Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

१८ अध्याय ; श्लोक संख्या ३९-७८

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः |
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः || (१८/४०)

न तत् अस्ति पृथिव्याम् वा दिवि देवेषु वा पुनः |
सत्त्वम् प्रकृति जैः मुक्तम् यत् एभिः स्यात् त्रिभिः गुणैः || (१८/४०)

(न), तत् (वह), अस्ति (है), पृथिव्याम् (पृथ्वी पर), वा (अथवा), दिवि (आकाश में), देवेषु (देवों में), वा (अथवा), पुनः (फिर) | सत्त्वम् (सत्त्व तत्त्व), प्रकृति (प्रकृति), जैः (जन्य), मुक्तम् (मुक्त हो), यत् (जो), एभिः (इन), स्यात् (हो), त्रिभिः (तीनों), गुणैः (गुणों से) | (१८/४०)

पृथ्वी पर अथवा आकाश में अथवा फिर देवताओं में वह ‘सत्त्व’ नहीं है, जो प्रकृतिजन्य इन तीन गुणों से मुक्त हो |

तात्पर्य यह कि देव योनि को प्राप्त सर्वरूपा सात्त्विक जीव भी प्रकृतिजन्य इन भावों के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं, इसलिये मनुष्यों का तो कहना ही क्या ? योगेश्वर श्रीकृष्ण यह भी स्पष्ट कर आये हैं कि ब्रह्मभुवन पर्यन्त समस्त लोक आवागमन को प्राप्त है और यह आवागमन तब तक लगा ही रहेगा, जब तक परमात्मा का सनातन अंश परमात्मा की भांति भावातीत अथवा कहें कि गुणातीत नहीं हो जाता और इसी आधार पर इस मृत्युलोक में जन्मे पुरूषों को भी इन भावों के आधार पर विभागसहित कहते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप |
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः || (१८/४१)

ब्राह्मण क्षत्रिय विशाम् शूद्राणाम् च परन्तप |
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवैः गुणैः || (१८/४१)

ब्राह्मण (ब्राह्मण), क्षत्रिय (क्षत्रिय), विशाम् (वैश्य), शूद्राणाम् (शुद्रों में), (और), परन्तप (परन्तप) | कर्माणि (समस्त कर्म), प्रविभक्तानि (विभक्त हैं), स्वभाव (स्वभाव), प्रभवैः (उत्पन्न), गुणैः (गुणों द्वारा) | (१८/४१)

परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शुद्रों के समस्त कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं |

ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शुद्रों के समस्त कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं, तात्पर्य यह की ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शुद्र को जन्म के आधार पर नहीं अपितु उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के आधार पर विभक्त किया गया हैं | इसी तथ्य को योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में कह आये हैं कि ‘चारों वर्ण को गुण और कर्मों के विभाग से मेरे द्वारा रचा गया है’ (४/१३) ‘रचा गया है’ अर्थात् मनुष्यों को उनके गुण और कर्म के कारण चार प्रकार से विभक्त किया गया है, इस विभाजन का कोई भी सांसारिक कारण अथवा उद्देश्य हो, हम उस पर मनन नहीं कर रहे हैं, गीताशास्त्र एक निवृतिविषयक शास्त्र है और निवृति हेतु इस विभाजन से योगेश्वर श्रीकृष्ण का क्या तात्पर्य है, उसे जानने का प्रयास करते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार इस धर्म का, इस निवृति विषयक धर्म का आचरण कोई भी कर सकता है, केवल कोई ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय अथवा कोई ज्ञानी अथवा भक्त ही इसका अधिकारी है, ऐसा नहीं है | इस धर्म को कोई भी पुरुष किस स्थिति से अंगीकार करे, इसका निर्णय उसके भाव और गुण ही करते हैं | मनुष्य के उन भावों और गुणों को विभाग सहित कहते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि   

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् || (१८/४२)

शमः दमः तपः शौचम् क्षान्तिः आर्जवम् एव च |
ज्ञानम् विज्ञानम् आस्तिक्यं ब्रह्म कर्म स्वभाव जम् || (१८/४२)

शमः(शम), दमः(दम), तपः(तप), शौचम् (पवित्रता), क्षान्तिः (क्षमाभाव), आर्जवम् (सरलता), एव (ही), (और) | ज्ञानम् (ज्ञान), विज्ञानम्(विज्ञानं), आस्तिक्यं(आस्तिकता), ब्रह्म(ब्राह्मण), कर्म(कर्म), स्वभाव (स्वभाव से), जम्(उत्पन्न) | (१८/४२)

शम, दम, तप, पवित्रता, क्षमाभाव, सरलता, ज्ञान विज्ञान और आस्तिकता ही स्वभाव से उत्पन्न ब्राह्मण कर्म हैं |

योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह स्वभाव से उत्पन्न ब्राह्मण कर्म हैं, तात्पर्य यह कि जिस योग परायण साधक में यह गुण पाए जाते हैं, वह साधक ब्राह्मण श्रेणी का साधक है, वह साधक अब यज्ञार्थ कर्मों के उच्च सौपन के यज्ञों के आचरण करने का सामर्थ्य रखता है और ऐसा साधक ब्रह्म में लीन होने को, प्राणायाम परायण होने को स्वभाव से सक्षम हो चुका है | वस्तुतः इस विषय पर हम अध्याय चार में विस्तार से मनन कर आये हैं, कि किस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने एक के बाद एक उच्च सौपन के यज्ञों को विस्तारपूर्वक कहा है और अपनी योग्यता के अनुसार साधक को किन यज्ञों का आचरण करना चाहिये | शम, दम, तप, पवित्रता, क्षमाभाव, सरलता, ज्ञान विज्ञान और आस्तिकता आदि से ब्राह्मण के गुणों को, ब्राह्मणत्व को प्राप्त साधक के गुणों को कहकर, अब योगेश्वर श्रीकृष्ण क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र श्रेणी के साधक के विषय में कहते हैं | 

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् |
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् || (१८/४३)

शौर्यम् तेजः धृतिः दाक्ष्यम् युद्धे च अपि अपलायनम् |
दानम् ईश्वर भावः च क्षात्रम् कर्म स्वभाव जम् || (१८/४३)

शौर्यम्(शौर्य), तेजः(तेज), धृतिः(धारणाशक्ति), दाक्ष्यम्(दक्षता), युद्धे(युद्ध), (और), अपि(भी), अपलायनम्(न भागना) | दानम् (दान), ईश्वर (स्वामी), भावः (भाव), (और), क्षात्रम्(क्षात्र), कर्म(कर्म), स्वभावजम् (स्वभावसे उत्पन्न) | (१८/४३)

शौर्य, तेज, धारणा, दक्षता और युद्ध से ना भागना भी, दान और स्वामीभाव स्वभाव से उत्पन्न क्षत्रिय कर्म हैं |

शौर्य, तेज, धारणा और दक्षता तो स्पष्ट है परन्तु युद्ध से ना भागने से क्या तात्पर्य है, योगेश्वर श्रीकृष्ण उस साधक को क्षत्रिय श्रेणी का साधक कहते हैं, जो दैवी सम्पदा के अर्जन और संचय के पश्चात् आसुरी सम्पदा से युद्ध को प्रस्तुत होता है, अपने विकारों से युद्ध करता हुआ ब्राह्मणत्व श्रेणी को प्राप्त करने को तत्पर है क्योंकी ब्राह्मण श्रेणी का साधक इन आसुरी भावों से परे होता है तथा दान से तात्पर्य यह कि क्षत्रिय श्रेणी के साधक को ब्राह्मणत्व प्राप्त करने हेतु जीवन निर्वाह से अधिक प्राप्य साधनों का दान करना चाहिये और स्वामीभाव अर्थात् अपने से उन्नत साधकों के प्रति, गुरु के प्रति, हृदयस्थ ईष्ट के प्रति उसका भाव स्वामी भाव से भावित होना चाहिये |  

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् |
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् || (१८/४४)

कृषि गौ रक्ष्य वाणिज्यम् वैश्य कर्म स्वभाव जम् |
परिचर्या आत्मकम् कर्म शूद्रस्य अपि स्वभाव जम् || (१८/४४)

कृषि(कृषि), गौ रक्ष्य(गौ रक्षा), वाणिज्यम्(व्यवसाय), वैश्य(वैश्य), कर्म(कर्म), स्वभावजम्(स्वभाव से उत्पन्न) | परिचर्या
आत्मकम् (दूसरों के प्रति सेवारूप), कर्म (कर्म), शूद्रस्य (शुद्रों का), अपि (भी), स्वभावजम् (स्वभाव से उत्पन्न) | (१८/४४)

कृषि, गौ रक्षा, व्यवसाय स्वभाव से उत्पन्न वैश्य कर्म हैं, दूसरों के प्रति सेवारूप कर्म भी शुद्र को स्वाभाविक है | 

कृषि, गौ रक्षा, व्यवसाय स्वभाव से उत्पन्न वैश्य कर्म हैं, यह शरीर एक क्षेत्र है, अच्छा संस्कार रूपी बीज यहाँ बोना पड़ता है और खतपतवार स्वतः हो जाती है, तात्पर्य यह कि माया मोहित करती रहती है, काम्य कर्मों में लगाती रहती है, उसके विपरीत उन बीजों को बोना जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि इसमें आरम्भ का नाश नहीं होता और कोई विपरीत फल भी नहीं होता, ऐसी कृषि का आरम्भ करना और गौ रक्षा तात्पर्य यह कि गौ इन्द्रियों के, तेरह करणों के समूह को कहते हैं, समस्त ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों और अन्तःकरण की सांसारिक विषयों से रक्षा करना गौ रक्षा है तथा व्यवसाय अर्थात् दैवी सम्पदा का अर्जन और संचय व्यवसाय कहलाता है | परमार्थ मार्ग के जिस साधक के यह गुण पाये जाते हैं, वह वैश्य श्रेणी का साधक कहलाता है |

दूसरों के प्रति सेवारूप कर्म शुद्र का स्वाभाविक कर्म है, प्रवेशिका श्रेणी का साधक, जिसे अभी परमार्थ मार्ग का कोई भी ज्ञान नहीं है, उसके लिये उन्नत साधकों, प्रप्तिवाले गुरुजनों की सेवा करना एक स्वाभाविक कर्म है, ऐसा साधक शुद्र श्रेणी का साधक कहलाता है, यहाँ शुद्रता से साधक की नीचता नहीं अपितु साधक की अल्पज्ञता को कहा जाता है | ऐसा साधक परिचर्या से, अपने से उन्नत साधकों और गुरुजनों की सेवा से ही प्रारंभ करे |   

योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपरोक्त तीन श्लोकों का जिस प्रकार हमने मनन किया है, यह मनन परमार्थ हेतु है, परमार्थ मार्ग के साधकों हेतु है, अन्यथा कृष्ण काल में और अभी कोई सौ साल पूर्व भी समाज की जो व्यवस्था सुनने में आती है, उस व्यवस्था में समाज के वर्ग, ध्यान दें कि वर्ण नहीं अपितु समाज भी इसी प्रकार चार वर्गों में विभाजित था, परन्तु कलिकाल के इस काल में समाज सभी व्यवस्थाओं को तोड़ चुका है, एक शुद्र सेना में अधिकारी है तो एक ब्राह्मण एक विद्यालय में चपरासी अथवा सफाई कर्मी है | इस काल में और इस व्यवस्था में योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों का क्या सार रह जाता है, हम इस विषय पर मनन कर रहे हैं |

यहाँ ध्यान दे कि गीता शास्त्र निवृति विषयक शास्त्र है, इस शास्त्र के अनुसार मनुष्य जीवन निर्वाह किस प्रकार करता है, जीवन निर्वाह को उसके पास क्या साधन हैं, उससे कोई भी तात्पर्य नहीं है, अपितु मनुष्य किन भावों से जीवन निर्वाह करता है और किन भावों से जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु प्रयास रत है, वह परमार्थ मार्ग के साधक की एकमात्र कसौटी है, एक पुरुष जन्म से शुद्र और स्वभाव से उत्पन्न गुणों के कारण ब्राह्मण हो सकता है | गीता शास्त्र मनुष्य के सांसारिक रूप का नहीं अपितु पुरुष के भावों के रूपांतरण का शास्त्र है, मनुष्य के स्वभाव के रूपांतरण का शास्त्र है, इसलिये ही योगेश्वर श्रीकृष्ण इन तीन श्लोकों में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह इस साधक के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं और योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों का अक्षरशः पालन से ही मनुष्य के स्व-भाव का रूपांतरण होकर उसे परं-भाव की प्राप्ति होती है | परमार्थ मार्ग भाव प्रधान है, समाज के वर्गों के, वर्णों के टूटने से परमार्थ मार्ग की साधना में कोई अन्तर नहीं आता, इसीको योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस अविनाशी योग को मैंने पुरातन काल में सूर्य को कहा था, तात्पर्य यह कि काल कोई भी हो, इस शास्त्र की महत्ता, उपयोगिता में कोई अन्तर नहीं पड़ता, परं की प्राप्ति को पुरातन काल में यही अविनाशी योग था, आज भी है और कल भी रहेगा, इसीको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण परमार्थ मार्ग के साधकों को एक बहुत ही महत्वपूर्ण सन्देश, दिशा निर्देश देते हैं |         

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः |
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु || (१८/४५)
यतः प्रवृतिर्भुतानां येन सर्वमिदं ततम् |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः || (१८/४६)

स्वे स्वे कर्माणि अभिरतः संसिद्धिम् लभते नरः |
स्व कर्म निरतः सिद्धिम् यथा विन्दति तत् श्रृणु || (१८/४५)
यतः प्रवृतिः भूतानाम् येन सर्वम् इदम् ततम् |
स्व कर्मणा तम् अभ्यर्च्य सिद्धिम् विन्दति मानवः || (१८/४६)

स्वे स्वे (अपने अपने), कर्माणि (कर्मों में), अभिरतः (करता हुआ), संसिद्धिम् (परम सिद्ध), लभते (प्राप्त करता है), नरः (मनुष्य) | स्व कर्म (स्वाभाविक कर्म), निरतः (लगा हुआ), सिद्धिम् (सिद्धि को), यथा (जैसे), विन्दति (प्राप्त होता है), तत् (वह), श्रृणु (सुनो) | (१८/४५)
यतः (जिससे), प्रवृतिः (प्रवृति को), भूतानाम् (समस्त प्राणी), येन (जिससे), सर्वम् (सभी कुछ), इदम् (यह), ततम्(व्याप्त है) | स्व कर्मणा (अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा), तम् (उसको), अभ्यर्च्य (आराधना करके), सिद्धिम् (सिद्धि को), विन्दति (प्राप्त करता है), मानवः (मनुष्य) | (१८/४६)

अपने अपने कर्मों को करता हुआ मनुष्य सिद्धि के लाभ को प्राप्त होता है, स्वभाविक कर्मों में लगा जिस प्रकार सिद्धि को प्राप्त होता है, वह सुनो | (१८/४५)
जिससे समस्त प्राणी प्रवृत हुए है, जिससे यह सब कुछ व्याप्त है, अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा उसकी आराधना करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है | (१८/४६)

योगेश्वर श्रीकृष्ण का यह परं रहस्यमय और गूढ़ वचन परमार्थ के इच्छुक समस्त साधकों को आत्मसात करना चाहिये, योगेश्वर के इस वचन को सदैव स्मृतिपटल पर बनाए रखना चाहिये, यह परमार्थ मार्ग में प्रवेश को इच्छुक साधकों की योग्यता का परिचायक है | योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने अपने कर्मों को करता हुआ मनुष्य सिद्धि के लाभ को प्राप्त होता है, तात्पर्य यह कि इस मार्ग में प्रवेश हेतु जो योग्यता साधक की होनी चाहिये वह यह कि साधक अपने स्वभावजन्य कर्मों को करता हुआ ही इस मार्ग को अपनाए | इस मार्ग में किसी व्यक्ति विशेष को, किसी वर्ग विशेष को, किसी वर्ण विशेष को, ज्ञानी को, विद्वान को, ध्यानी को, भक्त को, कर्मी को कोई विशेष अधिकार प्राप्त हैं, ऐसा नहीं है, यह वैदिक कर्मकाण्डों का, धर्म, काम और अर्थ का नहीं अपितु परम अर्थ का, परमार्थ का मार्ग है और इस मार्ग में परमात्मा समस्त प्राणियों के प्रति समभाव से स्थित है, उसका ना कोई प्रिय है और ना ही कोई अप्रिय | अगर आप समाज का मैला भी उठाते हों तो भी इस परमार्थ मार्ग में प्रवेश हेतु आपको वही योग्यता प्राप्त है जो एक विद्याविनय संपन्न ब्राह्मण को प्राप्त है, समस्त मनुष्य समुदाय ही अपने अपने कर्मों को करता हुआ सिद्धि के लाभ को अर्थात् अपनी निष्ठा के अनुसार योग को, संन्यास को प्राप्त होता है | स्वाभाविक कर्मों को करता हुआ जिस प्रकार मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है, उस पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

जिससे समस्त प्राणी प्रवृत हुए हैं, जिससे यह सब कुछ व्याप्त है अर्थात् दैवी माया के देवी देवता नहीं अपितु इन देवी देवताओं को भी अपने में समाये यह जो माया है, उसके भी पालनहार, उसके भी पति मायापति, दैवीमाया में नहीं अपितु योगमाया में, आत्ममाया में स्थित, जिनके विराट रूप का दर्शन इस गीता शास्त्र में है, जिसको समस्त देवी देवता भी नमन करते हैं, उस एक परमतत्त्व परमात्मा की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा आराधना करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है | वह परमात्मा रहता कहाँ है, उस परमात्मा की आराधना किस प्रकार की जाती है, यह ज्ञान ही गीता शास्त्र है, संक्षिप्त में समभाव, समबुद्धि से अपने अपने स्वाभाविक कर्मों को करते हुए जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु भी अपने अपने स्वाभाविक कर्मों के अनुसार ही, जिसका विवरण योगेश्वर श्रीकृष्ण ने उपरोक्त तीन श्लोकों में दिया है, उसके अनुसार यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करता हुआ मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है, तात्पर्य यह कि शुद्र श्रेणी के साधक को परिचर्या से ही अपनी साधना, अपनी आराधना  आरम्भ करनी चाहिये, ब्राह्मण श्रेणी के साधक की नकल नहीं करनी चाहिये | इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं |    
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् || (१८/४७)

श्रेयान् स्व धर्मः विगुणः पर धर्मात् सु अनुष्ठितात् |
स्वभाव नियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् || (१८/४७)
श्रेयान् (श्रेष्ठ है), स्व धर्मः (अपना धर्म), विगुणः (गुणरहित), पर (दुसरे के), धर्मात् (धर्म से), सु (अच्छी तरह), अनुष्ठितात् (अनुष्ठान किये) | स्वभाव (स्वभाव), नियतम् (निर्धारित), कर्म (कर्म), कुर्वन् (करता हुआ), (न), आप्नोति (प्राप्त होता है), किल्बिषम् (पाप को)| (१८/४७)

अच्छी तरह अनुष्ठान किये दुसरे के धर्म से गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है, स्वभाव से निर्धारित कर्मों को करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता | (१८/४७)

परमार्थ हेतु, जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु, अच्छी तरह अनुष्ठान किये दुसरे के धर्म से गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है, स्वभाव से निर्धारित कर्मों को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता अर्थात् उस मनुष्य के प्रारब्धवश प्राप्त समस्त कर्मफलों का नाश हो अथवा नहीं, एक जन्म में वह मुक्ति को प्राप्त हो अथवा नहीं परन्तु वह मनुष्य नवीन कर्मबंधनो में नहीं बँधता और योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ‘प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाला योगी पापों से शुद्ध होकर, अनेक जन्मों में ‘संसिद्धः’ को, योग की सिद्धि को प्राप्त करके तत्पश्चात् तत्काल ही परमगति को प्राप्त करता है | (६/४५) ‘अच्छी तरह अनुष्ठान किये दुसरे के धर्म से गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है’ इस तथ्य पर एक मनन | अर्जुन महाभारत के युद्ध के अवश्यंभावी परिणाम पर दृष्टि डालते हुए, कुलनाश के भय से ही, युद्ध से पलायन करना चाहता था, उसके लिये परमात्मा की शरण होकर भिक्षान्न के अन्न से जीवन निर्वाह करने को भी संकल्पबद्ध होता है, परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण उससे कहते हैं कि ‘जय-पराजय में, लाभ-हानि में और सुख-दुःख में मन एवं बुद्धि को सम करके, उसके बाद युद्ध में लग जा, इस प्रकार पाप को प्राप्त नहीं होगा | (२/३८) तात्पर्य वही कि समभाव से, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य पाप को, नवीन कर्मबन्धन को प्राप्त नहीं होता और इस प्रकार जीवन निर्वाह करते हुए, यज्ञार्थ कर्मों के आचरण स्वरूप जन्मजन्मान्तर के कर्मबन्धन का भी नाश करने में सक्षम हो जाता है और सिद्धि को प्राप्त करता है | परन्तु अर्जुन ने कहा था कि पितामह और गुरुजनों के रुधिर से सने साम्राज्य से मैं भिक्षान्न ही श्रेष्ठ मानता हूँ, इसलिये मैं युद्ध नहीं करूँगा, अर्जुन के इस संशय का छेदन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं |

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः || (१८/४८)

सहजम् कर्म कौन्तेय स दोषम् न त्यजेत् |
सर्व आरम्भाः हि दोषेण धूमेन अग्निः इव आवृताः || (१८/४८)

सहजम् (स्वभाव जन्य), कर्म (कर्म), कौन्तेय (कौन्तेय), (सहित), दोषम् (दोष के),(न), त्यजेत् (त्यागना चाहिए) | सर्व (समस्त), आरम्भाः (आरम्भ), हि (क्योंकी), दोषेण (दोष से), धूमेन (धुँआ), अग्निः (अग्नि को), इव (सदृश्य), आवृताः (युक्त है)  | (१८/४८)

कौन्तेय ! स्वभावजन्य कर्म दोषयुक्त होने पर भी नहीं त्यागने चाहिये, क्योंकी समस्त कर्म धुंए से अग्नि की भाँति दोष युक्त हैं | (१८/४८)

कौन्तेय ! स्वभावजन्य कर्म, अर्जुन के संदर्भ में पितामह और गुरुजनों आदि की हत्या, दोषयुक्त होने पर भी त्यागने नहीं चाहिये, अपितु इन्हें तो करना ही चाहिये क्योंकी जीवन निर्वाह को समस्त कर्म दोषयुक्त हैं, धुंए से अग्नि जिस प्रकार सहज नहीं हो पाती, जीवन निर्वाह को कोई भी कर्म सहज नहीं है, दोष से मुक्त नहीं है | अर्जुन की इसी दुविधा को स्पष्ट करने हेतु, अर्जुन के निवेदन ‘शाधि माम्’ के अनुसार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को परम अर्थ की प्राप्ति हेतु, परमार्थ हेतु समस्त ज्ञान कह दिया, गीता शास्त्र कह दिया, कृष्णयोग कह दिया | सांख्यदर्शन के अनुसार कहे गीता शास्त्र के इस भाग में योगेश्वर श्रीकृष्ण सांख्य दृष्टि से अव्यक्त,अक्षय ब्रह्म की प्राप्ति का चित्रण करते हैं |   

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः |
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति || (१८/४९)
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे |
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा || (१८/५०)

असक्त बुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगत स्पृहः |
नैष्कर्म्य सिद्धिम् परमाम् सन्न्यासेन अधिगच्छति || (१८/४९)
सिद्धिम् प्राप्तः यथा ब्रह्म तथा आप्नोति निबोध मे |
समासेन एव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा || (१८/५०)

असक्त (आसक्तिरहित), बुद्धिः (बुद्धि), सर्वत्र (सर्वत्र), जितात्मा (स्वयं को जीता हुआ), विगत (रहित), स्पृहः (स्पृहा) | नैष्कर्म्य (नैष्कर्म्य), सिद्धिम् (सिद्धि को), परमाम् (परम), सन्न्यासेन (सन्न्यास द्वारा), अधिगच्छति(प्राप्त होता है) | (१८/४९)
सिद्धिम्(सीधी को), प्राप्तः(प्राप्त करके), यथा(जैसे), ब्रह्म(ब्रह्म), तथा(वैसे), आप्नोति(प्राप्त होता है), निबोध(जान), मे(मुझसे) | समासेन (संक्षेप में), एव (ही), कौन्तेय (कौन्तेय), निष्ठा (निष्ठा), ज्ञानस्य (ज्ञान की), या (जो), परा (परा) | (१८/५०)

सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धि, जितात्मा, स्पृहा रहित सन्न्यास द्वारा परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है | (१८/४९)
सिद्धि को प्राप्त करके, कौन्तेय ! जैसे ब्रह्म को प्राप्त करता है, जो ज्ञान की परानिष्ठा है, वह मुझसे संक्षेप में ही सुन |

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जहाँ कृष्णयोग की व्याख्या करते हुए, आत्मवान होने पर, एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पण पर, योग के संसिद्ध काल में हृदयदेश में ही आत्मज्ञान की प्राप्ति को कहा है, वहीं सांख्यदर्शन के अनुसार, ज्ञान मार्ग के अनुसार परमार्थ मार्ग में प्रवृत हुए साधक के लिये कहते हैं कि ‘सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धि’ तात्पर्य यह कि सांख्य के अनुसार एक सगुण साकार परमात्मा के परायण होकर नहीं, अपितु ज्ञान के द्वारा, बुद्धि के द्वारा स्वयं के सामर्थ्य से इस मार्ग का अनुसरण किया जाता है, यहाँ सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धि द्वारा अर्थात् कामनाओं और आसक्ति का सर्वथा त्याग करके, जितात्मा अर्थात् प्रकृतिजन्य ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ भाव से उत्पन्न कर्ताभाव से स्वाध्याय द्वारा स्वयं के स्वरूप को जानकर, स्वयं ही, स्वयं से स्वयं को जीतकर, स्पृहारहित संन्यास द्वारा अर्थात् सर्वस्य के न्यास द्वारा, समस्त भोग सामग्री के त्याग के द्वारा, नैष्कर्म्य सिद्धि को अर्थात् उस अवस्था को प्राप्त किया जाता है, जहाँ उसके समस्त कर्मों में कामनाओं और आसक्ति का त्याग होकर साधक के कर्म नैष्कर्म्य हो जाते हैं, वह कोई कर्मफल उत्पन्न नहीं कर पाते |

इस सिद्धि को, इस अवस्था को प्राप्त करके, जिस प्रकार सांख्य का साधक ब्रह्म को प्राप्त करता है, जो ज्ञान की निष्ठा है, ज्ञान की पराकाष्ठा है, परानिष्ठा है, उसको प्राप्त होता है और सांख्य के अनुसार वह परमतत्त्व परमात्मा सदैव अव्यक्त, अचिन्त्य, अविनाशी, अनादि अक्षय परं ब्रह्म है | सांख्य का साधक ब्रह्म को किस प्रकार प्राप्त करता है, उसको संक्षेप में योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहने की प्रस्तावना करते हैं, यहाँ ध्यान देने योग्य यह है कि योग को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बहुत ही विस्तार से कहा है, सांख्य की दृष्टि से भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बहुत से तथ्यों पर प्रकाश डाला है, परन्तु सांख्यदर्शन को कहते हुए यह अवश्य कहा है कि ‘निबोध मे समासेन’ मुझसे संक्षेप में सुन | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ऐसा ही पूर्व में भी अध्याय तेरह में क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ के विषय में उपदेश देते हुए कहा है कि ‘तत् समासेन मे श्रृणु’ (१३/३) वह संक्षेप में मुझसे सुन | इन कारणों पर भी हम अध्याय तेरह में मनन कर आये हैं फिर भी पुनः संक्षेप में उन कारणों को यहाँ एक बार पुनः मनन करते हैं कि योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्णयोग परायण योगी के प्रति इस सांख्यदर्शन रूपी ज्ञान को, संक्षेप में उतना ही कहते हैं जितना उस योगी को इस कृष्णयोग रूपी साधना को आत्मसात करने को आवश्यक है, उतना ही इस सांख्यदर्शन रूपी ज्ञान का समावेश योगेश्वर श्रीकृष्ण ने  तत्त्वज्ञान और अध्यात्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक गीताशास्त्र में किया है | इससे स्पष्ट है कि गीता शास्त्र ज्ञान, भक्ति, योग, अथवा ध्यान विषयक शास्त्र नहीं है, अपितु एक सम्पूर्ण निवृति विषयक शास्त्र है |        

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च |
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च || (१८/५१)
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः |
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः || (१८/५२)

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तः धृत्या आत्मानम् नियम्य च |
शब्दादीन् विषयान् त्यक्त्वा राग द्वेषौ व्युदस्य च | (१८/५१)
विविक्त सेवी लघु आशी यत् वाक् काय मानसः |
ध्यान योग परः नित्यम् वैराग्यम् समुपाश्रितः || (१८/५२)

बुद्ध्या (बुद्धि से), विशुद्धया (विशुद्ध), युक्तः (युक्त), धृत्या (धारणा से), आत्मानम् (स्वयं को), नियम्य (संयमित करके), (और) | शब्दादीन् (शब्द आदि), विषयान् (विषयों को), त्यक्त्वा (त्यागकर), राग (राग), द्वेषौ (द्वेष को), व्युदस्य (अभाव करके), (और) | (१८/५१)
विविक्त (एकान्त), सेवी (सेवी), लघु (हल्का), आशी (भोजन), यत् (वश में), वाक् (वाणी), काय (काया), मानसः (मन को) | ध्यान(ध्यान), योग(योग), परः(परायण), नित्यम्(नित्य), वैराग्यम्(वैराग्याका), समुपाश्रितः(आश्रय लेकर) | (१८/५२)

विशुद्ध बुद्धि से युक्त धारणा द्वारा स्वयं को नियमित करके और शब्दादि विषयों को त्यागकर और रागद्वेष का अभाव करके | (१८/५१)
एकान्त सेवी, हल्का भोजन, वाणी, काया, मन को वश में करके, वैराग्य के आश्रित नित्य ध्यानयोग परायण | (१८/५२)

‘विशुद्ध बुद्धि से युक्त धारणा द्वारा’ तात्पर्य यह कि सांख्य के साधक का मुलभुत आधार ज्ञान है, उसकी समस्त धारणा ज्ञान पर आधारित है, ज्ञान से ओतप्रोत धारणा द्वारा ही वह स्वयं को नियमित करके अर्थात् मन, कर्म और वचनों से स्वयं को नियमित करके, स्वयं के मन, वचन और कर्म का निग्रह करके, शब्दादि विषयों का त्याग करके अर्थात् इन्द्रियों के सांसारिक विषयों का त्याग करके, रागद्वेष का अभाव करके अर्थात् सुख दुःख आदि द्वन्द्वो से परे होकर, एकान्तसेवी अर्थात् उस देश का, उस स्थान का आश्रय लेकर जो उसे अपने को भी विस्मरण करने में सहायक हो तथा हल्का भोजन अर्थात् उतना ही भोजन, जितना साधना हेतु शरीर को आवश्यक है, मन, कर्म और वचन से वैराग्य के आश्रित होकर नित्य ध्यान योग परायण होता है, प्राणायाम परायण होता है, उस अव्यक्त, अविनाशी परं अक्षय ब्रह्म का ध्यान करता है |    

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् |
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते || (१८/५३)

अहङ्कारम् बलम् दर्पम् कामम् क्रोधम् परिग्रहम् |
विमुच्यः निर्ममः शान्तः ब्रह्म भूयाय कल्पते || (१८/५३)

अहङ्कारम्(अहंकार को), बलम्(बल को), दर्पम्(दर्प को), कामम् (काम को), क्रोधम् (क्रोध को), परिग्रहम् (भोग संग्रह को) | विमुच्यः(त्यागकरके), निर्ममः(ममतारहित), शान्तः(शान्त), ब्रह्म भूयाय(ब्रह्ममय होने का), कल्पते(पात्र होताहै) | (१८/५३)

अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध, भोग संग्रह का त्याग करके, ममतारहित, शान्त ब्रह्ममय होने का पात्र होता है |  

अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध, भोग संग्रह का त्याग करके, ममतारहित, शान्त ब्रह्ममय होने का पात्र होता है, तात्पर्य स्पष्ट है कि सांख्य का साधक किसी सगुण साकार हृदयस्थ ईष्ट के परायण ना होकर, सांख्य के अनुसार, देह देही के भेद के अनुसार, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के भेद के अनुसार, क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम के भेद के अनुसार, प्रकृतिजन्य सत, रज और तम भावों और उनके कार्य रूप गुणों के भेद के अनुसार, उस अव्यक्त, अविनाशी परं अक्षय शान्त ब्रह्म का नित्य निरन्तर ध्यान करते हुए, ब्रह्ममय होने का पात्र हो जाता है | 

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति |
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् || (१८/५४)

ब्रह्म भूतः प्रसन्न आत्मा न शोचति न काङ्क्षति |
समः सर्वेषु भूतेषु मत् भक्तिम् पराम् || (१८/५४)

ब्रह्म(ब्रह्म), भूतः(मय), प्रसन्न(प्रसन्न), आत्मा(पुरुष), (न), शोचति(शोक करता है), (न), काङ्क्षति(आकांक्षा ही) | समः(सम), सर्वेषु(समस्त), भूतेषु(प्राणियों में), मत्(मेरी), भक्तिम्(भक्ति), लभते(प्राप्त करता है), पराम्(परा) | (१८/५४)

ब्रह्ममय, प्रसन्न पुरुष न शोक करता है, न आकांक्षा ही, समस्त प्राणियों में सम, मेरी ‘पराभक्ति’ प्राप्त करता है |  

इस प्रकार ब्रह्ममय हुआ वह प्रसन्न पुरुष न शोक करता है,न आकांक्षा ही करता है, और इस कारण समस्त प्राणियों में समभाव से स्थित मेरी पराभक्ति को प्राप्त करता है | क्योंकी योग परायण साधक हेतु भी सगुण साकार परमात्मा भी देह रूप से नहीं अपितु हृदयस्थ ईष्ट के रूप में अपनी भक्ति प्रदान करता है और परमात्मा समस्त प्राणियों में समभाव से स्थित है, इसलिये अव्यक्त परं ब्रह्म की साधना में लीन, सांख्य के साधक को भी भक्तिभाव वह परमात्मा ही प्रदान करता है, परन्तु यहाँ कोई सगुण साकार परमात्मा ना होनेके कारण, अव्यक्त ब्रह्म के प्रति सांख्य के साधक की भक्ति को योगेश्वर श्रीकृष्ण पराभक्ति कहते हैं अर्थात् जो सबसे परे है, अव्यक्त है, उस ब्रह्म की भक्ति को पराभक्ति कहते हैं परन्तु यह पराभक्ति भी उन्हें वही परमात्मा प्रदान करता है, जो योग के साधक को भक्ति प्रदान करता है, इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि वो मेरी पराभक्ति को प्राप्त करता है |  

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः |
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् || (१८/५५)

भक्त्या माम् अभिजानाति यावान् यः च अस्मि तत्त्वतः |
ततः माम् तत्त्वतः ज्ञात्वा विशते तत् अनन्तरम् || (१८/५५)

भक्त्या (भक्ति से), माम् (मुझको), अभिजानाति (जान लेता है), यावान् (जैसा), यः (जो), (और), अस्मि (हूँ), तत्त्वतः (तत्त्वरूप से) | ततः (तत्पश्चात्), माम् (मुझको), तत्त्वतः (तत्त्व से), ज्ञात्वा (ज्ञात करके), विशते (प्रवेश करता है), तत् (उसके), अनन्तरम् (बाद) | (१८/५५)

उस (परा) भक्ति से मुझको तत्त्वतः जान लेता है, मैं जो हूँ, जैसा हूँ, तत्पश्चात् मुझको तत्त्व से ज्ञात करके तत्काल मुझमें प्रवेश कर जाता है | (१८/५५)

उस परा भक्ति से मुझको तत्त्वतः जान लेता है कि मैं जो हूँ, जैसा हूँ, तात्पर्य यह कि सांख्य के अनुसार, ‘अध्यात्म विद्या’ और ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’ के अनुसार वह वह मुझको तत्त्व से जान लेता है  और उस पराभक्ति से मुझको तत्त्व से जान कर तत्काल ही मुझमें प्रवेश कर जाता है अर्थात् वह स्वयं भी जिस भाव से सदा भावित रहा है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में भी कहा है कि ‘सदा तत् भाव भावितः’ मनुष्य जिस भाव से सदा भावित रहता है, उसी भाव को प्राप्त हो जाता है, इसी तत्त्वज्ञान के अनुसार सांख्य का साधक ब्रह्म भाव को, ‘अहं ब्रह्मास्मि’ भाव को प्राप्त हो जाता है |

सांख्य और योग निष्ठा का यह भेद अन्त तक बना रहता है, निर्वाण से पूर्व, परमगति से पूर्व, परमतत्त्व की प्राप्ति से पूर्व सांख्य का साधक ‘सोहम्’ भाव को, पराभक्ति को प्राप्त होता है और योग का साधक एकाभक्ति, अनन्यभक्ति को प्राप्त होता है, परिणाम में दोनों एक ही हैं, जिसके लिये योग के साधकों के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में कहा है कि ‘पार्थ ! जिसके अंतर्गत समस्त शरीरधारी हैं, जिस अव्यक्त से यह सब कुछ व्याप्त है, परन्तु वह परमपुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है | (८/२२) अनन्य भक्ति अर्थात् एक हृदयस्थ सगुण साकार परमात्मा के प्रति अनन्य भाव से समर्पण और मेरे अनुभव में यही योगेश्वर श्रीकृष्ण का निश्चित किया हुआ मत भी है, इसलिये सांख्यदर्शन के अनुसार परं ब्रह्म की प्राप्ति का चित्रण करके, योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः अर्जुन को जो उपदेश देते हैं, उससे स्पष्ट है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार योग का मार्ग, सांख्य के मार्ग से सुगम और सरल है | इस भाव को एक अन्य संदर्भ में भी योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में कह आये हैं कि ‘उन अव्यक्त ब्रह्म में आसक्त चित्तवालों को कष्ट विशेष है क्योंकी अव्यक्त विषयक गति देहाभिमान द्वारा दुःखद प्राप्त होती है | (१२/५) स्पष्ट है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को योग परायण होने का उपदेश देने जा रहे हैं |
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः |
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् || (१८/५६)
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः |
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव || (१८/५७)

सर्व कर्माणि अपि सदा कुर्वाणः मत् व्यपाश्रयः |
मत् प्रसादात् अवाप्नोति शाश्वतम् पदम् अव्ययम् || (१८/५६)
चेतसा सर्व कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत् परः |
बुद्धि योगम् उपाश्रित्य मत् चित्तः सततम् भव || (१८/५७)

सर्व(समस्त), कर्माणि(कर्म), अपि (भी), सदा (सदा), कुर्वाणः (करता हुआ), मत् (मेरे), व्यपाश्रयः (आश्रय हुआ) | मत् (मेरे), प्रसादात्(कृपया प्रसाद से), अवाप्नोति(प्राप्त करता है), शाश्वतम्(शाश्वत), पदम्(पद को), अव्ययम्(अविनाशी) | (१८/५६)
चेतसा (चित्त से), सर्व (समस्त), कर्माणि (कर्म), मयि (मुझमें), सन्न्यस्य (अर्पण कर), मत्(मेरे), परः(परायण) | बुद्धि (बुद्धि), योगम् (योग का), उपाश्रित्य (आश्रय लेकर), मत् चित्तः (मुझमें समाहित चित्तवाला), सततम् (नित्य), भव (हो) | (१८/५७)

मेरे आश्रय हुआ, समस्त कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरे कृपया प्रसाद से अविनाशी, शाश्वत पद को प्राप्त करता है | (१८/५६)
चित्त से समस्त कर्मों को मुझे अर्पण करके, मेरे परायण होकर, बुद्धियोग का आश्रय लेकर, नित्य मुझमें समाहित चित्तवाला हो | (१८/५७)

‘मेरे आश्रय हुआ’, मैं कौन ? वही एक परमतत्त्व परमात्मा जो पिण्ड रूप में, स्थूल रूप से नहीं जन्मता अपितु जो अव्यक्त, अचिन्त्य, परं अक्षय ब्रह्म ही है, परन्तु तत्त्ववित् महापुरुषों के, सद्गुरु के हृदय से जो सम्भव होता है, स्थितप्रज्ञ महापुरुषों में जिसका उद्भव होता है, योगेश्वर में जिसका वास है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘एषा ब्राह्मी स्थित्तिः’ (२/७२) यह ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति है, उन तत्त्ववित् महापुरुषों, सद्गुरुओं, स्थितप्रज्ञों की देह ही, योगेश्वर श्रीकृष्ण का सगुण साकार रूप ही मैं हूँ और मैं ही समस्त जगत का आधार और आश्रय हूँ, अतः मेरे आश्रय हुआ, समस्त कर्मों को सदा करता हुआ भी तात्पर्य यह कि  कृष्णयोग में भी साधना हेतु एकान्त आवश्यक है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘योगी अकेला ही एकान्त में स्थित होकर स्वयं को निरन्तर योग में लगाये | (६/१०) परन्तु यहाँ संन्यास मार्ग की भाँति ‘एकान्त सेवन’ अर्थात् नित्य निरन्तर एकान्त का होना आवश्यक नहीं है, कृष्णयोग परायण साधक समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर, अपने वर्ण के, वर्ग के अनुसार जीवन निर्वाह को आवश्यक कर्मों का आचरण करते रहते हैं और ऐसा होते हुए भी, गृहस्थ आदि समस्त कर्मों को करते हुए भी, मेरे कृपया प्रसाद से अविनाशी, शाश्वत पद को प्राप्त करता है | इस परमपद की प्राप्ति को कृष्णयोग परायण साधक किस प्रकार प्राप्त करता है, उस पर पुनः प्रकाश डालते हुए कहते हैं |

चित्त से समस्त कर्मों को मुझे अर्पण करके, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण का अर्जुन को निर्देश है कि ‘जो करता है, जो खाता है, जो यज्ञरूप कर्म करता है, जो दान देता है, जो तप करता है कौन्तेय ! वह मेरे को अर्पण कर | (९/२७) इस प्रकार शुभ अशुभ फलरूप कर्म बंधन से मुक्त होकर, ‘संन्यास’, ‘योग’ युक्त विमुक्त आत्मा होकर, मुझको प्राप्त करोगे | (९/२८) तथा मेरे परायण होकर अर्थात् एक मुझ सगुण साकार रूप को हृदयस्थ ईष्ट के रूप में स्थापित करके, बुद्धियोग का आश्रय लेकर तात्पर्य यह कि समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करते हुए, इसीबुद्धि से युक्त होकर यज्ञार्थ कर्मों के आचरण द्वारा नित्य मुझमें समाहित चित्तवाला हो, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार इस प्रकार की रहनी से कृष्णयोग परायण साधक परमतत्त्व को विदित कर लेता है | 

मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि || (१८/५८)
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे |
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति || (१८/५९)

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् || (१८/६०)

मत् चित्तः सर्व दुर्गाणि मत् प्रसादात् तरिष्यसि |
अथ चेत् त्वम् अहङ्कारात् न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि || (१८/५८)
यत् अहङ्कारम् आश्रित्य न योत्स्ये इति मन्यसे |
मिथ्या एषः व्यवसायः ते प्रकृतिः त्वाम् नियोक्ष्यति || (१८/५९)
स्वभाव जेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |
कर्तुम् न इच्छसि यत् मोहात् करिष्यसि अवशः अपि तत् || (१८/६०)

मत् चित्तः (मुझमें समाहित चित्तवाला), सर्व (समस्त), दुर्गाणि (बाधाओं को), मत् (मेरे), प्रसादात् (प्रसाद से), तरिष्यसि (तर जायेगा) | अथ (लेकिन), चेत् (यदि), त्वम् (तू), अहङ्कारात् (अहंकारवश), (न), श्रोष्यसि (सुनेगा), विनङ्क्ष्यसि (विनाश को प्राप्त होगा) | (१८/५८)
यत् (जो), अहङ्कारम् (अहंकार के), आश्रित्य (आश्रित होकर), (न), योत्स्ये (युद्ध करूँगा), इत (ऐसा), मन्यसे (मान रहा है) | मिथ्या (मिथ्या), एषः (यह), व्यवसायः (निश्चय), ते (तेरा), प्रकृतिः (प्रकृति), त्वाम् (तुझको), नियोक्ष्यति (नियुक्त कर देगी) | (१८/५९)
स्वभाव (स्वभाव), जेन (जन्य), कौन्तेय (कौन्तेय), निबद्धः (भलीभाँति बँधाहुआ), स्वेन (अपने), कर्मणा (कर्मों से) | कर्तुम् (करना), (न), इच्छसि (चाहता), यत् (जो), मोहात् (मोहवश), करिष्यसि (करेगा), अवशः (परवश हुआ), अपि (भी), तत् वह) | (१८/६०)

मुझमें समाहित चित्तवाला मेरे प्रसाद से समस्त बाधाओं को तर जायेगा लेकिन यदि तू अहंकारवश नहीं सुनेगा, विनाश को प्राप्त होगा | (१८/५८)
अहंकार का आश्रय लेकर जो ऐसा मान रहा है (कि) मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या है, स्वभाव तुझको नियुक्त कर देगा | (१८/५९)
कौन्तेय ! जो मोहवश करना नहीं चाहता, अपने स्वभावजन्य कर्मों से बँधा वह परवश हुआ भी करेगा | (१८/६०)

मुझमें समाहित चित्तवाला मेरे प्रसाद से समस्त बाधाओं को तर जाएगा, तात्पर्य यह कि अर्जुन को तो दिशा निर्देश देने को योगेश्वर श्रीकृष्ण सारथि रूप में स्वयं ही उपस्थित हैं परन्तु भविष्य में भी उनमें समाहित चित्तवाले उनके कृपया प्रसाद से अर्थात् हृदय में सारथि रूप से स्थित हृदयस्थ ईष्ट के दिशा निर्देश से समस्त बाधाओं को, जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु ही नहीं अपितु जीवन निर्वाह की भी समस्त बाधाओं को तर जाएगा, यहाँ इस श्लोक का भावार्थ करते हुए मेरा यह कहना कि जीवन निर्वाह की भी समस्त बाधाओं को तर जाएगा, योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस व्यक्तव्य पर आधारित है कि उन्होंने अर्जुन को यह कह कर आश्वस्त किया है कि ‘जय-पराजय में, लाभ-हानि में और सुख-दुःख में मन एवं बुद्धि को सम करके, उसके बाद युद्ध में लग जा, इस प्रकार पाप को प्राप्त नहीं होगा’ (२/३८) तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण के प्रसाद से, समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह की भी समस्त बाधाओं को तर जाएगा |

लेकिन यदि तू अहंकारवश नहीं सुनेगा तो विनाश को प्राप्त होगा, विनाश अर्थात् अर्जुन का कोई अहित तो नहीं होगा परन्तु जैसा अर्जुन कह रहा था कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ इस युद्ध से अच्छा है कि मैं भिक्षान्न द्वारा जीवन निर्वाह करूँगा, यहाँ अहंकारवश अर्जुन का युद्ध से पलायन और भिक्षान्न की याचना, स्वभाव से उत्पन्न कर्म से पलायन है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘अच्छी तरह अनुष्ठान किये दुसरे के धर्म से गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है, स्वभाव से निर्धारित कर्मों को करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता | (१८/४७) केवल इतना ही नहीं अपितु ‘भलीभाँति अनुष्ठान करे दुसरे के धर्म से गुणरहित स्वयं का धर्म अधिक श्रेष्ठ है, अपने धर्म में मरना भी श्रेयस्कर है, दुसरे का धर्म भय देनेवाला है | (३/३५) इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि यदि तू अहंकारवश नहीं सुनेगा तो विनाश को प्राप्त होगा, विनाश अर्थात् बंधन को ही प्राप्त होगा, तेरा उर्ध्वमुखी उत्थान नहीं होगा, मुक्ति को नहीं प्राप्त होगा | इसी को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं |
अहंकार का आश्रय लेकर जो ऐसा मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या है, स्वभाव तुझको नियुक्त कर देगा, क्योंकी अर्जुन जो मोहवश करना नहीं चाहता, अपने स्वभावजन्य कर्मों से बँधा वह परवश हुआ भी करेगा क्योंकी अर्जुन क्षत्रिय है और युद्ध से ना भागना भी स्वभाव से उत्पन्न क्षत्रिय कर्म हैं अतः यह क्षत्रिय स्वभाव ही बरबस अर्जुन को युद्ध में प्रवृत कर ही देगा |

इस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को समभाव, समबुद्धि से जीवन करते हुए, हृदयस्थ ईष्ट की शरण में जाने को कहते हैं | 

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति |
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया || (१८/६१)
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् || (१८/६२)

ईश्वरः सर्व भूतानाम् हृत् देशे अर्जुन तिष्ठति |
भ्रामयन् सर्व भूतानि यन्त्र आरूढानि मायया || (१८/६१)
तम् एव शरणम् गच्छ सर्व भावेन भारत |
तत् प्रसादात् पराम् शान्तिम् स्थानम् प्राप्यसि शाश्वतम् || (१८/६२)

ईश्वरः (ईश्वर), सर्व (समस्त), भूतानाम् (प्राणियोंके), हृत् (हृदय), देशे (देश में), अर्जुन (अर्जुन), तिष्ठति (बैठा है) | भ्रामयन् (भ्रमवश), सर्व (समस्त), भूतानि (प्राणी), यन्त्र (यंत्र), आरूढानि (आरूढ़ होकर), मायया (माया के) | (१८/६१)
तम् (उसकी), एव (ही), शरणम् (शरण में), गच्छ (जा), सर्व (समस्त), भावेन (भावों से), भारत (भारत) | तत् (उसके), प्रसादात् (प्रसाद से), पराम्(परम), शान्तिम्(शान्ति), स्थानम्(स्थान), प्राप्यसि(प्राप्त करेगा), शाश्वतम्(शाश्वत) | (१८/६२)

अर्जुन ! ईश्वर समस्त प्राणियों के हृदय में रहता है, माया के यंत्र पर आरुड़ समस्त प्राणी भ्रमण करतेहैं | (१८/६१)  भारत ! सर्वभावेन उसकी ही शरण जा,उसके प्रसाद से परमशान्ति, शाश्वत स्थान को प्राप्त करेगा | (१८/६२)

योगेश्वर श्रीकृष्ण एक बार पुनः अप्रत्यक्ष रूप से दैवीमाया और योगमाया अथवा कहें कि आत्ममाया के भेद को यहाँ स्पष्ट करते हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि ईश्वर समस्त प्राणियों के हृदय में रहता है, यह आत्ममाया है, योगमाया है परन्तु दैवीमाया के यंत्र पर आरूढ़ अर्थात् इस क्षेत्र के विकारों और प्रभावों को, इस क्षेत्र के ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ भाव से उत्पन्न कर्ताभाव रूपी यंत्र पर आरूढ़ होकर, दैवीमाया से मोहित होकर, दैवीमाया के देवी देवताओं के आश्रित होकर समस्त प्राणी भ्रमण करते हैं, स्वर्गादिक भोगों को प्राप्त होते है, आवागमन को प्राप्त होते हैं | इसलिये अर्जुन तू ‘सर्वभावेन’ समस्त भावों के साथ उसकी ही शरण में जा, एक हृदयस्थ ईष्ट की शरण में जा, आत्ममाया की, योगमाया की शरण में जा, उसके प्रसाद से परमशान्ति को, शाश्वत स्थान को प्राप्त करेगा |    

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया |
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु || (१८/६३)

इति ते ज्ञानम् आख्यातम् गुह्यात् गुह्यतरम् मया |
विमृश्य एतत् अशेषेण यथा इच्छसि तथा कुरु || (१८/६३)

इति ((इस प्रकार), ते (तुझको), ज्ञानम् (ज्ञान), आख्यातम् (कहा गया), गुह्यात् (गोपनीय से), गुह्यतरम् (गोपनीय), मया (मेरे द्वारा) | विमृश्य (मनन करके), एतत् (इसको), अशेषेण (निःशेषरूप से), यथा (जैसी), इच्छसि (इच्छा हो), तथा (वैसा), कुरु (कर) | (१८/६३)

इस प्रकार यह गोपनीय से गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कहा, इसको निःशेषरूप से मनन करके, जैसी इच्छा हो, वैसा
कर | (१८/६३)
इस प्रकार यह गोपनीय से गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कहा, कौन सा गोपनीय ज्ञान ? यह गोपनीय ज्ञान कि सांख्य दृष्टि से परमार्थ मार्ग की साधना, अव्यक्त की साधना, स्वाध्याय से, स्वयं के सामर्थ्य से करनी होगी और कृष्णयोग परायण साधक का पूर्ति पर्यन्त दिशा निर्देश हृदयस्थ ईष्ट करता है और उस ईष्ट के कृपया प्रसाद से साधक सहज और सरल रूप से शाश्वत, अविनाशी पद को पा जाता है, यही योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में भी कहा है कि ‘‘पार्थ ! जिसके अंतर्गत समस्त शरीरधारी हैं, जिस अव्यक्त से यह सब कुछ व्याप्त है, परन्तु वह परमपुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है | (८/२२) अनन्य भक्ति अर्थात् एक हृदयस्थ सगुण साकार परमात्मा के प्रति अनन्य भाव से समर्पण | केवल इतना ही नहीं अपितु ‘उन अव्यक्त ब्रह्म में आसक्त चित्तवालों को कष्ट विशेष है क्योंकी अव्यक्त विषयक गति देहाभिमान द्वारा दुःखद प्राप्त होती है | (१२/५) इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि सर्वभावेन उसकी ही शरण जा, उसके प्रसाद से परमशान्ति, शाश्वत स्थान को प्राप्त करेगा | इस रहस्य को ही योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह गोपनीय से गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कहा | परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण का किसी भी साधना के विपरीत कोई आग्रह भी नहीं है, इसलिये अर्जुन को कहते हैं कि इसको अर्थात् कृष्णयोग को निःशेष रूप से मनन करके, जैसी इच्छा हो, वैसा कर | परन्तु अर्जुन ने योगेश्वर श्रीकृष्ण से यह निवेदन किया था कि ‘यत् श्रेयः स्यात् निश्चितम् ब्रूहि तत् मे शिष्यः ते अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् (२/७) जो भी निश्चित कल्याणकारी हो वह मुझसे कहिये, आपकी शरण में आया मैं आपका शिष्य हूँ, मुझे साधिये | अर्जुन के इसी निवेदन को स्मरण करके योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को पुनः संबोधित करते हुए कहते हैं | कि

सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः |
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् || (१८/६४)

सर्व गुह्यतमम् भूयः श्रृणु मे परमम् वचः |
इष्टः असि मे दृढम् इति ततः वक्ष्यामि ते हितम् || (१८/६४)

सर्व (सबसे), गुह्यतमम् (गोपनीय), भूयः (फिर से), श्रृणु (सुन), मे (मेरे), परमम् (परम), वचः (वचन) | इष्टः (प्रिय), असि (है), मे (मेरा), दृढम् (अत्यन्त), इति (यह), ततः (अतएव), वक्ष्यामि (कह रहा हूँ), ते(तेरे), हितम्(हित के लिये) | (१८/६४)

समस्त गोपनीय से अति गोपनीय मेरे वचन फिर से सुन, तू मेरा अतिशय प्रिय है, इसलिये यह तेरे हित के लिये  कहूँगा | (१८/६४)

योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को कहते हैं कि तू मेरा अतिशय प्रिय है इसलिये समस्त गोपनीय से अति गोपनीय वचन तेरे हित के लिये कहूँगा, परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में ही कहा है, कि ‘मैं समस्त प्राणियों में समभाव से हूँ, ना मेरा अप्रिय है, ना प्रिय परन्तु जो मुझको भक्तिभाव से पूजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ’ (९/२९) तथा ‘पार्थ ! जो मुझको जैसे पूजते हैं, मैं उनको वैसे ही भजता हूँ’ (४/११) तात्पर्य स्पष्ट है कि अन्तर्यामी योगेश्वर श्रीकृष्ण जानते हैं कि वे अर्जुन को अतिशय प्रिय हैं, इसलिये ही कहते हैं कि तू मुझको अतिशय प्रिय है इसलिये समस्त गोपनीय से अति गोपनीय वचन तेरे हित के लिये कहूँगा | अब योगेश्वर श्रीकृष्ण के वह वचन |

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || (१८/६५)
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहंत्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः || (१८/६६)

मत् मनाः भव मत् भक्तः मत् याजी माम् नमस्कुरु |
माम् एव एष्यसि सत्यम् ते प्रतिजाने प्रियः असि मे || (१८/६५)
सर्व धर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज |
अहम् त्वा सर्व पापेभ्यः मोक्षयिष्यामि मा शुचः || (१८/६६)

मत् (मेरे में), मनाः (मनवाला), भव (हो), मत् (मेरा), भक्तः (भक्त हो), मत् (मेरा), याजी (यजम कर), माम् (मुझको), नमस्कुरु (नमन कर) | माम् (मुझको), एव (ही), एष्यसि (प्राप्त करेगा), सत्यम् (सत्य), ते (तेरे लिये), प्रतिजाने (प्रतिज्ञा करता हूँ), प्रियः (प्रिय), असि (है), मे (मेरा) | (१८/६५)
सर्व (सभी), धर्मान् (धर्मों को), परित्यज्य (त्यागकर), माम् एकम् (एक मेरी), शरणम् (शरण), व्रज (आजा) | अहम् (मैं), त्वा (तुझको), सर्व (समस्त), पापेभ्यः (पापों से), मोक्षयिष्यामि (मुक्त कर दूँगा), मा (मत), शुचः (शोककर) | (१८/६६)

मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा यजन कर, मुझको नमन कर, तू मेरा प्रिय है, मुझको ही प्राप्त करेगा, तेरे लिये सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ | (१८/६५)
समस्त धर्मों को त्यागकर, एक मेरी शरण आजा, मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर | (१८/६६)

पूर्व श्लोक की भाँति योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को एक बार पुनः कहते हैं कि तू मेरा प्रिय है, कारण भी स्पष्ट है कि अन्तर्यामी परमात्मा योगेश्वर श्रीकृष्ण जानते हैं कि अर्जुन का ईष्ट, प्रिय, आश्रय और आधार सब कुछ वहीं हैं, परन्तु अर्जुन का मन अपने स्वजनों में, उसकी श्रद्धा अपने पितामह और गुरुजनों में है, वह तथाकथित सनातन धर्म, कुल धर्म के प्रति भी कटिबद्ध है, जिस धर्म के प्रति अर्जुन कहता है कि ‘इति अनुशुश्रुम’ (१/४४) ऐसा हम सुनते आये हैं | अर्जुन के इन भावों के नाश को ही योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन कहते हैं कि मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा यजन कर, मुझको नमन कर, तू मेरा प्रिय है, मुझको ही प्राप्त करेगा, तेरे लिये सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ तथा समस्त धर्मों को त्यागकर, एक मेरी शरण आजा, मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर |

वस्तुतः ‘इति अनुशुश्रुम’ (१/४४) ऐसा हम सुनते आये हैं, इस तथ्य के आधार पर ही अर्जुन सनातन धर्म, कुल धर्म, कुल धर्म के नाश से कुल क्षय को अधर्म आदि मानता था, अन्यथा भी कृष्ण काल में भी प्रवृति विषयक वैदिक धर्म में भी मतमतान्तर रहे होंगे, निवृति विषयक धर्म में भी परस्पर मतमतान्तर रहे होंगे तथा सामाजिक व्यवस्था का भी अपना एक धर्म होता है, पुत्र धर्म, पिता धर्म, राज धर्म, क्षत्रिय धर्म इत्यादि, इन सुने सुनाये धर्मों के चक्रव्यूह के कारण मनुष्य जिस बंधन को प्राप्त होता है, उसका भी वर्णन अर्जुन ने किया था कि ‘कायरता रूप दोष से नष्टप्राय स्वभाव वाला, धर्म के संबंध मे मोहित चित्त हुआ, मैं आपसे पूछता हूँ, कि जो भी निश्चित कल्याणकारी हो वह मुझसे कहिये | आपकी शरण में आया मैं आपका शिष्य हूँ, मुझे साधिये | (२/७) अर्जुन के इसी सुने सुनाये धर्म की व्याख्या और उस धर्म के बंधन के कारण ही योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, कि मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा यजन कर, मुझको नमन कर, तू मेरा प्रिय है, मुझको ही प्राप्त करेगा, तेरे लिये सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, समस्त धर्मों को त्यागकर, एक मेरी शरण आजा, मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर |  

इस प्रकार कायरता रूप दोष से नष्टप्राय स्वभाव वाले और धर्म के संबंध मे मोहित चित्त हुए अर्जुन के निवेदन के अनुसार उसके उत्थान को, कल्याण को गीता शास्त्र रूपी उपदेशों को कहते हुए, अर्जुन से सत्य प्रतिज्ञा भी करते हैं कि उनके उपदेशों का सशब्द पालन करने से वह उसे समस्त पापों से मुक्त कर देंगे | इस प्रकार गीता शास्त्र का समापन होता है, शास्त्र के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण इस शास्त्र के विषय में कहते हैं | कि  

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन |
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसुयति || (१८/६७)

इदम् ते न अपतस्काय न अभक्ताय कदाचन |
न च अशुश्रुषवे वाच्यम् न च माम् यः अभ्यसूयति || (१८/६७)

इदम् (यह), ते (तेरे लिये), (न), अपतस्काय (तप रहित से), (न), अभक्ताय (भक्तिरहित से), कदाचन (कभी भी) | न (न), (और), अशुश्रुषवे (सुनना नहीं चाहे), वाच्यम् (कहना चाहिए), (न), (और), माम् (मुझको), यः (जो), अभ्यसूयति (दोषदृष्टि से देखता हो) | (१८/६७)

तुझे यह कभी भी न तपरहित से, न भक्तिरहित से और न ही नहीं सुननेवाले से और जो मुझको दोषदृष्टि से देखता हो, नहीं कहना चाहिये | (१८/६७)
तात्पर्य यह कि तत्त्वज्ञान और अध्यात्मविद्या एवं योगशास्त्र विषयक गीताशास्त्र अश्रद्धावान, दुष्कृतिनो, आसुरी स्वभाव के मनुष्यों को तो कभी भी कहना ही नहीं चाहिये और केवल इतना ही नहीं, भक्तिरहित, तपरहित और जो ना सुनना चाहे ऐसे अर्थार्थी अथवा आर्त भक्तों को भी नहीं कहना चाहिये, गीताशास्त्र तो केवल तप द्वारा अपने निग्रह में रत जिज्ञासु भक्तों को कहना चाहिए, क्योंकी माया से मोहित विद्याविनय संपन्न ब्राह्मण भी इसमें केवल स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति का साधन ही खोजता रह जाएगा | वैसे तो गीता शास्त्र सर्वोत्तम रूप से जीवन निर्वाह का भी मार्ग है परन्तु विशुद्ध रूप से मुक्ति का, मोक्ष का, निवृति का मार्ग है, इसलिये यह केवल मोक्ष अभिलाषी जिज्ञासु भक्तों से ही कहना चाहिये | 

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः || (१८/६८)
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः |
भविता न च तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि || (१८/६९)

यः इमम् परमम् गुह्यम् मत् भक्तेषु अभिधास्यति |
भक्तिम् मयि पराम् कृत्वा माम् एष्यसि असंशयः || (१८/६८)
न च तस्मात् मनुष्येषु कश्चित् मे प्रिय कृत् तमः |
भविता न च मे तस्मात् अन्यः प्रिय तरः भुवि || (१८/६९)

यः (जो), इमम् (इस), परमम् (परम), गुह्यम् (गोपनीय को), मत् (मेरे), भक्तेषु (भक्तों को), अभिधास्यति (कहेगा) | भक्तिम् (भक्ति), मयि (मेरी), पराम् (परम), कृत्वा (करके), माम् (मुझको), एष्यसि(प्राप्त करेगा), असंशयः(संशयरहित) | (१८/६८)
(न), (और), तस्मात्(उससे), मनुष्येषु(मनुष्यों में), कश्चित्(कोई), मे(मेरा), प्रिय(प्रिय), कृत् तमः(कार्य करनेवाला) | भविता(होगा), (न), (और), मे(मेरा), तस्मात्(उससे), अन्यः(अन्य), प्रिय(प्रिय), तरः(अधिक), भुवि(भूमि में) | (१८/६९)

जो इस परम गोपनीय को मेरे भक्तों को कहेगा, मेरी परम भक्ति करके संशयरहित मुझको प्राप्त करेगा | (१८/६८)
उससे बढ़कर मनुष्यों में मेरा प्रियकार्य करनेवाला कोई और नहीं है और पृथ्वी पर उससे अधिक प्रिय न कोई अन्य होगा | (१८/६९)

जो इस परम गोपनीय ज्ञान को मेरे भक्तों को कहेगा, इसको कह तो वही सकेगा, जो इस तत्त्वज्ञान को, अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र को चरित्रार्थ कर पायेगा, ऐसा महापुरुष निःसंदेह परमात्मा का अनन्य, एकाकी भक्त ही होगा, जिसने परमतत्त्व को विदित कर लिया है, ऐसा तत्त्ववित् संशयरहित पुरुष निश्चय ही परमतत्त्व परमात्मा को ही प्राप्त होगा |

मनुष्यों को ‘पुण्य’ मार्ग पर चलाना नहीं अपितु मनुष्यों को सन्मार्ग पर, परमार्थ मार्ग पर चलाना ही गीताशास्त्र का उद्देश्य है और जो पुरुष इस परं गोपनीय ज्ञान को परमात्मा के भक्तों में कहेगा, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार उससे बढ़कर मनुष्यों में मेरा प्रियकार्य करनेवाला कोई और नहीं है और पृथ्वी पर उससे अधिक प्रिय न कोई अन्य होगा |
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः |
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः || (१८/७०)

अध्येष्यते च यः इमम् धर्म्यम् संवादम् आवयोः |
ज्ञान यज्ञेन तेन अहम् इष्टः स्याम् इति मे मतिः || (१८/७०)

अध्येष्यते (अध्ययन करेगा), (और), यः (जो), इमम् (इस), धर्म्यम्(धर्ममय), संवादम्(संवाद को), आवयोः(हम दोनों के) | ज्ञान (ज्ञान), यज्ञेन(यज्ञ से), तेन (उससे), अहम्(मैं), इष्टः(प्रिय), स्याम्(हूँगा), इति(यह), मे(मेरा), मतिः(मत है) | (१८/७०)

और जो इस हम दोनों के धर्ममय संवाद का अध्ययन करेगा, उससे मैं ज्ञान यज्ञ द्वारा पूजित होउँगा, यह मेरा मत है | (१८/७०)

गीताशास्त्र तत्त्वज्ञान, अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र विषयक शास्त्र है, संसार बंधन से मुक्ति हेतु एक सर्वोपरि शास्त्र है, त्रिविद्या रूपी, त्रिगुन्य विषयक वैदिक ज्ञान से परे, स्वर्गादिक भोगों को प्राप्ति से परे, समस्त जगत के आधार और आश्रय रूप परमात्मा का ज्ञान है, श्रीकृष्ण और अर्जुन के धर्ममय संवाद रूपी ज्ञान है, वही ज्ञान है, अन्यत्र सभी ज्ञान इस लोक के बंधन हैं, इसलिये जो पुरुष इस संवाद का अध्ययन करेगा, उससे परमात्मा ज्ञानयज्ञ द्वारा पूजित मान्य हैं, यह योगेश्वर श्रीकृष्ण का निश्चित किया हुआ उत्तम मत है |

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यः नरः |
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्माणाम् || (१८/७१)

श्रद्धावान् अनसूयः च श्रृणुयात् अपि यः नरः |
सः अपि मुक्तः शुभान् लोकान् प्राप्नुयात् पुण्य कर्मणाम् || (१८/७१)

श्रद्धावान् (श्रद्धावान), अनसूयः (दोषदृष्टि रहित), (और), श्रृणुयात् (सुनता है), अपि (भी), यः (जो), नरः (नर) | सः (वह), अपि (भी), मुक्तः (मुक्त होकर), शुभान् (श्रेष्ठ), लोकान् (लोकों को), प्राप्नुयात् (प्राप्त करेगा), पुण्य (पुण्य), कर्मणाम् (कर्मोंवाले) | (१८/७१)

जो श्रद्धावान और दोष दृष्टि रहित मनुष्य श्रवण भी करेगा, वह भी मुक्त होकर पुण्य कर्मों से प्राप्त श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करेगा | (१८/७१)

जो एक परमात्मा में श्रद्धा रखता है, परमात्मा के प्रति किसी भी प्रकार की दोष दृष्टि से रहित है, वह मनुष्य इस शास्त्र के श्रवण मात्र से, तात्पर्य यह कि सुनकर इस परमार्थ मार्ग पर चल तो नहीं पाया परन्तु सुना श्रद्धापूर्वक और दोषदृष्टि से रहित होकर, वह मनुष्य भी देहान्तर के उपरान्त पुण्य कर्मों से प्राप्त श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करेगा | तात्पर्य यह कि इस शास्त्र के श्रवण मात्र से मनुष्य अवरं कर्मों में प्रवृत होने से मुक्त हो जाता है |

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा |
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय || (१८/७२)

कच्चित् एतत् श्रुतम् पार्थ त्वया एकाग्रेण चेतसा |
कच्चित् अज्ञान सम्मोहः प्रनष्ट ते धनञ्जय || (१८/७२)

कच्चित् (क्या), एतत् (यह), श्रुतम् (सुना गया), पार्थ (पार्थ), त्वया (तेरे द्वारा), एकाग्रेण (एकाग्र), चेतसा (चित्त से) | कच्चित् (क्या), अज्ञान सम्मोहः (अज्ञान जनित मोह), प्रनष्ट (नष्ट हो गया), ते (तेरा), धनञ्जय (धनंजय) | (१८/७२)

पार्थ ! क्या यह तेरे द्वारा एकाग्रचित्त से सुना गया, धनंजय ! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया | (१८/७८)

उपरोक्त श्लोकों में गीताशास्त्र की महिमा को कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन से प्रश्न करते हैं कि क्या यह संवाद तूने एकाग्रचित्त से किया, क्या तेरे निवेदन के अनुसार उत्थान को जो मैंने कहा, वह तूने एकाग्रचित्त से सुना और क्या ज्ञानयज्ञ रूपी इस संवाद को सुनकर तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया ?

अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || (१८/७३)

नष्टः मोहः स्मृतिः लब्धाः त्वत् प्रसादात् मया अच्युत |
स्थितः अस्मि गत सन्देहः करिष्ये वचनम् तव || (१८/७३)

नष्टः (नष्ट हुआ), मोहः (मोह), स्मृतिः (स्मृति), लब्धाः (लाभ हुआ), त्वत् (आपके), प्रसादात् (प्रसाद से), मया (मेरा), अच्युत
(अच्युत) | स्थितः (स्थित), अस्मि (हूँ), गत (चले गये), सन्देहः (सन्देह), करिष्ये(करूँगा), वचनम्(वचनों का), तव(आपके) |
अच्युत ! आपके प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हुआ, स्मृति लाभ हुआ, संशयरहित स्थित हूँ, आपके वचनों का (पालन) करूँगा | (१८/७३)

‘अच्युत’ परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त महापुरुष जो परमभाव को प्राप्त करके कभी भी इस भाव से पुनः विमुख नहीं होते, पुनः सांसारिक कर्मों में कर्ताभाव से प्रवृत नहीं होते, माया जिन्हें दोबारा मोहित नहीं कर पाती, जो सदैव एकरस रहते है, आत्ममाया, योगमाया से कभी भी च्युत नहीं होते, कभी चुकते नहीं, अच्युत कहलाते हैं | अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण को यहाँ अच्युत कहकर संबोधित करता है, तात्पर्य यह कि अच्युत ! जब आप स्वयं ही मेरा मोह भंग करने को प्रस्तुत हुए हैं, तो मेरा मोह भंग किस प्रकार ना होगा, इसलिये कहता है आपके प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया | कौन सा मोह ? वही सांसारिक और शास्त्रीय मोह अर्थात् त्रिविद्या रूपी धर्म, अर्थ और काम का मोह, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूपी दल-दल को भलीभांति पार कर जाएगी, तब सुनने योग्य को सुन सकेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त कर सकेगा’ (२/५२) तथा जिस काल में सुने हुए शास्त्रीय मतभेदों से विचलित तेरी बुद्धि जब निश्चला अर्थात् एकनिष्ठा को प्राप्त हो स्थिर हो जाएगी, तब समाधौ अर्थात् आत्मपरायण हो अचल रूप से योग को प्राप्त हो जाएगा | (२/५३) तात्पर्य यह कि प्रकृतिजन्य भावों से उत्पन्न त्रिविद्या रूपी, त्रिगुन्य विषयक वैदिक ज्ञान से जिस धर्म का उदय होता है, वह धर्म अर्थ और काम से ही भावित होता है, इसके आगे का हाल, भावातीत का, गुणातीत का हाल ऐसा धर्म नहीं जानता, समस्त संसार इस प्रवृतिविषयक ज्ञान से, इस प्रवृतिविषयक धर्म से मोहित है, स्वर्ग को ही सब कुछ मानता है | इस कारण ही आवगमन को, बंधन को प्राप्त है | अर्जुन कहता है कि मेरा मोह नष्ट हो गया, यह अर्जुन ने पूर्व में भी कहा था कि ‘मुझको अनुग्रहित करने के लिये आपके द्वारा जो परम गोपनीय अध्यात्म विषयक उपदेश कहे गये, उनसे मेरा यह मोह चला गया है’ (११/१) परन्तु मेरे अनुभव में ऐसा नहीं हुआ होगा, क्योंकी योगस्थ, परमात्मा तत्त्व में स्थित, योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन के इस व्यक्तव्य के पश्चात् भी अर्जुन को आठ अध्याय और कह डाले और फिर प्रश्न करते हैं कि अर्जुन क्या तेरा मोह चला गया ?

परन्तु इस बार अर्जुन केवल इतना ही नहीं कहता कि मेरा मोह चला गया है, अर्जुन यह भी कहता है कि आपके प्रसाद से मेरा मोह चला गया है, मैं संशयरहित स्थित हूँ और मुझे स्मृति लाभ हुआ है | मुझे स्मृति लाभ हुआ है ? तो क्या अर्जुन विक्षिप्त हो गया था, अपना ‘नाम’ भूल गया था कि योगेश्वर के विराट रूप को देखकर, उनके तत्त्वज्ञान और अध्यात्मविद्या एवं योगशास्त्र विषयक उपदेशों को सुनते ही उसे स्मृति लाभ हो गया ? वस्तुतः यही सत्य है, पूर्ण सत्य है | हम सभी विक्षिप्त अवस्था में स्थित हैं, अपने स्वरूप को विस्मरण किये हुए हैं, दैवीमाया से मोहित हैं, अपनी स्वरूप को विस्मृत किये माया के पाश से पशुवत से बंधे हैं, क्या हमें ज्ञात है कि हम परमात्मा के सनातन अंश है, अरे जिस परमात्मा के हम अंश हैं उस परमात्मा को ही विस्मृत कर दिया है और ना जाने किस किस को परमात्मा मान कर पूजते रहते हैं, तो शेष क्या है, हमें स्मरण क्या है ? योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पूर्व में कहा है कि ‘दैवी संपदा मोक्ष हेतु, आसुरी बंधनकारी मान्य है, पाण्डव ! शोक मतकर, तू दैवी संपदा को प्राप्त हो’ (१६/५) कहने का तात्पर्य यह कि दैवी सम्पदा को प्राप्त मनुष्य ही योगेश्वर श्रीकृष्ण के इन तत्त्वज्ञान और अध्यात्मविद्या एवं योगशास्त्र विषयक उपदेशों को सुनते ही स्मृति लाभ को प्राप्त हो जाता है |

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में यह भी कहा है कि ‘मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य देव से कहा था, सूर्य देव ने मनु से कहा, मनु ने राजा इक्ष्वाकु से कहा’ (४/१) सूर्य अर्थात् इस सृष्टि के आदि देव ने यह शास्त्र मनु से कहा और मनु ने राजा इक्ष्वाकु से कहा, इक्ष्वाकु अर्थात् जिज्ञासु भक्त से कहा, भक्तों में वही राजा है, जिसकी भक्ति परमार्थ हेतु हो, अर्थ और काम हेतु परमात्मा के भक्तों को योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये सब मेरे भक्त तो है, परन्तु कामनाओं और आसक्ति के कारण विनाश को ही प्राप्त होते हैं | यह योग सबसे पूर्व सूर्य देव से अर्थात् मनुष्यों से उर्ध्व योनि को प्राप्त परमात्मा के सनातन अंश ने मनुष्य योनि में सर्वप्रथम मनु को कहा और इस तत्त्वज्ञान और अध्यात्मविद्या एवं योगशास्त्र विषयक उपदेशों को सुनते ही मनु को भी स्मृति लाभ हुआ था, वही मनु स्मृति के नाम से प्रसिद्ध है और यही स्मृति आज अर्जुन को हुई है, जो श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद के नाम से, गीताशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध है | 

इस मोह भंग और स्मृति लाभ से प्राप्ति ? अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण से प्रतिज्ञा करता है कि मैं आपके वचनों का पालन करूँगा, परमार्थ के प्रत्येक साधक को अर्जुन की इस प्रतिज्ञा को अपने स्मृतिपटल पर बनाये रखना चाहिये, क्योंकी परमार्थ का जो मोक्ष परायण साधक योगेश्वर श्रीकृष्ण के इन तत्त्वज्ञान और अध्यात्मविद्या एवं योगशास्त्र विषयक उपदेशों को आत्मसात कर पायेगा, वह हृदयस्थ ईष्ट से यही प्रतिज्ञा करेगा कि मैं आपके वचनों का पालन करूँगा | 

इस प्रकार गीताशास्त्र में श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद का समापन होता है |       

संजय उवाच

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः |
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् || (१८/७४)
व्यासप्रसादाच्छ्रुतमवानेतद्गुह्यमहं परम् |
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् || (१८/७५)

इति अहम् वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः |
संवादम् इमम् अश्रौषम् अद्भुतम् रोम हर्षणम् || (१८/७४)
व्यास प्रसादात् श्रुतवान् एतत् गुह्यम् अहम् परम् |
योगम् योगेश्वरात् कृष्णात् साक्षात् कथयतः स्वयम् || (१८/७५)

इति (इस प्रकार), अहम् (मैं), वासुदेवस्य (वासुदेव की), पार्थस्य (पार्थ की), (और), महात्मनः (महात्मा) | संवादम् (संवाद को), इमम् (इस), अश्रौषम् (सुना), अद्भुतम् (अद्भुत), रोम हर्षणम् (रोमांचक) | (१८/७४)
व्यास (व्यास), प्रसादात् (प्रसाद से), श्रुतवान् (सुना है), एतत् (यह), गुह्यम् (गोपनीय), अहम् (मैं), परम् (परम) | योगम् (योग को), योगेश्वरात् (योगेश्वर), कृष्णात् (कृष्ण से), साक्षात् (साक्षात्), कथयतः (कहते हुए), स्वयम् (स्वयं) | (१८/७५)

इस प्रकार मैंने वासुदेव और महात्मा पार्थ के इस रोमांचक अद्भुत संवाद को सुना | (१८/७४)
व्यास प्रसाद से इस परम गोपनीय योग को मैंने साक्षात् योगेश्वर कृष्ण द्वारा स्वयं कहते हुए सुना | (१८/७५)

इस प्रकार अर्थात् राजा धृतराष्ट्र को संबोधित करते हुए संजय कहता है कि इस प्रकार मैंने वासुदेव और महात्मा पार्थ के इस रोमांचक अद्भुत संवाद को सुना, यहाँ संजय द्वारा अर्जुन को महात्मा कहने से तात्पर्य यह है कि आज अर्जुन को स्मृति प्राप्त हुई है और स्मृति को प्राप्त प्रत्येक पुरुष महात्मा ही कहलाने योग्य है, क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण भी यही सत्य पूर्व में कह आये हैं कि ‘अनेक जन्मों के अन्त में ज्ञानी ‘वासुदेवः सर्वम् ऐसा मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है’ (७/१९) केवल इतना ही नहीं अपितु यदि अत्यंत दुराचारी भी मुझको अनन्य भक्तिभाव से पूजता है, वह साधु ही मानने योग्य है क्योंकी वह सम्यक रूप से निश्चयात्मक हो गया है | (९/३०) तथा ‘वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है, शाश्वत शांति में चला जाता है, कौन्तेय ! यथार्थ जान मेरा भक्त नष्ट नहीं होता | (९/३१)

भगवन् वेद व्यास के प्रसाद से, तात्पर्य यह कि भगवन् वेद व्यास के आशीर्वाद स्वरूप ही संजय को दूर दृष्टि और श्रवण की सिद्धि प्राप्त हुई थी, इसलिये संजय कहता है कि भगवन् वेद व्यास के प्रसाद से इस परं गोपनीय योग को मैंने साक्षात् योगेश्वर कृष्ण द्वारा कहते हुए सुना, योगेश्वर अर्थात् जो स्वयं योग का ईश्वर हो और दूसरों को योग प्रदान करने की क्षमता रखता हो, वही योगेश्वर है |

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् |
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः || (१८/७६)
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः |
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः || (१८/७७)

राजन् संस्मृत्य संवादम् इमम् अद्भुतम् |
केशव अर्जुनयोः पुण्यम् हृष्यामि च मुहुः मुहुः || (१८/७६)
तत् च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपम् अति अद्भुतम् हरेः |
विस्मयः मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः || (१८/७७)

राजन् (राजन), संस्मृत्य संस्मृत्य (पुनः पुनः स्मरण करके), संवादम् (संवाद को), इमम् (इस), अद्भुतम् (अद्भुत) | केशव (केशव), अर्जुनयोः (अर्जुन के), पुण्यम् (कल्याणकारी), हृष्यामि (हर्षित होता हूँ), (और), मुहुः मुहुः(बार बार) | (१८/७६)
तत् (वह), (और), संस्मृत्य संस्मृत्य (पुनः पुनः स्मरण करके), रूपम् (रूप को), अति (अति), अद्भुतम् (अद्भुत), हरेः (हरी के) | विस्मयः (आश्चर्य), मे (मेरा), महान् (महान), राजन् (राजन), हृष्यामि (हर्षित होता हूँ), (और), पुनः पुनः (बार बार) | (१८/७७)

राजन ! केशव अर्जुन के इस अद्भुत और कल्याणकारी संवाद को पुनःपुनः स्मरण करके बारबार हर्षित होरहा हूँ |
और राजन ! हरी के उस अति अद्भुत आश्चर्यमय रूप को पुनःपुनः स्मरण करके मैं बारबार हर्षित होता हूँ | (१८/७७)

तात्पर्य यह कि श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस अद्वितीय कल्याणकारी संवाद को पुनः पुनः स्मरण मनन करना चाहिये, इस संवाद में कहे तत्त्वज्ञान को, अध्यात्मविद्या को अपनी स्मृति में बनाये रखना चाहिये और योगशास्त्र का आचरण कारण चाहिये, इससे चित्त हर्षित होता है, हृदय में प्रसन्नता बनी रहती है |

‘हरी’ अर्थात् जो केवल दुःखो का ही नहीं अपितु स्वर्गादिक भोगों की कामना का, स्वर्ग की आसक्ति का भी हरण करने में सक्षम हो, उसे हरी कहते हैं, यहाँ संजय योगेश्वर श्रीकृष्ण को हरी और पूर्व श्लोक में योगेश्वर से संबोधित करता है, तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण में परमतत्त्व परमात्मा का पूर्ण उद्भव हुआ है, परमतत्त्व परमात्मा श्रीकृष्ण में पूर्ण रूप से स्थित हैं, इसीलिए श्रीकृष्ण को पूर्णावतार कहा जाता है और संजय कहता है कि हरी के उस अति अद्भुत और आश्चर्यमय रूप को पुनः पुनः स्मरण करके मैं बार बार हर्षित होता हूँ, योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी यही अर्जुन को कहा है कि मेरा यह जो अति दुर्लभ,चतुर्भज दर्शन रूप देखा है, देवता भी इस रूप के दर्शन हेतु नित्य अभिलाषी हैं | (११/५२) साधक ध्यान रखे कि परमात्मा के इस चतुर्भज रूप पर हमने आज के अति आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगों के परिणामों से भी मनन किया है | इस प्रकार परमात्मा का पुनः पुनः स्मरण, मन को हर्षित करता है, मन परमात्मा में स्वतः लगता है | अन्त में संजय श्रीकृष्ण और अर्जुन के संबंध में कहता है | कि  

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम || (१८/७८)

यत्र योगेश्वरः कृष्णः यत्र पार्थ धनुः धरः |
तत्र श्री विजयः भूतिः ध्रुवा नीतिः मतिः मम || (१८/७८)

यत्र (जहाँ), योगेश्वरः (योगेश्वर), कृष्णः (कृष्ण), यत्र (जहाँ), पार्थ (पार्थ), धनुः (धनुष), धरः (धारी) | तत्र (वहाँ), श्री (ऐश्वर्य),  विजयः (विजय), भूतिः (ईश्वरीय विभूति), ध्रुवा (अचल), नीतिः (निति), मतिः (मत है), मम (मेरा) | (१८/७८)

जहाँ योगेश्वर कृष्ण, जहाँ धनुषधारी पार्थ, वहाँ श्री, विजय, ईश्वरीय विभूति और अचल निति है, (यह) मेरा मत है | (१८/७८)   

गीता शास्त्र के अन्त में संजय कहता है कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण, जहाँ धनुर्धारी अर्जुन, वहाँ श्री, विजय, ईश्वरीय विभूति और अचल निति है, यह मेरा मत है |

यहाँ तो अर्जुन के साथ श्रीकृष्ण हैं, परन्तु भविष्य में अर्थात् आज कलियुग के इस काल में तथा आने वाले और भी घोर काल में साधकों को कौन तारेगा, साधकों का तारनहार कौन होगा ? इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए संजय कहता है कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण, जहाँ धनुर्धारी अर्जुन, तात्पर्य यह कि जिस हृदय में योग को देने में सक्षम सद्गुरु का स्थान हो, जो उनके दिशा निर्देश के अनुसार समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करता हुआ और इसी बुद्धि से युक्त हुआ तत्त्वज्ञान को, अध्यात्मविद्या को आत्मसात करता हुआ, योग का, यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करता है,  और जो स्वयं दैवी सम्पदा का अर्जन करके आसुरी सम्पदा के नाश को प्रस्तुत हो जाए, वही अर्जुन हैं और ऐसे अर्जुन के हृदय में योगेश्वर श्रीकृष्ण सदैव सारथि रूप में उसका दिशा निर्देश करने को प्रस्तुत रहते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रतिज्ञा रूप से कहा कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता | ध्यान रहे कि प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाला योगी पापों से शुद्ध होकर, अनेक जन्मों में ‘संसिद्धः’ योग की सिद्धि को प्राप्त करके तत्पश्चात् तत्काल ही परमगति को प्राप्त करता है | (६/४५)


इस प्रकार अध्याय अठारह और श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद रूपी गीता शास्त्र का समापन होता है |








***** ॐ तत् सत् *****










संजय शर्मा
२५/१०/२०१४, भैयादूज

आदर्श नगर, देहली