** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
अष्टमोऽध्यायः
अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म
पुरुषोत्तम |
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ||
(८/१)
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन |
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ||
(८/२)
किम्
तत् ब्रह्म किम् अध्यात्मम् किम् कर्म पुरुषोत्तम |
अधिभूतम्
च किम् प्रोक्तम् अधिदैवम् किम् उच्यते || (८/१)
अधियज्ञः
कथम् कः अत्र देहे अस्मिन् मधुसूदन |
प्रयाण
काले च कथम् ज्ञेयः असि नियत आत्मभि || (८/२)
किम् (क्या),
तत् (वह),
ब्रह्म (ब्रह्म),
किम् (क्या),
अध्यात्मम् (अध्यात्म), किम् (क्या),
कर्म (कर्म),
पुरुषोत्तम (पुरुषोत्तम)| अधिभूतम् (अधिभूत से),
च (और),किम्
(क्या), प्रोक्तम्
(कहा गया), अधिदैवम् (अधिदैव),
किम्(क्या),
उच्यते(कहा जाता है)
| (८/१)
अधियज्ञः
(अधियज्ञ), कथम् (कैसे),
कः(कौन),
अत्र (यहाँ),
देहे(देह में),
अस्मिन्(इस),
मधुसूदन (मधुसूदन)
| प्रयाण (प्रयाण),
काले (काल में),
च (और),
कथम् (कैसे),
ज्ञेयः (जाने जाते),
असि(हैं),
नियत(संयमी),
आत्मभि (चित्तवाले)
| (८/२)
पुरुषोत्तम
! वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है ? अधिभूत से क्या कहा गया
है ? और अधिदैव से क्या कहा जाता है ? (८/१)
मधुसुदन
! यहाँ अधियज्ञ कौन है ? इस देह में कैसे है ? और प्रयाण काल में संयमी चित्तवालों
द्वारा (आप) कैसे जाने जाते हैं ? (८/२)
पिछले अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने
अपने समग्र रूप का वर्णन करते हुए कहा है कि जो सात्त्विक भाव ही है और जो राजस और
तामस भाव हैं, मुझसे ही हैं, उनको ऐसा जान, परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं
हैं |(७/१२) इन तीन गुणमयी भावों से यह समस्त जगत मोहग्रस्त होकर, इनसे परं
अर्थात् इनसे अतीत मुझ अविनाशी को नहीं जानता |(७/१३) क्योंकी यह गुणमयी मेरी दैवीमाया
बड़ी दुस्तर है, जो मुझको भजते हैं, वे इस माया को तरते हैं |(७/१४) और जो जरा मरण
से मुक्ति के लिये मेरे आश्रित होकर यत्न करते हैं, वे उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म
को और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं |(७/२९) जो मुझको अधिभूत और अधिदैव सहित और
अधियज्ञ सहित जानते हैं और वे युक्त चित्तवाले प्रयाण काल में भी मुझको जानते हैं
अर्थात् वे मेरे भाव को प्राप्त होते हैं |(७/३०)
तात्पर्य यह कि जो
योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार आत्मपरायण होकर संसार बंधन से मुक्ति का प्रयास
करते हैं, वे योगीजन (१) ब्रह्म, (२) अध्यात्म, (३) कर्म, (४) अधिभूत, (५) अधिदैव,
(६) अधियज्ञ सहित परमतत्त्व को जानते हैं तथा (७) प्रयाण काल में भी परमतत्त्व,
परं भाव को ही प्राप्त होते हैं | यहाँ अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण के इन्हीं
शब्दों को परिभाषित करने को, स्पष्ट करने को निवेदन करता है | इस पर योगेश्वर
श्रीकृष्ण कहते हैं कि
श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते |
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ||
(८/३)
अक्षरम्
ब्रह्म परमम् स्वभावः अध्यात्मम् उच्यते |
भूत
भावः उद्भव करः विसर्गः कर्म संज्ञितः || (८/३)
अक्षरम् (अक्षर),
ब्रह्म (ब्रह्म),परमम् (परम),
स्वभावः (स्वभाव), अध्यात्मम्
(अध्यात्म), उच्यते(कहलाता है)
| भूत (भूतोंके), भावः
(भाव को), उद्भव(उत्पन्न करनेवाले),
करः(कारणों का),
विसर्गः(विसर्जन),
कर्म (कर्म),
संज्ञितः(कहलता है)
| (८/३)
परम
अक्षर ब्रह्म है, स्वभाव अध्यात्म कहलाता है, भूतों के भाव को उत्पन्न करनेवाले
कारणों का विसर्जन कर्म कहलाता है | (८/३)
‘परं अक्षर ब्रह्म है’ जो प्रकृति से परे है, मन, बुद्धि और अहंकार की
पहुँच से परे है क्योंकी वह अव्यक्त, अचिन्त्य रूप है, वह अविनाशी, आदि, सनातन,
अव्यव्यय, अप्रेमस्य, अजन्मा, नित्य, कालातीत, गुणातीत, भावातीत आदि विभूतियों से
कहने योग्य है, जो सत, रज और तम आदि भावों से परे है, उत्पत्ति, परिवर्तन और प्रलय
से परे है, सम्पूर्ण जगत का आधार, आश्रय और मूल उदगम कारण है, जिसका कभी क्षय नहीं
होता, जो ऐसा अक्षरं अर्थात् परं अक्षय भाव है, वही परं अक्षर ब्रह्म है |
‘स्वभाव अध्यात्म कहलाता है’ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा
है कि जो सात्त्विक भाव ही है और जो राजस और तामस भाव हैं, मुझसे ही हैं, उनको ऐसा
जान, परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं | (७/१२) यह तीनों भाव योगेश्वर
श्रीकृष्ण के अनुसार उनसे ही हैं, परन्तु योगेश्वर इन भावों से अतीत हैं, भावातीत
हैं | लेकिन उन्हीं का सनातन अंश ‘जीवात्मा’ प्रकृति से तादाम्य कर, इन भावों से
भावित हो जाता है इन तीनों भावों के संयोग वियोग से ही, मिश्रण से ही मनुष्यों के
जो भाव होते हैं, उनके अनुरूप ही मनुष्यों में गुण उत्पन्न होते हैं और इन भावों
तथा इन भावों से उत्पन्न कार्यरूप गुणों के कारण ही मनुष्य जिन भावों से भावित
रहता है, उससे प्रत्येक मनुष्य के अपने भाव का अर्थात् मनुष्य के ‘स्व-भाव’ का
निर्माण होता है | जन्म जन्मान्तरों से इन भावों और इनके कार्यरूप गुणों से भावित
रहा मनुष्य, अपने शुभाशुभ कर्मों और कर्मफल को भोगता हुआ, इनके परवश हुआ, अपने ‘स्व-भाव’
के वश हुआ प्रकृति से बंधा रहता है |
प्रकृति से तादाम्य के कारण, प्रकृतिजन्य
सत, रज और तम भावों और उनके कार्यरूप गुणों के कारण अन्तकरण में स्थित मनुष्य का
यह स्वभाव वस्तुतः परमतत्त्व परमात्मा के परं भाव का ही विकृत रूप है | मनुष्य का
यह स्वभाव ही परिणाम में ब्रह्म स्वरूप है और जो विद्या इस स्वभाव को ज्ञात कराती
है, उसे अध्यात्मविद्या कहते हैं, यह विद्या ही ब्रह्म तत्त्व को साक्षात् कराती
है इसलिये इसे ब्रह्मविद्या भी कहते हैं तथा गीता शास्त्र इस ब्रह्मविद्या का,
अध्यात्मविद्या विद्या का सर्वोत्तम स्त्रोत है | गीता शास्त्र ना तो पंचभोतिक देह
के रूपांतरण का शास्त्र है और ना ही इससे परमात्मा की परा प्रकृति के चेतन तत्त्व
का रूपांतरण होता है, गीता शास्त्र तो मनुष्यों के ‘भाव’ के रूपांतरण का
शास्त्र है | तात्पर्य यह कि प्रकृतिजन्य भाव और उनके कार्यरूप गुण परिवर्तनशील
हैं, मनुष्यों के प्रयास स्वरूप इनका उत्कर्ष अपकर्ष होता ही रहता है और जो पुरुष परमात्मा
के आश्रय होकर, योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार योगपरायण होते हैं, यज्ञार्थ
कर्मों के आचरण स्वरूप उनके ‘स्व-भाव’ का उर्ध्वमुखी उत्थान होता है और अंततः
परिणाम स्वरूप उन्हें ‘परं-भाव’ की,
परमात्मा तत्त्व की प्राप्ति होती है |
सारांशतः मनुष्य का ‘स्व-भाव’ ही परिणाम
में ‘परं-भाव’ है, ब्रह्म स्वरूप है, इस स्वभाव पर आधिपत्य दिलानेवाली विद्या ही
ब्रह्मविद्या, अध्यात्मविद्या है और स्वभाव अध्यात्म कहलाता है |
‘भूतों के भाव को उत्पन्न करनेवाले
कारणों का विसर्जन कर्म कहलाता है’ भूतों के अर्थात्
शरीरधारियों के यह जो प्रकृतिजन्य सत, रज और तम भाव हैं, मूलरूप से यही भाव मनुष्य
के संसार बंधन का कारण हैं, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि इन तीन
गुणमयी भावों से यह समस्त जगत मोहग्रस्त होकर, इनसे परं अर्थात् इनसे अतीत मुझ
अविनाशी को नहीं जानता | (७/१३) और जो परमात्मा को जान लेता है, वह इन भावों से
भावित नहीं होता,इनसे अतीत हो जाता है तथा मनुष्य के इन भावों को उत्पन्न करने में
जो मूल कारण है, वह मनुष्य का परमात्मा की इस प्रकृति से तादाम्य है, जीवात्मा को
इस प्रकृति की यह देन ‘देह’ ही ‘देही’ के बंधन का कारण है | ‘देही’ का अष्टधामूल
प्रकृति से बनी इस ‘देह’ से तादाम्य ही इसके बंधन का कारण है | अष्टधामूल प्रकृति
की यह ‘देह’ ही ‘देही’ को इन सत, रज और तम भावों से भावित रखती है | अतः भूतों के
भाव को उत्पन्न करनेवाले कारणों का विसर्जन अर्थात् ‘देही’ का ‘देहमुक्त’ होने का
बोध, जिन चेष्टाओं के परिणाम स्वरूप होता है, जिन यज्ञार्थ कर्मों के परिणाम स्वरूप
होता है, वह ‘कर्म’ कहलाता है | जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘यज्ञ
अर्थात् कर्मणः अन्यत्र लोकः अयम् कर्म बन्धनः | (३/९) यज्ञ के निमित्त
कर्मों के अन्यत्र समस्त कर्म इस लोक का बंधन हैं | इन यज्ञार्थ कर्मों को ही
योगेश्वर श्रीकृष्ण गीता शास्त्र में ‘कर्म’ कहते हैं, जिसके कारण भूतों के भाव को
उत्पन्न करने वाले कारणों का विसर्जन होता है, देहमुक्त भाव की प्राप्ति और अंततः
परमात्मा का साक्षात्कार होता है |
अधिभूतं
क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् |
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर || (८/४)
अधिभूतम्
क्षरः भावः पुरुषः च अधिदैवतम् |
अधियज्ञः
अहम् एव अत्र देहे देह भृताम् वर || (८/४)
अधिभूतम्
(अधिभूत),
क्षरः(क्षर),
भावः(भाव),
पुरुषः(पुरुष),
च(और),
अधिदैवतम्(अधिदैव) | अधियज्ञः(अधियज्ञ),
अहम् (मैं),
एव (ही),
अत्र (इस),
देहे(देह में),
देह(देह),
भृताम् (धारियों में),
वर (श्रेष्ठ)
| (८/४)
क्षर
भाव अधिभूत है और पुरुष अधिदैव है | देहधारियों में श्रेष्ठ ! इस देह में मैं ही
अधियज्ञ हूँ | (८/४)
‘क्षर भाव अधिभूत है’ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने
सर्वप्रथम अर्जुन को सांख्यदर्शन से देह-देही के भेद को स्पष्ट करते हुए कहा है कि
अविनाशी, अप्रमेय और नित्यस्वरूप इस देही की यह देह अन्त को प्राप्त होने वाली कही
गयी है | (२/१८) यह देह अन्त को प्राप्त होने वाली है अर्थात् अष्टधामूल प्रकृति
से निर्मित इस देह का प्रकृति के समान उत्पत्ति, परिवर्तन और प्रलय होता है, इस
देह की कौमार्य, युवा और वृद्धावस्था होती है और यह अन्त को प्राप्त होती है
अर्थात् इस देह के पंचभूत पुनः प्रकृति में लीन हो जाते हैं | अतः देह का जो भाव
है, वह नाशवान भाव है, उसका अन्त होता है, अन्त को प्राप्त होनेवाले समस्त भाव ‘क्षर
भाव’ कहलाते हैं, सारांशतः देही का यह देह भाव अर्थात् देह से तादाम्य, जिसमे देही
निवास करता है, क्षर भाव है, इसीको को योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि क्षर
भाव अधिभूत है | इस देह भाव को ही क्षर पुरुष, देह, शरीर, इस व्यक्त भाव के कारण इसको
व्यक्ति, इस भाव का बन्धन मन के आश्रय रहने से होता है, इसलिये मनुष्य आदि नामों
से भी जाना जाता है परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण का यहाँ इसे विशेष रूप से ‘क्षर भाव
अधिभूत है’, ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि इस नाशवान भाव से मनुष्य का जब तक
तादाम्य रहेगा, मनुष्य भी नाशवान भाव को, आवागमन को प्राप्त होता रहेगा | इसलिये
जरा और मरण से मुक्त होने को यत्नशील योगी इस अधिभूत से, क्षर भाव से, देहाभिमान
से भावित नहीं होते |
‘पुरुष अधिदैव है’ परमात्मा के सनातन अंश का
जीवरूप बंधन जीवात्मा है, देह में रहने के कारण देही, शरीर कहने के कारण शरीरी और
अष्टधामूल प्रकृति से निर्मित नवद्वार रूपी पुर में रहने के कारण इसे पुरुष कहते
हैं तथा प्रकृति के सत, रज और तम भावों से भावित होकर, उन भावों के कार्यरूप गुणों
के कारण, अपने स्वभाव के कारण, यह पुरुष जो संसार बंधन को, आवागमन को प्राप्त होता
है, उसमें हेतु ‘दैव’ है, दैव अर्थात् पूर्वजन्मों के शुभाशुभ कर्मों के परिणाम
स्वरूप कर्मफलों की जो प्राप्ति है, इन कर्मफलों के संधात का नाम ‘दैव’ है और
पुरुष इन कर्मफलों को भोगने हेतु, इस ‘दैव’ के कारण ही अधिभूत को धारण करने को
परवश है, इसलिये इसे ‘अधिदैव’ कहते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण का पुरुष को अधिदैव
कहने से तात्पर्य भी यही है कि योगपरायण योगी को इस तथ्य का सदैव स्मरण बना रहे कि
कर्मफल में आसक्ति के कारण ही उत्पन्न यह ‘दैव’ उसके बंधन का कारण है | यह पुरुष
ही अधिदैव, देही, शरीरी, अक्षर पुरुष और जीवात्मा आदि नामों से जाना जाता है |
‘इस देह में मैं ही अधियज्ञ हूँ’ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा
है कि ‘अहमात्मा
गुणाकेश
सर्वभूताशयस्थितः’ (१०/२०) अर्थात्
समष्टि रूप परमात्मा का इस
देह में यह व्यष्टि रूप आत्मा मैं ही हूँ और समस्त भूतों में स्थित हूँ तथा अध्याय
तीन में यज्ञार्थ कर्मों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने
स्पष्ट किया है कि ‘तस्मात् सर्व गतम् ब्रह्म नित्यम् यज्ञे प्रतिष्ठितम्’ (३/१५,उ०) सर्वव्यापी ब्रह्म नित्य
ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है और संसार बंधन के, कर्मबंधन के नाश को यज्ञार्थ कर्मों
के आचरण की अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘यज्ञ के निमित्त कर्मों से
अन्यत्र समस्त कर्म इस लोक का बंधन है’ (३/९) तात्पर्य यह कि जरा और मरण से मुक्ति
के लिये योगीजन जिन यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करते हैं, उन यज्ञ का भोक्ता अर्थात् जिसमें
योगियों के समस्त यज्ञ विलय हो जाते हैं, ऐसा समस्त देहों में स्थित सबका आत्मा और
नित्य ही यज्ञ में प्रतिष्ठित सर्वव्यापी ब्रह्म मैं ही हूँ, सारांशतः योगियों के
यज्ञों का भोक्ता मैं ही हूँ, जिसमें योगियों के यज्ञों का विलय होता है, वह मैं
ही हूँ, और योगियों को इन यज्ञों के परिणाम की प्राप्ति भी मैं ही हूँ, इस देह में
मैं ही अधियज्ञ हूँ |
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः
|| (८/५)
अन्त
काले च माम् एव स्मरन् मुक्त्वा कलेवरम् |
यः
प्रयाति स: मत् भावम् याति न अस्ति अत्र संशयः ||
(८/५)
अन्त (अन्त),
काले(काल में),
च (और), माम्
(मुझको),
एव (ही),
स्मरन् (स्मरण करता हुआ),
मुक्त्वा (मुक्त होता है),
कलेवरम् (देह रूपी आवरण)
| यः (जो), प्रयाति
(जाता है), स: (वह)
मत् (मेरे), भावम् (भाव को),
याति (प्राप्त होता है), न
(नहीं), अस्ति
(है), अत्र (इसमें),
संशयः (संशय)
| (८/५)
और
जो अन्त काल में मुझको ही स्मरण करता हुआ देहरूपी आवरण से मुक्त होता है, वह मेरे
भाव को प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है | (८/५)
जो अन्तकाल में मुझको ही स्मरण करता हुआ
देहरूपी आवरण से मुक्त होता है | योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस व्यक्तव्य में
‘अन्तकाल’, ‘मुझको ही स्मरण करता हुआ’ और ‘देहरूपी आवरण से मुक्त होना’ इन तीन तथ्यों
का समावेश है |
इन तीनों तथ्यों पर पहले एक मनन |
योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार समभाव, समबुद्धि से युक्त जीवन निर्वाह करता
हुआ साधक पाप को अर्थात् नये कर्मबंधन को प्राप्त नहीं होता तथा जीवन यात्रा की
सिद्धि हेतु समभाव से युक्त साधक जब यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करता है, तब इस
योगपरायण साधक को योग संसिद्ध काल में, अर्थात् अनन्य भाव से एक हृदयस्थ परमात्मा
का स्मरण करता हुआ, योग संसिद्ध काल में जब परमात्मा का साक्षात्कार होता है |
परमात्मा का साक्षात्कार अर्थात् वह परं भाव को प्राप्त होता है तथा यह प्राप्ति
जीते जी की है, मृत्यु के उपरान्त किसी परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता | जिस
काल में योगपरायण साधक परं भाव को, परं ब्रह्म को, परमात्मा को साक्षात् करता है,
वह क्षण काल का अन्त है, ‘अन्त काल’ है, यही शुद्ध अन्तकाल है | उसी क्षण वह पुरुष
काल के तत्त्व से मुक्त होकर, संसार बंधन से मुक्त होकर, दैवीमाया से मुक्त होकर,
आत्ममाया में, योगमाया में प्रवेश पा जाता है | वह स्व-भाव से मुक्त होकर परं-भाव
में स्थित हो जाता है, योगमाया में स्थित हो जाता है और यही ‘मुक्त्वा कलेवरम्’ अर्थात्
देह मुक्त योगी की स्थिति है, देह मुक्ति है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने
कहा है कि ‘पार्थ ! यह ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त करके
पुरुष कभी मोहित नहीं होता, इसमें स्थित होकर अन्तकाल में भी ब्रह्म निर्वाण को
प्राप्त होता है अर्थात् जब तक प्रारब्धवश प्राप्त शरीर है, तब तक उसका निर्वाह
करता है और मृत्यु के पश्चात् देहान्तर को प्राप्त ना होकर ब्रह्म निर्वाण को
प्राप्त होता है |(२/७२) जिस काल में पुरुष ब्रह्म की स्थिति को
पाता है, परं भाव को पाता है, वही अन्त काल है, देहरूपी आवरण से मुक्ति है,
देहमुक्त अवस्था है |
अन्यथा जिसे शरीर का निधन अथवा मृत्यु
कहते हैं, ऐसा लोकप्रचलित शरीर का अन्त वस्तुतः शुद्ध अन्तकाल अथवा प्रयाणकाल नहीं
है, जिस काल देह का अन्त होता है, वह तो देहान्तर काल है क्योंकी इस क्षण के
पश्चात् भी, इस काल के पश्चात् भी शरीरों का क्रम तो लगा ही रहता है, काल के
सापेक्ष में आप एक शरीर का त्याग कर दूसरा शरीर पाते ही रहते हैं, आपके लिये काल
का अन्त नहीं हुआ है, तो यह ‘अन्तकाल’ कैसे हुआ ? शुद्ध अन्तकाल तो वही है, जब आप
काल और भाव के बंधन का भी उलन्घन कर जाते है, कालातीत हो जाते हैं, भावातीत हो
जाते हैं |
अब योगेश्वर श्रीकृष्ण का यह व्यक्तव्य
स्वयं सिद्ध है कि जो अन्त काल में मुझको ही स्मरण करता हुआ देहरूपी आवरण से मुक्त
होता है, वह मेरे भाव को प्राप्त होता है, अर्थात् परं भाव को प्राप्त होता है,
इसमें संशय नहीं है | परं भाव की प्राप्ति और देह मुक्ति एक ही सिक्के के दो पहलु
हैं, अगर आपको परं भाव की प्राप्ति नहीं हुई तो देह के आवरण से भी मुक्ति नहीं
होती | इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ||
(८/६)
यम्
यम् वा अपि स्मरन् भावम् त्यजति अन्ते कलेवरम् |
तम्
तम् एव एति कौन्तेय सदा तत् भाव भावितः || (८/६)
यम्
(जिस), यम्
(जिस), वा
(अथवा), अपि (भी),
स्मरन् (स्मरण करता हुआ), भावम् (भाव),
त्यजति (त्यागता है),
अन्ते (अन्त में),
कलेवरम् (देह रूपी आवरण) |
तम् (उस), तम् (उस),
एव (ही), एति
(प्राप्त करता है), कौन्तेय
(कौन्तेय), सदा
(सदा), तत्
(उस), भाव
(भाव से), भावितः
(भावित रहा है) |
(८/६)
अथवा
अन्त में जिस जिस भाव का भी स्मरण करता हुआ देहरूपी आवरण का त्याग होता है |
कौन्तेय ! उस उस (भाव को ही) प्राप्त करता है, (क्योंकी) उस भाव से भावित रहा है |
(८/६)
पूर्व श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने
‘अन्तकाले’ तथा ‘मुक्त्वा कलेवरम्’ कहा है और इस श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण
‘अथवा’ कहते हुए ‘त्यजति अन्ते कलेवरम्’ कहते हैं | तात्पर्य यह कि परमात्मा का
स्मरण करते हुए अन्तकाल की अर्थात्
देहमुक्ति की, परं भाव की प्राप्ति जीते जी की प्राप्ति है अगर योगपरायण साधक
‘अथवा’ अन्य कोई भी जीते जी इस देहमुक्ति को प्राप्त नहीं होता, उसके स्व-भाव का
पूर्णतया रूपांतरण नहीं होता, परं भाव की प्राप्ति नहीं होती, तब उस अवस्था को
प्राप्त साधक अथवा अन्य किसी भी पुरुष के लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘त्यजति
अन्ते कलेवरम्’ अन्त में अर्थात् जब यह
शरीर इतना जीर्ण शीर्ण हो जाता है कि अन्त में इसका त्याग करना ही पड़ता है, उस देहान्तर
काल में पुरुष जिस जिस भाव का स्मरण करता हुआ देहरूपी आवरण का, उसके जीर्ण शीर्ण
होने के कारण त्याग करता है, देहान्तर के उपरान्त उस भाव को ही प्राप्त होता है और
इसके कारण को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर एक प्राकृतिक सिद्धांत की व्याख्या करते
हैं कि वह पुरुष उस उस भाव को ही क्यों प्राप्त होता है ? क्योंकी ‘सदा
तत् भाव भावितः’ वह सदा ही उस भाव से भावित
रहा है | इसलिये देहान्तर उपरान्त भी उसी भाव को ही प्राप्त होता है और इसी
सिद्धांत के अनुरूप पूर्व श्लोक में भी जो कहा वो तथ्य स्वतः ही सिद्ध हो जाता है
कि जो अन्त काल में मुझको ही स्मरण करता हुआ देहरूपी आवरण से मुक्त होता है, वह
मेरे भाव को, परं भाव को प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है |
पुरुष जिस जिस भाव का भी स्मरण करता हुआ
देहान्तर को प्राप्त होता है, देहान्तर उपरान्त उस उस भाव को ही प्राप्त होता है
क्योंकी वह सदा ही उस भाव से भावित रहा है | योगेश्वर के इस व्यक्तव्य पर एक मनन
कि इसका जीवन यात्रा में तात्पर्य क्या है ? योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार सात्विक
भाव में स्थित पुरुष स्वर्गादिक, उच्च निर्मल और पवित्र लोकों को जाते हैं, राजस
भाव में स्थित पुरुष ‘मध्ये’ अर्थात् इस मनुष्य लोक में ही विचरण करते हैं और
निन्दनीय गुणों में स्थित तामसी भाव से भावित पुरुष ‘अधः’ अर्थात् अधम योनियों में
किट पतंग, पशु आदि नीच योनियों में अथवा नरक आदि को प्राप्त होते हैं | (१४/१८)
परन्तु इन सभी से गीता शास्त्र का कोई भी संबंध नहीं है, आपको स्वर्ग की प्राप्ति
हो अथवा नरक की, आप संसार चक्र में ही तो भ्रमण कर रहे हैं, आवागमन को, संसार
बन्धन को, देह बंधन को, भाव बंधन को ही तो प्राप्त होते हैं | इस बंधन से अतीत
होने हेतु अर्जुन को दिशा निर्देश देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ||
(८/७)
तस्मात्
सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर युध्य च |
मयि
अर्पित मनः बुद्धिः माम् एव एष्यसि असंशयम् || (८/७)
तस्मात्
(इसलिये), सर्वेषु (सब),
कालेषु (काल में),
माम् (मुझको), अनुस्मर
(स्मरण कर), युध्य
(युद्ध), च
(और) |
मयि (मुझमें), अर्पित
(अर्पित, समर्पित), मनः
(मन), बुद्धिः
(बुद्धि), माम्
(मुझको), एव
(ही), एष्यसि
(प्राप्त करोगे), असंशयम्
(निःसंदेह) |
(८/७)
इसलिये
सब काल में मुझको स्मरण कर और युद्ध कर, मुझमें समर्पित मन (और) बुद्धि से
निःसंदेह मुझको ही प्राप्त
करोगे
| (८/७)
इसलिये सब काल में मुझको स्मरण कर और
युद्ध कर | कैसे करें ? जय कन्हैयालाल की कहते रहें और तीर चलाते रहें ? ऐसा नहीं
है | वस्तुतः गीता शास्त्र में वर्णित यह युद्ध कुरुक्षेत्र की युद्धस्थली में लड़ा
गया युद्ध नहीं है, यह तो हृदयदेश में दैवी सम्पदा और आसुरी सम्पदा का युद्ध है |
दैवी सम्पदा का अर्जन और संचय करना ही योगपरायण साधक का प्रथम यज्ञार्थ कर्म है,
यह दैवी सम्पदा ही आसुरी सम्पदा का नाश करके, प्रकृतिजन्य भावों के कारण उत्पन्न
काम क्रोध आदि का नाश करती है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘भूतों
के भाव को उत्पन्न करनेवाले कारणों का विसर्जन कर्म कहलाता है’ वह कर्म ही यहाँ
युद्ध रूप से कहा गया है | इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण का अर्जुन को और अर्जुन के
माध्यम से समस्त योगपरायण साधकों को स्पष्ट दिशा निर्देश है कि सब काल में मुझको
स्मरण करो और युद्ध करो, मुझमें समर्पित मन और बुद्धि से निःसंदेह मुझको ही
प्राप्त करोगे क्योंकी यह प्राकृतिक सिद्धांत है कि आप उसी भाव को प्राप्त होगे
जिससे आप सदा भावित रहते हो | इसकी प्राप्ति हेतु योगेश्वर श्रीकृष्ण अगले तीन
श्लोकों में अर्जुन को कहते हैं कि
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना |
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ||
(८/८)
अभ्यास
योग युक्तेन चेतसा न अन्य गामिना |
परमम्
पुरुषम् दिव्यम् याति पार्थ अनुचिन्तयन् || (८/८)
अभ्यास
(अभ्यास द्वारा), योग
(योग से), युक्तेन
(युक्त हुआ), चेतसा
(चित्त से), न
(नहीं), अन्य
(अन्यत्र), गामिना
(गमन करता हुआ) |
परमम् (परम), पुरुषम्
(पुरुष को), दिव्यम्
(दिव्य), याति
(प्राप्त करता है), पार्थ
(पृथा पुत्र), अनुचिन्तयन्
(निरन्तर चिन्तन करता
हुआ) |
(८/८)
पार्थ
! अभ्यास द्वारा योग से युक्त हुआ, अन्यत्र गमन ना करनेवाले चित्त से निरन्तर
चिंतन करता हुआ (योगी) परं दिव्य (अलौकिक) पुरुष को प्राप्त होता है | (८/८)
अभ्यास द्वारा योग से युक्त हुआ, अर्जुन
ने कहा था कि मन के चंचल होने के कारण यह जो समभाव से युक्त होकर योग आपने कहा है,
उसमें मैं अपनी स्थिति नित्य नहीं देखता, अर्जुन के उसी संशय को ध्यान में रखते
हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण उसे कहते हैं कि अभ्यास द्वारा योग से युक्त हुआ, अन्यत्र
गमन ना करनेवाले चित्त से अर्थात् हृदयस्थ ईष्ट के प्रति एकनिष्ठा से युक्त होकर,
अनन्य भाव से नित्य निरन्तर चिंतन करता हुआ योगी परं दिव्य, परं अलौकिक पुरुष को
अर्थात् अपने विशुद्ध स्वरूप को, जो अष्टधामूल प्रकृति से परे एवं दिव्य है,
अलौकिक है, इस लोक का नहीं है, उसे देह बंधन नहीं है, प्रकृतिजन्य भावों से भावित
नहीं है, ऐसे परंभाव को, दिव्यभाव को प्राप्त होता है |
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः
|
सर्वस्य धातारमचिंत्यरूपमादित्यवर्णं तमसः
परस्तात् || (८/९)
कविम्
पुराणम् अनुशासितारम् अणोः अणीयांसम् अनुस्मरेत् यः |
सर्वस्य
धातारम् अचिन्त्य रूपम् आदित्य वर्णम् तमसः परस्तात् || (८/९)
कविम्
(सर्वज्ञ), पुराणम्
(आदि), अनुशासितारम्
(नियन्ता), अणोः
(अणु की तुलना में), अणीयांसम्
(अणु से भी सूक्ष्म), अनुस्मरेत् (स्मरण करता है),
यः (जो) |
सर्वस्य (सबको), धातारम्
(धारण करनेवाला), अचिन्त्य
(अचिन्त्य), रूपम्
(रूप), आदित्य
(आदित्य), वर्णम्
(वर्णवाला), तमसः
(तमस से), परस्तात्
(अत्यंत परे) |
(८/९)
जो
सर्वज्ञ, आदि, नियन्ता, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबको धारण करनेवाले, अचिन्त्य
रूप, आदित्य वर्णवाले, तमस से अत्यंत परे का स्मरण करता है | (८/९)
यह सभी विभूतियाँ उस एक अक्षरः परं
ब्रह्म को इंगित करते हुए कही गयी हैं अर्थात् जो अन्य अन्य देवतओं का स्मरण ना
करते हुए उस एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित होता है, उसी का स्मरण करता है |
ऐसा पुरुष -
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन
चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं
पुरुष्मुपैति दिव्यम् || (८/१०)
प्रयाण
काले मनसा अचलेन भक्त्या युक्तः योग बलेन च एव |
भ्रुवोः
मध्ये प्राणम् आवेश्य सम्यक् सः तम् परम् पुरुषम् उपैति दिव्यम् || (८/१०)
प्रयाण
(प्रयाण), काले
(काल में), मनसा
(मन से), अचलेन
(अचल रूप), भक्त्या
(भक्तिभाव से), युक्तः
(युक्त होकर), योग (योग), बलेन(बल द्वारा), च(और), एव(ही) |
भ्रुवोः(भृकुटी के), मध्ये
(मध्य में), प्राणम्
(प्राण को), आवेश्य
(स्थित करके), सम्यक्
(पूर्णतया), सः
(वह), तम्
(उस), परम्(परम), पुरुषम्(पुरुष को), उपैति
(प्राप्त करता है), दिव्यम्
(दिव्य) |
(८/१०)
प्रयाण
काल में अविचलित मन से, भक्तिभाव से युक्त होकर और योगबल द्वारा ही प्राण को सम्यक
रूप से भृकुटी के मध्य में स्थित करके वह उस परं दिव्य (अलौकिक) पुरुष को प्राप्त
होता है | (८/१०)
‘प्रयाणकाले’ अर्थात् उस काल में जिस काल
में योग सिद्ध होता है, काल के तत्त्व का बंधन समाप्त हो जाता है, उस काल में अविचलित
मन से अर्थात् उस काल में मन वायुरहित स्थान में दीपक की लौ की तरह अविकम्पित रूप
से स्थिर होता है तथा भक्तिभाव से युक्त होकर अर्थात् उस योगपरायण साधक का
सम्पूर्ण भाव उस एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित होकर, प्रकृतिजन्य भावों से
उपराम होता है और योगबल द्वारा ही अर्थात् पूर्व श्लोक में कहे अभ्यासपूर्वक योग
से युक्त होने के सामर्थ्य द्वारा प्राण को सम्यक रूप से भृकुटी के मध्य स्थित
करके अर्थात् प्राणायाम परायण होकर उस परं दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है |
योगेश्वर श्रीकृष्ण अब अगले तीन श्लोकों
में अर्जुन को प्राणायाम परायण होने के लिये आवश्यक दिशा निर्देश देते हुए कहते
हैं | कि
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो
वीतरागाः |
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं
सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये || (८/११)
यत्
अक्षरम् वेद विदः वदन्ति विशन्ति यत् यतयः वीत रागाः |
यत्
इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति तत् ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये || (८/११)
यत्
(जिस), अक्षरम्
(परं ब्रह्म), वेद
(वेद), विदः
(विद्वान), वदन्ति
(कहते हैं), विशन्ति
(प्रवेश), यत्
(जिस), यतयः
(यतिजन), वीत (परे), रागाः (राग द्वेष से), |
यत् (जिस), इच्छन्तः
(इच्छा से), ब्रह्मचर्यम् (ब्रह्मचर्य का),
चरन्ति (आचरण करते हैं), तत्
(उस), ते
(तेरे लिये), पदम्
(पद को), सङ्ग्रहेण
(संक्षेप में), प्रवक्ष्ये
(कहूँगा) |
(८/११)
जिस परं ब्रह्म को वेद को जाननेवाले कहते हैं, जिसमें रागद्वेष से
परे यतिजन प्रवेश करते हैं, जिसकी इच्छा से ब्रह्मचर्य का आचरण करते है, तेरे लिये
उस पद को संक्षेप में कहूँगा | (८/११)
जिस परं ब्रह्म को वेद को
जाननेवाले कहते हैं अर्थात् जिन्होंने स्वयं चलकर, योगपरायण होकर परं ब्रह्म को
‘वेद’ अर्थात् विदित करा है और उस विदित ब्रहमानंद को कहते हैं तथा जिसमें
रागद्वेष से परे यतिजन प्रवेश करते हैं, तात्पर्य यह कि जो रागद्वेष से परे होगा,
द्वन्द्वात्मक भावों से परे होगा, प्रकृतिजन्य भावों से परे होगा, वही उसमे
अर्थात् परंभाव में प्रवेश पाते हैं और योगपरायण साधक जिन्होंने अभी परंभाव में
प्रवेश नहीं पाया है, ऐसे योगपरायण साधक जिस परंभाव की इच्छा से ब्रह्मचर्य का
आचरण करते हैं, ब्रह्मचर्य अर्थात् जननेन्द्रिय संयम नहीं अपितु ‘ब्रह्म आचरति स
ब्रह्मचारी’ जो परंभाव की प्राप्ति की इच्छा से जिस परंब्रह्म को वेद को जाननेवाले
कहते हैं, जिस परंभाव की अनुभूति का वर्णन करते हैं, जिस ब्रह्म आनंद का वर्णन
करते हैं, उसके अनुरूप आचरण करना ही ब्रह्मचर्य का आचरण करना है | वह परंभाव, वह
पद तेरे लिये संक्षेप में कहूँगा |
अगले दो श्लोकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण
अर्जुन को प्राणायाम परायण होने की विधिविशेष का वर्णन करते हैं, जिसके लिये
योगेश्वर श्रीकृष्ण का स्पष्ट निर्देश है कि प्रत्येक साधक को अपने गुणों के
अनुसार ही कर्मों में प्रवृत होना चाहिये, इन प्रचलित यज्ञों में से अपने स्वभाव
के अनुसार ही योग्य यज्ञ का अनुष्ठान कारण चाहिये | क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण
कहते हैं कि चातुर्वर्ण्यं
मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः, (४/१३) चारों वर्ण गुण और कर्म के अनुसार हैं, इसलिये
अपने वर्ण के अनुसार ही साधक को अपने योग्य यज्ञ में प्रवृत होना चाहिये | इसके
लिये ही योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया है और यह भी
स्पष्ट कहा है कि तुम तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर उनके शरणागत होकर सेवा करो,
तत्पश्चात भलीभाँति प्रश्न करने से वे तत्त्वदर्शी ज्ञानीजन तुझे ज्ञान में
दीक्षित करेंगे, साधना पथ पर चलाएंगे | (४/३४)
योगेश्वर श्रीकृष्ण का निश्चित किया हुआ
मत है कि साधक को अपने स्वभाव के, गुणों के, वर्ण के अनुसार ही कर्मों का अनुसरण
करते हुए जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु स्वधर्म के अनुसार ही यज्ञों
का अनुष्ठान करना चाहिये | इस तथ्य को पुनः बल देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते
हैं कि अपने अपने स्वभाव में पायी जानेवाली योग्यता के अनुसार ही कर्मों में लगा
हुआ,जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्तिरूपी परमसिद्धि को प्राप्त होता है
(१८/४५ पु०) तथा जिस परमात्मा से समस्त भूतों की उत्पत्ति हुई है, जिससे यह
सम्पूर्ण जगत व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा, यज्ञार्थ
कर्मों, यज्ञों द्वारा अर्चन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है | (१८/४६) इसी सिद्धांत के अनुसार यहाँ
अगले दो श्लोकों में अर्जुन को प्राणायाम परायण होने हेतु एक विधिविशेष का वर्णन
करते हुए कहते हैं | कि
सर्वद्वाराणि
संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूध्न्यार्धायात्मनः प्राणमास्थितो
योगधारणाम् || (८/१२)
सर्व
द्वाराणि संयम्य मनः हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्नि
आधाय आत्मनः प्राणम् आस्थितः योग धारणाम् || (८/१२)
सर्व
(समस्त), द्वाराणि
(द्वारों का), संयम्य
(संयम करके), मनः
(मन का), हृदि
(हृदय में), निरुध्य
(निरोध करके), च (और)
| मूर्ध्नि (मस्तक में), आधाय (स्थापित करके), आत्मनः
(स्वयं के), प्राणम्
(प्राण को), आस्थितः
(स्थित होकर), योग
(योग), धारणाम्
(धारण करते हुए) |
(८/१२)
समस्त
द्वारों का संयम करके और मन का हृदय में निरोध करके, योग धारण करते हुए स्थिर
होकर, स्वयं के प्राण को मस्तक में स्थापित करके | (८/१२)
समस्त द्वारों का संयम करके अर्थात् इस देह के नवद्वारों का संयम करके और मन का
हृदय में निरोध करके अर्थात् इन्द्रियों और इन्द्रियों के संधात मन का हृदय में
निरोध करके, मन का निरोध बुद्धि से नहीं होता अपितु सदैव विषयों में विचरण
करनेवाले मन को ध्यान द्वारा हृदय में ही धरा जाता है, इसलिये समस्त इन्द्रियों और
मन को संयमित करके, एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति श्रद्धा और भक्तिभाव से समर्पित
करके, योग धारण करते हुए स्थिर होकर अर्थात् जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में
कहा है कि योगीजन अपानवायु को प्राणवायु में हवन करते हैं ऐसे ही प्राणवायु को
अपानवायु में हवन करते हैं | प्राणवायु और अपानवायु की गति को रोककर प्राणायाम
परायण होते हैं | (४/२९) इस प्रकार योग धारण करते हुए स्थिर होकर,
स्वयं के प्राण को मस्तक में स्थिर करके अर्थात् ‘चक्षुः भ्रुवोः अन्तरे’ तथा ‘नास
अभ्यन्तर चारिणौ प्राण अपानौ समौ
कृत्वा’ अर्थात् श्लोक संख्या
(५/२८) में वर्णित पद्धति के अनुसार योग में स्थित होकर |
साधकों से निवेदन है कि आगे अध्ययन करने से पूर्व
एकबार श्लोक संख्या (४/२९) तथा (५/२८) में जो मनन हमने किया था, उसकी पुनरावृत्ति
कर लें |
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||
(८/१३)
ओम्
इति एक अक्षरम् ब्रह्म व्याहरन् माम् अनुस्मरन् |
यः
प्रयाति त्यजन् देहम् सः याति परमाम् गतिम् || (८/१३)
ओम्
(ॐ), इति
(इतना ही), एक
(एक), अक्षरम्
(अक्षर रूप), ब्रह्म
(ब्रह्म का), व्याहरन्
(उच्चारण करते हुए), माम्
(मुझको), अनुस्मरन्
(स्मरण करते हुए) |
यः (जो), प्रयाति
(जाता है), त्यजन्
(त्यागकर), देहम्
(देह का), सः
(वह), याति
(प्राप्त करता है), परमाम्
(परम), गतिम्
(गति को) |
(८/१३)
‘ॐ’
इतना ही, एक अक्षय ब्रह्म का उच्चारण करते हुए, मुझको स्मरण करते हुए, जो देह का
त्यागकर जाता है, वह परंगति को प्राप्त करता है | (८/१३)
‘ओम् इति’ ॐ केवल इतना ही उच्चारण करते
हुए, ‘ॐ’ जिससे आदिकाल में ब्राह्मणत्व, ब्राह्मण जाति नहीं अपितु यज्ञार्थ कर्मों
द्वारा प्राप्त ब्राह्मणत्व, वेद और यज्ञार्थ कर्म अर्थात् यज्ञ रचे गये |
(१७/२३,उ०) तथा सर्वव्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है | (३/१५,उ०)
इसलिये परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति को जो भी विधान है, वह ‘ॐ’ से है तथा ‘ॐ’
ही अक्षय ब्रह्म का परिचायक है | इसलिये ‘ॐ’ केवल इतना ही मानसिक उच्चारण करते हुए
तथा मुझे स्मरण करते हुए अर्थात् जैसा पूर्व श्लोक में कहा है कि स्वयं के प्राण
को मस्तक में स्थिर करके अर्थात् प्रत्येक श्वास प्रश्वास के साथ ‘ॐ’ का उच्चारण
करते हुए और मेरे स्वरूप का, हृदयस्थ ईष्ट के स्वरूप का स्मरण करते हुए, जो देह का
त्यागकर जाता है, वह परमगति को प्राप्त करता है |
यहाँ हमने जैसे मनन किया
कि जो देह का त्यागकर जाता है, इसके विपरीत लगभग सभी व्याख्याकार यह कहते
हैं कि जो देह को त्यागकर जाता है, वह परमगति को प्राप्त करता है | परन्तु
मेरा अपना अनुभव यह है कि देह का त्याग
किये बिना, देहमुक्त हुए बिना, परमभाव को प्राप्त किये बिना, जो कि जीते जी की
प्राप्ति है कोई भी योगी परमगति को प्राप्त नहीं होता | मेरे अनुभव में देहमुक्त
हुए बिना अर्थात् प्रकृतिजन्य भावों से मुक्त हुए बिना, परंभाव को प्राप्त किये
बिना अगर आप ‘ॐ’ का जप और परमात्मा का स्मरण करते हुए देहान्तर को प्राप्त भी हो
जाते हैं तो भी आपको परमगति प्राप्त नहीं होगी क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण के
अनुसार ‘सदा
तत् भाव भावितः’| प्राप्ति तो उस भाव की
होगी जिस भाव से आप भावित रहे हैं, अगर आप देहमुक्त भाव से, परंभाव से भावित नहीं
हुए हैं तो मेरे अनुभव में परमगति असंभव है, इसलिये इस श्लोक का अर्थ यह ही होना
चाहिये कि ‘ॐ’ इतना ही, एक अक्षय ब्रह्म का उच्चारण करते हुए, मुझको स्मरण करते
हुए, जो देह का त्यागकर जाता है, वह परंगति को प्राप्त करता है |” जो देह
का त्याग कर जाता है, वह परंगति को प्राप्त करता है क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण
पूर्व में यह भी कह आये हैं कि “एषा ब्राह्मी स्थित्तिः पार्थ न एनाम्
प्राप्य विमुह्यति | स्थित्वा
अस्याम् अन्त काले अपि ब्रह्म निर्वाणम् ऋच्छति || (२/७२) पार्थ ! ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की
स्थिति है अर्थात् यह देहमुक्त की स्थिति, प्रज्ञा को, परंभाव को प्राप्त योगी की
स्थिति है, इसको प्राप्त करके पुरुष कभी मोहित नहीं होता तथा इसमें स्थित होकर
अन्तकाल में भी ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होता है | तात्पर्य यह कि ब्रह्म निर्वाण
अर्थात् परमगति की प्राप्ति तो प्रारब्धवश प्राप्त देह के अन्त के पश्चात् ही होती
है परन्तु देहमुक्त अर्थात् देह का त्याग जीते जी की प्राप्ति है | जो भी
है, इस विषय को मैं साधकों के चिंतन मनन को प्रस्तुत करके, इस विषय को यहीं विराम
देता हूँ | क्योंकी जैसा हमने मनन किया है, उसकी पुष्टि योगेश्वर श्रीकृष्ण अगले
श्लोक में करते हैं |
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः |
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ||
(८/१४)
अनन्य
चेताः सततम् यः माम् स्मरति नित्यशः |
तस्य
अहम् सुलभः पार्थ नित्य युक्तस्य योगिनः || (८/१४)
अनन्य
(अनन्य), चेताः
(चितद्वारा), सततम्
(सतत रूप से), यः
(जो), माम्
(मुझको), स्मरति
(स्मरण करते हैं), नित्यशः
(नित्य ही) |
तस्य (उस), अहम्
(मैं), सुलभः
(सुलभ हूँ), पार्थ
(पृथा पुत्र), नित्य
(नित्य), युक्तस्य
(योग से युक्त), योगिनः
(योगी के लिये) |
(८/१४)
जो
अनन्य चित्त द्वारा, नित्य ही, सतत रूप से मुझको स्मरण करते हैं, पार्थ ! उस योग
से युक्त योगी के लिये मैं सुलभ हूँ | (८/१४)
यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो
अनन्य चित्त द्वारा अर्थात् जो चित्त केवल हृदयस्थ ईष्ट को ही समर्पित है, इसके
अतिरिक्त कहीं भी गमन नहीं करता उस चित्त द्वारा नित्य ही, सतत रूप से अर्थात्
तैलधारावत रूप से ईष्ट का चिंतन करने का विधान है, परंभाव की प्राप्ति को एक बार
हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित होकर फिर विषय चिंतन अथवा विषयों में विचरण करने का
निषेध है, इस प्रकार अनन्य चित्त द्वारा, नित्य ही सतत रूप से जो परमात्मा का
स्मरण करता है, उस योग से युक्त योगी के लिये मैं सुलभ हूँ | जब योगेश्वर
श्रीकृष्ण स्वयं ही अनन्य चित्त द्वारा नित्य ही सतत रूप से परमात्मा को स्मरण
करनेवाले योग युक्त योगी को सुलभ हैं तो पूर्व श्लोक में अन्य व्याख्याकारों के
कहे अनुसार देह को त्यागकर परमगति की चिंता कौन करे ? और जब योगेश्वर स्वयं
ही जीते जी सुलभ हैं तो देह को त्यागकर परमगति की प्राप्ति को प्रयत्न भी
क्यों किया जाये ? वस्तुतः ऐसा कुछ भी नहीं है, योगेश्वर का सुलभ होना, परमात्मा
का साक्षात्कार, आत्मज्ञान की प्राप्ति, परंभाव की प्राप्ति, देहमुक्त होना, संसार
बंधन से मुक्ति अथवा कर्मों के बंधन से मुक्ति, यह सभी एक ही परमतत्त्व परमात्मा
की, परं अक्षरः ब्रह्म की प्राप्ति को कहने के, समझाने के भिन्न भिन्न दृष्टान्त
हैं | परंभाव की प्राप्ति तो जीते जी की प्राप्ति है, मृत्यु के उपरान्त तो ‘सदा
तत् भाव भावितः’ |
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् |
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः
|| (८/१५)
माम्
उपेत्य पुनः जन्म दुःख आलयम् अशाश्वतम् |
न
आप्नुवन्ति महा आत्मानः संसिद्धिम् परमाम् गताः || (८/१५)
माम् (मुझको), उपेत्य (प्राप्त करके), पुनः (पुनः), जन्म (जन्म स्वरूप), दुःख (दुःख), आलयम् (घर)
अशाश्वतम् (क्षणभंगुर) | न (नहीं), आप्नुवन्ति (प्राप्त करते हैं), महा (महान), आत्मानः (आत्मनः), संसिद्धिम् (सिद्धि को),
परमाम् (परम), गताः (प्राप्त होकर) |
(८/१५)
परं
सिद्धि को प्राप्त होकर महान आत्माएं मुझको प्राप्त करके, पुनः जन्म स्वरूप
क्षणभंगुर दुःख के घर को प्राप्त नहीं होती | (८/१५)
परं सिद्धि को प्राप्त होकर, जिसके लिये
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि निःसंदेह इस लोक में इस आत्मज्ञान के समान पवित्र
करनेवाला अन्य कुछ विद्यमान नहीं है, (अतः स्वतः सिद्ध है कि परं सिद्धि अर्थात्
आत्मज्ञान की प्राप्ति) ‘तत्स्वयं’ उस ज्ञान को तू स्वयं ‘योग संसिद्धः कालेन’ जब
योग सिद्ध होगा उस काल में ‘आत्मनि विन्दति’ स्वयं में ही पायेगा | (४/३८) तथा
आत्मज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार “जिन्होंने उस आत्मज्ञान
के द्वारा अज्ञान का नाश कर दिया है, उनका सूर्य की सदृश्य वह आत्मज्ञान परमतत्त्व
परमात्मा को प्रकाशित करता है | (५/१६) सारांशतः परं सिद्धि को अर्थात् आत्मज्ञान
को प्राप्त करके ही महान आत्माएं परमात्मा को साक्षात् करती हैं और परमात्मा को
साक्षात् करने के पश्चात् फिर पुनः जन्म स्वरूप क्षणभंगुर दुःख के घर को प्राप्त
नहीं होती |
इस श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा
है कि ‘क्षणभंगुर दुःख के घर’ को प्राप्त नहीं होती | तात्पर्य यह कि यह लोक क्षणभंगुर
हैं अर्थात् देही की यह देह दुःख का घर है तथा क्षणभंगुर भी है अर्थात् इस देह को
काल के तत्त्व का भी बंधन है, इसकी उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता है | तब क्या
परमगति के पश्चात् जो प्राप्ति है, वह काल तत्त्व के बंधन और दुःखो से मुक्त है ?
इस तथ्य को, काल के तत्त्व को, अगले चार श्लोकों में स्पष्ट करते हुए योगेश्वर
श्रीकृष्ण कहते हैं |
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||
(८/१६)
आ
ब्रह्म भुवनात् लोकाः पुनः आवर्तिनः अर्जुन |
माम्
उपेत्य तु कौन्तेय पुनः जन्म न विद्यते || (८/१६)
आ(पर्यन्त), ब्रह्म(ब्रह्म), भुवनात्(भुवन), लोकाः(समस्त लोक), पुनः(पुनः), आवर्तिनः(आवृति वाले हैं), अर्जुन(अर्जुन) |
माम् (मुझको), उपेत्य(प्राप्त करके), तु(परन्तु), कौन्तेय(कौन्तेय), पुनः(पुनः), जन्म(जन्म), न(नहीं), विद्यते(विधान है) |
(८/१६)
अर्जुन
! ब्रह्मभुवन पर्यन्त समस्त लोक पुनः आवृति वाले हैं, परन्तु कौन्तेय ! मुझे
प्राप्त करके पुनः जन्म का विधान नहीं है | (८/१६)
जिसमें प्राणी उत्पन्न होते हैं और निवास
करते हैं, उसका नाम भुवन है तथा हमारी पृथ्वी के समान इस ब्रह्माण्ड में अनेक
पिण्ड है जहाँ प्राणियों की उत्पत्ति और निवास संभव है, यह अन्य विषय है कि वहाँ
प्राणियों का रूप और जीवन कैसा होता है | योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन !
ब्रह्मभुवन पर्यन्त अर्थात् ब्रह्मभुवन सहित समस्त लोक पुनः आवृतिवाले हैं
तात्पर्य यह कि इस ब्रह्माण्ड में जितने भी भुवन हैं, उन समस्त भुवनों में लोक अर्थात्
उनमें पाये जानेवाले शरीरधारी और उनका जीवन पुनः आवृतिवाले है अर्थात् हमारी
पृथ्वी के ही समान ब्रह्मभुवन पर्यन्त समस्त भुवनों में जीव की उत्पत्ति होती है,
परिवर्तन होता है और प्रलय होता है | परन्तु कौन्तेय ! मुझे प्राप्त करके पुनः
जन्म का विधान नहीं है | स्पष्ट है कि जो परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त होते हैं,
उनका जीवन क्षणभंगुर नहीं होता, उनकी उत्पत्ति, परिवर्तन और प्रलय नहीं होता, वह
परंभाव सदैव एक रस है, अखंड आनंद स्वरूप है, इसलिये वहाँ पुनः जन्म का विधान नहीं
है | पुन्यकर्मो स्वरूप प्राप्त स्वर्ग अथवा ब्रह्मभुवन आदि जितने भी निर्मल और
पवित्र उच्च लोक हैं, उनके प्रति काल तत्त्व के बंधन को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर
श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः |
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः
|| (८/१७)
सहस्त्र
युग पर्यन्तम् अहः यत् ब्रह्मणः विदुः |
रात्रिम्
युग सहस्त्र अन्ताम् ते अहः रात्र विदः जनाः || (८/१७)
सहस्त्र
(सहस्त्र), युग
(युग), पर्यन्तम् (तक),
अहः (दिन), यत्
(जो), ब्रह्मणः
(ब्रह्मा का), विदुः
(विदित करते हैं) |
रात्रिम् (रात्रि), युग (युग), सहस्त्र (सहस्त्र),
अन्ताम् (अन्त होनेवाली), ते
(वे), अहः
(दिन), रात्र
(रात्रि), विदः
(विदित करनेवाले), जनाः
(लोग) |
(८/१७)
जो
सहस्त्र युग पर्यन्त ब्रह्मा का दिन, सहस्त्र युग में अन्त होनेवाली (ब्रह्मा की)
रात्रि विदित करते हैं, वे दिन रात्रि को विदित करनेवाले हैं | (८/१७)
जो सहस्त्र युग पर्यन्त ब्रह्मा का दिन
अर्थात् पृथ्वी की तुलना में ब्रह्मभुवन का एक दिन सहस्त्र युग पर्यन्त होता है और
इसी प्रकार सहस्त्र युग में अन्त होनेवाली ब्रह्मा की रात्रि है तथा इस तथ्य को
जिन्होंने विदित किया है, वे दिन और रात्रि के तत्त्व को जाननेवाले अर्थात् काल के
परिणाम को जाननेवाले योगीजन हैं | अतः स्पष्ट है कि स्वर्ग और ब्रह्मभुवन आदि भी
काल से परिच्छिन हैं अर्थात् वे भी काल से अतीत नहीं हैं, वे काल के सापेक्ष से ही
चलते हैं, वहाँ भी उत्पत्ति, परिवर्तन और प्रलय होता रहता है | केवल इतना ही नहीं
अपितु -
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे
|
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके
|| (८/१८)
अव्यक्तात्
व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्ति अहः आगमे |
रात्रि
आगमे प्रलीयन्ते तत्र एव अव्यक्त संज्ञके || (८/१८)
अव्यक्तात्
(अव्यक्त से), व्यक्तयः
(व्यक्त हुए), सर्वाः
(सभी), प्रभवन्ति
(उत्पन्न होते हैं), अहः (दिन), आगमे (आरम्भ में) | रात्रि (रात्रि के), आगमे
(आरम्भ में), प्रलीयन्ते
(पूर्णतया लीन हो जाते
हैं), तत्र
(उस), एव
(ही), अव्यक्त
(अव्यक्त), संज्ञके(कहे जानेवाले में)
| (८/१८)
दिन
के आरम्भ काल में सभी अव्यक्त से व्यक्त होते हैं, रात्रि के आरम्भ काल में उस
अव्यक्त कहे जाने वाले में ही पूर्णतया लीन हो जाते हैं | (८/१८)
जिस प्रकार पृथ्वी लोक में अर्थात् यहाँ
भी शरीरधारी जन्म स्वरूप अव्यक्त से व्यक्त होते हैं और फिर मृत्यु स्वरूप अव्यक्त
हो जाते है, जन्म मरण के चक्र में, आवागमन में भ्रमण करते ही रहते हैं, इस प्रकार
पुनः पुनः व्यक्त होने के कारण यह व्यक्ति कहलाता हैं, उसी प्रकार ब्रह्मभुवन
प्रयन्त सभी भुवनों में ‘अहः’ अर्थात् दिन के आरम्भ काल में, जन्म स्वरूप सभी
अव्यक्त से व्यक्त होते हैं और रात्रि के आरम्भ काल में अर्थात् मृत्यु स्वरूप सभी
उस अव्यक्त कहे जाने वाले में पूर्णतया लीन हो जाते हैं | तात्पर्य यह कि पाप
कर्मो स्वरूप अधम योनियों की प्राप्ति हो अथवा पुण्य कर्मों स्वरूप निर्मल और
पवित्र उच्च लोकों की परन्तु व्यक्ति जन्म मरण के चक्र से, आवागमन से, काल से अतीत
नहीं हो पाता | इस काल के तत्त्व को स्पष्ट करके योगेश्वर श्रीकृष्ण अब ब्रह्मभुवन
पर्यन्त समस्त लोकों को दुःख का घर कहते हैं |
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते |
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ||
(८/१९)
भूत
ग्रामः सः एव अयम् भूत्वा भूत्वा प्रलीयते |
रात्रि
आगमे अवशः पार्थ प्रभवति अहः आगमे || (८/१९)
भूत
(शरीरधारी), ग्रामः
(समुदाय), सः
(वह), एव
(ही), अयम्
(यह), भूत्वा
(हो), भूत्वा
(होकर), प्रलीयते
(पूर्णतया लीन हो जाते
हैं), |
रात्रि (रात्रि), आगमे (के आरम्भ में),
अवशः (परवश हुए), पार्थ
(पृथा पुत्र), प्रभवति
(उत्पन्न होते हैं), अहः
(दिन), आगमे
(के आरम्भ में) |
(८/१९)
पार्थ
! यह वह ही शरीरधारी समुदाय दिन के आरम्भ काल में परवश हुए उत्पन्न होते हैं,
रात्रि के आरम्भ काल में हो होकर पूर्णतया लीन हो जाते हैं | (९/१९)
यह वह ही शरीरधारी समुदाय अर्थात् जो
पूर्व जन्म में व्यक्त था, वही शरीरधारी समुदाय कोई दूसरा अन्य नहीं, दिन के आरम्भ
काल में अर्थात् जब पुनः जन्म की प्राप्ति होती है, पुनः व्यक्त होते हैं, उस काल
में वे परवश हुए उत्पन्न होते हैं, यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण का यह कहना कि परवश
हुए उत्पन्न होते है, इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि ब्रह्मभुवन पर्यन्त समस्त लोक
दुःख के घर है तथा रात्रि की आरम्भ काल में अर्थात् मृत्यु काल में हो होकर
पूर्णतया लीन हो जाते हैं | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा ‘भूत्वा भूत्वा
प्रलीयते’ कहने से तात्पर्य यह है कि ब्रह्मभुवन पर्यन्त सभी लोक पुनरावृति वाले
हैं, समस्त लोकों में हो होकर पुनः होना पड़ता है क्योंकी आप परवश है, काल के बंधन
में हैं, भाव के बंधन में हैं, कर्म बंधन में हैं, कर्मफल हेतु जन्म मरण के चक्र
से बंधे हैं, इसलिये क्षणभंगुर दुःखों के घर को प्राप्त हैं | तात्पर्य यह की
ब्रह्मभुवन पर्यन्त जितने भी लोक हैं, सभी पुनरावृति वाले हैं |
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः
|
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ||
(८/२०)
परः
तस्मात् तु भावः अन्यः अव्यक्तः अव्यक्तात् सनातनः |
यः
सः सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति || (८/२०)
परः
(परे), तस्मात्
(उस), तु
(परन्तु), भावः
(भाव से), अन्यः
(दूसरा, विलक्षण), अव्यक्तः
(अव्यक्त), अव्यक्तात्
(अव्यक्त से), सनातनः
(सनातन) |
यः (जो), सः
(वह), सर्वेषु
(समस्त), भूतेषु
(शरीरधारियों के), नश्यत्सु
(नष्ट होनेपर), न
(नहीं), विनश्यति
(नष्ट होता) |
(८/२०)
परन्तु
उस अव्यक्त से परे जो अन्य (विलक्षण) सनातन अव्यक्त भाव है, वह समस्त शरीरधारियों
के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता | (८/२०)
परन्तु उस अव्यक्त से परे जो अन्य,
विलक्षण, दूसरा सनातन अव्यक्त भाव है तात्पर्य यह कि परंभाव की प्राप्ति हो अथवा
ना हो परन्तु प्रारब्धवश प्राप्त देह का तो अन्त होना ही है क्योंकी यह देह काल
तत्त्व के अधीन है और समस्त लोकों में अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त
अवस्था को, जन्म मरण को प्राप्त हुआ जाता है | मरण के पूर्व जिनको परंभाव की
प्राप्ति नहीं होती, वे तो ‘सदा तत् भाव भावितः’ अर्थात् जिस भाव से भावित रहते हैं उस
भाव को प्राप्त होते हैं, पुनः जन्म को प्राप्त होते हैं परन्तु जिनको मरण से
पूर्व ही परंभाव की प्राप्ति हो जाती है वे अन्य विलक्षण और भिन्न प्रकार के दुसरे
सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होते हैं और उनका वह भाव समस्त शरीरधारियों के नष्ट
होने पर भी नष्ट नहीं होता | तात्पर्य यह कि यह जो दूसरा, अन्य विलक्षण सनातन
अव्यक्त भाव है, इसका कभी भी नाश नहीं
होता, यह सनातन अव्यक्त भाव है |
पुनः
ध्यान दे कि अगर आपको मरण से पूर्व परंभाव की प्राप्ति नहीं होती तो आप अव्यक्त
रूप में भी ‘सदा
तत् भाव भावितः’ भाव से होते हैं और
प्रारब्धवश आपको देह भी ‘सदा तत् भाव भावितः’ ही प्राप्त होती है, आपका आवागमन लगा
ही रहता है परन्तु अगर आपको मरण से पूर्व परंभाव की प्राप्ति हो जाती है तो आप
अव्यक्त रूप में भी अर्थात् प्रारब्धवश प्राप्त देह के अन्त के पश्चात् भी परंभाव
से ही भावित रहते हैं और यह भाव सनातन अव्यक्त भाव है, परंभाव है, परमतत्त्व
परमात्मा से एकीभाव है | इस भाव का नाश नहीं होता अर्थात् इस भाव की प्राप्ति के
पश्चात् पुनः जन्म का विधान नहीं है |
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्
|
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ||
(८/२१)
अव्यक्तः
अक्षरः इति उक्तः तम् आहुः परमाम् गतिम् |
यम्
प्राप्य न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम || (८/२१)
अव्यक्तः
(अव्यक्त), अक्षरः
(परं ब्रह्म), इति
(इस), उक्तः
(कहा गया है), तम्
(उसे), आहुः
(कहते हैं), परमाम्
(परम), गतिम्
(गति) |
यम् (जिसे), प्राप्य
(प्राप्त करके), न
(नहीं), निवर्तन्ते
(वापस आते हैं), तत्
(वह), धाम
(धाम), परमम्
(परम), मम
(मेरा ) |
(८/२१)
अव्यक्त
परं (भाव) ब्रह्म इसे कहा गया है, उसे परमगति कहते हैं, जिसे प्राप्त करके वापस
नहीं आते, वह मेरा परमधाम है | (८/२१)
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व श्लोक में
जिसे सनातन अव्यक्त भाव कहा है, इस श्लोक में कहते हैं कि यही अव्यक्त परं ब्रह्म
भाव है, इसे अव्यक्त परं ब्रह्म कहा गया है, उसे ही परंगति कहते हैं, जिसे प्राप्त
करके कोई भी वापस नहीं आता अर्थात् पुनः व्यक्त भाव को, ब्रह्मभुवन पर्यन्त किसी
भी लोक को प्राप्त नहीं होता तथा अब वह जिस लोक को प्राप्त हुआ है, वही मेरा
परमधाम है |
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया
|
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् |
(८/२२)
पुरुषः
सः परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्यया |
यस्य
अन्तःस्थानि भूतानि येन सर्वम् इदम् ततम् || (८/२२)
पुरुषः
(पुरुष), सः
(वह), परः
(परम), पार्थ
(पार्थ), भक्त्या
(भक्ति से), लभ्यः
(प्राप्त होने योग्य), तु
(परन्तु), अनन्यया (अनन्य)
| यस्य (जिसके), अन्तःस्थानि
(अंतर्गत), भूतानि
(शरीरधारी), येन
(जिस), सर्वम्
(सब कुछ), इदम्
(यह), ततम्
(व्याप्त है ) |
(८/२२)
पार्थ
! जिसके अंतर्गत समस्त शरीरधारी हैं, जिससे यह सब कुछ व्याप्त है, परन्तु वह परमपुरुष
अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है | (८/२२)
जिसे पूर्व श्लोकों में परंभाव कहा है,
परमगति की प्राप्ति कहा है, परमधाम कहा है, उसे ही अव्यक्त परं ब्रह्म कहा है और
इस श्लोक में कहते हैं कि जिसके अंतर्गत समस्त शरीरधारी हैं, जिससे यह सब कुछ
व्याप्त है, जिससे अर्थात् जिसे अव्यक्त परं ब्रह्म कहा गया है उसके अंतर्गत समस्त
शरीरधारी हैं, उससे ही यह सब कुछ अर्थात् दृश्य अदृश्य सम्पूर्ण जगत, यह समस्त
ब्रह्माण्ड उससे ही व्याप्त है परन्तु वह परमपुरुष अर्थात् वह सर्वज्ञ, आदि,
नियन्ता, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबको धारण करनेवाले, अव्यक्त और अचिन्त्य
रूप, आदित्य वर्णवाला, तमस से अत्यंत परे परमपुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने
योग्य है |
पुनः ध्यान दे कि योगेश्वर श्रीकृष्ण इस
श्लोक में पृथापुत्र पार्थ अर्थात् अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि जिसके
अंतर्गत समस्त शरीरधारी हैं, जिससे यह सब कुछ व्याप्त है, वह परमपुरुष अर्थात्
अव्यक्त परं ब्रह्म अनन्य भक्ति से प्राप्त करने योग्य है | योगेश्वर श्रीकृष्ण स्पष्ट
कहते हैं कि वह परमपुरुष तो अव्यक्त परं भाव से स्थित है परन्तु वह अनन्य भक्ति से
प्राप्त करने योग्य है | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यहाँ परा भक्ति नहीं अपितु अनन्य
भक्ति कहा है | तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण सगुण साकार परमात्मा के स्वरूप
को हृदयस्थ ईष्ट के रूप में मान्यता देते हैं तथा ज्ञानयोगियों की अव्यक्त ब्रह्म
की उपासना जिसे परा भक्ति कहते हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण उस परा भक्ति के पक्षधर
नहीं है | कारण भी स्पष्ट ही है कि एक गुणाधीन व्यक्त पुरुष, गुणातीत अव्यक्त
पुरुष की साधना किस प्रकार कर सकेगा, एक भावाधीन पुरुष एक भावातीत को किस प्रकार
भजेगा ? इसलिये ही योगेश्वर श्रीकृष्ण अनन्य भक्ति पर जोर देते हैं, क्योंकी अनन्य
भक्ति से, एकाभक्ति से ही उस हृदयस्थ ईष्ट से एकीभाव हुआ जाता है और जो भी
योगपरायण साधक हृदयस्थ ईष्ट से एकीभाव हो गया, वह भावातीत, गुणातीत तो स्वयं ही हो
जायेगा क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ही कहा है कि ‘योगक्षेमं
वहाम्यहम्’ अर्थात् योग के परिणाम की रक्षा स्वयं योगेश्वर करते हैं और योग का परिणाम है, परंभाव की
प्राप्ति, गुणातीत की, भावातीत की प्राप्ति, अव्यक्त परं ब्रह्म की प्राप्ति |
उपर्युक्त श्लोकों में
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने समग्र रूप की व्याख्या करते हुए काल के तत्त्व को
स्पष्ट किया है कि अव्यक्त परं ब्रह्म, उनका परमधाम किस प्रकार काल के तत्त्व से
अतीत है, कालातीत है | कालातीत की प्राप्ति, परंभाव की प्राप्ति तो जीते जी की
प्राप्ति है, इसमें देह का त्याग किया जाता है अर्थात् देह में आसक्ति का त्याग
किया जाता है, देहमुक्त हुआ जाता है | अब योगेश्वर श्रीकृष्ण उस काल की व्याख्या
करते हैं, जिस काल में प्रारब्धवश प्राप्त देह को भी त्याग कर अव्यक्त परं ब्रह्म
में सदा के लिये स्थित हुआ जाता है |
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः |
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ||
(८/२३)
यत्र
काले तु अनावृत्तिम् आवृत्तिम् च एव योगिनः |
प्रयाताः
यान्ति तम् कालम् वक्ष्यामि भरत ऋषभः || (८/२३)
यत्र
(जिस), काले
(काल में), तु
(परन्तु), अनावृत्तिम्
(अनावृति को), आवृत्तिम् (आवृति को), च
(और), एव
(ही), योगिनः (योगीजन)
| प्रयाताः (गये हुए), यान्ति (प्राप्त होते हैं), तम्
(उस), कालम्
(काल को), वक्ष्यामि
(कहूँगा), भरत (भरतवंशी), ऋषभः (श्रेष्ठ) | (८/२३)
भारतवंशियों
में श्रेष्ठ ! जिस काल में गये हुए योगीजन अनावृति को प्राप्त होते हैं परन्तु जिस
काल में आवृति को प्राप्त होते हैं, उस काल को कहूँगा | (८/२३)
योगेश्वर श्रीकृष्ण
भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन को कहते हैं कि जिस काल में गये हुए अर्थात्
प्रारब्धवश प्राप्त देह के अन्तकाल में देह को त्यागकर गये हुए योगीजन अनावृति को
प्राप्त होते हैं अर्थात् जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं परन्तु जिस काल
में आवृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् परं भाव की प्राप्ति से पूर्व ही जिन
योगीजन को प्रारब्धवश प्राप्त इस देह का, देह के जीर्ण शीर्ण हो जाने के कारण
त्याग करना पड़ता है, उस काल को कहूँगा | वस्तुतः योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ परंभाव
को प्राप्त योगियों के उस काल की व्याख्या कर रहे हैं जिसके लिये उन्होंने कहा है
कि ‘स्थित्वा
अस्याम् अन्त काले अपि ब्रह्म निर्वाणम् ऋच्छति’ (२/७२) अर्थात् इसमें स्थित होकर अन्तकाल में
भी ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होता है | अन्यथा अगर इसमें स्थित नहीं है अर्थात्
परंभाव में स्थित नहीं है तो योगीजन की क्या गति होती है, योगेश्वर श्रीकृष्ण उसका
भी वर्णन करते हैं |
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्
|
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो
जनाः || (८/२४)
अग्निः
ज्योतिः अहः शुक्लः षण्मासाः उत्तर अयणम् |
तत्र
प्रयाताः गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्म विदः जनाः || (८/२४)
अग्निः
(अग्नि), ज्योतिः
(ज्योति), अहः
(दिन), शुक्लः
(शुक्लपक्ष), षण्मासाः
(छः मास का), उत्तर (उत्तर), अयणम्
(मार्ग से) |
तत्र (वहां), प्रयाताः
(गये हए), गच्छन्ति
(जाते हैं), ब्रह्म
(ब्रह्म), ब्रह्म
(ब्रह्म), विदः
(विदित किये हुए), जनाः(लोग)|
(८/२४)
अग्नि,
ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छः मास से गये हुए, ब्रह्म को विदित किये
(योगी) जन ब्रह्म को जाते हैं | (८/२४)
योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कही
ज्योतिर्मय अग्नि तो समझ में आती है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण आत्मज्ञान को प्राप्त
योगी के विषय में कह रहे हैं परन्तु दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छः मास आदि, जो
की काल की गणना के अधीन हैं, उससे ब्रह्म को विदित किये योगीजन के प्रति क्या
अभिप्राय है, यह समझ में नहीं आता क्योंकी ब्रह्म को विदित किया हुआ योगी तो काल
से अतीत हो जाता है, प्रारब्धवश प्राप्त देह के अन्तकाल का, इन काल को इंगित किये
जाने वालों तत्त्वों से क्या अभिप्राय हो सकता है, इसका ज्ञान नहीं है | जब भी
मेरे शिव बाबा और योगेश्वर श्रीकृष्ण का आशिर्वाद प्राप्त होगा, तब ही इस विषय में
कुछ कह पाऊँगा | हाँ इतना अवश्य स्पष्ट है कि जीते जी ही ब्रह्म को विदित किये
योगीजन ही प्रारब्धवश प्राप्त देह के अन्त के पश्चात् अक्षय परं ब्रह्म को प्राप्त
होते हैं |
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्
|
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य
निवर्तते || (८/२५)
धूमः
रात्रिः तथा कृष्णः षण्मासाः दक्षिण अयणम् |
तत्र
चान्द्रमसम् ज्योतिः योगी प्राप्य निवर्तते || (८/२५)
धूमः
(धुआं), रात्रिः
(रात्रि), तथा
(तथा), कृष्णः
(कृष्णपक्ष), षण्मासाः
(छः मास का), दक्षिण (दक्षिण),
अयणम् (मार्ग से)|
तत्र (वहां), चान्द्रमसम्
(चन्द्रमा की), ज्योतिः
(ज्योति), योगी
(योगी), प्राप्य
(प्राप्य), निवर्तते (वापस आते हैं)
| (८/२५)
धुआं,
रात्रि तथा कृष्णपक्ष दक्षिणायण के छः मास से गये योगी, वहां चन्द्रमा की ज्योति
को प्राप्त करके वापस आ जाते हैं | (८/२५)
पूर्व श्लोक की तरह ही इस श्लोक में भी
धुआं, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के छः मास से क्या तात्पर्य है, ज्ञात नहीं
| परन्तु इतना कह सकता हूँ की योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में भी कह आये हैं कि जिन
साधकों को देहान्तर काल से पूर्व परंभाव की प्राप्ति नहीं होती, ऐसे कृष्णयोग
परायण साधकों का ना इस लोक में ही, ना अन्य
लोक में विनाश होता है, क्योंकी प्यारे ! कल्याणकारी कर्मो द्वारा कोई भी दुर्गति
को नहीं जाता है | (६/४०) तथा पुण्य कर्मों द्वारा प्राप्त लोकों में शाश्वत काल
तक निवास करके, योग भ्रष्ट हुआ साधक शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरूषों के घर में
जन्म लेता है | (६/४१) अतः चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त करके वापस आ जाते हैं इसका
अर्थ है कि चंद्रमा मन का प्रतिक है और वे साधक जिनका अभी योग सिद्ध नहीं हुआ है
क्योंकी मन में कामनाओं का कोई अंश शेष है, इस कारण ऐसे कृष्णयोग परायण साधक उन
कामनाओं को भोग कर पुनः वापस आ जाते हैं, पुनः जन्म पाते है
और बुद्धि संयोग से पूर्व जन्म में की
गयी साधना द्वारा आकर्षित होकर पुनः योग का आचरण करते हैं |
शुक्लकृष्णे गति ह्येते जगतः शाश्वते मते |
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ||
(८/२६)
शुक्ल
कृष्णे गति हि एते जगतः शाश्वते मते |
एकया
याति अनावृत्तिम् अनन्या आवर्तते पुनः || (८/२६)
शुक्ल
(शुक्ल), कृष्णे (कृष्ण),
गति (गति),हि
(क्योंकी), एते
(यह दो), जगतः
(जगत में), शाश्वते
(शाश्वत हैं), मते
(मानी गयी हैं) |
एकया (एक से), याति
(प्राप्ती होती है), अनावृत्तिम्
(वापस नहीं आते), अनन्या
(अन्य से), आवर्तते
(वापस आते हैं), पुनः
(पुनः) |
(८/२६)
क्योंकी
जगत में यह दो शुक्ल और कृष्ण गति शाश्वत मानी गयी हैं, एक से अनावृति को, अन्य से
पुनः आवृति को प्राप्त होते हैं | (८/२६)
इस श्लोक में जो यह ‘क्योंकी’ कहा गया
है, यह अगले श्लोक से सम्बंधित है, योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ पहले कारण कहते है,
तत्पश्चात अगले श्लोक में इस कारण से हुए समाधान को प्रस्तुत करते हुए अर्जुन को
सदैव योगयुक्त होने को कहते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट करते हैं कि
योगीजनों के लिये यह दो शुल्क और कृष्ण गति शाश्वत मानी गयी हैं, एक से अनावृति को
तथा अन्य से पुनः आवृति को प्राप्त होते हैं | यहाँ ध्यान देने योग्य है कि इन
दोनों गतियों का वर्णन योगेश्वर श्रीकृष्ण ने योगीजनों हेतु किया है | यह गतियाँ ‘सदा
तत् भाव भावितः’ पुरूषों के संदर्भ में
नहीं कही गयी हैं | यह पुरुष किस प्रकार की गति को प्राप्त होते हैं, इसका वर्णन
योगेश्वर श्रीकृष्ण अगले अध्याय में करेगें | इस प्रकार इन दो शुल्क और कृष्ण गति
रूपी शाश्वत मार्गो को जानने से क्या अभिप्राय है, इस पर योगेश्वर कहते हैं कि
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन |
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ||
(८/२७)
न
एते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन |
तस्मात्
सर्वेषु कालेषु योग युक्तः भव अर्जुन || (८/२७)
न
(नहीं), एते
(इन दोनों), सृती (मार्गों को),
पार्थ (पार्थ), जानन् (जानकार), योगी
(योगी), मुह्यति
(मोहित होता है), कश्चन (कोई भी)
| तस्मात् (इसलिये), सर्वेषु (सभी), कालेषु
(काल में), योग
(योग), युक्तः(युक्त), भव(हो), अर्जुन(अर्जुन)
| (८/२७)
पृथापुत्र
पार्थ ! इन दोनों मार्गों को जानकार कोई भी योगी मोहित नहीं होता | अर्जुन !
इसलिये सब काल में योग युक्त हो | (८/२७)
पूर्व श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण में
यह स्पष्ट कर दिया कि योग से युक्त पुरूषों के लिये केवल यही दो गति हैं, एक मार्ग
से गया हुआ, अक्षय परं ब्रह्म को प्राप्त होता है तो दूसरा जिसका अभी योग सिद्ध
नहीं हुआ है, वह चन्द्र ज्योति को प्राप्त करके अर्थात् मन में शेष रही कामनाओं को
भोग कर पुनः लौट आता है तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार पार्थ ! उसका ना इस लोक
में ही, ना अन्य लोक में विनाश होता है, क्योंकी प्यारे ! कल्याणकारी कर्मो द्वारा
कोई भी दुर्गति को नहीं जाता है | (६/४०) ऐसा योगी पुण्य कर्मों
द्वारा प्राप्त लोकों में शाश्वत काल तक निवास करके अर्थात् मन में जो कामनाएं शेष
थी, उनका भोग करके, योग भ्रष्ट हुआ साधक शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरूषों के घर
में जन्म लेता है | (६/४१) अथवा ज्ञानवान पुरूषों के, योगियों के कुल में ही जन्म
होता है, जो इस प्रकार का लोक में जन्म है, यह निःसंदेह अत्यंत दुर्लभ है | (६/४२)
तत्पश्चात् वह परवश हुआ भी अर्थात् अभी उसका योग तो सिद्ध नहीं हुआ है, वह
प्रकृतिजन्य भावों से भावित हुआ परवश है फिर भी पूर्व जन्म के योगअभ्यास द्वारा,
बुद्धि संयोग से निःसंदेह आकर्षित होता है, अर्थात् पुनः योग को प्राप्त हो जाता
है | (६/४४) प्रयत्नपूर्वक अभ्यास
करनेवाला योगी पापों से शुद्ध होकर, अनेक जन्मों में ‘संसिद्धः’ योग की सिद्धि को
प्राप्त करके तत्पश्चात् तत्काल ही परमगति को प्राप्त करता है | (६/४५) अतः इस
प्रकार योगीजन इन दोनों मार्गों को जानकार कभी मोहित नहीं होते अर्थात् इस जन्म
में योग सिद्ध हुआ अथवा नहीं, इस प्रकार का चिंतन नहीं करते और जन्म जन्मान्तर हृदयस्थ
ईष्ट के परायण हुए प्रयत्नपूर्वक योगाभ्यास करते रहते हैं | इसलिये अर्जुन ! सब
काल में योग युक्त हो |
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं
प्रदिष्टम् |
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं
स्थानमुपैति चाद्यम् || (८/२८)
वेदेषु
यज्ञेषु तपःसु च एव दानेषु यत् पुण्य फलम् प्रदिष्टम् |
अत्येति
तत् सर्वम् इदम् विदित्वा योगी परम् स्थानम् उपैति च आद्यम् || (८/२८)
वेदेषु
(वेदों से), यज्ञेषु (यज्ञ से),
तपःसु (तप से), च
(और), एव
(ही), दानेषु
(दान से), यत्
(जो), पुण्य
(पुण्य), फलम्
(फल), प्रदिष्टम्
(कहा गया है) |
अत्येति (लाँघ जाता है), तत्
(उस), सर्वम्
(सबको), इदम्
(यह), विदित्वा
(विदित करके), योगी (योगी),
परम् (परम), स्थानम्
(स्थान को), उपैति
(प्राप्त करता है), च
(और), आद्यम्
(आदि) |
(८/२८)
वेदों से, यज्ञ से, तप से और दान से ही जो पुण्य
फल कहे गये हैं, योगी उस सबको, यह (रहस्य) विदित करके, लाँघ जाता है और आदि परमधाम
को प्राप्त करता है | (८/२८)
पूर्व श्लोक में कहे रहस्य को विदित करके
योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहे अनुसार योगपरायण साधक पाप पुण्य आदि द्वन्द्वों से
मुक्त होकर, वेदों से, यज्ञ से, तप से, और दान से भी जो पुण्य फल कहे गये हैं उनको
लाँघ जाता है अर्थात् कृष्णयोग परायण साधक स्वर्ग अथवा अन्य उच्च लोकों की भी
कामना नहीं करता, केवल एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित होकर अन्ततः आदि परमधाम
को प्राप्त करता है |
इस प्रकार इस आठवें अध्याय का समापन होता
है |
***** ॐ तत् सत् *****