Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

अध्याय ६

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** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
षष्ठोऽध्यायः     
पूर्व अध्यायों में जिस प्रकार हम लोगों ने कृष्णयोग को जाना, कि योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति कहे  उपदेशों में से वे महावाक्य रूपी उपदेश, जो जीवन निर्वाह करते हुए अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता हेतु तथा योग के आचरण स्वरूप परमतत्त्व की प्राप्ति हेतु, एक विधिविशेष का वर्णन करते हैं, वही कृष्णयोग है | पूर्व अध्याय में जैसा निश्चय करा है, उसी के अनुसार योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा पूर्व अध्यायों में अर्जुन के प्रति कही इस कृष्णयोग रूपी विधि विशेष का एक साथ सारभूत रूप से पुनरावृत्ति करने के पश्चात् ही हम इस अध्याय में अध्ययन मनन हेतु प्रवेश करेंगे |

सर्वप्रथम योगेश्वर श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु अधिकारी पुरुष की योग्यताओं का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कौन्तेय ! शीत, उष्ण और सुख, दुःख देनेवाले इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग वियोग तो आनेजाने वाले, अनित्य हैं | भारत उनको सहन करो | (२/१४) इससे लाभ ? तो प्रभु कहते हैं क्योंकी सुख दुःख में समभाव से रहनेवाले जिस धीर पुरुष को यह व्यथित, व्याकुल नहीं करते, वह अमृततत्त्व की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१५) अर्थात् कृष्णयोग को अंगीकार करने का अधिकारी हो जाता है | इस प्रकार समभाव से जीवन निर्वाह करने से, अमृततत्त्व की प्राप्ति का प्रमाण ? इसका प्रमाण देते हुए प्रभु कहते कि इस तथ्य के सत्य और असत्य का प्रमाण, अमृततत्त्व का पान करनेवाले तत्त्वदर्शी महापुरुष स्वयं ही हैं और उन तत्त्वदर्शी महापुरुषों के अनुसार असत्य का तो भाव अर्थात् सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्य का अभाव विद्यमान नहीं है | (२/१६) इस प्रकार सत्य और असत्य तत्त्व को परिभाषित कर, प्रभु स्पष्ट करते हैं कि अविनाशी, सनातन, अप्रमेय, नित्य स्वरूप सत्य तत्त्व तो यह देही है और इस देही की यह देह अन्त को, नाश को प्राप्त होने के कारण असत्य तत्त्व है | (२/१८) इस प्रकार देह-देही के भेद को स्पष्ट करते हुए, परमात्मा श्रीकृष्ण अर्जुन को इस अव्यक्त, अचिन्त्य और निर्विकार देही के गुणधर्म कहते हैं कि यह देही अजन्मा, नित्य, सनातन, पुरातन, अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य स्वरूप है तथा जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों का त्याग करके नवीन वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार यह देही जीर्ण देह का त्याग करके नवीन देह को प्राप्त करता है | (२/१९-२५) और अर्जुन क्योंकी सभी असत्य रूप देहों में यह नित्य, अवध्य देही ही सत्य रूप से स्थित है इसलिये इस असत्य रूपी देह के संबंध भी निश्चित रूप से असत्य ही होते हैं, अतः देह और देह के संबंधो का मोह अथवा शोक नहीं करना चाहिए | (२/३०) इस प्रकार देह-देही के बोध से युक्त, समभाव से जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है | 
                
इसके पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग की अद्वितीयता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु जीवन में स्वधर्म से उपराम होने को, कर्तव्य कर्मों के त्याग को, अर्जुन के संदर्भ में भिक्षान्न की याचना को अर्थात् सांसारिक कारणों से लिये सन्यास को, संसार से पलायन को प्रभु पाप का आचरण कहते हैं | (२/३३) यही इस कृष्णयोग की अद्वितीयता है कि इसे अंगीकार करने को कोई विधिविशेष नहीं है, संसार का त्याग, गृहस्थी का त्याग आवश्यक नहीं है | अपितु श्रीकृष्ण के अनुसार दुसरे के धर्म से, अर्जुन के संदर्भ में भिक्षान्न की याचना से, स्वधर्म में मरण भी कल्याणकारी है, स्वर्ग का खुला द्वार है | (२/३७) इसलिये अर्जुन को कहते हैं कि जय पराजय में, लाभ हानि में, सुख दुःख में मन और बुद्धि को सम करके अर्थात् समभाव से युक्त होकर युद्ध में अर्थात् स्वधर्म अनुसार कर्तव्य कर्म में लग जा, इस प्रकार तू पाप को प्राप्त नहीं होगा | (२/३८) तात्पर्य यह कि समभाव से, समबुद्धि से युक्त होकर स्वधर्म के अनुसार जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य पाप को, नये कर्मबंधन को प्राप्त नहीं होता अपितु अमृततत्त्व अर्थात् परमार्थ मार्ग हेतु, परमगति, परमधाम हेतु कृष्णयोग को अंगीकार करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है |

इस प्रकार कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु अधिकारी पद की योग्यता का वर्णन करके, योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्णयोग की प्रस्तावना रखते हैं | योगेश्वर के अनुसार जिस बुद्धि से युक्त होकर मनुष्य अमृततत्त्व का अधिकारी बनता है, जिसे अभी पूर्व में परमात्मा ने सांख्य दृष्टि से कहा है, उसी बुद्धि से युक्त होकर कृष्णयोग परायण होने से मनुष्य कर्म बंधन का सर्वथा नाश कर सकेगा | (२/३९) अर्थात् परमपद को, परमधाम को प्राप्त कर सकेगा | यहाँ पूर्व में जिस धीर पुरुष का, इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग वियोग में, समभाव से रहनी का वर्णन है, तत्त्वदर्शी महापुरुषों द्वारा कही सत्य असत्य की परिभाषा, देह देही का भेद और समबुद्धि से युक्त हो स्वधर्म अनुसार कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए जीवन निर्वाह हेतु परमात्मा ने जो उपदेश दिये हैं, वह सब सांख्य-दर्शन के अनुसार कहा है | सांख्य दर्शन अर्थात् अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् (१३/११) अर्थात् अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्व ज्ञान के अनुरूप सर्वत्र परमात्मा तत्व के दर्शन का बौद्धिक ज्ञान | कर्मबंधन के नाश हेतु कृष्णयोग की प्रस्तावन करके, योगेश्वर श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग के क्रियात्मक अथवा चेष्टात्मक पहलुओं को ना कहकर, समभाव से, समबुद्धि से युक्त हो कृष्णयोग परायण होने को ही धर्म कहते हैं तथा इस धर्म की विषेशताओं पर प्रकाश डालते हैं कि इस धर्म के आचरण में, प्रयत्न के आरम्भ का, नाश नहीं होता, कोई विपरीत दोष भी विद्यमान नहीं है तथा इस धर्म का थोड़ा सा भी साधन महान भय से रक्षा करता है | (२/४०) महान भय अर्थात् संसार बंधन और संसार बंधन के कारणों जैसे काम, क्रोध, मोह, मत्सर आदि से रक्षा करता है | तथा इस योग में व्यावसायिक अर्थात् अविनाशी अमृततत्त्व का अर्जन और संचय करने वाली निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है | (२/४१) क्योंकी यह बुद्धि निश्चयपूर्वक एक ही परमतत्त्व के प्रति समर्पित होती है, अतः निश्चयात्मक होती है | इसके पश्चात् वेद इत्यादि प्रवृति विषयक शास्त्रों के अनुसार, बंधनकारी काम्यकर्मों में प्रवृत हुए मनुष्यों द्वारा नाशवान और बंधनकारी फल की प्राप्ति का विधान बताते हुए, प्रभु अर्जुन को कृष्ण योग परायण होने हेतु स्पष्ट निर्देश देते हुए गीता शास्त्र का बीजमंत्र रूपी महावाक्य कहते हैं, कि वेद तीन गुणों के बंधनकारी कर्म और नाशवान फल का ही वर्णन करते हैं | अतः अर्जुन ! तू तीनों गुणों से रहित होकर, निर्द्वन्द्व, नित्यसत्वस्थित, निर्योगक्षेम भाव से आत्मपरायण हो जा | (२/४५)
     
गीता शास्त्र के इस बीजमंत्र रूपी महावाक्य का परमात्मा श्रीकृष्ण स्पष्टीकरण भी करते हैं | निस्त्रैगुन्यो भव अर्जुन से परमात्मा श्रीकृष्ण अर्जुन को सन्देश देते हैं कि तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, कर्मफल में कभी नहीं | तू कर्मफल का हेतु कभी ना हो तथा कर्म ना करने में आसक्ति भी ना हो | (२/४७) निर्द्वन्द भाव को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि धनंजय ! योगयुक्त हो कर्मों के प्रति आसक्ति का त्याग करके, सफलता असफलता में सम होकर कर्म करो | समत्व भाव ही योग कहलाता है | (२/४८) निर्योगक्षेम भाव से जो प्राप्ति है, उसके विषय में कहते हैं कि समबुद्धि से युक्त मुनिजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल का त्याग करके, जन्मबंधन से मुक्त होकर, निर्विकार परमपद को प्राप्त होते हैं | (२/५१) नित्यसत्त्वस्थित किस प्रकार रहा जाता है, इस पर कहते हैं कि जिस काल में तेरी बुद्धि संसार मोहरूपी दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी, तब सुनने योग्य को सुन सकेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त कर सकेगा | (२/५२) तथा अन्त में आत्मपरायण होने को कहते हैं कि जिस काल में सुने हुए शास्त्रीय मतभेदों से विचलित तेरी बुद्धि निश्चला अर्थात् एक निष्ठा को प्राप्त होकर स्थिर हो जाएगी, तब तू समाधौ अर्थात् आत्मपरायण हो अचल रूप से योग को प्राप्त हो जायेगा | (२/५३)

इस प्रकार कृष्णयोग के आधारभूत स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रभु अन्त में कहते हैं कि जो पुरुष सम्पूर्ण सांसारिक कामनाओं का त्याग करके, स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित योग परायण हुआ जीवन निर्वाह करता है, वह परमशान्ति को प्राप्त होता है | (२/७१) और पार्थ ! यह परमशान्ति की अवस्था ही, ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थित्ति है, इसको प्राप्त करके पुरुष फिर कभी मोहित नहीं होता तथा इसमें स्थित हुआ पुरुष अन्तकाल में भी ब्रह्म निर्वाण को, परमधाम को  प्राप्त होता है | (२/७२)

द्वितीय अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सांख्य दृष्टि से समत्वं योग उच्यते तथा योग दृष्टि से योगः कर्मसु कौशलम् कह कर सांख्यदर्शन और योग दोनों से युक्त आचरण हेतु अर्जुन को उपदेश दिया था | परन्तु जैसा सदा से होता आया है, सभी मनुष्य पूर्वज्ञान और पूर्वाग्रह से भावित होते है, उन ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के तथा कतिथ जानकर मनुष्यों का पूर्वज्ञान और पूर्वाग्रह ही अर्जुन के माध्यम से यहाँ पर स्पष्ट होता है | अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण से प्रश्न करता है, कि जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ मान्य है, तब केशव ! मुझे घोर कर्मों में क्यों नियुक्त करते हो ? (३/१) इन मिले हुए वाक्यों से मेरी बुद्धि मोहित ही करते हैं, उस एक को निश्चित करके कहिये, जिससे मैं परम कल्याण को प्राप्त हो जाऊं | (३/२) तब योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में जो कृष्णायोग का उपदेश अर्जुन को दिया था, उसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं | कि निष्पाप अर्जुन इस देही के उत्थान हेतु दो प्रकार का बौद्धिक ज्ञान, निष्ठा अनुसार मेरे द्वारा कहा गया है, जिसमें ज्ञानयोगियों की निष्ठा का ज्ञान अर्थात् समत्वं योग उच्यते का भाव सांख्य दृष्टि से तथा योगः कर्मसु कौशलम् का भाव कर्मयोगियों की दृष्टि से कहा गया है | तथा इन दोनों निष्ठाओं का समावेश मैंने तेरे लिये सरल एवं सुगम कृष्णयोग हेतु करा है | (३/३) क्योंकी पुरुष कर्मों का आरम्भ किये बिना ‘नैष्कर्म्य’ को प्राप्त नहीं करता है और ना ही ‘संन्यास’ से सिद्धि को प्राप्त होता है | (३/४) तात्पर्य यह कि इस देही का ना तो योग परायण ना होने से उद्धार होता है और ना केवल संन्यास से ही अर्थात् सांख्यदर्शन से ही सिद्धि प्राप्त होती है | इसलिये इन दोनों का समावेश मैंने तेरे लिये सरल एवं सुगम कृष्णयोग हेतु करा है | क्योंकी कोई भी, क्षण मात्र भी, किसी भी अवस्था में कर्म किये बिना नहीं रह सकता, क्योंकी सभी प्रकृतिजन्य गुणों के द्वारा परवश हुए कर्म करने को बाध्य होते हैं | (३/५) इसलिये तू मेरे कहे अनुसार ‘नियतं कुरु’ अर्थात् विधिविशेष से निर्धारित होकर ‘कर्म त्वं’ तुम कर्म करो क्योंकी कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से शरीर यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी | (३/८) तात्पर्य यह कि प्रकृतिजन्य गुणों से परवश होकर, जीवन निर्वाह हेतु जिन कर्मों का आचरण आवश्यक है, उनको तू मेरे द्वारा कहे सांख्यदर्शन से भावित होकर, समत्वं योग उच्यते, बुद्धि से कर जिससे तू पाप को प्राप्त नहीं होगा अर्थात् अब और कर्मबंधन उत्पन्न नहीं करेगा तथा पूर्व  कर्मबंधनों के नाश हेतु यज्ञ के निमित्त कर्मों से अन्यत्र समस्त कर्म इस लोक के, शरीर के ही बंधन है, इसलिये कौन्तेय ! उस यज्ञ के लिये कर्मों का, आसक्तिरहित होकर, भलीभाँति आचरण कर | (३/९) 

इस प्रकार योग परायण होने को यज्ञार्थ कर्मों के आचरण का प्रस्ताव रख कर, योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्णयोग परायण होने को तत्पर प्रवेशिका श्रेणी के साधकों हेतु, देवतओं के पूजन का विधान कहते हैं, कि देवतओं के पूजन रूप यज्ञ के द्वारा तुम देवतओं को उन्नत करो, वे देवगण तुमको उन्नत करें, परस्पर उन्नत करते हुए श्रेय को प्राप्त करोगे | (३/११) यहाँ यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि इन यज्ञार्थ कर्मों का आचरण भी सांख्यदर्शन अनुसार होगा अर्थात् निष्काम भाव से, समभाव से होगा | यह यज्ञ दैवी सम्पदा अर्थात् दैविक गुणों के अर्जन और संचय हेतु कहा गया है और इस यज्ञ की अनिवार्यता स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञ द्वारा उन्नत देवता तुम्हें ‘इष्टान भोगान्’ अर्थात् ईष्ट सम्बन्धी भोगों को देते रहेंगे अर्थात् कर्मबंधन के नाश हेतु दैवी सम्पदा को देते रहेंगे तथा ‘तैः दत्तान् अर्थात् केवल वे ही देनेवाले हैं | (३/१२) इसके पश्चात् अन्य यज्ञों के बारे में ना कहते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण परमार्थ हेतु इन यज्ञों की अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सर्वव्यापी ब्रह्म नित्य ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है | (३/१५,उ०) अतः यज्ञार्थ कर्मों का आचरण अनिवार्य है | कृष्णायोग के स्वरूप को पुनः स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि आसक्तिरहित होकर निरन्तर कार्यंकर्म का भलीभाँति आचरण करो, क्योंकी अनासक्त भाव से कर्मों का आचरण करता हुआ पुरुष परं को प्राप्त होता है | (३/१९) कार्यंकर्म अर्थात् करने योग्य यज्ञार्थ कर्मों का आचरण सांख्यदर्शन के अनुसार समभाव से करता हुआ पुरुष परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त होता है | इसके पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण यह भी स्पष्ट करते हैं कि कृष्णायोग का आचरण केवल मुमुक्षुओं के लिये ही नहीं अपितु मुक्त पुरूषों के लिये भी अनिवार्य है | राजा जनक तथा स्वयं अपना उदाहरण देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ पुरूषों ने भी लोक संग्रह को विचार करते हुए कार्यंकर्मों को करने योग्य ही माना, लोक संग्रह अर्थात् प्रजा की उल्टे मार्ग में जाने वाली प्रवृति के निवारण रूप कार्यंकर्मों के आचरण को ही योग्य माना है | इस प्रकार मनुष्य मात्र के उत्थान हेतु कृष्णयोग के आचरण को अनिवार्य बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण सांख्यदर्शन की दृष्टि से तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् हेतु, कर्मों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते एक प्राकृतिक सिद्धांत की व्याख्या करते हैं कि समस्त कर्म सदैव प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित जीव मैं कर्ता हूँ, ऐसा मानता है | (३/२७) तथा अर्जुन को कर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि परन्तु महाबाहो ! गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त, समस्त गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होते | (३/२८)
  
योगेश्वर श्रीकृष्ण को समस्त विश्व पूर्णावतार मानता है, पूर्णावतार अर्थात् योगस्थ श्रीकृष्ण परमतत्त्व परमात्मा को सम्पूर्ण रूप से प्राप्त एक महापुरुष थे, परमतत्व परमात्मा और उनमें आंशिक रूप से भी कोई भेद ना था | इस स्थिति को प्राप्त योगेश्वर इस तथ्य से भी भलीभाँति परिचित थे कि प्रकृतिजन्य गुणों के कारण मनुष्य किस प्रकार अपने पूर्वज्ञान और पूर्वाग्रह से भावित रहता है | इसलिये ही उन्होंने (३/२५,२६ एवं २९) में विद्वानों और भविष्य में होनेवाले गीताशास्त्र के व्याख्याकारों को संबोधित करते हुए कहा कि जो कृष्णयोग परायण नहीं हैं, वे प्रकृति के गुणों से मोहित और कर्मों में आसक्त रहते हैं, ऐसे विद्वान कर्म को ना जानने वाले उन मन्दबुद्धि मनुष्यों को कर्म के विषय में विचलित न करें | (३/२९) तथा मुमुक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा कि अध्यात्मचेतसा अर्थात् अन्तरात्मा में चित्त का निरोध करके, समस्त कर्मों को मुझे अर्पण करके आशारहित और ममतारहित होकर युध्यस्व विगतज्वरः अर्थात् संतापरहित होने को युद्ध कर | (३/३०) तथा जो मनुष्य श्रद्धाभाव से, दोषदृष्टि से रहित मेरे इस मत का सदैव अनुसरण करते हैं, वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं | (३/३१) तात्पर्य यह कि जो मेरे मत में दोषारोपण करते हुए इसका अनुसरण नहीं करते, उन ज्ञान से मोहित भ्रमित चित्त वालों को नष्ट हुआ जान | (३/३२) अतः स्पष्ट है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित कृष्णयोग केवल कृष्णयोग है, इसमें कोई भी विद्वान ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग अथवा भक्तियोग को ना खोजे |

इस पर अर्जुन प्रश्न करता है कि तब किस के द्वारा प्रेरित होकर यह पुरुष पाप का आचरण करता है ? वार्ष्णेय ! बिना इच्छा के भी मानो बलात लगाया जाता है | (३/३६) अर्थात् आप से तो प्रेरित नहीं होता, तब आप के कहे अनुसार परमार्थ मार्ग का आचरण ना करके, यह पुरुष किससे प्रेरित होता है ? अर्जुन के इस प्रश्न का समाधान करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि रजोगुण से उत्पन्न यह काम, यह क्रोध कभी तृप्त न होने वाले महापापी हैं, इस विषय में इनको ही वैरी जान | (३/३७) जैसे धुएँ से अग्नि, मैल से दर्पण और गर्भाशय से गर्भ आवृत है, वैसे उनसे (काम और क्रोध से) यह ज्ञान आवृत है | (३/३८) कौन्तेय ! कभी तृप्त ना होनेवाली और ज्ञानियों की नित्य वैरी इस कामरूपी अग्नि से ज्ञान आवृत है | (३/३९) इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके निवास स्थान कहे जाते हैं, इनके द्वारा ही यह ज्ञान को आवृत करके देही को विशेषरूप से मोहित करता है | (३/४०) इसलिये भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! तुम सबसे पहले इन्द्रियों का वश में करके ज्ञान और विज्ञान का नाश करनेवाले पाप के कारण का ही दमन करो | (३/४१) काम का दमन किस प्रकार करा जाये, तो इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि इन्द्रियाँ सूक्ष्म और बलवान हैं, इन्द्रियों से सूक्ष्म और बलवान मन है परन्तु मन से सूक्ष्म और बलवान बुद्धि है परन्तु जो वह (देही) है, वो बुद्धि से भी सूक्ष्म और बलवान है | (३/४२) इस प्रकार बुद्धि से सूक्ष्म और बलवान स्वयं को जानकर, स्वयं के द्वारा स्वयं में, अपने स्वरूप में स्थित होकर, महाबाहो ! कामरूप दुर्जय शत्रु का परित्याग करो | (३/४३) इस प्रकार तृतीय अध्याय का समापन होता है |  

चतुर्थ अध्याय का प्रारंभ करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण सर्वप्रथम अर्जुन को कृष्णायोग की महत्ता का, इसके पुरातन और सनातन स्वरूप का वर्णन करते हैं तथा अव्यक्त और अक्षय रूप में स्थित परमतत्त्व परमात्मा के दिव्य तथा  अलौकिक जन्म एवं कर्म का भी वर्णन करते हैं कि किस प्रकार परमतत्त्व परमात्मा साधकों के उत्थान को, मोक्ष के अभिलाषी कृष्णयोग परायण साधकों के हृदय में रथी बन कर, उनके उद्धार को तथा दुष्कृत्य करने में हेतु काम, क्रोध आदि के नाश और साधकों के हृदय में कृष्णयोग रूपी धर्म को भलीभाँति स्थापित करने हेतु प्रकट होते हैं | इस प्रकार योगेश्वर परमात्मा के दिव्य जन्म और कर्म को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म अलौकिक हैं, इस प्रकार जो तत्त्व से जान लेता है, वह देह को त्यागकर पुनः जन्म को प्राप्त नहीं होता, मुझको प्राप्त होता है | (४/९) इस प्रकार जो तत्त्व से जान लेता है, तत्त्व से अर्थात् जिसके हृदय देश में परमात्मा रथी बनकर निर्देश करते हैं, उन निर्देशों को जो तत्त्व रूप से जान लेता है | वह देह को त्यागकर पुनः जन्म को प्राप्त नहीं होता अपितु परमतत्त्व परमात्मा को ही प्राप्त होता है | इस कृष्णयोग की सार्थकता को, अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं केवल यज्ञार्थ कर्मों का आचरण ही परमतत्त्व की प्राप्ति का साधन है क्योंकी इस मनुष्य लोक (देह) में कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र होती है | (४/१२) इसके पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण यज्ञार्थ कर्मों के स्वरूप को अर्थात् यज्ञ के और कर्म के दोनों के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं | 

योगेश्वर श्रीकृष्ण पहले कर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, कि मनुष्यों का चार वर्णों में अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र वर्ण में, कर्मों के अनुसार विभागपूर्वक विभाजन का जो यह सृष्टि का विधिविधान है, यह मेरे द्वारा रचा गया है | (४/१३) तात्पर्य यह कि मनुष्यों का यह विभाजन उनका कर्मों में प्रवृत होने के गुणों के अनुसार करा गया है | सात्त्विक गुणों से युक्त मनुष्य ब्राह्मण है, सात्त्विक-राजसी गुणों वाला क्षत्रिय, राजसी-तामसिक गुणों वाला वैश्य और तामसी गुणों वाला शुद्र स्वभाव का मनुष्य है | परन्तु गुण सात्त्विक हो अथवा तामसी, गुण प्रकृतिजन्य हैं, बंधनकारी हैं, ब्राह्मण हो अथवा शुद्र आवागमन को ही प्राप्त हैं | कर्मबंधन से मुक्ति को, इन गुणों से अतीत होकर अर्थात् आसक्तिरहित होकर ही कर्म करे जाते हैं | वे मनुष्य ना ब्राह्मण होते हैं, ना क्षत्रिय और ना ही वैश्य अथवा शुद्र, वे कृष्णयोग परायण साधक होते हैं, जिसके लिये योगेश्वर ने कहा था कि गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त, समस्त गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होते | (३/२८) और यही योगेश्वर द्वारा अन्य संदर्भ में भी कहा गया, योगः कर्मसु कौशलम् भाव है, (२/५०) इसी तथ्य का स्पष्टीकरण करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि चारों वर्ण को गुण और कर्मों के विभाग से मेरे द्वारा रचा गया है, उसका कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को अकर्ता जान | (४/१३) कारण कि मुझको कर्म लिप्त नहीं करते, क्योंकी मेरी कर्मफल में लालसा नहीं है, इस प्रकार जो मुझको भलीभाँति जान लेता है, वह कर्मों से नहीं बँधता | (४/१४) तात्पर्य यह कि यज्ञार्थ कर्मों के आचरण स्वरूप, जो मेरे स्वरूप को, कर्मों के करने के कौशल को जान लेता है, वह कर्मों से नहीं बँधता | इस प्रकार कर्मों के करने के कौशल को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि कर्म को भी जानना चाहिये और विकर्म को भी जानना चाहिये और अकर्म को भी जानना चाहिये क्योंकी कर्म की गति गहन है | (४/१७) कर्म की गति गहन है, कहने पर भी समझ नहीं आती, इसे विवेकपूर्ण विचार करके ही ज्ञात करा जाता है | तत्पश्चात् कर्म को, अकर्म को समझाते हुए, इन्हें परिभाषित करते हुए कहते हैं कि जो कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह बुद्धिमान है तथा वह अचल रूप से आत्मपरायण हुआ सम्पूर्ण रूप से कर्मों को करता है | (४/१८) तात्पर्य यह कि समस्त कर्म सदैव प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं और गुणों में उत्कर्ष अपकर्ष के अनुरूप ही कर्मों में उत्कर्ष अपकर्ष होता है, गुण अपने अनुसार कर्म करा ही लेते हैं तथा योगेश्वर के कहे अनुसार गुण गुणों में बरतते हैं, ऐसा जानकार, समझकर, विवेकपूर्ण विचारकर के, प्रत्यक्ष दृष्टा ज्ञानी, बुद्धिमान पुरुष कर्मों में आसक्त नहीं होते | (३/२८) इस प्रकार प्रत्यक्ष दृष्टा द्वारा बिना कामना और आसक्ति के किये समस्त कर्म कोई बंधन उत्पन्न नहीं कर पाते, यही कर्म में अकर्म का देखना है | परन्तु जो माया के आधिपत्य में चार वर्णों के अनुसार ही कर्मों में प्रवृत होते हैं, उनके समस्त कर्म, यहाँ तक कि उनकी जीवन में कर्मों के प्रति अकर्मण्यता भी बंधनकारी होती है, निश्चयात्मक बुद्धि से युक्त ज्ञानीजन इस प्रकार अकर्म में कर्म को, बंधन को देखता हुआ, अकर्म में भी प्रवृत नहीं होता, समबुद्धि से युक्त हुआ कृष्णयोग का ही आचरण करता है | यही अकर्म में कर्म को देखना है तथा स्थितप्रज्ञ महापुरुषों ने लोक संग्रह अर्थात् प्रजा की उल्टे मार्ग में जाने वाली प्रवृति के निवारण रूप कार्यंकर्मों के आचरण को, समभाव, समबुद्धि से युक्त हो जीवन निर्वाह को तथा निश्चयात्मक बुद्धि से कृष्णयोग के आचरण को ही योग्य माना है | ब्रह्म में स्थित, स्थितप्रज्ञ महापुरुषों के यह कर्म विकर्म अर्थात् विशिष्ट कर्म कहलाते हैं |

उपरोक्त रूप से कर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण यज्ञ के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए सर्वप्रथम स्थितप्रज्ञ महापुरुषों द्वारा किये गये कर्मों का, विकर्म का, विशिष्ट कर्मों के आचरण स्वरूप किये यज्ञ के स्वरूप का वर्णन करते हैं कि ब्रह्म में समाधिस्थ कर्म वाले पुरुष का अर्पण ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, ब्रह्म में स्थित पुरुष द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति भी ब्रह्म है, ब्रह्म में ही उसकी गति है | (४/२४) तात्पर्य यह कि यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करता हुआ पुरुष जब ब्रह्म में स्थित हो जाता है, तब उसके समस्त कर्म इस ब्रह्म की स्थिति का स्पर्श करके समाधिस्थ हो जाते हैं, ब्रह्म में स्थित पुरुष के समस्त कर्म भी ब्रह्ममय हो जाते हैं और ब्रह्म में ही उसकी गति है अर्थात् प्रारब्धवश प्राप्त देह का निर्वाह करते हुए भी वह ब्रह्मरूपा ही है और स्थित्वा अस्याम् अन्त काले अपि ब्रह्म निर्वाणम् ऋच्छति, (२/७२) इस स्थिति में स्थित पुरुष शरीर के अन्तकाल में भी ब्रह्मनिर्वाण को ही प्राप्त होता है |  

परन्तु जो अभी साधक है, वह क्या करे, किन यज्ञों का, यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करे ? पूर्व अध्याय में योगेश्वर ने सर्वप्रथम दैवी सम्पदा के अर्जन और संचय का निर्देश अर्जुन के प्रति कहा था | प्रवेशिका श्रेणी के इस यज्ञ से लेकर किन किन सौपनों को पार करता हुआ कृष्णयोग परायण साधक ब्रह्म में स्थित हो पाता है, उन यज्ञों का वर्णन योगेश्वर श्रीकृष्ण ने नहीं करा था | अब योगेश्वर श्रीकृष्ण यज्ञार्थ कर्मों हेतु प्रचलित यज्ञों में से, कृष्णयोग परायण साधक के उत्थान हेतु, अपने मतानुसार यज्ञों के स्वरूप स्पष्ट करते हैं | यहाँ ध्यान देने योग्य है कि योगेश्वर ने आगे यह स्पष्ट करा है कि अपने अपने स्वभाव में पायी जानेवाली योग्यता के अनुसार ही कर्म में लगा, जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्तिरूपी परमसिद्धि को प्राप्त होता है (१८/४५ पु०) तथा जिस परमात्मा से समस्त भूतों की उत्पत्ति हुई है, जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने स्वाभाविक कर्मों, यज्ञार्थ कर्मों, यज्ञों द्वारा अर्चन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होत है | (१८/४६) सारांशतः योगेश्वर श्रीकृष्ण का निश्चित किया हुआ मत है कि साधक को अपने स्वभाव के, गुणों के, वर्ण के अनुसार ही कर्मों का अनुसरण करते हुए जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु स्वधर्म के अनुसार ही यज्ञों का अनुष्ठान करना चाहिये | शुद्र श्रेणी के साधक के लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि शुद्र श्रेणी का साधक अपने से उन्नत अवस्था वाले, उच्च सौपनों को प्राप्त साधकों की तथा गुरुजनों, स्थितप्रज्ञ महापुरुषों की सेवा करे, यह शुद्र श्रेणी का साधक नीच नहीं अपितु अल्पज्ञ है, अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त करनी है, अतः ऐसा साधक परिचर्या से ही आरम्भ करे | (१८/४४,उ०) इस प्रकार सेवा करता हुआ, अवस्था उन्नत होने पर, हृदय में संस्कारों का सृजन होने पर यही शुद्र साधक वैश्य रूप से यज्ञों का अनुष्ठान करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है |

वैश्य अर्थात् जो साधक अर्जन और संचय की योग्यता रखता है, उस साधक के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि दुसरे अर्थात् वैश्य श्रेणी के साधक अर्जन हेतु योगयुक्त होकर देवताओं के पूजन रूप यज्ञ का भलीभाँति अनुष्ठान करते हैं, दुसरे ब्रह्म अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन करते हैं | (४/२५) तात्पर्य यह कि कर्म में निष्ठा रखने वाले वैश्य साधक दैवम् यज्ञम्; ‘यज्ञ’ अर्थात् कामना और आसक्तिरहित होकर देवतओं का पूजन करते हैं | आसुरी सम्पदा के विनाश हेतु दैवी सम्पदा का अर्जन करते हैं | अपने गुणों का, स्वभाव का उर्ध्वमुखी उत्थान करते हैं | तथा दुसरे सांख्य में निष्ठा रखने वाले वैश्य साधक सांख्यदर्शन के अनुसार तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्; तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप सर्वत्र परमात्मा तत्त्व के दर्शनरूप ‘यज्ञ का हवन’ अर्थात् कामनाओं और आसक्तियों से रहित होकर ज्योति स्वरूप, दिव्यरूप परमात्मातत्त्व का ध्यान करते हैं | इस प्रकार वैश्य साधक दैवम् यज्ञ से प्राप्त दैविक गुणों का अथवा ब्रह्म यज्ञ के स्वरूप ज्योतिर्मय दिव्य पुरुष से प्राप्त तेज का अर्जन करते हुए, इनके संचय हेतु एक अन्य उच्च सौपन के यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार अन्य पुरुष श्रोत आदि इन्द्रियों का संयम अग्नि में हवन करते हैं, अन्य शब्द आदि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करते हैं | (४/२६) इस उन्नत अवस्था को प्राप्त वैश्य श्रेणी के साधक दैवी सम्पदा का, ब्रह्म यज्ञ से प्राप्त तेज का संचय करने हेतु, इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के अनित्य संयोग वियोग में धैर्यपूर्वक आचरण करते हैं, इनसे व्यथित, व्याकुल नहीं होते | इस प्रकार वैश्य  श्रेणी के यज्ञों द्वारा साधक इन्द्रियों के द्वारा ही अन्तकरण में प्रवेश करके मन और बुद्धि में वास करने वाले काम, क्रोध आदि दुष्कृताम से युद्ध करने की क्षमता प्राप्त करते हैं, अमृततत्त्व की प्राप्ति के अधिकारी हो जाते हैं तथा क्षत्रिय श्रेणी के साधक होने की योग्यता को भी प्राप्त करते हैं | इस प्रकार उन्नति करते हुए, उच्च सौपनों को प्राप्त करते हुए, यह साधक उत्तरोत्तर उच्च साधना के अधिकारी बनते हैं |

क्षत्रिय श्रेणी के साधक द्वारा करने योग्य यज्ञों का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि दुसरे सम्पूर्ण इन्द्रियों की क्रियाओं और प्राणों की क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित होकर आत्म संयम योग रूप अग्नि में हवन करते हैं | (४/२७) तात्पर्य यह कि इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग वियोग से युद्ध करता हुआ क्षत्रिय श्रेणी का साधक सम्पूर्ण इन्द्रियों अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की प्रमथनशील क्रियाओं से अवगत हो जाता है कि यह इन्द्रियाँ किस प्रकार प्राणों की क्रियाओं द्वारा अर्थात् संकल्प विकल्प द्वारा, मन और बुद्धि का मंथन करती हैं | इस ज्ञान से प्रकाशित होकर यह क्षत्रिय श्रेणी के साधक आत्म संयम योग रूप अग्नि में हवन करते हैं, अर्थात् आत्म परायण होनेका प्रयत्न करते हैं | इन यज्ञों अर्थात् आत्म परायण होने के यज्ञार्थ कर्मों के आचरण द्वारा साधक ब्राह्मण श्रेणी का साधक होने की योग्यता को प्राप्त करता है, एक और उच्च सौपन को प्राप्त करने का अधिकारी बनता है | इस प्रकार उत्तरोत्तर अपना उत्थान करता हुआ कृष्णयोग परायण हुआ साधक उत्तरोत्तर उच्च श्रेणी के यज्ञों के अनुष्ठान को अग्रसर होता है | ब्राह्मण श्रेणी में अपनी स्थिति को दृढ़ करने हेतु, भलीभाँति आत्मपरायण होने के लिये, इन साधकों को योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार जिन यज्ञों का अनुसरण करना चाहिये उनमें द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ करनेवाले और दृढ़ व्रतधारी यत्नशील पुरुष स्वाध्याय रूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं | (४/२८)
ब्राह्मण श्रेणी की योग्यता प्राप्त करने के पश्चात् जिन यज्ञों का अनुष्ठान करा जाता है, उनके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि दुसरे अपानवायु को प्राणवायु में हवन करते हैं ऐसे ही प्राणवायु को अपानवायु में हवन करते हैं | प्राणवायु (और) अपानवायु की गति को रोककर प्राणायाम परायण होते हैं | (४/२९) इस प्राणायाम की एक अन्य विधि को बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने मतानुसार कहे इन यज्ञों के स्वरूप के वर्णन को विराम देते हुए कहते हैं कि दुसरे नियमित आहार करनेवाले प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं, यह सब भी, यज्ञों द्वारा पापों का नाश करनेवाले, यज्ञों के ज्ञाता हैं | (४/३०) तात्पर्य यह कि अपने स्वभाव, अपने गुणों, अपने वर्ण के अनुसार उपरोक्त निम्न अथवा उच्च सौपनों के यज्ञों का आचरण करनेवाले समस्त साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करनेवाले हैं और यज्ञों के स्वरुप के ज्ञाता हैं | पापों का नाश अर्थात् जन्म जन्मान्तरों में किये कर्मबंधन का नाश और परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति | इन यज्ञों द्वारा पापों का नाश कैसे होता है, इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, कि यज्ञ शेष के अमृत भोजी सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं | (४/३१,पु० ) यज्ञ शिष्ट अर्थात् यज्ञ के अनुष्ठान के पश्चात जो बचता है, जिस प्रकार वैदिक कर्म काण्डों के पश्चात् जिस भोज्य सामग्री से देवतओं का पूजन करा जाता है, पूजन के उपरान्त उसे परमात्मा का प्रसाद मानकर ग्रहण करा जाता है, उसी प्रकार परमार्थ मार्ग में यज्ञार्थ कर्मों के, यज्ञों के अनुष्ठान के पश्चात् जो शेष रहता है, जो इन यज्ञों का परिणाम है, वह योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार अमृततत्त्व है तथा इस यज्ञ शेष अमृततत्त्व के पान से सनातन ब्रह्म की प्राप्ति होती है | यह परमतत्त्व की प्राप्ति किस प्रकार होती है, इस तथ्य को स्पष्ट करने हेतु योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, यावन्मात्र समस्त कर्म ज्ञान से भलीभाँति समाप्त हो जाते हैं | (४/३३) द्रव्ययज्ञ; जिस यज्ञ की चर्चा योगेश्वर ने श्लोक संख्या (४/२८) में करी थी कि आत्मपरायण होने को प्रयत्नशील साधक प्राप्य धन सामग्री को भोगों हेतु व्यय न करके, देह सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए, शेष धन सामग्री को आत्मपथ में लगे साधकों, महापुरुषों और स्थितप्रज्ञ पुरूषों की सेवा में अर्पित करते हैं | परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकी द्रव्ययज्ञ यद्यपि सांसारिक संस्कारों को भस्म करने में सक्षम हैं, तब भी इनके बहिर्मुखी होने के कारण, सांसारिक विषयों और पदार्थों का संयोग होने के कारण, इन यज्ञों के अनुष्ठान स्वरूप सांसारिक विषयों का विसृजन कठिन है, अतः परमार्थ का साधन नहीं है | इसकी अपेक्षा अन्य यज्ञ जो अन्तर्मुखी है, एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित हैं, जिनका परिणाम केवल हृदयस्थ परमात्मा का साक्षात्कार ही है, वह यज्ञ श्रेष्ठ हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जिस यज्ञ शेष रूप अमृततत्त्व की प्राप्ति की चर्चा करी थी, उस अमृततत्त्व का पान करनेवाले साधकों की जो उपलब्धि है, जिसके द्वारा वे सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, वह यही ज्ञान है | यह ज्ञान सामान्य बौद्धिक ज्ञान नहीं है, शास्त्रों अथवा संतजनों के उपदेशों से प्राप्त ज्ञान नहीं है, अपितु इस ज्ञान की उत्पत्ति अमृततत्त्व के पान स्वरूप होती है, हृदय देश में होती है | समस्त यज्ञार्थ कर्मों के अनुष्ठान का, हृदयस्थ ईष्ट के साक्षात्कार का परिणाम, यह ज्ञान है | इस ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, कि सर्वं कर्म अखिलम्, अर्थात् मनुष्य के जन्म जन्मान्तरों से संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म तथा क्रियमाण सभी कर्म इस ज्ञान की प्राप्ति से, इस ज्ञान में ही समाहित हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, कोई कर्मबंधन नहीं रहता |
                         
यहाँ जिस ज्ञान की चर्चा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने करी है, वह अमृततत्त्व का पान करनेवाले साधकों को ही उपलब्ध होता है, यही गीता शास्त्र का सार है, इस ज्ञान की प्राप्ति कहाँ और कैसे होती है, इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि निःसंदेह इस लोक में इस ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला अन्य कुछ विद्यमान नहीं है, ‘तत्स्वयं’ उस ज्ञान को तू स्वयं ‘योग संसिद्धः कालेन’ जब योग सिद्ध होगा उस काल में ‘आत्मनि विन्दति’ स्वयं में ही पायेगा | (४/३८) योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ निश्चयात्मक रूप से कहते हैं कि निःसंदेह, समस्त संदेहों, शंकाओ से परे यह निश्चयात्मक तथ्य है कि इस लोक में अर्थात् इस देही की मुक्ति के लिये, कर्मबंधन के नाश के लिये आत्मज्ञान के समान पवित्र करने वाला अन्य कुछ भी विद्यमान नहीं है, क्योंकी इस ज्ञान से जो प्राप्ति है, उस परमतत्त्व परमात्मा से पवित्र अन्य कुछ भी नहीं है तथा अन्य कोई भी विधिविशेष, विधिविधान विद्यमान नहीं है, जिससे कर्मबंधन का नाश हो सके | उस ज्ञान को तू स्वयं अर्थात् यह अन्य सांसारिक ज्ञानों की तरह कहने सुनने का विषय नहीं है, योगेश्वर स्वयं भी अर्जुन को इस ज्ञान को प्राप्त करने की विधिविशेष ही कह पाये, परन्तु यह आत्मज्ञान नहीं कह पाये तथा ना ही यह ज्ञान अन्य किसी तत्त्वदर्शी महापुरुष के सानिध्य से यह प्राप्त होगा, इस ज्ञान को तुझे स्वयं ही प्राप्त करना है | यह ज्ञान कब और कहाँ प्राप्त होगा ? इस पर योगेश्वर कहते हैं कि जब योग सिद्ध होगा उस काल में, जब तू प्राणायाम परायण हो जायेगा उस काल में यह ज्ञान प्राप्त होगा तथा इस ज्ञान को तू स्वयं, हृदयस्थ ईष्ट के परायण होकर, आत्मनि विन्दति, स्वयं में ही पायेगा, इसलिये इसे आत्मज्ञान कहते हैं | यह ज्ञान बाहर कहीं से भी प्राप्त होने योग्य नहीं है | इसी आत्मज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए ही योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं (४/१९), सर्वं कर्माखिलं ज्ञाने परिसमाप्यते (४/३३) , ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते (४/३७) | इस ज्ञान की प्राप्ति ही कृष्णायोग का उद्देश्य है, ध्येय है, यही गीता शास्त्र का सार है |

वस्तुतः अध्याय चार में आत्मज्ञान को प्राप्त करने की विधिविशेष के साथ ही कृष्णयोग संबंधित महावाक्यों का अर्थात् उन महावाक्यों का जो कृष्णयोग की विधिविशेष से संबंधित है, उनका धारा प्रवाह समाप्त हो जाता है,  अन्यथा गीता शास्त्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण का प्रत्येक वाक्य एक महावाक्य है | अध्याय के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को निर्देश देते हैं कि योग द्वारा कर्मों का त्याग अर्थात् कर्मबंधन का नाश कर तथा ज्ञान द्वारा संशय का नाश कर | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ कहा गया ज्ञान वस्तुतः सांसारिक बौद्धिक ज्ञान है, विवेकबुद्धि है | अन्यथा जब तक संशय है, तब तक आत्मज्ञान की प्राप्ति तो होती नहीं, इसलिये यह आत्मज्ञान नहीं है | यह  ज्ञान वस्तुतः योगेश्वर द्वारा अर्जुन के प्रति सांख्य दृष्टि से कहा गया बौद्धिक ज्ञान है, जिसके लिये योगेश्वर ने पूर्व में कहा था कि इस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्म बंधन का नाश कर सकेगा | अपने इसी व्यक्तव्य को यहाँ दोहराते हुए कहते हैं कि आत्मपरायण पुरुष को, योगयुक्त पुरुष को कर्म नहीं बाँधते | (४/४१) इसलिये अज्ञानजन्य अर्थात् प्रकृति के गुणों से मोहित होने के कारण अविवेक से उत्पन्न हृदय में स्थित इस संशय को ज्ञानरुपी अर्थात् समभाव, समबुद्धि रूपी खड्ग से काटकर, योग में ही उठो, बैठो अर्थात् जीवन को ही योगमय बना लो | (४/४२) इस प्रकार अध्याय चार का समापन होता है |

अध्याय चार के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि अपने संशय को ज्ञान रूपी खड़क से काटकर अपने जीवन को योगमय बना लो | योगेश्वर के इसी व्यक्तव्य के स्पष्टीकरण हेतु अर्जुन योगेश्वर से प्रश्न करता है, कि कृष्ण ! (आप) कर्मों के संन्यास की और फिर योग की प्रशंसा करते हैं, इन दोनों में से जो श्रेयस्कर है, वह एक भलीभाँति निश्चय करके कहिये | (५/१) इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि संन्यास और कर्म यह दोनों योग निःसंदेह श्रेयस्कर हैं, परन्तु उन दोनों में कर्मसंन्यास से कर्मयोग विशेष रूप से श्रेष्ठ है | (५/२) तथा संन्यास और योग मार्ग की प्राप्ति और परिणाम से दोनों को समान बताते हुए स्पष्ट करते हैं, कि परन्तु महाबाहो ! ‘अयोगतः’ योग के आचरण के बिना संन्यास की प्राप्ति दुखद है, योगयुक्त मुनि शीघ्र ही ब्रह्म में भलीभाँति समाहित हो जाता है | (५/६) यही योगेश्वर ने पूर्व में भी अर्जुन को कहा था कि पुरुष कर्मों का आरम्भ किये बिना नैष्कर्म्य को प्राप्त नहीं करता है और ना ही संन्यास से सिद्धि को प्राप्त होता है | (३/४) सारांशतः स्पष्ट है कि ना केवल संन्यास से और ना कर्म संन्यास से सिद्धि प्राप्त होती है, अपितु संन्यास भाव से योग का आचरण अनिवार्य है | इसको योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में जानें तो वह कहते हैं, कि युक्त पुरुष (योग से युक्त पुरुष) कर्मफल को त्यागकर ‘नैष्ठिकीम् शान्तिम्’ (अर्थात् निष्ठायां भवाम् शान्तिम्; अपनी सांख्य अथवा कर्म निष्ठा के अनुसार) शान्ति को प्राप्त होता है और अयुक्त कामनाओं के कारण फल में आसक्त होकर बँधता है | (५/१२) तथा अध्याय चार में कहे आत्मज्ञान की प्राप्ति स्वरूप परमात्मा के साक्षात्कार और आवागमन से मुक्ति को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, कि परन्तु जिन्होंने उस आत्मज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश कर दिया है, उनका सूर्य की सदृश्य वह आत्मज्ञान परमतत्त्व परमात्मा को प्रकाशित करता है | (५/१६) आत्मज्ञान के द्वारा पापरहित होकर उस परमतत्त्व परमात्मा में बुद्धि, उसमें अन्तकरण, उसमें ही निष्ठा और उसके ही परायण होकर पुनः आवागमन को नही जाते हैं | (५/१७) सारांशतः अध्यात्मविद्या से नहीं, ब्रह्मविद्या से नहीं, किसी भी शास्त्र रूपी ज्ञान से नहीं अपितु जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि इस ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला कुछ भी नहीं है, योग की पराकाष्ठा को प्राप्त होकर उस आत्मज्ञान की प्राप्ति के द्वारा पवित्र होकर, पापरहित होकर तथा पूर्व श्लोक में कहे अनुसार परमतत्त्व परमात्मा को साक्षात् करके जब मन, बुद्धि और निष्ठा उसी परमात्मा से तद्रूप हो जाती है, एकीभाव हो जाती है | तब वह पुरुष आवागमन से मुक्त हो जाता है | यही परमगति, परमधाम, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण का चित्रण है | इस प्रकार अध्याय पाँच का समापन होता है |

गीता शास्त्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अब तक कहे, कृष्णयोग से सम्बंधित महावाक्यों का संकलन और
पुनरावृति रूप से मनन करने के पश्चात्, आइये अब इस अध्याय में प्रवेश करते हैं |

श्रीभगवानुवाच
अन्नाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः |
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः || (६/१)

अनाश्रितः कर्म फलम् कार्यम् कर्म करोति यः |
सः संन्यासी च योगी निः अग्नि न च अक्रियः || (६/१)

अनाश्रितः(आश्रय न लेकर), कर्म(कर्म), फलम्(फल का), कार्यम्(कर्तव्य रूपी), कर्म(कर्म), करोति(करता है), यः(जो) | सः (वह), संन्यासी(संन्यासी),(और), योगी(योगी), निः(रहित), अग्नि(अग्नि),(न),(और), अक्रियः(क्रियाहीन) | (६/१)

जो कर्म फल का आश्रय ना लेकर ‘कार्यं’ कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, अग्निरहित और क्रियाहीन नहीं | (६/१) 

आंशिक रूप से गीता शास्त्र में कृष्णयोग का विस्तार बाहरवें अध्याय तक है परन्तु मुख्यतः कृष्णयोग की विधि विशेष से सम्बंधित गीता शास्त्र का यह यह अंतिम अध्याय है | इस अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्णयोग के मुख्य मुख्य समस्त पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए इस अध्याय का समापन करते हैं | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो कर्मफल का आश्रय न लेकर कार्यं कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है | तात्पर्य यह कि काम्यकर्मों का त्याग, ‘निस्त्रैगुण्यो’ होने का भाव, निर्द्वन्द अर्थात् समभाव, समबुद्धि का आचरण, नित्यसत्त्वस्थित तथा निर्योगक्षेम भाव से आचरण करता हुआ, जीवन निर्वाह करता हुआ पुरुष जब ‘कार्यं कर्म’ का आचरण करता है, जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु आत्मपरायण होता है, वह संन्यासी और योगी है | स्पष्ट है कि सांख्य दृष्टि से, समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह और इसी सांख्य बुद्धि से युक्त होकर आत्मपरायण होने को प्रभु योग कहते हैं | अब निष्ठा आपकी कि आप किस प्रकार की निष्ठा से योग परायण होना चाहते हैं | सांख्य बुद्धि अनुसार अव्यक्त अक्षर ब्रह्म के आश्रय हो अथवा योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार उनके अर्थात् सगुण साकार परमात्मा के आश्रय होकर आत्मपरायण होना चाहते हैं |

साथ ही योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अग्नि का त्याग करनेवाला और अक्रियः, न संन्यासी है और न योगी | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण साधक की निष्ठा को इंगित करते हुए कहते हैं कि साधनरूपी ब्रह्म रूप अग्नि में निष्ठा रखनेवाले सांख्य मार्ग के साधक अगर ज्योति स्वरूप हृदयस्थ परमात्मा का, प्रकाश स्वरूप दिव्य पुरुष का त्याग करता है, आत्मपरायण होने को, योगाभ्यास को उसका त्याग करता है तो वह संन्यासी नहीं है और इसी प्रकार कर्म में आस्था रखनेवाला अगर समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह तथा इसी सांख्य बुद्धि से युक्त होकर सगुण साकार परमात्मा के परायण हो, यज्ञार्थ कर्मो का, योग का आचरण नहीं करता तो वह योगी नहीं है | संन्यास और योग के स्वरूप को और स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि  

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव |
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन || (६/२)

यम् संन्यासम् इति प्राहुः योगम् तम् विद्धि पाण्डव |
न हि असंन्यस्त सङ्कल्पः योगी भवति कश्चन || (६/२)

यम्(जिसको), संन्यासम्(संन्यास), इति(ऐसा), प्राहुः(कहते हैं), योगम्(योग), तम्(उसीको), विद्धि(जान), पाण्डव(अर्जुन) | न (न), हि(क्योंकी), असंन्यस्त(त्याग के बिना), सङ्कल्पः(संकल्पों के), योगी(योगी), भवति(होता है), कश्चन(कोई) | (६/२)

पाण्डव ! जिसको ‘संन्यास’ ऐसा कहते हैं, उसी को योग जान क्योंकी संकल्पों के त्याग के बिना कोई योगी नहीं हो सकता | (६/२)

क्योंकी संकल्पों के त्याग के बिना कोई योगी नहीं हो सकता, तात्पर्य यह कि योग का आचरण करने हेतु संकल्पोंका त्याग, काम्य कर्मों का त्याग, कर्मफल का त्याग एक अनिवार्यता है | वस्तुतः योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ संन्यास से अर्थात् सांख्यदर्शन से और कृष्णदर्शन से अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार योग के आचरण की एक रूपता पर, कृष्णयोग पर प्रकाश डाल रहें हैं और यही इस कृष्णयोग का आधार है अर्थात् जिसको संन्यास कहते हैं, उसी को योग जानो | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस योग की प्रस्तावना करते हुए कहा था कि ‘यह सब तुम्हारे लिये सांख्य बुद्धि से कहा गया है परन्तु इसको अर्थात् सांख्य बुद्धि को योग के विषय में भी सुनो | पार्थ ! जिस बुद्धि से योग युक्त होकर कर्मबन्धन का सर्वथा नाश कर सकेगा’ | (२/३९) स्पष्ट है कि सांख्य बुद्धि से संन्यास मार्ग से जीवन निर्वाह करता हुआ साधक ही अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता रखता है, अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी होता है क्योंकी इस रहनी के फलस्वरूप वह पाप को अर्थात् नये कर्मबंधन को प्राप्त नहीं होता और इसी बुद्धि से, सांख्य बुद्धि से, संन्यास बुद्धि से योग युक्त हुआ पुरुष ही कर्मबंधन का, संसारबंधन का नाश कर सकेगा | अतः स्पष्ट है कि इस कृष्णयोग का आधार ही सांख्यदर्शन है, संन्यास है | इसी को योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि जिसको ‘संन्यास’ कहते हैं उसी को योग जानो |

तब संन्यास और योग में भिन्नता क्या है ? वस्तुतः संन्यास एक रहनी है और योग आत्मपरायण होने को एक निश्चित विधिविशेष है | जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण का अर्जुन को निर्देश था कि अर्जुन ! तीनों गुणों से रहित हो, निर्द्वन्द, नित्यसत्त्वस्थित, निर्योगक्षेम और आत्मपरायण हो | (२/४५) यहाँ निस्त्रैगुण्यो भाव, निर्द्वन्द भाव, नित्यसत्त्वस्थित भाव और निर्योगक्षेम भाव साधक की रहनी है, जिसको योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सांख्यदर्शन से कहा है और आत्म परायण होने को योगी अपनी निष्ठा अनुसार स्वतंत्र है | योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार दुसरे योगयुक्त पुरुष देवताओं के पूजन रूप यज्ञ का भलीभाँति अनुष्ठान करते हैं, दुसरे ब्रह्म अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन करते हैं | (४/२५) यहाँ कर्म में आस्था रखने वाले पुरुष योगेश्वर श्रीकृष्ण के मतानुसार आचरण करनेवाले योगीजन दैवम् यज्ञम्; ‘यज्ञ’ अर्थात् कामना और आसक्तिरहित होकर देवतओं का पूजन करते हैं | आसुरी सम्पदा के विनाश हेतु दैवी सम्पदा का अर्जन और संचय करते हैं | अपने गुणों का, स्वभाव का उर्ध्वमुखी उत्थान करते हैं | कर्म में निष्ठा रखने वाले पुरुष जो जन्म जन्मान्तरों से देवतओं का पूजन सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिये करते रहे थे, वे अब परमार्थ हेतु इन्ही देवतओं का पूजन निष्काम भाव से करते हैं | तथा दुसरे ब्रह्म अग्नि में यज्ञ के द्वारा अर्थात् ब्रह्मज्ञान, सांख्यदर्शन के अनुसार तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्, तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप सर्वत्र परमात्मा तत्त्व के दर्शनरूप ‘यज्ञ का हवन’ अर्थात् कामनाओं और आसक्तियों से रहित होकर ज्योति स्वरूप दिव्यरूप परमात्मातत्त्व का ध्यान करते हैं | यह यज्ञ सांख्य निष्ठा में आस्था रखने वाले पुरूषों द्वारा करा जाता है | तात्पर्य यह कि आत्मपरायण होने को योगी अपनी निष्ठा अनुसार स्वतन्त्र है और इसी रूप से जैसा अध्याय चार में हमने मनन करा था, वैसे ही सांख्य का योगी अर्थात् संन्यासी और कर्म में आस्था रखनेवाला कृष्णयोग का अनुयायी दोनों अपना उत्थान करते हुए परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त होते हैं |

यही संन्यास मार्ग और कर्म मार्ग की एक रूपता और भिन्नता है | इसको और भी स्पष्ट रूप से आत्मसात करने को योगेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा उपदेशित दो अन्य महावाक्यों का चिंतन मनन साधकों के लिये अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा | योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार “पुरुष कर्मों का आरम्भ किये बिना नैष्कर्म्य को प्राप्त नहीं करता है और ना ही संन्यास से सिद्धि को प्राप्त होता है | (३/४)” तथा “योग के आचरण के बिना संन्यास की प्राप्ति दुखद है, योगयुक्त मुनि शीघ्र ही ब्रह्म में भलीभाँति समाहित हो जाता है | (५/६)” इन महावाक्यों का चिंतन मनन करता हुआ जो साधक इस निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि योग परायण होने को सांख्यदर्शन अनुसार जीवन निर्वाह आवश्यक है और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु सांख्य के साधक को भी, संन्यासी को भी योग का आचरण आवश्यक है, मेरे अनुभव में वह कृष्णयोग को भलीभाँति आत्मसात कर पायेगा | इसी सांख्य और योग की एक रूपता को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते |
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते || (६/३)
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते |
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते || (६/४)

आरुरुक्षोः मुनेः योगम् कर्म कारणम् उच्यते |
योग आरुढस्य तस्य एव शमः कारणम् उच्यते || (६/३)
यदा हि न इन्द्रिय अर्थेषु न कर्मसु अनुषज्जते |
सर्व सङ्कल्प संन्यासी योग आरूढः तदा उच्यते || (६/४)

आरुरुक्षोः(आरूढ़ होने की इच्छा वाले), मुनेः(मननशील पुरुष के लिये), योगम्(योग में), कर्म(कर्म), कारणम्(हेतु), उच्यते(कहा जाता है) | योग(योग), आरुढस्य(आरूढ़ हुए), तस्य(उस), एव(ही), शमः(सर्व संकल्पों का अभाव), कारणम् (हेतु), उच्यते(कहा जाता है) | (६/३)
यदा(जब), हि(क्योंकी),(न), इन्द्रिय(इन्द्रियों के), अर्थेषु(अर्थ में),(न), कर्मसु(कर्मों में), अनुषज्जते(आसक्त होता है) | सर्व (समस्त), सङ्कल्प(संकल्पों का), संन्यासी(संन्यासी, त्यागी), योगारूढः(योगारूढ़), तदा(तब), उच्यते(कहा जाता है) | (६/४)

योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिये ‘कर्म’ (ही) हेतु कहा जाता है, उस योगारूढ़ (मुनि के लिये) ‘शमः’ ही हेतु कहा जाता है | (६/३)
क्योंकी जब ना इन्द्रियों के अर्थों में, ना कर्मों में आसक्त होता है, तब सर्व संकल्पों का त्यागी (संन्यासी) योगारूढ़ कहा जाता है | (६/४)

जिस प्रकार अज्ञान के कारण भोगों का मनन करनेवाला देही देह रूपी यंत्र पर आरुढ़ होकर संसार में रमण करता है, उसी प्रकार परमतत्त्व परमात्मा में रमण करनेवाला, आत्मपरायण होने को, योग युक्त होने को तत्पर मुनि अर्थात् मननशील पुरुष के लिये कर्म ही अर्थात् कार्यंकर्म, नियतं कर्म, यज्ञार्थ कर्म ही हेतु कहा जाता है तथा उस योगारूढ़ अर्थात् योग में आरूढ़ पुरुष का योग से युक्त होने का कारण है, ‘शमः’ शांति अर्थात् मन में संकल्पों विकल्पों के तांडव का अभाव | जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि कौन्तेय ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख देनेवाले इन्द्रियों और विषयों के संयोग-वियोग तो आने-जाने वाले, अनित्य हैं | भारत ! उनको सहन करो | (२/१४) क्योंकि पुरुष श्रेष्ठ ! सुख-दुःख में सम रहने वाले जिस धीर पुरुष को यह व्यथित नहीं करते, वह अमृत की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१५) तात्पर्य यह कि सर्वसंकल्प त्यागी ही अमृततत्त्व का, योग से युक्त होने का, योगारूढ़ होने का अधिकारी होता है |

क्योंकी जिस काल में ना तो ‘इन्द्रियार्थेषु’ अर्थात् ना तो इन्द्रियों के विषयों में रमण करता है और ना ‘कर्मसु’ अर्थात् ना भोगों हेतु और ना भोग सामग्री के संग्रह हेतु कम्याकर्मो में आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है | तात्पर्य यह कि जैसा योगेश्वर ने पूर्व श्लोकों में कहा कि जो कर्म फल का आश्रय ना लेकर ‘कार्यं’ कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है तथा जिसको ‘संन्यास’ ऐसा कहते हैं, उसी को योग जान क्योंकी संकल्पों के त्याग के बिना कोई योगी नहीं हो सकता | अतः स्पष्ट है कि आत्मपरायण होने को, योग युक्त होने को आपकी निष्ठा कोई भी हो परन्तु योगारूढ़ होने को संन्यास की रहनी, योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित सांख्य बुद्धि से जीवन निर्वाह को आपकी रहनी, एक आवश्यक और अनिवार्य तत्त्व है | इस प्रकार योगारूढ़ता से, आत्मपरायणता से प्राप्ति को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि 
   
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः || (६/५)
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः |
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् || (६/६)



उद्धरेत् आत्मना आत्मानम् न आत्मानम् अवसादयेत् |
आत्मा एव हि आत्मनः बन्धुः आत्मा एव रिपुः आत्मनः || (६/५)
बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जितः |
अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् || (६/६)
                                                                                                                                                                                                                           
उद्धरेत्(उद्धार करे), आत्मना(स्वयं के द्वारा), आत्मानम्(स्वयं का),(न), आत्मानम्(स्वयं का), अवसादयेत्(पतन करे) | आत्मा(आत्मा), एव(ही), हि(क्योंकी), आत्मनः(जीव की), बन्धुः(बन्धु है), आत्मा(आत्मा), एव(ही), रिपुः(शत्रु), आत्मनः(जीव की) | (६/५)
बन्धुः(मित्र है), आत्मा(आत्मा), आत्मनः(जीव की), तस्य(उसकी), येन(जिसने), आत्मा(आत्मा) एव(ही), आत्मना(स्वयं के द्वारा), जितः(जीत लिया है) | अनात्मनः(जो स्वयं ही अपना नहीं), तु(परन्तु), शत्रुत्वे(शत्रुता में), वर्तेत(बरतती है), आत्मा (आत्मा), एव(ही), शत्रुवत्(शत्रु के सदृश्य) | (६/६)

स्वयं के द्वारा स्वयं का उद्धार करे, स्वयं का पतन ना करे क्योंकी आत्मा ही जीव की बन्धु है (और) आत्मा ही जीव की शत्रु है | (६/५)
आत्मा उस जीव की मित्र है जिसने स्वयं ही आत्मा को जीत लिया है, परन्तु ‘अनात्मनः’ से आत्मा ही शत्रु के सदृश्य शत्रुता में बरतती है | (६/६)  

उद्धरेत् आत्मना आत्मानम्’ मुनष्य स्वयं के द्वारा स्वयं का उद्धार करें, यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्वयं को इंगित करने हेतु ‘आत्मना’ शब्द का प्रयोग करा है, इससे योगेश्वर श्रीकृष्ण का मंतव्य है कि तू मेरा ही सनातन अंश है और अपने उद्धार को अर्थात् अपने स्वरूप की प्राप्ति को, परमतत्त्व की प्राप्ति को, आत्मपरायण होकर तुझे स्वयं ही अपना उद्धार करना पड़ेगा | परमतत्त्व की प्राप्ति साधक का स्वयं का प्रयास है, परमतत्त्व परमात्मा तो हृदयस्थ होकर केवल दिशा निर्देश करता है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘अहम् आत्मा गुडाकेश सर्व भूत आशय स्थितः’ (१०/२०) अर्जुन ! मैं समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मा रूप से स्थित हूँ | परमतत्त्व परमात्मा का यह हृदयस्थ स्वरूप, हृदयस्थ विभूति आत्मा ही आत्मपरायण साधक का दिशा निर्देश करता है | अतः स्वयं के द्वारा ही सर्वप्रथम आत्मपरायण होकर स्वयं का उद्धार करें, तभी तो प्रभु दिशा निर्देश दे पाएंगे |
                                                  
‘न आत्मानम् अवसादयेत्’ स्वयं का पतन ना करें, आत्मपरायण ना होकर भोगों में रमण करनेवाला पुरुष अपना पतन अर्थात् माया के पाश से स्वयं को स्वयं ही बांधे रखता है, यही स्वयं का पतन करना है | संसार में रमण करने में तो अनेक बन्धु बांधव दिखाई पड़ते हैं, आत्मपरायण होने में कौन संगी साथी है ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं,  कि

‘आत्मा एव हि आत्मनः बन्धुः’ परमतत्त्व परमात्मा का यह हृदयस्थ स्वरूप आत्मा ही आत्मपरायण साधक का बन्धु है, उसका मित्र है, उसका दिशा निर्देश करता है, क्योंकी वह हृदयदेश में ही रहता है, वहीं मिलता है | परन्तु

‘आत्मा एव रिपुः आत्मनः’ यह आत्मा ही उस पुरुष का शत्रु भी है | परमतत्त्व परमात्मा का यह हृदयस्थ स्वरूप आत्मा किस प्रकार मनुष्य का मित्र है और किस प्रकार उसका शत्रु है, इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

‘बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य’ उस आत्मपरायण पुरुष का, साधक का परमतत्त्व परमात्मा का यह हृदयस्थ स्वरूप आत्मा बन्धु है, मित्र है | किसका ?

‘येन आत्मा आत्मना जितः’ जिस आत्मपरायण पुरुष ने, साधक ने स्वयं को जीत लिया है अर्थात् जिस साधक ने योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित सांख्य बुद्धि का आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करना आरम्भ कर दिया है, समभाव, समबुद्धि से युक्त हो निर्द्वन्द भाव से, नित्यसत्वस्थित भाव से, निर्योगक्षेम भाव से, निस्त्रैगुण्यो भाव से आत्मपरायण होकर योगाभ्यास शुरू कर दिया है, ऐसा साधक हठी, बलवान और प्रमथन स्वभाववाली इन्द्रियों के वेग को सहने में समर्थ हो जाता है, वह  इन्द्रियों, मन और बुद्धि का दास ना होकर अब उनका स्वामी हो जाता है, उस आत्मपरायण पुरुष का, साधक का परमतत्त्व परमात्मा का यह हृदयस्थ स्वरूप आत्मा बन्धु है, मित्र है | क्योंकी अब वह साधक योगेश्वर के दिशा निर्देश को ज्ञात करके कर्मबन्धन से, आवागमन से मुक्त हो अपने स्वरूप की प्राप्ति को अग्रसर हो गया है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि वह इससे बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं मानता | ऐसे साधक को योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिसने आत्मपरायण होकर स्वयं को जित लिया है, आत्मा उसका बन्धु है, मित्र है |

‘अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत’ परन्तु जो आत्मपरायण नहीं है, वह स्वयं से ही शत्रुवत व्यवहार करता है | क्योंकी

‘आत्मा एव शत्रुवत्’ आत्मा ही उससे शत्रुवत व्यवहार करती है | वस्तुतः परमतत्त्व परमात्मा किसी से भी शत्रुवत व्यवहार नहीं करते, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार पार्थ ! जो मुझको जैसे पूजते हैं, मैं उनको वैसे ही भजता हूँ, सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का का अनुसरण करते हैं | (४/११) अतः जो आत्मपरायण नहीं है, परमात्मा को विस्मृत किये हैं, संसार में भोगों में ही रमण करने वाले हैं, ऐसा पुरुष अपने स्वरूप को, परमतत्त्व परमात्मा को ना पाकर संसार को, अधम योनियों को, आवागमन को ही प्राप्त होता है, आत्मा ही उसे जीवन मरण के चक्र में भरमाती है, यही आत्मा की उससे शत्रुता है |

सारांशतः आकाश के किसी गढ्ढे में कोई चित्रगुप्त नामक देव आपके कर्मों का, पुण्यों का, पापों का हिसाब किताब नहीं रखता अपितु परमतत्त्व परमात्मा का हृदयस्थ स्वरूप आत्मा ही जीवात्मा को भिन्न भिन्न योनियों में, आवागमन में, जन्म मरण के चक्र में भरमाती है और यह आत्मा ही उस साधक का दिशा निर्देश करती हुई उसे परमगति, परमधाम प्रदान करती है | यही आत्मा की जीवात्मा से मित्रता और शत्रुता है | आत्मा के इसी गुण को आधार बनाकर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सर्वप्रथम गीता शास्त्र का बीजमंत्र रूपी उपदेश दिया था कि वेद तीन गुणों के कार्य का ही वर्णन करते है | अर्जुन ! तीनों गुणों से रहित हो जा, निर्द्वन्द, नित्यसत्त्वस्थित, निर्योगक्षेम और आत्मपरायण हो | (२/४५) अर्थात् वेदों का कार्यक्षेत्र तो तीनों गुणों से प्रभावित है, वह अनन्त योनियों में ही भरमाते हैं इसलिये अर्जुन तू सांख्यदर्शन अनुसार निस्त्रैगुण्यो, निर्द्वन्द, नित्यसत्त्वस्थित और निर्योगक्षेम भाव से जीवन निर्वाह करता हुआ तथा इन्ही भावों से युक्त होकर आत्मपरायण हो जा, क्योंकी अपने उद्धार का यह आत्मपरायण होना ही एक मात्र साधन है | इस प्रकार आत्मपरायण होने को योग की अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए, आत्मतत्व की महिमा को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते है | कि
                                                                                                                                                                                                                                                                                                
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः |
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः || (६/७)

जित आत्मनः प्रशान्तस्य परम आत्मा समाहितः |
शीत उष्ण सुख दुःखेषु तथा मान अपमानयोः || (६/७)

जित(जीता हुआ है), आत्मनः(स्वयं को), प्रशान्तस्य(भलीभाँति शान्त), परम(परं), आत्मा(आत्मा), समाहितः(समाहित है) | शीत(शीत), उष्ण(उष्ण), सुख(सुख), दुःखेषु(दुःख में), तथा(तथा), मान(मान), अपमानयोः(अपमान में) | (६/७)       

जो स्वयं को जीता हुआ, शीत उष्ण, सुख दुःख तथा मान अपमान में भलीभाँति शान्त है, वह परमात्मा में सम्यक रूप से स्थित है | (६/७)

शीत उष्ण, सुख दुःख और मान अपमान अर्थात् द्वंदों के प्रति जिसके अन्तःकरण की वृतियाँ शान्त हैं, समभाव, निर्द्वन्द भाव में जिसकी भली प्रकार से स्थिति है और जो स्वयं को जीता हुआ है अर्थात् जो अपने स्वरूप में स्थित है, वह परमात्मा में सम्यक रूप से स्थित है अर्थात् वह अब सम्यक रूप से आत्मपरायण हो गया है | आत्मपरायण होना और आत्मज्ञान होना दो भिन्न और विलक्षण स्थितियाँ है, यहाँ साधक योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार योग में आरुड़ होने की इच्छा से योग का आचरण प्रारंभ कर रहा है | योगस्थ अवस्था में अर्थात् जब वह योग का अभ्यास करता है, प्राणायाम परायण होने का अभ्यास करता है, उस क्षण वह परमात्मा में सम्यक रूप से स्थित है, अभी उसे आत्मज्ञान अथवा साक्षात्कार नहीं हुआ है | योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ योगारूढ़ पुरुष का चित्रण कर रहे हैं | इसी क्रम में कहते हैं, कि 
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः |
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः || (६/८)
ज्ञान विज्ञान तृप्त आत्मा कुट स्थः विजित इन्द्रियः |
युक्त इति उच्यते योगी सम लोष्ट्र अश्म काञ्चनः || (६/८)
                                                                            
ज्ञान(योगेश्वर द्वारा कहा बौद्धिक ज्ञान), विज्ञान(योगेश्वर द्वारा कही विधिविशेष), तृप्त(ओतप्रोत), आत्मा(पुरुष), कुट (पूर्णतया), स्थः(स्थिर), विजित(विशेष रूपसे जीती हुई), इन्द्रियः(इन्द्रियाँ) | युक्त(युक्त), इति(ऐसा), उच्यते(कहते हैं), योगी(योगी), सम (समभाव), लोष्ट्र(कंकर), अश्म(पत्थर), काञ्चनः(स्वर्ण में) | (६/८)

ज्ञान विज्ञान से तृप्त आत्मा, पूर्णतया स्थिर, जिसने विशेष रूप से इन्द्रियाँ जीती हुई हैं, जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण समान हैं, वह योगी ‘युक्त’ है, ऐसा कहा जाता है | (६/८)

ज्ञान विज्ञान से तृप्त आत्मा, ज्ञान से तृप्त अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित बौद्धिक ज्ञान को अक्षरशः आत्मसात करा हुआ पुरुष तथा इस ज्ञान द्वारा योग से युक्त होने की विधिविशेष से युक्त होकर साधना स्वरूप इसके योगात्मक, चेष्टात्मक पहलुओं से पूर्व श्लोक में कहे अनुसार योगाभ्यास अवस्था में परमात्मा में सम्यक रूप से स्थित है, अभी उसका योग सिद्ध नहीं हुआ है | इस प्रकार इस स्थिति में पूर्णतया स्थिर पुरुष, जिसने विशेष रूप से इन्द्रियाँ जीती हुई हैं तात्पर्य यह कि काल के सापेक्ष से अथवा कहें कि वृद्धावस्था के कारण इन्द्रियाँ शिथिल नहीं हुई हैं, अपितु इन्द्रियाँ पूर्ण रूप से वेगवान हैं परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार जिस साधक ने स्वयं को जीता हुआ है, स्वयं अर्थात् प्रमथनशील इन्द्रियों के वेग को सहने की क्षमता प्राप्त कर ली है, इस प्रकार जिसने विशेष रूप से इन्द्रियाँ जीती हुई हैं, जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण समान है, वह योगी ‘युक्त’ है, ऐसा कहा जाता है | सारांशतः योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यहाँ योगारूढ़ पुरुष कब योग से ‘युक्त’ कहा जाता है, उस पुरुष को परिभाषित करा है | युक्त पुरुष का देह अर्थात् इन्द्रियों, मन और बुद्धि और देह के भोगों अर्थात् स्वर्ण आदि में समभाव से रहनी के उपरान्त, योगेश्वर अन्त में उस योग युक्त पुरुष के देह के संबंधो के प्रति कहते हैं, कि      

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु |
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते || (६/९)

सुहृद् मित्र अरि उदासीन मध्यस्थ द्वेष्य बन्धुषु |
साधुषु अपि च पापेषु सम बुद्धिः विशिष्यते || (६/९)

सुहृद्(स्वार्थरहित सबका हितैषी), मित्र(मित्र), अरि(वैरी), उदासीन(पक्षपातरहित), मध्यस्थ(मित्र और वैरी में समभाव) द्वेष्य(द्वेषी), बन्धुषु(बन्धुओं में) | साधुषु(साधुओं में), अपि(भी),(और), पापेषु(पापियों में), सम(समान), बुद्धिः(बुद्धिवाला)  विशिष्यते(विशेष रूप से श्रेष्ठ है) | (६/९)

सुहृदय, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी, बन्धुओं, साधुओं और पापियों में भी समबुद्धिवाला विशेषरूप से श्रेष्ठ है | (६/९)

सुहृदय अर्थात् स्वार्थ रहित आपको चाहनेवाले, मित्र अर्थात् आपक हित चाहनेवाले, वैरी अर्थात् आपका अहित चाहनेवाले, उदासीन अर्थात् पक्षपात रहित पुरुष, मध्यस्थ अर्थात् आपके मित्रों और वैरियों में सम पुरुष, द्वेषी अर्थात् आपकी प्राप्ति से द्वेष रखनेवाले, बन्धुओं अर्थात् आपकी प्राप्ति से प्रसन्न पुरुष, साधुओं अर्थात् पुन्य आत्मा और पापियों में भी समबुद्धि वाला योग युक्त पुरुष विशेषरूप से श्रेष्ठ है | मेरे अनुभव में योगेश्वर श्रीकृष्ण का पूर्व श्लोक और इस श्लोक में वर्णित योग से युक्त पुरुष के प्रति ऐसा कहना कि यह विशेष रूप से श्रेष्ठ है, इस भाव को इंगित करता है, कि इन्द्रियों और इन्द्रियों के भोगों से भी कठिन है पुरुष का भाव संबंधो में समभाव से रहना |

यहाँ तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने योग में आरूढ़ होने वाले पुरुष के लिये सन्यास और योग की एकरूपता और योग में आरुड़ होने की इच्छावाले पुरुष की, योगारूढ़ पुरुष की तथा योग से युक्त पुरुष की स्थिति का चित्रण करा, यह युक्त पुरुष ही योग के संसिद्ध काल में आत्मज्ञान को प्राप्त होता है | अब आगे पाँच श्लोकों में इस योग से युक्त होने हेतु इस योग के चेष्टात्मक पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं, कि 

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः |
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः || (६/१०)

योगी युञ्जीत सततम् आत्मानम् रहसि स्थितः |
एकाकी यत् चित्त आत्मा निराशि अपरिग्रहः || (६/१०)

योगी(योगी), युञ्जीत(योग में लगाये), सततम्(निरन्तर), आत्मानम्(स्वयं), रहसि(एकान्त स्थान में), स्थितः(स्थित होकर) | एकाकी(अकेला ही), यत्(जिसका), चित्त(चित्त), आत्मा(स्व स्वरूप), निराशि(आशारहित), अपरिग्रहः(संग्रह और स्वामित्व की भावना से रहित होकर) | (६/१०)

‘यतचित्तात्मा’, निराशी, अपरिग्रही योगी अकेला ही एकान्त में स्थित होकर स्वयं को निरन्तर योग में लगाये | (६/१०)

पुरुष देह, देह के संबंधो और देह के भोगों में रमण करता हुआ ही संसार चक्र में भ्रमण करता है | इसके विपरीत मुमुक्षुओं के लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण का दिशा निर्देश है कि अब ‘यतचित्तात्मा’ जिसका चित्त आत्मपरायण होने को तत्पर हो गया है देह से उपराम हो गया है और ‘निराशी’ अर्थात् देह के संबंधो से भी मोह का त्याग करके आशारहित हो गया है तथा ‘अपरिग्रहः’ अर्थात् भोग बुद्धि से भोग सामग्री के संग्रह और स्वामित्व की भावना से भी रहित हो गया है, ऐसा योगी अकेला ही अर्थात् देह देही के भेद का ज्ञाता और  इस भाव से भावित पुरुष कि योग कोई सत्संग नहीं है, जहाँ परिवार अथवा समाज मिलकर परमात्मा को भजते हैं, योग एक अन्तरमुखी पूजन, तपस्या, साधना है, इसलिये यहाँ अकेला ही योग परायण होने का विधान है | इस भाव से भावित यह योगी अकेला ही एकान्त में अर्थात् जहाँ एक मैं तो हूँ, इस भाव का भी अन्त हो सके, एक का भी अन्त करने में सक्षम स्थान एकान्त कहलाता है, जहाँ साधना परायण होकर साधक अपने को भी भूल पाये, ऐसे एकान्त में स्थित होकर स्वयं को निरन्तर योग में लगाये अर्थात् प्राणायाम परायण होने का प्रयास करे |

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः |
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् || (६/११)

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरम् आसनम् आत्मनः |
न अति उच्छ्रितम् न अति नीचम् चैल अजिन कुश उत्तरम् || (६/११)

शुचौ(शुद्ध, पवित्र), देशे(देश में, स्थान में), प्रतिष्ठाप्य(स्थापित करे), स्थिरम्(दृढ़), आसनम्(आसन को), आत्मनः(स्वयं के) | न(न), अति(अधिक), उच्छ्रितम्(ऊँचा),(न), अति(अधिक), नीचम्(निचा), चैल(मुलायम वस्त्र), अजिन(मृगचर्म) कुश (कुशा), उत्तरम्(आवरण रूप में हो) | (६/११)

शुद्ध स्थान में स्वयं के लिये ना अधिक ऊँचा, ना अधिक निचा, उत्तरोतर कुशा, मृगचर्म और मुलायम वस्त्र से स्थिर आसन को स्थापित करे | (६/११)

सम्पूर्ण गीता शास्त्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने साधक की पंचभोतिक देह की शुद्धता, पवित्रता के संबंध में एक भी श्लोक नहीं कहा, ऐसा योगस्थ पुरुष स्थान की शुद्धता और पवित्रता के लिये कोई उपदेश नहीं दे सकता, योगेश्वर ने तो अगले श्लोक में अंतःकरण की शुद्धि हेतु योगी को योग से युक्त होने का उपदेश दिया है | यहाँ ‘शुचौ देशे’ अर्थात् शुद्ध, पवित्र देश अथवा स्थान कहने से योगेश्वर श्रीकृष्ण का तात्पर्य यह है कि जो स्थान योगी को ‘अकेला’ और ‘एकान्त’ स्थान उपलब्ध करा सकता है, वही शुद्ध और पवित्र स्थान है | ऐसे स्थान में योगी स्वयं के लिये स्थिर आसन स्थापित करे | तत्त्ववित पुरूषों का मत है कि योगी को कम से कम एक पहर योग का अभ्यास कारण चाहिये | इस अभ्यास हेतु योगी को एक स्थिर आसन की आवश्यकता होती है | यह आसन ना अधिक ऊँचा होना चाहिये और ना निचा, ऊँचा आसन अहंकार को आकर्षित करता है और निचा हीनभावना को, अतः आसन ना अधिक ऊँचा हो ना अधिक निचा तथा उस आसन पर उत्तरोतर कुशा, मृगचर्म और मुलायम वस्त्र बिछा लेने चाहिये, कुशा और मृगचर्म तात्पर्य यह कि आसन विद्युत आदि तरगों का कुचालक होना चाहिये तथा मुलायम वस्त्र अर्थात् आसन इस प्रकार का हो जो एक पहर तक सतत योगाभ्यास हेतु योगी को सहज हो |  

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः |
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये || (६/१२)

तत्र एकाग्रम् मनः कृत्वा यत् चित्त इन्द्रिय क्रियः |
उपविश्य आसने युञ्ज्यात् योगम् आत्म विशुद्धये || (६/१२)

तत्र(वहाँ), एकाग्रम्(एकाग्रता में), मनः(मन को), कृत्वा(करके), यत्(जिसकी), चित्त(चित्त में समाहित), इन्द्रिय(इन्द्रियों),
क्रियः(क्रियाएँ) | उपविश्य(बैठकर), आसने(आसन पर), युञ्ज्यात्(युक्त होए), योगम्(योग से), आत्म(अन्तकरण की), विशुद्धये (विशेष शुद्धि हेतु) | (६/१२)

वहाँ आसन पर बैठकर मन को एकाग्र करके, इन्द्रियों की क्रियाएँ को चित्त में समाहित करके, अन्तकरण की विशेष शुद्धि हेतु योग से युक्त होए | (६/१२)

वहाँ आसन पर बैठकर मन को एकाग्र करके अर्थात् अंतर्मन के जगत का प्रसार ना होने पाये और इन्द्रियों की क्रियाओं को चित्त में समाहित करके अर्थात् बाह्य जगत का त्याग करके, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण का निर्देश है, कि अकेला ही एकान्त मे स्थित होकर स्वयं को निरन्तर योग में लगाये | इस प्रकार अंतःकरण की विशेष शुद्धि हेतु योग से युक्त होए | अंतःकरण की शुद्धि अर्थात् जैसा अध्याय चार में प्राणायाम परायण होने पर मनन करा था, उस प्रकार योग से युक्त होए |
                                                                                                                                           
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः |
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् || (६/१३)
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः |
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः || (६/१४)

समम् काय शिरः ग्रीवम् धारयन् अचलम् स्थिरः |
सम्प्रेक्ष्य नासिका अग्रम् स्वम् दिशः च अनवलोकयन् || (६/१३)
प्रशान्त आत्मा विगत भिः ब्रह्यचारि व्रते स्थितः |
मनः संयम्य मत् चित्त युक्तः आसीत मत् परः || (६/१४)

समम्(सम करके), काय(काया), शिरः(शीश), ग्रीवम्(गर्दन को), धारयन्(धारण करते हुए), अचलम्(अचल रूप से), स्थिरः (स्थिर) | सम्प्रेक्ष्य(देखते हुए), नासिका(नासिका के), अग्रम्(अग्रभाग को), स्वम्(स्वयं की), दिशः(दिशाओं में),(और), अनवलोकयन्(न देखते हुए) | (६/१३)
प्रशान्त(पूर्णरूप से शान्त होकर), आत्मा(स्वयं), विगत(रहित), भिः(भय से), ब्रह्यचारि(ब्रह्मचर्य), व्रते(व्रत में), स्थितः(स्थित होकर) | मनः(मन को), संयम्य(संयम करके), मत्(मुझमें), चित्त(चित्त), युक्तः(युक्त करके), आसीत(स्थित होए), मत्(मेरे), परः(परायण होकर) | (६/१४)
     
काया, शीश और गर्दन को स्थिर, अचल और सम रूप से धारण करते हुए और दिशाओं में ना देखते हुए, स्वयं की नासिका के अग्रभाग से देखते हुए | (६/१३)
ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर, पूर्णरूप से शान्त होकर, भयरहित होकर, मन को संयम करके, मुझमें चित्त लगाकर, मेरे परायण होकर स्थित होए | (६/१४)

काया अर्थात् आसन पर स्थिर हो बैठने के पश्चात् जो भी सुविधा अनुसार पदमासन आदि  ग्रहण करा है उसके उस रूप से काया को तथा शीश और गर्दन को स्थिर, अचल और सम रूप से धारण करते हुए, जिससे एक पहर तक तो इस पंचभोतिक देह के ध्यान से मुक्ति संभव हो, उसके अनुसार कोई भी सुखासन धारण करते हुए और दिशाओं में ना देखते हुए, स्वयं की नासिका के अग्रभाग से देखते हुए | जैसा कि पूर्व में (५/२७/२८) में मनन करा था, उस प्रकार स्थित होकर योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा योगाभ्यास करने का विधान है | तथा

ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर, एक तो पंचभोतिक देह हेतु ब्रह्मचर्य व्रत का विधिविधान है परन्तु निवृति विषयक शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मचर्य व्रत में स्थिति से अभिप्राय है कि ब्रह्म की प्राप्ति को, योगारूढ़ होने को, योग से युक्त होने को, योग की सिद्धि हेतु योगेश्वर ने जिस विधिविशेष का उपदेश दिया है, उसके अक्षरशः अनुसरण का व्रत ही ब्रह्मचर्य व्रत अर्थात् ब्रह्म की प्राप्ति को आवश्यक आचरण के व्रत में स्थिर होकर तथा पूर्ण रूप से शान्त होकर, यह शांति साधक की प्रयासपूर्वक प्राप्त की हुई अंतःकरण की शांति का निर्देश है अन्यथा ‘निर्वाणपरमां’ शांति के विषय में योगेश्वर अगले श्लोक में कहते हैं | यहाँ कहते हैं कि ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर, पूर्णरूप से शान्त होकर तथा भयरहित होकर, यहाँ आत्मपरायण होने में कैसा भय ? वस्तुतः जब साधक आत्मपरायण होने का प्रयासपूर्वक प्रयत्न प्रारंभ करता है, तब वह अंतःकरण की हृदय गुहा में प्रथम बार देह से पृथक् हो यात्रा करता है, जन्म जन्मान्तरों से देह के साथ यात्रा करने के आदि पुरुष को इस प्रथम यात्रा में जो अनुभव होते हैं, दैवी सम्पदा के उत्थान के साथ ही, देह से परे प्रयासपूर्वक अलग होकर अंतःकरण की यात्रा पर निकले साधक को आसुरी सम्पदा का उपद्रव सहना पड़ता है | देह से तादाम्य टूटने और दैवी और आसुरी सम्पदा के युद्ध स्वरूप साधक को एक भय की अनुभूति होती है | ऐसे में साधक को आत्मपरायण हो भय से स्वयं ही मुक्त होना पड़ता है, इसको योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि भयरहित होकर क्योंकी भय का कोई कारण नहीं है, यह तो मन का उपद्रव है इसलिये जानकर, समझकर, विवेकपूर्ण विचार करते हुए भयरहित होकर, मन को संयित करके मुझमे अर्थात् हृदयस्थ ईष्ट में चित्त लगाकर, हृदयस्थ ईष्ट के परायण होकर बैठने का विधान है | इस प्रकार हृदयस्थ में चित्त लगाकर उसके परायण होकर साधना करने से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन, अंतःकरण की शांति, भयरहित मन और मन का संयम स्वतः ही होने लगता है | इसीको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, कि

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः |
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति || (६/१५)

युञ्जन् एवम् सदा आत्मानम् योगी नियत मानसः |
शान्तिम् निर्वाण परमाम् मत् संस्थाम् अधिगच्छति || (६/१५)

युञ्जन्(लगाया हुआ), एवम्(इस प्रकार), सदा(सदैव), आत्मानम्(स्वयं को), योगी(योगी), नियत(नियमित करे), मानसः(इन्द्रियों के संधात मन को) | शान्तिम्(शांति को), निर्वाण(निर्वाण), परमाम्(परं), मत्(मुझमें), संस्थाम्(रहनेवाली), अधिगच्छति(भलीभाँति जाता है) | (६/१५)

इस प्रकार सदैव इन्द्रियों के संधात मन को नियमित करके स्वयं को योग में लगाया हुआ योगी मुझमें रहनेवाली ‘निर्वाणपरमां’ शान्ति को प्राप्त होता है | (६/१५)

इस प्रकार सदैव अर्थात् कम से कम आत्मज्ञान की प्राप्ति तक नित्य, निरन्तर योग में लगने का विधान है और यह आत्म ज्ञान एक जन्म में तो विरले साधकों को ही प्राप्त होता है, इसलिये इस प्रकार सदैव इन्द्रियों के संधात मन को नियमित करके, यहाँ योगेश्वर ने इन्द्रियों को नहीं, अपितु इन्द्रियों के संधात मन को नियमित करने का निर्देश दिया है, क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे इस विधिविधान में अकेला, एकान्त में और जैसा पूर्व श्लोक में कहा कि दिशाओं को ना देखते हुए, नासिका के अग्रभाग में देखने का विधान है, इन सभी नियमों के पालन से इन्द्रियों को तो विषय उपलब्ध नहीं हो पाते परन्तु मन के जगत का प्रसार नियमित नहीं होता इसलिये इन्द्रियों के संधात मन को नियमित करने का निर्देश है | इस प्रकार स्वयं को सदैव, नित्य, निरन्तर योग में लगाया हुए के योगी के विषय में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह योगी मुझमे रहनेवाली ‘निर्वाणपरमां’ अर्थात् वाणी के विषय से परे जो निर्वाण हेतु अंतःकरण की शांति की अवस्था है, जिसके लिये योगेश्वर ने कहा था कि यह शांति ब्रह्म में स्थित पुरुष की स्थिति है, उस शांति को प्राप्त होता है | (६/१५) इस प्रकार इस योग हेतु चेष्टात्मक पहलुओं को कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण अब इस योग के निषेधात्मक पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं, कि

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः |
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन || (६/१६)
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु |
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा || (६/१७)

न अति अश्नतः तु योगः अस्ति न च एकान्तम् अनश्नतः |
न च अपि स्वप्न शीलस्य जाग्रतः न एव च अर्जुन || (६/१६)
युक्त आहार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु |
युक्त स्वप्न अवबोधस्य योगः भवति दुःख हा || (६/१७)

(न), अति(अधिक), अश्नतः(खानेवाले का), तु(परन्तु), योगः(योग), अस्ति(होता है),(न),(और), एकान्तम्(नितान्त), अनश्नतः(न खानेवाले का) | न(न),(और), अपि(भी), स्वप्न(स्वपन), शीलस्य(स्वभाववाले का), जाग्रतः(जागनेवाले का), (न), एव(ही),(और), अर्जुन(अर्जुन) | (६/१६)
युक्त(यथायोग्य), आहार(आहार), विहारस्य(विहार करनेवाले का), युक्त(यथायोग्य), चेष्टस्य(चेष्टा करनेवाले का) कर्मसु(कर्मों में) | युक्त(यथायोग्य), स्वप्न(स्वपन), अवबोधस्य(जागनेवाले का), योगः(योग), भवति(होता है), दुःख(दुखों का), हा(नाश करनेवाला) | (६/१७)

अर्जुन ! परन्तु यह योग ना अधिक खानेवाले का और नितान्त ना खानेवाले का तथा ना अधिक स्वपनशील स्वभाव वाले का भी और ना ही जागनेवाले का (सिद्ध) होता है | (६/१६)
परन्तु दुखों का नाश करनेवाला यह योग यथायोग्य आहार विहार करनेवाले का, योग हेतु यथायोग्य कर्मों द्वारा चेष्टा करनेवाले का तथा यथायोग्य सोने और जागनेवाले का सिद्ध होता है | (६/१७)

‘दुःखहा’ अर्थात् दुखों का नाश करने वाला, कर्मबंधन का नाश करने वाला यह योग जिस देह द्वारा पूर्ण करा जाता है उसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इसके लिये यथायोग्य आहार और विहार आवश्यक है ताकि योग हेतु यथायोग्य अर्थात् कम से कम एक पहर तक तैलधारावत यज्ञार्थ कर्मों का अनुष्ठान हो सके | इसके लिये यथायोग्य सोना और जागना भी आवश्यक है | इस आचरण से साधक योग हेतु यथासंभव प्रयत्न कर पाता है |

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते |
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा || (६/१८)
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता |
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः || (६/१९)

यदा विनियतम् चित्तम् आत्मनि एव अवतिष्ठते |
निःस्पृहः सर्व कामेभ्यः युक्तः इति उच्यते तदा || (३/१८)
यथा दीपः निवातस्थः न इङ्गते सा उपमा स्मृता |
योगिनः यत् चित्तस्य युञ्जतः योगम् आत्मनः || (६/१९)

यदा(जब), विनियतम्(नियमित किया हुआ), चित्तम्(चित्त), आत्मनि(स्वयं में), एव(ही), अवतिष्ठते(भलीभाँति स्थित हो जाता है), | निःस्पृहः(स्पृहारहित पुरुष), सर्व(समस्त), कामेभ्यः(कामनाओं से), युक्तः(युक्त),  इति(ऐसा), उच्यते(कहा जाता है), तदा(तब) | (३/१८)
यथा(जैसे), दीपः(दीपक), निवातस्थः(वायुरहित स्थान में स्थित),(न), इङ्गते(कम्पायमान होता है), सा(वैसी), उपमा(उपमा), स्मृता(कही गयी है), | योगिनः(योगी के), यत्(जिस), चित्तस्य(चित्त की), युञ्जतः(लगाये हुए), योगम्(योग में), आत्मनः(स्वयं के द्वारा) | (६/१९)

जिस काल में विशेष रूप से वश में किया हुआ चित्त स्वयं में भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण कामनाओं से स्पृहारहित हुआ (योगी) ‘योगयुक्त’ है, ऐसा कहा जाता है | (६/१८)
जैसे दीपक वायुरहित स्थान में कम्पायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा योगी के द्वारा स्वयं योग में लगाये हुए  
चित्त की कही गयी है | (६/१९) 

जिस काल में अर्थात् योगारूढ़ होने के पश्चात् योगाभ्यास द्वारा योग से युक्त होकर जिस काल में विशेष रूप से वश में किया हुआ चित्त अर्थात् यज्ञार्थ कर्मों के आचरण स्वरूप, योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित कृष्णयोग की विधिविशेष के आचरण, अनुसरण स्वरूप साधक का चित्त स्वयं में भलीभाँति स्थित हो जाता है, तात्पर्य यह की ऐसा साधक जब चाहे तब प्राणायाम परायण होकर परमात्मा में स्थिति पा जाता है, अन्यथा बिना अभ्यास के हम जितना भी चाहें, कितना ही प्रयत्न करें, घंटों बैठे रहें, मन के जगत का प्रसार समाप्त होने को ही नहीं आता, घंटो ध्यान का प्रयास करें पर दस मिनट भी भजन नहीं हो पाता | इसके विपरीत जिस काल में विशेषरूप से वश में किया हुआ चित्त स्वयं में भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण कामनाओं से स्पृहारहित हुआ योगी ‘योगयुक्त’ कहा जाता है | योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ योगयुक्त योगी के चित्त की उपमा एक दीपक से देते हुए कहते हैं कि जैसे दीपक वायुरहित स्थान में कम्पायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा योगी के द्वारा स्वयं योग में लगाये हुए 
चित्त की कही गयी है |  

पूर्व में (६/८,९) में ‘युक्त’ पुरुष की परिभाषा और यहाँ ‘योगयुक्त’ योगी की परिभाषा का एक बार एक साथ मनन करना साधक के लिये उपयोगी है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण किस प्रकार एक योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले पुरुष से लेकर, योगारूढ़ पुरुष, युक्त पुरुष और योगयुक्त योगी द्वारा एक एक सौपन का योगाभ्यास द्वारा अपना उत्थान करते हुए साधक के स्वरूप  को परिभाषित कर रहे हैं | इसी क्रम में अगले तीन श्लोकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण ‘योगयुक्त योगी’ की मनोस्थिति का चित्रण करते हुए, चोथे श्लोक (६/२३) में योग को परिभाषित करते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण की ‘योग’ की यह परिभाषा स्वयं में अद्वितीय है, ध्यान से मनन करें |

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया |
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति || (६/२०)
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रिय |
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः || (६/२१)

यत्र उपरमते चित्तम् निरुद्धम् योग सेवया |
यत्र च एव आत्मना आत्मानम् पश्यन् आत्मनि तुष्यति || (६/२०)
सुखम् आत्यन्तिकम् यत् तत् बुद्धि ग्राह्यम् अतीन्द्रियम् |
वेत्ति यत्र न च एव अयम् स्थितः चलति तत्त्वतः || (६/२१)
    
यत्र(जिस काल में), उपरमते(उपराम हो जाता है), चित्तम्(चित्त), निरुद्धम्(निरुद्ध होकर), योग(योग), सेवया(अभ्यास से) | यत्र(जिस काल में),(और), एव(ही), आत्मना(स्वयं के द्वारा), आत्मानम्(स्वयं को), पश्यन्(देखता हुआ), आत्मनि(स्वयं में)
तुष्यति(तृप्त रहता है) | (६/२०)
सुखम्(सुख है), आत्यन्तिकम्(अनन्त), यत्(जो), तत्(वो), बुद्धि(बुद्धि द्वारा), ग्राह्यम्(ग्रहण करने योग्य), अतीन्द्रियम्(इन्द्रियों से अतीत) | वेत्ति(विदित करके), यत्र(जिस काल में),(न),(और), एव(ही), अयम्(यह), स्थितः(स्थित हुआ), चलति (व्यथित, व्याकुल), तत्त्वतः(तत्त्व रूप से) | (६/२१)

जिस काल में योग के अभ्यास से चित्त निरुद्ध होकर उपराम हो जाता है और जिस काल में स्वयं के द्वारा, स्वयं में, स्वयं को देखता हुआ तृप्त रहता है | (६/२०)
इन्द्रियों से अतीत, बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनंद है और जिसे ‘तत्त्वतः’ विदित करके स्थित हुआ, यह चलायमान नहीं होता | (६/२१) 

पूर्व श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि जिस काल में विशेष रूप से वश में किया हुआ चित्त स्वयं में भलीभाँति स्थित हो जाता है, यहाँ कहते हैं कि जिस काल में योगे अभ्यास से चित्त निरुद्ध होकर उपराम हो जाता है, यहाँ योगेश्वर एक और ऊँचे सौपन पर पहुंचे साधक की अवस्था का वर्णन कर रहे हैं | निरुद्ध होकर उपराम अर्थात् पहले जैसे वायुरहित स्थान में चित्त चलायमान नहीं होता था, योग के उसी अभ्यास को करते करते यह चित्त अब, जैसे चिमनी में रखा दीपक बहती हुई वायु में भी कम्पित नहीं होता, उसी तरह संसार के विषयों के संयोग वियोग होने पर भी चलायमान नहीं होता, संसार के विषयों से निरुद्ध होकर सांसारिक विषयों से उपराम हो जाता है, और इस अवस्था में स्थित होकर योगी अपना उत्थान करता हुआ जिस काल में स्वयं के द्वारा स्वयं में स्वयं को देखता हुआ तृप्त रहता है |

 उस काल में पूर्ण रूप से आत्मपरायण हुआ योगी इन्द्रियों से अतीत होकर बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनंद है, उस आनंद को विदित करके यह फिर चलायमान नहीं होता, पुनः माया के फेरे में नहीं पड़ता | इन्द्रियों से अतीत, क्योंकी विचलित होनेवाला जो चित्त पहले विशेषरूप से वश में करना पड़ता था, वह चित्त अब योगाभ्यास द्वारा निरुद्ध होकर उपराम हो गया है, ऐसा कहें कि वह चित्त अब यज्ञार्थ कर्मों के अनुष्ठान स्वरूप यज्ञ में स्वाहा हो गया है, यज्ञाग्नि में विलय हो गया है तो अतिश्योक्ति ना होगी | इस प्रकार चित्त के विलय के पश्चात्, वह चित्त जो इन्द्रियों और मन का आश्रय लेकर सांसारिक भोगों को ही आनंद मानता था, उस चित्त के निरुद्ध होकर उपराम होने के पश्चात्, योगी बुद्धि द्वारा ग्रहण (इन्द्रियों और मन द्वारा नहीं) करने योग्य जो अनन्त आनंद है, जो बाह्य विषयों में नहीं अपितु आत्मपरायण होकर स्वयं में, स्वस्वरूप में जो आनंद है, उस आनंद को विदित करके फिर चलायमान नहीं होता, क्योंकी स्वर्गादिक भोगों का आनंद भी इस आनंद के समक्ष तुच्छ सा प्रतीत होता है, इसलिये फिर सांसारिक अथवा स्वर्गादिक भोगों में ऐसा योगी आसक्त नहीं होता | योगी द्वारा इस आनंद की प्राप्ति का चित्रण करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, कि     

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्येत नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते || (६/२२)

यम्(जिसे), लब्ध्वा(पाकर),(और), अपरम्(अन्य कोई), लाभम्(प्राप्ति), मन्येत(मानता है),(न), अधिकम्(अधिक), ततः(उससे) | यस्मिन(जिसमे), स्थितः(स्थित होकर),(न), दुःखेन(दुखों से), गरुणा(अत्यंत विशाल), अपि(भी), विचाल्यते (विचलित होता है) | (६/२२)

और जिसे पाकर उससे अधिक अन्य कुछ भी प्राप्ति योग्य नहीं मानता है, जिसमें स्थित होकर गरुण रूपी दुखों से भी विचलित नहीं होता | (६/२२)

और जिसे पाकर, उस बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य आनंद को पाकर, उससे अधिक कुछ भी प्राप्ति योग्य नहीं मानता, तात्पर्य स्पष्ट है कि आत्मपरायण हुआ योगी जब योग की पराकाष्ठा पर स्वयं के स्वरूप को, नैष्ठिकीम् शान्ति को, परंशांति को, स्वयं को परमात्मा के सनातन अंश के रूप में पा जाता है, परमात्मा को साक्षात् कर पाता है तो अब इससे बढ़कर प्राप्त करने योग्य अन्य कुछ शेष भी क्या है ? इसीको योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जिस आनंद को पाकर वह योगी उससे अन्य कुछ भी प्राप्ति योग्य नहीं मानता है, इस अवस्था में स्थित होकर अर्थात् परमात्मा में सम्यक रूप से स्थित होकर वह गरुण रूपी दुखों से भी विचलित नहीं होता | गरुड़ रूपी दुःख अर्थात् बड़े से बड़े दैहिक, दैविक और भौतिक दुःख भी इस आनंद के समक्ष तुच्छ प्रतीत होते हैं, केवल यही नहीं इस आनंद की प्राप्ति के पश्चात् प्रारब्धवश प्राप्त इस देह का बंधन भी, माया का पाश भी ऐसे योगी को विचलित नहीं करता क्योंकी इस आनंद की प्राप्ति स्वरूप, अपने स्वरूप की प्राप्ति स्वरूप वह जान जाता है कि माया का यह बंधन अब केवल प्रारब्धवश है, अन्यथा तो वह अब देह मुक्त ही है | इसलिये इस आनंद में स्थित होकर वह योगी अब गरुड़ रूपी दुखों से भी विचलित नहीं होता |

अब योगेश्वर श्रीकृष्ण इस आनंद की प्राप्ति को परिभाषित करते हुए कहते हैं, कि

तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् |
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा || (६/२३)

तम् विद्यात् दुःख संयोग वियोगम् योग संज्ञितम् |
सः निश्चयेन योक्तव्यः योगः अनर्विण्ण चेतसा | (६/२३)
तम्(उसको), विद्यात्(जानना चाहिये), दुःख(दुःख), संयोग(संयोग), वियोगम्(वियोग), योग(योग), संज्ञितम्(नाम से) | सः(वह), निश्चयेन(निश्चयपूर्वक), योक्तव्यः(करना कर्त्तव्य है), योगः(योग), अनर्विण्ण(न उकताये हुए), चेतसा(चित्त से) | (६/२३)

जिससे दुखों के संयोग का वियोग हो, उसको ‘योग’ नाम से जानना चाहिये | वह योग ना उकताए हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्त्तव्य है | (६/२३)

जिससे दुखों के संयोग का वियोग हो अर्थात् जिससे संसार रूपी दुःख और दुःख रूपी संसार का वियोग हो, यहाँ संसार रूपी दुःख जैसे दैहिक, दैविक और भौतिक दुखों के संयोग का वियोग होता हो और दुःख रूपी संसार अर्थात् कर्मबंधन का, माया के पाश का, आवागमन के चक्र का नाश होता हो | इस प्रकार जिससे दुखों के संयोग का वियोग होता हो उसको ‘योग’ नाम से जानना चाहिये | योगेश्वर श्रीकृष्ण ‘योग’ की इस अद्वितीय परिभाषा को कहते हुए साधकों को निर्देश भी देते हैं कि वह योग ना उकताए हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्त्तव्य है |

यहाँ योगी की जिस प्राप्ति को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने आनंद कहा है और उसे प्राप्त करने की विधिविशेष को योग कहा है और जिस प्रकार योग में आरुड़ होने की इच्छा वाले पुरुष से लेकर इस आनंद की प्राप्ति तक योगी की अवस्थाओं का चित्रण करा है, इस सब को साधक के प्रति पुनः एक बार अन्य शब्दों में कहते हैं क्योंकी अर्जुन तो अपनी शंकाओं को कह रहा है परन्तु भविष्य में साधकों के मन में कोई संशय ना रहे, इसलिये अब आगे नौ श्लोकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः एक बार परमतत्त्व परमात्मा को साक्षात् करने हेतु, आत्मपरायणहोने की  विधिविशेष का वर्णन करते हैं | 

सङ्कल्पप्रभावान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः |
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः || (६/२४)
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया |
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् || (६/२५)

सङ्कल्प प्रभवान् कामान् त्यक्त्वा सर्वान् अशेषतः |
मनसा एव इन्द्रिय ग्रामम् विनियम्य समन्ततः || (६/२४)
शनैः शनैः उपरमेत् बुद्ध्या धृति गृहीतया |
आत्म संस्थम् मनः कृत्वा न किञ्चित् अपि चिन्तयेत् || (६/२५)

सङ्कल्प(संकल्प से), प्रभवान्(उत्पन्न होनेवाली), कामान्(कामनाओं को), त्यक्त्वा(त्यागकर), सर्वान्(समस्त), अशेषतः
(निःशेष रूप से)  | मनसा(मन से), एव(ही), इन्द्रिय(इन्द्रियों के), ग्रामम्(समूह को), विनियम्य(भलीभाँति नियमित करके) समन्ततः(सभी प्रकार से) | (६/२४)
शनैः(धीरे), शनैः(धीरे), उपरमेत्(निवृत होता हुआ), बुद्ध्या(बुद्धि द्वारा), धृति(धैर्य को), गृहीतया(धारण करके) | आत्म(स्वयं में), संस्थम्(स्थापित), मनः(मन को) कृत्वा(करके),(नहीं), किञ्चित्(कुछ अन्य), अपि(भी), चिन्तयेत्(चिन्तन करे) | (६/२५)
                                                                                                                                                                                                 
संकल्प से उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूपसे त्यागकर, मन द्वारा ही इन्द्रियों के समुदाय को सभी प्रकार से भलीभाँति नियमित करके | (६/२४)
धीरे धीरे बुद्धि द्वारा धैर्य को धारण करके निवृत होता हुआ, स्वयं में मन को स्थापित करके अन्य कुछ भी चिंतन ना करे | (६/२५)

संकल्प अर्थात् इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर क्योंकी इन्द्रियों और सांसारिक विषयों से उठनेवाली कामनाएँ भी सांसारिक ही होंगी, अतः उन सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर, निःशेष रूप अर्थात् ऐसी कामनाओं का अंश मात्र भी ना रहे, इस प्रकार त्यागकर, मन द्वारा ही इन्द्रियों के समुदाय को सभी प्रकार से भलीभाँति नियमित करके, क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में कहा है कि विषयों में विचरण करती हुई जिस एक भी इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है | (२/६७) इसलिये मन द्वारा ही इन्द्रियों के समुदाय को सभी प्रकार से भलीभाँति नियमित करें |

धीरे धीरे बुद्धि द्वारा धैर्य को धारण करके क्योंकी मन धैर्य को धारण नहीं करता, धैर्य बुद्धि द्वारा ही धारण करने योग्य है, निवृत होता हुआ अर्थात् पूर्व श्लोक में कही संकल्प से उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओं से निःशेष रूप से निवृत होता हुआ, स्वयं में मन को स्थापित करके, हृदयस्थ ईष्ट के प्रति आत्मपरायण होते हुए, अन्य कुछ भी चिंतन ना करे अर्थात् ईष्ट चिंतन के अन्यत्र कुछ भी चिंतन ना करे क्योंकी ईष्ट चिंतन के अभाव में विषय चिंतन स्वतः ही शुरू हो जाता है |  

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् |
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् || (६/२६)

यतः यतः निश्चरति मनः चञ्चलम् अस्थिरम् |
ततः ततः नियम्य एतत् आत्मनि एव वशम् नयेत् || (६/२६)

यतः(जहाँ), यतः(जहाँ), निश्चरति(विचरण करता है), मनः(मन), चञ्चलम्(चंचल), अस्थिरम्(अस्थिर) | ततः(वहाँ), ततः (वहाँ), नियम्य(नियमानुसार), एतत्(इसको), आत्मनि(स्वयं में), एव(ही), वशम्(वश में), नयेत्(लगायें) | (६/२६)

स्थिर ना रहनेवाला चंचल मन जहाँ जहाँ विचरण करता है, इसको वहाँ वहाँ से नियमानुसार वश में करके स्वयं में ही लगाये | (६/२६)

स्थिर ना रहनेवाला चंचल मन जहाँ जहाँ विचरण करता है, मन को तो खुला छोड़ दो तो वह सांसारिक विषयों में ही विचरण करता है इसलिये चंचल मन जहाँ जहाँ विचरण करता है, इस मन को वहाँ वहाँ से नियमानुसार वश में करके स्वयं में ही लगाये | नियमानुसार वश में करके, तात्पर्य यह कि योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले साधक का मन अभी वश में तो होता नहीं अतः नियम है कि साधक को स्वयं ही प्रयत्नपूर्वक, प्रयासपूर्वक इसको वश में करना पड़ता है, दूसरा यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मन को वश में करने हेतु जो उपाय कहे हैं, उनके आचरण स्वरूप, नामजप आदि के अभ्यास से, समभाव, निर्द्वन्द भाव से आत्मपरायण होकर मन को वश में करें, इसीलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन को नियमानुसार वश में करके स्वयं में ही लगाये अर्थात् विषय चिन्तन में नहीं अपितु ईष्ट चिंतन में ही लगायें |

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् |
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् || (६/२७)

प्रशान्त मनसम् हि एनम् योगिनम् सुखम् उत्तमम् |
उपैति शान्त रजसम् ब्रह्म भूतम् अकल्मषम् || (६/२७)

प्रशान्त(भलीभाँति शांत, निर्मल), मनसम्(मन), हि(क्योंकी), एनम्(इस), योगिनम्(योगी का), सुखम्(सुख है), उत्तमम् (उत्तम) | उपैति(प्राप्त करता है), शान्त(शान्त), रजसम्(रजोगुण), ब्रह्म(ब्रह्म), भूतम्(रूप हुआ), अकल्मषम्(पापों से रहित होकर) | (६/२७)

क्योंकी जिसका मन भलीभाँति शान्त है, रजोगुण शान्त है, पापों से रहित होकर, ब्रह्म भुत हुए इस योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है | (६/२७)

क्योंकी जिसका मन भलीभाँति शान्त है, रजोगुण शान्त है, रजोगुण का शान्त होना ही मन की शांति है क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में ही स्पष्ट कर आये हैं कि रजोगुण से उत्पन्न यह काम, यह क्रोध कभी तृप्त न होने वाले महापापी हैं, इस विषय में इनको वैरी जान | (३/३७) तथा इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके निवास स्थान कहे जाते हैं, इनके द्वारा ही यह ज्ञान को आवृत करके देही को विशेषरूप से मोहित करता है | (३/४०) अतः स्पष्ट है कि जिसका रजोगुण शान्त है, उसका मन भी भलीभाँति शान्त हो जाता है, और शान्त मन से योगपरायण साधक पापों से रहित होकर अर्थात् कर्मबन्धन का नाश करता हुआ, ब्रह्म का स्पर्श करके, ब्रह्मभूत होकर, ब्रह्मभुत अर्थात् जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि यह ब्रह्म में स्थित पुरुष की स्थिति है (२/७२), तात्पर्य यह कि सशरीर ही देहमुक्त हुआ जाता है, ब्रह्म में स्थित हुआ जाता है, इसीको योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि इस प्रकार ब्रह्मभूत हुए इस योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है, उत्तम आनंद, जिसकी चर्चा अभी पूर्व में इसी अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने करी है कि बुद्दी से ग्रहण करने योग्य जिस आनंद को प्राप्त कर वह अन्य कुछ इससे उत्तम है, ऐसा नहीं मानता, उस आनंद को प्राप्त होता है |

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः |
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते || (६/२८)

युञ्जन् एवम् सदा आत्मानम् योगी विगत कल्मषः |
सुखेन ब्रह्म संस्पर्शम् अत्यन्तम् सुखम् अश्नुते || (६/२८)

युञ्जन्(योगयुक्त), एवम्(इस प्रकार), सदा(सदैव), आत्मानम्(स्वयं को), योगी(योगी), विगत(रहित), कल्मषः(पापों से) | सुखेन(सुखपूर्वक), ब्रह्म(ब्रह्म), संस्पर्शम्(सान्निध्य से), अत्यन्तम्(अत्यंत), सुखम्(सुख का), अश्नुते(अनुभव करता है) | (६/२८)

इस प्रकार सदैव योगयुक्त योगी स्वयं को पापों से रहित करके, सुखपूर्वक ब्रह्म का स्पर्श करके अत्यंत सुख का अनुभव करता है (६/२८)

इस प्रकार सदैव अर्थात् नित्य निरन्तर कृष्णयोग का आचरण करता हुआ योगयुक्त योगी स्वयं को पापों से रहित करके अर्थात् कर्मबंधन का नाश करके सुखपूर्वक, आनंद से ब्रह्म का स्पर्श करके, परमतत्त्व को साक्षात् करके, अत्यंत सुख का अनुभव करता है, अत्यंत सुख अर्थात् उस सुख का जिससे अधिक और कोई सुख नहीं है और जिस सुख का कभी अन्त भी नहीं है |

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि |
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः || (६/२९)
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति || (६/३०)

सर्व भूत स्थम् आत्मानम् सर्व भूतानि च आत्मनि |
ईक्षते योग युक्त आत्मा सर्वत्र सम दर्शनः || (६/२९)
यः माम् पश्यति सर्वत्र सर्वम् च मयि पश्यति |
तस्य अहम् न प्रणश्यामि सः च मे न प्रणश्यति || (६/३०)

सर्व(समस्त), भूत(प्राणियों में), स्थम्(स्थित), आत्मानम्(स्वयं को), सर्व(समस्त), भूतानि(प्राणियों को),(और), आत्मनि (स्वयं में) | ईक्षते(देखता है), योग(योग), युक्त(युक्त), आत्मा(आत्म तत्त्व को प्राप्त पुरुष), सर्वत्र(सर्वत्र), सम(समभाव से), दर्शनः(देखता है) | (६/२९)
यः(जो), माम्(मुझको), पश्यति(देखता है), सर्वत्र(सभी में), सर्वम्(सभी को),(और), मयि(मुझमे), पश्यति(देखता है) | तस्य(उसके लिये), अहम्(मैं),(नहीं), प्रणश्यामि(अदृश्य होता हूँ), सः(वह),(और), मे(मेरे लिये),(नहीं), प्रणश्यति (अदृश्य होता है) | (६/३०)

स्वयं को समस्त प्राणियों में स्थित और समस्त प्राणियों को स्वयं में (स्थित) देखता है, योगयुक्त ‘आत्मा’ आत्मतत्त्व को प्राप्त पुरुष सर्वत्र समभाव से देखता है | (६/२९)
जो मुझे सर्वत्र देखता है और सभी को मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता | (६/३०)
ब्रह्म का स्पर्श करके, परमतत्त्व को साक्षात् करके वह स्वयं को समस्त प्राणियों में स्थित और समस्त प्राणियों को स्वयं में स्थित देखता है | यह किस प्रकार होता है, इसका मनन हमने श्लोक संख्या (४/३५) में करा था उसीको संक्षेप में यहाँ मनन करते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे कृष्णयोग के अनुसार आचरण करने से प्राप्त ज्ञान चक्षुओं से देह को नहीं अपितु देही को देखने की क्षमता प्राप्त होती है, अपने को देही स्वरूप, परमात्मा के सनातन अंश स्वरूप देखकर, इस ज्ञान में स्थित होकर, इस ज्ञान से प्राप्त ज्ञान चक्षुओं द्वारा वह पुरुष पहले सर्वत्र व्याप्त, जीवों में देह का नहीं अपितु परमात्मा के इस सनातन अंश जीवात्मा का ही प्रसार देखता है, उसके पश्चात् उन समस्त देहियो को अपने समान जानकार सबको स्वयं में देख पाता है | तब वह उस तत्त्व को साक्षात् कर पाता है, जिसके यह समस्त चर अचर जगत व्याप्त है | यही परमतत्त्व परमात्मा का साक्षात्कार है | इस प्रकार वह स्वयं को समस्त प्राणियों में और समस्त प्राणियों को स्वयं में स्थित देखता है | इसको योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि योगयुक्त आत्मा सर्वत्र समभाव से देखता है | यहाँ दो तथ्य मनन करने को है, प्रथम कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अब इस साधक को योगयुक्त योगी नहीं अपितु योगयुक्त आत्मा कहा है क्योंकी अब यह पुर में रहनेवाला पुरुष नहीं रहा जो कर्मबंधन के कारण देह से बंधा था, अब यह देह मुक्त हो गया है और हृदयस्थ ईष्ट का, परमात्मा के हृदयस्थ स्वरूप आत्मा का संस्पर्श करके स्वयं के विशुद्ध रूप को प्राप्त हो गया है, ब्रह्मभूत हो गया है, इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण इसे योगयुक्तात्मा कह रहे हैं | दूसरा तथ्य यह कि अब यह योगयुक्त योगी, योगयुक्त आत्मा होकर कृष्णयोग रूपी साधना के परिणाम स्वरूप अपने स्वभाव का यज्ञार्थ कर्मों द्वारा विलय करके परमभाव को प्राप्त हो गया है, अब यह समस्त प्राणियों में उनके कर्मबंधनों को, उनके पाप पुण्यों को नहीं अपितु उन सब में समान रूप से उसी एक परमतत्त्व परमात्मा के सनातन अंश का प्रसार को देख पाने की क्षमता को प्राप्त होता है | इसीको योगेश्वर श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि योगयुक्त आत्मा सर्वत्र समभाव से देखता है | तथा

जो मुझे सर्वत्र देखता है और सभी को मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता | अर्थात् जो परमतत्त्व परमात्मा का ही प्रसार सर्वत्र देखता है और सभी को उनमे देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता अर्थात् अब वह सदैव परमतत्त्व में अपनी स्थिति बनाये रखने की योग्यता को प्राप्त हो जाता है और वह योगयुक्त आत्मा परमतत्त्व के लिये भी कभी अदृश्य नहीं होती | क्योंकी इस प्रकार समदर्शन को प्राप्त योगी की संसारिकता मिट जाती है, परंतत्त्व में विलीन हो जाती है, केवल प्रारब्धवश शरीर मात्र रह जाता है | जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में कह आये हैं कि उसका उठना, बैठना, चलना, बोलना आदि अब सभी परमतत्त्व परमात्मा के संकल्प से होता है, क्योंकी सांसारिक संकल्पों विकल्पों वाला चित्त तो अब रहा नहीं, अब उसकी वाणी, उसकी बुद्धि, उसकी देह सभी परमतत्त्व परमात्मा के यंत्र मात्र हो जाते हैं | इसलिये उससे परमात्मा और परमात्मा से वह कभी अदृश्य नहीं होते |

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः |
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते || (६/३१)

सर्व भूत स्थितम् यः माम् भजति एकत्वम् आस्थितः |
सर्वथा वर्तमानः अपि सः योगी मयि वर्तते || (६/३१)

सर्व(समस्त), भूत(प्राणियों में), स्थितम्(स्थित हुए), यः(जो), माम्(मुझको), भजति(भजता है), एकत्वम्(एकीभाव में), आस्थितः(भलीभाँति स्थित हुआ) | सर्वथा(सब प्रकार से), वर्तमानः(बरतता हुआ), अपि(भी), सः(वह), योगी(योगी), मयि (मुझमें), वर्तते(बरतता है) | (६/३१)

जो समस्त प्राणियों में स्थित हुए मुझको एकीभाव में भलीभाँति स्थित होकर भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें बरतता है | (६/३१)

जब तक देह दृष्टि प्राप्त थी तब तक समस्त देहों में अनेकता देखता था, आत्मतत्व की प्राप्ति के पश्चात् ज्ञान चक्षुओं से समस्त प्राणियों में स्थित परमतत्त्व परमात्मा के हृदयस्थ स्वरूप आत्मा को देखने की क्षमता प्राप्त होने के पश्चात् वह समस्त प्राणियों में उसी एक परमतत्त्व का प्रसार देखता हुआ परमभाव को, परमतत्त्व से एकीभाव को प्राप्त होकर भजता है, योगयुक्त आत्मा होकर भी योगपरायण रहता है | ऐसा योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमे अर्थात् परमतत्त्व परमात्मा में ही बरतता है | तात्पर्य यह कि ब्रह्म का स्पर्श करके योगयुक्त आत्मा के समस्त कर्म भी ब्रह्ममय हो जाते हैं |

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन |
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः || (६/३२)

आत्म औपम्येन सर्वत्र समम् पश्यति यः अर्जुन |
सुखम् वा यदि वा दुःखम् सः योगी परमः मतः || (६/३२)

आत्म(स्वयं की), औपम्येन(भांति, तुलना में), सर्वत्र(सभी जगह), समम्(समरूप से), पश्यति(देखता है), यः(जो), अर्जुन (अर्जुन) | सुखम्(सुख), वा(अथवा), यदि(यदि), वा(अथवा), दुःखम्(दुःख में), सः(वह), योगी(योगी), परमः(परं), मतः(माना जाता है) | (६/३२)

अर्जुन ! जो स्वयं की भाँति सर्वत्र, सुख में अथवा यदि दुःख में, समभाव से देखता है, वह योगी ‘परं’ माना गया है | (६/३२)

उपर्युक्त श्लोकों में योगयुक्त आत्मा, ब्रह्ममय आत्मा का चित्रण करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जिस तथ्य का, जिस रहस्य का उदघाटन करा है, वह है उस योगयुक्त आत्मा का भाव, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार अब वह योगयुक्त आत्मा सांसारिक स्वभाव से, द्वंदों से अतीत होकर, कृष्णयोग परायण हो साधना के स्वरूप अपने स्व-भाव का रूपांतरण करके परमभाव को, समभाव को, एकीभाव को, समदर्शन को प्राप्त हो गया है | यही इस कृष्णयोग का उद्देश्य है, मनुष्य के स्वभाव का रूपांतरण | योगयुक्त आत्मा के इसी भाव की प्रशंसा करते हुए अर्जुन को, अर्जुन तो हमारे लिये निमित्त मात्र है, वस्तुतः अर्जुन के माध्यम से परमार्थ मार्ग के साधकों को यह दिशा निर्देश देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन ! जो स्वयं की भांति सर्वत्र सुख में अथवा यदि दुःख में, तात्पर्य यह कि सदैव, सर्वत्र, समस्त परिस्थितियों में समभाव से देखता है, वह योगी ‘परं’ माना गया है | बुद्धि के जिस भाव को लेकर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस कृष्णयोग की प्रस्तावना की थी, उसी समभाव से युक्त योगी को योगेश्वर यहाँ ‘परं’ कहते हैं | योगेश्वर ने यह सन्देश योगियों हेतु कहा है, योगयुक्त आत्मा तो योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार होते ही समदर्शी हैं और यही समभाव, समबुद्धि, समदर्शन, ही इस कृष्णयोग का आधार है | ‘समत्वं योग उच्यते’ | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस कृष्णयोग की प्रस्तावन ही समभाव, समबुद्धि को आधार बना कर की थी | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि यह सब तुम्हारे लिये सांख्य बुद्धि से, समबुद्धि से कहा गया है परन्तु इस समबुद्धि बुद्धि को योग के विषय में भी सुनो | पार्थ ! जिस बुद्धि से योग युक्त होकर तु कर्मबन्धन का सर्वथा नाश कर सकेगा | (२/३९)

सारांशतः यह स्पष्ट है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे कृष्णयोग का आचरण समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करते हुए नये कर्मबंधन उत्पन्न ना करते हुए तथा उसी समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर उनके उपदेशानुसार जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु यज्ञार्थ कर्मों के  आचरण स्वरूप कर्मबन्धन का नाश होता है | मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण, परमगति, परमधाम की प्राप्ति होती है और सबके आधार में है, समभाव | इस पर अर्जुन प्रश्न करता है, कि
                                                                                                                                                                                                                               
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन |
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् || (६/३३)
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || (६/३४)

यः अयम् योगः त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन |
एतस्य अहम् न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिम् स्थिराम् || (६/३३)

चञ्चलम् हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवत् दृढम् |
तस्य अहम् निग्रहम् मन्ये वायोः एव सु दुष्करम् | (६/३४)

यः(जो), अयम्(यह), योगः(योग), त्वया(आपके द्वारा), प्रोक्तः(कहा गया है), साम्येन(समभाव से युक्त होकर), मधुसूदन (मधुसूदन) | एतस्य(इसमें), अहम्(मैं),(नहीं), पश्यामि(देखता हूँ), चञ्चलत्वात्(चंचल होने से), स्थितिम्(स्थिति को) स्थिराम्(स्थायी) | (६/३३)
चञ्चलम्(चंचल है), हि(क्योंकी), मनः(मन), कृष्ण(कृष्ण), प्रमाथि(प्रमथन स्वभाववाला), बलवत्(बलवान), दृढम्(दृढ़) | तस्य(उसका), अहम्(मैं), निग्रहम्(वश में करना), मन्ये(मानता हूँ), वायोः(वायु की भांति), एव(ही), सु(अत्यंत), दुष्करम् (दुष्कर) | (६/३४)    

मधुसुदन ! यह योग जो समभाव से युक्त होकर आपके द्वारा कहा गया है, (मन के) चंचल होने से, मैं इसमें स्थिति को स्थायी नहीं देखता | (६/३३)
कृष्ण ! क्योंकी मन बलवान, दृढ़, प्रमथन स्वभाववाल (और) चंचल है, उसका वश में करना मैं वायु की भाँति ही अत्यंत दुष्कर मानता हूँ | (६/३४)
                                                                                                                                                                                                    
अर्जुन के एक प्रश्न (५/१), ‘संन्यास कर्मणां’ ने जितना व्यथित, व्याकुल करा था, जिस व्यथा का अन्त ही दिखाई नहीं पड़ता था, जिसके समाधान हेतु कितने प्रयत्न करे, कितने प्रयास करे और जिसका समाधान अन्त में आत्मपरायण होने पर हृदयस्थ ईष्ट ने हृदय देश में रथी बनकर करा था, जितनी व्याकुलता अर्जुन के उस प्रश्न स्वरूप तब हुई थी, उससे विपरीत, उतनी ही अथवा कहूँ कि उससे भी अधिक प्रसन्नता और योगेश्वर श्रीकृष्ण तथा अपने शिव बाबा द्वारा उससे भी ज्यादा अनुग्रहित, मैं आज यहाँ अर्जुन के इस प्रश्न से हुआ हूँ | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित इस कृष्णयोग को मैं जितना भी जान पाया, उस पर मनन करने से, उसके अनुसार योग का आचरण करने में हेतु, योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जितने भी महावाक्य कहे, जितने भी दिशा निर्देश दिये, उन सब में मैं भी मूल रूप से इन्ही दो तथ्यों का समाधान खोजता रहता हूँ कि किस प्रकार सदैव, नित्य, निरन्तर समभाव बनाये रखुं और मन को कैसे वश में करूँ ? क्योंकी इन दोनों विषय में पहला प्रयत्न और प्रयास साधक को ही करना है, आत्मपरायण होने को दोनों ही अनिवार्य तत्त्व हैं | एकबार आत्मपरायण होने के पश्चात् तो हृदयस्थ ईष्ट का आशीर्वाद प्राप्त हो जाता है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि आत्मा ही, हृदयस्थ ईष्ट ही उसका मित्र और बन्धु है | (६/५,६) परन्तु उससे पूर्व यही दो तत्त्व साधक को हैरान, परेशान करते हैं और मेरे हृदय की प्रसन्नता का कारण भी यही है कि शायद अर्जुन के समान मैं भी इस कृष्णयोग को आत्मसात कर पाया हूँ कि इस कृष्णयोग का आधार समत्व भाव और मन का निग्रह है | अब अर्जुन के प्रश्न पर मनन |

अर्जुन कहता है कि मधुसूदन ! यह योग जो आपने ‘साम्येन’ समभाव से युक्त होकर कहा है | तात्पर्य यह कि आपके अनुसार सर्वप्रथम समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करते हुए नये कर्मबन्धन उत्पन्न ना करने का जो दिशा निर्देश है और फिर इसी समबुद्धि से युक्त होकर जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु अर्थात् कर्मबन्धन के सर्वथा नाश हेतु आपने जो यज्ञार्थ कर्मों के आचरण का उपदेश दिया है, ‘समत्त्वं योग उच्यते’ का जो दिशा निर्देश है | मन के चंचल होने के कारण उस समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु प्रयासों में, मैं इस भाव में, समभाव में अपनी नित्य स्थिति नहीं देखता |

क्योंकी कृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल है, एक स्थिति में रुकता ही नहीं, विषयों में रमण करता ही रहता है तथा हठी और बलवान भी है, कितना भी समझाओ मानता ही नहीं, काबू में नहीं आता क्योंकी यह प्रमथनशील स्वभाव वाला है अर्थात् तर्क वितर्क द्वारा दुसरों को मथने में सक्षम भी है, दुसरे अर्थात् मन और बुद्धि को मथने में सक्षम भी है | जिसके लिये योगेश्वर ने कहा था कि विषयों में विचरण करती हुई इन्द्रियों में से जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय मन द्वारा उस पुरुष की बुद्धि को हर लेती है | (२/६७) इसलिये इसे वश में करना मैं वायु की भांति दुष्कर मानता हूँ अर्थात् जिस प्रकार चलायमान वायु दिखाई नहीं पड़ती उसी प्रकार हमें मालूम ही नहीं पड़ता कि मन कब और कैसे किसी भी विषय में आसक्त होकर बुद्धि को हर लेता है, वह तो बाद में समझ आता है, जब ना चाहते हुए भी हम उस विषय वासना में बह जाते हैं, तब जाकर हमें मन के हठी, दृढ़ और बलवान होने का आभास होता है क्योंकी तब लाख समझाने पर भी यह उस विषय वासना से उपराम नहीं होता, अगर हठपूर्वक हम इन्द्रियों का दमन कर भी ले तो भी मन उन्ही विषय वासनाओं का चिंतन करता रहता है और आपके अनुसार हम पाखण्डी ही बन पाते है, क्योंकी आपने ही कहा है कि जो कर्मेन्द्रियों को वश में कर करके, इन्द्रियों के विषयों के चिंतन मनन में रहता है, वह मूढ़बुद्धि मनुष्य मिथ्या आचरण वाला कहा जाता है | (३/६) इसलिये यह योग जो आपने समभाव रूप से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसमें अपनी स्थिति को नित्य नहीं देखता | इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, कि       

श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते || (६/३५)

असंशयम् महाबाहो मनः दुर्निग्रहम् चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते || (६/३५)

असंशयम्(निःसंदेह), महाबाहो(महाबाहो), मनः(मन का), दुर्निग्रहम्(निग्रह कठिन है), चलम्(चंचल) | अभ्यासेन(अभ्यास के द्वारा), तु(परन्तु), कौन्तेय(कौन्तेय), वैराग्येण(वैराग्य के द्वारा),(और), गृह्यते(निग्रह होता है) | (६/३५)
                                                                                                                                                                                  
महाबाहो ! निःसंदेह चंचल मन का निग्रह कठिन है, परन्तु कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा (मन का) निग्रह होता है | (६/३५)

निःसंदेह अर्थात् समस्त संदेहों, शंकाओं से परे यह सत्य है कि चंचल मन का निग्रह कठिन है, मन को नियमित करना, उसे वश में करना कठिन है, परन्तु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मन का निग्रह होता है | अभ्यास अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों का, दिशा निर्देशों का पुनः पुनः अध्ययन, उनका मनन और स्मरण तथा उन उपदेशों के क्रियात्मक, चेष्टात्मक पहलुओं का प्रयत्नपूर्वक, प्रयासपूर्वक अनुसरण अभ्यास कहलाता है | प्राथमिक अभ्यास का स्वरूप बाह्य ही होता है, इसका सांसारिक स्वरूप ही होता है जैसे देवतओं का पूजन, भजन, सत्संग और नामजप इत्यादि | जब यह अभ्यास स्वरूप करे गये, प्रवेशिका श्रेणी के यह यज्ञार्थ कर्म स्वतः होने लगते है, तब मन का निग्रह शुरू होता है और जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूपी दल-दल को भलीभांति पार कर जाएगी, तब सुनने योग्य को सुन सकेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त कर सकेगा | (२/५२)  यह जो मोह होता है, यह शरीर, शरीर के संबंधो और शरीर के भोगों के प्रति होता है, यह सांसारिक मोह है | प्रभु कहते हैं कि जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूपी दल-दल को अर्थात् सांसारिक मोह को पार कर जाएगी | तब जो सुनने योग्य है, उसे तू सुन पायेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त हो सकेगा | तात्पर्य यह कि सांसारिक मोह से मनुष्य का चित्त परमार्थ मार्ग हेतु कल्याणकारी चिंतन-मनन में नहीं अपितु विषय चिंतन में ही रमण करता है | सांसारिक मोह के त्याग को इस विषय चिंतन का त्याग आवश्यक है, परन्तु स्वयं तो ऐसा होने से रहा | इसीके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अभ्यास पूर्वक विषय चिंतन का त्याग करना पड़ता है, योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों का, दिशा निर्देशों का पुनः पुनः अध्ययन, उनका मनन और स्मरण तथा उन उपदेशों के क्रियात्मक, चेष्टात्मक पहलुओं का प्रयत्नपूर्वक, प्रयासपूर्वक अनुसरण करना पड़ता है, देवतओं का पूजन, भजन, सत्संग और नामजप इत्यादि, प्रवेशिका श्रेणी के यज्ञार्थ कर्मों का अनुसरण करना पड़ता है, इससे विषय चिंतन का त्याग होता है, बुद्धि का मोह भंग होता है, सुनने योग्य सुना जाता है, समझा जाता है, और उसके अनुसार वैराग्य की प्राप्ति होती है | यह चंचल मन के निग्रह का प्राथमिक उपाय है, इसके साथ ही योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, कि

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति |
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः || (६/३६)

असंयत आत्मना योगः दुष्प्रापः इति मे मति |
वश्य आत्मना तु यतता शक्यः अवाप्तुम् उपायतः || (६/३६)

असंयत(असंयत), आत्मना(पुरुष द्वारा), योगः(योग), दुष्प्रापः(दुष्प्राप्य है), इति(यह), मे(मेरा), मति(मत है) | वश्य(वश में), आत्मना(पुरुष द्वारा), तु(परन्तु), यतता(यत्नशील), शक्यः(सहज है), अवाप्तुम्(प्राप्त करना), उपायतः(उपयुक्त साधन द्वारा) | (६/३६)

असंयत पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है, यह मेरा मत है, परन्तु यत्नशील पुरुष द्वारा ‘उपायतः’ उपयुक्त साधन से (योग) प्राप्त करना सहज है | (६/३६)
                                                                                                                                                              
असंयत पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है, यहाँ असंयत पुरुष और संशय आत्मा तथा अश्रद्धावान पुरुष को समान रूप से देखना ही उपयुक्त होगा क्योंकी जो पुरुष योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों में संशय करता है, उन उपदेशों में जिसकी श्रद्धा नहीं हो पाती, सांसारिक विषयों में विचरण करता वह पुरुष ही असंयत पुरुष है | ऐसा पुरुष योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों का अनुसरण ना करके भोगों में विचरण करता रहता है, प्राथमिक, प्रवेशिका श्रेणी के यज्ञों का भी पालन नहीं करता, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है अर्थात् उसके मन का निग्रह दुष्प्राप्य है, क्योंकी मन का निग्रह और योग की प्राप्ति एक ही सिक्के के दो पहलु हैं | इसीको योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि असंयत पुरुष द्वारा मन का निग्रह अर्थात् योग दुष्प्राप्य है, यह मेरा मत है |

परन्तु यत्नशील पुरुष द्वारा ‘उपायतः’ अर्थात् उपयुक्त साधन द्वारा उपाय स्वरूप योग प्राप्त करना सहज है | यहाँ जिस उपाय की चर्चा योगेश्वर श्रीकृष्ण कर रहे हैं, उस उपाय को भी योगेश्वर पूर्व में कह आये हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ही जिस काल में सुने हुए शास्त्रीय मतभेदों से विचलित तेरी बुद्धि, जब निश्चला अर्थात् एकनिष्ठा को प्राप्त हो स्थिर हो जाएगी, तब समाधौ अर्थात् आत्मपरायण हो अचल रूप से योग को प्राप्त हो जाएगा | (२/५३) तात्पर्य यह कि प्रवेशिका श्रेणी के यज्ञार्थ कर्मों के अनुसरण स्वरूप जब तेरी बुद्धि वैराग्य को प्राप्त हो जाएगी उसके उपरान्त ही शास्त्रीय मतभेद अर्थात् जैसा प्रभु पहले कह आए है कि अव्यवसायिक बुद्धि बहुत भेदों और अनन्त शाखाओं वाली होती है, बहुत से कर्म-काण्डों और पूजा-पाठों से लिप्त रहती है | पुष्पित वेद वाक्यों से भावित रहती है, यह शास्त्रीय मोह कहलाता है तथा इसका छेदन वैराग्य द्वारा ही संभव है, अतः पहले वैराग्य की प्राप्ति, सांसारिक मोह का त्याग उसके पश्चात् योग | परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब सुने हुए बहुत भेदों और अनन्त शाखाओं वाले शास्त्रों के मतभेदों से विचलित हुई बुद्धि निश्चला अर्थात् एकनिष्ठा को प्राप्त होकर, स्थिर हो जाएगी | एकनिष्ठा अर्थात् कृष्णयोग के परायण हेतु, परमार्थ हेतु यह बुद्धि व्यावसायिक और निश्चयात्मक हो जाएगी, एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति अनन्य भाव से एक निष्ठ होकर स्थिर हो जाएगी, तब तू आत्मपरायण हो योग को प्राप्त हो जायेगा | तात्पर्य यह कि आत्मपरायण होने को शास्त्रीय मतभेदों, शास्त्रीय मोह से परे एक परमतत्त्व परमात्मा के प्रति आस्था का, निष्ठा का स्थिर होना अनिवार्य है तथा आत्मपरायण होने को शास्त्रीय मोह भी एक दोष रूप है | इसीको योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यत्नशील पुरुष द्वारा ‘उपायतः’ अर्थात् उपयुक्त साधन द्वारा उपाय स्वरूप योग प्राप्त करना सहज है और वह उपाय है, हृदयस्थ ईष्ट के प्रति एकनिष्ठा | सारांशतः योगयुक्त होने को योगेश्वर श्रीकृष्ण के, सद्गुरु के वचनों में श्रद्धा, हृदयस्थ ईष्ट के प्रति एकानिष्ठा और प्रवेशिका श्रेणी के यज्ञार्थ कर्मों का आचरण अनिवार्य है | परन्तु अर्जुन मन की चंचलता को लेकर संशय में है, इसलिये वह योगेश्वर श्रीकृष्ण से पुनः प्रश्न करता है, कि 
                                                                                                                                                              
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चिलतमानसः |
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति || (६/३७)
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति |
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि || (६/३८)
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः |
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते || (६/३९)

अयतिः श्रद्धया उपेतः योगात् चलित मानसः |
अप्राप्य योग संसिद्धिम् काम् गतिम् कृष्ण गच्छति || (६/३७)
कच्चित् न उभय विभ्रष्टः छिन्न अभ्रम् एव नश्यति |
अप्रतिष्ठः महाबाहो विमूढः ब्रह्मणः पथि || (६/३)
एतत् मे संशयम् कृष्ण छेत्तुम् अर्हसि अशेषतः |
त्वत् अन्यः संशयस्य अस्य छेत्ता न हि उपपद्यते || (६/३९)

अयतिः(असफल यति, योगी), श्रद्धया(श्रद्धापूर्वक), उपेतः(संलग्न, लगा हुआ), योगात्(योग से), चलित(विचलित), मानसः (मनवाला) | अप्राप्य(प्राप्त न करके), योग(योग), संसिद्धिम्(सिद्धि को), काम्(किस), गतिम्(गति को), कृष्ण(कृष्ण), गच्छति(जाता है) | (६/३७)
कच्चित्क्(क्या),(नहीं), उभय(दोनों से), विभ्रष्टः(भ्रष्ट हुआ), छिन्न(छिन्न भिन्न), अभ्रम्(बादल), एव(सदृश्य), नश्यति(नष्ट हो जाता है) | अप्रतिष्ठः(अप्रतिष्ठित), महाबाहो(महाबाहो), विमूढः(मोहग्रस्त), ब्रह्मणः(ब्रह्म), पथि(पथ से) | (६/३)
एतत्(यह), मे(मेरा), संशयम्(संशय को), कृष्ण(कृष्ण), छेत्तुम्(छेदन करने के लिये), अर्हसि(योग्य हैं), अशेषतः(पूर्णतया) | त्वत्(आपसे), अन्यः(अन्य), संशयस्य(संशय का), अस्य(इस), छेत्ता(छेदन करने वाला),(नहीं), हि(क्योंकी), उपपद्यते(पाया जाना संभव है) | (६/३९)

कृष्ण ! योग में श्रद्धापूर्वक लगाहुआ, विचलित मनवाला असफल यति योग सिद्धि को प्राप्त ना होकर किस गति को प्राप्त होता है | (६/३७)
महाबाहो ! क्या ब्रह्म पथ से मोहित होकर अप्रतिष्ठित हुआ, दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ, छिन्न भिन्न बदल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता | (६/३८)
कृष्ण ! (आप) मेरा यह संशय को छेदन करने के लिये पूर्णतया योग्य हैं, क्योंकी आपसे अन्य इस संशय का छेदन करनेवाला, पायाजाना संभव नहीं है | (६/३९)

अर्जुन के प्रश्न से पूर्व, योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अभी तक उपदेशित गीता शास्त्र के अध्ययन मनन की दृष्टि से अर्जुन की मनोदशा पर एक दृष्टि करते हैं, कि गीता शास्त्र के अनुसार योगेश्वर के उपदेशों से पूर्व अर्जुन की मनोदशा किन भावों को प्राप्त थी ? अर्जुन देह और देह के संबंधो को लेकर, स्वयं और भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य तथा आततायी कहे गये धार्तराष्ट्रान अर्थात् दुर्योधन और उसकी मित्र मंडली को लेकर तथा देह के भोगों अर्थात् रुधिर से सने राज्य और राज भोगों, स्वर्गादिक भोगों को लेकर ही तो व्यथित था, मोहित था | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इसको मन के निग्रह और वैराग्य में बाधक माना है, इसीके लिये कहा है कि जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूपी दल-दल को भलीभांति पार कर जाएगी, तब सुनने योग्य को सुन सकेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त कर सकेगा | (२/५२) इतना ही नहीं अर्जुन श्रीकृष्ण को ‘इति अनुशुश्रुम’ के अनुसार सनातन धर्म की, कुल धर्म की भी व्याख्या करता है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस काल में सुने हुए शास्त्रीय मतभेदों से विचलित तेरी बुद्धि जब निश्चला अर्थात् एकनिष्ठा को प्राप्त हो स्थिर हो जाएगी, तब समाधौ अर्थात् आत्मपरायण हो अचल रूप से योग को प्राप्त हो जाएगा | (२/५३) तात्पर्य यह कि सुना सुनाया सांसारिक प्रवृति वाला धर्म, स्वर्गादिक भोगों वाला, कर्मकाण्डों वाला धर्म ही आत्मपरायण होने में, श्रद्धावान होने में, हृदयस्थ ईष्ट के प्रति एकनिष्ठ होने में बाधक है, तथा सांसारिक मोह और शास्त्रीय मतभेदों से बुद्धि के विचलित होने के पीछे सिर्फ़ एक ही कारण है और वह है मन का सांसारिक विषयों में विचरण करना | योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार अर्जुन अब आत्मपरायण, योगपरायण होना चाहता है, परन्तु चंचल, दृढ़, बलवान और प्रमथनशील मन को लेकर अर्जुन अब भी शंकित है, इसलिये उसके प्रश्न का ऐसा स्वरूप है |

अर्जुन कहता है कि हे कृष्ण आपके उपदेशानुसार श्रद्धा से युक्त होकर, एकनिष्ठ होकर अगर साधक योगयुक्त होने का प्रयास भी करता है, परन्तु मन के चलायमान होने पर अगर वह इस योग से भ्रष्ट हो जाता है, तब योग की सिद्धि को प्राप्त ना होकर अर्थात् आपको ना पाकर वह किस गति को प्राप्त होता है | सिद्ध है कि योगभ्रष्ट साधक आपको तो नहीं पा सकेगा, तो ऐसे साधक की क्या गति होती है ?
क्या ब्रह्म पथ से मोहित होकर अप्रतिष्ठित हुआ, दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ, छिन्न भिन्न बदल की तरह नष्ट तो नहीं हो  जाता | क्या ब्रह्म पथ से, परमार्थ से मोहित अप्रतिष्ठित होकर, योग से च्युत होकर, दोनों और से भ्रष्ट हुआ अर्थात् ऐसे को तो ना माया मिली ना राम, ऐसा योगी छिन्न भिन्न बादल की टुकड़ी की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता |

कृष्ण ! केवल आप ही मेरा यह संशय को छेदन करने के लिये पूर्णतया योग्य हैं, क्योंकी आपसे अन्य इस संशय का छेदन करनेवाला पायाजाना संभव नहीं है | क्योंकी जितना सरल और सुगम मार्ग मनुष्य मात्र के उद्धार को यह योग भी आपने ही कहा है और आपने कहा है, इसलिये इस मार्ग में प्रवृत होने को अगर कोई संदेह है तो उस संशय का निवारण करनेवाला भी आप के अन्यत्र कोई दूसरा पाया जाना संभव नहीं है | इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण पृथा पुत्र अर्जुन को कहते हैं, कि   

श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते |
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति || (६/४०)

पार्थ न एव इह न अमुत्र विनाशः तस्य विद्यते |
न हि कल्याण कृत् कश्चित् दुर्गतिम् तात गच्छति || (६/४०)

पार्थ(पृथापुत्र अर्जुन),(नहीं), एव(ही), इह(इस लोक में),(नहीं), अमुत्र(अन्य लोक में), विनाशः(विनाश), तस्य(उसका), विद्यते(होता है) | न(नहीं), हि(क्योंकी), कल्याण(परमार्थ), कृत्(कर्मों द्वारा), कश्चित्(कोई भी), दुर्गतिम्(दुर्गति को), तात(हे प्यारे), गच्छति(जाता है) | (६/४०)

पार्थ ! उसका ना इस लोक में ही, ना अन्य लोक में विनाश होता है, क्योंकी प्यारे ! कल्याणकारी कर्मो द्वारा कोई
भी दुर्गति को नहीं जाता है | (६/४०)

योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को योगभ्रष्ट साधक की गति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पार्थ उस योगभ्रष्ट योगी का ना तो इस लोक में ना अन्य लोक में विनाश होता है, यही इस कृष्णयोग की आधारभूत प्रस्तावना भी है कि इसमें प्रयत्न के आरम्भ का नाश नहीं होता, कोई विपरीत दोष भी विद्यमान नहीं है | इस धर्म का थोड़ा सा भी (आचरण) महान भय से रक्षा करता है | (२/४०) तात्पर्य यह कि योगपरायण साधक यदि मन के चलायमान होने पर, योग से च्युत भी हो जाये तो भी योग का परिणाम उसकी विवेकबुद्धि का सम्पूर्ण नाश नहीं होता, इस कारण उसका इस लोक में भी अर्थात् इस देह में विनाश नहीं होता, वह नीच कर्मों से लिप्त नहीं होता तथा अन्य लोक में भी उसका विनाश नहीं होता | इसका भी कारण वही कि योग के परिणाम से स्वभाव के थोड़े से भी परिवर्तन स्वरूप उसकी विवेकबुद्धि का सम्पूर्ण नाश नहीं होता क्योंकी प्यारे ! कल्याणकारी कर्मों द्वारा, आसक्ति और कामना रहित होकर किये गये योग के आंशिक परिणाम स्वरूप भी कोई दुर्गति को नहीं जाता | यहाँ दुर्गति और इसी श्लोक में पूर्व में कहे विनाश से एक ही तात्पर्य है कि योग के आचरण स्वरूप उसने जो स्थिति पायी है, मन के चलायमान होने पर भी, योग से च्युत होने पर भी, वह साधक उस स्थिति से अपना उद्धार तो नहीं करता परन्तु उस स्थिति से, पूर्व जन्म की स्थिति से अधोगति को भी प्राप्त नहीं होता | उस साधक की गति का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, कि

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः |
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते || (६/४१)

प्राप्य पुण्य कृताम् लोकान् उषित्वा शाश्वती समाः |
शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योग भ्रष्टः अभिजायते || (६/४१)

प्राप्य(प्राप्त करके), पुण्य(पुण्य), कृताम्(कर्मों के), लोकान्(लोकों में), उषित्वा(निवास करके), शाश्वती(शाश्वत), समाः(काल तक) | शुचीनाम्(शुद्ध आचरण वाले), श्री-मताम्(श्रीमान् पुरूषों के), गेहे(घर में), योग(योग), भ्रष्टः(भ्रष्ट हुआ), अभिजायते (जन्म लेता है) | (६/४१)

पुण्य कर्मों द्वारा प्राप्त लोकों में शाश्वत काल तक निवास करके, योग भ्रष्ट हुआ (साधक) शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरूषों के घर में जन्म लेता है | (६/४१)

पुण्य कर्मों द्वारा प्राप्त लोकों में शाश्वत काल तक निवास करके अर्थात् जिन लोकों की प्राप्ति अन्य पुरुष वेदों में वर्णित काम्य कर्मों द्वारा, पुण्य कर्मों द्वारा, अथक परिश्रम द्वारा करते हैं, यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करनेवाला साधक उन लोकों में भी मन के चलायमान होने के कारण, मन वांछित भोगों को भोगकर, योगभ्रष्ट हुआ साधक शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरूषों के घर में जन्म लेता है | शुद्ध आचरण वाले अर्थात् उन घरों में ऐसा योगभ्रष्ट साधक जन्म पाता है, जहाँ शुद्ध आचरण स्वरूप जीवन निर्वाह किया जाता है, ताकि अब उसका मन सांसारिक भोगों के प्रति चलायमान ना हो | अथवा

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् |
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् || (६/४२)

अथवा योगिनाम् एव कुले भवति धिमताम् |
एतत् हि दुर्लभ तरम् लोके जन्म यत् ईदृशम् || (६/४२)

अथवा(अथवा), योगिनाम्(योगियों के), एव(ही), कुले(कुल में), भवति(होता है), धि-मताम्(ज्ञानवान पुरूषों के) | एतत्(यह) हि(निःसंदेह), दुर्लभ(दुर्लभ), तरम्(अत्यंत), लोके(लोक में), जन्म(जन्म), यत्(जो), ईदृशम्(इस प्रकार का) | (६/४२)

अथवा ज्ञानवान पुरूषों के, योगियों के कुल में ही (जन्म) होता है, जो इस प्रकार का लोक में जन्म है, यह निःसंदेह अत्यंत दुर्लभ है | (६/४२)

अथवा ज्ञानवान पुरूषों के अथवा योगियों के कुल में ही जन्म लेता है, ताकि वह अपनी जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु अनायास ही प्रयत्न करने लगता है तथा जो इस प्रकार का लोक में, इस प्रकार की यह जो देह की प्राप्ति है, यह निःसंदेह अत्यंत दुर्लभ है क्योंकी ऐसा जन्म तो केवल उन योगभ्रष्ट साधकों को प्राप्त हो पाता है जिन्होंने पूर्व जन्मों में योग का बहुत अधिक आचरण किया था परन्तु योगभ्रष्ट हो गये | उसमें केवल दो मुख्य कारण हैं, पहला कारण कि आत्मज्ञान की प्राप्ति के पूर्व माया कभी भी आपको ठग सकती है, इस तथ्य का ध्यान ना रख साधक योग के आचरण को अपनी साधना मान बैठा हो, ‘मैं कर्त्ता हूँ’ इस भाव से भावित हो गया हो, ऐसे साधक को माया अवश्य ठगती है, कारण कोई भी प्रतीत हो तथा दूसरा कारण यह कि आत्मज्ञान की प्राप्ति के पूर्व देहान्तर की स्थिति आ गयी हो, देह का साथ छुट गया हो | कारण जो भी रहे हों, योगभ्रष्ट साधक का ज्ञानवानों और योगियों के कुल में जन्म निःसंदेह अत्यंत दुर्लभ है | इस प्रकार के जन्म की दुर्लभता को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् |
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन || (६/४३)

तत्र तम् बुद्धि संयोगम् लभते पौर्व देहिकम् |
यतते च ततः भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन || (६/४३)

तत्र(वहाँ), तम्(उस), बुद्धि(बुद्धि), संयोगम्(संयोग का), लभते(लाभ प्राप्त होता है), पौर्व(पूर्व), देहिकम्(देह के) | यतते(यत्न करता है),(और), ततः(तत्पश्चात्), भूयः(पुनः), संसिद्धौ(सिद्धि के लिये), कुरुनन्दन(कुरुनन्दन) | (६/४३)

वहाँ उस पूर्व देह के बुद्धि संयोग का लाभ प्राप्त होता है, और कुरुनन्दन ! तत्पश्चात पुनः (योग) सिद्धि के लिये यत्न
करता है | (६/४३)                                                                                                           

वहाँ अर्थात् ज्ञानवानों अथवा योगियों के कुल में जन्म लेने के पश्चात् पूर्वजन्म का वह योगभ्रष्ट योगी उस पूर्व देह द्वारा किये योग के परिणाम को उस विवेकबुद्धि को, समबुद्धि को, उस बुद्धि के संयोग के लाभ को प्राप्त होता है, अर्थात् पूर्व देह द्वारा किये गये योग के परिणाम को प्राप्त होता है और तत्पश्चात् पुनः योग सिद्धि के लिये प्रयत्न करता है | इस बुद्धि संयोग के लाभ की प्राप्ति ही कृष्णयोग साधक के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण का ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (९/२२) है कि साधक का योग के आचरण स्वरूप जो दुखों के संयोग का वियोग है उसके परिणाम की रक्षा का दायित्व परमतत्त्व परमात्मा स्वयं लेते हैं | पूर्व जन्म में आचरण स्वरूप योग के परिणाम का नाश नहीं होता, वह साधक को वैसा का वैसा ही प्राप्त हो जाता है | इसीको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि
                                                                                                                                                              
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः |
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते || (६/४४)

पूर्व अभ्यासेन तेन एव ह्रियते हि अवशः अपि सः |
जिज्ञासुः अपि योगस्य शब्द ब्रह्म अतिवर्तते || (६/४४)
                                                                                                                                                                                                                            
पूर्व(पूर्व), अभ्यासेन(अभ्यास द्वारा), तेन(उससे), एव(ही), ह्रियते(आकर्षित होता है), हि(निःसंदेह), अवशः(परवश हुआ), अपि(भी), सः(वह) | जिज्ञासुः(जिज्ञासु), अपि(भी), योगस्य(योग द्वारा), शब्द(शास्त्रों में), ब्रह्म(ब्रह्म), अतिवर्तते(उल्लंघन कर जाता है) | (६/४४)

वह परवश हुआ भी, पूर्व (जन्म के) अभ्यास द्वारा ही निःसंदेह आकर्षित होता है, जिज्ञासु भी योग द्वारा ‘शब्द
ब्रह्म’ का उल्लंघन कर जाता है | (६/४४)

वह योगभ्रष्ट योगी परवश हुआ भी अर्थात् चंचल मन के वश में हुआ भी पूर्व जन्म के अभ्यास द्वारा ही निःसंदेह आकर्षित होता है, जिसके लिये योगेश्वर ने कहा है कि इस योग का थोड़ा सा भी आचरण महान भय से अर्थात् काम, क्रोध, लोभ के वश में होकर परवश हुए साधक को इस महान भय से रक्षा करता है, जिसके लिये हमने मनन भी किया था कि आप इस योग को अपना भर ले, फिर आप इस योग को भले ही विस्मृत कर जाएँ, यह योग आपको नहीं छोड़ेगा और जन्म जन्मों तक आपको आकर्षित कर पुनः इसमें लगा देगा, यह योग आपको आपके लक्ष्य पर पहुँचा कर ही दम लेगा, परमतत्त्व को साक्षात् करा कर ही दम लेगा | यह तो हुई कभी योग परायण परन्तु फिर योगभ्रष्ट हुए साधक की बात, परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण तो इससे भी ज्यादा आश्वासन देते हुए कहते हैं कि जिज्ञासु भी अर्थात् जो अभी योगपरायण नहीं हुआ है अपितु योग में आरुड़ होने की केवल इच्छा भर रखता है, ऐसा जिज्ञासु भी योग द्वारा ‘शब्द ब्रह्म’ का अर्थात् वेदों में कहे स्वर्गादिक कर्मो का, पुन्य कर्मों का उल्लंघन कर जाता है और फिर योग का आचरण प्रारंभ करके परमगति को, परमधाम को प्राप्त होता है | इसी क्रम में

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः |
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् || (६/४५)

प्रयत्नात् यतमानः तु योगी संशुद्ध किल्बिषः |
अनेक जन्म संसिद्ध: ततः याति पराम् गतिम् || (६/४५)

प्रयत्नात्(प्रयत्नपूर्वक), यतमानः(अभ्यास करने वाला), तु(परन्तु), योगी(योगी), संशुद्ध(शुद्ध होकर), किल्बिषः(पापों से) | अनेक(अनेक), जन्म(जन्मों में), संसिद्ध:(सिद्ध होकर), ततः(तत्पश्चात्, तत्काल ही), याति(प्राप्त करता है), पराम्(परं), गतिम् (गति) | (६/४५)

परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाला योगी पापों से शुद्ध होकर, अनेक जन्मों में ‘संसिद्धः’ योग की सिद्धि को प्राप्त करके तत्पश्चात् तत्काल ही परमगति को प्राप्त करता है | (६/४५)

प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाला योगी पापों से शुद्ध होकर, कर्मबन्धन का नाश करके, ‘अनेक जन्म संसिद्धः’ अनेक जन्मों के प्रयासपूर्वक अभ्यास द्वारा योग की सिद्धि को प्राप्त कर लेता है | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘अनेक जन्म संसिद्धः’; तात्पर्य यह कि एक जन्म में तो विरले साधकों का ही योग सिद्ध होता है अन्यथा योग की सिद्धि को अनेक जन्म लग ही जाते हैं | यहाँ यह योग की सिद्धि से भी क्या तात्पर्य है, उस पर एक मनन, योग की सिद्धि अर्थात् योग के सिद्ध होने पर इसके परिणाम की प्राप्ति और यह प्राप्ति है ‘आत्मज्ञान’; जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि निःसंदेह इस लोक में इस आत्म ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला अन्य कुछ विद्यमान नहीं है, ‘तत्स्वयं’ उस आत्म ज्ञान को तू स्वयं ‘योग संसिद्धः कालेन’ जब योग सिद्ध होगा उस काल में ‘आत्मनि विन्दति’ स्वयं में ही पायेगा | (४/३८) तात्पर्य यह की अनेक जन्मों के योग के प्रयास स्वरूप, योग के सिद्ध होने पर जो प्राप्ति है, वह है आत्मज्ञान और उस आत्मज्ञान को प्राप्त करके उसके पश्चात् तत्काल ही वह साधक परमगति को प्राप्त करता है | यह तो हुआ अर्जुन के प्रश्न का समाधान की योगभ्रष्ट साधक की क्या गति होती है ? योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार अनेक जन्मों के प्रयास स्वरूप तो योगभ्रष्ट साधक भी परमगति को प्राप्त हो जाता है और जो प्रयासपूर्वक, प्रयत्नपूर्वक श्रद्धापूर्वक, आत्मपरायण हो नित्य निरन्तर योग का अभ्यास करता है, उसका तो कहना ही क्या ?  

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः |
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन || (६/४६)

तपस्विभ्यः अधिकः योगी ज्ञानिभ्यः अपि मतः अधिकः |
कर्मिभ्यः च अधिकः योगी तस्मात् योगी भव अर्जुन || (६/४६)

तपस्विभ्यः(तपस्वियों से), अधिकः(अधिक), योगी(योगी), ज्ञानिभ्यः(ज्ञानियों सी), अपि(भी), मतः(माना गया है), अधिकः(अधिक) | कर्मिभ्यः(कर्मियों से),(और), अधिकः(अधिक), योगी(योगी), तस्मात्(इसलिये), योगी(योगी), भव(हो), अर्जुन(अर्जुन) | (६/४६)

योगी तपस्वियों से अधिक, ज्ञानियों से भी अधिक और कर्मियों से भी अधिक मान्य है, इसलिये अर्जुन ! (तू) योगी हो | (६/४६)

योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार जिससे दुखों के संयोग का वियोग होता है, उसको योग जानो | संसार रूपी दुःख और दुःख रूपी संसार का वियोग तो योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार योग से ही होता है, इसलिये अर्जुन से कहते हैं कि अर्जुन तू योगी हो तथा इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि योगी तपस्वियों से अधिक मान्य है, क्योंकी तप केवल इन्द्रियों और मन के संयम तक ही सीमित विधिविशेष है, इससे आत्मज्ञान अर्थात् परमतत्त्व परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण नहीं होता | ज्ञानी अर्थात् प्रवृति विषयक और निवृति विषयक वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता जो इस ज्ञान के कारण स्वरूप तथाकथित संन्यास की रहनी का आचरण भी करते हैं परन्तु  इसको योगेश्वर श्रीकृष्ण कई संदर्भो में स्पष्ट कर आये हैं कि संन्यास एक रहनी है इससे जीवन यात्रा की सिद्धि नहीं होती (३/४,उ०), तथा योग के आचरण बिना सन्यास की प्राप्ति दुःखद है | ((५/६,पु०) अर्थात् जीवन यात्रा की सिद्धि नहीं होती अपितु आवागमन लगा ही रहता है | तथा कर्मी जो वेदवाक्यों में प्रीति रखते हैं और स्वर्ग को ही सर्वोपरी मानते हैं उनसे भी योगी अधिक मान्य है | योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार उन्ही का मत है कि अन्यथा बहुशाखा, अनन्त बुद्धि वाले बहुत से मार्गो से परं की प्राप्ति का प्रयास करते हैं परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण का अर्जुन को तथा अर्जुन के माध्यम से परमार्थ मार्ग के साधकों को स्पष्ट दिशा निर्देश है कि तुम योग का आचरण करो | वस्तुतः यह तप, यह संन्यास, समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह यह सब इस कृष्णयोग के अंग मात्र हैं अन्यथा अगर यह योग अन्य योगों की भांति केवल एक योग है तो कौन सा योग ? ज्ञानयोग का, कर्मयोग का, भक्तियोग का, ध्यानयोग का, सहजयोग का, जपयोग का, अष्टांगयोग का अथवा कहें कौन सा योग, इनमें से किस योग का आचरण करें ? मेरे मत में पूर्णावतार योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित योग ही एक पूर्ण योग और श्रेष्ठ मान्य योग है और यह योग है, कृष्णयोग |

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना |
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः || (६/४७)

योगिनाम् अपि सर्वेषाम् मत् गतेन अन्तः आत्मना |
श्रद्धावान् भजते यः माम् सः मे युक्त-तमः मतः || (६/४७)
योगिनाम्(योगियों में), अपि(भी), सर्वेषाम्(समस्त), मत्(मेरे), गतेन(परायण), अन्तः(अंतर्मन), आत्मना(पुरुष) | श्रद्धावान् (श्रद्धावान) भजते(भजता है), यः(जो), माम्(मुझको), सः(वह), मे(मुझसे), युक्त(युक्त), तमः(श्रेष्ठ), मतः(मान्य है) | (६/४७)

समस्त योगियों में भी जो मेरे परायण होकर, श्रद्धावान, आत्मपरायण पुरुष मुझको भजता है, वह मुझसे युक्त श्रेष्ठ मान्य है | (६/४७)
                     
 समस्त योगियों में भी जो, जैसे तथाकथित ज्ञानयोगी, कर्मयोगी, ध्यानयोगी, अष्टांग योगी इत्यादि में भी, जो मेरे
परायण होकर अर्थात् मेरे मतानुसार, श्रद्धावान मेरे उपदेशों में श्रद्धा रखता हुआ, आत्मपरायण पुरुष अर्थात् हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित होकर मुझको भजता है अर्थात् एक सगुण साकार परमात्मा के, सद्गुरु के वचनों का पालन करता है, वह मुझसे युक्त श्रेष्ठ मान्य है |

सारांशतः श्रद्धा अर्थात् हृदयस्थ ईष्ट के प्रति आस्था, आत्मपरायण अर्थात् हृदयस्थ ईष्ट के आश्रय होकर उनके प्रति एकनिष्ठ समर्पण जो योग की प्राप्ति को अनिवार्य है, मेरे परायण अर्थात् सद्गुरु के, हृदयस्थ ईष्ट के, सगुण साकार परमतत्व परमात्मा स्वरूप के परायण तथा मुझसे युक्त अर्थात् साधक जो खाता है, पीता है, कर्म करता है वह सब हृदयस्थ ईष्ट को समर्पण करके योग का आचरण ही योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार उनसे युक्त होना है और यही उन्हें श्रेष्ठ मान्य है |


इस प्रकार इस अध्याय और मुख्य रूप से कृष्णयोग को समर्पित प्रथम छः अध्यायों का समापन होता है |





***** ॐ तत् सत् *****