Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

अध्याय १८ ; श्लोक संख्या १- ३९


** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
अष्टादशोऽध्यायः         
अर्जुन उवाच

सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् |
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन || (१८/१)

सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वम् इच्छामि वेदितुम् |
त्यागस्य च ऋषिकेश पृथक् केशि निषूदन || (१८/१)

सन्न्यासस्य (संन्यास के), महाबाहो (महाबाहो), तत्त्वम् (तत्त्व को), इच्छामि (चाहता हूँ), वेदितुम् (विदित करना) | त्यागस्य (त्याग के),(और), ऋषिकेश (ऋषिकेश), पृथक् (पृथक रूप से), केशि (केशी असुर), निषूदन (संहर्ता) | (१८/१)

महाबाहो ! ऋषिकेश ! केशिनिषूदन ! संन्यास के और त्याग के तत्त्व को पृथक रूप से जानना चाहता हूँ | (१८/१)

अर्जुन यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण को महाबाहो, ऋषिकेश और केशीनिषूदन आदि संज्ञाओ से संबोधित करता है, इसका कारण स्पष्ट है कि कृष्ण को अपना सखा, सारथि माननेवाला अर्जुन अब अपने मित्र के परमभाव को जान गया है, उनके योगेश्वर स्वरूप को जान गया है, इसलिये उनकी स्तुति करता हुआ, उनसे निवेदन करता हुआ अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करता है कि मैं संन्यास और त्याग के रूप को पृथक रूप से जानना चाहता हूँ अर्थात् जिस प्रकार आपने सांख्यदृष्टि से अन्य तत्त्वों को विभागपूर्वक स्पष्ट किया है, उसी प्रकार मैं संन्यास को और त्याग को भी तत्त्व रूप से विभागपूर्वक जानना चाहता हूँ |

साधारण दृष्टि से अर्जुन का यह प्रश्न सामान्य प्रश्न जैसा ही भासता है क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण संन्यास और त्याग के तत्त्व को पूर्व में ही स्पष्ट कर आये हैं परन्तु गीताशास्त्र के अन्तिम अध्याय तक भी समस्त व्याख्याकारों की विडम्बना है कि वे अर्जुन के इस प्रश्न को नहीं जान पाए और इसी कारण योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों का यथार्थ भावार्थ भी नहीं कह पाए | वस्तुतः योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को पहले ही कह आये हैं कि ‘पाण्डव ! जिसको ‘संन्यास’ ऐसा कहते हैं, उसी को योग जान क्योंकी संकल्पों के त्याग के बिना कोई योगी नहीं हो सकता’ (६/२) और योग को भी स्पष्ट कर आये हैं कि ‘जिससे दुखों के संयोग का वियोग हो, उसको ‘योग’ नाम से जानना चाहिये’ (६/२३) तात्पर्य यह कि दुखों के संयोग के वियोग की प्राप्ति अर्थात् संसार रूपी दुःख और दुःख रूपी संसार से मुक्ति ही योग है, संन्यास है और यह योग अथवा कहें कि यह संन्यास, संकल्पों का त्याग ना करने वाले पुरुष के लिये दुष्प्राप्य है | अतः अपनी निष्ठा के अनुसार, योग की प्राप्ति से पूर्व अथवा कहें कि संन्यास की प्राप्ति से पूर्व साधना के पुर्तिकाल में उत्तरोत्तर आसक्ति का त्याग ही त्याग है और यह त्याग दोनों निष्ठाओं के साधक के लिये अनिवार्य है | अतः सांख्यदृष्टि से कहे इन उपदेशों के अभिप्राय जानते हुए, समझते हुए अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण से प्रश्न करता है कि संन्यास का, तथाकथित ज्ञानयोग की पराकाष्ठा की प्राप्ति का भेद और त्याग का भेद, वह त्याग जो दोनों में से किसी भी निष्ठा को प्राप्त साधक को अनिवार्य है, वह तत्त्व सहित विभागपूर्वक मुझसे कहें |

इस अध्याय में ध्यान देने योग्य है कि अर्जुन के प्रश्न के अनुसार योगेश्वर श्रीकृष्ण त्याग और संन्यास के तत्त्व को स्पष्ट करते हुए, सांख्यदर्शन के अनुसार ‘कृतान्ते’ अर्थात् जिस ज्ञान के अनुसरण से बंधनकारी कर्मों में आसक्ति का अन्त होता है, उस सांख्यदर्शन रूपी ज्ञान तथा जिस कारण से इस देह में रहता हुआ देही कर्मों में प्रवृत होता है, उन कारणों को कहते हुए, (१८/५५) तक संन्यास मार्ग से, सांख्य निष्ठा से युक्त होकर, ज्ञानयोग से अव्यक्त, परंब्रह्म की, पराभक्ति की पराकाष्ठा को प्राप्त साधक की रहनी का, संन्यास का चित्रण करते हैं और यह गीताशास्त्र का यह अन्तिम अध्याय है, इसलिये निःसंदेह, निःशेष और निश्चित रूप से योगेश्वर श्रीकृष्ण इस तत्त्वज्ञान और अध्यात्मविद्या रूपी, योगशास्त्र विषयक अपने उपदेशों को, अंतिम रूप से, सांख्यदृष्टि से स्पष्ट करते हुए, अध्याय के अन्त में अर्थात् (१८/५६) से पुनः अर्जुन को ‘मत् व्यपाश्रयः’, ‘मत् परः’, ‘मत् चित्तः’ आदि कहते हुए, कृष्णयोग
परायण होने  का उपदेश देते हुए गीता शास्त्र का समापन करते हैं | आइये अंतिम अध्याय में प्रवेश करते हैं | 
श्रीभगवानुवाच

काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः |
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः || (१८/२)
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः |
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे || (१८/३)

काम्यानाम् कर्मणाम् न्यासम् सन्न्यासम् कवयः विदुः |
सर्व कर्म फल त्यागम् प्राहुः त्यागम् विचक्षणाः || (१८/२)
त्याज्यम् दोषवत् इति एके कर्म प्राहुः मनीषिणः |
यज्ञ दान तपः कर्म न त्याज्यम् इति च अपरे || (१८/३)

काम्यानाम् (कामनाओं के आश्रित), कर्मणाम् (कर्मों के), न्यासम् (त्याग को), सन्न्यासम् (संन्यास), कवयः (कविजन), विदुः (समझते हैं) | सर्व (समस्त), कर्म(कर्मों के), फल (फल के), त्यागम् (त्याग को), प्राहुः (कहते हैं), त्यागम् (त्याग), विचक्षणाः (विचार कुशल पुरुष) | (१८/२)
त्याज्यम् (त्यागने योग्य हैं), दोषवत् (दोषयुक्त), इति (इस प्रकार), एके (प्रत्येक), कर्म (कर्म), प्राहुः (कहते हैं), मनीषिणः (मननशील पुरुष) | यज्ञ (यज्ञ), दान (दान), तपः (तप), कर्म (कर्म), (न), त्याज्यम् (त्यागने योग्य हैं), इति (ऐसा), (और), अपरे (अन्य) | (१८/३)

कविजन कामनाओं के आश्रित कर्मों के ‘न्यास’ को संन्यास समझते हैं, विचारकुशल पुरुष समस्त कर्मों के फल के त्याग को कहते हैं | (१८/२)
मननशील पुरुष कहते हैं (कि) प्रत्येक कर्म दोषयुक्त है, इस प्रकार त्यागने योग्य हैं और अन्य ऐसा (कहते हैं कि) यज्ञ, दान, तप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं | (१८/३)  

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यहाँ पहले अर्जुन के प्रश्न स्वरूप संन्यास और त्याग का जो मिश्रित सा भासता हुआ भावार्थ तथाकथित ज्ञानीजन कहते हैं, उस भाव को स्पष्ट करते हुए, प्रचलित चार व्यक्तव्य कहते हैं | पहला यह कि ‘कवयः’ अर्थात् शास्त्रों का भाव स्पष्ट करनेवाले, कवियों के सदृश्य भाषा के तत्त्व को जानने वाले, ज्ञानीजन कामनाओं के आश्रित कर्मों के ‘न्यास’ को अर्थात् समस्त काम्य कर्मों से त्याग को, सर्वस्य के न्यास को संन्यास समझते हैं और दूसरा यह कि विचारकुशल पुरुष समस्त कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं |

संन्यास और त्याग के विषय में तीसरे प्रचलित मत का उल्लेख करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मननशील पुरुष कहते हैं कि प्रत्येक कर्म दोषयुक्त है, बंधनकारी है, इसलिये समस्त कर्म त्यागने योग्य हैं और चोथे मत पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि अन्य ऐसा कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं |

इन प्रचलित मतों पर योगेश्वर श्रीकृष्ण के स्पष्टीकरण से पूर्व कृष्णयोग का साधक यह अवश्य ध्यान रखे कि जिस अर्जुन के प्रश्न स्वरूप योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ संन्यास और त्याग के स्वरूप को स्पष्ट कर रहें हैं, उसी अर्जुन को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में कहा है कि ‘जय-पराजय में, लाभ-हानि में और सुख-दुःख में मन एवं बुद्धि को सम करके, उसके बाद युद्ध में लग जा, इस प्रकार पाप को प्राप्त नहीं होगा’ (२/३८) तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु कर्मों में प्रवृत होने को नहीं अपितु इस तथ्य को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं कि किन भावों से कर्मों में प्रवृत हुआ जाता है, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह और इस बुद्धि से ही युक्त होकर जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु योग का आचरण ही उत्तम है | अब इन प्रचलित मतों पर योगेश्वर श्रीकृष्ण का मत |   

निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम |
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः || (१८/४)


निश्चयम् श्रृणु मे तत्र त्यागे भरत सत् तम |
त्यागो हि पुरुष व्याघ्र त्रि विधः संप्रकीर्तितः || (१८/४)

निश्चयम् (निश्चय), श्रृणु (सुनो), मे (मेरा), तत्र (वहाँ), त्यागे (त्याग के विषय में), भरत सत्तम (भरतश्रेष्ठ) | त्यागो (त्याग), हि (क्योंकी), पुरुष व्याघ्र (पुरुषसिंह), त्रि विधः (तीन प्रकार का), संप्रकीर्तितः (भली प्रकार से कहा गया है) | (१८/४)

भारतश्रेष्ठ ! उस त्याग के विषय में मेरा निश्चय सुन, क्योंकी पुरुषसिंह ! तीन प्रकार का त्याग भलीभाँति कहा गया है | (१८/४)

तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण पहले त्याग के विषय में अपना मत व्यक्त करते हैं |

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् |
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् || (१८/५)
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च |
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् || (१८/६)

यज्ञ दान तपः कर्म न त्याज्यम् कार्यं एव तत् |
यज्ञः दानम् तपः च एव पावनानि मनीषिणाम् || (१८/५)
एतानि अपि तु कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा फलानि च |
कर्तव्यानि इति मे पार्थ निश्चितम् मतम् उत्तमम् || (१८/६)

यज्ञ(यज्ञ), दान(दान), तपः(तप), कर्म(कर्म), (न), त्याज्यम्(त्यागने योग्यहैं), कार्यं(करना चाहिए), एव(ही), तत्(उनको) | यज्ञः(यज्ञ), दानम्(दान), तपः(तप), (और), एव(ही), पावनानि(पवित्र करनेवाले हैं), मनीषिणाम्(मनीषियोंको) | (१८/५)
एतानि(यह सब), अपि(भी), तु(परन्तु), कर्माणि(कर्मों का), सङ्गम्(संग), त्यक्त्वा(त्यागकर), फलानि(फलको), (और) | कर्तव्यानि(कर्त्तव्य है), इति(यह), मे(मेरा), पार्थ(पार्थ), निश्चितम्(निश्चयपूर्वक), मतम् उत्तमम्(उत्तम मत है) | (१८/६)

यज्ञ, दान, तप कर्म त्यागने योग्य नहीं है, उनको करना ही चाहिए, यज्ञ, दान और तप ही मनीषियों को पवित्र करनेवाले हैं | (१८/५)
परन्तु यह सब भी कर्म और फल की आसक्ति को त्यागकर करना कर्त्तव्य है, पार्थ ! यह मेरा निश्चयपूर्वक उत्तम मत है | (१८/६)

यज्ञ, दान, तप कर्म त्यागने योग्य नहीं है, उनको करना ही चाहिए, यज्ञ, दान और तप ही मनीषियों को पवित्र करनेवाले हैं, तात्पर्य यह कि समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करते हुए ‘यज्ञ’ अर्थात् यज्ञार्थ कर्मों का आचरण, ‘दान’ अर्थात् दान देना कर्तव्य है इसलिये परमार्थ मार्ग के साधक को जीवन निर्वाह से अधिक प्राप्य साधनों का दान अवश्य करना चाहिये तथा प्रत्युपकार की भावना से रहित होकर करना चाहिये और देश, काल और उचित पात्र को देखकर दान अवश्य करना चाहिये तथा ‘तप’ अर्थात् पूर्व अध्याय में कहे अनुसार शारीरिक, मानसिक और वाचिक तपों का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये क्योंकी यज्ञ, दान और तप ही मनीषियों को पवित्र करनेवाले हैं, यहाँ ‘पवित्र करनेवाले हैं’ इससे तात्पर्य यह है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण के मतानुसार यज्ञ, दान और तप का आचरण ही पवित्र ज्ञान की, आत्मज्ञान की प्राप्ति में हेतु है |

यह तो हुआ जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु प्रवृत साधक के त्याग का आचरण परन्तु यह त्याग कब फलित होता है, इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब वही साधक जीवन निर्वाह को कर्मों में प्रवृत होता है तब उसके लिये साधक को कर्म और फल की आसक्ति के त्याग को भी कर्त्तव्य कर्म समझना चाहिये, तात्पर्य यह कि कृष्णयोग परायण साधक की रहनी इस प्रकार की हो कि वह काम्य कर्मों में आसक्ति का और कर्मफल में आसक्ति का, दोनों का त्याग अपना कर्त्तव्य माने | इस प्रकार जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु त्याग के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि यह मेरा निश्चयपूर्वक कहा गया उत्तम मत है |

यहाँ अगर योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस व्यक्तव्य पर, उनके उत्तम मत पर ध्यानपूर्वक मनन करें तो स्पष्ट होता है कि
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सांख्यदृष्टि से कृष्णयोग का ही सार अर्जुन को कहा है |    

इस प्रकार पूर्व श्लोक में कहे प्रचलित तीन मतों पर अपनी सहमति स्पष्ट करते हुए, योगेश्वर श्रीकृष्ण उस मत पर कुछ भी नहीं कहते जिसके अनुसार ‘मननशील पुरुष कहते हैं कि प्रत्येक कर्म दोषयुक्त है, बंधनकारी है, इसलिये समस्त कर्म त्यागने योग्य हैं’ क्योंकी कृष्णयोग की प्रस्तावना स्वरूप योगेश्वर श्रीकृष्ण कह आये हैं कि ‘यज्ञ अर्थात् कर्मणः अन्यत्र लोकः अयम् कर्म बन्धनः तत् अर्थम् कर्म कौन्तेय मुक्त सङ्ग समाचर (३/९) स्पष्ट है कि जो साधक जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु, जीवन निर्वाह को भी एक यज्ञ बना लेता है, मुक्ति तो उसी साधक के लिये संभव है और उसके लिये साधक को समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करना कर्म नहीं अपितु कर्त्तव्य कर्म हो जाता है, जो बंधनकारी नहीं होता, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण का अर्जुन को निर्देश है कि ‘जय-पराजय में, लाभ-हानि में और सुख-दुःख में मन एवं बुद्धि को सम करके, उसके बाद युद्ध में लग जा, इस प्रकार पाप को प्राप्त नहीं होगा’ (२/३८) | इसी तथ्य को और तथाकथित संन्यास के तत्त्व को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते |
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः || (१८/७)
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् |
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् || (१८/८)

नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणः न उपपद्यते |
मोहात् तस्य परित्यागः तामसः परिकीर्तितः || (१८/७)
दुःखम् इति एव यत् कर्म काय क्लेश भयात् त्यजेत् |
सः कृत्वा राजसम् त्यागम् न एव त्याग फलम् लभेत् || (१८/८)

नियतस्य (नियत), तु (परन्तु), सन्न्यासः (सन्न्यास), कर्मणः (कर्मों का), (न), उपपद्यते (उचित होता है) | मोहात् (मोह से), तस्य (उनका), परित्यागः (परित्याग), तामसः (तामसी), परिकीर्तितः (कहा गया है) | (१८/७)
दुःखम् (दुःखरूप), इति (ऐसा), एव (ही), यत् (जो), कर्म (कर्म), काय (काया), क्लेश (क्लेश), भयात् (भय से), त्यजेत् (त्याग करे) | सः (वह), कृत्वा (करके), राजसम् (राजसी), त्यागम् (त्याग को), (न), एव (ही), त्याग (त्याग के), फलम् (फल को), लभेत् (पाता है) | (१८/८)

परन्तु ‘नियतस्य कर्मणः’  का संन्यास उचित नहीं होता है, मोह से उनका परित्याग तामसी कहा गया है | (१८/७)
ऐसा दुःखरूप ही है, जो कर्म को इस प्रकार काया क्लेश के भय से त्याग करे, वह राजसी त्याग को करके, त्याग के फल को नहीं ही प्राप्त करता | (१८/८) 

‘नियतस्य कर्मणः’ अर्थात् कोई निर्धारित किये हुए कर्म नहीं अपितु जिस विधि से, जिस बुद्धि से युक्त होकर कर्म किये जाने चाहिए, उस बुद्धि से युक्त होकर, उस बुद्धि से नियत विधि के अनुसार किये गये कर्म ‘नियतस्य कर्मणः’ कहलाते हैं | जिसके लिये इस कृष्णयोग की प्रस्तावना करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘नियतम् कुरु कर्म त्वम्’ (३/८) तुम नियतं अर्थात् नियमित विधिविशेष से निर्धारित होकर कर्म करो | किस विधि से कौन से कर्म करो ? वही समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह को कर्म करो और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु यज्ञार्थ कर्म करो अन्यथा मोह के कारण, तमस के कारण इस प्रकार की जीवन शैली का त्याग योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार उचित नहीं है, क्योंकी ऐसा त्याग करके पुरुष जिस संन्यास को प्राप्त होता है, वह तामसी कहा गया है |

ऐसा दुःखरूप है अर्थात् कामनाओं के कारण, आसक्ति के कारण, भोगों की लालसा के कारण जो समभाव से, समबुद्धि से जीवन निर्वाह नहीं कर पाता और काया क्लेश के भय से यज्ञार्थ कर्मों का आचरण नहीं कर पाता, काया क्लेश अर्थात् मन, बुद्धि और शरीर तो भोगों में लिप्त होना चाहता है अर्थात् काया तो माया के साथ रहना चाहती है, वह पुरुष हृदयस्थ ईष्ट के साथ चाहकर भी ना रहकर, काया के साथ ही रहता है अन्यथा कहें कि यह माया काया अर्थात् मन, बुद्धि और शरीर को हरकर मनुष्य को परवश करके, केवल भोगों के चिन्तन में लगाती है और विषय चिन्तन के कारण परमात्मा का चिन्तन नहीं हो पाता, यही काया क्लेश है, इस काया क्लेश के भय से ‘नियतस्य कर्मणः’ का संन्यास राजसी कहलाता है और ऐसा पुरुष त्याग के फल को अर्थात् परमात्मा तत्त्व को नहीं पाता अपितु पूर्व में योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहे अनुसार भोगों को, स्वर्ग को ही पाता है | तब त्याग के फल को, संन्यास को, संख्या निष्ठा के अनुसार योग की पराकाष्ठ को, पराभक्ति को कौन पाता है, इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि   

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन |
सङ्गंत्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः || (१८/९)
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते |
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः || (१८/१०)
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः |
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते || (१८/११)

कार्यम् इति एव यत् कर्म नियतम् क्रियते अर्जुन |
सङ्गम् त्यक्त्वा फलम् च एव सः त्यागः सात्त्विकः मतः || (१८/९)
न द्वेष्टि अकुशलम् कर्म कुशले न अनुषज्जते |
त्यागी सत्त्व समाविष्टः मेधावी छिन्न संशयः || (१८/१०)
न हि देह भृता शक्यम् त्यक्तुम् कर्माणि अशेषतः |
यः तु कर्म फल त्यागी सः त्यागी इति अभिधीयते || (१८/११)

कार्यम् (करना कर्त्तव्य है), इति (ऐसा), एव (ही), यत् (जो), कर्म (कर्म), नियतम् (नियमित), क्रियते (करता है), अर्जुन (अर्जुन) | सङ्गम् (संग का), त्यक्त्वा (त्याग करके), फलम् (फल का), (और), एव (ही), सः (वह), त्यागः (त्याग), सात्त्विकः (सात्विक है), मतः (मान्य) | (१८/९)
(न), द्वेष्टि (द्वेष करता है), अकुशलम् (अकुशल), कर्म (कर्म से), कुशले (उशाल), (न), अनुषज्जते (आसक्त होता है) | त्यागी(त्यागी), सत्त्व(सततत्त्व), सम(समभाव), आविष्टः(लीन), मेधावी(मेधावी), छिन्न(छिन्न), संशयः(संशय)| (१८/१०)
(न), हि (क्योंकी), देह (देह), भृता (धारी), शक्यम् (सम्भव है), त्यक्तुम् (त्यागना), कर्माणि(कर्मों को), अशेषतः(पूर्णरूप) | यः (जो), तु (परन्तु), कर्म (कर्म), फल (फल का), त्यागी (त्यागी है), सः (वह), त्यागी (त्यागी है), इति (ऐसा), अभिधीयते (कहा जाता है)  | (१८/११)

‘नियत’ कर्म करना ही कर्तव्य है, जो इस प्रकार संग और फल का ही त्याग करके कर्म करता है, वह त्याग सात्विक मान्य है | (१८/९)
सततत्त्व, समभाव में लीन, मेधावी, संशयरहित त्यागी अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता, कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता | (१८/१०)
क्योंकी देहधारी द्वारा कर्मों को पूर्णतया त्यागना सम्भव नहीं है परन्तु जो कर्मफल का त्यागी है, वह त्यागी है, ऐसा कहा जाता है | (१८/१०)  

‘नियत’ कर्म करना ही कर्तव्य है, विधिविशेष से निर्धारित होकर कर्म करना ही कर्त्तव्य है, समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह ही कर्तव्य है, जो इस प्रकार ‘संग’ अर्थात् इस देह के, इस क्षेत्र के भावों को, सुख दुःख रूपी द्वन्द्वों का त्याग करके कर्मों में प्रवृत होता है और ‘फल’ अर्थात् उन कर्मों को भी कामनाओं और आसक्तियों से रहित होकर, फल की आकांक्षा से रहित होकर करता है, ऐसा त्याग सात्त्विक मान्य है | अब इस भाव से युक्त साधक की रहनी कहते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

ऐसा साधक ‘सततत्त्व’ में लीन रहता है, वह देह देही के भेद से भावित रहता है, क्षेत्र का ज्ञाता हो जाता है, समभाव से भावित रहता है और ऐसा साधक ही मेधावी है, जिसके समस्त संशयों का नाश हो गया है, ऐसा त्यागी पुरुष ‘अकुशल’ कर्म से, अर्जुन के संदर्भ में युद्ध से, द्वेष नहीं करता और ‘कुशल’ कर्म में आसक्त नहीं होता, सात्त्विक भावों के अनुरूप ज्ञान और सुख में आसक्त नहीं होता, पुण्य कर्मों में आसक्त नहीं होता, ऐसा ‘सत्त्व समाविष्टः’ अपने स्वरूप में स्थित, समभाव से जीवन निर्वाह करनेवाला मेधावी पुरुष, जिसे पूर्व में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने धीर पुरुष कहकर संबोधित किया है, ऐसा मेधावी और संशयरहित पुरुष ही त्यागी है, संन्यासी है | क्योंकी देहधारियों द्वारा समस्त कर्मों का त्याग सम्भव नहीं है, यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा देहधारी कहने से तात्पर्य यह है कि यह ज्ञान सांख्य दृष्टि से कहा जा रहा है और समस्त कर्मों का त्याग सम्भव नहीं है, इससे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दो तथ्यों पर प्रकाश डाला है कि कर्म संन्यास सम्भव नहीं है, यह मिथ्याचार है और पूर्व में कहे अनुसार ‘जो कर्म फल का आश्रय ना लेकर ‘कार्यं’ कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, अग्निरहित और क्रियाहीन नहीं’ (६/१) तथा अभी इस अध्याय में पूर्व में त्याग के विषय में कहे एक तथ्य को भी स्पष्ट कर दिया ‘मननशील पुरुष कहते हैं कि प्रत्येक कर्म दोषयुक्त है, इस प्रकार त्यागने योग्य हैं, यह भी मिथ्याबोध है | इसलिये जो कर्मों का नहीं अपितु कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है क्योंकी कर्मफल का त्यागी वही हो सकता है, जो समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करता है और इसी बुद्धि से युक्त होकर यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करता है | अन्यथा   
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् |
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् || (१८/१२)

अनिष्टम् इष्टम् मिश्रम् च त्रि विधम् कर्मणः फलम् |
भवति अत्यागिनाम् प्रेत्य न तु संन्यासिनाम् क्वचित् || (१८/१२)

अनिष्टम् (अनिष्टकारी), इष्टम् (ईष्ट), मिश्रम् (मिश्रित), (और), त्रि विधम् (तीन प्रकार का), कर्मणः (कर्मों का), फलम् (फल) | भवति (होता है), अत्यागिनाम् (त्याग न करनेवालों का), प्रेत्य (मृत्यु उपरान्त भी), (न), तु (परन्तु), संन्यासिनाम् (संन्यासियों के लिये), क्वचित् (किसी काल में) | (१८/१२)

बुरा, अच्छा और मिश्रित, त्याग न करनेवालों का तीन प्रकार का कर्मों का फल मृत्यु उपरान्त भी होता है, परन्तु त्यागियों के लिये किसी काल में (नहीं होता) | (१८/१२)

अत्यागिनाम्’ जो उपर्युक्त कहे अनुसार ‘सशब्द’ त्यागी नहीं हैं, ऐसे त्याग ना करनेवालों को उनके कर्मों का अच्छा, बुरा और मिश्रित ऐसा तीन प्रकार का फल मृत्यु के पश्चात् भी होता है, तात्पर्य यह कि बिना त्याग के मुक्ति सम्भव नहीं है, मोक्ष सम्भव नहीं है, परन्तु संन्यासियों की लिये अर्थात् जो उपर्युक्त कहे अनुसार नियतं कर्म का अर्थात् निर्धारित विधिविशेष द्वारा कर्मों में प्रवृत होने के कारण ‘सशब्द’ त्यागी है और इस भाव से सांख्य निष्ठा के अनुसार जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु कर्मों में प्रवृत होते है, उन पुरूषों के संदर्भ में पूर्व श्लोक में कहे जैसा कहा है कि ‘देहधारी द्वारा कर्मों को पूर्णतया त्यागना सम्भव नहीं है परन्तु जो कर्मफल का त्यागी है’, उन पुरूषों के कर्मों का कर्मफल बंधनकरी नहीं होता है, अपितु मुक्तिकारक होता है | इस प्रकार त्याग और संन्यास के तत्त्व को स्पष्ट करते हुए, तात्पर्य यह कि त्याग एक भाव है और ‘योग’ अथवा ‘संन्यास’ उस परम तत्त्व परमात्मा को प्राप्त करने का एक मार्ग है और यहाँ संन्यास मार्ग द्वारा परमार्थ में प्रवृत साधकों के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण इस कर्मबंधन के कारणों पर सांख्यदृष्टि से प्रकाश डालते हुए कहते हैं | कि 

पञ्चैमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे |
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् || (१८/१३)

पञ्च एमानि महाबाहो कारणानि निबोध मे |
साङ्ख्ये कृत् अन्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्व कर्मणाम् || (१८/१३)

पञ्च (पाँच), मानि (इसमें), महाबाहो (महाबाहो), कारणानि (कारण), निबोध (जान), मे (मुझसे) | साङ्ख्ये (सांख्यदर्शन में), कृत् अन्ते (कृत्यों के अन्त हेतु), प्रोक्तानि (कहे गया हैं), सिद्धये(सिद्धि हेतु), सर्व(समस्त),कर्मणाम् (कर्मों के) | (१८/१३)

महाबाहो ! इसमें पाँच कारण मुझसे जान, (जो) समस्त कर्मों की सिद्धि हेतु, सांख्य दर्शन के अनुसार ‘कृतान्ते’ कृत्यों के अन्त हेतु कहे गये हैं | (१८/१३)
समस्त कर्मों की सिद्धि हेतु तात्पर्य यह कि परमार्थ मार्ग के साधक द्वारा जीवन निर्वाह करते हुए जो कर्म किये जाते हैं, वे कर्म बंधनकारी ना हों, उनका अच्छा, बुरा अथवा मिश्रित कोई भी परिणाम ना हो अपितु जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि संन्यासी द्वारा किये कर्मों का कोई फल नहीं होता, उस विधिविशेष से जीवन निर्वाह हेतु तथा जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु अर्थात् परमार्थ हेतु किये गये यज्ञार्थ कर्मों की सिद्धि के लिये, मुक्ति, मोक्ष हेतु, प्रारब्धवश प्राप्त कर्मफल को दग्ध करने के लिये, सांख्यदर्शन के अनुसार कृत्यों के अन्त हेतु, कृत्य अर्थात् वे कर्म जो बंधनकारी होते हैं, उन कर्मों के अन्त के लिये, कर्मबन्धन के अन्त के लिये पाँच कारण कहे गये हैं तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यह भी कहा है कि देहधारियों द्वारा समस्त कर्मों का त्याग सम्भव नहीं है, इसलिये संन्यास मार्ग के साधक को समस्त कर्मों की सिद्धि हेतु, इन कारणों का ज्ञान आवश्यक हो जाता है, जिससे उसके कृत्यों का अन्त हो सके |

यहाँ दो तथ्य मनन करने को प्रस्तुत हैं, पहला यह कि यहाँ ‘कृतान्ते’ को एक बार स्पष्ट रूप से समझना हितकारी होगा, जो कर्म प्रकृतिजन्य भावों से भावित होकर किये जाते हैं, वे वेदों के कार्यक्षेत्र में आते हैं, जहाँ उत्तम अधम योनियों का, स्वर्ग नरक का विधान होता है, वेद इससे आगे का हाल नहीं जानते परन्तु कृतान्त के लिये, इन बंधन कारी कर्मों के अन्त के लिये, वेदों के कार्यक्षेत्र से परे, प्रवृति नहीं अपितु निवृति हेतु जो मार्ग है, जो विधान है, जो शास्त्र हैं, उन्हें वेदान्त कहते हैं, उपनिषद कहते हैं और इसी कारण गीता शास्त्र को भी ‘उपनिषद्’ रूपी कहा गया है, इस वेदान्त रूपी ज्ञान को ही योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ ‘कृतान्ते’ कह रहे हैं, जिस ज्ञान से भावित होकर सांख्य के अनुयायी कृत्यों के, कर्मों के बंधनकारी तत्त्व का नाश करने में सक्षम होते हैं |

दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य, जो यहाँ मनन को प्रस्तुत है, वह यह कि परिणाम में एक होते हुए भी, सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा में जो भेद है, उसे यहाँ समझा जा सकता है, जिस भेद को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यह कहकर स्पष्ट भी किया है कि ‘सांख्य द्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है, योग द्वारा भी वहीं पहुँचा जाता है, जो सांख्य और योग को प्राप्ति की दृष्टि से एक देखता है, वही यथार्थ देखता है’ (५/५) तथा यह कहकर दोनों की भिन्नता को, विलक्षणता को भी स्पष्ट किया है कि ‘परन्तु महाबाहो ! ‘अयोगतः’ योग के आचरण के बिना संन्यास की प्राप्ति दुःखद है, योगयुक्त मुनि शीघ्र ही ब्रह्म में भलीभाँति समाहित हो जाता है’ (५/६) तात्पर्य यह कि योग का आचरण भी दोनों मार्गों के साधक को अनिवार्य है, तब सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा में भेद क्या है ? वह भेद अब सरलता से स्पष्ट होता है |

कृष्णयोग परायण साधक को, एक हृदयस्थ ईष्ट परायण साधक को, सगुण साकार परमात्मा के परायण साधक को योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘सर्वम् कर्म अखिलम् पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते (४/३३) तथा ‘ज्ञान अग्निः सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरुते (४/३७) तात्पर्य यह कि मनुष्य के जन्म जन्मान्तरों से संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म तथा क्रियमाण सभी कर्म इस ज्ञान की प्राप्ति से, इस ज्ञान में ही समाहित हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, ज्ञानाग्नि से भस्म हो जाते हैं, कोई कर्मबंधन नहीं रहता तथा योगनिष्ठा को प्राप्त साधक को योगेश्वर श्रीकृष्ण वह ज्ञान क्या है, ऐसा कुछ भी नहीं कहते अपितु कहते हैं कि ‘न हि ज्ञानेन सदृशम् पवित्रम् इह विद्यते, तत् स्वयम् योग संसिद्धः कालेन आत्मनि विन्दति (४/३८) निःसंदेह इस लोक में इस ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला अन्य कुछ विद्यमान नहीं है, ‘तत्स्वयं’ उस ज्ञान को तू स्वयं ‘योग संसिद्धः कालेन’ जब योग सिद्ध होगा उस काल में ‘आत्मनि विन्दति’ स्वयं में ही पायेगा तथा अर्जुन को यह भी कहते हैं कि तू ‘ओम् इति’ ओम् इतना ही जो अक्षय ब्रह्म का परिचायक है, उसका जप और मेरा स्मरण कर, ध्यान मेरा कर |

परन्तु सांख्यनिष्ठा को प्राप्त साधक के लिये समस्त कर्मों की सिद्धि हेतु, कृतान्त हेतु, सांख्यदर्शन अनुसार योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ पाच कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं, तात्पर्य यह कि सांख्यदर्शन के अनुसार कृतान्त के लिये, कर्मबंधन के अन्त के लिये, उन बंधन के कारणों का ज्ञान होना चाहिये और सांख्य के साधक को स्वयं पर ही आश्रित होकर इन कारणों के ज्ञान के उपाय स्वरूप, ऐसी अवस्था स्वतः प्राप्त करनी है, जिससे काम्य कर्मों का अन्त हो सके, क्योंकी यह साधक किसी हृदयस्थ ईष्ट के आश्रित ना होकर, केवल ज्ञान के आश्रित होता है और उस ज्ञान के आश्रय स्वयं ही, अपने सामर्थ्य को सामने रखकर साधना करता है, जबकि योगनिष्ठा को प्राप्त साधक हृदयस्थ के परायण होकर साधना करता है तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार उस साधक का योगक्षेम स्वयं परमात्मा ही वहन करता है, (९/२२) और सांख्य के सापेक्ष में अज्ञानी साधक भी योग के संसिद्ध काल में कर्मबंधन के नाश हेतु ज्ञान को, आत्मज्ञान को स्वयं ही स्वयं में विदित कर लेता है |

सारांश यह कि सांख्यनिष्ठा को प्राप्त साधक सर्वप्रथम बौद्धिक ‘ज्ञान’ को प्राप्त करता है, तत्पश्चात उस बौधिक ज्ञान के द्वारा स्वयं के आश्रित हो, स्वयं के सामर्थ्य से साधना करता है और अव्यक्त, अक्षय परमब्रह्म को प्राप्त करता है तथा योगनिष्ठा में अज्ञानी साधक भी हृदयस्थ ईष्ट के परायण होकर, हृदयस्थ ईष्ट के सामर्थ्य से ही साधना करता है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण का अर्जुन को निर्देश है कि ‘जो करता है, जो खाता है, जो यज्ञरूप कर्म करता है, जो दान देता है, जो तप करता है कौन्तेय ! वह मेरे को अर्पण कर’ (९/२७) इस प्रकार शुभ अशुभ फलरूप कर्म बंधन से मुक्त होकर, ‘संन्यास’, ‘योग’ युक्त विमुक्त आत्मा होकर, मुझको प्राप्त करोगे’ (९/२८) दोनों निष्ठाओं में यही एक मूल भेद है | सांख्य के साधक उत्थान हेतु, कृतान्त हेतु योगेश्वर श्रीकृष्ण अब उन पाँच कारणों पर प्रकाश डालते हैं |

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् |
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् || (१८/१४)

अधिष्ठानम् तथा कर्ता करणम् च पृथक् विधम् |
विविधाः च पृथक् चेष्टाः दैवम् च एव अत्र पञ्चमम् || (१८/१४)

अधिष्ठानम्(अधिष्ठान), तथा(वैसे ही), कर्ता(कर्ता), करणम्(करण), (और), पृथक्(भिन्न), विधम्(प्रकारके) | विविधाः (विभिन्न),(और), पृथक्(भिन्न), चेष्टाः(चेष्टाएँ), दैवम्(दैव), (और), एव(ही), अत्र(यहाँ), पञ्चमम्(पाँचवाँ ) | (१८/१४)

अधिष्ठान वैसे ही कर्ता और भिन्न प्रकार प्रकार के करण और बहुत प्रकार की भिन्न भिन्न चेष्टाएँ और यहाँ पाँचवाँ दैव ही है | (१८/१४) 

जिस कृतान्त की प्रस्तावना योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व श्लोक में करी है, बंधनकारी कृत्यों के अन्त हेतु उन कारणों को यहाँ कहते हैं |
‘अधिष्ठान’ जिसका आश्रय लेकर, जिसके अधीन होकर, कृत्यों का अनुष्ठान किया जाता है, उसका नाम ‘अधिष्ठान’ है, सांख्यदृष्टि से कहे क्षेत्र को ही, देह को ही यहाँ अधिष्ठान कहा गया है |
‘कर्ता’ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में कहा है कि ‘कार्य करण कर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिः उच्यते’ (१३/२०) मन, कर्म और वचन द्वारा की गयी चेष्टाओं का नाम कार्य है जो वस्तुतः क्षेत्र द्वारा की जाती हैं तथा क्षेत्र में स्थित मन, बुद्धि और अहंकार तथा दस इन्द्रियाँ, जिनमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं, करण कहलाती हैं जो क्षेत्र द्वारा मन, कर्म और वचन द्वारा की गयी चेष्टाओं के होने में करण स्वरूप हैं | इनमें दस इन्द्रियाँ बाह्य करण हैं और तीन करण मन, बुद्धि और अहंकार अन्तःकरण हैं | इन करणों द्वारा इस क्षेत्र से जो कार्य किया जाता है, उसको उत्पन्न करने हेतु जो भाव है, वह भी क्षेत्र के ही हैं, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि यह क्षेत्र प्रभाव वाला है, यह प्रकृतिजन्य भाव क्षेत्र के ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ से उत्पन्न होता है और इसी को ‘कर्ताभाव’ कहते हैं | तात्पर्य यह कि इस क्षेत्र का कर्ताभाव इस क्षेत्र के कार्य और करण से उत्पन्न होता है, अन्य शब्दों में कार्य करण के कर्ताभाव से यह क्षेत्र संचलित होता है, अतः स्पष्ट है कि कार्य, करण और कर्ताभाव की त्रिपुटी इस क्षेत्र के कारण ही है और इस क्षेत्र में रहनेवाला पुरुष इस त्रिपुटी से तादाम्य करके, स्वयं को इस क्षेत्र का कर्ता मानकर इस क्षेत्र से बंध जाता है
‘भिन्न प्रकार के करण’ जिन साधनों द्वारा कर्मों में प्रवृत हुआ जाता है, उनके समुदाय का नाम ‘करण’ है, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, जिव्हा और त्वचा), पाँच कर्मेन्द्रियाँ (रसना, हाथ, पैर, उपदस्थ और गुदा) तथा मन, बुद्धि और अहंकार यह तेरह करण हैं, इनमें से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ बाह्यकरण हैं तथा मन, बुद्धि और अहंकार अन्तःकरण हैं | समस्त कर्म इस समुदाय के सहयोग से ही किये जाते हैं |
विविधाः पृथक् चेष्टाःइस अधिष्ठान, कर्ता और करण के कारण होने वाली अनन्त चेष्टाएँ ही अनन्त कर्म है |
‘दैव’ जन्मजन्मान्तर के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार जो कर्मफल का संग्रह होता है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘बुरा, अच्छा और मिश्रित, त्याग न करनेवालों का तीन प्रकार का कर्मों का फल मृत्यु उपरान्त भी होता है, परन्तु त्यागियों के लिये किसी काल में नहीं होता | (१८/१२) इन कर्मफलों का संग्रह ही संस्कार बनाते हैं और यही संस्कार वर्तमान जन्म में कर्म के लिये इस क्षेत्र में स्फुरण उत्पन्न करते हैं तथा इस क्षेत्र के कर्ताभाव से भावित यह पुरुष संस्कारवश, जन्मजन्मान्तर के शुभाशुभ कर्मफलों को भोगने में हेतु हो जाता है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘पुरुषः सुख दुःखानाम् भोक्तृत्वे हेतुः उच्यते (१३/२०) पुरुष सुख दुःखों को भोगने में हेतु कहा जाता है | उस संस्कारों के समुदाय को, कर्मफल के संग्रह को ‘दैव’ कहते हैं |

योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस क्षेत्र के यह पाँच कारण ही कृत्यों को करने में होते हैं तथा सांख्यदृष्टि से जो इन कारणों को विदित कर लेता है, वह कृतान्त हेतु सक्षम हो जाता है, इसी तथ्य को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में अन्य शब्दों में भी कहा है कि ‘यह शरीर ‘क्षेत्र’ है, ऐसा कहा जाता है, जो यह विदित कर लेता है उसको क्षेत्र का ज्ञाता ‘क्षेत्रज्ञ’ कहा जाता है, ऐसा उसको विदित करनेवाले कहते हैं | (१३/१) तथा ‘क्षेत्रज्ञम् च अपि माम् विद्धि सर्व क्षेत्रेषु भारत’ मुझको भी समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ जान | तात्पर्य यह कि जो कर्म में हेतु इन पाँच कारणों का ज्ञाता हो जाता है, वही कृतान्त में सक्षम हो पाता है, इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि 

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः |
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः || (१८/१५)
तत्रैव सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः |
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः || (१८/१६)
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते |
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते || (१८/१७)

शरीर वाक् मनोभिः यत् कर्म प्रारभते नरः |
न्याय्यम् वा विपरीतम् वा पञ्च एते तस्य हेतवः || (१८/१५)
तत्र एवम् सति कर्तारम् आत्मानम् केवलम् तु यः |
पश्यति अकृत बुद्धित्वात् न सः पश्यति दुर्मतिः || (१८/१६)
यस्य न अहङ्कृतः भावो बुद्धिः यस्य न लिप्यते |
हत्वा अपि सः इमान् लोकान् न हन्ति न निबध्यते || (१८/१७)

शरीर (शरीर), वाक् (वाणी), मनोभिः (मन से), यत् (जो), कर्म (कर्म), प्रारभते (प्रारम्भ करता है), नरः (मनुष्य) | न्याय्यम् (न्यायपूर्ण), वा (अथवा), विपरीतम् (विपरीत), वा (अथवा), पञ्च (पाँच), एते (ये), तस्य (उसमें), हेतवः(हेतु हैं) | (१८/१५)
तत्र (वहाँ), एवम् (ऐसा), सति (होने पर भी), कर्तारम् (कर्ताभाव), आत्मानम् (स्वयं को), केवलम् (केवल), तु (परन्तु), यः (जो) | पश्यति (देखता है), अकृत (अकृत्य), बुद्धित्वात् (बुद्धि के कारण), (न), सः (वह), पश्यति (देखता), दुर्मतिः (दुर्मति है) | (१८/१६)
यस्य (जिसका), (न), अहङ्कृतः (अहंकार से कृत), भावो (भाव), बुद्धिः (बुद्धि), यस्य (जिसकी), (न), लिप्यते (लिपायमान नहीं होती) | हत्वा (मारकर), अपि (भी), सः (वह), इमान् (इन), लोकान् (लोकों को), (न), हन्ति (मारता है), (न), निबध्यते (बंधन में आता है) | (१८/१७)

मनुष्य शरीर, वाणी और मन से शास्त्र विहित अथवा (शास्त्र) विपरीत जो कर्म प्रारम्भ करता है, उसमें ये पाँच हेतु हैं | (१८/१५)
परन्तु जो ऐसा होने पर भी ‘अकृत्य बुद्धित्वात्’ बुद्धि के कारण केवल स्वयं को कर्ता देखता है, वह दुर्मति (यथार्थ) नहीं देखता है | (१८/१६)
जिसका अहंकार से कृतभाव, ‘कर्ताभाव’ नहीं है, जिसकी बुद्धि लिपायमान नहीं होती, वह इन लोकों को मारकर भी न मरता है, न बँधता है | (१८/१८)

इस क्षेत्र में स्थित पुरुष शरीर, वाणी और मन से जो भी कर्म प्रारम्भ करता है, वह ‘दैव’ के कारण अन्तःकरण में हुए स्फुरण से प्रेरित होकर ही करता है तथा उसमें पूर्व श्लोक में कहे पाँच कारण हेतु कहे गये हैं, कर्ता तो पुरुष ही रहता है परन्तु जानने योग्य यह है कि वह इस क्षेत्र के विकारों से, प्रभावों से, इस क्षेत्र के ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ भाव से भावित होकर कर्म करता है अथवा वह इस क्षेत्र का ज्ञाता होकर, क्षेत्रज्ञ होकर कर्म करता है, यह अधिकार पुरुष का है | योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि इस क्षेत्र में स्थित यह पुरुष शरीर, मन और वाणी से शास्त्रविहित अथवा विपरीत जो कर्म करता है और वह शास्त्रविधि को भी योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में ही स्पष्ट कर आये हैं कि वह शास्त्रविधि क्या है, जिसके अनुसार किये गये कर्म शास्त्रविहित हैं और उसके अन्यत्र समस्त कर्म विपरीत हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ‘यज्ञ अर्थात् कर्मणः अन्यत्र लोकः अयम् कर्म बन्धनः’ (३/९) यज्ञ के निमित्त कर्मों से अन्यत्र समस्त कर्म इस लोक का बंधन है, तात्पर्य यह कि यज्ञार्थ कर्म शास्त्रविहित हैं तथा अन्यत्र समस्त कर्म बंधनकारी होने के कारण शास्त्र से विपरीत हैं | यह शास्त्रविहित अथवा शास्त्र से विपरीत कर्म करने का अधिकार पुरुष का है और इस क्षेत्र में यह अधिकार उसको जिस उपाधि स्वरूप प्राप्त है, उस कर्ताभाव को भी स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं |

परन्तु जो ‘कर्तारम् आत्मानम् केवलम्’ केवल स्वयं को कर्ता देखता है, इस क्षेत्र का ज्ञाता नहीं है, इस क्षेत्र के ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ भाव से उत्पन्न कर्ता भाव को इस क्षेत्र का नहीं अपितु केवल स्वयं का कर्ताभाव मान लेता है, वह पुरुष ‘अकृत्य बुद्धित्वात्’ इस क्षे;त्र के विकारों और प्रभावों को ना जानने के कारण, इस क्षेत्र से उत्पन्न कर्ताभाव को ना जानने के कारण, इस क्षेत्र से उत्पन्न सुख दुःख रूपी द्वन्द्वों का भोगता हो जाता है, जो वस्तुतः इस में रहनेवाले पुरुष के नहीं है, इसी तथ्य को योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ ‘अकृत्य बुद्धित्वात्’ कहते हैं अर्थात् वह पुरुष अपने नहीं अपितु इस क्षेत्र के कृत्यों को, इस क्षेत्र से ही दी हुई बुद्धि के कारण अपना देखता है, वह दुर्मति यथार्थ नहीं देखता |

यहाँ एक ही श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दो संज्ञाओं का प्रयोग किया है, जो भिन्न और विलक्षण होने के पश्चात् भी ‘अकृत्य बुद्धित्वात्’ के कारण एक जैसी ही भासती हैं | एक है ‘बुद्धि’ और दूसरी है ‘मति’ | बुद्धि इस क्षेत्र का, अष्टधामूल प्रकृति का तत्त्व है जबकि मति इस क्षेत्र में स्थित पुरुष को प्राप्त वह तत्त्व है जो इस पुरुष को स्वेच्छा के अनुसार कर्म करने का अधिकार देता है, माया में, भोगों में प्रवृत होने का अथवा माया से निवृत होने का जो निर्णय होता है, वह यह मति ही करती है, इसीको विवेकबुद्धि भी कहते हैं, ऐसा जानें कि बुद्धि एक यंत्रमात्र है और मति उस बुद्धि को प्रयोग करने हेतु पुरुष की स्वतंत्रता है, इस मति के द्वारा ही बुद्धि का प्रयोग किया जाता है, बुद्धि तो केवल प्राप्त सूचनाओं के आधार पर संकल्प विकल्प हेतु एक यंत्रमात्र है | अतः स्पष्ट है कि जो स्वयं को कर्ता देखता है, वह क्षेत्र के कृत्यों को ना जाननेवाली बुद्धि के कारण ऐसा देखता है और वह दुर्मति यथार्थ नहीं देखता है | तब यथार्थ कौन देखता है ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते है | कि

जिसका अहंकार से कृतभाव अर्थात् ‘कर्ताभाव’ से भावित नहीं है, तात्पर्य यह कि जो पुरुष इस क्षेत्र के ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ भाव से उत्पन्न भाव को, जो वस्तुतः क्षेत्र का ही है, पुरुष का नहीं है, उस कर्ताभाव को अहंकार वश अपना नहीं मानता, जिसकी बुद्धि क्षेत्र के इस कर्ताभाव से लिपायमान नहीं होती, तात्पर्य यह कि वह इस क्षेत्र के विकारों और प्रभावों का ज्ञाता होता है और इस कारण इस क्षेत्र के सुख दुःख रूपी भावों से लिपायमान नहीं होता, वह दुर्मति ना होकर सुमति द्वारा इस बुद्धि का प्रयोग करता है, विवेकबुद्धि का अधिकारी पुरुष इन लोकों को मारकर भी न मरता है, न बँधता है, तात्पर्य यह कि इस भाव से भावित पुरुष, इस क्षेत्र का ज्ञाता हो जाता है और क्षेत्रज्ञ होकर जो भी कर्म करता है, वे कर्म बंधनकारी नहीं होते क्योंकी कर्मों के करने में उसकी आसक्ति नहीं है, उसका कर्ताभाव नहीं है | इस तथ्य के अनुसार ही पूर्व में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांख्यदृष्टि से ज्ञान देते हुए कहा है कि ‘जय-पराजय में, लाभ-हानि में और सुख-दुःख में मन एवं बुद्धि को सम करके, उसके बाद युद्ध में लग जा, इस प्रकार पाप को प्राप्त नहीं होगा’ (२/३८) तात्पर्य यह कि जो कर्ताभाव से रहित होकर कर्मों में प्रवृत होता है, उसके वे कर्म कर्त्तव्य कर्म हो जाते हैं और वह पुरुष उन कर्मों के परिणाम से मुक्त होता है |

इस क्षेत्र से उत्पन्न कर्ताभाव से इस क्षेत्र में रहनेवाले पुरुष के बंधन को सांख्यदर्शन के अनुसार इन पाँच कारणों से
स्पष्ट करके, योगेश्वर श्रीकृष्ण अब यह स्पष्ट करते हैं कि इस क्षेत्र के कारण पुरुष, कर्ताभाव से कर्म करने को क्यों बाध्य है, किससे उसको कर्मों में प्रवृत होने की प्रेरणा होती है और उन कर्मों द्वारा किस प्रकार कर्मफल का संग्रह होता है |

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना |
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः || (१८/१८)

ज्ञानम् ज्ञेयम् परिज्ञाता त्रि विद्या कर्म चोदना |
करणम् कर्म कर्ता इति त्रि विधः कर्म सङ्ग्रहः || (१८/१८)

ज्ञानम् (ज्ञान), ज्ञेयम् (ज्ञेय), परिज्ञाता (ज्ञाता), त्रि विद्या (तीनों से), कर्म (कर्म), चोदना (प्रेरणा) | करणम् (करण), कर्म (कर्म), कर्ता (कर्ता), इति (यह), त्रि विधः (तोनो से), कर्म (कर्म), सङ्ग्रहः (संग्रह है) | (१८/१८)

ज्ञान, ज्ञेय, परिज्ञाता तीनों से कर्म प्रेरणा होती है, कर्म, करण, कर्ता यह तीनों से कर्म संग्रह होता है | (१८/१८) 

यहाँ ध्यान देने योग्य संज्ञा ‘परिज्ञाता’ है, पहले इस पर मनन करते हैं | अध्याय तेरह में भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता की त्रिपुटी को कहा है, वहां इस क्षेत्र में रहनेवाले पुरुष के लिये जो कर्ताभाव से भावित नहीं है अपितु क्षेत्र का ज्ञाता है, क्षेत्रज्ञ है अथवा कहें कि क्षेत्रज्ञ की उपाधि की प्राप्ति के लिये साधक को ‘ज्ञाता’ से संबोधित किया है, ‘ज्ञेय’ परमतत्त्व परमात्मा है और ‘अमानित्वम्’ आदि भावों से उस ‘ज्ञाता’ को जानने योग्य ‘ज्ञान’ को यह कहकर कहा है कि यह तो ज्ञान है और इसके अन्यत्र जो भी है, वह अज्ञान है | परन्तु यहाँ कहा गया ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता भिन्न हैं | जिस प्रकार अध्याय तेरह में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस क्षेत्र में स्थित यह पुरुष ही परमात्मा है, द्रष्टा है, परन्तु इस क्षेत्र से तादाम्य करके, इस क्षेत्र में उपद्रष्टा रूप से स्थित है, उसी प्रकार इस क्षेत्र में स्थित यह पुरुष ही ज्ञाता है, परन्तु इस क्षेत्र के कर्ताभाव से भावित होकर ज्ञाता नहीं अपितु परिज्ञाता रूप से स्थित है और उस परिज्ञाता का ज्ञान ‘अमानित्वम्’ आदि तत्त्वों से नहीं अपितु ‘दैव’ के कारण, पूर्वजन्मों के संस्कारों के कारण है और उस परिज्ञाता का ज्ञेय भी परमात्मा तत्त्व नहीं है, अपितु इस क्षेत्र के सुख दुःख रूपी भाव ही हैं | इस प्रकार इन तीनों की त्रिपुटी से अर्थात् इस ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता की त्रिपुटी से इस क्षेत्र के सुख दुःख रूपी कर्मों की ही प्रेरणा होती है और पूर्व श्लोक में कहे ‘अकृत्य बुद्धित्वात्’ के कारण वह पुरुष कर्मों में प्रवृत हो जाता है |

यहाँ ध्यान देने योग्य यह है कि इस कर्म प्रेरणा से, इस ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता की त्रिपुटी से जिसकी उत्पत्ति होती है, जिसका उद्भव होता है, वह भी त्रिपुटी रूप में ही कर्म संग्रह करती है | इस कर्म प्रेरणा से प्रवृत पुरुष का कर्मसंग्रह अर्थात् शुभाशुभ कर्मों का संग्रह हो जाता है, पूर्वजन्मों का दैव और इस जन्म का कर्म संग्रह आगे होने वाले जन्मों हेतु दैव बनाता है और यह सृष्टिचक्र चलता रहता है और यह होता है ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता की त्रिपुटी से उत्पन्न ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ त्रिपुटी के कारण अर्थात् कार्य (कृत्य, कर्म), करण (तेरह करण) और इस क्षेत्र के प्रभाव से उत्पन्न कर्ताभाव के कारण और पुरुष इन कर्मों के फल को भोगने में हेतु हो जाता है |

योगेश्वर श्रीकृष्ण का सांख्यदर्शन के अनुसार इस ज्ञान को कहने से तात्पर्य यह है कि पूर्वजन्मों में अज्ञान के कारण, प्रारब्धवश प्राप्त इस क्षेत्र की ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता की त्रिपुटी के नाश का कोई भी उपाय नहीं है, परन्तु इस त्रिपुटी से उत्पन्न ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ नामक त्रिपुटी का नाश सुमति से सम्भव है | काम्य कर्मों में आसक्ति का अभाव, कर्मफल में आसक्ति का अभाव, करण अर्थात् समस्त इन्द्रियों का तथा मन, बुद्धि और अहंकार का निग्रह और कर्ताभाव का त्याग करने से कर्म प्रेरणा होती रहे परन्तु कर्म संग्रह नहीं होता | सांख्य में निष्ठा रखनेवाले ज्ञान के साधकों को इस ज्ञान से भावित होकर, अपने सामर्थ्य के अनुसार ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ त्रिपुटी के नाश का प्रयत्न करना चाहिये | सांख्यदृष्टि से कहे इस ज्ञान के पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण अब ज्ञान, कर्म और कर्ता को, बुद्धि और धारणा अर्थात् परिज्ञाता की प्रवृति को तथा सुख के भी भेदों को सांख्यदर्शन के अनुसार विभागपूर्वक कहते हैं |
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः |
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि || (१८/१९)

ज्ञानम् कर्म च कर्ता च त्रिधा एव गुण भेदतः |
प्रोच्यते गुण सङ्ख्याने यथा वत् श्रृणु तानि अपि || (१८/१९)

ज्ञानम् (ज्ञान), कर्म (कर्म), (और), कर्ता (कर्ता), (और), त्रिधा (तीन प्रकार से), एव(ही), गुण (गुण), भेदतः (भेदसे) | प्रोच्यते (कहे गये हैं), गुण सङ्ख्याने (सांख्यदर्शन अनुसार गुण), यथावत् (यथार्थ), श्रृणु (सुनो), तानि (उनको), अपि (भी) | (१८/१९)

गुण (भेद) कहनेवाले सांख्यदर्शन के अनुसार ज्ञान और कर्म और कर्ता ही तीन प्रकार के गुण भेद से कहे गये हैं, उनको भी यथार्थ सुन | (१८/१९)

गुणों की गणना रूपी, सांख्यिकी अनुसार विवेचना करनेवाले शास्त्र में गुणों के भेद के अनुसार अर्थात् प्रकृतिजन्य भावों के अनुसार, सत, रज और तम भावों के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता तीन प्रकार से कहे जाते हैं, उस भेद को योगेश्वर श्रीकृष्ण सांख्य के साधकों हेतु यथार्थ रूप में कहने की प्रस्तावन करते हैं |

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते |
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् || (१८/२०)

सर्व भूतेषु येन एकम् भावम् अव्ययम् ईक्षते |
अविभक्तम् विभक्तेषु तत् ज्ञानम् विद्धि सात्त्विकम् || (१८/२०)

सर्व (समस्त), भूतेषु(प्राणियों में), येन(जिससे), एकम्(एक), भावम्(भाव), अव्ययम्(अविनाशी), ईक्षते(देखताहै)| अविभक्तम् (विभागरहित), विभक्तेषु (विभागासहित), तत् (वह), ज्ञानम् (ज्ञान), विद्धि (जान), सात्त्विकम् (सात्त्विक) | (१८/२०)

जिससे (ज्ञान से) समस्त प्राणियों में एक विभागरहित अविनाशी भाव को विभागसहित देखता है, वह ज्ञान सात्विक जान | (१८/२०)

इस तथ्य को योगेश्वर श्रीकृष्ण योगशास्त्र विषयक तत्त्वज्ञान से, अध्यात्मविद्या से पूर्व में कह आये हैं परन्तु यहाँ विषय सांख्य का है इसलिये इस तथ्य पर मनन भी हम सांख्यदृष्टि से ही करेंगे | अध्याय तेरह में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने क्षेत्र का वर्णन किया है, जो जन्म, जरा, वृद्धावस्था आदि विकारों वाला और सुख दुःख रूपी प्रभाव वाला है और इस क्षेत्र से तादाम्य करके इस क्षेत्र के विकारों का और प्रभावों का भोक्ता इस क्षेत्र में रहने वाला पुरुष है, जो योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार उनका ही अविनाशी अंश है | योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो इस क्षेत्र का ज्ञाता है, तात्पर्य यह कि जो पुरुष इस क्षेत्र को प्रारब्धवश प्राप्त होता है और इस क्षेत्र के विकार और प्रभाव से भावित होता है परन्तु योग अथवा संन्यास के परिणाम स्वरूप इस क्षेत्र को ज्ञात कर लेता है, इस क्षेत्र के प्रभाव से मुक्त हो जाता है, वह क्षेत्रज्ञ है और कौन्तेय मुझको समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ जान | तात्पर्य यह कि इस क्षेत्र में रहनेवाला पुरुष ही यज्ञार्थ कर्मों के आचरण स्वरूप अपने ‘स्व स्वरूप’ की प्राप्ति के पश्चात् क्षेत्रज्ञ हो जाता है, परमात्मा हो जाता है | अपने ‘स्व स्वरूप’ की प्राप्ति के पश्चात् अर्थात् अपने स्व स्वरूप की प्राप्ति से पूर्व उस पुरुष का स्वरूप वह होता है, जो उस क्षेत्र का स्वरूप होता है और अपने स्व स्वरूप की प्राप्ति के पश्चात् वह पुरुष क्षेत्रज्ञ हो जाता है, यह प्राप्ति जिस ज्ञान से होती है, उस ज्ञान के प्रति सांख्यदृष्टि से योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस ज्ञान से समस्त प्राणियों में एक विभाग रहित अविनाशी भाव को, क्षेत्रज्ञ के भाव को विभाग सहित अर्थात् क्षेत्र में ‘पुरुष’ के रूप में स्थित देखता है, वह ज्ञान सात्त्विक ज्ञान है |

 पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् |
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् || (१८/२१)

पृथक्त्वेन तु यत् ज्ञानम् नाना भावान् पृथक् विधान् |
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तत् ज्ञानम् विद्धि राजसम् || (१८/२१)

पृथक्त्वेन (पृथक होने के कारण), तु (परन्तु), यत् (जो), ज्ञानम् (ज्ञान), नाना (नाना), भावान् (भावों को), पृथक् (पृथक), विधान् (विधि से) | वेत्ति (जानता है), सर्वेषु (समस्त), भूतेषु (प्राणियों में), तत् (वह), ज्ञानम् (ज्ञान), विद्धि (जान), राजसम् (राजसी) | (१८/२१)

परन्तु जो ज्ञान पृथक होने के कारण समस्त प्राणियों में नाना भावों को पृथक जानता है, वह ज्ञान राजसी जान | (१८/२१)

परन्तु जो ज्ञान समस्त क्षेत्रो के पृथक होने के कारण समस्त प्राणियों में नाना भावों को पृथक जानता है, तात्पर्य यह कि जिस ज्ञान से क्षेत्र के प्रभाव को, सुख दुःख रूपी भावों को, रागद्वेष आदि भावों को प्रत्येक क्षेत्र के अपने पृथक भाव रूप से जाना जाता है, क्षेत्र के स्वभाव रूप से जाना जाता है, पुरुष के रूप से जाना जाता है, वह ज्ञान राजसी है क्योंकी इस ज्ञान के कारण ही ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता की त्रिपुटी से कर्म प्रेरणा होती है और यह कर्म प्रेरणा ही इस क्षेत्र में रहने वाले पुरुष को ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ भाव से भावित करके, कर्ताभाव से भावित करके, पुरुष को काम्य कर्मों में प्रवृत करती है | यही आवागमन का कारण है, यह ज्ञान कर्ताभाव से भावित करता है, ना कि परमभाव से, इस क्षेत्र में रहने वाले पुरुष का स्वभाव परमभाव से भिन्न और विलक्षण है और इस कर्ताभाव की उत्पत्ति में यह राजसी ज्ञान ही आधार है |   

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् |
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् || (१८/२२)

यत् तु कृत्स्नवत् एकस्मिन् कार्ये सक्तम् अहैतुकम् |
अतत्त्व अर्थवत् अल्पम् च तत् तामसम् उदाहृतम् || (१८/२२)

यत्(जो), तु(परन्तु), कृत्स्नवत्(सम्पूर्णता से), एकस्मिन्(एक ही), कार्ये(कार्यमें), सक्तम्(आसक्त), अहैतुकम्(हेतुरहित) |  अतत्त्व अर्थवत् (अतत्त्वार्थ), अल्पम्(तुच्छ), (और), तत्(वह), तामसम्(तामसी), उदाहृतम्(कहा जाता है) | (१८/२२)

परन्तु जो अतत्त्वार्थ और सम्पूर्णता से एक ही तुच्छ कार्य में हेतुरहित आसक्त है, वह तामसी कहा जाता है | (१८/२२) 

यहाँ दो तथ्य ध्यान देने योग्य हैं, प्रथम यह कि पूर्व श्लोकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ऐसा कहा है कि उस ज्ञान को सात्त्विक जान अथवा उस ज्ञान को राजसी जान, परन्तु यहाँ प्रकृतिजन्य इस तमस भाव से भावित ज्ञान को योगेश्वर श्रीकृष्ण तामसी ज्ञान नहीं कहते अपितु कहते हैं कि उसे तामसी जान क्योंकी तमस ज्ञान होता ही नहीं है, तमस तो मूढ़ता होती है, अज्ञान होता है | दूसरा तथ्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने तमस से उत्पन्न इस मूढ़ता को ‘तत्त्व अर्थवत् अल्पम्’ कहा है, तात्पर्य यह कि जो ज्ञान के आश्रय होकर परमात्मा तत्त्व के दर्शन किये जाते हैं, जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’ कहा है, उसके विपरीत इस तमस रूपी मूढ़ता को ‘तत्त्व अर्थवत् अल्पम्’ कहा है, तुच्छ अतत्त्व अर्थवत् कहा है, जिस तुच्छ भाव का कोई भी अर्थ नहीं है और ‘तत्त्व ज्ञानार्थ दर्शनम्’ जहाँ परमार्थ हेतु है, उसके विपरीत यह ‘तत्त्व अर्थवत् अल्पम्’ तुच्छ अर्थरहित भाव अधोगति में हेतु है क्योंकी इस ‘तत्त्व अर्थवत् अल्पम्’ से इस क्षेत्र में रहने वाला पुरुष सम्पूर्णता से एक ही तुच्छ कार्य में हेतु रहित आसक्त है, इस तुच्छ भाव को भी योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में अध्याय सोलह में आसुरी संपदा को प्राप्त पुरूषों की गति का वर्णन करते हुए कह आये हैं |  इस प्रकार सांख्यदर्शन के अनुसार ज्ञान को विभागसहित कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण अब इस ज्ञान से भावित होकर किये गये कर्मों को भी सांख्यदर्शन के अनुसार विभागसहित कहते हैं |

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् |
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते || (१८/२३)
नियतम् सङ्ग रहितम् अराग द्वेषतः कृतम् |
अफल प्रेप्सुना कर्म यत् तत् सात्त्विकम् उच्यते || (१८/२३)

नियतम् (नियत), सङ्ग (संग), रहितम् (रहित), अराग द्वेषतः (राग द्वेष रहित), कृतम् (किया जाता है) | अफल प्रेप्सुना (फल की इच्छा से रहित), कर्म (कर्म), यत् (जो), तत् (वह), सात्त्विकम् (सात्त्विक), उच्यते (कहा जाता है) | (१८/२३)

जो ‘नियत’ कर्म संग रहित, राग द्वेष रहित, फल की इच्छा से रहित होकर किया जाता है, वह सात्त्विक कहा जाता है | (१८/२३) 

जो ‘नियतं’ कर्म अर्थात् जो कर्म नियमित विधिविशेष के अनुसार, समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर किया जाता है, अध्याय तेरह में कहे ‘अमानित्वम्’ आदि नौ लक्षणों से युक्त होकर किया जाता है, जो शास्त्रविधि से अर्थात् ‘ओम् तत् सत्’ भव से भावित होकर किया जात है, तथा संग रहित अर्थात् कामना और आसक्ति से रहित होकर किया जाता है, रागद्वेष रहित अर्थात् अमृततत्त्व की प्राप्ति हेतु किया जाता है, फल की इच्छा से रहित अर्थात् कर्म बंधन से मुक्ति हेतु किया जाता है, वह कर्म सात्त्विक कहा जाता है | 

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः |
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् || (१८/२४)

यत् तु काम ईप्सुना कर्म स अहङ्कारेण वा पुनः |
क्रियते बहुल आयासम् तत् राजसम् उदाहृतम् || (१८/२४)

यत्(जो), तु(परन्तु), काम ईप्सुना(कामेच्छा से), कर्म(कर्म), (सहित), अहङ्कारेण(अहंकार), वा(अथवा), पुनः(फिर) | क्रियते (किया जाताहै), बहुल(बहुत), आयासम्(परिश्रमसे), तत्(वह), राजसम्(राजसी), उदाहृतम्(कहा गया है) | (१८/२४)

परन्तु जो कर्म कामेच्छा अथवा फिर अहंकार के कारण बहुत परिश्रम से किया जाता है, वह राजसी कहा गया है | (१८/२४)

परन्तु जो कर्म कामेच्छा से अर्थात् कामनाओं के आश्रय होकर, भोगों की आसक्ति के लिये किया जाता है अथवा फिर अहंकार के कारण अर्थात् किसी भी कारण से कर्म प्रेरणा होने पर ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ भाव से भावित होकर कर्ताभाव से किया जाता है तथा परिश्रमपूर्वक किया जाता है अर्थात् तृष्णा के कारण, आसक्ति के कारण, भोगों की लालसा के कारण, येन केन प्रकारेण, कितना भी परिश्रम करना हो, वह कर्म किया जाता है, ऐसा कर्म राजसी कहा जाता है |      

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् |
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते || (१८/२५)

अनुबन्धम् क्षयम् हिंसाम् अनवेक्ष्य च पौरुषम् |
मोहात् आरभ्यते कर्म यत् तत् तामसम् उच्यते || (१८/२५)

अनुबन्धम् (अन्ततः), क्षयम् (क्षय), हिंसाम् (हिंसा), अनवेक्ष्य (बिना विचारे), (और), पौरुषम् (सामर्थ्य को) | मोहात् (मोह के कारण), आरभ्यते (आरम्भ किया जाता है ), कर्म (कर्म), यत् (जो), तत् (वह), तामसम् (तामसी), उच्यते (कहा जाता है) | (१८/२५)

जो कर्म अन्ततः क्षय को, हिंसा और सामर्थ्य को बिना विचारे मोहवश आरम्भ किया जाता है, वह तामसी कहा जाता है | (१८/२५)

जो मोहवश अर्थात् तमस के, अज्ञान के कारण किया जाता है और तमस के कारण अपने सामर्थ्य को बिना विचारे किया जाता है जिसका परिणाम क्षय अथवा दूसरों के प्रति हिंसा ही होता है वह तामसी कहा जाता है | 
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः |
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते || (१८/२६)

मुक्त सङ्ग अनहम् वादी धृति उत्साह समन्वितः |
सिद्ध्य असिद्ध्योः निर्विकारः कर्ता सात्त्विकः उच्यते || (१८/२६)

मुक्त(मुक्त), सङ्ग(संग), अनहम् वादी(अहं भावरहित), धृति(धारणा), उत्साह(उत्साह), समन्वितः(युक्त) | सिद्ध्य (सिद्धि), असिद्ध्योः (असिद्धि में), निर्विकारः (विकाररहित), कर्ता (कर्ता), सात्त्विकः (सात्त्विक), उच्यते (कहा जाता है) | (१८/२६)

मुक्त संग, अहंभाव रहित धारणा वाला, उत्साह युक्त, सिद्धि असिद्धि में विकार रहित कर्ता, सात्त्विक कर्ता कहा जाता है | (१८/२६)

स्थूल रूप से देह के भोगों, देह के संबंधो में ममतारहित और अहंकार रहित और सूक्ष्म रूप से रागद्वेष आदि द्वन्द्वों से मुक्त, कामनाओं और आसक्ति से मुक्त पुरुष ही मुक्त संग कहा जाता है तथा ‘अनहम् वादी धृति’ अर्थात् इस क्षेत्र के प्रभाव से, ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ भाव से उत्पन्न कर्ताभाव से, अहंभाव से मुक्त धारणा वाला, तात्पर्य यह कि कि इस क्षेत्र के विकारों और प्रभावों को अपना ना मानने की धारणा वाला और इस कर्ताभाव की धारणा से मुक्त अपने स्व स्वरूप की अनुभूति के कारण उत्साह से युक्त और सिद्धि असिद्धि में विकार रहित अर्थात् जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु किये कर्मों के परिणाम से भी मुक्त कर्ता सात्त्विक कर्ता कहा जाता है |  

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः |
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः || (१८/२७)

रागी कर्म फल प्रेप्सुः लुब्धः हिंसात्मकः अशुचिः |
हर्ष शोक अन्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः || (१८/२७)

रागी (रागी), कर्म फल प्रेप्सुः (कर्मफल की इच्छा वाला), लुब्धः (लोभी), हिंसात्मकः (हिंसात्मक), अशुचिः (अपवित्र) | हर्ष (हर्ष), शोक (शोक से), अन्वितः (युक्त), कर्ता (कर्ता), राजसः (राजसी), परिकीर्तितः (घोषित किया जाता है) | (१८/२७)

रागी, कर्मफल चाहनेवाला, लोभी, हिंसात्मक, अपवित्र, हर्षशोक से युक्त कर्ता राजसी कहा जाता है | (१८/२७)

रागी अर्थात् इस क्षेत्र के सुख दुःख रूपी प्रभावों को अपना जाननेवाला, इस क्षेत्र के कर्ताभाव से भावित होकर कर्मों में प्रवृत होनेवाला और कर्मों के फल का अभिलाषी, लोभी अर्थात् तृष्णा और कामनाओं से ओतप्रोत, हिंसात्मक अर्थात् जिस प्रकार सात्त्विक कर्ता सिद्धि असिद्धि में निर्विकार रहता है, उससे विपरीत सिद्धि असिद्धि में द्वन्द्वों के कारण, काम के पूर्ण ना होने के कारण क्रोध के वश में होनेवाला और अशुचि अर्थात् अन्तःकरण की पवित्रता से परे, प्राप्ति पर हर्ष और अप्राप्ति पर शोक करनेवाला कर्ता राजसी कहा जाता है | यहाँ कर्ता हो अथवा कर्म अथवा फिर ज्ञान, उसका सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक होना प्रकृतिजन्य भावों पर ही निर्भर है और इन भावों से भावातीत होना, इन भावों के कार्यरूप गुणों से गुणातीत होना ही, इस संसार बंधन से मुक्ति का एक मात्र उपाय है |

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः |
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते || (१८/२८)

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठः नैष्कृतिकः अलसः |
विषादी दीर्घ सूत्री च कर्ता तामसः उच्यते || (१८/२८)

अयुक्तः (अयुक्त), प्राकृतः (संस्कारहीन), स्तब्धः (घमण्डी), शठः (कपटी), नैष्कृतिकः (दूसरों का अहित करनेवाला), अलसः (आलसी) | विषादी (विषादी), दीर्घ सूत्री (कार्य में विलम्ब करनेवाला), (और), कर्ता (कर्ता), तामसः (तामसी), उच्यते (कहा जाता है) | (१८/२८)
अयुक्त, असभ्य, घमण्डी, कपटी, दूसरों का अहित करनेवाला, आलसी, विषादी और दीर्घसूत्री कर्ता तामसी कहा जाता है | (१८/२८)

‘अयुक्त’ अर्थात् जिसे कर्ता मानना भी युक्तियुक्त नहीं है तथा जो ‘प्राकृतः’ केवल प्रकृतिजन्य गुणों के कारण ही चेष्टाओं में प्रवृत होता है और तमस के कारण घमण्डी, कपटी, दूसरों का अहित करनेवाला, आलसी, विषादी और दीर्घसूत्री अर्थात् प्रमाद, आलस्य और निद्रा से युक्त कर्ता तामसी कहा जाता है |

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रुणु |
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय || (१८/२९)

बुद्धेः भेदम् धृतेः च एव गुणतः त्रि विधम् श्रृणु |
प्रोच्यमानम् अशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय || (१८/२९)

बुद्धेः भेदम् (बुद्धिभेद), धृतेः (धारणा), (और), एव (ही), गुणतः (गुणों के अनुसार), त्रि (तीन), विधम् (प्रकार की), श्रृणु (सुनो) | प्रोच्यमानम् (कहा जानेवाला), अशेषेण (सम्पूर्णता से), पृथक्त्वेन (विभागपूर्वक), धनञ्जय (धनंजय) | (१८/२९)

धनंजय ! बुद्धि और धारण का ही गुणों के अनुसार तीन प्रकार का सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहा जानेवाला भेद सुन | (१८/२९)

योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को बुद्धि और धारणा को भी सांख्यदर्शन के अनुसार, प्रकृतिजन्य भावों के कारण तीन प्रकार से विभाग सहित कहने की प्रस्तावना करते हैं | बुद्धि और मति का सूक्ष्म भेद हमने अभी पूर्व में मनन किया है, उसी प्रकार बुद्धि और धारणा में भी बहुत सूक्ष्म भेद है, बुद्धि इस क्षेत्र का एक यंत्र है, जो द्वन्द्वों में से एक निश्चयात्मक पक्ष लेता है, मति उस बुद्धि नामक यंत्र को प्रयोग करने हेतु इस क्षेत्र में स्थित पुरुष का अधिकार है और धारणा इस क्षेत्र में स्थित पुरुष की इस क्षेत्र के प्रभावों को मति के द्वारा इस बुद्धि से निश्चित किये गये प्रभावों को धारण करने की क्षमता धारणा कहलाती है | अब बुद्धि और धारणा के भेद | 

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये |
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी || (१८/३०)

प्रवृत्तिम् च निवृत्तिम् च कार्य अकार्ये भय अभये |
बन्धम् मोक्षम् च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी || (१८/३०)

प्रवृत्तिम् (प्रवृति को), (और), निवृत्तिम् (निवृति को), (और), कार्य (कार्य), अकार्ये (अकार्य), भय (भय), अभये (अभय को) | बन्धम् (बंधन को), मोक्षम् (मोक्ष को), (और), या (जो), वेत्ति (जानती है), बुद्धिः (बुद्धि), सा (वह), पार्थ (पार्थ), सात्त्विकी (सात्त्विक है) | (१८/३०)

पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृति निवृति को और कार्य अकार्य को, भय अभय को, बन्धन और मोक्ष को जानती है, वह सात्त्विक है | (१८/३०)

प्रवृति और निवृति को, तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि यज्ञ, दान और तप त्यागने योग्य नहीं है, इन्हें तो करना ही चाहिये अर्थात् इन कर्मों में प्रवृत होने को और काम्य कर्मों से, भोगों से, कर्मफल की आकांक्षा से, द्वन्द्वों से निवृति को और कार्य अकार्य को अर्थात् जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु क्या कर्त्तव्य कर्म है और अवरं अर्थात् तुच्छ कर्म, बंधनकारी कर्म हैं, उसका ज्ञान होना चाहिये और भय अभय को अर्थात् जीव का देह को लेकर, देह के भोगों को लेकर, देह के संबंधो को लेकर, भोग सामग्री की सुरक्षा को लेकर एक भय होता है, इस भय भाव को और इसके विपरीत एक हृदयस्थ ईष्ट के परायण होकर, परमात्मा के ऊपर योगक्षेम की रक्षा का दायित्त्व छोड़कर जीवन निर्वाह करना अभय है, जो इस भय अभय के भेद को जानती है, प्रवृति और निवृति को जानती है, कार्य अकार्य को जानती है, वही बंधन और मोक्ष को जानने वाली बुद्धि सात्त्विक है |      
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च |
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसि || (१८/३१)

यया धर्मम् अधर्मम् च कार्यम् च अकार्यम् एव च |
अयथा वत् प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसि || (१८/३१)

यया (जिसके द्वारा), धर्मम् (धर्म को), अधर्मम् (अधर्म को), (और), कार्यम् (कार्य को), (और), अकार्यम् (अकार्य को), एव (ही), (और), | अयथावत् (यथावत् नहीं), प्रजानाति (जानती है), बुद्धिः (बुद्धि), सा (वह), पार्थ (पार्थ), राजसि (राजसी है) | (१८/३१)

पार्थ ! जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को, कार्य और अकार्य को ही यथार्थ नहीं जाना जाता, वह राजसी है | (१८/३१)

जो बुद्धि धर्म और अधर्म को जानती है, कार्य और अकार्य को भी जानती है परन्तु निश्चयात्मक रूप से नहीं जानती, यथार्थ नहीं जानती, धर्म के प्रति, कर्त्तव्य कर्म के प्रति जिसकी धारणा प्रबल नहीं हो पाती क्योंकी माया उसको मोहित करती रहती है, ऐसी बुद्धि राजसी है |

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता |
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसि || (१८/३२)

अधर्मम् धर्मम् इति या मन्यते तमसा आवृता |
सर्व अर्थान् विपरीतान् च बुद्धिः सा पार्थ तामसी || (१८/३२)

अधर्मम्(अधर्म को), धर्मम् (धर्म), इति (ऐसा), या (जो), मन्यते (मानती है), तमसा (अज्ञान), आवृता (आच्छादित) | सर्व (समस्त), अर्थान् (अर्थों में), विपरीतान् (विपरीत ही), (और), बुद्धिः (बुद्धि), सा (वह), पार्थ (पार्थ), तामसी (तामसी) | (१८/३२)

जो अज्ञान से आच्छादित बुद्धि अधर्म को धर्म, ऐसा मानती है और समस्त अर्थों में विपरीत ही है, वह तामसी है | (१८/३२)

जो कर्तव्य कर्म को निश्चित रूप से जानती है, वह बुद्धि सात्त्विक है, जो कर्त्तव्य कर्म को जानती तो है परन्तु निश्चित रूप से नहीं जानती और माया से भी लिप्त रहती है, वह बुद्धि राजसी है और जो बुद्धि कर्तव्य कर्म को विपरीत रूप से जानती है, और इस प्रकार समस्त अर्थों में विपरीत ही है, वह तामसी है |

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः |
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी || (१८/३३)

धृत्या यया धारयते मनः प्राण इन्द्रिय क्रियाः |
योगेन अव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी || (१८/३३)

धृत्या (धारणा), यया (जिसके द्वारा), धारयते (धारण करता है), मनः (मन), प्राण (प्राण), इन्द्रिय(इन्द्रिय), क्रियाः(क्रियाएँ) | योगेन(योगसे), अव्यभिचारिण्या(अव्यभिचारी), धृतिः (धारणा), सा (वह), पार्थ (पार्थ), सात्त्विकी (सात्त्विक है) | (१८/३३)

योग से युक्त अव्यभिचारिणी धारणा द्वारा मन, प्राण (और) इन्द्रियों की क्रियाओं को जिस धारणा से धारण करता है, वह सात्त्विक है | (१८/३३)

‘योग से युक्त अव्यभिचारिणी धारणा’ तात्पर्य यह कि यह ज्ञान सांख्यदर्शन के अनुसार योग में प्रवृत साधक के प्रति कहा जा रहा है और इस साधक को इस तथ्य का आभास सदैव बना रहना चाहिये कि एक नगर में रहने वाले पुरुष की भांति, वह इस देह रूपी पुर में, क्षेत्र में रहनेवाला एक पुरुष है और व्यभिचार देह के प्रति होता है, जो देह अपनी नहीं है, उस देह के भोगों को भोगना व्यभिचार है, इसी धारणा के अनुसार इस देह के, इस क्षेत्र के प्रभावों को, सुख दुःख को, भोगों को भोगना, इस देह के, इस क्षेत्र के प्रति व्यभिचार है, परमार्थ के साधक को ऐसा व्यभिचार भी नहीं करना चाहिये इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण सांख्य के अनुयायी साधक के प्रति कहते हैं कि योग से युक्त अव्यभिचारिणी धारणा द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को, अर्थात् इस देह की, इस क्षेत्र की क्रियाओं को जिस धारणा से धारण किया जाता है, वह धारणा सात्त्विक है |    

यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन |
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी || (१८/३४)

यया तु धर्म काम अर्थान् धृत्या धारयते अर्जुन |
प्रसङ्गेन फल आकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी || (१८/३४)

यया (जिसके द्वारा), तु (परन्तु), धर्म काम अर्थान् (धर्म अर्थ और काम), धृत्या (धारण), धारयते (धारण की जाती है), अर्जुन (अर्जुन) | प्रसङ्गेन (प्रसंग अनुसार), फल (फल), आकाङ्क्षी (अभिलाषा से), धृतिः (धारणा), सा (वह), पार्थ (पार्थ),  राजसी (राजसी है) | (१८/३४)

परन्तु अर्जुन ! जिस धारणा के द्वारा फल की इच्छा से, प्रसंग अनुसार, धर्म, काम और अर्थ धारण किया जाता है, पार्थ ! वह राजसी है | (१८/३४)

परन्तु जिस धारणा के द्वारा फल की इच्छा से प्रसंग अनुसार धर्म, काम और अर्थ धारण किया जाता है, तात्पर्य यह कि मुक्ति और मोक्ष के भावों से रहित केवल काम और अर्थ के लिये प्रवृति विषयक वैदिक धर्म को धारण किया जाता है, निवृति विषयक गीता शास्त्र रूपी धर्म को धारण नहीं किया जाता, वह धारणा राजसी है |

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च |
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी || (१८/३५)

यया स्वप्नम् भयम् शोकम् विषादम् मदम् एव च |
न विमुञ्चति दुर्मेधाः धृतिः सा पार्थ तामसी || (१८/३५)

यया (जिसके द्वारा), स्वप्नम् (निद्रा), भयम् (भय), शोकम् (शोक), विषादम् (विषाद), मदम् (मद), एव (ही), (और) | न (न), विमुञ्चति (छोड़ता), दुर्मेधाः (दुर्बुद्धि), धृतिः (धारणा), सा (वह), पार्थ (पार्थ), तामसी (तामसी है) | (१८/३५)

जिस धारणा के द्वारा दुर्बुद्धि निद्रा, भय, शोक, विषाद और मद ही नहीं छोड़ता, पार्थ ! वह तामसी है | (१८/३५)

और जिस धारणा के द्वारा ना निवृति विषयक और ना ही प्रवृति विषयक धारणाओं को धारण किया जाता अपितु इस क्षेत्र के प्रभावों के कारण निद्रा, भय, शोक, विषाद और मद से भी मुक्ति नहीं हो पाती, ऐसे दुर्बुद्धि की धारणा तामसी कही जाती है | 

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ |
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति || (१८/३६)
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् |
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् || (१८/३७)

सुखम् तु इदानीम् त्रि विधम् श्रृणु मे भरत ऋषभ |
अभ्यासात् रमते यत्र दुःखान्तम् च निगच्छति || (१८/३६)
यत् तत् अग्रे विषम् व परिणामे अमृत उपमम् |
तत् सुखम् सात्त्विकम् प्रोक्तम् आत्म बुद्धि प्रसाद जम् || (१८/३७)

सुखम्(सुख को), तु(परन्तु), इदानीम्(अब), त्रि(तीन), विधम्(प्रकार के), श्रृणु(सुन), मे(मझसे), भरतऋषभ(भरतश्रेष्ठ) | अभ्यासात् (अभ्याससे), रमते(रमताहै), यत्र(जिसमें), दुःखान्तम्(दुःखोंके अन्तको), (और), निगच्छति(पाताहै) | (१८/३६)
यत् (जो), तत् (वह), अग्रे (आरम्भ में), विषम् (विष तुल्य), परिणामे (परिणाम में), अमृत (अमृत), उपमम् (सदृश्य है) | तत् (वह), सुखम् (सुख), सात्त्विकम् (सात्त्विक), प्रोक्तम् (कहा गया है), आत्म (स्वयं), बुद्धि (बुद्धि), प्रसाद (प्रसन्नता से), जम् (उत्पन्न) | (१८/३७)

भरतश्रेष्ठ ! अब तीन प्रकार के सुख को मुझसे सुन, परन्तु जिसमें अभ्यास से रमता है और दुःखों के अन्त को पाता है | (१८/३६)
वह जो आरम्भ में विषतुल्य और परिणाम में अमृत सदृश्य है, आत्मविषयक बुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न वह सुख सात्त्विक कहा गया है | (१८/३७)

योगेश्वर श्रीकृष्ण अब सुख को भी प्रकृतिजन्य भावों से भावित होने के कारण, सुख भी तीन प्रकार का होने के कारण, सांख्यदर्शन के अनुसार सुख को भी विभागपूर्वक कहने की प्रस्तावना करते हैं |

योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार जिस सुख में अभ्यास से रमा जाता है तात्पर्य यह कि प्रकृतिजन्य ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ भाव से उत्पन्न कर्ताभाव में कोई भी भाव ऐसा नहीं है जो उस पुरुष को क्षेत्र के भावों से भावित करके उस सुख में लगा सके जिस सुख की प्रस्तावन योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कर रहे हैं, इस सुख में सुमति द्वारा सात्विक बुद्धि और सात्विक धारणा द्वारा अभ्यास पूर्वक रमा जाता है और यह सुख दुःखों के अन्त को प्राप्त करने में हेतु है, संसार रूपी दुःख और दुःख रूपी संसार से मुक्ति में हेतु है | यह सुख आरम्भ में विषतुल्य अर्थात् जन्मजन्मान्तर से इस देह के भोगों को भोगने के विपरीत इस देह के प्रति योग से युक्त अव्यभिचारिणी धारणा द्वारा प्राप्त किया जाता है और यह सुख परिणाम में अमृत सदृश्य है, परमभाव की प्राप्ति का कारण है, आत्मविषयक बुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न तात्पर्य यह कि यह सुख अष्टधामूल प्रकृति की देन जो बुद्धि तत्त्व है उससे नहीं अपितु जो बुद्धि आत्म विषयक है, जिसे सुमति कहा जा सकता है, उस बुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न सुख ही सात्त्विक कहा गया है |     

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् |
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् || (१८/३८)

विषय इन्द्रिय संयोगात् यत् तत् अग्रे अमृत उपमम् |
परिणामे विषम् इव तत् सुखम् राजसम् स्मृतम् || (१८/३८)

विषय(विषय), इन्द्रिय(इन्द्रिय), संयोगात्(संयोग से), यत्(जो), तत्(वह), अग्रे(आरम्भ में), अमृत(अमृत), उपमम्(सदृश्य) | परिणामे(परिणाम में), विषम् इव(विष तुल्य), तत्(वह), सुखम्(सुख), राजसम्(राजसी), स्मृतम्(माना गया है) | (१८/३८)

जो विषय (और) इन्द्रियों के संयोग से है, वह आरम्भ में अमृत सदृश्य और परिणाम में विषतुल्य सुख राजसी माना गया है | (१८/३८)

जो विषय और इन्द्रियों के संयोग से है अर्थात् जो क्षेत्र का सुख है, वह आरम्भ में अमृत सदृश्य और परिणाम में विषतुल्य अर्थात् उत्तम अधम योनियों में आवागमन का कारण ही है, ऐसा सुख राजसी माना गया है |

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः |
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् || (१८/३९)

यत् अग्रे च अनुबन्धे च सुखम् मोहनम् आत्मनः |
निद्रा आलस्य प्रमाद उत्थम् तत् तामसम् उदाहृतम् || (१८/३९)


यत् (जो), अग्रे (आरम्भ में), (और), अनुबन्धे (भावी परिणाम में), (और), सुखम् (सुख), मोहनम् (मोहमय), आत्मनः (स्वयं को) | निद्रा (निद्रा), आलस्य (आलस्य), प्रमाद (प्रमाद), उत्थम् (उत्पन्न), तत् (वह), तामसम् (तामसी), उदाहृतम् (कहा गया है) | (१८/३९)

निद्रा, आलस्य, प्रमाद से उत्पन्न, जो आरम्भ में और परिणाम में जीव को मोहित करने वाला सुख है, वह तामसी कहा गया है | (१८/३९) 

निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न अर्थात् प्रकृतिजन्य तमस से उत्पन्न सुख जो आरम्भ में और परिणाम में भी जीव को मोहित करनेवाला है, जीव की अधोगति में हेतु है, ऐसा सुख तामसी कहा गया है |

इस प्रकार पिछले कई अध्यायों से प्रकृतिजन्य भावों से उनके कार्यरूप गुणों की उन भावों के आधार पर व्याख्या करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण इस विषय को यहाँ विराम देते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि इन भावों से मुक्त कौन है |