** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
द्वादशोऽध्यायः
अर्जुन
उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते |
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ||
(१२/१)
एवम्
सतत युक्ताः ये भक्ताः त्वाम् पर्युपासते |
ये
च अपि अक्षरम् अव्यक्तम् तेषाम् के योगावित् तमाः || (१२/१)
एवम्
(इस प्रकार), सतत
(नित्य), युक्ताः
(युक्त), ये
(जो), भक्ताः
(भक्तजन), त्वाम्
(आपको), पर्युपासते
(परं भाव से भजते हैं) |
ये (जो), च
(और), अपि
(भी), अक्षरम्
(अक्षरं), अव्यक्तम्
(अव्यक्त), तेषाम्
(उन दोनों में से), के
(कौन), योगावित्
(योग वित् है), तमाः
(उत्तमोत्तम) |
(१२/१)
जो
भक्तजन इस प्रकार नित्य युक्त होकर आपको परं भाव से भजते हैं, ‘ये च अपि’ और जो भी
अर्थात् अन्य जो आपके अक्षरं अव्यक्त भाव को परं भाव से भजते हैं उन दोनों में से
उत्तमोत्तम योगवित् कौन है ? (१२/१)
जो भक्तजन इस प्रकार अर्थात् गत अध्याय
में श्लोक संख्या (११/४५,५५) में कहे अनुसार ‘अनन्य भक्ति’ के
द्वारा, ‘मत् कर्म कृत्’, ‘मत् परमः’, ‘सङ्ग वर्जितः’ तथा ‘निर्वैरः सर्व भूतेषु’
भाव से नित्य निरन्तर युक्त
होकर आपको परं भाव से भजते हैं, अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे परमार्थ के
परम साधन से, यज्ञार्थ कर्मों के आचरण से, योग से युक्त होकर हृदयस्थ ईष्ट को,
आपके चतुर्भुज रूप को, ‘मानुषम् रूपम् तव सौम्यम्’ अर्थात् आपके सौम्य मनुष्य रूप को भजते
हैं, सगुण साकार परमात्मा को भजते हैं और अन्य जो आपके अक्षरं अव्यक्त भाव को परं
भाव से भजते हैं, आपके अव्यक्त, अचिन्त्य, अकथनीय परं ब्रह्म भाव को, निराकार
परमात्मा को भजते हैं | उन दोनों में से उत्तम योगवित् अर्थात् उत्तम प्रकार से,
श्रेष्ठ रूप से आपसे युक्त हुआ आपको भजने वाला कौन है, तात्पर्य यह कि आपको भजने
की उत्तम विधि क्या है ?
अर्जुन का यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण
प्रश्न है, इस प्रश्न का समाधान वैसे तो योगेश्वर श्रीकृष्ण पहले कर आये हैं
परन्तु जैसा सदैव होता आया है, व्याख्याकार परमात्मा के प्रति भावों से नहीं अपितु
उनके शब्दों से अधिक शब्दजाल बुनते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को
योगपरायण होने की विधि कहते हुए स्पष्ट किया है कि ‘ॐ’ इतना ही, एक अक्षय ब्रह्म
का उच्चारण करते हुए, मुझको स्मरण करते हुए, जो देह का त्यागकर जाता है, वह परंगति
को प्राप्त करता है | (८/१३) तथा पार्थ ! जिसके अंतर्गत समस्त शरीरधारी हैं, जिससे
यह सब कुछ व्याप्त है, परन्तु वह परमपुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है |
(८/२२) यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि ‘ॐ’ जो अक्षय परं ब्रह्म का
परिचायक है, उसका मानसिक जाप करते हुए तथा मेरा स्मरण अर्थात् मुझ सगुण साकार
परमात्मा का स्मरण करते हुए देह का त्याग अर्थात् देह मुक्त की अवस्था को प्राप्त
हो जाता है, वह परमगति अर्थात् अपना उत्थान करता हुआ अन्त में देह त्याग के
पश्चात् मुझको प्राप्त होता है तथा प्राप्ति तो अव्यक्त, अचिन्त्य, अकथनीय
परमपुरुष की ही होनी है परन्तु वह अव्यक्त अक्षरं ब्रह्म प्राप्त अनन्य भक्ति से अर्थात्
सगुण साकार परमात्मा के परायण होकर ही होता है | यहाँ तथाकथित ज्ञान योग के समर्थक
शब्दजाल से योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों के भाव को अर्थात् उनके अनुसार ‘मेरा
स्मरण’ अर्थात् मुझ अव्यक्त ब्रह्म का स्मरण कहकर और अनन्य भक्ति की ‘परा’ भक्ति
से व्याख्या करके, परमात्मा के उपदेशों का भाव ही बदल देते हैं | यहाँ जिस परा
भक्ति को कहा है, वह अव्यक्त ब्रह्म के प्रति भक्ति भाव है, जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण
(१८/५१-५५) में स्पष्ट करते हैं | अब योगेश्वर श्रीकृष्ण सगुण साकार परमात्मा अथवा
अव्यक्त ब्रह्म में से किसकी साधना साधक के लिये उत्तम है, इस तथ्य को अगले ग्यारह
श्लोकों में स्पष्ट करते हैं, पहले यह स्पष्ट कहते हुए कि सगुण साकार परमात्मा में
आवेशित चित्त वाले उत्तम साधक हैं, फिर अगले तीन श्लोकों में अव्यक्त ब्रह्म के
साधक के प्रति अपना मत व्यक्त करते हैं, ततपश्चात् सगुण साकार परमात्मा में समाहित
चित्त वालों की गति का वर्णन करते हैं |
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते |
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ||
(१२/२)
मयि
आवेश्य मनः ये माम् नित्य युक्ताः उपासते |
श्रद्धया
परया उपेताः ते मे युक्त तमाः मताः || (१२/२)
मयि
(मुझमें), आवेश्य
(एकाग्रता से स्थिर
करके), मनः
(मन को), ये
(जो), माम्
(मुझको), नित्य
(नित्य), युक्ताः
(युक्त हुए), उपासते
(भजते हैं) |
श्रद्धया (श्रद्धा से), परया (परम), उपेताः
(द्वारा), ते
(वे), मे
(मुझसे), युक्त
(युक्त), तमाः
(उत्तमोत्तम), मताः
(मान्य हैं) |
(१२/२)
मुझमें
मन को एकाग्रता से स्थिर करके नित्य युक्त हुए मुझको भजते हैं, परं श्रद्धा द्वारा
मुझसे युक्त वे उत्तमोत्तम मान्य हैं | (१२/२)
मुझमें मन को एकाग्रता से स्थिर करके,
स्पष्ट है कि मन की एकाग्रता सकलेन्द्रिय संयम से ही होगी अतः जो इस प्रकार नित्य
युक्त हुए अर्थात् नित्य निरन्तर योग युक्त हुए यज्ञार्थ कर्मों द्वारा मुझको भजते
है तथा परं श्रद्धा द्वारा मुझसे युक्त हुए अर्थात् मेरे उपदेशों का अक्षरशः
अनुसरण करते हुए मुझको भजते हैं वे उत्तमोत्तम योगवित् मान्य हैं | यह तो हुआ
योगेश्वर श्रीकृष्ण का सगुण साकार परमात्मा के प्रति परायण भक्तों के विषय में
उनका मत | अब इस मत के स्पष्टीकरण हेतु जो भक्त परमात्मा के अव्यक्त रूप को भजते
हैं, उनके विषय में अगले तीन श्लोकों में अपने मत को स्पष्ट करते हुए कहते है | कि
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते |
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ||
(१२/३)
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः |
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ||
(१२/४)
ये
तु अक्षरम् अनिर्देश्यम् अव्यक्तम् पर्युपासते |
सर्वत्र
गम् अचिन्त्य च कुट स्थम् अचलम् ध्रुवम् || (१२/३)
सन्नियम्य
इन्द्रिय ग्रामम् सर्वत्र समबुद्धयः |
ते
प्राप्नुवन्ति माम् एव सर्व भूत हिते रताः || (१२/४)
ये
(जो), तु
(परन्तु), अक्षरम्
(अक्षरं), अनिर्देश्यम्
(अकथनीय), अव्यक्तम्
(अव्यक्त), पर्युपासते
(परं भाव से भजते हैं) |
सर्वत्र (सर्वत्र), गम् (व्याप्त), अचिन्त्य (अचिन्त्य), च
(और), कुट
(कूट), स्थम्
(स्थित), अचलम्
(अचल), ध्रुवम्
(नित्य) |
(१२/३)
सन्नियम्य
(वश में करके), इन्द्रिय
(इन्द्रिय), ग्रामम्
(समुदाय), सर्वत्र
(सर्वत्र), सम (समभाव), बुद्धयः
(समबुद्धि) |
ते (वे) प्राप्नुवन्ति (प्राप्त होते हैं), माम्
(मुझको), एव
(ही), सर्व
(सभी), भूत
(प्राणियों), हिते
(हितमे), रताः
(लगे हुए) |
(१२/४)
परन्तु
जो इन्द्रियों के समुदाय को वश में करके, सर्वत्र समभाव, समबुद्धि से अक्षरं,
अकथनीय, अव्यक्त, सर्वत्र व्याप्त,
अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, को परं भाव से उपासते हैं, वे समस्त प्राणियों के
हित में रत मुझको ही प्राप्त
होते
हैं | (१२/३,४)
जो साधक इन्द्रियों के समुदाय को वश में
करके, सर्वत्र समभाव से, समबुद्धि से अर्थात् मेरे द्वारा कहे कृष्णयोग परायण साधक
के लिये जीवन निर्वाह को आवश्यक सांख्यदर्शन के अनुसार उपदेशों का पालन तो करते
हैं परन्तु ‘अक्षरं’ जिसका कभी क्षय नहीं होता, ‘अकथनीय’ जो शब्द का विषय ना होने
के कारण कहा नहीं जा सकता, ‘अव्यक्त’ जो किसी भी विधि से, प्रमाण से प्रत्यक्ष
नहीं किया जा सकता, जैसा कि पूर्व अध्याय में हमने ‘गौड़ पार्टिकल’ की नवीनतम खोज
में मनन किया है उस प्रकार अव्यक्त, ‘सर्वत्र व्याप्त’ उसी खोज के अनुसार जैसे मनन
किया कि सुप्त अथवा जागृत अवस्था में सर्वत्र व्याप्त है, ‘अचिन्त्य’ जिसका
इन्द्रियों आदि कारणों से ज्ञात करके चिंतन नहीं किया जा सकता, ‘कूटस्थ’ जो वस्तु
वैसे तो प्रिय भासती हो, गुणयुक्त भासती हो परन्तु दोषयुक्त होती है, जैसे यह
संसार और ब्रह्मभुवन प्रयन्त समस्त लोक, उस वस्तु को कुटरूप अथवा कुटसाक्ष्य कहते
हैं और अव्यक्त अक्षरं ब्रह्म का ब्रह्मभुवन पर्यन्त समस्त लोकों का अव्यक्त रूप
से अधिष्ठाता होने कारण के कारण उन्हें कूटस्थ कहते हैं, ‘अचल’ परिवर्तन रहित,
सदैव एक रसभाव, ‘ध्रुव’ जब कुछ भी नहीं था, तब भी वो था, अब भी वही है और जब कुछ
भी नहीं रहेगा तब भी वो रहेगा ऐसा ध्रुव भाव को, सारांशतः अक्षरं परं ब्रह्म को
उपासते हैं, उपासते अर्थात् उपास्य को, साध्य को, अपने ईष्ट को विधिविशेष द्वारा,
प्राणायाम परायण होकर मन और बुद्धि का विषय बनाकर हृदय देश में ध्यान द्वारा
तैलधारावत दीर्घकाल तक भजते हैं, वे समस्त प्राणियों के हित में रत अर्थात् ऐसे
अपरोक्ष साधक, सगुण साकार परमात्मा को नहीं अपितु जैसा अभी मनन किया परमात्मा के
उस अव्यक्त रूप को उपासते हैं, सभी प्राणियों को उस अव्यक्त का प्रसार मानकर ही
उपासते हैं और इस आचरण के कारण केवल उनका अपना ही नहीं अपितु समस्त प्राणियों का
हित सधता है, ऐसे अपरोक्ष साधक भी मुझको ही प्राप्त होते हैं |
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि योगेश्वर
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसे साधक भी मुझको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् वह अव्यक्त
अक्षरं ब्रह्म भी मैं ही हूँ और उस अव्यक्त की उपासना स्वरूप भी प्राप्ति तो मेरी
ही होती है | तब अव्यक्त ब्रह्म की उपासना में दोष क्या है ? इसको स्पष्ट करते हुए
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् |
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ||
(१२/५)
क्लेशः
अधिकतरः तेषाम् अव्यक्त आसक्त चेतसाम् |
अव्यक्ता
हि गतिः दुःखम् देहवद्भिः अवाप्यते || (१२/५)
क्लेशः
(कष्ट), अधिकतरः
(विशेष), तेषाम्(उन), अव्यक्त(अव्यक्त), आसक्त(आसक्त), चेतसाम्(चित्तवाले) |
अव्यक्ता (अव्यक्त
विषयक),
हि(क्योंकी), गतिः(गति), दुःखम्(दुःखद), देहवद्भिः(देहाभिमान द्वारा), अवाप्यते(प्राप्त होती है) |
(१२/५)
उन
अव्यक्त में आसक्त चित्तवालों को कष्ट विशेष है क्योंकी अव्यक्त विषयक गति
देहाभिमान द्वारा दुःखद प्राप्त होती है | (१२/५)
अव्यक्त ब्रह्म की उपासना करने वालों के
दोष को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन अव्यक्त में आसक्त
चित्तवालों को कष्ट विशेष है और उस कष्ट को भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि
‘अव्यक्ता’ अव्यक्त विषयक गति देहाभिमान द्वारा दुःखद प्राप्त होती है | तात्पर्य
यह की साधक हृदयस्थ सगुण साकार परमात्मा की उपासना करें अथवा अव्यक्त ब्रह्म की,
उपासना में साधक उपास्य को, साध्य को, अपने ईष्ट को विधिविशेष द्वारा, प्राणायाम
परायण होकर मन और बुद्धि का विषय बनाकर हृदय देश में ध्यान द्वारा तैलधारावत
दीर्घकाल तक भजते हैं परन्तु जब साधक का उपास्य, साधक का साध्य, साधक का ईष्ट
अव्यक्त, अचिन्त्य, अकथनीय रूप से है, उस उपास्य को, उस साध्य को, उस ईष्ट को साधक
मन और बुद्धि का विषय कैसे बनायेंगे और उसे हृदयदेश में किस प्रकार स्थित करेंगे,
इसलिये अव्यक्त विषयक गति अर्थात् साधक की साधना का तैलधारावत रूप से बना रहना
कष्टप्रद है क्योंकी जो अव्यक्त, अचिन्त्य और अकथनीय है, उसके परायण साधक कैसे हो
पाएंगे ? तथा यह अव्यक्त विषयक गति देहाभिमान द्वारा, देहाभिमान अर्थात् यह मन,
बुद्धि और यह हृदयदेश देह के भान से ही अस्तित्त्व में है और जब तक परं भाव की
प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक देह का भान तो रहेगा ही, तब आप कैसे अव्यक्त ब्रह्म
के परायण हो पायेंगे ?
अन्यथा भी जब तक साधक देह मुक्त नहीं
होता और देह मुक्त अवस्था जीते जी की प्राप्ति है, तब तक देह मुक्त अवस्था प्राप्त
नहीं होती तब तक प्रकृतिजन्य देह के सत, रज और तम भाव भी रहेंगे, तब यह भावों के
अधीन साधक भावातीत को कैसे भजेगा और इन भावों के कार्यरूप गुणों के अधीन साधक
गुणातीत को कैसे भजेगा ? और साधकों की इसी विडम्बना को योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ
चित्रित कर रहें हैं कि भावाधीन भावातीत से, गुणाधीन गुणातीत से कैसे एकीभाव हो
पायेगा ? परन्तु मनुष्य भाव को प्राप्त साधक ‘मानुषम् रूपम्
सौम्यम्’ परमात्मा के सौम्य मानुष
रूप से भावात्मक तादाम्य, एकीभाव सरलता से स्थापित कर लेता है | वैसे भी गीता
शास्त्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण जिसको सुखद कहते हैं उससे तात्पर्य यह होता है कि
इस साधन से प्राप्ति परमतत्त्व परमात्मा की है और जिसे दुःखद कहते हैं उससे
तात्पर्य यह कि इस साधन से प्राप्ति संसार की है | अतः अव्यक्त ब्रह्म की उपासना
स्वरूप प्राप्ति दुःखद है |
यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण के कथन में एक
अन्य जो तथ्य ध्यान देने योग्य है, वह यह कि अव्यक्त ब्रह्म के उपासकों के प्रति
योगेश्वर कहते हैं कि ‘अव्यक्त आसक्त चेतसाम्’ अर्थात् अव्यक्त में आसक्त चित्तवाले,
जबकि कृष्णयोग परायण साधकों के लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ‘मयि आवेश्य मनः’ तथा ‘आविष्टः चित्त’
कहते हैं, तात्पर्य कि कृष्णयोग परायण साधक का चित्त हृदयस्थ ईष्ट में शीघ्र ही एकीभाव
को प्राप्त हो जाता है, समाहित हो जाता है, जबकि अव्यक्त ब्रह्म का साधक ज्ञान के
पूर्वाग्रह के कारण अव्यक्त ब्रह्म में ही चित्त को समाहित करने में आसक्त होता है,
परन्तु अव्यक्त ब्रह्म के किसी विरले साधक का ही चित्त अव्यक्त ब्रह्म में समाहित
हो पाता है तथा शेष साधकों के लिये जिनका चित्त अव्यक्त ब्रह्म में समाहित नहीं हो
पाता, उनके लिये ही योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि अव्यक्त विषयक गति देहाभिमान
द्वारा दुःखद प्राप्त होती है |
परन्तु सगुण साकार परमात्मा में अपना
चित्त लगानेवाले साधकों के प्रति, कृष्णयोग परायण साधकों के ‘मयि
आवेशित चेतसाम्’ मुझमें आवेशित चित्तवाले
साधकों की गति को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः
|
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ||
(१२/६)
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् |
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ||
(१२/७)
ये
तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत् पराः |
अनन्येन
एव योगेन माम् ध्यायन्तः उपासते || (१२/६)
तेषाम्
अहम् समुद्धर्ता मृत्यु संसार सागरात् |
भवामि
नचिरात् पार्थ मयि आवेशित चेतसाम् || (१२/७)
ये
(जो), तु
(परन्तु), सर्वाणि
(समस्त), कर्माणि
(कर्मों को), मयि
(मुझे), सन्न्यस्य
(अर्पित करके), मत्
(मेरे), पराः(परायण) |
अनन्येन (अनन्य), एव
(ही), योगेन
(योग द्वारा), माम्
(मुझको), ध्यायन्तः
(ध्यान करते हुए), उपासते
(भजते हैं) |
(१२/६)
तेषाम्
(उन), अहम्
(मैं), समुद्धर्ता
(उद्धार कर्त्ता), मृत्यु
(मृत्यु), संसार
(संसार), सागरात्
(सागर से) |
भवामि (होता हूँ), नचिरात्
(शीघ्र ही), पार्थ
(पार्थ), मयि
(मुझमें), आवेशित
(एकाग्रता से स्थिर), चेतसाम्
(चित्तवाले) |
(१२/७)
परन्तु
जो समस्त कर्मों को मुझे अर्पित करके, मेरे परायण हुए, अनन्य भाव से ही योगद्वारा
ध्यान करते हुए मुझको भजते हैं | पार्थ ! उन मुझमें एकाग्रता से स्थिर चित्तवालों
का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ | (१२/६,७)
परन्तु अर्थात् अव्यक्त ब्रह्म में आसक्त
चित्तवालों की गति तो दुःखद है परन्तु जो साधक समस्त कर्मों को मुझे अर्पित करके,
जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जिज्ञासु प्रति अर्जुन को कहा है कि जो करता है,
जो खाता है, जो यज्ञरूप कर्म करता है, जो दान देता है, जो तप करता है कौन्तेय ! वह
मेरे को अर्पण कर | (९/२७) इस प्रकार शुभ अशुभ फलरूप कर्म बंधन से मुक्त होकर,
‘संन्यास’, ‘योग’ युक्त विमुक्त आत्मा होकर, मुझको प्राप्त करोगे | (९/२८) इसी
अपने संकल्प को योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ पुनः दोहराते हैं कि जो साधक समस्त कर्मों
को मुझे अर्पित करके, मेरे परायण हुए अर्थात् अब वह संसार का कोई आश्रय नहीं लेता
अपितु उसका सम्पूर्ण संसार, समस्त आश्रय, आधार मैं ही हूँ तथा अनन्य भाव से
अर्थात् मेरी प्राप्ति के अतिरिक्त उसकी कोई कामना नहीं है, वह कोई अन्य भाव से
भावित नहीं है केवल एक भाव और वह है मुझसे एकीभाव को योग से युक्त होकर ध्यान
द्वारा मेरा भजन जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि तू जप तो ‘ॐ’ का कर और
स्मरण मेरा, इस प्रकार जो साधक परमात्मा के सगुण साकार रूप को भजते हैं, उन मुझमें
एकाग्रता से स्थिर चित्तवालों का मैं शीघ्र ही संसार समुद्र से उद्धार
करने वाला होता हूँ |
यहाँ यह मनन करने को है कि आप इन साधकों
का उद्धार किस प्रकार करते हैं और अगर आप ही उद्धार करते हैं तब अव्यक्त ब्रह्म को
भजने वाले साधक भी तो आपको ही तो भजते हैं, आप इसी प्रकार उनका उद्धार क्यों नहीं
करते ? इसका जिज्ञासा का समाधान भी योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में ही कर आये हैं कि
पार्थ ! जो मुझको जैसे पूजते हैं, मैं उनको वैसे ही भजता हूँ, सभी मनुष्य सब
प्रकार से मेरे मार्ग का का अनुसरण करते हैं | (४/११) तात्पर्य यह कि जो साधक मेरे
सगुण साकार रूप को हृदयस्थ ईष्ट के रूप में भजते हैं, उनके हृदयदेश में मैं सारथि
बनकर उनका दिशा निर्देश करता हूँ, और जो अपने मत के अनुसार मेरे अव्यक्त रूप को
भजते हैं, उनसे मैं भी अव्यक्त ही रहता हूँ, वे अपने ज्ञान के भरोसे ही अपनी जीवन
यात्रा की सिद्धि का प्रयास करते हैं, इसलिये ही तो उनकी गति दुःखद है | केवल इतना
ही नहीं अपितु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने तो यह भी कहा है कि ‘चिन्तन में यत्नशील जो
लोग अनन्य भाव से मुझको परम भाव से पूजते हैं, उन नित्यरूप से मुझसे युक्त जनों के
योग के परिणाम की रक्षा ‘योगक्षेमम् वहामि अहम्’ मैं वहन करता हूँ |
(९/२२) स्पष्ट है कि जिस साधक के योग के परिणाम की रक्षा परमात्मा स्वयं वहन करते
हैं, उनको यह प्रकृति मोहित नहीं कर पाती अन्यथा जो अपने ज्ञान के भरोसे ही
अव्यक्त ब्रह्म की उपासना करते हैं, प्रकृति के मोह पाश से भी उनको स्वयं ही अपनी
रक्षा करनी पड़ती है और ऐसे ज्ञान योगियों में से अन्ततः एक ब्रह्मज्ञानी ऋषि
विश्वामित्र को भी माया ने तीन बार पटकी दी थी, तब हमसे सामान्य मनुष्य तो बिना
पटकी के ही माया के मोह में बह जाएंगे | इस कारण योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मुझमें
एकाग्रता से स्थिर चित्तवालों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार समुद्र से उद्धार
करने वाला होता हूँ |
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ||
(१२/८)
मयि
एव मन आधत्स्व मयि बुद्धिम् निवेशय |
निवसिष्यसि
मयि एव अतः ऊर्ध्वम् न संशयः || (१२/८)
मयि
(मुझमें), एव
(ही), मन
(मन), आधत्स्व
(स्थिरकर), मयि
(मुझमें), बुद्धिम्
(बुद्धि को), निवेशय
(एकाग्रता से स्थिरकर) |
निवसिष्यसि (निवास करेगा), मयि(मुझमें), एव(ही), अतः(यहाँ से), ऊर्ध्वम्(उत्तमगति से), न संशयः(संशयरहित) |
(१२/८)
मुझमें
ही मन स्थिर करके, मुझमें बुद्धि को एकाग्रता से लगा, यहाँ से उत्तमगति द्वारा
संशयरहित मुझमे ही निवास करेगा | (१२/८)
मुझमें ही मन को ‘आधत्स्व’ अर्थात्
संकल्प विकल्प करने वाले मन को मुझमें स्थिर करके ताकि मन को कोई अन्य संकल्प
विकल्प ही ना रहे, मुझमें बुद्धि को ‘निवेशय’ निवेश कर अर्थात् मेरे रूप का, मेरी
लीलाओं का, मेरे दिव्य जन्म और कर्म का ही चिन्तन ताकि कि बुद्धि अन्यत्र कहीं
विचरण ही ना करे | साधक की इस स्थिति का वर्णन भी
योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में कर आये हैं कि ‘मुझमें चित्त को, मुझमें
प्राणों को अर्पित करके बुद्धि द्वारा ग्राह्य रूप से जानते हुए और आपस में मेरा
कथन करते हुए, नित्य निरन्तर तृप्त रहते हैं, रमण करते हैं | (१०/९) इस प्रकार के
साधकों के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यहाँ से अर्थात् साधकों की इस
स्थिति से उत्तमगति द्वारा अर्थात् संशयरहित ऐसे साधकों का उत्थान होता है और
अंततः वे मुझमें ही निवास करते हैं, अर्थात् देह के रहते भी देहमुक्त हुए मुझमें
निवास करते हैं और देह रूपी आवरण से मुक्ति के पश्चात् तो मुझमें ही, मेरे निवास
में ही, परमधाम में निवास करते हैं |
परन्तु जो मन जन्म जन्मान्तरों से
इन्द्रियों के साथ होकर बुद्धि को हर के उसे विषयों में निवेश करता रहा है, वह मन
इतनी आसानी से हृदयस्थ ईष्ट में ‘आध्स्त्व’ हो पायेगा और बुद्धि को भी हृदयस्थ
ईष्ट में ‘निवेशय’ होने देगा | वस्तुतः योगेश्वर श्रीकृष्ण का यह आह्वान तो उन ज्ञानी
भक्तों के प्रति है, जो जन्मों से योग परायण हैं, जिनका मन और बुद्धि सात्त्विक
भावों से ओतप्रोत है और परमात्मा में ‘आध्स्त्व’ को ‘निवेश’ को तैयार है | अन्यों
के प्रति अर्थात् जिज्ञासु भक्तों के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् |
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ||
(१२/९)
अथ
चित्तम् समाधातुम् न शक्नोषि मयि स्थिरम् |
अभ्यास
योगेन ततः माम् इच्छ आप्तुम् धनञ्जय || (१२/९)
अथ(यदि), चित्तम्(चित्त), समाधातुम्(समाधित), न(न), शक्नोषि(कर सकता), मयि(मुझमें), स्थिरम्(स्थिर) |
अभ्यास (अभ्यास),
योगेन(योग से), ततः(उससे), माम्(मुझको), इच्छ(इच्छाकर), आप्तुम्(प्राप्त करनेकी), धनञ्जय(धनंजय) |
(१२/९)
यदि
मुझमें चित्त स्थिर समाधित नहीं कर सकता, तो धनंजय ! योग के अभ्यास द्वारा मुझको
प्राप्त करने की इच्छा कर | (१२/९)
यदि मुझमें चित्त समाधित नहीं कर सकता
अर्थात् पूर्व श्लोक में कहे अनुसार तेरा मन मुझमें स्वतः ही ‘आध्स्त्व’ नहीं होता
और बुद्धि मुझमें ‘निवेश’ नहीं होती तो भी यह चिंता का विषय नहीं है, तब धनंजय तू
योग के अभ्यास द्वारा अर्थात् मेरे द्वारा कहे अनुसार समभाव, समबुद्धि से जीवन
निर्वाह कर और इस मन और बुद्धि के समभाव से
युक्त होकर प्राणायाम परायण होकर मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर |
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव |
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ||
(१२/१०)
अभ्यासे
अपि असमर्थः असि मत् कर्म परमः भव |
मत्
अर्थम् अपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिम् अवाप्स्यसि || (१२/१०)
अभ्यासे
(अभ्यास में), अपि(भी), असमर्थः(असमर्थ), असि(है), मत्(मेरे), कर्म(कर्म), परमः(परायण), भव(हो) |
मत् (मेरे), अर्थम्(लिये), अपि(भी), कर्माणि(कर्मों को), कुर्वन्(करता हुआ), सिद्धिम्(सिद्धि को), अवाप्स्यसि(प्राप्त होगा) |
(१२/१०)
अभ्यास
में भी असमर्थ है (तो) मेरे परायण हो कर्म कर, मेरे लिये भी कर्मों को करता हुआ
सिद्धि को प्राप्त होगा | (१२/१०)
अगर तू अभ्यास में भी असमर्थ है अर्थात्
समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करने में आशंकित है और योग से युक्त होने में भी
अपने को असमर्थ पाता है तो मेरे परायण होकर अर्थात् जीवन में संसार के आश्रय हुए
मन का त्याग करके, मेरे आश्रय हो जा, इस प्रकार मेरे लिये कर्मों को करता हुआ
अर्थात् जो करता है, जो खाता है, जो यज्ञरूप कर्म करता है, जो दान देता है, जो तप
करता है कौन्तेय ! वह मेरे को अर्पण कर | (९/२७) इस प्रकार भी तू सिद्धि को
प्राप्त होगा |
यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने साधक के
प्रति इतना सरल और सुगम परन्तु गहन मनोविज्ञानिक उपाय कहा है कि जो करता है वह
मुझे अर्पण कर, सोचें कि क्या ऐसा पुरुष कभी किसी के प्रति व्यभिचार कर पायेगा, असत्य
कह पायेगा, चोरी कर पायेगा तथा जो खाता है, वह भी मुझे अर्पण कर, तो क्या वह पुरुष
मांस मदिरा का उपयोग कर पायेगा, और उसका समस्त यज्ञ रूप कर्म कामना और आसक्ति से
भोगों हेतु कर पायेगा तथा उसका दान और तप संसार में दिखावे हेतु हो पायेगा ? ऐसे
पुरुष का अंततः होगा वही जो योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि मेरे लिये भी कर्मों
को करता हुआ तू सिद्धि को अर्थात् मुझको ही प्राप्त होगा |
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः |
सर्वकर्मफलात्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ||
(१२/११)
अथ
एतत् अपि अशक्तः असि कर्तुम् मत् योगम् आश्रितः |
सर्व
कर्म फल त्यागम् ततः कुरु यत आत्मवान् || (१२/११)
अथ
(यदि), एतत्
(इसे), अपि
(भी), अशक्तः
(असमर्थ), असि
(है), कर्तुम्
(करने में), मत्
(मेरे), योगम्
(योग के), आश्रितः
(आश्रित हो जा) |
सर्व (समस्त), कर्म
(कर्म), फल
(फल), त्यागम्
(त्यागकर), ततः
(उसे), कुरु
(करो), यत
(जिससे), आत्मवान्
(आत्मवान् हो) |
(१२/११)
मेरे
योग के आश्रित होकर यदि इसे करने में भी असमर्थ है (तो) समस्त कर्मफल का त्याग
करके, उसे करो जिससे आत्मवान् हो जाओ | (१२/११)
मेरे योग के आश्रित होकर यदि इसे करने
में भी असमर्थ है अर्थात् समस्त कर्मो को मुझे अर्पण करने में भी असमर्थ है तो
समस्त कर्मफल का त्याग करके वह करो जिससे आत्मवान हो सको तात्पर्य यह कि सतसत्संग
इत्यादि करो |
उपर्युक्त चार श्लोकों में योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने साधकों के भिन्न भिन्न स्वभाव के अनुसार, उन्हें कृष्णयोग में प्रवृत
होने की विधियाँ कहीं हैं | पूर्व श्लोक में कर्मफल का त्याग जो अन्ततः साधक के
स्वभाव का रूपांतरण करेगा, उससे पहले समस्त कर्मों को परमात्मा को अर्पण, यह भी
साधक के स्वभाव का रूपांतरण का सकेगा, उससे पहले योगयुक्त होने का निर्देश और उससे
पूर्व परमात्मा में मन और बुद्धि का लगाना | साधक अपने स्वभाव के अनुसार,
संस्कारों के अनुसार जैसा भी चाहे उस प्रकार से योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों का
पालन करे, योगेश्वर के यह सभी उपाय मनोविज्ञानिक है, एक भी राह पर चला साधक अन्ततः
परमार्थ मार्ग पर चल सकेगा, अपना उत्थान करता हुआ सिद्धि को, परमात्मा को प्राप्त
हो सकेगा |
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं
विशिष्यते |
ध्यानात्कर्मफलस्त्यागाच्छांतिरनंतरम् ||
(१२/१२)
श्रेयः
हि ज्ञानम् अभ्यासात् ज्ञानम् ध्यानम् विशिष्यते |
ध्यानात्
कर्म फल त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम् || (१२/१२)
श्रेयः(श्रेष्ठ है), हि(क्योंकी), ज्ञानम्(ज्ञान), अभ्यासात्(अभ्यास से), ज्ञानम्(ज्ञान से), ध्यानम्(ध्यान), विशिष्यते(विशेष है) |
ध्यानात्(ध्यानसे), कर्म(कर्म), फल(फल), त्यागः(त्याग), त्यागात्(त्यागसे), शान्तिः(शान्ति), अनन्तरम्(तत्काल) |
(१२/१२)
क्योंकी
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान विशेष है, ध्यान से कर्मफल का त्याग
(विशेष है), त्याग से तत्काल शान्ति (प्राप्त होती है) | (१२/१२)
कृष्णयोग से संबंधित योगेश्वर श्रीकृष्ण
का यह एक प्रकार से अंतिम श्लोक है और इस श्लोक की भी व्याख्याकारों ने इस प्रकार
व्याख्या की है कि योगेश्वर के कृष्णयोग से साधक पूर्ण रूप से भटक जाए | उन्होंने
क्या कहा यह एक अलग विषय है, हमारा विषय नहीं है की अभ्यास में, ज्ञान में, ध्यान
में अथवा कर्मफल त्याग में क्या श्रेष्ठ है ? हमें तो योगेश्वर श्रीकृष्ण के
उपदेशों का आत्मसात कारण है और इस श्लोक को भलीभाँति आत्मसात करने को पहले एक
उदाहरण लेते हैं | मान लीजिये कि आज सर्दी बहुत है और आप केवल एक बनियान पहने हुए
हैं तथा आपकी माता जी आपसे कहती हैं कि बेटे बनियान से कमीज़ पहनना अच्छा है, कमीज़
से अच्छा है की स्वेटर पहनो और स्वेटर से भी अच्छा है कि एक शाल ले लो | इसका
तात्पर्य यह नहीं कि आप बनियान उतार कर कमीज़ पहने अथवा बनियान और कमीज़ दोनों को
उतार कर स्वेटर पहने अथवा केवल शाल ले लें | माता जी का तात्पर्य यह है कि आज
सर्दी बहुत है इसलिये आप बनियान पहनने से अच्छा है कि तुम उसके ऊपर स्वेटर ले लें
और एक शाल भी ले लें, शाल लेने के बाद सर्दी से तत्काल शांति प्राप्त हो जायेगी | इसी
प्रकार इस श्लोक का अर्थ समझने से पहले योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे ‘क्योंकी’
को समझना आवश्यक है, यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा ‘क्योंकी’ कहने से तात्पर्य
यह है कि इस प्राप्त स्थिति से यह स्थिति ज्यादा श्रेष्ठ है अर्थात्
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, तात्पर्य यह
कि केवल मात्र अभ्यास करते रहने से, ज्ञान युक्त अभ्यास जिसके लिये योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने कहा है कि इस समबुद्धि से युक्त हुआ, योग द्वारा तू कर्मबंधन का नाश
कर सकेगा, इसलिये केवल मात्र अभ्यास से समबुद्धि, समभाव से, निर्योगक्षेम भाव से,
नित्यसत्त्वस्थित भाव से, निर्द्वन्द भाव के ज्ञान युक्त अभ्यास श्रेष्ठ है और इस
बौद्धिक ज्ञान से युक्त होकर अभ्यास से ध्यान श्रेष्ठ है क्योंकी जब इस बौद्धिक
ज्ञान से युक्त होकर अभ्यास करता हुआ तू ध्यान में उतरेगा, तभी परमात्मा का दिशा
निर्देश तुझे प्राप्त होगा क्योंकी परमात्मा तत्त्व का प्रवाह सदैव ध्यान में होता
है तथा बौद्धिक ज्ञान से युक्त अभ्यास द्वारा जब तू ध्यान को प्राप्त करेगा तब
कर्मफल का भी त्याग कर, क्योंकी कर्मफल की कामना ही बंधन का कारण है, इसलिये इस
प्रकार से जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु कर्मफल त्याग करता हुआ तू
तत्काल शांति को प्राप्त होगा, क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ही ‘बुद्धि से (योग) युक्त
मुनिजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल का त्याग करके जन्मबंधन से मुक्त हो
निर्विकार परमपद को प्राप्त होते हैं | (२/५१)
जिसके लिये योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘एषा ब्राह्मी स्थितिः’ यह परंशान्ति की स्थिति ही ब्रह्म
को प्राप्त पुरुष की स्थिति है | तथा ‘स्थित्वा अस्याम् अन्त काले अपि
ब्रह्म निर्वाणम् ऋच्छति’ अर्थात् इस परंशांति की स्थिति में, ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति में स्थित होकर अन्तकाल में भी
ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होता है | (२/७२) इस भाव को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा
है कि अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान विशेष है, ध्यान से कर्मफल का
त्याग (विशेष है), त्याग से तत्काल शान्ति प्राप्त होती है |
मैंने अपने शिव बाबा और
योगेश्वर श्रीकृष्ण के कृपया प्रसाद से जितना गीता शास्त्र को समझा है, उसके
अनुसार गीता शास्त्र का अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण अर्जुन
संवाद यहाँ समाप्त होता है | इसके उपरान्त अगले अध्याय से गीता शास्त्र के अन्त तक
गीताशास्त्र सांख्यदर्शन विषयक है | परन्तु सभी सद्गुरु अपने उपदेशों के उपरान्त, अपने शिष्य को स्वयं ही उन उपदेशों
की कसोटी पर जांचने परखने को, उनके चिन्तन मनन हेतु कुछ सूत्र देते हैं | इसी क्रम
में अगले आठ श्लोक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने साधकों हेतु कसोटी रूप में कहे हैं
क्योंकी सोने की परख कसौटी पर कसकर ही करी जाती है और योगेश्वर श्रीकृष्ण के
उपदेशों का अक्षरशः पालन करने हेतु, उनका पूर्णरूपेण अनुसरण करने हेतु ये आठ श्लोक
साधकों की परीक्षा हेतु सूत्ररूप से कहे गये हैं | साधकों की परीक्षा हेतु कहे इन
आठ श्लोकों में भी ना जाने गीता शास्त्र के व्याख्याकार कहाँ से भक्ति योग खोज
लेते हैं ?
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च |
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ||
(१२/१३)
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः || (१२/१४)
अद्वेष्टा
सर्व भूतानाम् मैत्रः करुणः एव च |
निर्ममः
निरहङ्कारः सम दुःख सुखः क्षमी || (१२/१३)
सन्तुष्टः
सततम् योगी यत आत्मा दृढ निश्चयः |
मयि
अर्पित मनः बुद्धिः यः मत् भक्तः सः मे प्रियः || (१२/१४)
अद्वेष्टा
(अद्वेषी), सर्व
(समस्त), भूतानाम्
(प्राणियों में), मैत्रः
(मैत्रीभाव), करुणः
(करुणा), एव
(ही), च
(और) |
निर्ममः (ममतारहित),
निरहङ्कारः (अहंकाररहित), सम (सम), दुःख
(दुःख), सुखः
(सुख), क्षमी
(क्षमावान) |
(१२/१३)
सन्तुष्टः
(संतुष्ट), सततम्
(नित्य), योगी(योगयुक्त), यत(जिसकी), आत्मा(आत्मा), दृढ(दृढ़), निश्चयः(निश्चयी) |
मयि (मुझमें), अर्पित(अर्पित), मनः(मन), बुद्धिः(बुद्धि), यः(जो), मत्(मेरा), भक्तः(भक्त), सः(वह), मे(मेरा), प्रियः(प्रिय है) |
(१२/१४)
जो
द्वेषभाव से रहित, समस्त प्राणियों में मैत्रीभाव और करुणाभाव ही, ममतारहित,
अहंकाररहित, सुख दुःख में सम, क्षमावान, संतुष्ट, नित्य योगयुक्त, अंतःकरण से दृढ़
निश्चयी, मुझमें अर्पित मन और बुद्धि वाला है, वह भक्त मेरा प्रिय है | (१२/१३,१४)
मुझमें अर्पित मन और बुद्धि वाला जिसके
लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी पूर्व में कहा है कि मनको मुझमें ‘आध्स्त्व’ करके
तथा बुद्धि को मुझमे ‘निवेश’ करके तो मुझ में ही निवास करेगा, इस प्रकार का भक्त
परमात्मा को प्रिय है | ऐसा भक्त परमात्मा को क्यों प्रिय है, इसका भी स्पष्टीकरण करते
हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि क्योंकी वह समस्त प्राणियों में द्वेष भाव से
रहित है, दूसरों से द्वेषभाव तब उत्पन्न होता है जब आप जो प्राप्त कारण चाहते हैं,
वह आपको तो प्राप्त नहीं है परन्तु उन्हें प्राप्त है, अपने से अधिक साधन संपन्न
को देखकर, अपने से उन्नत साधक को देखकर जो द्वेषभाव नहीं करता, इस भाव से रहित
पुरुष ही परमात्मा को प्रिय हैं | तथा ‘समस्त प्राणियों में ‘मैत्री’ भाव अर्थात्
सबके प्रति स्वार्थरहित प्रेम भाव और ‘करुण’ भाव अर्थात् सभी प्राणियों में
हेतुरहित दयालु भाव एवं ‘ममतारहित’ अर्थात् मोहवश, प्रेमवश अथवा वात्सल्यवश भी मैं
और मेरा के भाव से रहित तथा इसी रूप में ‘अहंकाररहित’ अर्थात् मूढ़तावश, अभिमानवश
भी मैं और मेरा के भाव से रहित पुरुष जो सुखदुःख में समभाव वाला हो अर्थात्
इन्द्रियों और विषयों के संयोग वियोग जो अनित्य और असत्य रूप हैं, उनसे व्यथित,
व्याकुल नहीं होता हो और ‘क्षमी’ अर्थात् स्वयं के प्रति उद्दंडता करनेवालों के
प्रति भी स्वार्थ तथा हेतुरहित क्षमा भाव रखनेवाला, जो नित्य निरन्तर प्राप्य अथवा
अप्राप्य से भी संतुष्ट रहे | इस प्रकार जीवन निर्वाह करता हुआ साधक जो जीवन
यात्रा की सिद्धि हेतु योग से युक्त हो, ‘यतात्मा’ अर्थात् जिसने इन्द्रिय, मन और
बुद्धि को वश में कर रखा है तथा दृढ़निश्चयी अर्थात् एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति
निश्चयात्मक बुद्धि से, व्यवसायिक बुद्धि से युक्त पुरुष परमात्मा को प्रिय है
|
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः |
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः
|| (१२/१५)
यस्मात्
न उद्विजते लोकः लोकात् न उद्विजते च यः |
हर्ष
अमर्ष भय उद्वेगैः मुक्तः यः सः च मे प्रियः || (१२/१५)
यस्मात्
(जिससे), न
(नहीं), उद्विजते
(उद्वेग को प्राप्त
होते), लोकः
(प्राणी), लोकात्
(प्राणियों से), न
(नहीं), उद्विजते
(उद्वेग को प्राप्त
होता), च
(और), यः
(जो) |
हर्ष (हर्ष), अमर्ष
(अमर्ष),भय
(भय), उद्वेगैः
(उद्वेग से), मुक्तः
(मुक्त), यः
(जो), सः
(वह), च
(और), मे
(मेरा), प्रियः
(प्रिय) |
(१२/१५)
जिससे
प्राणी उद्वेग को प्राप्त नहीं होते और जो प्राणियों से उद्वेग को प्राप्त नहीं
होता, जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेग से मुक्त है, वह मेरा प्रिय है | (१२,१५)
जिस साधक के जीवन निर्वाह करने से, उसके
व्यवहार से कोई भी अन्य प्राणी उद्वेग को, क्रोध को, ईर्ष्या को प्राप्त नहीं होता
क्योंकी वह समस्त प्राणियों में उस एक परमात्मा का ही विस्तार देखता है, परन्तु
अन्य जो योग से युक्त नहीं हैं, संसार में, भोगों में ही रमण करते हैं, उनके
व्यवहार से भी जो कभी भी उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा प्राप्य से हर्ष को,
अप्राप्य से अमर्ष को और ‘भय’ एवं ‘उद्वेग को प्राप्त नहीं होता | मनुष्य ‘भय’ और
‘उद्वेग’ को कैसे प्राप्त होता है ? सभी मनुष्य अर्जित अथवा प्राप्य वस्तु,
पदार्थ, धनधान्य, भोग साधनों और स्वजनों की रक्षा को, सुरक्षा को लेकर सदैव एक भय
और उद्वेग भाव से भावित रहता है | परन्तु कृष्णायोग परायण साधक इनके प्रति ही नहीं
अपितु अपनी देह के प्रति भी मैं और मेरा भाव से रहित होने के कारण ‘भय’ और
‘उद्वेग’ से उपराम होता है, इसको ही योगेश्वर श्रीकृष्ण साधकों के प्रति कहते हैं
कि जिससे प्राणी उद्वेग को प्राप्त नहीं होते और जो प्राणियों से उद्वेग को
प्राप्त नहीं होता, जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेग से मुक्त है, वह मेरा प्रिय है |
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः |
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः
|| (१२/१६)
अनपेक्षः
शुचिः दक्षः उदासीनः गत व्यथः |
सर्व
आरम्भ परित्यागी यः मत् भक्तः सः मे प्रियः || (१२/१६)
अनपेक्षः
(अपेक्षारहित), शुचिः
(शुद्ध), दक्षः
(प्रवीण), उदासीनः
(उदासीन), गत
(रहित), व्यथः
(व्यथा से) |
सर्व (समस्त), आरम्भ
(आरम्भ का), परित्यागी
(त्यागी), यः
(जो), मत्
(मेरा), भक्तः
(भक्त), सः
(वह), मे
(मेरा), प्रियः
(प्रिय) |
(१२/१६)
जो
मेरा भक्त अपेक्षा रहित, शुद्ध, प्रवीण, उदासीन, व्यथा रहित, समस्त आरम्भों का
त्यागी है, वह मेरा प्रिय है | (१२/१६)
‘अपेक्षारहित’ जो साधक कृष्णयोग हो जाता
है, जिसका ध्येय, साध्य, उपास्य तय हो जाता है, जो जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु
दृढ़निश्चयी हो जाता है, वह जीवन निर्वाह हेतु समस्त अपेक्षाओं से रहित हो जाता है,
ऐसा ‘शुची’ अर्थात् जो सांसारिक कामनाओं
की मलिनता से, अपेक्षारहित होकर पवित्र गया है, ‘दक्षः’ अर्थात् इस अपेक्षारहित
भाव में जिसने प्रवीणता प्राप्त कर ली है, उदासीन अर्थात् और धनंजय ! उन कर्मों
में आसक्तिरहित, उदासीनवत् स्थित मुझको वे कर्म नहीं बाँधते क्योंकी कर्तव्य कर्म
करना ही उचित है, इसलिये करता हूँ | इस कारण वे कर्म मुझको नहीं बाँधते | (९/९)|
तथा यह माया भी बहुत ठगनी है, इसलिये माया द्वारा उपलब्ध भोगों के प्रति जो उदासीन
भाव से है वही माया द्वारा ठगा नहीं जाता, तथा व्यथारहित जिसके लिये योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने कहा है कि कौन्तेय ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख देनेवाले इन्द्रियों और
विषयों के संयोग-वियोग तो आने-जाने वाले, अनित्य हैं | भारत ! उनको सहन करो | (२/१४) क्योंकि पुरुष
श्रेष्ठ ! सुख-दुःख में सम रहने वाले जिस धीर पुरुष को यह व्यथित नहीं करते, वह
अमृत की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१५) अतः व्यथारहित पुरुष ही अमृततत्त्व
की प्राप्ति के योग्य होता है और ‘समस्त आरम्भों का त्यागी’ तात्पर्य यह कि जब तक
जीवन है तब तक कर्म तो करने ही पड़ेंगे परन्तु कर्मफल की आसक्ति से कर्मों में
प्रवृत होने के भाव का त्यागी, कर्मफल का त्यागी साधक ही परमात्मा को प्रिय है और ऐसे साधकों को ही
योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ मेरा भक्त कहते हैं |
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति
|
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ||
(१२/१७)
यः
न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति |
शुभ
अशुभ परित्यागी भक्ति मान् यः सः मे प्रियः || (१२/१७)
यः
(जो), न
(नहीं), हृष्यति
(हर्षित होता है), न
(न), द्वेष्टि
(द्वेष करता है), न
(न), शोचति
(शोक करता है), न
(न), काङ्क्षति
(आकांक्षा करता है) |
शुभ (शुभ), अशुभ
(अशुभ), परित्यागी
(त्यागी), भक्ति
(भक्ति), मान्
(मय), यः
(जो), सः
(वह), मे
(मेरा), प्रियः
(प्रिय) |
(१२/१७)
जो
न हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न आकांक्षा करता है, शुभ अशुभ
का त्यागी भक्तिमय है, वह मेरा प्रिय है | (१२/१७)
योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः पुनः साधकों को
निर्द्वन्द्व भाव से, समभाव से जीवन निर्वाह, कर्मफल के त्याग को भक्तिमय होना
कहते हैं और कहते हैं कि ऐसे साधक ही मेरे प्रिय हैं | इसमें भक्ति योग क्या है ?
कृष्णयोग परायण साधक योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कही किस किस कसोटी पर खरा उतरता
हुआ उन्हें प्रिय से प्रियतम हो सकता है, यह भाव ही प्रिय है, इसमें भक्ति जैसा
क्या है ?
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः |
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ||
(१२/१८)
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन
केनचित् |
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ||
(१२/१९)
समः
शत्रौ च मित्रे च तथा मान अपमानयोः |
शीत
उष्ण सुख दुःखेषु समः सङ्गः विवर्जितः || (१२/१८)
तुल्य
निन्दा स्तुतिः मौनी संतुष्टः येन केनचित् |
अनिकेतः
स्थिर मतिः भक्ति मान् मे प्रियः नरः || (१२/१९)
समः(समभाव), शत्रौ(शत्रुओं में), च(और), मित्रे(मित्रों में), च(और), तथा(तथा), मान(मान), अपमानयोः(अपमान में) |
शीत (सर्दी),
उष्ण(गर्मी),
सुख(सुख),
दुःखेषु (दुःख में), समः
(सम), सङ्गः
(संग), विवर्जितः
(रहित) |
(१२/१८)
तुल्य
(समान), निन्दा
(निन्दा), स्तुतिः
(स्तुति), मौनी
(मौनी), संतुष्टः
(संतुष्ट), येन
(जिस प्रकार), केनचित्
(किसी प्रकार) |
अनिकेतः (वास स्थान में
आसक्तिरहित), स्थिर (स्थिर), मतिः
(मति), भक्ति
(भक्ति), मान्
(मय), मे
(मेरा), प्रियः
(प्रिय), नरः
(मनुष्य है) |
(१२/१९)
शत्रुओं
और मित्रों और मान तथा अपमान में समभाव है, सर्दी गर्मी, सुख दुःख में संगरहित सम
है, निन्दा स्तुति में
समान,
मौनी, येन केन संतुष्ट, वास स्थान में आसक्तिरहित, स्थिरमति भक्तिमय नर मेरा प्रिय
है | (१२/१८,१९)
जो साधक शत्रु और मित्र में समभाव से है,
यहाँ जानने योग्य है कि यह शत्रु मित्र उस साधक के नहीं है अपितु सांसारिक लोग जो
उस साधक से शत्रुवत अथवा मित्रवत व्यवहार करते हैं, उनके प्रति जो समभाव से है और
इसी प्रकार मान अपमान में, निन्दा स्तुति में जो समभाव से है, वह साधक परमात्मा को
प्रिय है | सर्दी गर्मी, सुख दुःख में जो सम है अर्थात् जो अपने आचरण स्वरूप
अमृततत्त्व की योग्यता को प्राप्त कर लेता है, वह परमात्मा को प्रिय है | ‘मौनी’
जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘मौनं चैवास्मि’ अर्थात् गुप्त रखने
योग्य भावों में मैं मौन हूँ तात्पर्य यह कि कृष्णयोग परायण साधक की साधना दिखावे
को नहीं, आडम्बर को नहीं अपितु यह साधना मौन रखने योग्य है, इसीको योगेश्वर
श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं मौन हूँ अर्थात् मौन साधना में मैं स्थित हूँ | ‘येनकेन
संतुष्ट’ का यह तात्पर्य नहीं कि जीवन निर्वाह को जो भी मिला वो खाया पिया और
साधना की अपितु इसका तात्पर्य यह है कि जीवन निर्वाह भोग पदार्थों के संग्रह को
नहीं अपितु इस प्रकार किया जाए कि साधना को अधिकाधिक समय मिले तथा वास स्थान में
आसक्तिरहित अर्थात् देही रूप से देह के प्रति आसक्तिरहित और देह रूप से अपने निवास
स्थान में भी आसक्तिरहित और स्थिरमति, मति अर्थात् बुद्धि नहीं अपितु बुद्धि नामक
यंत्र का विवेकपूर्ण उपयोग करने की उत्तम विधि से युक्त पुरुष ही, साधक ही भक्तिमय
है और वह मेरा प्रिय है |
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते |
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः
|| (१२/२०)
ये
तु धर्म अमृतम् इदम् यथा उक्तम् पर्युपासते |
श्रद्दधानाः
मत् परमाः भक्ताः ते अतीव मे प्रियाः || (१२/२०)
ये
(जो), तु
(परन्तु), धर्म
(धर्म), अमृतम्
(अमृत), इदम्
(इस), यथा
(जैसा), उक्तम्
(ऊपर कहे अनुसार), पर्युपासते
(परं भाव से भजते हैं) |
श्रद्दधानाः (श्रद्धा युक्त), मत् (मेरे), परमाः
(परायण), भक्ताः
(भक्तजन), ते
(वे), अतीव
(अतिशय), मे
(मेरे), प्रियाः
(प्रिय हैं) |
(१२/२०)
परन्तु
जो भक्तजन मेरे परायण श्रद्धायुक्त इस उपर्युक्त धर्ममय अमृत का परं भाव से सेवन
करते हैं, वे मेरे अतिशय प्रिय हैं | (१२/२०)
जैसे पुत्रधर्म की कसोटी पर खरा उतरने
वाला श्रवणकुमार आज भी पुत्रधर्म की पराकाष्ठा को प्राप्त समस्त माता पिता का
प्रिय है, जैसे धनुर्विद्या की पराकाष्ठा को प्राप्त अर्जुन द्रोण का प्रिय है, जैसे
निष्पाप अर्जुन कृष्ण का प्रिय है, उसी प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा
उपर्युक्त आठ श्लोकों में कहे गये धर्ममय अमृत का, कृष्णयोग का सेवन करनेवाले,
श्रद्धायुक्त हृदयस्थ ईष्ट के परायण साधक योगेश्वर श्रीकृष्ण को प्रिय हैं, अतिशय
प्रिय हैं |
इस धर्ममय अमृत का सेवन करनेवाले
कृष्णयोग परायण साधक को कभी भी परमार्थ मार्ग से च्युत होने का भय नहीं होगा,
क्योंकी यह अमृतमय वचन जिस योगेश्वर ने कहे हैं, उसी योगेश्वर ने साधकों के प्रति
यह प्रतिज्ञा भी की है कि ‘तेषाम् नित्यम् अभियुक्तानाम् योगक्षेमम् वहामि
अहम्’ उन नित्यरूप से मुझसे
युक्त जनों के योग के परिणाम की रक्षा मैं वहन करता हूँ | (९/२२) |
इस प्रकार बाहरवें अध्याय का समापन होता
है |
***** ॐ तत् सत् *****