** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
षोडशोऽध्यायः
योगेश्वर श्रीकृष्ण तेरहवें अध्याय से
अर्जुन को सांख्यदृष्टि के अनुसार मनुष्य के संसार बंधन के कारणों पर प्रकाश डालते
हुए, उस बंधन से मुक्ति के उपाय हेतु, मनुष्य के उत्थान हेतु ही गीत गा रहे हैं,
गीता कह रहे हैं | अध्याय तेरह में सर्वप्रथम योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस तथ्य पर
प्रकाश डाला कि प्रकृतिजन्य यह देह भी प्रकृति ही है, जिस प्रकार पंच महाभूतों का
एक नियमित विस्तार, जिसमें अच्छा बुरा बोया हुआ समय पर फलित होता है, क्षेत्र कहलाता
है, योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसी प्रकार यह शरीर भी एक क्षेत्र है | (१३/१)
अर्थात् अर्जुन तुम यह देह नहीं हो, यह देह जो प्रकृति स्वरूप है परन्तु यह देह केवल
पंचमहाभूतों का संधात नहीं है अपितु यह अष्टधामूल प्रकृति का संधात है, तात्पर्य
यह कि पंचमहाभूतों से रचित जड़ प्रकृति से भिन्न इस देह रूपी क्षेत्र में मन,
बुद्धि और अहंकार का भी समावेश है और ये भी प्रकृति के ही तत्त्व हैं, इस प्रकार
देहरूपी यह क्षेत्र पाँच नहीं अपितु आठ प्राकृतिक तत्त्वों का, अष्टधामुल प्रकृति
का संधात है | इस क्षेत्र के बंधन से ही मनुष्य सुख दुःख रूपी द्वन्द्वों को भोगता
है, ऐसा यह क्षेत्र विकारोंवाला है, प्रभाववाला है | मनुष्य के इस क्षेत्र से बंधन
पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह क्षेत्र
‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ भाव को उत्पन्न करने में सक्षम है, मनुष्यों में ‘कर्ताभाव’
को उत्पन्न करने में सक्षम है और जो मनुष्य इस क्षेत्र के ‘कर्ताभाव’ से भावित हो
जाता है, वह इस क्षेत्र के बंधन से बन्ध जाता है |
यह क्षेत्र किस प्रकार मनुष्यों को
कर्ताभाव से भावित करता है, उस पर प्रकाश डालते हुए चौदहवें अध्याय में योगेश्वर
श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रकृति से संभव, प्रकृति से उत्पन्न यह सत्त्व, रज और
तमोगुण देह से इस अविनाशी देही को बाँधते हैं | (१४/५) तात्पर्य यह कि इस क्षेत्र
से मनुष्य प्रकृतिजन्य इन सत, रज और तम भावों से उत्पन्न भावों के कारण ही बँधता
है और यह भाव किस प्रकार मनुष्य को बाँधते है, उस तथ्य पर भी योगेश्वर श्रीकृष्ण
प्रकाश डालते हैं और यह भी स्पष्ट करते हैं कि इन बंधनकारी भावों के प्रति उदासीन
पुरुष भावातीत, गुणातीत हो जाता है |
पंद्रहवें अध्याय में पुनः एक बार
प्रवृति विषयक धर्म के आधार स्तंभ ‘वेदों’ के कार्यक्षेत्र पर प्रकाश डालते हुए
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वेदों के कारण ‘प्रसृताः’ और ‘अनुसन्ततानि’ को प्राप्त इस दृढ़
मूलवाले ‘अश्वत्थं’ को असंगरुपी शस्त्र से दृढ़तापूर्वक काटकर | (१५/३) तत्पश्चात् उस पद को भलीभाँति खोजना चाहिये,
जिसमें गये हुए फिर नहीं लोटते हैं और उस ही आदि पुरुष की शरण हो, जिससे पुरातन
प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है | (१५/४) अर्थात् गीता शास्त्र के मुलमंत्र को
एक बार पुनःकहते हैं कि ‘त्रैगुण्य विषयाः वेदाः निस्त्रै गुण्यः
भव अर्जुन, निर्द्वन्द् नित्य सत्त्व
स्थः निर्योगक्षेमः आत्मवान्’ (२/४५) अर्थात् वेद तीन गुणों के कार्य का ही वर्णन करते है | अर्जुन
! तीनों गुणों से रहित हो जा, निर्द्वन्द, नित्यसत्त्वस्थित, निर्योगक्षेम और
आत्मपरायण हो | (२/४५) तथा परमात्मा को पुरुषोत्तम की संज्ञा से संबोधित करते हुए
यह सन्देश भी दे देते हैं कि मैं जो परमात्मा स्वरूप हो गया हूँ, हे ! पुरुष
स्वरूप तो तुम्हारा भी यही है, परन्तु जो मान और मोह रहित, आसक्तिरूप दोष का
विजयी, नित्य रूप से अध्यात्म विषयक ज्ञान का अभ्यासी, विशेषरूप से काम से निवृत,
सुख दुःख रूपी द्वन्द्वों के संग से मुक्त, ‘अमुढ़ा:’ अर्थात् ज्ञानी उस शाश्वत पद
को जाते हैं | (१५/५)
परन्तु जब तक मनुष्य का इस क्षेत्र से
बंधन है, तब तक यह क्षेत्र मनुष्य को अपने भावों से भावित करता ही रहेगा और इस देह
से अन्यत्र कोई उपाय भी नहीं है, जो मुक्ति का साधन हो | सांख्य दृष्टि से देह
बंधन से मुक्ति के उपाय को कहते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि इस
क्षेत्र के ही कुछ भाव मोक्षपरायण साधक की साधना में हेतु हैं, मुक्ति में हेतु
हैं और कुछ बंधन में हेतु हैं, अतः मनुष्य को इस क्षेत्र के वे भाव जो मुक्ति में हेतु
हैं, उनको उन्नत करना चाहिये | यह तो हुआ योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अब तक
सांख्यदृष्टि से कहे उपदेशों पर मनन, आइये अब जानने का प्रयास करते हैं कि
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने किन भावों से भावित होकर जीवन निर्वाह का उपदेश अर्जुन को
दिया और किन भावों को बंधनकारी कहा है | यहाँ ध्यान देने योग्य है कि मनुष्य के
उत्थान को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम कृष्णयोग के साधक को देवताओं के पूजन
का, देवतओं को उन्नत करने का उपदेश दिया था | देवतओं का वह पूजन क्या है ? देवतओं
को किस प्रकार उन्नत किया जाता है ? आइये जानें |
श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः |
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ||
(१६/१)
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् |
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ||
(१६/२)
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता |
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत || (१६/३)
अभयम्
सत्त्व संशुद्धिः ज्ञान योग व्यवस्थितिः |
दानम्
दमः च यज्ञः च स्वाध्यायः तपः आर्जवम् || (१६/१)
अहिंसा
सत्यम् अक्रोधः त्यागः शान्तिः अपैशुनम् |
दया
भूतेषु अलोलुप्त्वम् मार्दवम् ह्रीः अचापलम् || (१६/२)
तेजः
क्षमा धृतिः शौचम् अद्रोहः न अति मानिता |
भवन्ति
सम्पदम् दैवीम् अभिजातस्य भारत || (१६/३)
अभयम्
(अभय), सत्त्व
संशुद्धिः (स्व स्वरूप की शुद्धि), ज्ञान
(ज्ञान), योग
(योग), व्यवस्थितिः
(दृढ़ स्थिति) |
दानम् (दान), दमः (दम),
च (और), यज्ञः
(यज्ञ), च
(और), स्वाध्यायः
(स्वाध्याय), तपः
(तप), आर्जवम्
(सरलता) |
(१६/१)
अहिंसा(अहिंसा), सत्यम्(सत्य), अक्रोधः(अक्रोध), त्यागः(त्याग), शान्तिः(शांति), अपैशुनम्(दुसरों की निन्दा न
करना) |
दया भूतेषु (प्राणियों के प्रति दयाभाव), अलोलुप्त्वम्
(लोभ मुक्त), मार्दवम्(भद्रता), ह्रीः(लज्जा), अचापलम्(अचलभाव) |
(१६/२)
तेजः
(तेज), क्षमा
(क्षमाभाव), धृतिः
(धैर्य), शौचम्
(पवित्रता), अद्रोहः
(द्रोह भाव से मुक्त), न
अति मानिता (अपने में श्रेष्ठ भाव का अभाव) |
भवन्ति (होती हैं), सम्पदम्
(संपदा), दैवीम्
(दैवी), अभिजातस्य
(उत्पन्न), भारत
(भारत) |
(१६/३)
अभय,
स्व स्वरूप की शुद्धि, ज्ञान, योग में दृढ़ स्थिति, दान और दम, यज्ञ और स्वाध्याय,
तप, सरलता | (१६/१)
अहिंसा,
सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, दूसरों की निन्दा न करना, प्राणियों के प्रति दया
भाव, लोभ से मुक्त, भद्रता, लज्जा, अचलभाव | (१६/२)
भारत
! तेज, क्षमाभाव, धैर्य, पवित्रता, द्रोहभाव से मुक्त, अपने में श्रेष्ठभाव के
अभाव से दैवी संपदा उत्पन्न होती है | (१६/३)
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यहाँ कुल छब्बीस प्रकृतिजन्य
भावों का वर्णन किया है, इसमें से कुछ का होना अर्थात् उन भावों का आचरण और कुछ
भावों के अभाव का अर्थात् उनके प्रति उदासीनवत व्यवहार से दैवी संपदा उत्पन्न और
उन्नत होती है, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ऐसा आचरण, जिससे दैवी संपदा उन्नत
होती है, देवताओं का पूजन है, देवताओं को उन्नत करना है, हृदयदेश में उन्नत यह
देवता ही हृदयस्थ ईष्ट के दिशा निर्देश अनुसार वे दिव्य कर्म करते हैं, जिसके लिये
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च
दुष्कृताम्’, (४/८), तात्पर्य यह कि यह
दैवी संपदा ही साधु पुरूषों का उद्धार करती है और दुष्कृत्य करने वालों का नाश
करती है, काम क्रोध, लोभ का नाश करती है | मनुष्य को दुष्कृत्यों में लगाने वाले,
माया के पाश से पशुवत बाँधनेवाले, आवागमन में हेतु उन प्रकृतिजन्य भावों को
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अगले श्लोक में आसुरी संपदा कहकर संबोधित किया है | हृदयदेश
में उन्नत यह दैवी संपदा ही आसुरी संपदा का नाश करती है और अन्त में यह दैवी
सम्पदा भी उस परमतत्त्व परमात्मा में ही विलीन हो जाती है और मनुष्य भावातीत, गुणातीत
हो जाता है, पुरूषोत्तम हो जाता है | आइये अब योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे गये,
प्रकृतिजन्य भावों पर मनन करते हैं |
‘अभय’ भय भाव के अभाव को अभय कहते हैं, परन्तु
यह भय क्या है ? सांसारिक पुरूषों का अपनी देह, देह के संबंधो और विषय भोगों हेतु
संग्रहित पदार्थों को लेकर, मोह के कारण उनकी सुरक्षा का एक भाव होता है, परन्तु
यह सब नाशवान है, इस कारण मोहजनित यह भाव उनकी सुरक्षा के प्रति जिस भाव को
उत्पन्न करता है, वह भय भाव है | इस भाव का अभाव ही अभय है, जिसके लिये योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने योगपरायण साधकों हेतु अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा है कि ‘निर्योगक्षेम भव अर्जुन’ (२/४५) तथा
‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (९/२२) |
‘सत्त्वसंशुद्धि’ दुसरे अध्याय में
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने देह देही के भेद को स्पष्ट करने के लिये पहले सत और असत को
परिभाषित किया और फिर कहा कि यह देह असत है और देही ही सत्त्व तत्त्व है | (देखिये
२/१६,१७,१८) गीता शास्त्र में सत्य और सत्त्व दो भिन्न और विलक्षण तत्त्व हैं, भाष्य
सत्य अथवा असत्य होता है और देही सत्त्व तत्त्व है, परन्तु यह देही तत्त्व
प्रकृतिजन्य भावों से लिप्त होकर अपने स्वरूप को विस्मृत कर देता है और असत तत्त्व
अर्थात् इस क्षेत्र से तादाम्य कर लेता है | इस सत्त्व तत्त्व की शुद्धि को, अपने
स्वरूप की स्मृति को किये गया समस्त प्रयास, यज्ञार्थ कर्मों का आचरण, स्वरूप
प्राप्ति हेतु अन्तःकरण की शुद्धता को ‘सत्त्वसंशुद्धि’ कहते हैं |
‘ज्ञानयोगव्यवस्थितिः’ योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा
तेरहवें अध्याय में सांख्यदृष्टि से कहे ‘अमानित्वं’ आदि नौ लक्षणों द्वारा
अध्यात्म ज्ञान में नित्य अपनी स्थिति बनाये रखना और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप
सर्वत्र परमात्मा के दर्शन हेतु योग का आचरण करना ‘ज्ञानयोगव्यवस्थितिः’ भाव है |
‘दानम्’ योगपरायण साधक का देश, काल और उचित पात्र
को पाकर, अपकार भाव से रहित होकर, आवश्यकता से अधिक प्राप्य जीवन निर्वाह के
साधनों का अर्पण दान कहलाता है, इससे स्पृहा प्रवृति का भी नाश होता है और यह
साधना में और दैवी संपदा को उन्नत करने में सहायक है |
‘दम’ प्रकृतिजन्य ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ अर्थात्
मनुष्य में कर्ताभाव की उत्पत्ति में तेरह करण निमित्त कहे जाते हैं, इनमें दस
बाह्य करण हैं और तीन अन्तःकरण | इसमें दस बाह्य करण अर्थात् पाँच इन्द्रियों और
पाँच कर्मेन्द्रियों का युक्तियुक्त वश में करना ‘दम’ कहलाता है |
‘यज्ञ’ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘यज्ञ
के निमित्त कर्मों से अन्यत्र समस्त कर्म इस लोक का बंधन है, कौन्तेय ! उस यज्ञ के
लिये कर्मों का, आसक्तिरहित होकर, भलीभाँति आचरण कर | (३/९) योगेश्वर श्रीकृष्ण
द्वारा उपदेशित यह यज्ञार्थ कर्म ही विशुद्ध ‘यज्ञ’ है, ना कि आसक्तिपूर्ण देवयज्ञ
अथवा अन्य कर्मकाण्ड इत्यादि |
‘स्वाध्याय’ परमार्थ मार्ग के साधक का स्व स्वरूप की
प्राप्ति हेतु अध्यात्मविद्या और तत्त्वज्ञान का, गुरु के उपदेशों का चिन्तन मनन
करना और उसके अनुसार परमार्थ मार्ग में अपनी स्थिति का आंकलन करना, अपने को
परमार्थ मार्ग से च्युत ना होने देना स्वाध्याय कहलाता है |
‘तप’ मन सहित समस्त इन्द्रियों और वाणी तथा
शरीर को हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पण हेतु युक्तियुक्त ढालना, जिससे काम्य कर्मों
का त्याग हो सके और यज्ञार्थ कर्मों का आचरण हो सके, ‘तप’ कहलाता है |
‘आर्जवम्’ परमार्थ मार्ग के साधक का मन, कर्म और
वचन से सरल, सहज भाव से जीवन निर्वाह करना, अमानित्वं और अदम्भित्वं भाव से भावित
रहना ‘आर्जवम्’ कहलाता है |
‘अहिंसा’ परस्पर भावों में, अन्य मनुष्यों के
संबंध में मन, कर्म और वचन से दूसरों को व्यथित ना करना और ना ही दूसरों के
व्यवहार से स्वयं उद्वेग को प्राप्त होना बाह्य अहिंसा है तथा काम और भोगों में
आसक्त होकर स्वयं को अधोगति में ना डालना स्वयं के प्रति आंतरिक अहिंसा है, दोनों
का पालन अहिंसा है |
‘सत्य’ तीनों कालों में जिस यथार्थ भाष्य का
अभाव नहीं होता, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता, वह सत्य है |
‘अक्रोध’ विषय भोगों की तृष्णा और आसक्ति का नाम
काम है और काम की पूर्ति ना होने पर जो भाव उत्पन्न होता है, उसका नाम ‘क्रोध’ है,
इस भाव का अभाव ‘अक्रोध’ है, इससे काम, तृष्णा और आसक्ति का नाश होता है, इसलिये
यह भी दैवी संपदा है |
‘त्याग’ योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार परमार्थ
मार्ग के साधकों के लिये यज्ञ, दान और तप त्यागने योग्य नहीं हैं, इन्हें तो करना
ही चाहिये तथा जीवन निर्वाह को किये गये कर्मों को भी आसक्ति और कर्मफल की कामना
से रहित होकर करना चाहिये | ऐसा आचरण ही त्याग है |
‘शान्ति’ जिस प्रकार ‘दम’ द्वारा बाह्य करणों का
युक्तियुक्त निग्रह किया जाता है, उसी प्रकार बाह्य जगत के विषयों और व्यक्तियों
के व्यवहार से युक्तियुक्त व्यथित ना होना, व्याकुल ना होना, अन्तःकरण में उद्वेग
का उत्पन्न ना होना, अन्तःकरण का शांति भाव है, इस भाव से भावित साधक ही यज्ञार्थ
कर्मों का यथार्थ आचरण कर पाता है, इसलिये शान्ति भाव भी दैविक संपदा है |
‘अपैशुनं’ किसी के सामने अन्य पुरूषों के छिद्रों
को प्रकट करना पिशुनता अर्थात् चुगली करना कहलाता है, इस भाव का अभाव अपिशुनता
कहलाता है, साधक को इस भाव से सदैव भावित रहना चाहिये |
‘भूतेषु दया’ समस्त प्राणियों के प्रति आसक्तिरहित, स्वार्थरहित,
हेतुरहित, प्रिय अप्रिय से रहित भाव तथा ‘वासुदेवः सर्वम्’ भाव से जो व्यवहार किया
जाता है, वह भूतेषु दया भाव है, दीन दुःखियों के प्रति करुणा भाव
आदि प्रवृति विषयक दया भाव है |
‘अलोलुप्त्वं’ इन्द्रियों और विषयों के संयोग वियोग से
क्रमशः राग द्वेष का उत्पन्न ना होना, अन्तःकरण का व्यथित, व्याकुल ना होना
अर्थात् इन्द्रियों और विषयों के संयोग वियोग में भावों से लिप्त ना होना,
अलोलुप्त्वं भाव कहलाता है |
‘मार्दवं’ जिस कठोर, अभद्र, क्रूर व्यवहार को
सांसारिक लोग मर्दानगी कहते हैं, उससे विपरीत निर्मल, कोमल, भद्र व्यवहार मार्दवं
कहलाता है |
‘ह्रीः’ लक्ष्य से, ध्येय से, प्रकृतिजन्य भावों
के कारण विमुख होने में स्वयं ही लज्जा का अनुभव करना, ‘ह्रीः’ भाव है, जो परमार्थ
मार्ग का साधक प्रमाद, आलस्य अथवा निद्रा स्वरूप अथवा काम्य कर्मों के स्वरूप यज्ञार्थ
कर्मों से विमुख होने में स्वयं ही लज्जा का अनुभव करता है, वह ह्रीः भाव से भावित
कहा जाता है |
‘अचपलता’ प्रकृतिजन्य भावों के कारण साधक का
व्यर्थ की चेष्टाओं का अभाव, सतोगुण रूपी सुख का अभाव, रजोगुण रूपी काम्य कर्मों
में आसक्ति का अभाव, तमोगुण रूपी प्रमाद, आलस्य और निद्रा का अभाव अचापलम भाव
कहलाता है |
‘तेज’ तेज तत्त्व की पराकाष्ठा ब्रह्म तेज है,
जैसे जैसे दैवी संपदा आसुरी संपदा का नाश करती है, वैसे वैसे साधक अन्तःकरण की जिस
शक्ति को, जिस सामर्थ्य को प्राप्त करता है, उसका नाम तेज है |
‘क्षमा’ परमार्थ हेतु साधक का सांसारिक मनुष्यों
के उचित अनुचित व्यवहार द्वारा उद्विग्नता को प्राप्त ना होकर, उनके व्यवहार के
प्रति सहनशीलता का भाव ‘क्षमा’ भाव कहलाता है, इस भाव से भावित रहना ‘क्षान्ति’
कहलाता है |
‘धृति’ दैहिक, दैविक अथवा भौतिक कारणों से
उत्पन्न अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता से हर्ष अथवा विषाद को प्राप्त ना होने वाली अन्तःकरण
की प्रवृति का नाम धैर्य है, और इस भाव को धृति कहते हैं |
‘शौचम्’ बाह्य अर्थात् शारीरिक और आंतरिक अर्थात्
अन्तःकरण की पवित्रता का, शुद्धि का नाम शौच है, इस पवित्रता में अपनी स्थिति
बनाये रखना ‘शौचम्’ कहलाता है |
‘अद्रोह’ दुसरों के द्वारा असामान्य, आहत पूर्ण,
शत्रुवत व्यवहार पर उनके प्रति धात करने की इच्छा का भाव ‘द्रोह’ कहलाता है,
परमार्थ मार्ग के साधक में इस द्रोह भाव का अभाव ‘अद्रोह’ कहलाता है |
‘नातिमानिता’ ‘न अति मानिता’ यज्ञार्थ कर्मों के आचरण
स्वरूप तेज की प्राप्ति और दैविक संपदा का बाहुल्य होने पर भी अपने में पूज्यता
का, श्रेष्ठता का, मान का ना होना नातिमानिता भाव कहा जाता है |
योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को इन भावों
को कहकर कहते हैं कि इन भावों से भावित योगपरायण साधक के हृदयदेश में दैविक संपदा उत्पन्न
होती है, उन्नत होती है | बहुत से व्याख्याकार यहाँ ऐसा कहते हैं कि यह दैवी
सम्पदा को लेकर उत्पन्न पुरूषों के लक्षण हैं | यह सत्य है कि पुरुष अपने
संस्कारों को लेकर उत्पन्न होता है परन्तु
प्रकृतिजन्य दैविक और आसुरी भाव सभी में विद्यमान होते हैं, प्रश्न केवल उनको उन्नत
करने का है, आसुरी संपदा से लिप्त पुरूषों में भी दैविक भाव होते है परन्तु
प्रसुप्त अवस्था में विद्यमान होते हैं और सामान्य सांसारिक पुरूषों में भी दैविक
भाव होते हैं किन्तु अपरिपक्व अवस्था में, यह सभी भाव पूर्ण रूप से साधना की
पराकाष्ठा को प्राप्त साधक में ही होते हैं और साधना ही इन्हें उन्नत करने में
हेतु है | यह तो हुआ उन प्रकृतिजन्य भावों पर जो मोक्षपरायण साधक को उन्नत करने
चाहिये, अब योगेश्वर श्रीकृष्ण उन भावों पर प्रकाश डालते हैं, जो बंधनकारी हैं तथा
उन बंधनकारी आसुरी भावों से भावित पुरूषों की गति का भी वर्णन करते हैं |
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च |
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ||
(१६/४)
दम्भः
दर्पः अभिमानः च क्रोधः पारुष्यम् एव च |
अज्ञानम्
च अभिजातस्य पार्थ सम्पदम् आसुरीम् || (१६/४)
दम्भः
(दंभ), दर्पः
(दर्प), अभिमानः
(अभिमान), च
(और), क्रोधः
(क्रोध), पारुष्यम्
(कठोरता) एव
(ही), च
(और) |
अज्ञानम् (अज्ञान),
च (और), अभिजातस्य
(उत्पन्न होती हैं), पार्थ
(पार्थ), सम्पदम्
(संपदा), आसुरीम्
(आसुरी) |
(१६/४)
पार्थ
! दम्भ, दर्प, और अभिमान, क्रोध और कठोरता ही तथा अज्ञान से आसुरी संपदा उत्पन्न
होती है | (१६/४)
दम्भ अर्थात् श्रेष्ठता के भाव का प्रदर्शन
करना, प्राप्य सामर्थ्य का, वस्तु संग्रह का, धन का, ज्ञान का, धर्म का प्रदर्शन
करना दम्भ अर्थात् पाखण्ड कहलाता है, दर्प अर्थात् घर परिवार आदि के
निमित्त से होनेवाला गर्व, अभिमान अर्थात् प्राप्य सामर्थ्य से, वस्तु
संग्रह से, धन से, ज्ञान से अपने प्रति श्रेष्ठता का भाव, पूज्यता का भाव अभिमान
कहलाता है, क्रोध विषय भोगों की तृष्णा और आसक्ति का नाम काम है और काम की
पूर्ति ना होने पर जो भाव उत्पन्न होता है, उसका नाम ‘क्रोध’ है, पारुष्यम्
अर्थात् दुसरों के प्रति आक्षेप पूर्ण, कठोर और निर्मम व्यवहार पारुष्यम् कहलाता
है और अज्ञान अर्थात् तमस भाव |
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि पार्थ
प्रकृतिजन्य इन भावों से आसुरी संपदा उत्पन्न होती है, उन्नत होती है |
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता |
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव||
(१६/५)
दैवी
सम्पत् विमोक्षाय निबन्धाय आसुरी मता |
मा
शुचः सम्पदम् दैवीम् अभिजातः असि पाण्डव || (१६/५)
दैवी
(दैवी), सम्पत्
(संपदा), विमोक्षाय
(मोक्ष हेतु), निबन्धाय
(बंधनकारी), आसुरी
(आसुरी), मता
(मानी गयी है) |
मा (मत), शुचः
(शोककर), सम्पदम्
(संपदा), दैवीम्
(दैवी), अभिजातः
(संपन्न), असि
(हो), पाण्डव
(पाण्डव) |
(१६/५)
दैवीसंपदा
मोक्षहेतु, आसुरी बंधनकारी मान्य है, पाण्डव ! शोक मतकर दैवी संपदा लेकर उत्पन्न
हुए हो | (१६/५)
इस प्रकार इन प्रकृतिजन्य भावों में से
दैवी संपदा तो ‘विमोक्षाय’ मोक्षपरायण साधक की साधना में हेतु है और आसुरी संपदा
बंधनकारी मानी गयी है | इतना कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि
अर्जुन तू शोक मत कर क्योंकी तू दैवी संपदा से संपन्न है, संस्कारवश और आचरण स्वरूप
तूने दैवी संपदा को अपने अन्तःकरण में उत्पन्न और उन्नत किया है, इसलिये परमार्थ
तेरे लिये सहज है | क्योंकी
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च |
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु
|| (१६/६)
द्वौ
भूत सर्गौ लोके अस्मिन् दैवः आसुरः एव च |
दैवः
विस्तरशः प्रोक्तः आसुरम् पार्थ मे श्रृणु || (१६/६)
द्वौ
(दो), भूत
सर्गौ (प्रकार के मनुष्य हैं),
लोके
(लोक में), अस्मिन्
(इस), दैवः
(देव), आसुरः
(असुर), एव
(ही), च
(और) |
दैवः (देव), विस्तरशः
(विस्तार से), प्रोक्तः
(कहे गये हैं), आसुरम्(असुर को), पार्थ(पार्थ), मे(मुझसे), श्रृणु(सुन) |
(१६/६)
इस
लोक में दो प्रकार के मनुष्य हैं, देव और असुर ही, देव विस्तार से कहे गये हैं
पार्थ असुर मुझसे सुन | (१६/६)
इस लोक में, इस क्षेत्र में दो प्रकार के
मनुष्य होते हैं, देवों के जैसे और असुरों के जैसे, तात्पर्य यह कि जब हृदयदेश में
दैवी संपदा का बाहुल्य होता है तो पुरुष देवत्त्व को प्राप्त होता है और जब आसुरी
संपदा का बाहुल्य होता है तब आसुरी स्वभाव को प्राप्त होता है | इसी तथ्य को
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम कृष्णयोग परायण प्रवेशिका श्रेणी के साधकों को
कहा था कि यज्ञ के द्वारा तुम देवतओं
को उन्नत करो, वे देवगण तुमको उन्नत करें, परस्पर उन्नत करते हुए श्रेय को प्राप्त
करोगे | (३/११) ऊपर कहे दैवी संपदा के छब्बीस लक्षणों का अक्षरशः पालन ही देवताओं
को उन्नत कारण है और दैवी सम्पदा ही साधक को उन्नत करती है | इस प्रकार दैवी संपदा
को उन्नत करने से लेकर मोक्ष तक की यात्रा योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में विस्तार
से कह आये हैं और यहाँ कहते हैं कि आसुरी संपदा को प्राप्त पुरूषों की गति अब
मुझसे सुन |
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः |
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ||
(१६/७)
प्रवृत्तिम्
च निवृत्तिम् च जनाः न विदुः आसुराः |
न
शौचम् न अपि च आचारः न सत्यम् तेषु विद्यते || (१६/७)
प्रवृत्तिम्
(प्रवृति को), च
(और), निवृत्तिम्
(निवृति को), च
(और), जनाः
(लोग), न
(न), विदुः
(जानते), आसुराः
(आसुरी प्रवृति) |
न (न), शौचम्
(पवित्रता), न
(न), अपि
(भी), च
(और), आचारः
(उत्तम आचरण), न
(न), सत्यम्
(सत्य), तेषु
(उनमें), विद्यते
(होता है) |
(१६/७)
असुर
स्वभाव वाले लोग प्रवृति को और निवृति को भी नहीं जानते, उनमें न पवित्रता, न
उत्तम आचरण और सत्य भी नहीं होता है |
इस श्लोक का यथार्थ भावार्थ जानने को ऐसा
समझे कि पवित्रता, उत्तम आचरण और सत्य परायण पुरुष जो दैवी संपदा का अर्जन और संचय
करते हैं, उनमें से जो काम्य कर्मों में आसक्त होते हैं, स्वर्गादिक भोगों की
कामना करते हैं, वे प्रवृति को जानते हैं अर्थात् वे प्रवृति विषयक धर्म में आस्था
रखते हैं और जो मोक्षपरायण होते हैं, संसार रूपी दुःखों और दुःख रूपी संसार से
निवृति चाहते हैं, वे निवृति विषयक धर्म के अनुयायी होते हैं | परन्तु असुर स्वभाव
वाले लोग अर्थात् दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता, और अज्ञान अर्थात् तामसी
स्वभाव वाले लोग ना तो प्रवृति को जानते हैं अर्थात् ना तो सात्त्विक सुख रूप
स्वर्गादिक भोगों को जाननेवाले होते हैं और निवृति को तो जानते ही नहीं क्योंकी
उनमें पवित्रता, उत्तम आचरण और सत्य का सर्वथा अभाव होता है |
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् |
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम् || (१६/८)
असत्यम्
अप्रतिष्ठम् ते जगत् आहुः अनीश्वरम् |
अपरस्पर
सम्भूतम् किम् अन्यत् काम हैतुकम् || (१६/८)
असत्यम्
(असत्य), अप्रतिष्ठम्
(आश्रय रहित), ते
(वे), जगत्
(जगत को), आहुः
(कहते हैं), अनीश्वरम्
(ईश्वररहित) |
अपरस्पर (बिना कारण), सम्भूतम् (जीवों के संयोग के), किम् (क्या), अन्यत् (अन्य कारण), काम (काम), हैतुकम् (हेतु) |
(१६/८)
वे
जगत को असत्य, आश्रय रहित, ईश्वर रहित कहते हैं, बिना कारण, काम हेतु जीवों के
संयोग के अन्यत्र क्या कारण है | (१६/८)
आसुरी प्रवृति को प्राप्त मनुष्य कहते
हैं कि यह जगत असत्य अर्थात् इसके होने में कोई कारण नहीं है, यह ईश्वर रहित है,
आश्रय रहित है अर्थात् जिसमें सामर्थ्य है, वही इस जगत का स्वामी है और काम हेतु
स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है, इससे अन्यत्र क्या कारण है ?
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः |
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ||
(१६/९)
एताम्
दृष्टिम् अवष्टभ्य नष्ट आत्मानः अल्प बुद्धयः |
प्रभवन्ति
उग्र कर्माणः क्षयाय जगतः अहिताः || (१६/९)
एताम्
(इस), दृष्टिम्
(दृष्टि के), अवष्टभ्य
(अवलम्बन से), नष्ट
(नष्ट), आत्मानः
(स्व-भाव), अल्प
बुद्धयः (अल्पबुद्धि) |
प्रभवन्ति (प्रवृत होते हैं), उग्र (उग्र), कर्माणः
(कर्मों में), क्षयाय
(क्षय को), जगतः
(जगत के), अहिताः
(अहित को) |
(१६/९)
इस
दृष्टि के अवलंबन से नष्ट स्व-भाव, अल्पबुद्धि, उग्र कर्मों से जगत के क्षय को,
अहित को प्रवृत होते हैं | (१६/९)
इस दृष्टि के अवलम्बन से नष्ट स्वभाव
अर्थात् पुरुष का वह निम्नतम स्वभाव जो यज्ञार्थ कर्मों के आचरण स्वरूप रूपांतरित होकर
परमभाव की प्राप्ति में सक्षम होता है, जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि
चांडाल भी महात्मा हो सकता है, उस स्वभाव से भी तुच्छ और हिन स्वभाव को योगेश्वर
श्रीकृष्ण यहाँ नष्ट स्वभाव कहते हैं और इस नष्ट स्वभाव का कारण है अल्पबुद्धि,
ऐसे पुरुष उग्र कर्मों से जगत के क्षय को, अहित को अर्थात् वे जिन भावों से भावित
होकर जगत में प्रवृत होते हैं, उससे जगत का क्षय ही होता है, कल्याण नहीं होता | वे
ऐसा क्यों करते है ? इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः |
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः
|| (१६/१०)
कामम्
आश्रित्य दुष्पूरम् दम्भ मान मद अन्विता |
मोहात्
गृहित्वा असत् ग्राहान् प्रवर्तन्ते अशुचि व्रताः || (१६/१०)
कामम्
(विषय भोग के), आश्रित्य
(आश्रित होकर), दुष्पूरम्
(पूर्ण न होनेवाले), दम्भ
(दंभ), मान
(मान), मद
(मद), अन्विता (युक्त)
| मोहात् (मोह से), गृहित्वा (ग्रहण करके), असत्
(मिथ्या), ग्राहान्
(धारणा), प्रवर्तन्ते
(प्रवृत होते हैं), अशुचि
(दूषित), व्रताः
(संकल्पों से) |
(१६/१०)
दम्भ,
मान, मद से युक्त, पूर्ण न होनेवाले काम के आश्रित मोहवश मिथ्या धारणा ग्रहण करके
दूषित संकल्पों से प्रवृत होते हैं | (१६/१०)
दम्भ, मान और मद से युक्त, पूर्ण ना
होनेवाले काम के आश्रित, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि यह कामाग्नि
सब कुछ भस्म करके भी शान्त नहीं होती तथा मोहवश मिथ्या धारणा ग्रहण करके तात्पर्य
यह कि तमस जनित अज्ञान के कारण अपनी वासनाओं के वश में होकर मिथ्या धारणाओं को
ग्रहण करते हैं और इन सब के कारण उनके संकल्प भी दूषित ही होते हैं, तुच्छ और हिन्
ही होते हैं, इन्हीं संकल्पों से वो प्रवृत होते हैं, इसलिये जगत के क्षय को, अहित
को ही प्रवृत होते हैं |
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः |
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः || (१६/११)
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः |
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ||
(१६/१२)
चिन्ताम्
अपरिमेयाम् च प्रलय अन्ताम् उपाश्रिताः |
काम
उपभोग परमाः एतावत् इति निश्चिताः || (१६/११)
आशा
पाश शतैः बद्धाः काम क्रोध परायणाः |
ईहन्ते
काम भोग अर्थम् अन्यायेन अर्थ सञ्चयान् || (१६/१२)
चिन्ताम्
(चिन्ताओं का), अपरिमेयाम्
(अपार), च
(और), प्रलय
अन्ताम् (मृत्यु पर्यन्त), उपाश्रिताः
(आश्रय लेकर) |
काम (काम), उपभोग
(भोग), परमाः
(परम है), एतावत्
(ऐसा ही है), इति
(ऐसा), निश्चिताः
(निश्चय करके) |
(१६/११)
आशा
(आशा के), पाश
(पाश से), शतैः
(सैकड़ों), बद्धाः
(बँधे हुए), काम
(काम), क्रोध
(क्रोध), परायणाः
(परायण) |
ईहन्ते (इच्छा करते हैं),
काम (काम), भोग(भोग), अर्थम्(के लिये), अन्यायेन(जैसे भी), अर्थ(अर्थ), सञ्चयान्(संग्रह को) |
(१६/१२)
और
मृत्यु पर्यन्त अपार चिन्ताओं का आश्रय लेकर, काम भोग परम है, ऐसा ही है, ऐसा
निश्चय करके | (१६/११)
काम,
क्रोध परायण आशा के सैकड़ो पाश से बँधे हुए, जैसे भी हो वे काम, भोग के लिये अर्थ
संग्रह की इच्छा करते हैं | (१६/१२)
जो इस प्रकार पूर्व श्लोकों में कही
मानसिकता के आश्रित होते है, उनके आचरण में शान्ति, सरलता तो निश्चित रूप से होती
नहीं होगी अपितु वे मानते हैं कि काम और भोग ही परम हैं ऐसा निश्चय करने वाले
आसुरी प्रवृति के मनुष्य मृत्यु पर्यन्त अपार चिन्ताओं का आश्रय लेकर, काम और
क्रोध के परायण होकर, आशा के सैकड़ो पाश से बँधे, मनुष्य तो एक ही पाश से मर जाए,
वे सैकड़ो पाश से बँधे, जैसे भी हो वे काम और भोग के लिये अर्थ संग्रह की इच्छा
करते हैं, क्योंकी इससे ज्यादा वे कुछ मानते ही नहीं, क्योंकी तमस के कारण जानते
भी नहीं |
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् |
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् || (१६/१३)
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि |
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ||
(१६/१४)
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया |
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः
|| (१६/१५)
इदम्
अद्य मया लब्धम् इमम् प्राप्यसे मनोरथम् |
इदम्
अस्ति इदम् अपि मे भविष्यति पुनः धनम् || (१६/१३)
असौ
मया हतः शत्रुः हनिष्ये च अपरान् अपि |
ईश्वरः
अहम् अहम् भोगी सिद्धः अहम् बलवान् सुखी || (१६/१४)
आढ्यः
अभिजन वान् अस्मि कः अन्यः अस्ति सदृशः मया |
यक्ष्ये
दास्यामि मोदिष्ये इति अज्ञान विमोहिताः || (१६/१५)
इदम्
(यह), अद्य
(आज), मया
(मेरे द्वारा), लब्धम्
(प्राप्त हुआ), इमम्
(इस), प्राप्यसे
(प्राप्त करूँगा), मनोरथम्
(मनवांछित को) |
इदम् (यह), अस्ति
(है), इदम्
(यह), अपि
(भी), मे
(मेरा), भविष्यति
(होगा), पुनः
(फिर), धनम्
(धन) |
(१६/१३)
असौ
(वह), मया
(मेरे द्वारा), हतः
(हत हुआ), शत्रुः
(शत्रु), हनिष्ये
(हत करूँगा), च
(और), अपरान्
(दूसरों को), अपि(भी) |
ईश्वरः (ईश्वर हूँ), अहम्
(मैं), अहम्
(मैं), भोगी(भोगी), सिद्धः (सिद्ध), अहम्(मैं), बलवान्(बलवान), सुखी(सुखी)|
(१६/१४)
आढ्यः
(धनि), अभिजनवान्
(कुटुम्बवाला), अस्मि
(हूँ), कः
(कौन), अन्यः
(दूसरा), अस्ति
(है), सदृशः
(जैसा), मया
(मेरे) |
यक्ष्ये (यज्ञ करूँगा), दास्यामि
(दान करूँगा), मोदिष्ये
(मौज करूँगा), इति
(इस प्रकार), अज्ञान
(अज्ञान से), विमोहिताः
(मोहित हुआ) |
(१६/१५)
यह
आज मेरे को प्राप्त हुआ, इस मनवांछित को प्राप्त करूँगा, यह धन मेरा है फिर वह भी
मेरा होगा | (१६/१३)
वह
शत्रु मेरे से हत हुआ और अन्य को भी हत करूँगा, मैं ईश्वर, भोगी, सिद्ध, बलवान
सुखी होऊंगा | (१६/१४)
धनि
कुटुम्बवाला हूँ, मेरे जैसा अन्य कौन है ? यज्ञ करूँगा, दान करूँगा, मौज करूँगा,
इस प्रकार अज्ञान से मोहित हुआ | (१६/१५)
यहाँ भावार्थ स्वतः सिद्ध है कि इन
मनुष्यों का जीवन मृगतृष्णा के समान होता है, समस्त जीवन व्यर्थ की आशाओं में
व्यतीत हो जाता है और यह आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य जिस यज्ञ और दान का संकल्प करते
हैं, उन तामसी यज्ञ और दान का स्वरूप योगेश्वर श्रीकृष्ण अगले अध्याय में स्पष्ट
करेंगे |
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः |
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ||
(१६/१६)
अनेक
चित्त विभ्रान्ताः मोह जाल समावृताः |
प्रसक्ताः
काम भोगेषु पतन्ति नरके अशुचौ || (१६/१६)
अनेक
(अनेक प्रकार से), चित्त
(चित्त), विभ्रान्ताः
(भ्रमित), मोह
(मोह), जाल
(जाल), समावृताः
(घिरा हुआ) |
प्रसक्ताः
(आसक्त),
काम (काम), भोगेषु
(भोग में), पतन्ति
(गिरते हैं), नरके
(नर्क में), अशुचौ
(अपवित्र) |
(१६/१६)
अनेक
प्रकारसे मोहजालके भ्रमसे घिरेहुए चित्तवाले, विषय भोगों में आसक्त, अपवित्र नर्क
में गिरते हैं | (१६/१६)
अपवित्र नरक में गिरते हैं तात्पर्य यह
कि इनका परलोक अर्थात् प्राप्ति वाला शरीर भी अपवित्र, असत्य, मिथ्या आचरण और
आसुरी संपदा को ही प्राप्त होता है |
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः |
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ||
(१६/१७)
आत्म
सम्भाविताः स्तब्धाः धन मान मद अन्विताः |
यजन्ते
नाम यज्ञैः ते दम्भेन अविधि पूर्वकम् || (१६/१७)
आत्म
सम्भाविताः (स्वयं में श्रेष्ठ भाव), स्तब्धाः
(घमण्डी), धन
(धन), मान
(मान), मद
(मद), अन्विताः
(युक्त) |
यजन्ते (यजन करते हैं), नाम
(नाममात्र), यज्ञैः
(यज्ञों से), ते
(वे), दम्भेन
(पाखण्ड से), अविधि
पूर्वकम् (अविधिपूर्वक) | (१६/१७)
घमण्डी,
धन, मान मद से युक्त अपने को श्रेष्ठ माननेवाले, वे पाखण्ड से अविधिपूर्वक
नाममात्र यज्ञों से यजन करते हैं | (१६/१७)
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने तो सात्त्विक भाव
से भावित पुरूषों के लिये, जो स्वर्गादिक भोगों की इच्छा से वैदिक कर्म काण्डों का
यजन करते हैं, उनके यज्ञ को भी अविधिपूर्वक कहा है, इन आसुरी प्रवृति वाले
मनुष्यों के यज्ञ का तो कहना ही क्या ? इसकी थोड़ी सी व्याख्या अगले अध्याय में भी है
|
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः |
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ||
(१६/१८)
अहङ्कारम्
बलम् दर्पम् कामम् क्रोधम् च संश्रिताः |
माम्
आत्म पर देहेषु प्रद्विषन्तः अभ्यसूयकाः || (१६/१८)
अहङ्कारम्(अहंकार), बलम्(बल), दर्पम्(घमंड), कामम्(काम), क्रोधम्(क्रोध),
च(और), संश्रिताः(आश्रित) |
माम्(मुझको), आत्म(स्वयं), पर(दूसरों), देहेषु(देह में), प्रद्विषन्तः(द्वेष करते हैं), अभ्यसूयकाः(निन्दा करते हैं) |
(१६/१८)
दूसरों
की निन्दा करनेवाले, अहंकार, बल, घमंड, काम और क्रोध के आश्रित, स्वयं और दूसरों
की देह में (स्थित) मुझसे द्वेष करते हैं | (१६/१८)
तात्पर्य यह कि ये परमात्मा के होने से
ही द्वेष करते हैं, उन सभी से द्वेष करते हैं, जो परमात्मा में आस्था रखते हैं |
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् |
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ||
(१६/१९)
तान्
अहम् द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नर अधमान् |
क्षिपामि
अजस्त्रम् अशुभान् आसुरिषु एव योनिषु || (१६/१९)
तान्
(उन), अहम्
(मैं), द्विषतः
(द्वेष करनेवालों को), क्रूरान्
(क्रूरकर्मी), संसारेषु
(संसार में), नर
अधमान्(नरों में अधम) |
क्षिपामि (डालता हूँ), अजस्त्रम् (बार बार), अशुभान्
(अशुभ), आसुरिषु
(आसुरी), एव
(ही), योनिषु(योनियों में) |
(१६/१९)
संसार
में उन क्रूर कर्मी, अधम, द्वेष करने वाले मनुष्यों को मैं बार बार अशुभ आसुरी
योनियों में ही डालता हूँ | (१६/१९)
तात्पर्य यह कि इन आसुरी प्रवृति के
मनुष्यों का उत्थान तो संभव ही नहीं है अपितु ये बार बार आसुरी योनि को ही प्राप्त
होते हैं |
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि |
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्
|| (१६/२०)
आसुरीम्
योनिम् आपन्नाः मूढाः जन्मनि जन्मनि |
माम्
अप्राप्य एव कौन्तेय ततः यान्ति अधमाम् गतिम् || (१६/२०)
आसुरीम्
(आसुरी), योनिम्
(योनि को), आपन्नाः
(प्राप्त करके), मूढाः
(मुर्ख), जन्मनि
जन्मनि (जन्मजन्मान्तर में) |
माम् (मुझको), अप्राप्य (पाए बिना), एव
(ही), कौन्तेय
(कौन्तेय), ततः
(तत्पश्चात्), यान्ति
(जाते हैं), अधमाम्
(अधम), गतिम्
(गति को) |
(१६/२०)
कौन्तेय
! जन्मजन्मान्तर में मुर्ख आसुरी योनियों को प्राप्त करके, तत्पश्चात् मुझको पाए
बिना ही अधमगति को जाते हैं | (१६/२०)
यह आसुरी स्वभाव वाली मनुष्य योनि भी
इन्हें सदा प्राप्त नहीं होती, ये मुझको पाए बिना ही अर्थात् इस संसार का कोई
आश्रय, आधार है, कोई ईश्वर है, इस भाव से ये सदा ही अनभिज्ञ रहते हैं और इस कारण
अधमगति को, पशु किट पतंग आदि अधम योनियों को प्राप्त होते हैं | इस प्रकार आसुरी
प्रवृति को प्राप्त मनुष्यों की प्रवृति और गति को कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण अब अर्जुन
को अधोगति के कारणों को कहते हुए उनके त्याग को कहते हैं |
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः |
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्
|| (१६/२१)
त्रिविधम्
नरकस्य इदम् द्वारम् नाशनम् आत्मनः |
कामः
क्रोधः तथा लोभः तस्मात् एतत् त्रयम् त्यजेत् || (१६/२१)
त्रि (तीन), विधम् (प्रकार के), नरकस्य
(नर्क के), इदम्
(यह), द्वारम्
(द्वार हैं), नाशनम्
आत्मनः(स्वयं का नाश करने को)
|
कामः (काम),
क्रोधः(क्रोध), तथा(तथा), लोभः(लोभ), तस्मात्(इसलिये), एतत्(इन), त्रयम्(तीनों को), त्यजेत्(त्याग दो) |
(१६/२१)
स्वयं
का नाश करने को काम, क्रोध और लोभ यह तीन प्रकार के नर्क के द्वार हैं, इन तीनोंको
त्याग दो | (१६/२१)
मूलतः आसुरी प्रवृति में ले जाने वाले और
उस आसुरी प्रवृति के कारण नरक प्राप्ति में जो हेतु है, उन भावों पर प्रकाश डालते
हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि काम, क्रोध और लोभ यह तीन प्रकार के
प्रकृतिजन्य भाव नरक के द्वार हैं, आसुरी प्रवृति के, अधोगति के कारण हैं, इसलिये
इन तीनों का, काम का, क्रोध का और लोभ का मनुष्य को सदैव त्याग करना चाहिये |
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः
|
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ||
(१६/२२)
एतैः
विमुक्तः कौन्तेय तमः द्वारैः त्रिभिः नरः |
आचरति
आत्मनः श्रेयः ततः याति पराम् गतिम् || (१६/२२)
एतैः(इन), विमुक्तः(मुक्त), कौन्तेय(कौन्तेय), तमः
(अज्ञान), द्वारैः
(द्वारों से), त्रिभिः
(तीन), नरः
(पुरुष) |
आचरति (आचरण करता है), आत्मनः (स्वयं), श्रेयः (श्रेय का), ततः (तत्पश्चात्), याति (जाता है), पराम् (परम), गतिम् (गति को ) |
(१६/२२)
कौन्तेय
! अज्ञान के इन तीन द्वारों से मुक्त पुरुष स्वयं श्रेय का आचरण करता है,
तत्पश्चात् परमगति को जाता है | (१६/२२)
अज्ञान के, तमस के, आसुरी प्रवृति के
आधारभूत इन तीन कारणों से अर्थात् काम से, क्रोध से और लोभ से मुक्त होकर जो पुरुष
स्वयं श्रेय का आचरण करता है अर्थात् परमात्मा कहते है कि इस मूलभूत आचरण में
मनुष्य स्वयं ही प्रवृत होनापड़ता है और श्रेय का आचरण करे, श्रेय अर्थात् परमार्थ
मार्ग का, कृष्णयोग का आचरण करे, इसके बाद ही परमगति की प्राप्ति होती है |
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः |
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ||
(१६/२३)
यः
शास्त्र विधिम् उत्सृज्य वर्तते काम कारतः |
न
सः सिद्धिम् अवाप्नोति न सुखम् न पराम् गतिम् || (१६/२३)
यः(जो), शास्त्र(शास्त्र), विधिम्(विधि), उत्सृज्य(त्यागकर), वर्तते(बरतते हैं), काम(काम), कारतः
(कामी), |
न (न), सः(वह), सिद्धिम् (सिद्धि को), अवाप्नोति (प्राप्त होताहै), न (न), सुखम् (सुख को), न (न), पराम् (परम), गतिम् (गति को) |
(१६/२३)
जो
कामकामी शास्त्रविधि को त्यागकर बरतते हैं, वह न सिद्धि को, न सुख को, न परमगति को
प्राप्त होते हैं | (१६/२३)
जो कामकामी शास्त्रविधि को त्याग कर,
शास्त्रविधि अर्थात् जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि पुरातन काल में
यज्ञों सहित प्रजा को रचकर प्रजापति ने कहा कि इन यज्ञों द्वारा समृद्धि को
प्राप्त हो, यह तुम लोगों की इष्टकामधुक
अर्थात् ईष्ट संबंधी कामनाओं की पूर्ति करेगा | (३/१०) और यहाँ जो उपदेश योगेश्वर
श्रीकृष्ण दे रहे हैं, यही शास्त्रविधि है | जो शास्त्रविधि को त्यागकर बरतते है,
वह न सिद्धि को अर्थात् संसार में ऐश्वर्य को, ना सुख को अर्थात् ना ही स्वर्गादिक
भोगों को और ना ही परमगति को अर्थात् परमात्मा को प्राप्त होते हैं |
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते
कार्याकार्यव्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म
कर्तुमिहार्हसि || (१६/२४)
तस्मात्
शास्त्रम् प्रमाणम् ते कार्य अकार्य व्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा
शास्त्र विधान उक्तम् कर्म कर्तुम् इह अर्हसि || (१६/२४)
तस्मात्
(इसलिये), शास्त्रम्
(शास्त्र), प्रमाणम्
(प्रमाण है), ते
(तेरे लिये), कार्य
(कर्तव्य), अकार्य
(अकर्तव्य), व्यवस्थितौ
(व्यवस्था में) |
ज्ञात्वा (ज्ञात करके), शास्त्र विधान (शास्त्रविधि से), उक्तम्
(कहा गया), कर्म
(कर्म), कर्तुम्
(करने), इह
(ऐसा), अर्हसि
(योग्य है) |
(१६/२४)
अतः
तेरे लिये कर्तव्य, अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र प्रमाण है, ऐसा ज्ञात करके
शास्त्रविधि से कहा गया कर्म ही करने योग्य है | (१६/२४)
शास्त्रविधि से कहा गया कर्म ही करने के
योग्य है, तात्पर्य यह कि समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर जीवन निर्वाह और जीवन
यात्रा की सिद्धि हेतु यज्ञार्थ कर्मों का आचरण ही करने योग्य कर्म हैं |
इस प्रकार सोलहवें अध्याय का समापन होता
है |
***** ॐ तत् सत् *****