर्थात् जो मेरे उपदेश में दोषदृष्टि ना रखते हुए, मेरे
मार्ग का अनुसरण करते हैं, समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करते हुए पाप को
प्राप्त नहीं होते अर्थात् और कर्मबंधन पैदा नहीं करते तथा योगपरायण होकर जीवन
यात्रा की सिद्धि हेतु ज्ञानाग्नि द्वारा अपने पापों का अन्त करने की साधना करते
हैं, वे दृढ़ व्रतधारी द्वंद्व मोह से भलीभाँति मुक्त होकर मुझको भजते हैं,
योगेश्वर की मत का अनुसरण करते हैं | इसीको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये |
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म
चाखिलम् || (७/२९)
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः |
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ||
(७/३०)
जरा
मरण मोक्षाय माम् आश्रित्य यतन्ति ये |
ते
ब्रह्म तत् विदुः कृत्स्नम् अध्यात्मम् कर्म च अखिलम् || (७/२९)
स
अधिभूत अधिदैवम माम् स अधियज्ञम् च ये विदुः |
प्रयाण
काले अपि च माम् ते विदुः युक्त चेतसः || (७/३०)
जरा(जरा),
मरण(मरण),
मोक्षाय(मुक्ति के लिये),
माम्(मेरे),
आश्रित्य(आश्रित होकर),
यतन्ति(यत्नशील),
ये (जो)
| ते(वे), ब्रह्म(ब्रह्म),
तत्(उस),
विदुः(जानते हैं),
कृत्स्नम्(सम्पूर्ण), अध्यात्मम्(अध्यात्म को),
कर्म(कर्म को),
च(और),
अखिलम् (सम्पूर्ण)
|| (७/२९)
स(साथ),
अधिभूत(अधिभूत),
अधिदैवम(अधिदैव),
माम्(मुझको),
स(साथ),
अधियज्ञम्(अधियज्ञ), च(और),
ये(जो),
विदुः(जानते हैं)
| प्रयाण(प्रयाण),
काले(काल में),
अपि(भी),
च(और),
माम्(मुझको),
ते(वे),
विदुः(जानते हैं),
युक्त(युक्त),
चेतसः(चित्तवाले)
|| (७/३०)
जो
जरा मरण से मुक्ति के लिये मेरे आश्रित होकर यत्न करते हैं, वे उस ब्रह्म को,
सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं | (७/२९)
जो
मुझको अधिभूत और अधिदैव सहित और अधियज्ञ सहित जानते हैं और वे युक्त चित्तवाले
प्रयाण काल में भी मुझको जानते हैं | (७/३०)
जो जरा मरण से मुक्ति के लिये अर्थात्
दुःख रूपी संसार और संसार रूपी दुःखो से मुक्ति के लिये मेरे आश्रित होकर यत्न
करते हैं, वे उस ‘ब्रह्म’ को, सम्पूर्ण ‘अध्यात्म’ को और सम्पूर्ण ‘कर्म’ को जानते
हैं |
जो योगपरायण साधक अधिभूत और अधिदैव सहित
और अधियज्ञ सहित जानते हैं, वे युक्त चित्त वाले प्रयाणकाल अर्थात् जन्म मरण के
चक्र से जब प्रयाण होता है, मुक्ति होती है, देह से संबंध छुट जाता है, देहमुक्त
हुआ जाता है, उस काल में वे मुझको जानते हैं |
यहाँ पर योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे ‘ब्रह्म’,
‘अध्यात्म’, ‘कर्म’, ‘अधिभूत’, ‘अधिदैव’, ‘अधियज्ञ’ और ‘प्रयाणकाल’ का मनन हम अगले
अध्याय में करेगें, क्योंकी अगले अध्याय में अर्जुन ने इनको स्पष्ट करने का निवेदन
योगेश्वर श्रीकृष्ण से करता है, इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार ही इस
पर चिन्तन मनन करेगें |
इस प्रकार अध्याय सात का समापन होता है |
***** ॐ तत् सत् *****