Shri Krishna

Shri Krishna

Friday 28 November 2014

अध्याय १५

-->
** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
पञ्चदशोऽध्यायः      
श्रीभगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् |
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् || (१५/१)

ऊर्ध्व मूलम् अधः शाखम् अश्वत्थम् प्राहुः अव्ययम् |
छन्दांसि यस्य पर्णानि यः तम् वेद सः वेद वित् || (१५/१)

ऊर्ध्व (उपर), मूलम् (मूल), अधः (नीचे), शाखम् (शाखाएं), प्राहुः (कहते हैं), अश्वत्थम् (पीपल का वृक्ष), अव्ययम् (अविनाशी) | छन्दांसि (वेदों की ऋचाएं), यस्य (जिसके), पर्णानि (पत्ते हैं), यः (जो), तम् (उसको), वेद (विदित कर लेता है)  सः (वह), वेद (वेदों को), वित् (जाननेवाला है) | (१५/१)

ऊपर मूल, निचे शाखाओं वाले को अविनाशी ‘अश्वत्थं’ कहते हैं, वेदों की ऋचाएं जिसके पत्ते हैं, जो उसको विदित कर लेता है, वह वेदों को जाननेवाला है | (१५/१)

आकाश की ओर जड़ें, मध्य में तना और निचे शाखाएं तथा वेदरूपी पत्तों वाले अविनाशी पीपल के वृक्ष की हास्यप्रद कल्पना केवल व्याख्याकारों की देन है, योगेश्वर श्रीकृष्ण का ऐसा अभिप्राय नहीं है | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने तो सम्पूर्ण अध्यात्मविद्या को इस एक श्लोक में कह दिया है | योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि ‘उर्ध्व मूलम्’ तात्पर्य यह कि ‘मूलम्’ जो मूल तत्त्व है, सबका आधार, सबका आश्रय, सबका उदगम्, उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ (१०/८) मैं सबका मूल कारण हूँ, मुझसे सब प्रवृत होता है’ ऐसा मूल ही ‘उर्ध्व’ है अर्थात् सर्वोत्तम है, सर्वोपरि है, श्रेष्ठ है, सत्त्व है, पवित्र है, ज्योतियों का ज्योति और परं है | ध्यान दें कि ‘ऊर्ध्वम्’ अथवा उर्ध्वमुखी’ ऊपर की ओर होता है, परन्तु ‘उर्ध्व’ सर्वोपरि होता है, मनुष्य अपने मन और बुद्धि से जो भी उर्ध्वमुखी कल्पना कर सकता है, उससे भी ‘उर्ध्व’ अर्थात् उससे भी जो उत्तम है, उससे भी जो परे है, व्याख्याकारों की हास्यप्रद कल्पना से भी परे है, उसे ‘उर्ध्व मूलम् कहते हैं और यह ‘उर्ध्व मूलम् ही सबका आधार, आश्रय, उदगम्, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय का कारण हैं और यही सर्वोत्तम, सर्वोपरी, सत्त्व, सर्वश्रेष्ठ, अतिपवित्र है, परं है, इससे ही सब प्रवृत होता है | तथा

‘अधः शाखम्’ अभिप्राय यह कि जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में कहा है कि ‘मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ (१०/८) मुझसे सब प्रवृत होता है, उसी ‘उर्ध्व मूलम् से सब प्रवृत हो रहा है, अगले श्लोक में कहे अनुसार ‘प्रसृताः’ फैल रहा है, ‘अनुसन्ततानि’  सर्वत्र व्याप्त हो रहा है और यह अविनाशी परमात्मा का ही प्रसार है इसलिये अविनाशी भी है, परन्तु यह ‘अधः शाखम्’ है, अर्थात् यह हिन् है, तुच्छ है और ‘अश्वत्थम्’ है | ‘अश्वत्थम्’ के दो अर्थ होते हैं, एक यह की यह ‘अ-श्वः’ है अर्थात् अशाश्वत है, शाश्वत नहीं है, परिवर्तनशील है, उत्पत्ति स्थिति और प्रलय रूप है, सदैव एक रस नहीं है, परन्तु अविनाशी है, इसका नाश कभी नहीं होता | दुसरे अर्थों में पीपल के वृक्ष को भी ‘अश्वत्थम्’ कहते हैं | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ‘अश्वत्थम्’ के इन दोनों अर्थों से संसार की सार्थकता को चित्रित किया है |

योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार यह संसार ‘अधः शाखम्’ है, तुच्छ है, हिन् है, अविनाशी होते हुए भी शाश्वत नहीं है, एक रस नहीं है अपितु परिवर्तनशील है और पीपल के वृक्ष की भाँति अकारण है, प्रकृतिवश होता रहता है, इस वृक्ष को कोई लगाता नहीं, अकारण ही भवन की दीवारों पर, छतों पर भी हो जाता है, यह सिर्फ़ ऐसा है और अकारण है तथा जैसे वृक्ष पत्तों के कारण ही ‘प्रसृताः’ को और बीज के कारण ही ‘अनुसन्ततानि’ को प्राप्त होता है, उसी प्रकार वेदों की ऋचाएं इस संसार रूपी वृक्ष के पत्ते हैं, प्रवृतिविषयक वेदों की ऋचाओं के कारण, छन्दों के कारण, स्तुतियों और प्रार्थनाओं के कारण, काम्य कर्मों और कामनाओं की पूर्ति को वैदिक कर्मकाण्डों से यह संसार प्रवृत हो रहा है, ‘प्रसृताः’ और ‘अनुसन्ततानि’ को अकारण ही प्राप्त हो रहा है | योगेश्वर श्रीकृष्ण का यही आशय वेदों के प्रति अध्याय दो में श्लोक संख्या (२/४२,४३,४४) तथा (९/२०,२१) में भी है कि त्रैगुन्य विषया वेदों के कारण ही और यहाँ इस वृक्ष के पत्तों के कारण ही यह पुरुष ब्रह्मभुवन पर्यन्त समस्त लोकों में विस्तार पाए है, अधम उत्तम योनियों में भटकता रहता है और अन्त में प्रभु कहते हैं कि जो ऐसा जानता है अर्थात् जो ‘उर्ध्व मूलम् को, ‘अधः शाखम्’ को तथा ‘अश्वत्थम्’ रूप इस संसार की प्रवृति को जान लेता है, वही वेदवित् है अर्थात् वेदों के तात्पर्य को जाननेवाला है, तीनों गुणों से भावित वेदों के कार्यक्षेत्र को जाननेवाला है, इस ‘अधः शाखम्’ को तथा ‘अश्वत्थम्’ के तत्त्व को जाननेवाला है | इस भाव को ओर स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि            

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः |
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके || (१५/२)

अधः च ऊर्ध्वम् प्रसूताः तस्य शाखाः गुण प्रवृद्धाः विषय प्रवालाः |
अधः च मूलानि अनुसन्तानि कर्म अनुबन्धीनि मनुष्य लोके || (१५/२)

अधः (निचे), (और), ऊर्ध्वम् (ऊपर), प्रसूताः (फैली हुई), तस्य (उसकी), शाखाः (शाखाएं), गुण (गुणों द्वारा), प्रवृद्धाः (विकसित), विषय प्रवालाः (विषया रूप टहनियाँ) | अधः(निचे),(और), मूलानि (जड़ें), अनुसन्तानि (भलीभाँति विस्तृत हुई), कर्म (कर्म), अनुबन्धीनि (अनुसार बाँधनेवाली), मनुष्य (मनुष्य), लोके (लोक में) | (१५/२)

उसकी गुणों द्वारा प्रवृद्ध हुई विषयरूपी शाखाएं निचे और ऊपर फैली हुई हैं और निचे भलीभाँति विस्तृत हुई कर्मों के अनुसार बाँधनेवाली जड़ें मनुष्य लोक में हैं | (१५/२)

उसकी अर्थात् ‘अश्वत्थम्’ रूपी संसार वृक्ष की, वेदों की ऋचाएं जिसके पत्ते है, ऐसे वृक्ष की ‘गुण प्रवृद्धाः’ अर्थात् प्रकृतिजन्य सतो, रजो और तमो गुणों के द्वारा प्रवृति और वृद्धि को प्राप्त ‘विषय प्रवालाः’ विषयभोग रूपी टहनियाँ निचे ऊपर सर्वत्र फैल रही हैं, निचे अर्थात् अधम योनियों में और ऊपर अर्थात् निर्मल योनियों में, देव भाग स्वर्ग से लेकर ब्रह्मभुवन पर्यन्त सर्वत्र फैली हैं तथा निचे मनुष्य लोक में भलीभाँति विस्तार को प्राप्त हुई जड़ें कर्मों के अनुसार बाँधने वाली हैं अर्थात् मनुष्य लोक में ही कर्मों का अधिकार है और अधम और उच्च योनियाँ मनुष्य लोक में किये गये कर्मों के कर्मफल का ही विस्तार है, भोग योनियाँ हैं | तात्पर्य यह कि मनुष्य प्रकृतिजन्य गुणों के कारण विषयभोगों में प्रवृत हुआ, अपने कर्मों के अनुसार भिन्न भिन्न योनियों में आवागमन को प्राप्त है, बंधन में है |

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा |
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा || (१५/३)
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः |
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणि | (१५/४)

न रूपम् अस्य इह तथा उपलभ्यते न अन्तः न च आदि न च सम्प्रतिष्ठा |
अश्वत्थम् एनम् सुविरूढ मूलम् असङ्ग शस्त्रेण दृढेन छित्वा || (१५/३)
ततः पदम् तत् परिमार्गितव्यम् यस्मिन् गताः न निवर्तन्ति भूयः |
तम् एव च आद्यम् पुरुषम् प्रपद्ये यतः प्रवृतिः प्रसूताः पुराणि || (१५/४)

(न), रूपम् (रूप है), अस्य (इसका), इह (यहाँ), तथा (वैसा), उपलभ्यते (पाया जाता है), (न), अन्तः (अन्त), (न), (और), आदि (आदि), (न), (और), सम्प्रतिष्ठा (भलीभाँति स्थित है) | अश्वत्थम् (पीपल), एनम् (इस), सुविरूढ (दृढ़), मूलम् (मूलवाले), असङ्ग शस्त्रेण (असंग रूपी शस्त्र से), दृढेन (दृढ़तापूर्वक), छित्वा (काटकर) | (१५/३)
ततः (उसके बाद), पदम् (पद को), तत् (उस), परिमार्गितव्यम् (भलीभाँति खोजना चाहिये), यस्मिन् (जिसमें), गताः (गये हुए), (न), निवर्तन्ति (लोटते हैं), भूयः (फिर) | तम् (उस), एव (ही), (और), आद्यम् (आदि), पुरुषम् (पुरुष को), प्रपद्ये (शरणा हो), यतः (जिससे), प्रवृतिः (प्रवृति), प्रसूताः (फैली हुई), पुराणि (पुरातन) | (१५/४)

इसका ‘रूप’ यहाँ वैसा उपलब्ध नहीं होता, न अन्त और न आदि और न भलीभाँति स्थित है, इस दृढ़ मूलवाले ‘अश्वत्थं’ को असंगरुपी शस्त्र से दृढ़तापूर्वक काटकर | (१५/३)
तत्पश्चात् उस पद को भलीभाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए फिर नहीं लोटते हैं और उस ही आदि पुरुष की
शरण हो, जिससे पुरातन प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है | (१५/४)

इसका रूप यहाँ वैसा उपलब्ध नहीं होता तात्पर्य यह कि जैसा वर्णन किया गया है कि विषय प्रवृद्ध टहनियाँ निचे ऊपर सर्वत्र फैली हैं, वेदों की ऋचाओं के अनुसार भोग ही भोग उपलब्ध है, ऐसा नहीं है अपितु मनुष्य को यह माया अपने ही तीनों गुणों से भावित करके, माया के ही द्वारा दी हुई इन्द्रियों, मन और बुद्धि से मायाजनित संसार के विषयभोग दिखाती है, यह देह चक्षु, यह मन सभी मायाजनित ही तो है, मनुष्य को इन्ही के आश्रित करके यह आवागमन में भरमाती है, जिसका कोई अन्त नहीं है और केवल इतना ही नहीं, इस आवागमन का आदि क्या है, यह भी नहीं पाता और वर्तमान में जो स्थिति है, वह भी भलीभाँति स्थित नहीं है अर्थात् कोई भी प्राप्य विषय भोगों से संतुष्ट नहीं है, तृष्णा, कामना, स्पृहा लगी ही रहती है, शांति की प्राप्ति नहीं होती और इस तृष्णा का, कामनाओं का अन्त क्या है, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार तो रजोगुण का अन्त दुःख ही है, सतोगुण का सुख में आसक्ति और तमस का प्रमाद, आलस्य और निद्रा | इस कारण इस तीनों गुणों से संचित दृढ़ मूलवाले अर्थात् माया की, सांसारिक भोग विषयों की, त्रिगुन्य विषया वेदों की पकड़ मनुष्य पर बहुत ही दृढ़ है, इसलिये दृढ़तापूर्वक अर्थात् निश्चयात्मक बुद्धि से, व्यावसायिक बुद्धि से इस ‘अश्वत्थम्’ रूप संसार को असंगरुपी शस्त्र से काटकर, अर्थात् माया के गुणों के प्रति उदासीनवत होकर और विषयभोगों के प्रति आसक्तिरहित होकर स्थित होकर |

तत्पश्चात् उस पद को, ‘उर्ध्वमूल’ को खोजना चाहिये, जिसको प्राप्त हुए मनुष्य फिर ‘अश्वत्थम्’ रूप अर्थात् इस संसार में जो अविनाशी तो है परन्तु शाश्वत नहीं है, ऐसे संसार में नहीं लोटते हैं और उस आदि पुरुष की शरण होना चाहिये जिससे यह पुरातन अविनाशी प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है, उस उर्ध्वमूल, उस आदि पुरुष की शरण होना चाहिये | उस उर्ध्वमूल की खोज और आदिपुरुष की प्राप्ति के विषय में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाः अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः |
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्गैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् || (१५/५)   

निः मान मोहाः जित सङ्ग दोषाः अध्यात्म नित्या विनिवृत्त कामाः |
द्वन्द्वैः विमुक्ताः सुख दुःख सङ्ज्ञैः गच्छन्ति अमूढाः पदम् अव्ययम् तत् || (१५/५)

निः (रहित), मान (मान), मोहाः (मोह), जित (जीत), सङ्ग दोषाः (आसक्तिरूप दोष), अध्यात्म (अध्यात्म), नित्या (नित्य रूप से), विनिवृत्त (विशेष रूप से निवृत), कामाः (काम) | द्वन्द्वैः (द्वन्द्वों से), विमुक्ताः (मुक्त), सुख (सुख), दुःख (दुःख), सङ्ज्ञैः (संगी), गच्छन्ति (जाते हैं), अमूढाः (अमुढ़), पदम् (पद को), अव्ययम् (शाश्वत), तत् (उस) | (१५/५)

मान और मोह रहित, आसक्तिरूप दोष का विजयी, नित्य रूप से अध्यात्म(ज्ञान का अभ्यासी), विशेषरूप से काम से निवृत, सुख दुःख रूपी द्वन्द्वों के संग से मुक्त, ‘अमुढ़ा:’ अर्थात् ज्ञानी उस शाश्वत पद को जाते हैं | (१५/५)

मान रहित अर्थात् कर्ता भाव से मुक्त, मोह रहित अर्थात् अज्ञानजन्य तमस से मुक्त, आसक्ति रूप दोष का विजयी अर्थात् रजोगुण रूपी तृष्णा और कामनाओं से रहित तथा सतोगुण रूपी सुख में लगाने वाली ज्ञान की आसक्ति से भी मुक्त तथा प्रकाशवान सतोगुण से उत्पन्न ज्ञान से अध्यात्मविषयक ज्ञान का अभ्यासी और इस अभ्यास के द्वारा विशेष रूप से अर्थात् निःशेष रूप से जिसका काम निवृत हो गया है और सुख दुःख रूपी द्वन्द्वों से मुक्त अर्थात् वह धीर पुरुष जो अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता रखता है, ऐसे ब्रह्मविद्या, अध्यात्मविद्या और तत्त्वज्ञान के ज्ञानी योग आचरण द्वारा उस शाश्वत पद को जाते हैं, यहाँ ‘अव्ययम्’ से तात्पर्य अविनाशी तो है ही परन्तु यह अविनाशी पद शाश्वत भी है, सदा एक रस है, परिवर्तन से अतीत है | उस ‘उर्ध्वमूल’ शाश्वत पद पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः |
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम || (१५/६)

न तत् भासयते सूर्यः न शशाङ्कः न पावकः |
यत् गत्वा न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम || (१५/६)

(न), तत् (उसको), भासयते (प्रकशित करता है), सूर्यः (सूर्य), (न), शशाङ्कः (चन्द्रमा), (न), पावकः (अग्नि) | यत् (जहाँ),  गत्वा (गए हुए), (न), निवर्तन्ते (लोटते हैं), तत् (वह), धाम (धाम), परमम् (परम), मम (मेरा) | (१५/६)

उसको न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा, न अग्नि, जहाँ गये हुए नहीं लोटते हैं, वह मेरा परमधाम है | (१५/६)

वह शाश्वत पद जहाँ गये हुए नहीं लोटते, उस पद को न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और ना अग्नि ही, अभिप्राय यह कि वह अविनाशी पद उर्ध्वमुखी नहीं अपितु ‘उर्ध्व’ है, सर्वोपरी है और ‘अश्वत्थम्’ रूप इस संसार से, सृष्टि से, ब्रह्मभुवन पर्यन्त समस्त लोकों से परे है, वह मेरा परमधाम है |

अन्यथा जो मनुष्य उस शाश्वत पद को नहीं पाते, का अधम उत्तम योनियों में आवागमन लगा ही रहता है, इस मनुष्य लोक से काम्य कर्मों के अनुसार मनुष्य किस प्रकार विभिन्न योनियों में गमन करता है, उस पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति || (१५/७)

मम एव अंशः जीव लोके जीव भूतः सनातनः |
मनः षष्ठानि इन्द्रियाणि प्रकृति स्थानि कर्षति || (१५/७)

मम(मेरा), एव (ही), अंशः (अंश है), जीव (जीव), लोके (लोक में), जीव भूतः (जीवात्मा), सनातनः (सनातन) | मनः षष्ठानि (मनसहित पाँच), इन्द्रियाणि (इन्द्रियों से), प्रकृति (प्रकृति में), स्थानि (स्थित है), कर्षति (आकर्षित हुआ) | (१५/७)

जीवलोक अर्थात् देह में जीवभूत अर्थात् देही मेरा ही सनातन अंश है, प्रकृति की मनसहित पाँच इन्द्रियों से आकर्षित हुआ स्थित है | (१५/७)

इस देह में देही मेरा ही सनातन अंश है और प्रकृतिजन्य देह की, जिसे अध्याय तेरह में क्षेत्र कहा है, उस देह की मन सहित पाँच इन्द्रियों से आकर्षित हुआ स्थित है तात्पर्य यह कि मन और यह पाँच इन्द्रियाँ इस पुर में रहने वाले पुरुष की नहीं है अपितु पुर के ही द्वार रूप हैं, जहाँ से यह पुरुष मायाजनित संसार को देखता हुआ, माया द्वारा उपलब्ध भोगों को देखता है और भोगता है, इस कारण परमात्मा का यह सनातन अंश, यह देही इस देह की इन इन्द्रियों और से आकर्षित हुआ इनसे बन्ध जाता है और यह बन्धन जन्मजन्मान्तर तक किस प्रकार चलता रहता है, उसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते है | कि

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः |
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् || (१५/८)

शरीरम् यत् अवाप्नोति यत् च अपि उत्क्रामति ईश्वरः |
गृहित्वा एतानि संयाति वायुः गन्धान् इव आशयात् || (१५/८)

शरीरम् (शरीर को), यत् (जिस), अवाप्नोति (प्राप्त करता है), यत्(जिस), (और), अपि (भी), उत्क्रामति (त्याग करता है),
ईश्वरः (ईश्वर) | गृहित्वा (ग्रहण करके), एतानि (इनको), संयाति (जाता है), वायुः (वायु), गन्धान् (गन्ध को), इव (जैसे), आशयात् (गन्ध के स्थान से) | (१५/८)

जिस शरीर को प्राप्त करता है और त्याग भी करता है, ‘ईश्वरः’ अर्थात् उन शरीर का स्वामी इनको ग्रहण करके जाता है जैसे वायु गंध को गंध के स्थान से (ले जाती है) | (१५/८)

जिस प्रकार वायु अदृश्य रूप से गंध को गंध के स्थान से ले जाती है उसी प्रकार यह देही जिस देह का स्वामी होता है, ईश्वर होता है, उस देह का त्याग करता हुआ और जिस नवीन देह को प्राप्त करता है मन सहित पाँच इन्द्रियों को अपने साथ ले जाता है | यह देही ऐसा क्यों करता है ? इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च |
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते || (१५/९)

श्रोत्रम् चक्षुः स्पर्शनम् च रसनम् ध्रानम् एव च |
अधिष्ठाय मनः च अयम् विषयान् उपसेवते || (१५/९)

श्रोत्रम् (कान), चक्षुः (आँख), स्पर्शनम् (त्वचा), (और), रसनम् (जिव्हा), ध्रानम् (नासिका), एव (ही), (और) | अधिष्ठाय (आश्रय लेकर), मनः (मन), (और), अयम् (यह), विषयान् (विषयों), उपसेवते (सेवन करता है) | (१५/९)

यह मन, कान, आँख और त्वचा, जिव्हा और नासिका ही का आश्रय लेकर विषयों का सेवन करता है | (१५/९)

यह मनुष्य मन, कान, आँख, त्वचा, जिव्हा और नासिका का ही आश्रय लेकर विषयों का सेवन करता है, इस कारण मन और इन्द्रियों के इन विषय भोग के भावों को साथ लेकर ही मनुष्य गमन करता है, यहाँ मन और इन्द्रियों के स्थूल रूप को लेकर गमन की बात नहीं है, अपितु इस मन और इन्द्रियों से वह जिन भावों से भावित होकर, विषय भोगों में प्रवृत होता है, मन और इन्द्रियों के उन भावों का आश्रय लेकर गमन करता है, जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण अन्य संदर्भ में और अन्य शब्दों में पूर्व में भी कह आये हैं कि ‘अन्त में जिस जिस भाव का भी स्मरण करता हुआ यह देही देहरूपी आवरण का त्याग करता है | उस उस भाव को ही प्राप्त करता है, क्योंकी उस भाव से भावित रहा है | (८/६) और

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् |
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः || (१५/१०)
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् |
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः || (१५/११)

उत्क्रामन्तम् स्थितम् वा अपि भुञ्जानम् वा गुण अन्वितम् |
विमूढाः न अनुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञान चक्षुषः || (१५/१०)
यतन्तः योगिनः च एनम् पश्यन्ति आत्मनि अवस्थितम् |
यतन्तः अपि अकृत आत्मनः न एनम् पश्यन्ति अचेतसः || (१५/११)

उत्क्रामन्तम् (जाते हुए), स्थितम् (स्थित हुए), वा (अथवा), अपि (भी), भुञ्जानम् (भोग करते हुए), वा (अथवा), गुण(गुणों के),  अन्वितम् (अधीन हुए ) | विमूढाः (विमूढ़ जन), (न), अनुपश्यन्ति(देखते हैं), पश्यन्ति(देखते हैं), ज्ञानचक्षुषः(ज्ञानचक्षु प्राप्त हुए ज्ञानीजन ) | (१५/१०)
यतन्तः (यत्नशील), योगिनः (योगीजन), (और), एनम् (इसको), पश्यन्ति (देखते हैं), आत्मनि (स्वयं में), अवस्थितम् (स्थित हुए) | यतन्तः (यत्नपूर्वक), अपि (भी), अकृत (क्रियाहीन), आत्मनः (जीव), (नहीं), एनम् (इसको), पश्यन्ति (देखते हैं),  अचेतसः (अचेतस) | (१५/११)

गुणों के अधीन होकर जाते हुए अथवा स्थित हुए अथवा भोग करते हुए को भी अज्ञानीजन नहीं देखते, ज्ञानचक्षु प्राप्त ज्ञानीजन देखते हैं | (१५/१०)
स्वयं में स्थित और यत्नशील योगीजन इसको देखते हैं, ‘अकृत आत्मनः’ जो स्वयं में स्थित नहीं हैं, वे अचेतस प्रयत्नपूर्वक भी इसको नहीं देख पाते | (१५/११)

गुणों के अधीन अर्थात् पुरुष इन प्रकृतिजन्य गुणों से भावित रहता है, जीवात्मा को, देही को जाते हुए अर्थात् एक जीर्ण शीर्ण शरीर को त्याग कर दुसरे नवीन शरीर की प्राप्ति हेतु गमन करते हुए अथवा उस नवीन शरीर में स्थित हुए अथवा उस नवीन शरीर में पुनः उन्ही विषयभोगों में आसक्त हुए, स्वयं को नहीं देख पाता और ऐसे पुरुष को योगेश्वर श्रीकृष्ण अज्ञानीजन कहते हैं, तात्पर्य यह कि वो समस्त शास्त्रों और वेदों का ज्ञाता भले ही हो परन्तु जो स्वयं के आवागमन के कारण को नहीं जान पाया, वह अज्ञानी ही है | तब ज्ञानीजन कौन हैं ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञानचक्षु प्राप्त पुरुष अपने गमन को, आवागमन को, इसके कारण को देख पाते हैं, अर्थात् सांसारिक शास्त्रों के बौद्धिक ज्ञान से नहीं, इन देह चक्षुओं से नहीं अपितु ज्ञान चक्षु से, जो आत्मज्ञान से प्राप्त होते हैं, उन चक्षुओं से देखते हैं | जिस ज्ञान की प्राप्ति हेतु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘निःसंदेह इस लोक में इस ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला अन्य कुछ विद्यमान नहीं है, ‘तत्स्वयं’ उस ज्ञान को तू स्वयं ‘योग संसिद्धः कालेन’ जब योग सिद्ध होगा उस काल में ‘आत्मनि विन्दति’ स्वयं में ही पायेगा | (४/३८) उस ज्ञान से प्राप्त चक्षु ही ज्ञानचक्षु हैं और अपने इस वचन की पुष्टि करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि

स्वयं में स्थित और यत्नशील योगीजन इसको देखते हैं, स्वयं में स्थित अर्थात् जैसा हमने योगेश्वर श्रीकृष्ण के (४/३८) में कहे कथन पर अभी मनन किया उस प्रकार स्वयं में स्थित और यत्नशील अर्थात् जब योग सिद्ध उस काल में योगीजन इस जीवात्मा को, अपने स्वरूप को देखते हैं, उस आत्मज्ञान की प्राप्ति स्वरूप प्राप्त ज्ञानचक्षुओं से देखते हैं, परन्तु ‘अकृत आत्मनः’ जो स्वयं में स्थित होने को कृत्य नहीं करते, जो योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहे अनुसार समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह नहीं करते और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु उनके कहे अनुसार प्राणायाम परायण नहीं होते, वे अचेतस अर्थात् जिन्होंने स्वयं में ही स्थित इस ज्ञान को, प्रकृति के गुणों के अधीन होने के कारण नहीं पाया, ऐसे अचेतस, अज्ञानीजन प्रयत्नपूर्वक भी इसको नहीं देख पाते, प्रयत्नपूर्वक अर्थात् समस्त शास्त्रों के और वेदों के ज्ञाता भी इसको नहीं देख पाते, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ आदि पूजन से इस प्रकार विदित देखने को संभव हूँ | (११/५३) परन्तु अनन्य भक्ति द्वारा मैं ऐसा विदित करने को, जानने को, देखने को और तत्त्व से प्रवेश को संभव हूँ | (११/५४) अनन्य भक्ति अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण के प्रति दोषदृष्टि ना रखते हुए, उनके उपदेशों का अक्षरशः अनुसरण करना, समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु यज्ञार्थ कर्मों का आचरण |

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी पूर्व में कहा कि इस देह में यह देही, यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, यह देही, यह जीवात्मा, यह पुरुष इस प्रकृति के बंधन में कैसे है, किस कारण आवागमन को प्राप्त है और यह गमन कैसे करता है, इन तथ्यों पर प्रकाश डालने के पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण अगले चार श्लोकों में इस पुरुष को अपनी विभूतियों का विस्तार पुनः वर्णन करते हैं, क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार वे जो हो गये हैं, जिस परमपद को उन्होंने प्राप्त कर लिया है, वह परमपद, वह आदि पुरुष की पदवी, उस परमात्मा का स्वरूप ही, परमात्मा के सनातन अंश का, जीवात्मा का विशुद्ध रूप है | इस सनातन अंश को, अपने स्व स्वरूप को, परमधाम की प्राप्ति को, परमात्मा तत्त्व में विलय को, जो वस्तुतः उस पुरुष का भी संभावित रूप है, उस ज्ञान को कहते हैं |  

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् |
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नो तत्तेजो विद्धि मामकम् || (१५/१२)
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा |
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः || (१५/१३)

यत् आदित्य गतम् तेजः जगत् भासयते अखिलम् |
यत् चन्द्रमसि यत् च अग्नौ तत् तेजः विद्धि मामकम् || (१५/१२)
गाम् आविश्य च भूतानि धारयामि अहम् ओजसा |
पुष्णामि च ओषधिः सर्वाः सोमः भूत्वा रस आत्मकः || (१५/१३)

यत्(जो), आदित्य गतम्(सूर्य को प्राप्त), तेजः(तेज), जगत्(जगतको), भासयते(प्रकाशित करताहै), अखिलम्(सम्पूर्ण)| यत्
(जो), चन्द्रमसि(चन्द्रसे), यत्(जो), (और), अग्नौ(अग्निसे), तत्(वह), तेजः(तेज), विद्धि(जानो), मामकम्(मेरा)| (१५/१२)
गाम् (लोक में), आविश्य (प्रवेश करके), (और), भूतानि (प्राणियों को), धारयामि (धारण करता हूँ), अहम् (मैं), ओजसा (अपने तेज से) | पुष्णामि (पुष्पोंको), (और), ओषधिः (ओषधियोंको), सर्वाः (समस्त), सोमः (चन्द्र), भूत्वा (बनकर), रस
(रस), आत्मकः(मय) | (१५/१३)

सूर्य को प्राप्त जो तेज सम्पूर्ण जगत प्रकाशित करता है, जो चन्द्रमा और अग्नि से, वह तेज मेरा जान | (१५/१२)
और मैं अपने तेज से लोकों में प्रवेश करके समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ और चन्द्रमा बनकर पुष्पों और ओषधियों को रसमय बनाता हूँ | (१५/१३)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने श्लोक संख्या (१५/६) में कहा कि उसको न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा, न अग्नि, जहाँ गये हुए नहीं लोटते हैं, वह मेरा परमधाम है और यहाँ कहते हैं कि केवल इतना ही नहीं अपितु सूर्य को प्राप्त जो तेज सम्पूर्ण जगत प्रकाशित करता है, जो चन्द्रमा और अग्नि से जो तेज है, वह तेज मेरा जान तथा मैं अपने तेज से लोकों में प्रवेश करके समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ और चन्द्रमा बनकर पुष्पों और ओषधियों को रसमय बनाता हूँ | तात्पर्य यह कि हे मनुष्य तू मेरा ही अंश है परन्तु प्रकृतिजन्य भावों से भावित होकर अपने स्वरूप को विस्मरण कर बैठा है, अपने स्वरूप को पहचान, यह सूर्य और चन्द्रमा तुझे नहीं अपितु तेरे आश्रय को, इस क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं |

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः |
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् || (१५/१४)

अहम् वैश्वानरः भूत्वा प्राणिनाम् देहम् आश्रितः |
प्राण अपान समायुक्तः पचामि अन्नम् चतुः विधम् || (१५/१४)

अहम् (मैं), वैश्वानरः (वैश्वानर अग्नि), भूत्वा (होकर), प्राणिनाम् (प्राणियों की ), देहम् (देह में), आश्रितः (स्थित हुआ) | प्राण अपान (प्राण अपानवायु ), समायुक्तः (भलीभाँति युक्त होकर), पचामि (पचता हूँ), अन्नम् (अन्न को), चतुः (चार), विधम् (विधियों से) | (१५/१४)

मैं प्राणियों की देह में वैश्वानर अग्नि होकर स्थित हुआ, प्राण अपानवायु से युक्त होकर, चार विधियों से अन्न को पचाता हूँ | (१५/१४)

योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस व्यक्तव्य के दो अर्थ हो सकते हैं, एक जो लगभग सभी व्याख्याकार करते हैं कि प्राणियों के शरीर में परमात्मा ही वैश्वानर अग्नि अर्थात् जठराग्नि के रूप में स्थित होकर, प्राण अपानवायु से युक्त होकर चार विधियों से अन्न को पचाते हैं, चार विधियाँ अर्थात् पहला भोज्य (जो अन्न चबा कर खाया जाता है जैसे रोटी), दूसरा पेय (जो अन्न पिया जाता है जैसे दूध, रस) तीसरा चोष्य (जो अन्न चूसा जाता है जैसे गन्ना, आम) और चोथा लेह्य (जो अन्न चाटा जाता है जैसे शहद) | इन चारों प्रकार के अन्न को परमात्मा ही जठराग्नि रूप से पचाते हैं | परन्तु गीता शास्त्र निवृति विषयक शास्त्र है, जहाँ प्रवृति विषयक तथ्यों का उल्लेख योगेश्वर श्रीकृष्ण ने किया हो, ऐसा पचता नहीं |

इस श्लोक का निवृति विषयक अर्थ यह हो सकता है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘यज्ञानाम् जप यज्ञः अस्मि’ (१०/२५) यज्ञों में नामजप यज्ञ मैं हूँ और योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित यज्ञार्थ कर्मों में प्राणायाम परायण होने के लिये श्वास प्रश्वास के साथ नामजप का ही विधान है और यह नामजप यज्ञ भी चार प्रकार से किया जाता है | पहला बैखरी (यह नामजप यज्ञ प्रवेशिका श्रेणी के साधक द्वारा किया जाता है, इसमें साधक ‘नाम’ का शास्त्रोक्त उच्चारण इस प्रकार करता है कि वह सब को सुनाई देता है), दूसरा मध्यमा (इसमें नामजप का उच्चारण इस प्रकार किया जाता है कि साधक ही सुनता है), तीसरा पश्यन्ति (इसमें वाणी द्वारा नहीं अपितु श्वास प्रश्वास के साथ अन्तःकरण में नामजप किया जाता है, जैसे श्वास आई तो ‘ॐ नमः शिवाय’ का ध्यान किया और प्रश्वास हुई तो  ‘ॐ नमः शिवाय’ का ध्यान किया, यहाँ नामजप किया नहीं जाता अपितु देखा जाता है, इसलिये इसे पश्यन्ति कहते हैं) और चौथा पराजप (यह उन्नत अवस्था के साधक का नामजप यज्ञ है, इसमें साधक कुछ भी नहीं करता, परन्तु श्वास प्रश्वास के साथ नामजप यज्ञ स्वतः चलता रहता है, यह परं जप है, पराजप है) | इस प्रकार इस श्लोक का अर्थ हुआ कि इस प्रकार प्राणियों के शरीर में वैश्वानर अग्नि अर्थात् नामजप यज्ञ अग्नि रूप से स्थित होकर, प्राण अपानवायु से युक्त होकर चार विधियों से अन्न को मैं पचाता हूँ और योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ‘अन्नात् भवन्ति भूतानि’ (३/१४) क्योंकी प्राणी अन्न से तो उत्पन्न होते नहीं, और परमात्मा यहाँ कहते हैं कि समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न अर्थात् परमात्मा और पहले जो भोज्य पदार्थो से अर्थ लिया गया है वह देह के लिये होता है, उसको योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ‘अन्न’ की नहीं अपितु ‘आहार’ की संज्ञा दी है, देखिये सत्रहवें अध्याय में श्लोक संख्या (१७/७,८,९,१०) अतः मेरा अपना अनुभव यही है कि इस श्लोक का दूसरा अर्थ ही सही है |       

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || (१५/१५)

सर्वस्य च अहम् हृदि सन्निविष्टः मत्तः स्मृतिः ज्ञानम् अपोहनम् च |
वेदैः च सर्वैः अहम् एव वेद्यः वेदान्त कृत् वेद वित् एव च अहम् || (१५/१५)

सर्वस्य (सभी के), (और), अहम् (मैं), हृदि (हृदय में), सन्निविष्टः (स्थित हूँ), मत्तः (मुझसे), स्मृतिः (स्मृति), ज्ञानम् (ज्ञान),  अपोहनम् (अपोहन होता है), (और) | वेदैः (वेदों द्वारा), (और), सर्वैः (सभी), अहम् (मैं), एव (ही), वेद्यः (जानने योग्य हूँ), वेदान्त (वेदांत), कृत् (कृत्य), वेद वित् (जानने योग्य), एव (ही), (और), अहम् (मैं) | (१५/१५)

मैं सभी के हृदय में स्थित हूँ, मुझसे स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है और सभी वेदों द्वारा जाननेयोग्य मैं ही हूँ, मैं ही ‘वेदान्त कृत्य’ और ‘वेद वित्’ हूँ | (१५/१५) 

मैं सभी के हृदय में स्थित हूँ और मुझसे स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है | एक स्मृति, ज्ञान और अपोहन बुद्धि के द्वारा भी होता है, जिसे बौद्धिक ज्ञान, उस ज्ञान की स्मृति और उस ज्ञान से संशयों का नाश अर्थात् अपोहन भी होता है, परन्तु यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण का पहले यह कहना कि मैं सभी के हृदयदेश में स्थित हूँ तात्पर्य यह कि यह बौद्धिक नहीं अपितु हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पण से प्राप्त स्मृति अर्थात् अपने स्वरूप की स्मृति तथा बौद्धिक ज्ञान नहीं अपितु हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पण से प्राप्त आत्मज्ञान और अपोहन अर्थात् स्व स्वरूप और आत्मज्ञान की प्राप्ति से ही समस्त शंकाओं का, संशयों का नाश होता है | सभी वेदों द्वारा अर्थात् समस्त जानने योग्य तथ्यों में से जानने योग्य मैं ही हूँ, मैं ही वेदवित् अर्थात् वेदों का जाननेवाला हूँ, और योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार वेद केवल प्रकृतिजन्य तीन गुणों तक ही प्रकाश डालते हैं, इस कारण ही योगेश्वर ने अर्जुन को गीता शास्त्र का मूलमंत्र रूपी उपदेश कहा है कि ‘त्रैगुण्य विषयाः वेदाः निस्त्रै गुण्यः भव अर्जुन’ (२/४५) इसलिये वेदों के कार्यक्षेत्र का उलंघ्न करके, ‘वेदान्त कृत्’ अर्थात् त्रैगुन्य विषया वेदों के कार्यक्षेत्र का जिससे अन्त होता है, वह मैं ही हूँ, तात्पर्य यह कि मेरे कारण ही मनुष्य प्रकृतिजन्य भावों से पार पाता है | वेदों के कार्यक्षेत्र में प्रवृत और वेदों के कार्यक्षेत्र से अन्यत्र जो पुरुष होते हैं, उनके भेद को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते है | कि        

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च |
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते || (१५/१६)

द्वौः इमौ पुरुषौ लोके क्षरः च अक्षरः एव च |
क्षरः सर्वाणि भूतानि कुथस्थः अक्षरः उच्यते || (१५/१६)

द्वौः(दो प्रकारके), इमौ(यह), पुरुषौ(पुरुष), लोके(लोक में), क्षरः(नाशवान), (और), अक्षरः(अविनाशी), एव(ही), (और)| क्षरः(नाशवान), सर्वाणि(समस्त), भूतानि(प्राणी हैं), कुथस्थः(कूटस्थ), अक्षरः(अविनाशी), उच्यते(कहा जाताहै) |(१५/१६)

लोक में क्षर और अक्षर दो प्रकार के ही पुरुष हैं, समस्त ‘भुत’ क्षर और ‘कूटस्थ’ अविनाशी कहे जाते हैं | (१५/१६)

लोक में, जिसे तेरहवें अध्याय में क्षेत्र कहा है, उसमे क्षर और अक्षर दो प्रकार के ही पुरुष होते हैं, समस्त भुत क्षर अर्थात् जिसे विकारोंवाला और प्रभाववाला कह कर स्पष्ट किया है, जो ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ भाव की, कर्ताभाव की  उत्पत्ति करता है, वह तो क्षर पुरुष है, इसे ही देह, शरीर, पुर, अधिभूत आदि संज्ञाओं से भी कहा गया है और ‘कूटस्थ’ यहाँ ‘कूट’ नाम माया का है, तात्पर्य यह कि जो माया के गुणों से भावित होकर इस क्षेत्र में स्थित है, कूटस्थ है, जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इसी अध्याय के सातवें श्लोक में कहा है कि ‘मम एव अंशः जीव लोके जीव भूतः सनातनः’ वह परमात्मा का सनातन अंश प्रकृतिजन्य भावों से भावित होकर इस क्षेत्र से तादाम्य करके इस क्षेत्र के विकारों और प्रभावों को ही अपना मान लेता है, इस क्षेत्र में कर्ताभाव से रहता है, उसे योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ ‘कुथस्थः अक्षरः उच्यते’ कूटस्थ और अक्षर पुरुष कहने से तात्पर्य यह है कि यह माया से, क्षेत्र से तादाम्य के कारण यह कूटस्थ रूप से स्थित है परन्तु परमात्मा के सनातन अंश के रूप में यह अक्षर रूप से, अविनाशी रूप से स्थित है, इसको ही जीवात्मा, देही, शरीरी, अक्षर पुरुष, अधिदैव आदि संज्ञाओं से भी कहा गया है | यह स्थिति प्रवृति विषयक धर्म के कारण होती है परन्तु जो योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ‘वेदान्त कृत्’ धर्मं का आचरण करते हैं, प्रकृतिजन्य भावों से अतीत होकर आचरण करते हैं, उनके प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं | कि  

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः |
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः || (१५/१७)

उत्तमः पुरुषः तु अन्यः परमात्मा इति उदाहृतः |
यः लोक त्रयम् आविश्य बिभर्ति अव्ययः ईश्वरः || (१५/१७)

उत्तमः (उत्तम), पुरुषः (पुरुष), तु (परन्तु), अन्यः (अन्य है), परमात्मा (परमात्मा), इति (ऐसा), उदाहृतः (कहा जाता है) | यः (जो), लोक (लोक), त्रयम् (तीनों), आविश्य (प्रवेश करके), बिभर्ति (सबका पालनहार है), अव्ययः (अविनाशी), ईश्वरः (ईश्वर) | (१५/१७)

परन्तु उत्तम अन्य है, जो अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका पालनहार है, उसे ‘परमात्मा’ ऐसा कहा जाता है | (१५/१७)

परन्तु उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो अविनाशी अर्थात् अक्षर पुरुष की भांति अविनाशी होते हुए केवल क्षेत्र से ही नहीं बँधा रहता, केवल क्षेत्र का ही ईश्वर अर्थात् स्वामी नहीं होता अपितु वह तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका पालनहार है, तीनों लोकों में अर्थात् आपके पूर्व जन्म में, इस जन्म में और भविष्य में भी आपका पालनहार वह अन्य उत्तम पुरुष ही है, तात्पर्य यह की वह उत्तम पुरुष समस्त प्राणियों के गमन का ज्ञाता है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ज्ञानचक्षुओं वाले ही उसको क्षेत्र को त्यागते, उसमें स्थित अथवा उस क्षेत्र में भोग करते हुए देख सकते हैं, वह अन्य उत्तम पुरुष ऐसा है जो समस्त प्राणियों को इस प्रकार देखता है और उसे ‘परमात्मा’ ऐसा कहा जाता है |  

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः |
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः || (१५/१८)

यस्मात् क्षरम् अतीतः अहम् अक्षरात् अपि च उत्तमः |
अतः अस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः || (१५/१८)

यस्मात् (जिस कारण से), क्षरम् (नाशवान देह से), अतीतः (अतीत हूँ), अहम् (मैं), अक्षरात् (नाशरहित देही से), अपि (भी), (और), उत्तमः (उत्तम हूँ) | अतः (इस कारण), अस्मि (हूँ), लोके (लोक में), वेदे (वेदों में), (और), प्रथितः (विख्यात), पुरुषोत्तमः (पुरुषोत्तम रूप में) | (१५/१८)

क्योंकी मैं क्षर और अक्षर पुरुष से भी अतीत और उत्तम हूँ इसलिये लोकों में और वेदों में मैं पुरुषोत्तम रूप में विख्यात हूँ | (१५/१८)

क्योंकी वह अन्य उत्तम पुरुष ना तो क्षर पुरुष है और ना ही अक्षर पुरुष की भाँति कूटस्थ ही है, वह तो इनसे अतीत और उत्तम है, इसलिये लोकों में अर्थात् ब्रह्मभुवन पर्यन्त समस्त लोकों में और वेदों में, समस्त शास्त्रों में ‘पुरुषोत्तम’ रूप से विख्यात है | यहाँ ध्यान देने योग्य है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण परमात्मा को पुरुषोत्तम कहकर और पुरुष को भी अविनाशी परन्तु कूटस्थ कहकर, समस्त प्राणियों को यह सन्देश देना चाहते हैं कि मैं जो हो गया हूँ, वह आपकी भविष्यता है, आप भी पुरुषोत्तम हो सकते हैं, केवल अपने कूटस्थ रूप का त्याग करें | 

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् |
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत || (१५/१९)

यः माम् एवम् असम्मूढः जानाति पुरुषोत्तमम् |
सः सर्व वित् भजति माम् सर्व भावेन भारत || (१५/१९)

यः (जो), माम् (मुझको), एवम् (इस प्रकार), असम्मूढः (असम्मुढ़ता से), जानाति (जानता है), पुरुषोत्तमम् (पुरुषोत्तम होने के भाव को) | सः (वह), सर्व (सब), वित् (जाननेवाला), भजति (भजता है), माम् (मुझको), सर्व (समस्त), भावेन (भावों से भावित होकर) भारत (भारत) | (१५/१९)

भारत ! इस प्रकार जो ‘असम्मुढता’ से मेरे पुरुषोत्तम होने के भाव को जानता है, वह सब कुछ जाननेवाला, समस्त भावों से मुझको भजता है | (१५/१९)

जो ‘असम्मुढता’ से अर्थात् मायाजनित कार्यकरणकर्तृत्वे भाव से उत्पन्न कर्ताभाव से रहित होकर मेरे पुरुषोत्तम होने के भाव को जानता है कि मैं कर्ताभाव से रहित, कूटस्थ भाव से रहित होकर स्थित हूँ, वह सब कुछ जाननेवाला है और समस्त भावों से मुझको भजता है अर्थात् वह प्रकाश, प्रवृति और मोह के ही प्रवृत होने से न द्वेष करता है, न निवृति की आकांक्षा करता है | (१४/२२) जो उदासीनवत गुणों द्वारा विचलित नहीं होता, गुण ही बरत रहे हैं, ऐसा जो अविचल भाव से स्थित रहता है, चलायमान नहीं होता | (१४/२३) इसलिये जब तक उसका क्षेत्र से संबंध है, तब तक क्षेत्र के भाव कैसे भी हों, वह क्षेत्र के भावों से भावातीत हुआ मुझको भजता है, समस्त भावों से मुझको भजता है | 

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ |
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत || (१५/२०)

इति गुह्यतमम् शास्त्रम् इदम् उक्तम् मया अनद्य |
एतत् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृत कृत्यः च भारत || (१५/२०)

इति (इस प्रकार), गुह्यतमम् (रहस्यमयी गोपनीय), शास्त्रम् (शास्त्र), इदम् (यह), उक्तम् (कहा गया), मया (मेरे द्वारा), अनद्य (निष्पाप) | एतत् (इसको), बुद्ध्वा (बुद्ध्वा), बुद्धिमान् (बुद्धिमान), स्यात् (होते हैं), कृत कृत्यः (कृतार्थ), (और) भारत (भारत) | (१५/२०)

निष्पाप अर्जुन ! इस प्रकार यह रहस्यमयी गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया | भारत ! इसको तत्त्व से जानकार (पुरुष) बुद्धिमान और कृतार्थ हो जाता है | (१५/२०)

इस प्रकार यह रहस्यमय गोपनीय शास्त्र योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया, जिसको तत्त्व से जानकार पुरुष बुद्धिमान अर्थात् उस बुद्धि से युक्त हो जाता है, जो कर्मबन्धन के नाश में हेतु है और कृतार्थ हो जाता है अर्थात् करने योग्य कृत्यों का ज्ञाता हो जाता है |

इस प्रकार पंद्रहवें अध्याय का समापन होता है |

***** ॐ तत् सत् *****