Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

अध्याय ४

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** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
चतुर्थोऽध्यायः   
अध्याय दो में जिस प्रकार हम लोगों ने मनन करा था कि योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति कहे इन उपदेशों में से वे महावाक्य रूपी उपदेश, जो जीवन निर्वाह करते हुए अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता हेतु तथा योग के आचरण स्वरूप परमतत्त्व की प्राप्ति हेतु, एक विधिविशेष का वर्णन करते हैं, वही कृष्णयोग है | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा पूर्व अध्याय में अर्जुन के प्रति कहे इस विधिविशेष का, कृष्णयोग का सार रूप से मनन करने के पश्चात् इस अध्याय में अध्ययन हेतु प्रवेश करेंगे और यह चिंतन मनन पूर्व समस्त पूर्व अध्यायों का एक साथ सारभूत रूप से करते रहेंगे |

सर्वप्रथम योगेश्वर श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु अधिकारी पुरुष की योग्यताओं का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कौन्तेय ! शीत, उष्ण और सुख, दुःख देनेवाले इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग वियोग तो आनेजाने वाले, अनित्य हैं | भारत उनको सहन करो | (२/१४) इससे लाभ ? तो प्रभु कहते हैं क्योंकी सुख दुःख में समभाव से रहनेवाले जिस धीर पुरुष को यह व्यथित, व्याकुल नहीं करते, वह अमृततत्त्व की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१५) अर्थात् कृष्णयोग को अंगीकार करने का अधिकारी हो जाता है | इस प्रकार समभाव से जीवन निर्वाह करने से, अमृततत्त्व की प्राप्ति का प्रमाण ? इसका प्रमाण देते हुए प्रभु कहते कि इस तथ्य के सत्य और असत्य का प्रमाण, अमृततत्त्व का पान करनेवाले तत्त्वदर्शी महापुरुष स्वयं ही हैं और उन तत्त्वदर्शी महापुरुषों के अनुसार असत्य का तो भाव अर्थात् सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्य का अभाव विद्यमान नहीं है | (२/१६) इस प्रकार सत्य और असत्य तत्त्व को परिभाषित कर, प्रभु स्पष्ट करते हैं कि अविनाशी, सनातन, अप्रमेय, नित्य स्वरूप सत्य तत्त्व तो यह देही है और इस देही की यह देह अन्त को, नाश को प्राप्त होने के कारण असत्य तत्त्व है | (२/१८) इस प्रकार देह-देही के भेद को स्पष्ट करते हुए, परमात्मा श्रीकृष्ण अर्जुन को इस अव्यक्त, अचिन्त्य और निर्विकार देही के गुणधर्म कहते हैं कि यह देही अजन्मा, नित्य, सनातन, पुरातन, अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य स्वरूप है तथा जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों का त्याग करके नवीन वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार यह देही जीर्ण देह का त्याग करके नवीन देह को प्राप्त करता है | (२/१९-२५) और अर्जुन क्योंकी सभी असत्य रूप देहों में यह नित्य, अवध्य देही ही सत्य रूप से स्थित है तथा इस असत्य रूपी देह के संबंध भी निश्चित रूप से असत्य ही होते हैं, अतः देह और देह के संबंधो का मोह अथवा शोक नहीं करना चाहिए | (२/३०) इस प्रकार देह-देही के बोध से युक्त, समभाव से जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है | 
                
इसके पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग की अद्वितीयता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु जीवन में स्वधर्म से उपराम होने को, कर्तव्य कर्मों के त्याग को, अर्जुन के संदर्भ में भिक्षान्न की याचना को अर्थात् सांसारिक कारणों से लिये सन्यास को, संसार से पलायन को प्रभु पाप का आचरण कहते हैं | (२/३३) यही इस कृष्णयोग की अद्वितीयता है कि इसे अंगीकार करने को कोई विधिविशेष नहीं है, संसार का त्याग, गृहस्थी का त्याग आवश्यक नहीं है | अपितु श्रीकृष्ण के अनुसार दुसरे के धर्म से, अर्जुन के संदर्भ में भिक्षान्न की याचना से, स्वधर्म में मरण भी कल्याणकारी है, स्वर्ग का खुला द्वार है | (२/३७) इसलिये अर्जुन को कहते हैं कि जय पराजय में, लाभ हानि में, सुख दुःख में मन और बुद्धि को सम करके अर्थात् समभाव से युक्त होकर युद्ध में अर्थात् स्वधर्म अनुसार कर्तव्य कर्म में लग जा, इस प्रकार तू पाप को प्राप्त नहीं होगा | (२/३८) तात्पर्य यह कि समभाव से, समबुद्धि से युक्त होकर स्वधर्म के अनुसार जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य पाप को, नये कर्मबंधन को प्राप्त नहीं होता अपितु अमृततत्त्व अर्थात् परमार्थ मार्ग हेतु, परमगति, परमधाम हेतु कृष्णयोग को अंगीकार करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है |

इस प्रकार कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु अधिकारी पद की योग्यता का वर्णन करके, योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्णयोग की प्रस्तावना रखते हैं | योगेश्वर के अनुसार जिस बुद्धि से युक्त होकर मनुष्य अमृततत्त्व का अधिकारी बनता है, जिसे अभी पूर्व में परमात्मा ने सांख्य दृष्टि से कहा है, उसी बुद्धि से युक्त होकर कृष्णयोग परायण होने से मनुष्य कर्म बंधन का सर्वथा नाश कर सकेगा | (२/३९) अर्थात् परमपद को, परमधाम को प्राप्त कर सकेगा | यहाँ पूर्व में जिस धीर पुरुष का, इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग वियोग में, समभाव से रहनी का वर्णन है, तत्त्वदर्शी महापुरुषों द्वारा कही सत्य असत्य की परिभाषा, देह देही का भेद और समबुद्धि से युक्त हो स्वधर्म अनुसार कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए जीवन निर्वाह हेतु परमात्मा ने जो उपदेश दिये हैं, वह सब सांख्य-दर्शन के अनुसार कहा है | सांख्य दर्शन अर्थात् अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् (१३/११) अर्थात् अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्व ज्ञान के अनुरूप सर्वत्र परमात्मा तत्व के दर्शन का बौद्धिक ज्ञान | कर्मबंधन के नाश हेतु कृष्णयोग की प्रस्तावन करके, योगेश्वर श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग के क्रियात्मक अथवा चेष्टात्मक पहलुओं को ना कहकर, समभाव से, समबुद्धि से युक्त हो कृष्णयोग परायण होने को ही धर्म कहते हैं तथा इस धर्म की विषेशताओं पर प्रकाश डालते हैं कि इस धर्म के आचरण में, प्रयत्न के आरम्भ का, नाश नहीं होता, कोई विपरीत दोष भी विद्यमान नहीं है तथा इस धर्म का थोड़ा सा भी साधन महान भय से रक्षा करता है | (२/४०) महान भय अर्थात् संसार बंधन और संसार बंधन के कारणों जैसे काम, क्रोध, मोह, मत्सर आदि से रक्षा करता है | तथा इस योग में व्यावसायिक अर्थात् अविनाशी अमृततत्त्व का अर्जन और संचय करने वाली निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है | (२/४१) क्योंकी यह बुद्धि निश्चयपूर्वक एक ही परमतत्त्व के प्रति समर्पित होती है,  अतः निश्चयात्मक होती है  | इसके पश्चात् वेद इत्यादि प्रवृति विषयक शास्त्रों के अनुसार, बंधनकारी काम्यकर्मों में प्रवृत हुए मनुष्यों द्वारा नाशवान और बंधनकारी फल की प्राप्ति का विधान बताते हुए, प्रभु अर्जुन को कृष्ण योग परायण होने हेतु स्पष्ट निर्देश देते हुए गीता शास्त्र का बीजमंत्र रूपी महावाक्य कहते हैं, कि वेद तीन गुणों के बंधनकारी कर्म और नाशवान फल का ही वर्णन करते हैं | अतः अर्जुन ! तू तीनों गुणों से रहित होकर, निर्द्वन्द्व, नित्यसत्वस्थित, निर्योगक्षेम भाव से आत्मपरायण हो जा | (२/४५)
      
गीता शास्त्र के इस बीजमंत्र रूपी महावाक्य का परमात्मा श्रीकृष्ण स्पष्टीकरण भी करते हैं | निस्त्रैगुन्यो भव अर्जुन से परमात्मा श्रीकृष्ण अर्जुन को सन्देश देते हैं कि तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, कर्मफल में कभी नहीं | तू कर्मफल का हेतु कभी ना हो तथा कर्म ना करने में आसक्ति भी ना हो | (२/४७) निर्द्वन्द भाव को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि धनंजय ! योगयुक्त हो कर्मों के प्रति आसक्ति का त्याग करके, सफलता असफलता में सम होकर कर्म करो | समत्व भाव ही योग कहलाता है | (२/४८) निर्योगक्षेम भाव से जो प्राप्ति है, उसके विषय में कहते हैं कि समबुद्धि से युक्त मुनिजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल का त्याग करके, जन्मबंधन से मुक्त होकर, निर्विकार परमपद को प्राप्त होते हैं | (२/५१) नित्यसत्त्वस्थित किस प्रकार रहा जाता है, इस पर कहते हैं कि जिस काल में तेरी बुद्धि संसार मोहरूपी दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी, तब सुनने योग्य को सुन सकेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त कर सकेगा | (२/५२) तथा अन्त में आत्मपरायण होने को कहते हैं कि जिस काल में सुने हुए शास्त्रीय मतभेदों से विचलित तेरी बुद्धि निश्चला अर्थात् एक निष्ठा को प्राप्त होकर स्थिर हो जाएगी, तब तू समाधौ अर्थात् आत्मपरायण हो अचल रूप से योग को प्राप्त हो जायेगा | (२/५३)

इस प्रकार कृष्णयोग के आधारभूत स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रभु अन्त में कहते हैं कि जो पुरुष सम्पूर्ण सांसारिक कामनाओं का त्याग करके, स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित योग परायण हुआ जीवन निर्वाह करता है, वह परमशान्ति को प्राप्त होता है | (२/७१) और पार्थ ! यह परमशान्ति की अवस्था ही, ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थित्ति है, इसको प्राप्त करके पुरुष फिर कभी मोहित नहीं होता तथा इसमें स्थित हुआ पुरुष अन्तकाल में भी ब्रह्म निर्वाण को, परमधाम को  प्राप्त होता है | (२/७२)

द्वितीय अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सांख्य दृष्टि से समत्वं भाव उच्यते तथा योग दृष्टि से योगः कर्मसु कौशलम् कह कर सांख्यदर्शन और योग दोनों से युक्त आचरण हेतु अर्जुन को उपदेश दिया था | परन्तु जैसा सदा से होता आया है, सभी मनुष्य पूर्वज्ञान और पूर्वाग्रह से भावित होते है, उन ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के तथाकतिथ जानकर मनुष्यों का पूर्वज्ञान और पूर्वाग्रह ही अर्जुन के माध्यम से यहाँ पर स्पष्ट होता है | अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण से प्रश्न करता है, कि जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ मान्य है, तब केशव ! मुझे घोर कर्मों में क्यों नियुक्त करते हो ? (३/१) इन मिले हुए वाक्यों से मेरी बुद्धि मोहित ही करते हैं, उस एक को निश्चित करके कहिये, जिससे मैं परम कल्याण को प्राप्त हो जाऊं | (३/२) तब योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में जो कृष्णायोग का उपदेश अर्जुन को दिया था, उसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं | कि निष्पाप अर्जुन इस देही के उत्थान हेतु दो प्रकार का बौद्धिक ज्ञान मेरे द्वारा कहा गया है, जिसमें ज्ञानयोगियों की निष्ठा का ज्ञान अर्थात् समत्वं योग उच्यते का भाव सांख्य दृष्टि से तथा योगः कर्मसु कौशलम् का भाव कर्मयोगियों की दृष्टि से कहा गया है | तथा इन दोनों ज्ञानों का समावेश मैंने तेरे लिये सरल एवं सुगम कृष्णयोग हेतु करा है | (३/३) क्योंकी पुरुष कर्मों का आरम्भ किये बिना ‘नैष्कर्म्य’ को प्राप्त नहीं करता है और ना ही ‘संन्यास’ से सिद्धि को प्राप्त होता है | (३/४) तात्पर्य यह कि इस देही का ना तो योग परायण ना होने से उद्धार होता है और ना केवल सन्यास से ही अर्थात् ज्ञानयोग से ही सिद्धि प्राप्त होती है | इसलिये इन दोनों का समावेश मैंने तेरे लिये सरल एवं सुगम कृष्णयोग हेतु करा है | क्योंकी कोई भी, क्षण मात्र भी, किसी भी अवस्था में कर्म किये बिना नहीं रह सकता, क्योंकी सभी प्रकृतिजन्य गुणों के द्वारा परवश हुए कर्म करने को बाध्य होते हैं | (३/५) इसलिये तू मेरे कहे अनुसार नियतं अर्थात् विधिविशेष से निर्धारित होकर कर्म करो क्योंकी कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से शरीर यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी | (३/८) तात्पर्य यह कि प्रकृतिजन्य गुणों से परवश होकर, जीवन निर्वाह हेतु जिन कर्मों का आचरण आवश्यक है, उनको तू मेरे द्वारा कहे सांख्यदर्शन से भावित होकर, समत्वं योग उच्यते, बुद्धि से कर जिससे तू पाप को प्राप्त नहीं होगा अर्थात् अब और कर्मबंधन उत्पन्न नहीं करेगा तथा पूर्व  कर्मबंधनों के नाश हेतु यज्ञ के निमित्त कर्मों से अन्यत्र समस्त कर्म इस लोक के, शरीर के ही बंधन है, इसलिये कौन्तेय ! उस यज्ञ के लिये कर्मों का, आसक्तिरहित होकर, भलीभाँति आचरण कर | (३/९) 

इस प्रकार योग परायण होने को यज्ञार्थ कर्मों के आचरण का प्रस्ताव रख कर, योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्णयोग परायण को होने तत्पर प्रवेशिका श्रेणी के साधकों हेतु  देवतओं के पूजन का विधान कहते हैं, कि देवतओं के पूजन रूप यज्ञ के द्वारा तुम देवतओं को उन्नत करो, वे देवगण तुमको उन्नत करें, परस्पर उन्नत करते हुए श्रेय को प्राप्त करोगे | (३/११) यहाँ यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि इन यज्ञार्थ कर्मों का आचरण भी सांख्यदर्शन अनुसार होगा अर्थात् निष्काम भाव से, समभाव से होगा | यह यज्ञ दैवी सम्पदा अर्थात् दैविक गुणों के अर्जन और संचय हेतु कहा गया है और इस यज्ञ की अनिवार्यता स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञ द्वारा उन्नत देवता तुम्हें इष्टान भोगान् अर्थात् ईष्ट सम्बन्धी भोगों को देते रहेंगे अर्थात् कर्मबंधन के नाश हेतु दैवी सम्पदा को देते रहेंगे तथा तैः दत्तान् अर्थात् केवल वे ही देनेवाले हैं | (३/१२) इसके पश्चात् अन्य यज्ञों के बारे में ना कहते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण परमार्थ हेतु इन यज्ञों की अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सर्वव्यापी ब्रह्म नित्य ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है | (३/१५,उ०) अतः यज्ञार्थ कर्मों का आचरण अनिवार्य है | कृष्णायोग के स्वरूप को पुनः स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि आसक्तिरहित होकर निरन्तर कार्यंकर्म का भलीभाँति आचरण करो, क्योंकी अनासक्त भाव से कर्मों का आचरण करता हुआ पुरुष परं को प्राप्त होता है | (३/१९) कार्यंकर्म अर्थात् करने योग्य यज्ञार्थ कर्मों का आचरण सांख्यदर्शन के अनुसार समभाव से करता हुआ पुरुष परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त होता है | इसके पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण यह भी स्पष्ट करते हैं कि कृष्णायोग का आचरण केवल मुमुक्षुओं के लिये ही नहीं अपितु मुक्त पुरूषों के लिये भी अनिवार्य है | राजा जनक तथा स्वयं अपना उदाहरण देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ पुरूषों ने भी लोक संग्रह को विचार करते हुए कार्यंकर्मों को करने योग्य ही माना, लोक संग्रह अर्थात् प्रजा की उल्टे मार्ग में जाने वाली प्रवृति के निवारण रूप कार्यंकर्मों के आचरण को ही योग्य माना है | इस प्रकार मनुष्य मात्र के उत्थान हेतु कृष्णयोग के आचरण को अनिवार्य बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण सांख्यदर्शन की दृष्टि से तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् हेतु, कर्मों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते एक प्राकृतिक सिद्धांत की व्याख्या करते हैं कि समस्त कर्म सदैव प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित जीव मैं कर्ता हूँ, ऐसा मानता है | (३/२७) तथा अर्जुन को कर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि परन्तु महाबाहो ! गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त, समस्त गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होते | (३/२८)
  
योगेश्वर श्रीकृष्ण को समस्त विश्व पूर्णावतार मानता है, पूर्णावतार अर्थात् योगस्थ श्रीकृष्ण परमतत्त्व परमात्मा को सम्पूर्ण रूप से प्राप्त एक महापुरुष थे, परमतत्व परमात्मा और उनमें, आंशिक रूप से भी कोई भेद ना था | इस स्थिति को प्राप्त योगेश्वर इस तथ्य से भी भलीभाँति परिचित थे कि प्रकृतिजन्य गुणों के कारण मनुष्य किस प्रकार अपने पूर्वज्ञान और पूर्वाग्रह से भावित रहता है | इसलिये ही उन्होंने (३/२५,२६ एवं २९) में विद्वानों और भविष्य में होनेवाले गीताशास्त्र के व्याख्याकारों को संबोधित करते हुए कहा कि जो कृष्णयोग परायण नहीं हैं, वे प्रकृति के गुणों से मोहित और कर्मों में आसक्त रहते हैं, ऐसे विद्वान कर्म को ना जानने वाले उन मन्दबुद्धि मनुष्यों को कर्म के जानकार विचलित न करें | (३/२९) तथा मुमुक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा कि अध्यात्मचेतसा अर्थात् अन्तरात्मा में चित्त का निरोध करके, समस्त कर्मों को मुझे अर्पण करके आशारहित और ममतारहित होकर युध्यस्व विगतज्वरः अर्थात् संतापरहित होने को युद्ध कर | (३/३०) तथा जो मनुष्य श्रद्धाभाव से, दोषदृष्टि से रहित मेरे इस मत का सदैव अनुसरण करते हैं, वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं | (३/३१) तात्पर्य यह कि जो मेरे मत में दोषारोपण करते हुए इसका अनुसरण नहीं करते, उन ज्ञान से मोहित भ्रमित चित्त वालों को नष्ट हुआ जान | (३/३२) अतः स्पष्ट है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित कृष्णयोग केवल कृष्णयोग है, इसमें कोई भी विद्वान ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग अथवा भक्तियोग को ना खोजे |

इस पर अर्जुन प्रश्न करता है कि तब किस के द्वारा प्रेरित होकर यह पुरुष पाप का आचरण करता है ? वार्ष्णेय ! बिना इच्छा के भी मानो बलात लगाया जाता है | (३/३६) अर्थात् आप से तो प्रेरित नहीं होता, तब आप के कहे अनुसार परमार्थ मार्ग का आचरण ना करके, यह पुरुष किससे प्रेरित होता है ? अर्जुन के इस प्रश्न का समाधान करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि रजोगुण से उत्पन्न यह काम, यह क्रोध कभी तृप्त न होने वाले महापापी हैं, इस विषय में इनको ही वैरी जान | (३/३७) जैसे धुएँ से अग्नि, मैल से दर्पण और गर्भाशय से गर्भ आवृत है, वैसे उनसे (काम और क्रोध से) यह ज्ञान आवृत है | (३/३८) कौन्तेय ! कभी तृप्त ना होनेवाली और ज्ञानियों की नित्य वैरी इस कामरूपी अग्नि से ज्ञान आवृत है | (३/३९) इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके निवास स्थान कहे जाते हैं, इनके द्वारा ही यह ज्ञान को आवृत करके देही को विशेषरूप से मोहित करता है | (३/४०) इसलिये भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! तुम सबसे पहले इन्द्रियों का वश में करके ज्ञान और विज्ञान का नाश करनेवाले पाप के कारण का ही दमन करो | (३/४१) इन्द्रियाँ सूक्ष्म और बलवान हैं, इन्द्रियों से सूक्ष्म और बलवान मन है परन्तु मन से सूक्ष्म और बलवान बुद्धि है परन्तु जो वह (देही) है, वो बुद्धि से भी सूक्ष्म और बलवान है | (३/४२) इस प्रकार बुद्धि से सूक्ष्म और बलवान स्वयं को जानकर, स्वयं के द्वारा स्वयं में स्थित होकर, महाबाहो ! कामरूप दुर्जय शत्रु का परित्याग करो | (३/४३)  

इस प्रकार गीता शास्त्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अब तक कहे, कृष्णयोग से सम्बंधित महावाक्यों का संकलन और पुनरावृति रूप से मनन करके, अब इस चतुर्थ अध्याय में प्रवेश करते हैं |

श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् | 
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् || (४/१)

इमम् विवस्वते योगम् प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् |
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत् || (४/१)

इमम्(इस), विवस्वते(सूर्यदेव से), योगम्(योग को), प्रोक्तवान्(कहा था), अहम्(मैंने), अव्ययम्(अविनाशी) | विवस्वान्(सूर्यदेव ने), मनवे(मनु से), प्राह(कहा), मनुः(मनु ने), इक्ष्वाकवे(राजा इक्ष्वाकु से), अब्रवीत्(कहा) | (४/१)

मैंने इस अविनाशी योग को सूर्यदेव से कहा था, सूर्यदेव ने मनु से कहा, मनु ने राजा इक्ष्वाकु से कहा | (४/१)

सूर्य इस सृष्टि का अनादि तत्त्व है और परमतत्त्व परमात्मा ने यह अविनाशी योग सूर्य से कहा था, तात्पर्य स्पष्ट है कि परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त करने का यह कृष्णयोग रूपी विधिविधान भी सनातन है, अविनाशी है | सूर्यदेव ने यह योग अपने पुत्र मनु से कहा और मनु ने राजा इक्ष्वाकु से कहा, तात्पर्य यह कि इस प्रकार यह योग परंपरागत रूप से दूसरी पीड़ी के मुमुक्षुओं को प्राप्त होता रहा | 


एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः |
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || (४/२)

एवम् परम्परा प्राप्तम् इमम् राज ऋषयः विदुः |
सः कालेन इह महता योगः नष्टः परन्तप || (४/२)

एवम्(इस प्रकार), परम्परा(परम्परा से), प्राप्तम्(प्राप्त होकर), इमम्(इस), राज(राज), ऋषयः(ऋषियों ने), विदुः(जाना) | सः (वह), कालेन(काल से), इह(इस लोक में), महता(महान), योगः(योग), नष्टः(नष्ट हो गया), परन्तप(परन्तप) | (४/२)

परन्तप ! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, वह महान योग कालान्तर में इस लोक में नष्ट हो गया | (४/२)

इस प्रकार परम्परा से प्राप्त अर्थात् कृष्णयोग परायण हो योग की पराकाष्ठा को, परमतत्त्व को प्राप्त महापुरुषों ने, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि यह परमशान्ति को प्राप्त, ब्रह्म में स्थित महापुरुषों की स्थिति है, (२/७२)  उन स्थितप्रज्ञ पुरूषों ने यह कृष्णयोग अगली पीड़ी के मुमुक्षुओं को कहा | इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना | राजर्षि अर्थात् वे ऋषि जिन्होंने इस योग के आचरण स्वरूप अपने स्वरूप की प्राप्ति, परमतत्त्व की प्राप्ति की थी | वह महान योग, कृष्णयोग कालान्तर में इस लोक में नष्ट हो गया | योग तो सनातन और अविनाशी है, यह नष्ट तो नहीं होता परन्तु इस योग के मूलरूप को मनुष्यों ने विस्मरण कर दिया, अतः यह कृष्णयोग लुप्तप्राय हो गया | लुप्तप्राय कैसे हुआ ? जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व अध्याय में कह आयें हैं कि सभी प्राणी प्रकृति से भावित हैं, ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, इसमें हठ क्या है ? (३/३३) जब ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार, अपने स्वभाव के अनुसार ही चेष्टा करता है, अपने ज्ञान और ज्ञान से उत्पन्न पूर्वाग्रह के अनुसार ही बरतता है, तब मन्दबुद्धि पुरूषों का तो क्या ही कहना | इन ज्ञानवानों ने कृष्णयोग को तो विस्मृत कर दिया और उसके स्थान पर ज्ञानवानों ने ज्ञानयोग, कर्म में निष्ठा रखनेवालों ने कर्मयोग और भक्तिभाव से भावित जनों ने भक्तियोग आदि का विधिविधान कर लिया | इस प्रकार कृष्णायोग लुप्तप्राय हो गया|

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः |
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्योतदुत्तमम् || (४/३)

सः एव अयम् मया ते अद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः |
भक्तः असि मे सखा च इति रहस्यम् हि एतत् उत्तमम् || (४/३)

सः(वह), एव(ही), अयम्(यह), मया(मेरे द्वारा), ते(तुझको), अद्य(आज), योगः(योग), प्रोक्तः(कहा है), पुरातनः(पुरातन) | भक्तः (भक्त), असि(है),  मे(मेरा), सखा(मित्र),(और), इति(इसलिये), रहस्यम्(रहस्यमय है), हि(क्योंकी), एतत्(यह), उत्तमम्(अति उत्तम) | (४/३)   

वही यह पुरातन योग आज मेरे द्वारा तुझको कहा गया है, (तू) मेरा भक्त है और मित्र है,  (इति) इसलिये कहा कहा है, क्योंकी यह अत्ति उत्तम और रहस्यमय है | (४/३)

वही यह पुरातन योग आज मेरे द्वारा तुझको कहा गया है, तू मेरा मित्र और भक्त है, परम कल्याण की याचना किये है, इसलिये यह योग तुझसे कहा है, क्योंकी यह पुरातन, सनातन और अविनाशी कृष्णयोग अत्ति उत्तम और रहस्यमय है | रहस्यमय अर्थात् समझने में थोड़ा जटिल है, परन्तु आचरण में सुगम और सरल है | परमात्मा श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि तू मेरा मित्र और भक्त है, इसलिये यह योग तेरे कल्याण हेतु मैंने आज कहा | तो क्या जो श्रीकृष्ण का मित्र और भक्त नहीं है, वह इस कृष्णयोग को अधिकारी नहीं है ? वस्तुतः यही सत्य है, जो परमतत्त्व परमात्मा से सखा भाव नहीं रखता, उनका भक्त नहीं है, उनके प्रति श्रद्धा नहीं रखता, उसे यह योग नहीं कहना चाहिये | इस तथ्य की पुष्टि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्वयं (१८/६७ से ७१ तक) करी है | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यह योग अर्जुन को आज कहा अपितु अभी कह ही तो रहें है, इसलिये अर्जुन इतना शीघ्र योगेश्वर द्वारा कही योग बुद्धि से भावित नहीं हो पाया, अर्जुन को स्मरण नहीं रहा कि योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित यह योग देह को नहीं अपितु देही को संबोधित करके कहा गया है | इस भ्रमित भाव बुद्धि से अर्जुन योगेश्वर से प्रश्न करता है | कि  

अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः |
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति || (४/४)

अपरं भवतः जन्म परम् जन्म विवस्वतः |
कथम् एतत् विजानीयाम् त्वम् आदौ प्रोक्तवान् इति || (४/४)

अपरं(अभी का), भवतः(आपका), जन्म(जन्म), परम्(परम्). जन्म(जन्म), विवस्वतः(सूर्य देव का) | कथम्(कैसे). एतत् (यह), विजानीयाम्(समझूँ), त्वम्(आपने), आदौ(सबसे पूर्व), प्रोक्तवान्(कहा था), इति(अतः) | (४/४)

आपका जन्म अभी हुआ है, सूर्यदेव का जन्म परं अर्थात् सृष्टि से पूर्व का है, आपने से यह योग सबसे पूर्व कहा था, अतः यह कैसे समझूँ ? (४/४) 

आपका जन्म अर्थात् इस देह के साथ आप तो आप अभी उत्पन्न हुए हैं, सूर्यदेव का जन्म अर्थात् सुर्येदेव अपनी देह के साथ सृष्टि में जीवों की उत्पत्ति से पूर्व भी थे | अतः सृष्टि में पुरूषों की उत्पत्ति से पूर्व आपने यह योग सूर्यदेव से कहा था, इस तथ्य को मैं कैसे समझूँ ? सत्य भी है कि देहधारी श्रीकृष्ण ने तो अभी हाल ही में जन्म लिया है तब सूर्यदेव से, मनु अर्थात् मनुष्यों में परमभाव को प्राप्त प्रथम पुरुष के होने से भी पूर्व आपने यह कैसे कहा ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रति देह देही के भेद को पुनः कहते हुए और परमतत्त्व परमात्मा की उत्पत्ति और उनके अविर्भाव को स्पष्ट करते हुए कहते हैं | कि 

श्रीभगवानुवाच  
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन |
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप || (४/५)

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव च अर्जुन |
तानि अहम् वेद सर्वाणि न त्वम् वेत्थ परन्तप || (४/५)

बहूनि(अनेक), मे(मेरे), व्यतीतानि(व्यतीत हो चुके), जन्मानि(जन्म), तव(तेरे),(और), अर्जुन(अर्जुन) | तानि(उन), अहम् (मैं), वेद(जानता हूँ), सर्वाणि(सबको),(नहीं), त्वम्(तुम), वेत्थ(जानते), परन्तप(परन्तप) | (४/५)

अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेक जन्म व्यतीत हो चुके हैं, परन्तप ! उन सबको मैं जानता हूँ, तुम नहीं जानते | (४/५)

मेरे और तेरे अनेकानेक जन्म व्यतीत ही चुके हैं अर्थात् अनेकों जन्मों से मैं और तू इन देहों की यात्रा कर रहें हैं, तुम अब भी ऐसा नहीं जानते, परन्तु मैं जानता हूँ | क्योंकी अब मैं देह देही के भेद का ज्ञाता, योग परायण हुआ परमतत्त्व परमात्मा में, ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति में स्थित हूँ | अब मैं देहमुक्त हुआ, योगस्थ हुआ परमभाव को प्राप्त हूँ, और इस भाव से, इस प्रकार योगस्थ होता हुआ भी -

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया || (४/६)

अजः अपि सन् अव्यय आत्मा भूतानाम् ईश्वरः अपि सन् |
प्रकृतिम् स्वाम् अधिष्ठाय सम्भवामि आत्म मायया || (४/६)

अजः(अजन्मा), अपि(भी), सन्(होते हुए), अव्यय(अविनाशी), आत्मा(स्वरूप), भूतानाम्(प्राणियों का), ईश्वरः(ईश्वर), अपि (भी), सन्(होते हुए) | प्रकृतिम्(प्रकृति को), स्वाम्(अपने), अधिष्ठाय(अधीन करके), सम्भवामि(सम्भव होता हूँ), आत्म(आत्म), मायया(माया से) | (४/६)

मैं अजन्मा, अविनाशी स्वरूप होते हुए, समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी, प्रकृति को अपने अधीन करके आत्ममाया से संभव होता हूँ | (४/६) 

यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस महावाक्य के प्रत्येक वाक्यांश का ध्यानपूर्वक मनन अत्यन्त आवश्यक है, योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं अजन्मा, अविनाशी स्वरूप होते हुए, तात्पर्य यह कि वास्तविक स्वरूप तो अर्जुन तुम्हारा भी यही है, परन्तु तुम माया के पाश से बंधे अपने स्वरूप को विस्मृत करे हो, परन्तु मैं अपने स्वरूप में स्थित अजन्मा, अविनाशी स्वरूप होते हुए भी, समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी, यहाँ मनन करने को है कि आप ईश्वर कैसे हो गये ? वस्तुतः जो मन और बुद्धि द्वारा नित्य स्वतः ही समत्वं योग उच्यते भाव से, भावित रहता है तथा योगः कर्मसु कौशलम् भाव से कर्मों का आचरण करता है, वह प्रकृति के गुणों से अतीत होकर, जिसके लिये योगेश्वर का अर्जुन को निर्देश था कि निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन, उस भाव से भावित होकर, गुणातीत हुआ कर्मों का आचरण करता है, वह पुरुष माया के पाश से, प्रकृति के बंधन से मुक्त होता है तथा आत्मा में रमण करनेवाला, आत्मा से ही तृप्त, आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, वह इस देह का स्वामी ही नहीं अपितु इस देह का ईश्वर हो जाता है, देह अर्थात् इस लोक का ईश्वर हो जाता है | वह प्रकृति के अधीन नहीं रहता अपितु प्रकृति को अधीन करके आत्ममाया से संभव होता है, प्रकट होता है | परन्तु आप तो अपने जन्म से ही प्रकट हैं, देहधारी कृष्ण तो जन्मा हुआ है, तब यह संभव होना, प्रकट होना क्या है ?

वस्तुतः देही इस पंचभोतिक देह को तो प्रारब्धवश प्राप्त होता है परन्तु आत्म में ही रमण, आत्मा से ही तृप्त और आत्मा से ही संतुष्ट रहनावाले पुरुष को यह इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि व्यथित, व्याकुल नहीं कर पाते क्योंकी अब यह देह, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि, उस परमतत्त्व परमात्मा हेतु यंत्रमात्र ही होते हैं, ऐसा पुरुष माया के पाश से बंधा जीव नहीं अपितु माया को अपने अधीन कर, परमात्मा का यह सनातन अंश, इस देह का ईश्वर होता है तथा इस स्थिति में जन्म से नहीं अपितु कर्म से संभव हुआ जाता है, यह द्विज की स्थिति है | इसी को योगेश्वर ने कहा है कि सम्भवामि, संभव होता हूँ | इस प्रकार ईश्वर का इस देह में संभव होने पर, परमतत्त्व परमात्मा के प्रकट होने पर एक मनन | 
   
श्री नरसिंह भगवान की प्रचलित कथा है कि वे प्रहलाद की रक्षा हेतु खम्बा फाड़ कर प्रकट हुए थे, श्रीराम और श्रीकृष्ण के जन्म के संदर्भ में भक्तों की मान्यता है कि नारायण द्वारा साक्षात् दर्शन देने के पश्चात्, माँ के कहने पर ही वे बाल रूप में प्रकट हुए थे | भक्तिभाव में तन्मय हुए भक्तों का यह आनंदभाव है, परन्तु वास्तविकता तो कुछ अन्य ही है | परमतत्त्व परमात्मा ना इस प्रकार जन्म लेता है, ना इस प्रकार उनका होना संभव है और ना वे इस प्रकार प्रकट ही होते हैं | तब योगेश्वर का यह कथन कैसे संभव होगा कि वह प्रकट होते हैं ? सत्य है कि परमात्मा तत्त्व प्रकट होता है | तब कहाँ से प्रकट होते है ? प्रकट तो वहीं से हो सकते हैं, जहाँ रहते हैं | तब परमात्मा कहाँ रहते हैं ? योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्वयं ही कहा है कि ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (१८/६१) अर्जुन ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय देश में रहता है | तब तो प्रकट भी हृदय देश से ही होते होंगे ? अक्षरसः सत्य है यह कथन | परमतत्त्व परमात्मा स्थितप्रज्ञ महापुरुषों के, योगस्थ महापुरुषों के, योगेश्वर के हृदय से ही प्रकट होते हैं | इन ब्रह्म में स्थित महापुरुषों के हृदय से परमात्मा का प्रकट प्रकट होना ही, प्रकृति को अधीन कर के प्रकट होना है क्योंकी यह महापुरुष प्रकृति के गुणों से अतीत, गुणातीत होते हैं | प्रकृति के ईश्वर होते हैं, प्रकृति इनके अधीन होती है |

अब आत्ममाया पर मनन ! योगस्थ महापुरुषों की देह, उनकी बुद्धि, उनकी वाणी इत्यादि सभी उस परमतत्त्व के लिये यंत्र मात्र हो जाते हैं, शरीर तो महापुरुषों का ही अर्थात् देहधारी जीव का ही होता है, परन्तु उससे उठना, बैठना, बोलना इत्यादि लीलाएँ वह अव्यक्त ब्रह्म ही करता है | अपने निवास स्थान से, आत्मा से ऐसा करना ही आत्म माया से प्रकट होना है | इसे और स्पष्ट समझने को ऐसा जानें कि जिस जीवात्मा ने राजा दशरथ और माँ कौशल्या से पुत्र रूप में जन्म लिया था और ऋषि वशिष्ठ ने जिनका नामकरण कर उन्हें राम कहा था, उस जीवात्मा ने उस जन्म में ही अपने कर्मों के परिणाम स्वरूप परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त कर लिया था | अब वह जीवात्मा कभी पिण्ड रूप में जन्म नहीं लेगी | परन्तु होता यह है कि जब कभी कोई अन्य महापुरुष योगस्थ होता है तब वह योगस्थ अवस्था से यह कहता है कि रामः शस्त्रभृतामहम् (१०/३१) शस्त्रधारियों में राम मैं हूँ | तो क्या यह राम का पुनर्जन्म है ? ऐसा नहीं है | राम रूप में जन्मी वह जीवात्मा अब परमतत्त्व में विलीन हो चुकी है और वही परमतत्त्व अब योगस्थ श्रीकृष्ण के हृदय से प्रकट होकर, उन्ही की वाणी से बोल रहा है |

पुनः पुनः यही होता है | वह जीवात्मा जिसने वसुदेव और माँ देवकी के पुत्र के रूप में जन्म लिया और जरा नामक शिकारी के बाण देह को त्यागकर परमतत्त्व में विलीन हो गया था, उस श्रीकृष्ण का पुनः पिण्ड रूप में जन्म नहीं होगा | परन्तु परमतत्त्व परमात्मा फिर फिर प्रकट होते हैं, कभी राम के रूप में, कभी कृष्ण के रूप में तो कभी ठाकुर रामकृष्ण के रूप में | योगयुक्त हो, योगस्थ हो ठाकुर रामकृष्ण भी अपने शिष्यों से कहते हैं कि आज मैं परमतत्त्व को पा गया, सत्य जानो मैं ही शस्त्रधारी राम था, मैं ही चक्रधारी कृष्ण था | यह परमतत्त्व परमात्मा का प्रकट होना, अपनी आत्ममाया से, योगमाया से प्रकट होना, प्रकृति को अधीन करके प्रकट होना, समस्त प्राणियों के ईश्वर का प्रकट होना, अजन्मा और अविनाशी होते हुए भी प्रकट होना सदैव होता रहा है और होता रहेगा | यही परमात्मा के जन्म की दिव्यता, आलौलिकाता है | परमात्मा का यह अलौकिक जन्म किन कारणों हेतु होता है, उस पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं | कि
  
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् || (४/७)

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिः भवति भारत |
अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदा आत्मानम् सृजामि अहम् || (४/७)
                                                                                                                                                                                                                  
यदा(जब), यदा(जब), हि(क्योंकी), धर्मस्य(धर्मं की), ग्लानिः(ग्लानी), भवति(होती है), भारत(भारत) | अभ्युत्थानम्(वृद्धि), अधर्मस्य(अधर्म की), तदा(तब), आत्मानम्(स्वयं को), सृजामि(सृजित करता हूँ), अहम्(मैं) | (४/७)

भारत ! जब जब धर्म की ग्लानि होती है क्योंकी अधर्म की वृद्धि होती है, तब मैं स्वयं को सृजित करता हूँ | (४/७)

धर्म के प्रति ग्लानि को धर्म की हानि अथवा धर्म का नाश होता है, ऐसा लगभग सभी व्याख्याकार कहते हैं | धर्म की हानि अथवा धर्म का नाश ? क्या धर्म कोई छुईमुई का पौधा है, जिसका हानि या नाश हो, धर्म तो एक सिद्धांत है और सिद्धांत का कैसा नाश अथवा कैसी हानि | वस्तुतः ना धर्म का नाश होता है, ना धर्म की हानि होती है | नाश को तो योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार वे प्राप्त होते हैं जो उनके मत में दोषारोपण करते हुए उसका अनुसरण नहीं करते, उन ज्ञान से मोहित भ्रमित चित्त वालों को नष्ट हुआ जान | (३/३२) अतः नाश तो भ्रमित चित्त वालों का होता है, जो योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों में भी दोषारोपण करते हुए उनका अनुसरण नहीं करते | जीव का आवागमन माया के बंधन के कारण है, जब तक जीव प्रवृति विषयक वैदिक धर्म, काम और अर्थ रूपी धर्म का पालन करता है, स्वर्गादिक भोगों की लालसा करता है, तब तक जीव माया के पाश से बंधा जन्म मरण के चक्र में ही घूमता है | नाश को, हानि को प्राप्त होता है | क्योंकी योगेश्वर के अनुसार ही जो इस लोक में इस प्रकार प्रचलित सृष्टिक्रम के अनुसार नहीं बरतता, पार्थ ! इन्द्रियों का आराम चाहने वाला वह पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है | (३/१६)

अगर ऐसा है तो योगेश्वर के महावाक्य का क्या अर्थ है ? वस्तुतः यह वेदरूपी प्रवृति विषयक धर्म यद्यपि स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति का साधन है, परन्तु साधन तो भोगों का ही है और यह भोग अंततः नाश का ही कारण बनते हैं | आसक्ति, तृष्णा का ही कारण बनते हैं, काम, क्रोध, मोह, मत्सर का ही कारण बनते हैं | एक ब्राह्मण पुत्र को, वेदों के ज्ञाता पुरुष को राक्षसराज रावण ही बनाते हैं | परन्तु निष्काम भाव से, समभाव से किये पुण्यों के परिणाम स्वरूप अथवा तत्त्वदर्शी महापुरुषों के सान्निध्य से, उनके उपदेशों स्वरूप जब मनुष्य ऐसे कामरूपी और अर्थरूपी धर्म का सम्पूर्ण भाव से आचरण करते हुए भी राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि दुर्गुणों से पार नहीं पाता, तब उसे इस काम और अर्थ रूपी धर्म के प्रति ग्लानि होने लगती है क्योंकी ऐसे धर्म के पालन से भी अंततः आसुरी सम्पदा से मुक्ति नहीं होती, उसका नाश नहीं होता अपितु काम, क्रोध, मोह रूपी अधर्म की वृद्धि ही होती है | जब जब मनुष्य में ऐसे काम और अर्थरूपी धर्म के प्रति ग्लानि होती है, उसमें कल्याण की अभिलाषा जागृत होती है, तब योगेश्वर स्वयं को सृजित करते हैं | उस मनुष्य के हृदय देश में सारथि बन कर उसका दिशा निर्देश करते हैं | परमतत्त्व परमात्मा का सृजित होना, मनुष्य के हृदय में उस धर्म का सृजन होना है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस धर्म का थोड़ा सा भी आचरण महान भय से रक्षा करता है | (२/४०,उ०) तात्पर्य यह कि धर्म तो उसे ही कहते हैं जिसका थोड़ा सा भी आचरण महान भय से रक्षा करता है, माया के पाश से, आवागमन से, काम, क्रोध से रक्षा करता है | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित ऐसे धर्म के प्रति क्या ग्लानि होगी ? अथवा गीता के व्याख्याकारों के कहे अनुसार ऐसे धर्म की क्या हानि होगी, अथवा क्या नाश होगा, जिसका थोड़ा सा भी साधन महान भय से रक्षा करता है | इस मनन के पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण का महावाक्य स्पष्ट होता है कि

 जब जब मनुष्य को प्रवृति विषयक धर्म के प्रति ग्लानि होती है क्योंकी इससे काम, क्रोध आदि आसुरी सम्पदा का नाश नहीं होता, आवागमन से मुक्ति नहीं होती, अधर्म की ही वृद्धि होती है | तब मैं उस मनुष्य के हृदय देश में स्वयं को सृजित करता हूँ, उसके हृदय में परमतत्त्व परमात्मा का सृजन होता है | आपका यह सृजन किस हेतु होता है ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि 

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || (४/८)

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्म संस्थापन अर्थाय सम्भवामि युगे युगे || (४/८)

परित्राणाय(उद्धार के लिये), साधूनाम्(साधुओं के), विनाशाय(विनाश के लिये),(और), दुष्कृताम्(दुष्कृत्य करनेवाले) | धर्म(धर्म), संस्थापन(भलीभाँति स्थापना), अर्थाय(के लिये), सम्भवामि(सम्भव होता हूँ), युगे(युग में) युगे(युग में) | (४/८)

साधुओं के उद्धार के लिये और दुष्कृत्य करनेवालों के विनाश के लिये, धर्म की भलीभाँति स्थापना के लिये मैं युग युग में संभव होता हूँ | (४/८)

मनन करें कि वो साधु पुरुष क्या जो अपना उद्धार भी स्वयं ना कर सके और वो परमात्मा क्या जिसे अपने ही अंश का नाश करने को देह धारण करनी पड़े तथा वो धर्म क्या जो मिट्टी के ढेर की तरह ढह जाता हो और परमात्मा को उसे स्थापित करने को पुनः पुनः युग युग में जन्म लेना पड़ता हो | इसके विपरीत परमात्मा श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि परमात्मा ना तो मनुष्यों के कर्तापन की, ना कर्मों की, और ना कर्मफल के साथ संयोग की रचना करते हैं, परन्तु स्वभाव ही बरत रहा है | (५/१४) साथ ही यह भी कहते हैं कि सर्वव्यापी परमात्मा ना किसी के पाप कर्म को और ना शुभ कर्म को ही ग्रहण करता है | (५/१५,पु०) तब गीता शास्त्र के व्याख्याकार किस परमात्मा के जन्म की व्याख्या करके उन्हें साधुओं के उद्धार को अथवा दुष्कृत्य करने वालों के विनाश हेतु देह धारण करवाते हैं ?

वस्तुतः गीता शास्त्र निवृति विषयक शास्त्र है, जो साधक योगेश्वर के उपदेशानुसार आचरण करते हैं, दैवी सम्पदा का अर्जन करते हैं, उनके उर्ध्वमुखी उत्थान हेतु तथा दुष्कृताम् अर्थात् दूषित कर्मों में सहायक जैसे काम, क्रोध, राग, द्वेष आदि जो आसुरी सम्पदा है, उसका नाश करने को तथा परमार्थ मार्ग के साधकों के हृदय में धर्म की भलीभाँति स्थापना के लिये परमात्मा युग युग में प्रकट होते हैं | यहाँ योगेश्वर जिस धर्म की स्थापना की चर्चा कर रहे हैं, वह कोई प्रवृति विषयक कामरूपी, अर्थरुपी वैदिक धर्म नहीं है, आज के संदर्भ में कहें तो योगेश्वर हिन्दू, जैन, बौद्ध अथवा सिख धर्म की चर्चा नहीं कर रहे हैं अपितु यह उस धर्म की स्थापना की चर्चा है जिसके आचरण का उपदेश देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा था कि स्वल्पम् अपि अस्य धर्मस्य त्रायते महतः भयात् || (२/४०) अर्थात् इस धर्म का थोड़ा सा भी आचरण महान भय से, दुष्कृताम् से रक्षा करता है | इस  कृष्णयोग की भलीभाँति स्थापना के लिये परमात्मा प्रकट होते हैं किन्तु इस धर्म का आचरण आत्म परायण हो कर करा जाता है इसलिये जहाँ धर्म की स्थापन करनी है, वहीं परमात्मा प्रकट होते हैं अर्थात् योग परायण साधक के हृदय देश में ही प्रकट होते हैं | तथा युग युग में ऐसा संभव होता है अर्थात् अनादि काल से यही परम्परा है कि परमार्थ मार्ग के साधकों के उर्ध्वमुखी उत्थान को, परमात्मा उनके हृदय देश में प्रकट होते है, उनका दिशा निर्देश करते हैं | यही साधु पुरूषों का उत्थान है और यही दुष्कृताम् का विनाश है और यही योगेश्वर के कर्मों की दिव्यता है | यही योगेश्वर के कर्मो की आलोकिकता है | इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं | कि

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || (४/९)

जन्म कर्म च मे दिव्यम् एवम् यः वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहम् पुनः जन्म न ति माम् ति सः अर्जुन || (४/९)

जन्म(जन्म), कर्म(कर्म),(और), मे(मेरे), दिव्यम्(अलौकिक), एवम्(इस प्रकार), यः(जो), वेत्ति(जान लेता है), तत्त्वतः(तत्त्व रूप से) | त्यक्त्वा(त्याग कर), देहम्(देह को), पुनः(पुनः), जन्म(जन्म),(नहीं), ति(प्राप्त होता है), माम्(मझको), ति(प्राप्त होता है), सः(वह), अर्जुन(अर्जुन) | (४/९)

अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म अलौकिक हैं, इस प्रकार जो तत्त्व से जान लेता है, वह देह को त्यागकर पुनः जन्म को प्राप्त नहीं होता, मुझको प्राप्त होता है | (४/९)

मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं अर्थात् अलौकिक हैं, लौकिक नहीं हैं, देह चक्षु से देखने में नहीं आते, इसलिये इन कर्मों को करने हेतु, देह की, लौकिक जन्म की आवश्यकता भी नहीं है | इस प्रकार जो तत्त्व से जान लेता है, तत्त्व से अर्थात् जैसा हमने मनन करा इस प्रकार नहीं अपितु जिसके हृदय देश में परमात्मा रथी बनकर निर्देश करते हैं, उन निर्देशों को जो तत्त्व से जान लेता है | वह देह को त्यागकर पुनः जन्म को प्राप्त नहीं होता अपितु मुझको, परमतत्त्व परमात्मा को ही प्राप्त होता है |   

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः |
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः || (४/१०)

वीत राग भय क्रोधाः मत् मया माम् उपाश्रिताः |
बहवः ज्ञान तपसा पूताः मत् भावम् आगताः || (४/१०)

वीत(मुक्त), राग(राग), भय(भय), क्रोधाः(क्रोध से), मत्(मेरे), मया(मेरे द्वारा) माम्(मुझमें), उपाश्रिताः(आश्रित रहनेवाले) | बहवः(अनेक), ज्ञान(ज्ञान), तपसा(तप से), पूताः(पवित्र होकर), मत्(मेरे), भावम्(भाव को), आगताः(प्राप्त होगये हैं) | (४/१०)

मुझमें तन्मय होकर मझ पर आश्रित होकर, राग, भय, क्रोध से मुक्त हो, अनेक ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर, मेरे भाव को प्राप्त हो गये हैं | (४/१०)

मन्मया जो मुझमें तन्मय होकर मामुपाश्रिताः मुझ पर आश्रित है तात्पर्य यह कि जो अनन्य भाव से मेरे कहे अनुसार धर्म का आचरण करता है, मेरे मत का अनुसरण करता है, कृष्णयोग परायण हो साधना करता है, वह संसार के महान भय से, राग द्वेष से, काम क्रोध से मुक्त हो जाता है | इस प्रकार संसार के महान भय से मुक्त हुआ साधक ही ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर मेरे भाव को, परं भाव को प्राप्त होता है |

यहाँ यह ज्ञानरूप तप क्या है ? इस पर थोड़ा सा मनन आवश्यक है | साधारण दृष्टि से तो परमात्मा के उपदेशों का चिंतन मनन करना, प्रभु द्वारा तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् कहे उपदेशों का अक्षरशः पालन करना ही ज्ञानरूपी तप जान पड़ता है | परन्तु यह सत्य नहीं है | इस श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ज्ञान शब्द से जो तात्पर्य है वह तत्त्व- ज्ञानार्थदर्शनम् हेतु कहा बौद्धिक नहीं है, यह वह ज्ञान है जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं भी अर्जुन को नहीं कह पाए, यह ज्ञान कहने सुनने का विषय नहीं है, गुरु शिष्य का विषय नहीं है, योगेश्वर श्रीकृष्ण की तरह कोई सद्गुरु ही हृदयस्थ हो इस ज्ञान की प्राप्ति को दिशा निर्देश करता है | यह ज्ञान ही गीता शास्त्र का सार है परन्तु यह ज्ञान मनुष्य को स्वयं प्राप्त करना पड़ता है, इसके लिये स्वयं प्रयत्न करना पड़ता है, ज्ञान रूपी तप हेतु स्वयं ही कर्म करने पड़ते हैं, यज्ञार्थ कर्म करने पड़ते हैं | कृष्णयोग परायण साधक इस ज्ञानरुपी तप का भलीभाँति आचरण कर पाए, इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण अभी इस ज्ञान रूपी तप को ना कहकर पहले अगले आठ श्लोकों में अर्थात् (४/१८) तक पहले कर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं, उसके पश्चात् पाँच श्लोकों में अर्थात् (४/२३) तक इन कर्मों की अनिवार्यता और उपयोगिता का वर्णन करते हैं | तत्पश्चात यज्ञ का स्वरूप स्पष्ट करते हैं, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि यज्ञ के निमित्त कर्मों से अन्यत्र समस्त कर्म इस लोक का बंधन है, कौन्तेय ! उस यज्ञ के लिये कर्मों का, आसक्तिरहित होकर, भलीभाँति आचरण कर |(३/९) इन यज्ञार्थ कर्मों को, यज्ञ के स्वरूप को अगले नौ श्लोकों में अर्थात् (४/३२) तक स्पष्ट रूप से कहकर, योगेश्वर अगले पाँच श्लोकों में ज्ञानरूपी यज्ञ की, ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हैं और श्लोक संख्या (४/३८) में गीता शास्त्र का सार कहते हैं | आइये पहले अगले आठ श्लोकों में कर्म के स्वरूप का अध्ययन मनन करें |  

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || (४/११)

ये यथा माम् प्रपद्यन्ते तान् तथा एव भजामि अहम् |
मम वर्त्म अनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || (४/११)

ये(जो), यथा(जैसे), माम्(मुझको), प्रपद्यन्ते(पूजते हैं), तान्(उनको), तथा(वैसे), एव(ही), भजामि(भजता हूँ), अहम्(मैं) | मम (मेरे), वर्त्म(मार्ग का), अनुवर्तन्ते(अनुसरण करते हैं), मनुष्याः(सभी मनुष्य), पार्थ(पृथापुत्र), सर्वशः(सब प्रकार से) | (४/११)

पार्थ ! जो मुझको जैसे पूजते हैं, मैं उनको वैसे ही भजता हूँ, सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का का अनुसरण करते हैं | (४/११)

जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उनको वैसे ही भजता हूँ | तो क्या परमतत्त्व परमात्मा भी देवी देवतओं की तरह छप्पन भोगों की कामना रखते हैं ? ऐसा नहीं है, कृष्णयोग परायण साधक का पूजन बहिर्मुखी नहीं है, यह मंदिरों, शिवालयों का पदार्थों द्वारा करा पूजन नहीं है अपितु योग परायण पुरुष द्वारा अपने पुर में अंतर्मुखी पूजन है, एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति भाव पूजन है | इस पूजन का एक ही विधिविधान है, एक ही निश्चयात्मक, व्यावसायिक बुद्धि है और उस समबुद्धि से युक्त होकर योगेश्वर द्वारा कहे यज्ञार्थ कर्मों का, कृष्णयोग का आचरण ही, योगेश्वर के मत का अनुसरण ही इस पूजन का विधिविधान है | जो इस प्रकार योगस्थ होकर परमतत्त्व परमात्मा को पूजते है, योगेश्वर भी उनको वैसे ही भजते हैं अर्थात् जैसा योगेश्वर अभी कह आयें हैं, उस योगस्थ साधक के हृदय देश में रथी बनकर, परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम् रूपी अपने दिव्य कर्मों में संलग्न होते हुए उनका दिशा निर्देश करते हैं | इस प्रकार यज्ञार्थ कर्मों का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का, मेरे विधिविधान का अनुसरण करते हैं | परन्तु देखने में तो ऐसा मालूम नहीं पड़ता, देखने में तो हजारों में से कोई एक ही योगेश्वर के मार्ग का अनुसरण करता है | यही तो योगेश्वर श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि सभी मनुष्य सब प्रकार से उनके विधिविधान का अनुसरण करते हैं, जो उनको पूजते हैं, योगेश्वर भी उनको भजते हैं और जो उनको नहीं पूजते, वे माया के पाश से बंधे आवागमन को ही प्राप्त होते हैं | यही परमतत्त्व परमात्मा का विधिविधान है | इसलिये सभी मनुष्य सब प्रकार से (मेरे आश्रित होकर अथवा मुझे विस्मृत करके) मेरे विधिविधान का ही अनुसरण करते हैं |

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः |
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा || (४/१२)
काङ्क्षन्तः कर्मणाम् सिद्धिम् यजन्ते इह देवताः |
क्षिप्रम् हि मानुषे लोके सिद्धिः भवति कर्मजा || (४/१२)

काङ्क्षन्तः(चाहनेवाले), कर्मणाम्(कर्मों की), सिद्धिम्(सिद्धि को), यजन्ते(पूजते हैं), इह(इस लोक में), देवताः(देवतओं को) | क्षिप्रम्(शीघ्र), हि(क्योंकी), मानुषे(मनुष्य), लोके(लोक में), सिद्धिः(सिद्धि), भवति(होती है), कर्मजा(कर्मजन्य) | (४/१२)

कर्मों की सिद्धि चाहनेवाले इस लोक (देह) में देवताओं को पूजते हैं, क्योंकी मनुष्य लोक (देह) में कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र होती है | (४/१२)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यह सिद्धांत रूप से कहा है कि मनुष्य लोक में, मनुष्य योनि में कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र होती है अर्थात् मनुष्य योनि में ईष्ट की प्राप्ति का विधान कर्म जन्य ही है तथा कर्मों की सिद्धि चाहनेवाले इस मनुष्य लोक में देवतओं को पूजते हैं तथा योगेश्वर ने स्पष्ट भी करा था कि इस मनुष्य लोक में इष्टान्भोगान ईष्ट सम्बन्धी भोगों की आपूर्ति देवतओं के पूजन से ही संभव है क्योंकी  तैः दत्तान् केवल वे ही देनेवाले हैं | अब आपके ईष्ट बंधनकारी काम्यकर्म हैं और आप उनकी सिद्धि चाहते हो अथवा आपके ईष्ट परमतत्त्व परमात्मा हैं और आप जीवनयात्रा की सिद्धि के अभिलाषी हैं, दोनों स्थिति में कर्म अनिवार्य है |     

                                                  चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || (४/१३)

चातुः वर्ण्यम् मया सृष्टम् गुण कर्म विभागशः |
तस्य कर्तारम् अपि माम् विद्धि अकर्तारम् अव्ययम् || (४/१३)
                                                                                                                                                                                              
 चातुः(चारों), वर्ण्यम्(वर्ण की), मया(मेरे द्वारा), सृष्टम्(रचना है), गुण(गुण), कर्म(कर्म), विभागशः(विभागपूर्वक) | तस्य (उसका), कर्तारम्(कर्ता होने पर), अपि(भी), माम्(मुझको), विद्धि(जान), अकर्तारम्(अकर्ता), अव्ययम्(अविनाशी) | (४/१३)

चारों वर्ण को गुण और कर्मों के विभाग से मेरे द्वारा रचा गया है, उसका कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को अकर्ता जान | (४/१३)

यहाँ योगेश्वर ने एक श्लोक में दो संदेश कहे हैं | पहला कि मनुष्यों का चार वर्णों में अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र का कर्मों के अनुसार विभागपूर्वक विभाजन का यह जो यह सृष्टि का विधिविधान है, यह मेरे द्वारा रचा गया है | तो क्या परमात्मा ने ही चार प्रकार के जातिधर्म की रचना करी है ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह रचना मनुष्यों के जन्म के अनुसार नहीं अपितु कर्म के अनुसार, प्रकृतिजन्य गुणों से उत्पन्न उनके स्वभाव के अनुसार करी गयी है | तात्पर्य यह कि मनुष्यों का यह विभाजन उनका कर्मों में प्रवृत होने के गुणों के अनुसार करा गया है | सात्त्विक गुणोंसे से युक्त मनुष्य ब्राह्मण है, सात्त्विक-राजसी गुणों वाला क्षत्रिय, राजसी-तामसिक गुणों वाला वैश्य और तामसी गुणों वाला शुद्र स्वभाव का मनुष्य है | मनुष्य के कर्मों के अनुसार, योगेश्वर का पहला सन्देश, तो यह हुआ |

दूसरा सन्देश यह है कि इन गुणों से अतीत होकर, गुणातीत होकर भी कर्म करे जाते हैं | वे मनुष्य ना ब्राह्मण होते हैं, ना क्षत्रिय और ना ही वैश्य अथवा शुद्र | जिसके लिये योगेश्वर ने कहा था कि गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त, समस्त गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होते | (३/२८) और यही है योगेश्वर द्वारा कहा गया, योगः कर्मसु कौशलम्  भाव है, (२/५०) इसी को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कते हैं कि चारों वर्ण को गुण और कर्मों के विभाग से मेरे द्वारा रचना करने पर भी, उसका कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को अकर्ता ही जान, क्योंकी कर्मों में प्रवृत होने के पर भी मेरे स्वरूप का नाश नहीं होता, मेरे लिये कोई कर्मबंधन उत्पन्न नहीं होता | योगेश्वर के लिये कोई भी कर्मबंधन उत्पन्न क्यों नहीं होता ? इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं | कि 


न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा |
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न न बध्यते || (४/१४)

न माम् कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्म फले स्पृहा |
इति माम् यः अभिजानाति कर्मभिः न सः बध्यते || (४/१४)

(नहीं), माम्(मुझको), कर्माणि(कर्म), लिम्पन्ति(लिप्त करते),(नहीं), मे(मेरी), कर्म(कर्म), फले(फल में), स्पृहा(लालसा) | इति(इस प्रकार), माम्(मुझको), यः(जो), अभिजानाति(भलीभाँति जान लेता है), कर्मभिः(कर्मों से),(नहीं), सः(वह), बध्यते (बँधता) | (४/१४)

मुझको कर्म लिप्त नहीं करते, मेरी कर्मफल में लालसा नहीं है, इस प्रकार जो मुझको भलीभाँति जान लेता है, वह कर्मों से नहीं बँधता | (४/१४)

मेरी कर्मफल में लालसा नहीं है, इसलिये कर्म मुझे लिप्त नहीं करते अर्थात् मैं जिस प्रकार कर्मफल की आकांक्षा से रहित होकर कर्म करता हूँ, उस कारण कर्म बंधनकारी नहीं होते | श्रीकृष्ण की कर्मफल में लालसा क्यों नहीं है ? क्योंकी परं दृष्ट्वा परमतत्व परमात्मा का साक्षात्कार कर उनके सभी विषय निवृत हो गये हैं, वह स्थितप्रज्ञ, योगस्थ अवस्था, ब्रह्म में स्थिति पाये महापुरुष हैं, इसलिये कर्म उन्हें लिप्त नहीं करते | इस प्रकार जो मुझको भलीभाँति जान लेता है अर्थात् यज्ञार्थ कर्मों के आचरण स्वरूप, मेरे स्वरूप को, कर्मों के करने के कौशल को जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता | वस्तुतः योगेश्वर श्रीकृष्ण इन आठ श्लोकों में कर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं |  

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः |
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् || (४/१५)

एवम् ज्ञात्वा कृतम् कर्म पूर्वैः अपि मुमुक्षुभिः |
कुरु कर्म एव तस्मात् त्वम् पूर्वैः पुर्वतरम् कृतम् || (४/१५)

एवम्(इस प्रकार), ज्ञात्वा(ज्ञात करके), कृतम्(किये गये), कर्म(कर्म), पूर्वैः(पूर्वकाल में), अपि(भी), मुमुक्षुभिः(मोक्ष के अभिलाषी पुरूषों द्वारा) | कुरु(करो), कर्म(कर्म), एव(ही), तस्मात्(इसलिये), त्वम्(तुम), पूर्वैः(पूर्वकाल में), पुर्वतरम्(सदा से), कृतम्(किये गये) | (४/१५)

इस प्रकार ज्ञात करके पूर्वकाल में भी मोक्ष के अभिलाषी पुरूषों द्वारा कर्म किये गये, इसलिये तुम पूर्वकाल में सदा से किये गये कर्म ही करो | (४/१५)

इस प्रकार ज्ञात करके, जानकार, समझकर, विवेकपूर्ण विचारकर के पूर्व काल में भी मोक्ष के अभिलाषी पुरूषों द्वारा कर्म किये गये | योगेश्वर ने पूर्वकाल में कहा क्योंकी अब तो यह कृष्णायोग लुप्तप्राय ही हो गया है, अब तो विद्वान लोग ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग, अष्टांगयोग इत्यादि में विश्वास करते हैं, कृष्णायोग के साधक ही ना रहे | परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को निर्देश करते हैं कि तुम पूर्वैः पुर्वतरम् पूर्वकालीन और सनातन इस कृष्णयोग के परायण होकर मोक्षार्थ कर्मों को, यज्ञार्थ कर्मों को करो | योगेश्वर ने यहाँ कहा कि इस प्रकार ज्ञात करके अर्थात् जानकार, समझकर, विवेकपूर्ण विचारकर के कर्म किये, तात्पर्य यह कि यह सब चिंतन मनन कर्म के स्वरूप के ज्ञान हेतु किया जाता है कि वस्तुतः कर्मबंधन के नाश हेतु कर्म का स्वरूप क्या है ? कर्मबंधन के नाश हेतु कर्म के स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः |
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि तज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् || (४/१६)

किम् कर्म किम् अकर्म इति कवयः अपि अत्र मोहिताः |
तत् ते कर्म प्रवक्ष्यामि यत् ज्ञात्वा मोक्ष्यसे अशुभात् || (४/१६)

किम्(क्या), कर्म(कर्म), किम्(क्या), अकर्म(अकर्म), इति(इसमें), कवयः(कविजन), अपि(भी), अत्र(यहाँ), मोहिताः(मोहित रहते हैं) | तत्(वह), ते(तुझको), कर्म(कर्म), प्रवक्ष्यामि(बतलाऊँगा), यत्(जिसे), ज्ञात्वा(ज्ञात करके), मोक्ष्यसे(मुक्त हो जायेगा), अशुभात्(अशुभ से) | (४/१६)

 कर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? इसमें कविजन भी यहाँ मोहित रहते हैं, वह कर्म तुझको बतलाऊँगा, जिसे ज्ञात करके अशुभ से मुक्त हो जायेगा | (४/१६)

पूर्व अध्याय में कर्मबंधन के नाश हेतु यज्ञार्थ कर्मों की प्रस्तावना करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि यज्ञ के निमित्त कर्मों से अन्यत्र (समस्त) कर्म इस लोक का बंधन है, कौन्तेय ! उस यज्ञ के लिये कर्मों का, आसक्तिरहित होकर, भलीभाँति आचरण कर | (३/९) तात्पर्य यह कि चारों वर्णों के, ब्राह्मण के भी कर्म बंधनकारी हैं क्योंकी वह 
माया के गुणों से भावित होकर किये जाते हैं | इसलिये कर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? इसमें कवीजन भी मोहित रहते हैं, कविजन अर्थात् विद्वान लोग जो काव्य करते हैं शब्दों के बाल की भी खाल खीचतें हैं | वे भी कर्म और अकर्म को परिभाषित नहीं कर पाते | वह कर्म तुझको बतलाऊँगा, जिसे ज्ञात करके अर्थात् जानकार, समझकर, विवेकपूर्ण विचारकर के तू मोक्ष्यसे अशुभात् ; अशुभ से, कर्मबंधन से, संसारबंधन से भलीभाँति छुट जायेगा | अतः स्पष्ट है कि यज्ञार्थ कर्म संसार बंधन के नाश में सक्षम हैं | इसलिये

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः |
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः || (४/१७)
                                                                                                                                                                                        
कर्मणः हि अपि बोद्धव्यम् बोद्धव्यम् च विकर्मणः |
अकर्मणः च बोद्धव्यम् गहना कर्मणः गतिः || (४/१७)

कर्मणः(कर्म को), हि(क्योंकी), अपि(भी), बोद्धव्यम्(जानना चाहिये), बोद्धव्यम्(जानना चाहिये),(और), विकर्मणः(विकर्म को) | अकर्मणः(अकर्म को)(और), बोद्धव्यम्(जानना चाहिये), गहना(गहन है), कर्मणः(कर्म की), गतिः(गति) | (४/१७)

कर्म को भी जानना चाहिये और विकर्म को भी जानना चाहिये और अकर्म को भी जानना चाहिये क्योंकी कर्म की गति गहन है | (४/१७)

कर्म को, विकर्म को और अकर्म को भी जानना चाहिये क्योंकी कर्म की गति बहुत गहन है | उपरोक्त दो श्लोकों में योगेश्वर ने कर्म के स्वरूप पर, कर्म को परिभाषित करने को, उस पर विवेकपूर्ण चिंतन मनन करने को बहुत आवश्यकता  माना है | सार रूप में कर्म और अकर्म को पारिभाषित करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः |
स बिद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् || (४/१८)

कर्मणि अकर्म यः पश्येत् अकर्मणि च कर्म यः |
सः बुद्धिमान् मनुष्येषु सः युक्तः कृत्स्न कर्म कृत् || (४/१८)

कर्मणि(कर्म में),अकर्म(अकर्म),यः(जो),पश्येत्(देखता है), अकर्मणि(अकर्म में),(और), कर्मकर्म), यः(जो) | सः(वह) बुद्धिमान् (बुद्धिमान है), मनुष्येषु(मनुष्यों में), सः(वह), युक्तः(युक्त है), कृत्स्न(सम्पूर्ण रुप से), कर्म(कर्मों को), कृत्(करता है) | (४/१८)

जो कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह बुद्धिमान है, वह अचल रूप से आत्मपरायण हुआ सम्पूर्ण रूप से कर्मों को करता है | (४/१८)

योगेश्वर श्रीकृष्ण का यह व्यक्तव्य गीता शास्त्र का एक महावाक्य है, गीताशास्त्र को आत्मसात करने के लिये इसे समझना अत्यन्त आवश्यक है | जो कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म देखता है, वह बुद्धिमान है | यहाँ दो तथ्य मनन करने को हैं, पहला कि कर्म तो करा जाता है, इसमें देखने जैसा क्या है ? तथा अकर्म में कुछ भी नहीं करा जाता, तो इसमें भी देखने जैसा क्या है ? और दूसरा तथ्य यह कि योगेश्वर स्वयं ही कह आये हैं कि इस कृष्णयोग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है, तब यहाँ योगेश्वर किसको बुद्धिमान कह रहे हैं ?  वस्तुतः यही गीता शास्त्र का, यज्ञार्थ कर्मों का सार है | कर्म हो, अकर्म हो, चाहे विकर्म हो सब बाद की बातें हैं तथा ये कर्म, अकर्म अथवा विकर्म मानसिक हों, वाचिक हों अथवा कर्मेन्द्रियों द्वारा चेष्टात्मक हों, यह भी बाद की बातें है | सबसे पहले देही का अपने स्वरूप में स्थित होना आवश्यक है, देह देही के भेद का ज्ञाता होकर, दृष्टा रूप में स्थित होना आवश्यक है, समभाव, समबुद्धि से युक्त होना आवश्यक है, जिसके लिये योगेश्वर ने कहा था कि इस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मबंधन का नाश कर सकेगा | (२/३९) निश्चयात्मक बुद्धि से युक्त, कृष्णयोग परायण होकर इन यज्ञार्थ कर्मों का आचरण कर सकेगा तथा इस बुद्धि से युक्त धीर पुरुष के लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि सुख दुःख में सम रहने वाले जिस धीर पुरुष को इन्द्रियों और विषयों के संयोग वियोग व्यथित नहीं करते, वह अमृततत्त्व की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१५) यज्ञार्थ कर्म इसी अमृततत्त्व की प्राप्ति हेतु किये जाते हैं | इसलिये कर्म में, अकर्म में अथवा विकर्म में प्रवृत होने से पूर्व जो अपने स्वरूप में, इस देह में देही रूप से, दृष्टा रूप से स्थित होकर कर्मों में प्रवृत होता है, वही कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देख पाता है, वही बुद्धिमान है और वही अचल रूप से आत्मपरायण हुआ सम्पूर्ण रूप से कर्मों को करता है, उसके द्वारा यज्ञार्थ कर्मों को करने में लेशमात्र भी त्रुटि नहीं रह जाती | यह तो हुई बुद्धिमान पुरुष द्वारा कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने के कौशल की चर्चा | अब इस पर मनन करते हैं कि कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म किस प्रकार होता है |
                                               
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि समस्त कर्म सदैव प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित जीव मैं कर्ता हूँ, ऐसा मानता है | (३/२७) परन्तु महाबाहो ! गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त, समस्त गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होते | (३/२८) मनुष्य के प्रकृतिजन्य गुण परिवर्तनशील हैं, बुद्धिमान पुरुष अर्थात् गुण और कर्म को विभागपूर्वक तत्त्वरूप से जाननेवाले दृष्टा ज्ञानी ही देख पाते हैं, कि समस्त कर्म सदैव प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं और गुणों के अनुरूप कर्मों में उत्कर्ष अपकर्ष होता है, गुण अपना कार्य करा ही लेते हैं अर्थात् गुण गुणों में बरतते हैं | ऐसा जानकार, समझकर, विवेकपूर्ण विचारकर के, वह प्रत्यक्ष दृष्टा ज्ञानी, बुद्धिमान पुरुष कर्मों में आसक्त नहीं होता | इस प्रकार प्रत्यक्ष दृष्टा द्वारा बिना कामना और आसक्ति के किये समस्त कर्म कोई बंधन उत्पन्न नहीं कर पाते, यही कर्म में अकर्म का देखना है | परन्तु जो इस प्रकार समबुद्धि से युक्त होकर कृष्णयोग परायण हो, कर्मों में प्रवृत नहीं होते, जो माया के आधिपत्य में चार वर्णों के अनुसार ही कर्मों में प्रवृत होते हैं, उनके समस्त कर्म, यहाँ तक कि उनकी जीवन में कर्मों के प्रति अकर्मण्यता भी बंधनकारी होती है, बुद्धिमान पुरुष इस प्रकार अकर्म में भी कर्म को देखता हुआ, अकर्म में प्रवृत नहीं होता, समबुद्धि से युक्त हुआ कृष्णयोग का ही आचरण करता है | यही तथ्य योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में भी कहा है कि यज्ञ के निमित्त कर्मों से अन्यत्र समस्त कर्म इस लोक का बंधन है, कौन्तेय ! उस यज्ञ के लिये कर्मों का, आसक्तिरहित होकर, भलीभाँति आचरण कर | (३/९) योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने इसी मत के अनुरूप कर्मसंन्यास को भी नकारा है, उसे भी बंधनकारी ही माना है |  

यहाँ योगेश्वर ने कर्म और अकर्म के विषय में तो कहा, परन्तु विकर्म के विषय में कुछ नहीं कहा, क्योंकी यहाँ योगेश्वर अर्जुन को योगपरायण होने के लिये उपदेश दे रहे हैं और विकर्म स्थितप्रज्ञ पुरूषों के वे विशिष्ट कर्म हैं जिसके लिये योगेश्वर ने कहा था कि इन महापुरुषों का इस लोक में कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं होता, ना ही कर्म ना करने से तथा समस्त प्राणियों में इनका किंचितमात्र भी आश्रय का प्रयोजन नहीं रहता | (३/१८) फिर भी  राजा जनक आदि कर्मों से ही परमसिद्धि में स्थित हुए भी, लोक संग्रह को विचार करते हुए, कर्तव्यकर्म करने को ही योग्य मानते रहे हैं | (३/२०) इन महापुरुषों ने लोक संग्रह अर्थात् प्रजा की उल्टे मार्ग में जाने वाली प्रवृति के निवारण रूप कार्यंकर्मों के आचरण को ही योग्य माना है | महापुरुषों द्वारा किये गये इन कर्मों को ही विकर्म अर्थात् विशिष्ट कर्म कहते हैं |

उपरोक्त आठ श्लोकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रति कर्म के स्वरूप को स्पष्ट किया है और अब निम्न पाँच श्लोकों में जीवन निर्वाह हेतु कर्म तथा जीवनयात्रा की सिद्धि हेतु यज्ञार्थ कर्मों के आचरण की अनिवार्यता, उपयोगिता एवं इनके कर्मों के आचरण स्वरूप जो प्राप्ति है उसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं | कि                                                                 
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः |
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः || (४/१९)

यस्य सर्वे समारम्भाः काम सङ्कल्प् वर्जिताः |
ज्ञान अग्नि दग्धः कर्माणम् तम् आहुः पण्डितम् बुधाः || (४/१९)

यस्य(जिसके), सर्वे(सम्पूर्ण), समारम्भाः(त्रुटिरहित कर्म), काम(कामना), सङ्कल्प्(संकल्प), वर्जिताः(रहित होते हैं) | ज्ञान (ज्ञान), अग्नि(अग्नि), दग्धः(भस्म हुए), कर्माणम्(समस्त कर्म), तम्(उसको), आहुः(कहते हैं), पण्डितम्(पण्डित), बुधाः (बुद्धिजीवी) | (४/१९)

जिसके सम्पूर्ण कर्म त्रुटिरहित, कामना और संकल्प रहित होते हैं, ज्ञानरूपी अग्नि से समस्त कर्म भस्म हो गये हैं, उसको बुद्धिजीवी पण्डित कहते हैं | (४/१९)

जिसके सम्पूर्ण कर्म त्रुटिरहित अर्थात् पूर्व श्लोक अनुसार जो कर्म के स्वरूप का ज्ञाता है और उस ज्ञान के अनुसार ही कर्मों में प्रवृत होता है तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म कामना और आसक्तिरहित होते हैं अर्थात् निश्चयात्मक, समबुद्धि से युक्त होते हैं, तात्पर्य यह कि जो यज्ञार्थ कर्मों का आचरण योगेश्वर श्रीकृष्ण के मतानुसार करता है तथा ज्ञानरुपी अग्नि से जिसके समस्त कर्म भस्म हो गये हैं, उसे बुद्धिजीवी भी पण्डित कहते हैं | बुद्धिजीवी अर्थात् पूर्व श्लोक में कहे कृष्णयोग परायण बुद्धिमान पुरुष भी पण्डित कहते हैं , पण्डित अर्थात् अध्यात्म विषयक बुद्धि को, स्थितप्रज्ञता को पंडा कहते हैं और इस बुद्धि से युक्त, ब्रह्म में स्थित पुरुष को पण्डित कहते हैं | यहाँ योगेश्वर कहते हैं कि ज्ञानरुपी अग्नि से जिसके समस्त कर्म भस्म हो गये हैं | यह ज्ञानरूपी अग्नि की प्राप्ति ही कृष्णयोग परायण यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करनेवाले बुद्धिमान साधक की अमूल्य उपलब्धि है | परन्तु यह ज्ञानरुपी अग्नि और वह सांख्यदर्शन से कहा गया तत्त्वरूपी बौद्धिक ज्ञान दो भिन्न और विलक्षण तत्त्व हैं | जैसे जैसे हम योगेश्वर के उपदेशों का अध्ययन मनन करेंगे इस ज्ञानरूपी अग्नि का स्वरूप भी स्पष्ट हो जायेगा, यह ज्ञानरुपी अग्नि ही कृष्णयोग का सार है |

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः |
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः || (४/२०)

त्यक्त्वा कर्म फल आसङ्गम् नित्य तृप्तः निराश्रयः |
कर्मणि अभिप्रवृतः अपि न एव किञ्चित् करोति सः || (४/२०)

त्यक्त्वा(त्यागकर), कर्म(कर्म), फल(फल), आसङ्गम्(आसक्ति), नित्य(नित्य), तृप्तः(तृप्त रहता है), निराश्रयः(निराश्रय) | कर्मणि(कर्मों में), अभिप्रवृतः(प्रवृत हुआ), अपि(भी),(नहीं), एव(ही), किञ्चित्(कुछ), करोति(करता है), सः(वह) | (४/२०)

जो कर्मफल में आसक्ति का त्याग करके, निराश्रय और नित्य तृप्त रहता है, वह कर्मों में प्रवृत हुआ भी कुछ नहीं करता | (४/२०)

कर्मबंधन के नाश को यज्ञार्थ कर्मों की अनिवार्यता का स्पष्टीकरण करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि कर्मफल में आसक्ति का त्याग करके, जिसके लिये योगेश्वर का अर्जुन को निर्देश किया था कि तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, कर्मफल में कभी नहीं | तू कर्मफल का हेतु कभी नहीं हो, तथा कर्म न करने में आसक्ति भी न हो | (२/४७) तथा निराश्रय अर्थात् अन्य किसी भी आश्रय से रहित होकर, केवल मन्मया; जो मुझमें तन्मय होकर मामुपाश्रिताः; मुझ पर आश्रित है तात्पर्य यह कि जो अनन्य भाव से मेरे कहे अनुसार धर्म का आचरण करता है, मेरे मत का अनुसरण करता है, कृष्णयोग परायण हो साधना करता है,(४/१०) तथा नित्यतृप्त अर्थात् जो स्वयं में ही अर्थात् अपने स्वरूप में ही, परमात्मा के सनातन अंशरूप में ही रमण करने वाला, परमात्मा के सनातन अंशरूप, अपने स्वरूप की प्राप्ति से ही तृप्त तथा परमात्मा की प्राप्ति से ही संतुष्ट रहता है, (३/१७) वह कर्मों में प्रवृत हुआ भी कुछ नहीं करता, अर्थात् कोई भी बंधन उत्पन्न नहीं करता | यही कृष्णयोग परायण साधक का कर्मों के करने का कौशल है, यही समत्वं योग उच्यते भाव है |
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् || (४/२१)

निराशीः यत् चित्त आत्मा त्यक्त सर्व परिग्रहः |
शारीरम् केवलम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् || (४/२१)

निराशीः(आशारहित), यत्(जिसका), चित्त(चित्त), आत्मा(स्वयं), त्यक्त(त्याग), सर्व(समस्त), परिग्रहः(संग्रह करना) | शारीरम् (शरीर सम्बन्धी), केवलम्(केवलमात्र), कर्म(कर्म), कुर्वन्(करता हुआ),(नहीं), आप्नोति(प्राप्त होता है), किल्बिषम्
(पाप को) | (४/२१)

जिसका चित्त वश में है, जो आशारहित है, सब प्रकार से संग्रह करने का त्यागी, केवलमात्र शरीर सम्बन्धी कर्म करता हुआ, पाप को प्राप्त नहीं होता | (४/२१)

जिसका अन्तकरण वश में है, जो आशारहित अर्थात् समस्त कामनाओं का त्यागी और जिसने सब प्रकार से भोग सामग्री के संग्रह करने का त्याग कर दिया है, वह पुरुष केवलमात्र शरीर सम्बन्धी कर्म अर्थात् जीवन निर्वाह को आवश्यक कर्तव्य कर्म करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता | जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि जय पराजय में, लाभ हानि में और सुख दुःख में मन और बुद्धि को सम करके, उसके बाद युद्ध में लग जा, इस प्रकार कर्तव्य कर्म करता हुआ तू पाप को प्राप्त नहीं होगा | (२/३८) तात्पर्य यह कि समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर जीवन निर्वाह हेतु, कर्मों में प्रवृत हुआ पुरुष पाप को, कर्मबंधन को प्राप्त नहीं होता | इसी भाव को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

 यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः |
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते || (४/२२)

यदृच्छा लाभ संतुष्टः द्वन्द्व अतीतः विमत्सरः |
समः सिद्धौ असिद्धौ च कृत्वा अपि न निबध्यते || (४/२२)

यदृच्छा(स्वतः),लाभ(प्राप्य),संतुष्टः(संतुष्ट), द्वन्द्व(द्वन्द्वों से), अतीतः(अतीत), विमत्सरः(ईर्ष्या रहित) | समः(समभाव से युक्त), सिद्धौ(सफलताओं), असिद्धौ(असफलताओं में),(और), कृत्वा(करके), अपि(भी),(नहीं), निबध्यते(बँधता) | (४/२२)

स्वतः प्राप्य से संतुष्ट, द्वन्द्वों से परे, ईर्ष्या रहित, सिद्धि और असिद्धि में समभाव से युक्त, (कर्मों को) करता हुआ भी
नहीं बँधता | (४/२२)

जीवन निर्वाह को कर्मों में प्रवृत पुरुष द्वन्द्वो से मुक्त होकर, ईर्ष्या रहित होकर तथा कर्मों की सफलता असफलता में समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर कर्मों को करता हुआ भी नहीं बँधता |

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थित्चेतसः |
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते || (४/२३)

गत सङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञान अवस्थित चेतसः |
यज्ञाय आचरतः कर्म समग्रम् प्रविलीयते || (४/२३)

गत(रहित), सङ्गस्य(आसक्ति), मुक्तस्य(मुक्त पुरुष), ज्ञान(ज्ञान), अवस्थित(स्थिर रूप से स्थित), चेतसः(चित्तवाला) | यज्ञाय(यज्ञार्थ कर्मों का), आचरतः(आचरण करनेवाले), कर्म(कर्म), समग्रम्(सम्पूर्ण), प्रविलीयते(भलीभाँति विलीन ही जाते हैं ) | (४/२३)

आसक्ति रहित, मुक्त पुरुष, ज्ञान में स्थिर रूप से स्थित चित्तवाले, यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करनेवाले पुरुष के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं | (४/२३)

पूर्व श्लोकों में कहे अनुसार कर्मों में प्रवृत हुआ पुरुष कर्मबंधन में नहीं बँधता अर्थात् वह नये कर्मबंधन उत्पन्न नहीं
करता, ऐसा पुरुष कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है, इस प्रकार नये कर्मबंधनो से मुक्त हुआ पुरुष समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर, आसक्ति और कामनारहित होकर, तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् रूपी बौद्धिक ज्ञान से युक्त होकर, वश में किये अन्तकरण से जीवन निर्वाह करता हुआ, यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करता है, उस मुक्त पुरुष के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं, सारांशतः ऐसा पुरुष अब नये कर्मबंधन तो उत्पन्न ही नहीं करता तथा ऐसे मुक्त पुरुष के कृष्णयोग परायण होने से पूर्व में उत्पन्न हुए, इस जन्म तथा पूर्वजन्मों के समस्त कर्मबन्धन भी भलीभाँति विलीन हो जाते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ऐसा मुक्त पुरुष, स्थितप्रज्ञ पुरुष परमशान्ति को प्राप्त होकर, ब्रह्म को प्राप्त पुरुष हो जाता है | यह स्थिति ही ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति है और इस प्रकार ब्रह्म में स्थित पुरुष के समस्त विकर्म हो जाते हैं तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् |
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना || (४/२४)

ब्रह्म अर्पणम् ब्रह्म हवि ब्रह्म अग्नौ ब्रह्मणा हुतम् |
ब्रह्म एव तेन गन्तव्यम् ब्रह्म कर्म समाधिना || (४/२४)

ब्रह्म(ब्रह्म), अर्पणम्(अर्पण), ब्रह्म(ब्रह्म), हवि(हवि), ब्रह्म(ब्रह्म), अग्नौ(अग्नि), ब्रह्मणा(ब्रह्म रूप पुरुष), हुतम्(आहुति) | ब्रह्म(ब्रह्म), एव(ही), तेन(उसका), गन्तव्यम्(गति), ब्रह्म(ब्रह्म), कर्म(कर्म), समाधिना(समाधिस्थ हुआ) | (४/२४)

ब्रह्म में समाधिस्थ कर्म वाले पुरुष का अर्पण ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, ब्रह्म में स्थित पुरुष द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति भी ब्रह्म है, ब्रह्म में ही उसकी गति है | (४/२४)

उपरोक्त श्लोकों के अनुसार यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करता हुआ पुरुष जब ब्रह्म में स्थित हो जाता है, तब उसके समस्त कर्म इस ब्रह्म की स्थिति का स्पर्श करके समाधिस्थ हो जाते हैं, ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं | ऐसे पुरुष का समर्पण ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, अग्नि भी ब्रह्म है और ब्रह्म रूप अग्नि में ब्रह्मरूपा कर्ता का यज्ञ भी ब्रह्म है | तात्पर्य यह कि ब्रह्म में स्थित पुरुष के समस्त कर्म भी ब्रह्ममय हो जाते हैं और ब्रह्म में ही उसकी गति है अर्थात् प्रारब्धवश प्राप्त देह का निर्वाह करते हुए भी वह ब्रह्मरूपा ही है और स्थित्वा अस्याम् अन्त काले अपि ब्रह्म निर्वाणम् ऋच्छति, (२/७२) इस स्थिति में स्थित पुरुष शरीर के अन्तकाल में भी ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होता है |

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यज्ञार्थ कर्मों के आचरण स्वरूप, कृष्णयोग की पराकाष्ठा को, ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थित का चित्रण करा | परन्तु जो अभी साधक है, वह क्या करे, किन यज्ञों का, यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करे ? पूर्व अध्याय में योगेश्वर ने सर्वप्रथम दैवी सम्पदा के अर्जन और संचय का निर्देश अर्जुन के प्रति कहा था | प्रवेशिका श्रेणी के इस यज्ञ से लेकर किन किन सौपनों को पार करता हुआ कृष्णयोग परायण साधक ब्रह्म में स्थित हो पाता है , उन यज्ञों का वर्णन योगेश्वर श्रीकृष्ण ने नहीं करा था | अब निम्न नौ श्लोकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण यज्ञार्थ कर्मों हेतु प्रचलित यज्ञों का स्वरूप स्पष्ट करते हैं | यहाँ ध्यान देने योग्य है कि योगेश्वर इन प्रचलित यज्ञों के स्वरूप को स्पष्ट तो करते हैं परन्तु अर्जुन को संबोधित कर इन यज्ञों के आचरण को कोई निर्देश नहीं देते, जैसा निर्देश योगेश्वर ने पूर्व में अर्जुन के प्रति कहा था कि निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन (२/४५), योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित कर जिस यज्ञ के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं, वह (८/११) से (८/१५) तक वर्णित है |

इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित इन प्रचलित यज्ञों के स्वरूप के अध्ययन से पूर्व एक दो तथ्यों पर मनन  हितकारी सिद्ध होगा | योगेश्वर ने यहाँ निम्न छह श्लोकों में ‘दैवम् यज्ञम्’, ‘ब्रह्म अग्नि यज्ञम्’ इत्यादि कहकर लगभग बारह प्रकार के यज्ञों का ‘अपरे’ एवं ‘अन्ये’ कहकर वर्णन करा है, अर्थात् इन यज्ञों का वर्णन इस प्रकार करते हैं कि अन्य लोग इस प्रकार का यज्ञ करते हैं, दुसरे लोग इस प्रकार का यज्ञ करते हैं | इस प्रकार इन यज्ञों का वर्णन करके हुए इस तथ्य की पुष्टि भी करते हैं कि इन यज्ञों का आचरण करने से योग परायण साधकों को अमृततत्त्व की प्राप्ति होती है | यह भी कहते हैं कि इस प्रकार के अन्य बहुत से यज्ञ स्थितप्रज्ञ पुरूषों द्वारा कहे गये हैं, इन सब यज्ञों को तुम कर्मों द्वारा ही सिद्ध हुआ जानो, तथा द्रव्ययज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेयस्कर हैं | परन्तु इस सब के पश्चात् अर्जुन को कहते हैं कि तू तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर उनके शरणागत होकर सेवा कर, तत्पश्चात तेरे द्वारा भलीभाँति प्रश्न करने से वे तत्त्वदर्शी ज्ञानीजन तुझे ज्ञान में दीक्षित करेंगे, साधना पथ पर चलाएंगे | (४/३४)

यहाँ एक प्रश्न स्वाभाविक है, जैसे तृतीय अध्याय के प्रारंभ में अर्जुन ने योगेश्वर श्रीकृष्ण से एक प्रश्न करा था कि जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ मान्य है, तब केशव ! मुझे घोर कर्मों में क्यों नियुक्त करते हो ? इन मिले हुए वाक्यों से मेरी बुद्धि मोहित ही करते हैं, उस एक को निश्चित करके कहिये, जिससे मैं परम कल्याण को प्राप्त हो जाऊं | (३/१,२) निम्न नौ श्लोकों के अध्ययन मनन के उपरान्त मेरी बुद्धि भी अर्जुन की तरह मोहित होती रही, मेरे मन, मस्तिष्क में भी एक ऐसा ही प्रश्न उठता रहा कि जनार्दन जब आप स्वयं ही अर्जुन को, वस्तुतः अर्जुन तो हमारे लिये निमित्त मात्र ही है, अर्जुन के माध्यम से जब आप स्वयं हमें परमार्थ मार्ग का उपदेश दे रहें हैं, तब आप क्यों, इस प्रकार हमारी बुद्धि को मोहित करते हैं, उस एक को निश्चित करके कहिये कि इस यज्ञ का इस प्रकार आचरण करो, जिससे मैं परम कल्याण को प्राप्त हो जाऊं | जिस प्रकार आपने पूर्व में देवतओं के पूजन का निर्देश दिया, उसी प्रकार निश्चित करके हमें निर्देश दीजिये कि हम क्या करें ? केवल इतना ही नहीं अपितु आप इन सब यज्ञों को कहने के पश्चात् यह भी कहते हैं कि साधना पथ पर अग्रसर होने को हम किसी सद्गुरु की शरण जाएँ, वे यज्ञ की विधिविशेष के ज्ञाता हैं और वही हमें यज्ञों का आचरण करना सिखायेंगे | इस प्रकार आप हमारी बुद्धि को मोहित ही करते हैं ? जनों पर दया करनेवाले जनार्दन से जब इस जिज्ञासा के समाधान हेतु विनती करी, तब उन्होंने ह्रदय में रथी होकर जो कहा, वह मैं आपसे कहता हूँ |

योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ महापुरूषों ने परमार्थ हेतु बहुत प्रकार के यज्ञों का वर्णन करा है, परन्तु योगेश्वर ने समस्त प्रचलित यज्ञों में से अपने मतानुसार कृष्णयोग परायण साधकों के उत्थान हेतु कुछ विशेष यज्ञों का वर्णन यहाँ करा है | यह वर्णन यज्ञ के स्वरूप को स्पष्ट करने की दृष्टि से करा गया है परन्तु कृष्णयोग परायण साधक को इन सभी यज्ञों का आचरण अनिवार्य नहीं है | क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण पहले ही कह आये हैं कि समस्त कर्म सदैव प्रकृति के गुणों द्वारा ही किये जाते हैं, परन्तु अहंकार से मोहित जीव मैं कर्ता हूँ, ऐसा मानता है, किन्तु महाबाहो ! गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त, समस्त गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होते | (३/२७,२८) तथा योगेश्वर यह भी कहते हैं कि भलीभाँति अनुष्ठान करे दुसरे के धर्म से गुणरहित स्वयं का धर्म अधिक श्रेष्ठ है, अपने धर्म में मरण भी श्रेयस्कर है, दुसरे का धर्म भय देनेवाला है | (३/३५) इसलिये प्रत्येक साधक को अपने गुणों के अनुसार ही कर्मों में प्रवृत होना चाहिये, इन प्रचलित यज्ञों में से अपने स्वभाव के अनुसार ही योग्य यज्ञ का अनुष्ठान कारण चाहिये | क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः, (४/१३) चारों वर्ण गुण और कर्म के अनुसार हैं, इसलिये अपने वर्ण के अनुसार ही साधक को अपने योग्य यज्ञ में प्रवृत होना चाहिये | उदाहरणस्वरूप वैश्य श्रेणी के साधक ने दैवी गुणों का अर्जन और संचय तो करा नहीं और चला प्राणायाम परायण होने, ऐसा करना भय का कारण होता है, ऐसा करने से वह वैश्य साधक परमार्थ मार्ग से च्युत ही तो हो जायेगा | साधक को अपने स्वभाव, अपने वर्ण के अनुसार किन यज्ञार्थ कर्मों में, किन यज्ञों में प्रवृत होना चाहिये, इसका भी स्पष्टीकरण योगेश्वर श्रीकृष्ण ने (१८/४२-४४) तक करा है, साधक को यज्ञों में प्रवृत होने से पूर्व अपने स्वभाव के ज्ञान हेतु योगेश्वर के इन उपदेशों का भलीभाँति चिंतन मनन करना चाहिये | इस प्रकार भी अगर आप यह निश्चय नहीं कर पाते कि आपके लिये कौन सा कर्म, कौन सा यज्ञ उचित है और ऐसा निश्चय करना कठिन भी है | इस असमंजस्य की स्थिति के समाधान हेतु ही योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर उनके शरणागत होकर सेवा करो, तत्पश्चात भलीभाँति प्रश्न करने से वे तत्त्वदर्शी ज्ञानीजन तुझे ज्ञान में दीक्षित करेंगे, साधना पथ पर चलाएंगे | (४/३४)

योगेश्वर श्रीकृष्ण का निश्चित किया हुआ मत है कि साधक को अपने स्वभाव के, गुणों के, वर्ण के अनुसार ही कर्मों का अनुसरण करते हुए जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु स्वधर्म के अनुसार ही यज्ञों का अनुष्ठान करना चाहिये | इस तथ्य को पुनः बल देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने अपने स्वभाव में पायी जानेवाली योग्यता के अनुसार ही कर्म में लगा जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्तिरूपी परमसिद्धि को प्राप्त होता है (१८/४५ पु०) तथा जिस परमात्मा से समस्त भूतों की उत्पत्ति हुई है, जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा, यज्ञार्थ कर्मों, यज्ञों द्वारा अर्चन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है | (१८/४६)

इस प्रकार यज्ञों के अनुष्ठान को लेकर समस्त तथ्यों को स्पष्ट करते हुए, हृदयस्थ योगेश्वर श्रीकृष्ण अन्त में यह भी स्पष्ट करते हैं कि भलीभाँति अनुष्ठान करे दुसरे के धर्म से, गुणरहित स्वयं का धर्म क्यों अधिक श्रेष्ठ है तथा अपने धर्म में मरना भी क्यों श्रेयस्कर है ? योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो साधक अनन्यभाव से मेरा चिंतन मनन करते हुए भजते हैं, उन नित्य योगयुक्त साधकों के योगक्षेम वहाम्यहम्, योग के परिणाम की सुरक्षा को मैं वहन करता हूँ | (९/२२) तात्पर्य यह कि एक जन्म में तो मुक्ति, मोक्ष विरले साधकों को ही प्राप्त होती है, जो तत्परता से इन यज्ञों के आचरण स्वरूप, क्रमशः उत्थान करते ब्रह्म में स्थित हो पाते हैं | अन्य जो प्राप्ति से पूर्व ही देहान्तर को प्राप्त हो जाते हैं, उन साधकों का न तो इस लोक (शरीर) में न परलोक (प्रप्तिवाले शरीर) में ही विनाश होता है, परमार्थ हेतु यज्ञों के अनुष्ठान में लगा कोई भी साधक दुर्गति को प्राप्त नहीं होता, (६/४०) क्योंकी उनके योग के परिणाम की सुरक्षा मैं वहन करता हूँ इसलिये दुसरे जन्म में पूर्व देह से संग्रहित योग के परिणाम को प्राप्त कर वह पुनः परमसिद्धि का प्रयत्न करता है, यज्ञार्थ कर्मों का अनुष्ठान करता है | (६/४३) यही योगेश्वर ने अर्जुन से भी कहा था कि अर्जुन ! तू शोक मत कर क्योंकी तू दैवी सम्पदा को लेकर जन्मा है | (१६/५)

सारांशतः जन्म जन्मान्तरों में योगेश्वर द्वारा उपदेशित इन समस्त यज्ञों का अनुष्ठान करता हुआ ही मनुष्य परमात्मा को प्राप्त होता है, परन्तु इन यज्ञों के अनुष्ठान हेतु साधक को इस जन्म में प्राप्त अपने स्वभाव के अनुसार, (१८/४२-४४), ही प्रवृत होना चाहिये | अब आइये योगेश्वर द्वारा कहे इन यज्ञों के स्वरूप का अध्ययन मनन करते हैं |
      
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते |
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति || (४/२५)

दैवम् एव अपरे यज्ञम् योगिनः पर्युपासते |
ब्रह्म अग्नौ अपरे यज्ञम् यज्ञेन एव उपजुह्वति || (४/२५)

दैवम्(देवों के), एव(ही), अपरे(दुसरे), यज्ञम्(यज्ञ का), योगिनः(योगयुक्त पुरुष), पर्युपासते(भलीभाँति अनुष्ठान करते हैं) | ब्रह्म(ब्रह्म), अग्नौ(अग्नि में), अपरे(दुसरे), यज्ञम्(यज्ञ का), यज्ञेन(यज्ञ के द्वारा), एव(ही), उपजुह्वति(हवन करते हैं) | (४/२५)

दुसरे योगयुक्त पुरुष देवताओं के पूजन रूप यज्ञ का भलीभाँति अनुष्ठान करते हैं, दुसरे ब्रह्म अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन करते हैं | (४/२५)

दुसरे योगयुक्त पुरुष अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण के मतानुसार आचरण करनेवाले योगीजन दैवम् यज्ञम्; ‘यज्ञ’ अर्थात् कामना और आसक्तिरहित होकर देवतओं का पूजन करते हैं | आसुरी सम्पदा के विनाश हेतु दैवी सम्पदा का अर्जन और संचय करते हैं | अपने गुणों का, स्वभाव का उर्ध्वमुखी उत्थान करते हैं | कर्म में निष्ठा रखने वाले पुरुष जो जन्म जन्मान्तरों से देवतओं का पूजन सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिये करते रहे थे, वे अब परमार्थ हेतु इन्ही देवतओं का पूजन निष्काम भाव से करते हैं |
                       
दुसरे ब्रह्म अग्नि में यज्ञ के द्वारा अर्थात् ब्रह्मज्ञान, सांख्यदर्शन के अनुसार तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्, तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप सर्वत्र परमात्मा तत्त्व के दर्शनरूप ‘यज्ञ का हवन’ अर्थात् कामनाओं और आसक्तियों से रहित होकर ज्योति स्वरूप दिव्यरूप परमात्मातत्त्व का ध्यान करते हैं | यह यज्ञ सांख्य निष्ठा में आस्था रखने वाले पुरूषों द्वारा करा जाता है |

यह दोनों प्रकार के यज्ञ प्रवेशिका श्रेणी के साधकों के यज्ञ हैं, इन यज्ञों के द्वारा साधकों के गुणों का, स्वभाव का उत्कर्ष होता है | योगेश्वर श्री कृष्ण ने समस्त यज्ञों का वर्णन इस प्रकार करा है कि उत्तरोतर इन यज्ञों का स्वरूप एक सौपन उच्च साधकों द्वारा अनुष्ठान किये जाने योग्य है | तात्पर्य यह कि शुद्र श्रेणी का साधक अपने से उन्नत अवस्था वाले, उच्च सौपनों को प्राप्त साधकों, गुरुजनों, स्थितप्रज्ञ महापुरुषों की सेवा करे, यह शुद्र श्रेणी का साधक नीच नहीं अपितु अल्पज्ञ है, अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त करनी है, अतः ऐसा साधक परिचर्या से ही आरम्भ करे | (१८/४४ उ०) अवस्था उन्नत होने पर, हृदय में संस्कारों का सृजन होने पर यही साधक वैश्य रूप से उपरोक्त यज्ञों का अनुष्ठान करे, दैवी सम्पदा का अर्जन करे, ज्योतिर्मय दिव्य पुरुष का ध्यान करे | इस प्रकार अपने गुणों का उत्कर्ष करता हुआ यह वैश्य श्रेणी का साधक किस प्रकार अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता को प्राप्त करता है, इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि    

श्रोतादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति |
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति || (४/२६)

श्रोत आदीनि इन्द्रियाणि अन्ये संयम अग्निषु जुह्वति |
शब्द आदीन् विषयान् अन्ये इन्द्रिय अग्निषु जुह्वति || (४/२६)

श्रोत(सुनने की इन्द्रिय कान), आदीनि(आदि), इन्द्रियाणि(इन्द्रियाँ), अन्ये(अन्य लोग), संयम(संयम), अग्निषु(अग्निमें), जुह्वति (हवन करते हैं) | शब्द(सुनने का विषय शब्द), आदीन्(आदि), विषयान्(विषयों), अन्ये(अन्य लोग), इन्द्रिय(इन्द्रिय), अग्निषु (अग्निमें), जुह्वति(हवन करते हैं) | (४/२६)

अन्य पुरुष श्रोत आदि इन्द्रियों का संयम अग्नि में हवन करते हैं, अन्य शब्द आदि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करते हैं | (४/२६)

अन्य पुरुष श्रोत आदि इन्द्रियों का संयम रूपी अग्नि में हवन करते हैं तथा अन्य शब्द आदि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूपी अग्नि में हवन करते हैं | परिणाम दोनों प्रकार के यज्ञों का एक ही है कि उपरोक्त दैवम् यज्ञ से प्राप्त दैविक गुणों से अथवा ब्रह्म यज्ञ के स्वरूप ज्योतिर्मय दिव्य पुरुष से प्राप्त तेज से, इस उन्नत अवस्था को प्राप्त वैश्य श्रेणी के साधक इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के अनित्य संयोग वियोग में धैर्यपूर्वक आचरण करते हैं, इनसे व्यथित, व्याकुल नहीं होते | इस प्रकार इस श्रेणी के यज्ञों द्वारा साधक इन्द्रियों के द्वारा ही प्रवेश करके मन और बुद्धि में वास करने वाले काम से युद्ध करने की क्षमता प्राप्त करते हैं, अमृततत्त्व की प्राप्ति के अधिकारी हो जाते हैं तथा क्षत्रिय श्रेणी के साधक होने की योग्यता को भी प्राप्त करते हैं | इस प्रकार उन्नति करते हुए, उच्च सौपनों को प्राप्त करते हुए, यह साधक उत्तरोत्तर उच्च साधना के अधिकारी बनते हैं |

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे |
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते || (४/२७)

सर्वाणि इन्द्रिय कर्माणि प्राण कर्माणि च अपरे |
आत्म संयम योग अग्नौ जुह्वति ज्ञान दीपिते || (४/२७)

सर्वाणि(सम्पूर्ण), इन्द्रिय(इन्द्रिय) कर्माणि(कर्मों को), प्राण(प्राण वायु), कर्माणि(कर्मों को),(और), अपरे(दुसरे) | आत्म(स्वयं), संयम(निग्रह), योग(योग), अग्नौ(अग्नि में), जुह्वति(हवन करते हैं), ज्ञान(ज्ञान से), दीपिते(प्रकाशित होकर) | (४/२७)

दुसरे सम्पूर्ण इन्द्रियों की क्रियाओं और प्राणों की क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित होकर आत्म संयम योग रूप अग्नि में हवन करते हैं | (४/२७)

 पूर्व श्लोक में कहे यज्ञों द्वारा इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग वियोग से युद्ध करता हुआ क्षत्रिय श्रेणी का साधक सम्पूर्ण इन्द्रियों अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की प्रमथनशील क्रियाओं से अवगत हो जाता है कि यह इन्द्रियाँ किस प्रकार प्राणों की क्रियाओं द्वारा अर्थात् संकल्प विकल्प द्वारा, मन और बुद्धि का मंथन करती हैं | इस ज्ञान से प्रकाशित होकर यह क्षत्रिय श्रेणी के साधक आत्म संयम योग रूप अग्नि में हवन करते हैं, अर्थात् आत्म परायण होने का प्रयत्न करते हैं | जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण का अर्जुन को निर्देश था कि अर्जुन आत्मवान हो | क्योंकी अर्जुन क्षत्रिय स्वभाव को प्राप्त साधक है, आत्मवान होकर ब्राह्मण भाव की योग्यता प्राप्त करनी है | इसलिये अर्जुन इस श्लोक में वर्णित यज्ञ से अपनी साधना, यज्ञार्थ कर्मों का अनुष्ठान प्रारब्ध करेगा, क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रति स्पष्ट रूप से कहा है कि अर्जुन तू शोक मत कर, तू दैवी सम्पदा को लेकर जन्मा है | तात्पर्य यह कि अर्जुन श्लोक संख्या (४/२५,२६ एवं २७) में वर्णित यज्ञार्थ कर्मों के परिणाम से, दैवी सम्पदा से, ब्रह्म तेज से युक्त साधक है और यही सन्देश योगेश्वर का समस्त साधकों को है | इन यज्ञों के आचरण से अर्थात् आत्म परायण होने के यज्ञार्थ कर्मों के आचरण द्वारा साधक ब्राह्मण श्रेणी का साधक होने की योग्यता को प्राप्त करता है, एक और उच्च सौपन को प्राप्त करने का अधिकारी बनता है | इस प्रकार उत्तरोत्तर अपना उत्थान करता हुआ कृष्णयोग परायण हुआ साधक उत्तरोत्तर उच्च श्रेणी के यज्ञों के अनुष्ठान को अग्रसर होता है |

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे |
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः || (४/२८)

द्रव्य यज्ञाः तपः यज्ञाः योग यज्ञाः तथा अपरे |
स्वाध्याय ज्ञान यज्ञाः च यतयः संशित व्रताः || (४/२९)

द्रव्य(द्रव्य), यज्ञाः(यज्ञ करनेवाले), तपः(तप), यज्ञाः(यज्ञ करनेवाले), योग(योग), यज्ञाः(यज्ञ करनेवाले) तथा(ऐसे ही) अपरे (दुसरे) | स्वाध्याय(स्वाध्याय), ज्ञान(ज्ञान), यज्ञाः(यज्ञ करनेवाले),(और), यतयः(यत्नशील), संशित(दृढ़), व्रताः(व्रतधारी
पुरुष) | (४/२९)

ऐसे ही दुसरे द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ करनेवाले और दृढ़ व्रतधारी यत्नशील पुरुष स्वाध्याय रूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं | (४/२८)

ऐसे ही दुसरे अर्थात् पूर्व श्लोक में कहे आत्मपरायण होने को प्रयत्नशील साधक द्रव्ययज्ञ अर्थात् प्राप्य धन सामग्री को भोगों हेतु व्यय न करके देह सम्बन्धी आवश्यकताओंकी पूर्ति करते हुए, शेष धन सामग्री को आत्मपथ में लगे साधकों, महापुरुषों और स्थितप्रज्ञ पुरूषों की सेवा में अर्पित करते हैं | दुसरे साधक तपोयज्ञ अर्थात् आत्मपरायण होने को सम्पूर्ण इन्द्रियों, मन और शरीर को वश में करने का प्रयत्न करते हैं, तप करते हैं तथा दुसरे साधक योगयज्ञ अर्थात् अष्टांगयोग आदि विधियों का पालन करते हुए आत्म परायण होने का प्रयत्न करते हैं | तथा दुसरे अर्थात् सांख्यदर्शन में निष्ठा रखने वाले दृढ़व्रतधारी पुरुष, तात्पर्य यह कि सांख्य निष्ठा वाले पुरुष सगुण साकार परमात्मा के परायण ना होकर, उनके आश्रित ना होकर, अव्यक्त ब्रह्म की उपासना करते हैं | ऐसे साधक सांख्य निष्ठा के अनुसार, अहं ब्रह्मास्मि वाक्यों में आस्था रखते हुए, अपने पर आश्रित होकर स्वाध्याय रूप ज्ञानयज्ञ अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् (१३/११) रूप से आत्म परायण होने का प्रयत्न करते हैं | इस प्रकार यज्ञों के अनुष्ठान से आत्म परायण होकर, यह साधक अन्य यज्ञों का, उच्च सौपनों को प्राप्ति का प्रयत्न करते हैं | आत्म परायण साधक ही ब्राह्मण श्रेणी के साधक हैं |
                    
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणोऽपानं तथापरे |
प्राणापानगति रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः || (४/२९)

अपाने जुह्वति प्राणम् प्राणे अपानम् तथा अपरे |
प्राण अपान गति रुद्ध्वा प्राण आयाम परायणः || (४/२९)

अपाने(अपानवायु का), जुह्वति(हवन करते हैं), प्राणम्(प्राणवायु में), प्राणे(प्राणवायु का), अपानम्(अपानवायु में), तथा(ऐसे ही), अपरे(दुसरे) | प्राण(प्राणवायु), अपान(अपानवायु), गति(गति), रुद्ध्वा(रोककर), प्राण(प्राण), आयाम(स्वतः निरोध) परायणः(परायण) | (४/२९)

दुसरे अपानवायु को प्राणवायु में हवन करते हैं ऐसे ही प्राणवायु को अपानवायु में हवन करते हैं | प्राणवायु (और) अपानवायु की गति को रोककर प्राणायाम परायण होते हैं | (४/२९)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि विषयों का सेवन ना करने से देही के विषय तो निवृत हो जाते हैं, विषयों के प्रति
राग रस निवृत नहीं होता | इनका रस भी परमतत्त्व के साक्षात्कार से निवृत हो जाता हैं | (२/५९)  तात्पर्य यह कि पूर्व श्लोक में वर्णित आत्म परायण होने को प्रयत्नशील ब्राह्मण श्रेणी के साधकों द्वारा विषयों का सेवन ना करने से उनके विषय तो निवृत हो जाते हैं परन्तु विषयों के प्रति राग निवृत नहीं होता, प्राणों की क्रियाओं से मन में इन विषयों के प्रति रस निवृत नहीं हो पाता | प्राणों की क्रियाएँ अर्थात् संसार के प्रति मन में उठते संकल्प विकल्प, मन की द्वन्द्वात्मक स्थिति समाप्त नहीं होती | इसके लिये साधक प्रचलित साधना ‘प्राणायाम’ परायण होने का प्रयत्न करते हैं |

प्राणवायु वह श्वास है जिसे हम ग्रहण करते हैं और अपानवायु वह प्रश्वास है जिसे हम त्यागते हैं | स्थितप्रज्ञ पुरूषों की अनुभूति है कि हम श्वास के साथ संकल्प अर्थात् सांसारिक विषयों को ग्रहण करते हैं और प्रश्वास के साथ भीतर इन संकल्पों को उठने देते हैं, विषयों की प्राप्ति को विकल्प तैयार करते हैं | बाहरी किसी भी संकल्प को, विषय को ग्रहण ना करना अपानवायु में प्राणवायु का हवन है और भीतर भी इन विषयों से व्यथित ना होना प्राणवायु में अपानवायु का हवन कारण है | इसकी प्राप्ति हेतु श्वास प्रश्वास के साथ हृदयस्थ ईष्ट के नामजप का विधान है | कर्म में निष्ठा रखने वाले साधक अपने सगुण साकार ईष्ट का नामजप करते हैं और सांख्य निष्ठा में आस्था रखने वाले ब्रह्मास्मि इत्यादि जप करते हैं | इस नामजप के लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘यज्ञानाम् जपयज्ञोऽस्मि (१०/२५) सब प्रकार के यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूँ और जैसा योगेश्वर पूर्व में कह आये हैं कि सर्वव्यापी परमतत्त्व परमात्मा सर्वदा यज्ञ में ही प्रतिष्ठित है | (३/१५उ०) इसलिये नामजप रूपी यज्ञ ही परमात्मा को प्राप्त करने की विधि है | अतः स्पष्ट है कि श्वास प्रश्वास का यह हवन, प्राणायाम परायण होना ही परमात्मा को साक्षात् करने की विधि है | परन्तु इस यज्ञ के आचरण स्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार कैसे होता है ?

इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब साधक श्वास प्रश्वास का यज्ञ करते हुए और उन्नत अवस्था को प्राप्त होता हुआ, दोनों की अर्थात् श्वास प्रश्वास की गति को रोक पाता है, जब श्वास प्रश्वास के साथ नामजप स्वतः होने लगता है, प्राणवायु और अपानवायु के हवन द्वारा स्वरूप संकल्प विकल्प का स्वतः निरोध हो जाता है अर्थात् प्राणों का ‘याम’ हो जाता है, प्राणायाम हो जाता है, प्राणों के व्यापार का निरोध हो जाता है, तब उसे परमात्मा का साक्षात्कार होता है | यही प्राणायाम परायण होना है, यही परमात्मा का साक्षात्कार है और यही मन की विजितावस्था है | क्योंकी प्राणों का रुकना और मन के सांसारिक व्यापार का रुकना एक ही बात है, इस स्थिति को प्राप्त साधक की विषयों में आसक्ति भी निवृत हो जाती है | इसके लिये ही योगेश्वर का अर्जुन को निर्देश था कि अर्जुन आत्मवान हो |

यहाँ एक तथ्य बहुत ही महत्वपूर्ण और जानने, समझने को अनिवार्य है कि यह जो प्राणवायु और अपानवायु की गति को रोककर प्राणायाम परायण हुआ जाता है, इसमें श्वास प्रश्वास की गति को रोकने से क्या तात्पर्य है ? शरीर के स्वास्थ्य सम्बन्धी प्राणायाम में श्वास प्रश्वास की गति को रोकना कुम्भक नामक एक उपयोगी क्रिया है, परन्तु शरीर सम्बन्धी प्राणायाम का अपना एक अलग शास्त्र है, उसका निवृति विषयक यज्ञों से कोई भी अभिप्राय नहीं है | निवृति विषयक गीता शास्त्र के कुछ व्याख्याकारों के अनुसार श्वास प्रश्वास की गति को रोकना; श्वास प्रश्वास को सम करना है, उनके अनुसार साधक को श्वास प्रश्वास का दृष्टा होना पड़ता है, देखना पड़ता है कि प्रत्येक श्वास प्रश्वास की गति सम है, कभी श्वास ज्यादा अथवा गहरा होता है, तो कभी छोटा और उथला सा होता है, कभी प्रश्वास संयमित होता है, तो कभी एक धक्के के साथ होता है, श्वास प्रश्वास इस प्रकार ना होकर, सम होना, जिससे प्रत्येक श्वास प्रश्वास एक समान, तेलधारावत, बहती हुई मन्द समीर की भाँति होता रहे, यही श्वास प्रश्वास की गति का सम होना है | यह सत्य तो है, परन्तु अर्धसत्य है |

वस्तुतः श्वास प्रश्वास की गति मनुष्य के तत्कालीन स्वभाव पर आधारित है, मनुष्य के स्वभाव; उस क्षण को मनुष्य के मनोभाव पर आधारित है | मनुष्य के मनोभावों के अनुसार श्वास प्रश्वास की गति क्रोध में, आनंद में, प्रेम में, कामवासना में, भय में, रोग में, राग में, ईर्ष्या द्वेष में अथवा सन्तोष के, तृप्ति के क्षणों में भिन्न भिन्न प्रकार की होती है और एक ही मनुष्य की एक मनोभाव दशा में श्वास प्रश्वास की गति दुसरे मनोभाव से भिन्न होती है | नामजप से युक्त होकर प्राणायाम परायण होने वाले साधक के मन के व्यापार का, मन में उठनेवाले संकल्प विकल्प का स्वतः निरोध अर्थात् ‘याम’ हो जाता है, मनुष्य इन मनोभावों से अतीत हो जाता है | ऐसा साधक सामान्य अवस्था में भी अर्थात् प्राणायाम परायण साधक जब प्राणायाम रूपी यज्ञ का अनुष्ठान ना करता हुआ, शरीर सम्बन्धी आवश्यक कर्मों का निर्वाह करता है तथा अन्य क्षणों में सामान्य रूप से जीवन निर्वाह करता है, उस समय भी उस साधक की श्वास प्रश्वास की गति इन सांसारिक मनोभावों से परिवर्तित नहीं होती, इस प्रकार वह प्राप्ति में हर्ष को अथवा अप्राप्ति से विषाद को प्राप्त नहीं होता, उस साधक की श्वास प्रश्वास की गति सदैव एक समान, सम ही रहती है | यही प्राणवायु और अपानवायु की गति को रोककर प्राणायाम परायण होना है | वस्तुतः होता यह है कि प्राणायाम रूपी यज्ञ के सिद्ध होने पर, मन के व्यापार का निरोध होने से, मनुष्य के स्वभाव का रूपांतरण हो जाता है | कृष्णयोग परायण साधक के स्वभाव का, ध्यान दें, कृष्णयोग परायण साधक के प्रकृतिजन्य स्व-भाव का रूपांतरण हो परं-भाव की प्राप्ति होती है, यही प्राप्ति इन यज्ञार्थ कर्मों का परिणाम है, परंभाव की प्राप्ति अर्थात् परमतत्त्व परमात्मा का साक्षात्कार |       

इस प्रकार यज्ञार्थ कर्मों का अपने स्वभाव के अनुसार आचरण करता हुआ, उर्ध्वमुखी उत्थान को प्राप्त होता हुआ कृष्णयोग परायण साधक परमतत्त्व परमात्मा का साक्षात्कार करता है | इस प्राणायाम की एक अन्य विधि को बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने मतानुसार कहे इन यज्ञों के स्वरूप के वर्णन को विराम देते हैं |
                         
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति  |
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः || (४/३०)

अपरे नियत आहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति |
सर्वे अपि एते यज्ञ विदः यज्ञ क्षपित कल्मषाः || (४/३०)

अपरे(दुसरे), नियत(नियमित), आहाराः(आहारवाले), प्राणान्(प्राणों को), प्राणेषु(प्राणों में ही), जुह्वति(हवन करते हैं) |
सर्वे(सभी) अपि(भी), एते(यह), यज्ञ(यज्ञ), विदः(ज्ञाता), यज्ञ(यज्ञ), क्षपित(नष्ट), कल्मषाः(पापों का) | (४/३०)

दुसरे नियमित आहार करनेवाले प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं, यह सब भी, यज्ञों द्वारा पापों का नाश करनेवाले, यज्ञों के ज्ञाता हैं | (४/३०)

दुसरे नियमित आहार करनेवाले, यहाँ आहार से योगेश्वर का तात्पर्य भोजन से नहीं अपितु उन साधकों को संबोधित कर रहे हैं, जो नियमित आहार, नियमित निंद्रा और दृढ़ आसन से युक्त होकर नित्य निरन्तर कृष्णायोग परायण होकर यज्ञार्थात कर्मों का आचरण करते हैं | यहाँ योगेश्वर प्राणायाम की एक अन्य विधि का भीवर्णन करते हैं कि दुसरे साधक प्राणवायु का प्राणवायु में ही हवन करते हैं, इस प्राणायाम को केवली प्राणायाम भी कहते हैं | इसमें केवल नामजप की विधि में अन्तर है अन्यथा यह प्राणायाम भी पूर्व श्लोक में कहे प्राणायाम की भाँति ही करा जाता है | यहाँ नामजप में उदाहरणार्थ श्वास के साथ ‘रा’ का उच्चारण करा और प्रश्वास के साथ ‘म’ का उच्चारण करा, इस प्रकार ‘राम’ नामजप करता हुआ साधक प्राणायाम परायण हो जाता है, जबकि पूर्व श्लोक में श्वास के साथ भी ‘राम’ नाम का जप और प्रश्वास के साथ भी ‘राम’ नाम का जप करा जाता है | योगियों के अनुसार केवली प्राणायाम से मन की एकाग्रता शीघ्र प्राप्त होती है |

इस प्रकार यज्ञ का स्वरूप स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह सब भी अर्थात् अपने स्वभाव के अनुसार उपरोक्त निम्न अथवा उच्च सौपनों के यज्ञों का आचरण करनेवाले समस्त साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करनेवाले हैं और यज्ञों के स्वरुप के ज्ञाता हैं | तात्पर्य यह कि इस प्रकार अपना उत्थान करता हुआ योग परायण साधक परमतत्त्व को साक्षात् करने का अधिकारी तो होता ही है और साथ में अपने पापों नाश भी करता है, जन्म जन्मान्तरों में किये कर्मबंधन का नाश करता है | इन यज्ञों द्वारा पापों का नाश कैसे होता है, इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि     

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् |
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम || (४/३१)

यज्ञ शिष्ट अमृत भुजः यान्ति ब्रह्म सनातनम् |
न अयम् लोकः अस्ति अयज्ञस्य कुतः अन्यः कुरु-सत्तम || (४/३१)

यज्ञ(यज्ञ), शिष्ट(शेष), अमृत(अमृत), भुजः(भोजी), यान्ति(प्राप्त होते हैं), ब्रह्म(ब्रह्म), सनातनम्(सनातन) | न(नहीं), अयम्(यह) लोकः(लोक), अस्ति(है), अयज्ञस्य(यज्ञ ना करनेवाले पुरूषों को), कुतः(कहाँ से), अन्यः(अन्य), कुरु-सत्तम(हे कुरुश्रेष्ठ) | (४/३१)

कुरु उत्तम ! यज्ञ शेष के अमृत भोजी सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, यज्ञ ना करने वालों को यह लोक नहीं है, फिर अन्य कहाँ से ? (४/३१)

यज्ञ शिष्ट अर्थात् यज्ञ के अनुष्ठान के पश्चात जो बचता है, जिस प्रकार वैदिक कर्म काण्डों के पश्चात् जिस भोज्य सामग्री से देवतओं का पूजन करा जाता है, पूजन के उपरान्त उसे परमात्मा का प्रसाद मानकर ग्रहण करा जाता है, उसी प्रकार परमार्थ मार्ग में यज्ञार्थ कर्मों के, यज्ञों के अनुष्ठान के पश्चात् जो शेष रहता है, जो इन यज्ञों का परिणाम है, वह योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार अमृततत्त्व है | जिसकी प्रस्तावना योगेश्वर ने पूर्व में करी थी | कि सुख, दुःख देनेवाले इन्द्रियों और विषयों के संयोग, वियोग तो आने, जाने वाले, अनित्य हैं | सुख, दुःख में सम रहने वाले, जिस धीर पुरुष को यह व्यथित नहीं करते, वह अमृत की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१४,१५) तथा यहाँ योगेश्वर द्वारा कहे यज्ञों के स्वरूप की पुनरावृत्ति करें तो स्पष्ट है कि श्लोक संख्या (४/२६) में वर्णित संयम अग्नि तथा इन्द्रिय अग्नि रूपी हवन द्वारा यज्ञ करने वाला साधक अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है और क्रमशः उत्थान करता हुआ, पापों का नाश करता हुआ साधक प्राणायाम परायण होकर अमृततत्त्व का भोजी हो जाता है | यह प्राणायाम परायण साधक जिस काल अपने श्वास प्रश्वास को सम करने में सक्षम हो जाता है, उसी क्षण वह परमात्मा को साक्षात् कर लेता है | इस प्रकार यज्ञ शेष अमृततत्त्व के भोजी सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं | यज्ञ शेष अमृततत्त्व के पान से सनातन ब्रह्म की प्राप्ति किस प्रकार होती है, यह निम्न श्लोकों को ध्यानपूर्वक अध्ययन करते हुए श्लोक संख्या (४/३८) में स्पष्ट होता है |

इसके पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञ ना करने वाले पुरुष के लिये यह लोक, यह मनुष्य देह भी नहीं है, क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ही जो इस लोक में, इस मनुष्य शरीर को प्राप्त करके भी, इस प्रकार प्रचलित सृष्टिक्रम के अनुसार नहीं बरतता अर्थात् जीवनयात्रा की सिद्धि हेतु यज्ञार्थ कर्मों का आचरण नहीं करता, पार्थ ! इन्द्रियों का आराम चाहने वाला वह पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है | (३/१६) तथा जो इस मनुष्य शरीर को प्राप्त करके भी देवतओं के पूजन आदि करने योग्य प्राथमिक यज्ञों का भी अनुष्ठान नहीं करता, उसके लिये अन्य कैसे ? अर्थात् पुनः मनुष्य योनी की प्राप्ति भी असंभव है, वह अधोगति को प्राप्त होकर निम्न योनियों में जन्म पाता है |
  
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे |
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे || (४/३२)

एवम् बहु विधाः यज्ञाः वितताः ब्रह्मणः मुखे |
कर्म जान् विद्धि तान् सर्वान् एवम् ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे || (४/३२)

एवम्(इस प्रकार), बहु(बहुत से), विधाः(विधिवत), यज्ञाः(यज्ञ), वितताः(विस्तारपूर्वक कहे), ब्रह्मणः(ब्रह्म में स्थित पुरूषों) मुखे(वाणी से) | कर्म(कर्म), जान्(जन्य), विद्धि(जानो), तान्(उन), सर्वान्(सबको) एवम्(इस प्रकार), ज्ञात्वा(ज्ञात करके) विमोक्ष्यसे(मुक्त हो जाओगे) | (४/३२)

इस प्रकार बहुत से यज्ञ विधिवत, ब्रह्म में स्थित पुरूषों की वाणी से विस्तारपूर्वक कहे गये हैं, उन सबको कर्म जन्य जानो, इस प्रकार ज्ञात करके मुक्त हो जाओगे | (४/३२)

उपरोक्त यज्ञों को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने मतानुसार कृष्णयोग परायण साधकों के प्रति कहा है, इस प्रकार के बहुत से अन्य यज्ञ विधिवत अर्थात् इन यज्ञों के अतिरिक्त भी बहुत प्रकार के यज्ञ विधिपूर्वक ब्रह्म में स्थित पुरूषों की वाणी से, अर्थात् ब्रह्म में स्थित पुरूषों की वाणी को यंत्र बना कर परमतत्त्व परमात्मा ने ही विस्तारपूर्वक कहें हैं | उन सबको अर्थात् जिन यज्ञों की चर्चा मैंने की उन यज्ञों को तथा आप भी जिस सद्गुरु के शरणागत हों, उनके द्वारा कहे यज्ञों को भी कर्मजन्य जानो, कर्मों द्वारा ही इन यज्ञों को सिद्ध करा जाता है | इस प्रकार ज्ञात करके अर्थात् इन यज्ञों के स्वरूप को जानकर तथा उस पर आचरण करने से मुक्ति प्राप्त होती है |

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप |
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते || (४/३३)

श्रेयान् द्रव्य मयात् यज्ञात् ज्ञान यज्ञः परन्तप |
सर्वम् कर्म अखिलम् पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते || (४/३३)

श्रेयान्(श्रेष्ठ है), द्रव्य(द्रव्य), मयात्(मय), यज्ञात्(यज्ञों से), ज्ञान(ज्ञान), यज्ञः(यज्ञ), परन्तप(परन्तप) | सर्वम्(समस्त), कर्म(कर्म), अखिलम्(यावन्मात्र), पार्थ(पार्थ), ज्ञाने(ज्ञान से), परिसमाप्यते(भलीभाँति समाप्त हो जाते हैं) | (४/३३)

परन्तप ! द्रव्ययज्ञों से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, पार्थ ! यावन्मात्र समस्त कर्म ज्ञान से भलीभाँति समाप्त होजाते हैं | (४/३३)

 द्रव्ययज्ञ, जिस यज्ञ की चर्चा योगेश्वर ने श्लोक संख्या (४/२८) में करी थी कि आत्मपरायण होने को प्रयत्नशील साधक प्राप्य धन सामग्री को भोगों हेतु व्यय न करके, देह सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए, शेष धन सामग्री को आत्मपथ में लगे साधकों, महापुरुषों और स्थितप्रज्ञ पुरूषों की सेवा में अर्पित करते हैं | परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकी द्रव्ययज्ञ यद्यपि सांसारिक संस्कारों को भस्म करने में सक्षम हैं, तब भी इनके बहिर्मुखी होने के कारण, सांसारिक विषयों और पदार्थों का संयोग होने के कारण, इन यज्ञों के अनुष्ठान स्वरूप सांसारिक विषयों का विसृजन कठिन है, अतः परमार्थ का साधन नहीं है | इसकी अपेक्षा अन्य यज्ञ जो अन्तर्मुखी है, एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित हैं, जिनका परिणाम केवल हृदयस्थ परमात्मा का साक्षात्कार ही है, वह यज्ञ श्रेष्ठ हैं | पूर्व श्लोकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जिस यज्ञ शेष रूप अमृततत्त्व की प्राप्ति की चर्चा करी थी, उस अमृततत्त्व का पान करनेवाले साधकों की जो उपलब्धि है, वह यही ज्ञान है | यह ज्ञान सामान्य  बौद्धिक ज्ञान नहीं है, शास्त्रों अथवा संतजनों के उपदेशों से प्राप्त ज्ञान नहीं है, अपितु इस ज्ञान की उत्पत्ति अमृततत्त्व के पान स्वरूप होती है, हृदय देश में होती है | समस्त यज्ञार्थ कर्मों के अनुष्ठान का, हृदयस्थ ईष्ट के साक्षात्कार का परिणाम, यह ज्ञान है | इस ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, कि सर्वं कर्म अखिलम्, अर्थात् मनुष्य के जन्म जन्मान्तरों से संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म तथा क्रियमाण सभी कर्म इस ज्ञान की प्राप्ति से, इस ज्ञान में ही समाहित हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, कोई कर्मबंधन नहीं रहता |

यज्ञ शेष अमृततत्त्व की प्राप्ति तथा उस अमृततत्त्व का पान करते हुए इस ज्ञान की प्राप्ति हेतु साधक को बहुत ही सावधानीपूर्वक अपने स्वभाव के, गुणों के, वर्ण के अनुसार इन यज्ञार्थ कर्मों में प्रवृत होना पड़ता है, इन यज्ञों का अनुष्ठान कारण पड़ता है | अर्जुन के समक्ष तो स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण उपस्थित थे, परन्तु हम जैसे अधम साधकों को हमारे स्वभाव का, गुणों का, हमारे वर्ण का कितना बौद्धिक ज्ञान है ? हम किन यज्ञों का अनुष्ठान करें, इसका निर्णय कौन करेगा ? इस पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
  
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः || (४/३४)

तत् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम् ज्ञानिनः तत्त्व दर्शिनः || (४/३४)

तत्(उस), विद्धि(विधिविधान को), प्रणिपातेन(शरणागत होकर), परिप्रश्नेन(भलीभाँति प्रश्न से), सेवया(सेवा करके) |
उपदेक्ष्यन्ति (दीक्षित करेंगे), ते(वे), ज्ञानम्(ज्ञान में), ज्ञानिनः(ज्ञानीजन), तत्त्व(तत्त्व), दर्शिनः(दर्शी) | (४/३४)

उस विधिविशेष को शरणागत होकर, सेवा करके, भलीभाँति प्रश्न करने से वे तत्त्वदर्शी ज्ञानीजन (तुझे) ज्ञान में दीक्षित करेंगे | (४/३४)

शुद्ध तत्त्व है परमतत्त्व परमात्मा, अतः जिन्होंने यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करते हुए, अमृततत्त्व का पान करते हुए, उस परमतत्त्व को साक्षात् करके, ज्ञान की प्राप्ति की है उनको तत्त्वदर्शी ज्ञानीजन कहते हैं | वह तत्त्वदर्शी ज्ञानीजन तुम्हारे वर्ण के अनुसार, परमतत्त्व को साक्षात् करने की विधिविशेष का, तुम्हारे वर्ण के अनुसार अनुष्ठान करने योग्य यज्ञों का तुम्हें ज्ञान देंगे | इसलिये उनके शरणागत होकर, भलीभाँति उनकी सेवा करके, उसके उपरान्त शिष्य भाव से अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर, वे तत्त्वदर्शी ज्ञानीजन तुम्हें दीक्षित करेंगे, साधना पथ पर, परमार्थ मार्ग हेतु तुम्हें उचित दिशा निर्देश देंगे |
                      
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव |
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि | (४/३५)

यत् ज्ञात्वा न पुनः मोहम् एवम् यास्यसि पाण्डव |
येन भूतानि अशेषेण द्रक्ष्यसि आत्मनि अथो मयि || (४/३५)

यत्(जिसे), ज्ञात्वा(ज्ञात करके),(नहीं), पुनः(पुनः), मोहम्(मोह को), एवम्(इस प्रकार), यास्यसि(प्राप्त होगे), पाण्डव (पाण्डवपुत्र) | येन(जिससे), भूतानि(समस्त प्राणियों को), अशेषेण(निःशेष भाव से), द्रक्ष्यसि(देखोगे), आत्मनि(स्वयं में), अथो(उसके बाद), मयि(मुझमें) | (४/३५)

पाण्डव ! इस प्रकार जिसे ज्ञात करके पुनः मोह को प्राप्त नहीं होओगे, निःशेष भाव से समस्त प्राणियों को स्वयं में देखोगे, उसके बाद मुझमें | (४/३५)

इस प्रकार अर्थात् मेरे मत के अनुसार समबुद्धि से युक्त हो जीवन निर्वाह करता हुआ तथा यज्ञार्थात कर्मों का अपने स्वभाव, अपने गुणों, अपने वर्ण के आधार पर आचरण करता हुआ और इस आचरण स्वरूप अमृततत्त्व का पान करता हुआ तू जिसे ज्ञात करेगा, वह ज्ञान है | इस ज्ञान को प्राप्त करके पुनः मोह को प्राप्त नहीं होगा | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि तू शोक मतकर, तू दैवी सम्पदा के साथ जन्मा है | (१६/५,उ०) तब दैवी सम्पदा को प्राप्त अर्जुन क्या अज्ञानी था, जिसे ज्ञान को प्राप्त करने की आवश्यकता थी ? ऐसा नहीं है, यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण जिस ज्ञान की बात कर रहें हैं, वह सांसारिक बौद्धिक ज्ञान नहीं है, सांसारिक बौद्धिक ज्ञान के कारण ही तो अर्जुन मोह को प्राप्त हुआ था, यह  ज्ञान भिन्न है, जिसे केवल स्वयं ही हृदयस्थ ईष्ट के परायण हो पाया जाता है, योगेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं ही अर्जुन के साथ थे, वे भी यह ज्ञान अर्जुन को ना कह सके, यह आत्मज्ञान है | इस ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस ज्ञान को प्राप्त करके तू पुनः मोह को प्राप्त नहीं होगा, केवल इतना ही नहीं इस ज्ञान से प्राप्त ज्ञान चक्षुओं द्वारा निःशेष भाव से समस्त प्राणियों को स्वयं में देखेगा अर्थात् समस्त देहधारियों में देही को देखने की क्षमता को प्राप्त होगा, असत्य देह के मोह से छुटकारा पाकर, सत्य देखने की क्षमता को प्राप्त होगा | देह, देह के संबंधो, देह के भोगों के मोह से उपराम हुआ, तू जब स्वयं को ज्ञात कर पायेगा और समस्त प्राणियों को अपने ही स्वरूप में; देही रूप में देखने की क्षमता को प्राप्त हो जायेगा, सर्वत्र एक ही परमात्मा के प्रसार को; परमात्मा के सनातन अंश जीवात्मा को देखने की क्षमता आ जायेगी, उसके उपरान्त ही तू उस परमात्मा को, मुझको देख पायेगा, साक्षात् कर पायेगा |

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस महावाक्य के द्वारा इस तथ्य का वर्णन करा है कि आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त ज्ञान चक्षुओं से परमतत्त्व परमात्मा का साक्षात्कार किस प्रकार होता है | योगेश्वर के महावाक्य पर तो मनन करा परन्तु यह वस्तुतः कैसे होता है, इस पर एक मनन | इस प्रकरण को इस प्रकार समझें कि एक नेत्रहीन पुरुष को एक वैध ने आश्वासन दिया कि मेरे कहे अनुसार आचरण करने से तेरी आँखों की ज्योति तुझे पुनः प्राप्त हो जाएगी | वह नेत्रहिन पुरुष उस वैध के कहे अनुसार औषधि का सेवन करता था, नेत्रों को औषधि से धोता था, नेत्रों का व्यायाम करता था | इस प्रकार वैध के कहे अनुसार आचरण करते हुए एक दिन प्रातःकाल उसे उसके नेत्रों में प्रकाश (ज्ञान) की अनुभूति हुई, नेत्रों को खोलकर उसने सर्वप्रथम अपनी पंचभोतिक देह को, अपने स्वरूप को देखा, उसके पश्चात् सर्वत्र व्याप्त प्रकाश से उसने अपने ही जैसी देह को प्राप्त समस्त प्राणियों को देखा, तत्पश्चात उसने उस सूर्यदेव को जाना जिसके प्रकाश से यह समस्त जगत प्रकाशित है और उसे इस पंचभोतिक जगत का ज्ञान हुआ | इस नेत्रज्योति की प्राप्ति से पूर्व, नेत्रहीनता की अवस्था में वह अन्य नेत्रों वाले पुरूषों से प्रकाश के, सूर्यदेव के बारे में सुनकर जो अनुभव करता था, परमात्मा की इस सृष्टि को जैसा अनुभव करता था, स्वयं को प्राप्त नेत्रों की ज्योति से, देह चक्षुओं से उसका नेत्रहीनता के अनुभव का मोह भंग हुआ, वह अब परमात्मा की इस सृष्टि को अपने देह चक्षुओं से साक्षात् देख पाता है |

इसी प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे कृष्णयोग के अनुसार आचरण करने से प्राप्त ज्ञान चक्षुओं से देह को नहीं अपितु देही को देखने की क्षमता प्राप्त होती है, अपने को देही स्वरूप, परमात्मा के सनातन अंश स्वरूप देखकर, इस ज्ञान में स्थित होकर, इस ज्ञान से प्राप्त ज्ञान चक्षुओं द्वारा वह पुरुष पहले सर्वत्र व्याप्त, परमात्मा के इस सनातन अंश जीवात्मा का ही प्रसार देखता है, उसके पश्चात् उस तत्त्व को साक्षात् कर पाता है, जिसके यह समस्त चर अचर जगत व्याप्त है | यही परमतत्त्व परमात्मा का साक्षात्कार है | परन्तु किन कारणों से उस नेत्रहिन पुरुष को ज्योति की प्राप्ति हुई ? वह थी उस नेत्रहीन पुरुष की वैध के वचनों के प्रति अटूट श्रद्धा और आस्था | इस श्रद्धा और ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं | कि     

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः |
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि || (४/३६)

अपि चेत् असि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पाप कृत्तमः |
सर्वम् ज्ञान प्लवेन एव वृजिनम् सन्तरिष्यसि || (४/३६)

 अपि(भी), चेत्(यदि), असि(है), पापेभ्यः(पापियों से), सर्वेभ्यः(समस्त), पाप(पाप), कृत्तमः(करनेवाला) | सर्वम्(समस्त), ज्ञान (ज्ञान), प्लवेन(नौका द्वारा), एव(ही), वृजिनम्(पापरूप समुद्र को), सन्तरिष्यसि(भलीभाँति तर जायेगा) | (४/३६)

यदि समस्त पापियों से भी (अधिक) पाप करनेवाला है, ज्ञानरूपी नौका द्वारा निःसंदेह पापरूप समुद्र को भलीभाँति पार कर जायेगा | (४/३६)

योगेश्वर श्रीकृष्ण का इससे तात्पर्य यह है कि आप इस भ्रम में ना रहें कि जन्म जन्मान्तरों से नेत्रहीन आपको यह ज्योति किस प्रकार प्राप्त होगी ? वस्तुतः नेत्रहीन पुरुष को नेत्रोंवाले कितना ही सूर्य के बारे में, रंगों के बारे में, प्रकाश के बारे में कहे, नेत्रहीन पुरुष यह विश्वास नहीं कर पाता कि कभी वह भी इस संसार को, सूर्य को, चन्द्रमा को, तारों को देख पायेगा | परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञानरुपी नौका से, कृष्णयोग के आचरण स्वरूप प्राप्त ज्ञान चक्षुओं से, आत्मज्ञान से तू निःसंदेह पापरूप समुद्र को पार कर जायेगा | निःसंदेह पार कर जायेगा क्योंकी इस कृष्णयोग में प्रयत्न के आरम्भ का नाश नहीं होता, तेरा प्रयत्न शिथिल भी होगा तो भी इस जन्म में ना पाकर, अगले जन्म में पार लग जायेगा, निःसंदेह पार लग जायेगा | क्योंकी   

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा || (४/३७)

यथा एधांसि समिद्धः अग्निः भस्मसात् कुरुते अर्जुन |
ज्ञान अग्निः सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा || (४/३७)

यथा(जैसे), एधांसि(ईंधन को), समिद्धः(प्रज्वलित), अग्निः(अग्नि), भस्मसात्(भस्म कर राख़), कुरुते(करती है), अर्जुन(अर्जुन) | ज्ञान(ज्ञान), अग्निः(अग्नि), सर्व(समस्त), कर्माणि(कर्मों को), भस्मसात्(भस्म कर राख़), कुरुते(करती है) तथा(वैसे) | (४/३७)

अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर राख़ करती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर राख़ करती है | (४/३७)

कितना भी ईंधन हो, जिस प्रकार प्रज्वलित उसे भस्म कर राख़ कर देती है, उसी प्रकार कितने ही जन्मों के कर्म बंधन हो, एक बार इन यज्ञरूपी कर्म को प्रारंभ कर दो, यज्ञ हेतु हवन कुण्ड में अग्नि प्रज्वलित कर दो, यह ज्ञानरूपी प्रज्वलित अग्नि समस्त कर्म बंधन को भस्म कर राख़ कर देगी | इस प्रकार उपरोक्त पाँच श्लोकों में इस ज्ञान की महिमा, इसे प्राप्त करने की विधि का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण इन ज्ञान की प्राप्ति कहाँ और कैसे होती है, इसका उपदेश देते हैं, यह गीता शास्त्र का एक महावाक्य है, इसका अध्ययन मनन बहुत ध्यानपूर्वक करें |

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते |
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति || (४/३८)

न हि ज्ञानेन सदृशम् पवित्रम् इह विद्यते |
तत् स्वयम् योग संसिद्धः कालेन आत्मनि विन्दति || (४/३८)

(नहीं), हि(क्योंकी, निःसंदेह), ज्ञानेन(ज्ञान के), सदृशम्(समान), पवित्रम्(पवित्र), इह(इस लोक में), विद्यते(विद्यमान है) | तत्(उस), स्वयम्(स्वयं), योग(योग), संसिद्धः(सिद्ध होने पर), कालेन(काल में), आत्मनि(स्वयं में), विन्दति(पायेगा) | (४/३८)

निःसंदेह इस लोक में इस ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला अन्य कुछ विद्यमान नहीं है, ‘तत्स्वयं’ उस ज्ञान को तू स्वयं ‘योग संसिद्धः कालेन’ जब योग सिद्ध होगा उस काल में ‘आत्मनि विन्दति’ स्वयं में ही पायेगा | (४/३८)

योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ निश्चयात्मक रूप से कहते हैं कि निःसंदेह, समस्त संदेहों, शंकाओ से परे यह निश्चयात्मक तथ्य है कि इस लोक में अर्थात् इस देही की मुक्ति के लिये, कर्मबंधन के नाश के लिये आत्मज्ञान के समान पवित्र करने वाला अन्य कुछ भी विद्यमान नहीं है, क्योंकी इस इस ज्ञान से जो प्राप्ति है, उस परमतत्त्व परमात्मा से पवित्र अन्य कुछ भी नहीं है तथा अन्य कोई भी विधिविशेष, विधिविधान विद्यमान नहीं है, जिससे कर्मबंधन का नाश हो सके | उस ज्ञान को तू स्वयं अर्थात् यह अन्य सांसारिक ज्ञानों की तरह कहने सुनने का विषय नहीं है, योगेश्वर स्वयं भी अर्जुन को इस ज्ञान को प्राप्त करने की विधिविशेष ही कह पाये, परन्तु यह आत्मज्ञान नहीं कह पाये तथा ना ही यह ज्ञान अन्य किसी तत्त्वदर्शी महापुरुष के सानिध्य से यह प्राप्त होगा, इस ज्ञान को तुझे स्वयं ही प्राप्त करना है | यह ज्ञान कब और कहाँ प्राप्त होगा ? इस पर योगेश्वर कहते हैं कि जब योग सिद्ध होगा उस काल में, जब तू प्राणायाम परायण हो जायेगा उस काल में यह ज्ञान प्राप्त होगा तथा इस ज्ञान को तू स्वयं, हृदयस्थ ईष्ट के परायण होकर, आत्मनि विन्दति, स्वयं में ही पायेगा, इसलिये इसे आत्मज्ञान कहते हैं | यह ज्ञान बाहर कहीं से भी प्राप्त होने योग्य नहीं है | इसी आत्मज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं (४/१९), सर्वं कर्माखिलं ज्ञाने परिसमाप्यते (४/३३) , ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते (४/३७) | इस ज्ञान की प्राप्ति ही कृष्णायोग का उद्देश्य है, ध्येय है, यही गीता शास्त्र का सार है | गीता शास्त्र के इस सार का, आत्मज्ञान के स्वरूप पर एक मनन |

वस्तुतः जो भी व्यक्त है अथवा व्यक्त हो सकता है, वह माया के, प्रकृति के तीनों गुणों से प्रभावित होता है और अव्यक्त को व्यक्त नहीं किया जा सकता | केवल पंचभोतिक सृष्टि ही नहीं, चर अचर सम्पूर्ण जगत ही नहीं,  परमात्मा का सनातन अंश, जीवात्मा भी जब व्यक्त होता है, व्यक्ति रूप में प्रकट होता है, जन्म लेता है, तब यह भी माया के तीनों गुणों से भावित हो जाता है | अचेतन जगत का, जल, अग्नि, वायु का भी एक स्वभाव होता है | अदृश्य वाणी तत्त्व और सांसारिक बौद्धिकज्ञान भी सदा तीनों गुणों से भावित होते हैं | परन्तु सर्वव्याप्त परमतत्त्व परमात्मा, समष्टि परमात्मा का व्यष्टि रूप आत्मा, परमतत्त्व परमात्मा के दिव्य, अलौकिक जन्म और कर्म, उनका स्वभाव अर्थात् परं भाव तथा उस परमात्मा को साक्षात् करने हेतु आत्मज्ञान ही केवल अव्यक्त रूप से स्थित है | वस्तुतः यह इतना कुछ है भी नहीं | आपने केवल परं भाव को पाया कि यह सब आपने पाया, आपने केवल आत्मज्ञान को पाया कि यह सब आपने पाया | ईश्वर, महेश्वर, आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म, परब्रह्म, परं भाव, आत्मज्ञान सभी उस एक अव्यक्त अक्षय तत्त्व के अव्यक्त स्वरूप हैं, एक को पाया कि सब पाया |

यह आत्मज्ञान भी अव्यक्त रूप में ही स्थिति पाए है तथा सम्पूर्ण शास्त्र, समस्त श्रुतियाँ उस अव्यक्त को व्यक्त करने का प्रयास भर है | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी केवल उस अव्यक्त को प्राप्त करने हेतु विधिविशेष का वर्णन करा है |      योगेश्वर अर्जुन के साथ ही तो थे, केवल गीता का सार; आत्मज्ञान ही कह दिया होता, क्यों अठारह अध्यायों में सात सौ श्लोकों तक अर्जुन को उपदेश देते चले गये ? क्योंकी अव्यक्त कहने सुनने का विषय नहीं है, समभाव से रहनी और यज्ञार्थ कर्मों के आचरण से ही उसकी प्राप्ति का विधान है | अन्यथा भी शायद योगेश्वर श्रीकृष्ण ने शायद उस अव्यक्त को ही कहा हो, महामुनि वेदव्यास ने भी शायद उस अव्यक्त को ही लिपिबद्ध करा हो, परन्तु योगेश्वर की वाणी से प्रसारित होकर अर्जुन के कर्ण कुहरों के स्पर्श से ही वह अव्यक्त आत्मज्ञान माया के गुणों से भावित हो गया होगा, लिपिबद्ध गीता शास्त्र की लिपि, बुद्धि को स्पर्श करने से पहले ही नेत्रों का स्पर्श पाकर माया के गुणों से भावित हो गयी होगी | योगेश्वर कहते कुछ हैं, हम समझते कुछ और ही हैं, तभी तो योगेश्वर द्वारा कही अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र में हम केवल कृष्णयोग को नहीं पाते अपितु ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग, अर्जुनविषादयोग और ना जाने क्या क्या पा जाते हैं | यही व्यक्त और अव्यक्त के मध्य की विडम्बना है, गुणातीत तत्त्वदर्शी महापुरुषों और गुणाधीन साधक के बिच की विडम्बना है, इसी कारण अव्यक्त की प्राप्ति को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जिन भी यज्ञों की, यज्ञार्थ कर्मों की प्रस्तावना करी, वे सभी अन्तर्मुखी हैं, यज्ञों की पराकाष्ठा पर, प्राणायाम परायण होने पर तो यह  नामजप भी नहीं किया जाता, उस अवस्था में नामजप भी अव्यक्त रूप से, अजपा ही होता है | अव्यक्त की साधना, उपासना दिखावे की नहीं अपितु छिपाव की क्रियाएँ हैं, छिपकर ही भजन का विधान है, तभी साधक प्रकृति के पाश से छुट पाता है | आपके ईष्ट, परमतत्त्व परमात्मा का निवास भी हृदय देश है, आप भी आत्म परायण हों आराधना करते हैं, भजन भी हृदय देश में ही करा जाता है और आत्मज्ञान भी आप हृदय देश में ही पाएंगे | यह आत्मज्ञान इसलिये ही पवित्र है क्योंकी हृदयस्थ ईष्ट के परायण होकर की गयी साधना को माया भी छू नहीं पाती | कोई कर्मबंधन, कोई कर्मफल उत्पन्न नहीं कर पाती |

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः |
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति || (४/३९)

श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् तत्परः संयत इन्द्रियः |
ज्ञानम् लब्ध्वा पराम् शान्तिम् अचिरेण अधिगच्छति || (४/३९)

श्रद्धावान्(श्रद्धावान पुरुष), लभते(प्राप्त करते हैं), ज्ञानम्(ज्ञान को), तत्परः(पूर्णरूप से संलग्न), संयत(संयमित) इन्द्रियः (इन्द्रियाँ) | ज्ञानम्(ज्ञान को), लब्ध्वा(प्राप्त करके), पराम्(परं), शान्तिम्(शांति को), अचिरेण(तत्काल), अधिगच्छति(प्राप्त हो जाता है) | (४/३९)

पूर्णरूप से संलग्न, श्रद्धावान और संयत इन्द्रिय पुरुष ज्ञान को प्राप्त करते हैं, ज्ञान को प्राप्त करके तत्काल परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है | (४/३९)

पूर्व श्लोक में कहे ज्ञान की प्राप्ति को योगेश्वर श्रीकृष्ण के मतानुसार आचरण करते हुए साधक को तत्परता से कृष्णयोग का आचरण करना होता है | ऐसा नहीं कि चार आने, आठ आने तो यज्ञार्थ कर्मों को आचरण करा, शेष काल में सांसारिक भोगों में तल्लीन हो गये | तेलधारावत इन यज्ञों का अनुष्ठान करना पड़ता है, केवल इतना ही नहीं, हृदयस्थ ईष्ट के प्रति श्रद्धा भी आवश्यक है, तत्त्वदर्शी महापुरुष के, योगेश्वर के वचनों में पूर्ण विश्वास, आस्था का होना आवश्यक है, उनके वचनों के प्रति कोई शंका, कोई दोषदृष्टि का अभाव आवश्यक है तथा इन्द्रियों का स्वयं के अधीन होना, संयमित होना अनिवार्य है, अन्यथा यह माया बहुत ही ठगनी है, विश्वामित्र को भी इस माया ने तीन बार ठगा था | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ कहे साधक के तीनों गुणधर्म उसकी ध्येय के प्रति
एकाग्रता के सूचक हैं |

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति |
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः || (४/४०)

अज्ञः च अश्रद्दधानः च संशय आत्मा विनश्यति |
न अयम् लोकः अस्ति न परः न सुखम् संशय आत्मनः || (४/४०)

अज्ञः(अज्ञ),(और), अश्रद्दधानः(श्रद्धा रहित),(और), संशय(संशय), आत्मा(पुरुष का), विनश्यति(विनाश होता है) | न (नहीं), अयम्(यह), लोकः(लोक), अस्ति(है),(नहीं), परः(परलोक),(नहीं), सुखम्(सुख है), संशय(संशय), आत्मनः(व्यक्ति के लिये) | (४/४०)

अज्ञ, श्रद्धा रहित तथा संशयी पुरुष का नाश होता है, संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है, न परलोक, न सुख | (४/४०)

अज्ञ; अज्ञानी,विवेकहीन; तात्पर्य यह कि जो मनुष्य शरीर को पा कर भी इन यज्ञों का अनुष्ठान नहीं करता वह अज्ञानी ही है और श्रद्धारहित तथा संशयात्मा, इन तीनों गुणों के कारण मनुष्य का पतन हो जाता है | योगेश्वर यहाँ विवेकहीन अथवा श्रद्धा रहित पुरुष के संदर्भ में तो कुछ नहीं कहते, परन्तु संशयात्मा के प्रति कहते हैं कि इसका तो इतना पतन होता है कि इसके लिये ना तो यह लोक है अर्थात् मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी यह पशुवत सा जीवन निर्वाह करता है और सद्गुरु, तत्त्वदर्शी महापुरुषों के वचनों के प्रति संशय रखने के कारण यह कभी भी परमार्थ मार्ग का आचरण नहीं कर पाता, इसलिये ऐसे पुरुष को परलोक अर्थात् पुनः मनुष्य योनि भी प्राप्त नहीं होती तथा ऐसे संशयात्मा को परमात्मा सुख परमानन्द तो क्या प्राप्त होगा, वह सांसारिक संबंधो में भी संशय करने के कारण सांसारिक सुख भी नहीं पाता |
  
योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् |
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय || (४/४१)

योग संन्यस्त कर्माणम् ज्ञान सन्छिन्न संशयम् |
आत्म वन्तम् न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय || (४/४१)

योग(योग), संन्यस्त(त्याग करा पुरुष), कर्माणम्(कर्मों का), ज्ञान(ज्ञान), सन्छिन्न(काट दिया), संशयम्(संशय को) | आत्म(स्वयं) वन्तम्(संयुक्त), न(नहीं), कर्माणि(कर्म), निबध्नन्ति(बाँधते हैं), धनञ्जय(धनंजय) | (४/४१)

धनंजय ! योग द्वारा कर्मों का त्याग, ज्ञान द्वारा संशय का नाश, आत्मपरायण पुरुष को कर्म नहीं बाँधते | (४/४१)

अध्याय के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को निर्देश देते हैं कि योग द्वारा कर्मों का त्याग अर्थात् कर्मबंधन का नाश कर तथा ज्ञान द्वारा संशय का नाश कर | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ कहा गया ज्ञान वस्तुतः सांसारिक बौद्धिक ज्ञान है, विवेकबुद्धि है | अन्यथा जब तक संशय है, तब तक आत्मज्ञान की प्राप्ति तो होती नहीं, इसलिये यह आत्मज्ञान नहीं है | यह  ज्ञान वस्तुतः योगेश्वर द्वारा अर्जुन के प्रति सांख्य दृष्टि से कहा गया बौद्धिक ज्ञान है, जिसके लिये योगेश्वर ने पूर्व में कहा था कि इस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्म बंधन का नाश कर सकेगा | अपने इसी व्यक्तव्य को यहाँ दोहराते हुए कहते हैं कि आत्मपरायण पुरुष को, योगयुक्त पुरुष को कर्म नहीं बाँधते |

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः |
     छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत || (४/४२)

तस्मात् अज्ञान सम्भूतम् हृत्स्थम् ज्ञान असिना आत्मनः |
छित्वा एनम् संशयम् योगम् अतिष्ठ उतिष्ठ भारत || (४/४२)

तस्मात्(इसलिये), अज्ञान(अज्ञान), सम्भूतम्(जन्य), हृत्स्थम्(हृदयस्थ), ज्ञान(ज्ञान), असिना(खड्ग) आत्मनः(स्वयं) | छित्वा
(काट कर) एनम्(इस), संशयम्(संशय को), योगम्(योग में), अतिष्ठ(बैठो), उतिष्ठ(उठो), भारत(भारत) | (४/४२)

भारत ! इस अज्ञानजन्य हृदयस्थ संशय को स्वयं ज्ञानरूपी खड्ग द्वारा काटकर योग में उठो बैठो | (४/४२)

इसलिये अज्ञानजन्य अर्थात् प्रकृति के गुणों से मोहित होने के कारण अविवेक से उत्पन्न हृदय में स्थित इस संशय को ज्ञानरुपी अर्थात् समभाव, समबुद्धि रूपी खड्ग से काटकर, योग में ही उठो, बैठो अर्थात् जीवन को ही योगमय बना लो |


योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस उपदेश के साथ ही गीता शास्त्र के चतुर्थ अध्याय का समापन होता है |



                                                 
***** ॐ तत् सत् *****