Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

अध्याय ५


** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
पञ्चमोऽध्यायः    
पूर्व अध्यायों में जिस प्रकार हम लोगों ने कृष्णयोग को जाना, कि योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति कहे  उपदेशों में से वे महावाक्य रूपी उपदेश, जो जीवन निर्वाह करते हुए अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता हेतु तथा योग के आचरण स्वरूप परमतत्त्व की प्राप्ति हेतु, एक विधिविशेष का वर्णन करते हैं, वही कृष्णयोग है | पूर्व अध्याय में जैसा निश्चय करा है, उसी के अनुसार योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा पूर्व अध्यायों में अर्जुन के प्रति कही इस कृष्णयोग रूपी विधि विशेष का एक साथ सारभूत रूप से पुनरावृत्ति करने के पश्चात् ही हम इस अध्याय में अध्ययन मनन हेतु प्रवेश करेंगे |

सर्वप्रथम योगेश्वर श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु अधिकारी पुरुष की योग्यताओं का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कौन्तेय ! शीत, उष्ण और सुख, दुःख देनेवाले इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग वियोग तो आनेजाने वाले, अनित्य हैं | भारत उनको सहन करो | (२/१४) इससे लाभ ? तो प्रभु कहते हैं क्योंकी सुख दुःख में समभाव से रहनेवाले जिस धीर पुरुष को यह व्यथित, व्याकुल नहीं करते, वह अमृततत्त्व की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१५) अर्थात् कृष्णयोग को अंगीकार करने का अधिकारी हो जाता है | इस प्रकार समभाव से जीवन निर्वाह करने से, अमृततत्त्व की प्राप्ति का प्रमाण ? इसका प्रमाण देते हुए प्रभु कहते कि इस तथ्य के सत्य और असत्य का प्रमाण, अमृततत्त्व का पान करनेवाले तत्त्वदर्शी महापुरुष स्वयं ही हैं और उन तत्त्वदर्शी महापुरुषों के अनुसार असत्य का तो भाव अर्थात् सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्य का अभाव विद्यमान नहीं है | (२/१६) इस प्रकार सत्य और असत्य तत्त्व को परिभाषित कर, प्रभु स्पष्ट करते हैं कि अविनाशी, सनातन, अप्रमेय, नित्य स्वरूप सत्य तत्त्व तो यह देही है और इस देही की यह देह अन्त को, नाश को प्राप्त होने के कारण असत्य तत्त्व है | (२/१८) इस प्रकार देह-देही के भेद को स्पष्ट करते हुए, परमात्मा श्रीकृष्ण अर्जुन को इस अव्यक्त, अचिन्त्य और निर्विकार देही के गुणधर्म कहते हैं कि यह देही अजन्मा, नित्य, सनातन, पुरातन, अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य स्वरूप है तथा जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों का त्याग करके नवीन वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार यह देही जीर्ण देह का त्याग करके नवीन देह को प्राप्त करता है | (२/१९-२५) और अर्जुन क्योंकी सभी असत्य रूप देहों में यह नित्य, अवध्य देही ही सत्य रूप से स्थित है इसलिये इस असत्य रूपी देह के संबंध भी निश्चित रूप से असत्य ही होते हैं, अतः देह और देह के संबंधो का मोह अथवा शोक नहीं करना चाहिए | (२/३०) इस प्रकार देह-देही के बोध से युक्त, समभाव से जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है | 
                
इसके पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग की अद्वितीयता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु जीवन में स्वधर्म से उपराम होने को, कर्तव्य कर्मों के त्याग को, अर्जुन के संदर्भ में भिक्षान्न की याचना को अर्थात् सांसारिक कारणों से लिये सन्यास को, संसार से पलायन को प्रभु पाप का आचरण कहते हैं | (२/३३) यही इस कृष्णयोग की अद्वितीयता है कि इसे अंगीकार करने को कोई विधिविशेष नहीं है, संसार का त्याग, गृहस्थी का त्याग आवश्यक नहीं है | अपितु श्रीकृष्ण के अनुसार दुसरे के धर्म से, अर्जुन के संदर्भ में भिक्षान्न की याचना से, स्वधर्म में मरण भी कल्याणकारी है, स्वर्ग का खुला द्वार है | (२/३७) इसलिये अर्जुन को कहते हैं कि जय पराजय में, लाभ हानि में, सुख दुःख में मन और बुद्धि को सम करके अर्थात् समभाव से युक्त होकर युद्ध में अर्थात् स्वधर्म अनुसार कर्तव्य कर्म में लग जा, इस प्रकार तू पाप को प्राप्त नहीं होगा | (२/३८) तात्पर्य यह कि समभाव से, समबुद्धि से युक्त होकर स्वधर्म के अनुसार जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य पाप को, नये कर्मबंधन को प्राप्त नहीं होता अपितु अमृततत्त्व अर्थात् परमार्थ मार्ग हेतु, परमगति, परमधाम हेतु कृष्णयोग को अंगीकार करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है |

इस प्रकार कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु अधिकारी पद की योग्यता का वर्णन करके, योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्णयोग की प्रस्तावना रखते हैं | योगेश्वर के अनुसार जिस बुद्धि से युक्त होकर मनुष्य अमृततत्त्व का अधिकारी बनता है, जिसे अभी पूर्व में परमात्मा ने सांख्य दृष्टि से कहा है, उसी बुद्धि से युक्त होकर कृष्णयोग परायण होने से मनुष्य कर्म बंधन का सर्वथा नाश कर सकेगा | (२/३९) अर्थात् परमपद को, परमधाम को प्राप्त कर सकेगा | यहाँ पूर्व में जिस धीर पुरुष का, इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग वियोग में, समभाव से रहनी का वर्णन है, तत्त्वदर्शी महापुरुषों द्वारा कही सत्य असत्य की परिभाषा, देह देही का भेद और समबुद्धि से युक्त हो स्वधर्म अनुसार कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए जीवन निर्वाह हेतु परमात्मा ने जो उपदेश दिये हैं, वह सब सांख्य-दर्शन के अनुसार कहा है | सांख्य दर्शन अर्थात् अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् (१३/११) अर्थात् अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्व ज्ञान के अनुरूप सर्वत्र परमात्मा तत्व के दर्शन का बौद्धिक ज्ञान | कर्मबंधन के नाश हेतु कृष्णयोग की प्रस्तावन करके, योगेश्वर श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग के क्रियात्मक अथवा चेष्टात्मक पहलुओं को ना कहकर, समभाव से, समबुद्धि से युक्त हो कृष्णयोग परायण होने को ही धर्म कहते हैं तथा इस धर्म की विषेशताओं पर प्रकाश डालते हैं कि इस धर्म के आचरण में, प्रयत्न के आरम्भ का, नाश नहीं होता, कोई विपरीत दोष भी विद्यमान नहीं है तथा इस धर्म का थोड़ा सा भी साधन महान भय से रक्षा करता है | (२/४०) महान भय अर्थात् संसार बंधन और संसार बंधन के कारणों जैसे काम, क्रोध, मोह, मत्सर आदि से रक्षा करता है | तथा इस योग में व्यावसायिक अर्थात् अविनाशी अमृततत्त्व का अर्जन और संचय करने वाली निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है | (२/४१) क्योंकी यह बुद्धि निश्चयपूर्वक एक ही परमतत्त्व के प्रति समर्पित होती है,  अतः निश्चयात्मक होती है  | इसके पश्चात् वेद इत्यादि प्रवृति विषयक शास्त्रों के अनुसार, बंधनकारी काम्यकर्मों में प्रवृत हुए मनुष्यों द्वारा नाशवान और बंधनकारी फल की प्राप्ति का विधान बताते हुए, प्रभु अर्जुन को कृष्ण योग परायण होने हेतु स्पष्ट निर्देश देते हुए गीता शास्त्र का बीजमंत्र रूपी महावाक्य कहते हैं, कि वेद तीन गुणों के बंधनकारी कर्म और नाशवान फल का ही वर्णन करते हैं | अतः अर्जुन ! तू तीनों गुणों से रहित होकर, निर्द्वन्द्व, नित्यसत्वस्थित, निर्योगक्षेम भाव से आत्मपरायण हो जा | (२/४५)
     
गीता शास्त्र के इस बीजमंत्र रूपी महावाक्य का परमात्मा श्रीकृष्ण स्पष्टीकरण भी करते हैं | निस्त्रैगुन्यो भव अर्जुन से परमात्मा श्रीकृष्ण अर्जुन को सन्देश देते हैं कि तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, कर्मफल में कभी नहीं | तू कर्मफल का हेतु कभी ना हो तथा कर्म ना करने में आसक्ति भी ना हो | (२/४७) निर्द्वन्द भाव को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि धनंजय ! योगयुक्त हो कर्मों के प्रति आसक्ति का त्याग करके, सफलता असफलता में सम होकर कर्म करो | समत्व भाव ही योग कहलाता है | (२/४८) निर्योगक्षेम भाव से जो प्राप्ति है, उसके विषय में कहते हैं कि समबुद्धि से युक्त मुनिजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल का त्याग करके, जन्मबंधन से मुक्त होकर, निर्विकार परमपद को प्राप्त होते हैं | (२/५१) नित्यसत्त्वस्थित किस प्रकार रहा जाता है, इस पर कहते हैं कि जिस काल में तेरी बुद्धि संसार मोहरूपी दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी, तब सुनने योग्य को सुन सकेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त कर सकेगा | (२/५२) तथा अन्त में आत्मपरायण होने को कहते हैं कि जिस काल में सुने हुए शास्त्रीय मतभेदों से विचलित तेरी बुद्धि निश्चला अर्थात् एक निष्ठा को प्राप्त होकर स्थिर हो जाएगी, तब तू समाधौ अर्थात् आत्मपरायण हो अचल रूप से योग को प्राप्त हो जायेगा | (२/५३)

इस प्रकार कृष्णयोग के आधारभूत स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रभु अन्त में कहते हैं कि जो पुरुष सम्पूर्ण सांसारिक कामनाओं का त्याग करके, स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित योग परायण हुआ जीवन निर्वाह करता है, वह परमशान्ति को प्राप्त होता है | (२/७१) और पार्थ ! यह परमशान्ति की अवस्था ही, ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थित्ति है, इसको प्राप्त करके पुरुष फिर कभी मोहित नहीं होता तथा इसमें स्थित हुआ पुरुष अन्तकाल में भी ब्रह्म निर्वाण को, परमधाम को  प्राप्त होता है | (२/७२)

द्वितीय अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सांख्य दृष्टि से समत्वं भाव उच्यते तथा योग दृष्टि से योगः कर्मसु कौशलम् कह कर सांख्यदर्शन और योग दोनों से युक्त आचरण हेतु अर्जुन को उपदेश दिया था | परन्तु जैसा सदा से होता आया है, सभी मनुष्य पूर्वज्ञान और पूर्वाग्रह से भावित होते है, उन ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के तथाकतिथ जानकर मनुष्यों का पूर्वज्ञान और पूर्वाग्रह ही अर्जुन के माध्यम से यहाँ पर स्पष्ट होता है | अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण से प्रश्न करता है, कि जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ मान्य है, तब केशव ! मुझे घोर कर्मों में क्यों नियुक्त करते हो ? (३/१) इन मिले हुए वाक्यों से मेरी बुद्धि मोहित ही करते हैं, उस एक को निश्चित करके कहिये, जिससे मैं परम कल्याण को प्राप्त हो जाऊं | (३/२) तब योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में जो कृष्णायोग का उपदेश अर्जुन को दिया था, उसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं | कि निष्पाप अर्जुन इस देही के उत्थान हेतु दो प्रकार का बौद्धिक ज्ञान मेरे द्वारा कहा गया है, जिसमें ज्ञानयोगियों की निष्ठा का ज्ञान अर्थात् समत्वं योग उच्यते का भाव सांख्य दृष्टि से तथा योगः कर्मसु कौशलम् का भाव कर्मयोगियों की दृष्टि से कहा गया है | तथा इन दोनों ज्ञानों का समावेश मैंने तेरे लिये सरल एवं सुगम कृष्णयोग हेतु करा है | (३/३) क्योंकी पुरुष कर्मों का आरम्भ किये बिना ‘नैष्कर्म्य’ को प्राप्त नहीं करता है और ना ही ‘संन्यास’ से सिद्धि को प्राप्त होता है | (३/४) तात्पर्य यह कि इस देही का ना तो योग परायण ना होने से उद्धार होता है और ना केवल सन्यास से ही अर्थात् ज्ञानयोग से ही सिद्धि प्राप्त होती है | इसलिये इन दोनों का समावेश मैंने तेरे लिये सरल एवं सुगम कृष्णयोग हेतु करा है | क्योंकी कोई भी, क्षण मात्र भी, किसी भी अवस्था में कर्म किये बिना नहीं रह सकता, क्योंकी सभी प्रकृतिजन्य गुणों के द्वारा परवश हुए कर्म करने को बाध्य होते हैं | (३/५) इसलिये तू मेरे कहे अनुसार नियतं अर्थात् विधिविशेष से निर्धारित होकर कर्म करो क्योंकी कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से शरीर यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी | (३/८) तात्पर्य यह कि प्रकृतिजन्य गुणों से परवश होकर, जीवन निर्वाह हेतु जिन कर्मों का आचरण आवश्यक है, उनको तू मेरे द्वारा कहे सांख्यदर्शन से भावित होकर, समत्वं योग उच्यते, बुद्धि से कर जिससे तू पाप को प्राप्त नहीं होगा अर्थात् अब और कर्मबंधन उत्पन्न नहीं करेगा तथा पूर्व  कर्मबंधनों के नाश हेतु यज्ञ के निमित्त कर्मों से अन्यत्र समस्त कर्म इस लोक के, शरीर के ही बंधन है, इसलिये कौन्तेय ! उस यज्ञ के लिये कर्मों का, आसक्तिरहित होकर, भलीभाँति आचरण कर | (३/९) 

इस प्रकार योग परायण होने को यज्ञार्थ कर्मों के आचरण का प्रस्ताव रख कर, योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्णयोग परायण को होने तत्पर प्रवेशिका श्रेणी के साधकों हेतु  देवतओं के पूजन का विधान कहते हैं, कि देवतओं के पूजन रूप यज्ञ के द्वारा तुम देवतओं को उन्नत करो, वे देवगण तुमको उन्नत करें, परस्पर उन्नत करते हुए श्रेय को प्राप्त करोगे | (३/११) यहाँ यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि इन यज्ञार्थ कर्मों का आचरण भी सांख्यदर्शन अनुसार होगा अर्थात् निष्काम भाव से, समभाव से होगा | यह यज्ञ दैवी सम्पदा अर्थात् दैविक गुणों के अर्जन और संचय हेतु कहा गया है और इस यज्ञ की अनिवार्यता स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञ द्वारा उन्नत देवता तुम्हें इष्टान भोगान् अर्थात् ईष्ट सम्बन्धी भोगों को देते रहेंगे अर्थात् कर्मबंधन के नाश हेतु दैवी सम्पदा को देते रहेंगे तथा तैः दत्तान् अर्थात् केवल वे ही देनेवाले हैं | (३/१२) इसके पश्चात् अन्य यज्ञों के बारे में ना कहते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण परमार्थ हेतु इन यज्ञों की अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सर्वव्यापी ब्रह्म नित्य ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है | (३/१५,उ०) अतः यज्ञार्थ कर्मों का आचरण अनिवार्य है | कृष्णायोग के स्वरूप को पुनः स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि आसक्तिरहित होकर निरन्तर कार्यंकर्म का भलीभाँति आचरण करो, क्योंकी अनासक्त भाव से कर्मों का आचरण करता हुआ पुरुष परं को प्राप्त होता है | (३/१९) कार्यंकर्म अर्थात् करने योग्य यज्ञार्थ कर्मों का आचरण सांख्यदर्शन के अनुसार समभाव से करता हुआ पुरुष परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त होता है | इसके पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण यह भी स्पष्ट करते हैं कि कृष्णायोग का आचरण केवल मुमुक्षुओं के लिये ही नहीं अपितु मुक्त पुरूषों के लिये भी अनिवार्य है | राजा जनक तथा स्वयं अपना उदाहरण देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ पुरूषों ने भी लोक संग्रह को विचार करते हुए कार्यंकर्मों को करने योग्य ही माना, लोक संग्रह अर्थात् प्रजा की उल्टे मार्ग में जाने वाली प्रवृति के निवारण रूप कार्यंकर्मों के आचरण को ही योग्य माना है | इस प्रकार मनुष्य मात्र के उत्थान हेतु कृष्णयोग के आचरण को अनिवार्य बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण सांख्यदर्शन की दृष्टि से तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् हेतु, कर्मों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते एक प्राकृतिक सिद्धांत की व्याख्या करते हैं कि समस्त कर्म सदैव प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित जीव मैं कर्ता हूँ, ऐसा मानता है | (३/२७) तथा अर्जुन को कर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि परन्तु महाबाहो ! गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त, समस्त गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होते | (३/२८)
  
योगेश्वर श्रीकृष्ण को समस्त विश्व पूर्णावतार मानता है, पूर्णावतार अर्थात् योगस्थ श्रीकृष्ण परमतत्त्व परमात्मा को सम्पूर्ण रूप से प्राप्त एक महापुरुष थे, परमतत्व परमात्मा और उनमें, आंशिक रूप से भी कोई भेद ना था | इस स्थिति को प्राप्त योगेश्वर इस तथ्य से भी भलीभाँति परिचित थे कि प्रकृतिजन्य गुणों के कारण मनुष्य किस प्रकार अपने पूर्वज्ञान और पूर्वाग्रह से भावित रहता है | इसलिये ही उन्होंने (३/२५,२६ एवं २९) में विद्वानों और भविष्य में होनेवाले गीताशास्त्र के व्याख्याकारों को संबोधित करते हुए कहा कि जो कृष्णयोग परायण नहीं हैं, वे प्रकृति के गुणों से मोहित और कर्मों में आसक्त रहते हैं, ऐसे विद्वान कर्म को ना जानने वाले उन मन्दबुद्धि मनुष्यों को कर्म के विषय में विचलित न करें | (३/२९) तथा मुमुक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा कि अध्यात्मचेतसा अर्थात् अन्तरात्मा में चित्त का निरोध करके, समस्त कर्मों को मुझे अर्पण करके आशारहित और ममतारहित होकर युध्यस्व विगतज्वरः अर्थात् संतापरहित होने को युद्ध कर | (३/३०) तथा जो मनुष्य श्रद्धाभाव से, दोषदृष्टि से रहित मेरे इस मत का सदैव अनुसरण करते हैं, वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं | (३/३१) तात्पर्य यह कि जो मेरे मत में दोषारोपण करते हुए इसका अनुसरण नहीं करते, उन ज्ञान से मोहित भ्रमित चित्त वालों को नष्ट हुआ जान | (३/३२) अतः स्पष्ट है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित कृष्णयोग केवल कृष्णयोग है, इसमें कोई भी विद्वान ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग अथवा भक्तियोग को ना खोजे |

इस पर अर्जुन प्रश्न करता है कि तब किस के द्वारा प्रेरित होकर यह पुरुष पाप का आचरण करता है ? वार्ष्णेय ! बिना इच्छा के भी मानो बलात लगाया जाता है | (३/३६) अर्थात् आप से तो प्रेरित नहीं होता, तब आप के कहे अनुसार परमार्थ मार्ग का आचरण ना करके, यह पुरुष किससे प्रेरित होता है ? अर्जुन के इस प्रश्न का समाधान करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि रजोगुण से उत्पन्न यह काम, यह क्रोध कभी तृप्त न होने वाले महापापी हैं, इस विषय में इनको ही वैरी जान | (३/३७) जैसे धुएँ से अग्नि, मैल से दर्पण और गर्भाशय से गर्भ आवृत है, वैसे उनसे (काम और क्रोध से) यह ज्ञान आवृत है | (३/३८) कौन्तेय ! कभी तृप्त ना होनेवाली और ज्ञानियों की नित्य वैरी इस कामरूपी अग्नि से ज्ञान आवृत है | (३/३९) इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके निवास स्थान कहे जाते हैं, इनके द्वारा ही यह ज्ञान को आवृत करके देही को विशेषरूप से मोहित करता है | (३/४०) इसलिये भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! तुम सबसे पहले इन्द्रियों का वश में करके ज्ञान और विज्ञान का नाश करनेवाले पाप के कारण का ही दमन करो | (३/४१) इन्द्रियाँ सूक्ष्म और बलवान हैं, इन्द्रियों से सूक्ष्म और बलवान मन है परन्तु मन से सूक्ष्म और बलवान बुद्धि है परन्तु जो वह (देही) है, वो बुद्धि से भी सूक्ष्म और बलवान है | (३/४२) इस प्रकार बुद्धि से सूक्ष्म और बलवान स्वयं को जानकर, स्वयं के द्वारा स्वयं में, अपने स्वरूप में स्थित होकर, महाबाहो ! कामरूप दुर्जय शत्रु का परित्याग करो | (३/४३)  

चतुर्थ अध्याय का प्रारंभ करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण सर्वप्रथम अर्जुन को कृष्णायोग की महत्ता का, इसके पुरातन और सनातन स्वरूप का वर्णन करते हैं तथा अव्यक्त और अक्षय रूप में स्थित परमतत्त्व परमात्मा के दिव्य तथा  अलौकिक जन्म एवं कर्म का भी वर्णन करते हैं कि किस प्रकार परमतत्त्व परमात्मा साधकों के उत्थान को, मोक्ष के अभिलाषी कृष्णयोग परायण साधकों के हृदय में रथी बन कर, उनके उद्धार को तथा दुष्कृत्य करने में हेतु काम, क्रोध आदि के नाश और साधकों के हृदय में कृष्णयोग रूपी धर्म को भलीभाँति स्थापित करने हेतु प्रकट होते हैं | इस प्रकार योगेश्वर परमात्मा के दिव्य जन्म और कर्म को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म अलौकिक हैं, इस प्रकार जो तत्त्व से जान लेता है, वह देह को त्यागकर पुनः जन्म को प्राप्त नहीं होता, मुझको प्राप्त होता है | (४/९) इस प्रकार जो तत्त्व से जान लेता है, तत्त्व से अर्थात् जिसके हृदय देश में परमात्मा रथी बनकर निर्देश करते हैं, उन निर्देशों को जो तत्त्व रूप से जान लेता है | वह देह को त्यागकर पुनः जन्म को प्राप्त नहीं होता अपितु परमतत्त्व परमात्मा को ही प्राप्त होता है | इस कृष्णयोग की सार्थकता को, अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं केवल यज्ञार्थ कर्मों का आचरण ही परमतत्त्व की प्राप्ति का साधन है क्योंकी इस मनुष्य लोक (देह) में कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र होती है | (४/१२) इसके पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण यज्ञार्थ कर्मों के स्वरूप को अर्थात् यज्ञ के और कर्म के दोनों के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं | 

योगेश्वर श्रीकृष्ण पहले कर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, कि मनुष्यों का चार वर्णों में अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र वर्ण में, कर्मों के अनुसार विभागपूर्वक विभाजन का जो यह सृष्टि का विधिविधान है, यह मेरे द्वारा रचा गया है | (४/१३) तात्पर्य यह कि मनुष्यों का यह विभाजन उनका कर्मों में प्रवृत होने के गुणों के अनुसार करा गया है | सात्त्विक गुणों से युक्त मनुष्य ब्राह्मण है, सात्त्विक-राजसी गुणों वाला क्षत्रिय, राजसी-तामसिक गुणों वाला वैश्य और तामसी गुणों वाला शुद्र स्वभाव का मनुष्य है | परन्तु गुण सात्त्विक हो अथवा तामसी, गुण प्रकृतिजन्य हैं, बंधनकारी हैं, ब्राह्मण हो अथवा शुद्र आवागमन को ही प्राप्त हैं | कर्मबंधन से मुक्ति को, इन गुणों से अतीत होकर अर्थात् आसक्तिरहित होकर ही कर्म करे जाते हैं | वे मनुष्य ना ब्राह्मण होते हैं, ना क्षत्रिय और ना ही वैश्य अथवा शुद्र, वे कृष्णयोग परायण साधक होते हैं, जिसके लिये योगेश्वर ने कहा था कि गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त, समस्त गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होते | (३/२८) और यही योगेश्वर द्वारा अन्य संदर्भ में भी कहा गया, योगः कर्मसु कौशलम् भाव है, (२/५०) इसी तथ्य का स्पष्टीकरण करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि चारों वर्ण को गुण और कर्मों के विभाग से मेरे द्वारा रचा गया है, उसका कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को अकर्ता जान | (४/१३) कारण कि मुझको कर्म लिप्त नहीं करते, क्योंकी मेरी कर्मफल में लालसा नहीं है, इस प्रकार जो मुझको भलीभाँति जान लेता है, वह कर्मों से नहीं बँधता | (४/१४) तात्पर्य यह कि यज्ञार्थ कर्मों के आचरण स्वरूप, जो मेरे स्वरूप को, कर्मों के करने के कौशल को जान लेता है, वह कर्मों से नहीं बँधता | इस प्रकार कर्मों के करने के कौशल को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि कर्म को भी जानना चाहिये और विकर्म को भी जानना चाहिये और अकर्म को भी जानना चाहिये क्योंकी कर्म की गति गहन है | (४/१७) कर्म की गति गहन है, कहने पर भी समझ नहीं आती, इसे विवेकपूर्ण विचार करके ही ज्ञात करा जाता है | तत्पश्चात् कर्म को, अकर्म को समझाते हुए, इन्हें परिभाषित करते हुए कहते हैं कि जो कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह बुद्धिमान है तथा वह अचल रूप से आत्मपरायण हुआ सम्पूर्ण रूप से कर्मों को करता है | (४/१८) तात्पर्य यह कि समस्त कर्म सदैव प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं और गुणों में उत्कर्ष अपकर्ष के अनुरूप ही कर्मों में उत्कर्ष अपकर्ष होता है, गुण अपने अनुसार कर्म करा ही लेते हैं तथा योगेश्वर के कहे अनुसार गुण गुणों में बरतते हैं, ऐसा जानकार, समझकर, विवेकपूर्ण विचारकर के, प्रत्यक्ष दृष्टा ज्ञानी, बुद्धिमान पुरुष कर्मों में आसक्त नहीं होते | (३/२८) इस प्रकार प्रत्यक्ष दृष्टा द्वारा बिना कामना और आसक्ति के किये समस्त कर्म कोई बंधन उत्पन्न नहीं कर पाते, यही कर्म में अकर्म का देखना है | परन्तु जो माया के आधिपत्य में चार वर्णों के अनुसार ही कर्मों में प्रवृत होते हैं, उनके समस्त कर्म, यहाँ तक कि उनकी जीवन में कर्मों के प्रति अकर्मण्यता भी बंधनकारी होती है, निश्चयात्मक बुद्धि से युक्त ज्ञानीजन इस प्रकार अकर्म में कर्म को, बंधन को देखता हुआ, अकर्म में भी प्रवृत नहीं होता, समबुद्धि से युक्त हुआ कृष्णयोग का ही आचरण करता है | यही अकर्म में कर्म को देखना है तथा स्थितप्रज्ञ महापुरुषों ने लोक संग्रह अर्थात् प्रजा की उल्टे मार्ग में जाने वाली प्रवृति के निवारण रूप कार्यंकर्मों के आचरण को, समभाव, समबुद्धि से युक्त हो जीवन निर्वाह को तथा निश्चयात्मक बुद्धि से कृष्णयोग के आचरण को ही योग्य माना है | ब्रह्म में स्थित, स्थितप्रज्ञ महापुरुषों के यह कर्म विकर्म अर्थात् विशिष्ट कर्म कहलाते हैं |

उपरोक्त रूप से कर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण यज्ञ के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए सर्वप्रथम स्थितप्रज्ञ महापुरुषों द्वारा किये गये कर्मों का, विकर्म का, विशिष्ट कर्मों के आचरण स्वरूप किये यज्ञ के स्वरूप का वर्णन करते हैं कि ब्रह्म में समाधिस्थ कर्म वाले पुरुष का अर्पण ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, ब्रह्म में स्थित पुरुष द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति भी ब्रह्म है, ब्रह्म में ही उसकी गति है | (४/२४) तात्पर्य यह कि यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करता हुआ पुरुष जब ब्रह्म में स्थित हो जाता है, तब उसके समस्त कर्म इस ब्रह्म की स्थिति का स्पर्श करके समाधिस्थ हो जाते हैं, ब्रह्म में स्थित पुरुष के समस्त कर्म भी ब्रह्ममय हो जाते हैं और ब्रह्म में ही उसकी गति है अर्थात् प्रारब्धवश प्राप्त देह का निर्वाह करते हुए भी वह ब्रह्मरूपा ही है और स्थित्वा अस्याम् अन्त काले अपि ब्रह्म निर्वाणम् ऋच्छति, (२/७२) इस स्थिति में स्थित पुरुष शरीर के अन्तकाल में भी ब्रह्मनिर्वाण को ही प्राप्त होता है |  

परन्तु जो अभी साधक है, वह क्या करे, किन यज्ञों का, यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करे ? पूर्व अध्याय में योगेश्वर ने सर्वप्रथम दैवी सम्पदा के अर्जन और संचय का निर्देश अर्जुन के प्रति कहा था | प्रवेशिका श्रेणी के इस यज्ञ से लेकर किन किन सौपनों को पार करता हुआ कृष्णयोग परायण साधक ब्रह्म में स्थित हो पाता है, उन यज्ञों का वर्णन योगेश्वर श्रीकृष्ण ने नहीं करा था | अब योगेश्वर श्रीकृष्ण यज्ञार्थ कर्मों हेतु प्रचलित यज्ञों में से, कृष्णयोग परायण साधक के उत्थान हेतु, अपने मतानुसार यज्ञों के स्वरूप स्पष्ट करते हैं | यहाँ ध्यान देने योग्य है कि योगेश्वर ने आगे यह स्पष्ट करा है कि अपने अपने स्वभाव में पायी जानेवाली योग्यता के अनुसार ही कर्म में लगा, जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्तिरूपी परमसिद्धि को प्राप्त होता है (१८/४५ पु०) तथा जिस परमात्मा से समस्त भूतों की उत्पत्ति हुई है, जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने स्वाभाविक कर्मों, यज्ञार्थ कर्मों, यज्ञों द्वारा अर्चन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होत है | (१८/४६) सारांशतः योगेश्वर श्रीकृष्ण का निश्चित किया हुआ मत है कि साधक को अपने स्वभाव के, गुणों के, वर्ण के अनुसार ही कर्मों का अनुसरण करते हुए जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु स्वधर्म के अनुसार ही यज्ञों का अनुष्ठान करना चाहिये | शुद्र श्रेणी के साधक के लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि शुद्र श्रेणी का साधक अपने से उन्नत अवस्था वाले, उच्च सौपनों को प्राप्त साधकों की तथा गुरुजनों, स्थितप्रज्ञ महापुरुषों की सेवा करे, यह शुद्र श्रेणी का साधक नीच नहीं अपितु अल्पज्ञ है, अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त करनी है, अतः ऐसा साधक परिचर्या से ही आरम्भ करे | (१८/४४,उ०) इस प्रकार सेवा करता हुआ, अवस्था उन्नत होने पर, हृदय में संस्कारों का सृजन होने पर यही शुद्र साधक वैश्य रूप से यज्ञों का अनुष्ठान करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है |

वैश्य अर्थात् जो साधक अर्जन और संचय की योग्यता रखता है, उस साधक के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि दुसरे अर्थात् वैश्य श्रेणी के साधक अर्जन हेतु योगयुक्त होकर देवताओं के पूजन रूप यज्ञ का भलीभाँति अनुष्ठान करते हैं, दुसरे ब्रह्म अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन करते हैं | (४/२५) तात्पर्य यह कि कर्म में निष्ठा रखने वाले वैश्य साधक दैवम् यज्ञम्; ‘यज्ञ’ अर्थात् कामना और आसक्तिरहित होकर देवतओं का पूजन करते हैं | आसुरी सम्पदा के विनाश हेतु दैवी सम्पदा का अर्जन करते हैं | अपने गुणों का, स्वभाव का उर्ध्वमुखी उत्थान करते हैं | तथा दुसरे सांख्य में निष्ठा रखने वाले वैश्य साधक सांख्यदर्शन के अनुसार तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्; तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप सर्वत्र परमात्मा तत्त्व के दर्शनरूप ‘यज्ञ का हवन’ अर्थात् कामनाओं और आसक्तियों से रहित होकर ज्योति स्वरूप दिव्यरूप परमात्मातत्त्व का ध्यान करते हैं | इस प्रकार वैश्य साधक दैवम् यज्ञ से प्राप्त दैविक गुणों का अथवा ब्रह्म यज्ञ के स्वरूप ज्योतिर्मय दिव्य पुरुष से प्राप्त तेज का अर्जन करते हुए, इनके संचय हेतु एक अन्य उच्च सौपन के यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार अन्य पुरुष श्रोत आदि इन्द्रियों का संयम अग्नि में हवन करते हैं, अन्य शब्द आदि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करते हैं | (४/२६) इस उन्नत अवस्था को प्राप्त वैश्य श्रेणी के साधक दैवी सम्पदा का, ब्रह्म यज्ञ से प्राप्त तेज का संचय करने हेतु, इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के अनित्य संयोग वियोग में धैर्यपूर्वक आचरण करते हैं, इनसे व्यथित, व्याकुल नहीं होते | इस प्रकार वैश्य  श्रेणी के यज्ञों द्वारा साधक इन्द्रियों के द्वारा ही अन्तकरण में प्रवेश करके मन और बुद्धि में वास करने वाले काम, क्रोध आदि दुष्कृताम से युद्ध करने की क्षमता प्राप्त करते हैं, अमृततत्त्व की प्राप्ति के अधिकारी हो जाते हैं तथा क्षत्रिय श्रेणी के साधक होने की योग्यता को भी प्राप्त करते हैं | इस प्रकार उन्नति करते हुए, उच्च सौपनों को प्राप्त करते हुए, यह साधक उत्तरोत्तर उच्च साधना के अधिकारी बनते हैं |

क्षत्रिय श्रेणी के साधक द्वारा करने योग्य यज्ञों का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि दुसरे सम्पूर्ण इन्द्रियों की क्रियाओं और प्राणों की क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित होकर आत्म संयम योग रूप अग्नि में हवन करते हैं | (४/२७) तात्पर्य यह कि इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग वियोग से युद्ध करता हुआ क्षत्रिय श्रेणी का साधक सम्पूर्ण इन्द्रियों अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की प्रमथनशील क्रियाओं से अवगत हो जाता है कि यह इन्द्रियाँ किस प्रकार प्राणों की क्रियाओं द्वारा अर्थात् संकल्प विकल्प द्वारा, मन और बुद्धि का मंथन करती हैं | इस ज्ञान से प्रकाशित होकर यह क्षत्रिय श्रेणी के साधक आत्म संयम योग रूप अग्नि में हवन करते हैं, अर्थात् आत्म परायण होनेका प्रयत्न करते हैं | इन यज्ञों अर्थात् आत्म परायण होने के यज्ञार्थ कर्मों के आचरण द्वारा साधक ब्राह्मण श्रेणी का साधक होने की योग्यता को प्राप्त करता है, एक और उच्च सौपन को प्राप्त करने का अधिकारी बनता है | इस प्रकार उत्तरोत्तर अपना उत्थान करता हुआ कृष्णयोग परायण हुआ साधक उत्तरोत्तर उच्च श्रेणी के यज्ञों के अनुष्ठान को अग्रसर होता है | ब्राह्मण श्रेणी में अपनी स्थिति को दृढ़ करने हेतु, भलीभाँति आत्मपरायण होने के लिये, इन साधकों को योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार जिन यज्ञों का अनुसरण करना चाहिये उनमें द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ करनेवाले और दृढ़ व्रतधारी यत्नशील पुरुष स्वाध्याय रूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं | (४/२८)
ब्राह्मण श्रेणी की योग्यता प्राप्त करने के पश्चात् जिन यज्ञों का अनुष्ठान करा जाता है, उनके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि दुसरे अपानवायु को प्राणवायु में हवन करते हैं ऐसे ही प्राणवायु को अपानवायु में हवन करते हैं | प्राणवायु (और) अपानवायु की गति को रोककर प्राणायाम परायण होते हैं | (४/२९) इस प्राणायाम की एक अन्य विधि को बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने मतानुसार कहे इन यज्ञों के स्वरूप के वर्णन को विराम देते हुए कहते हैं कि दुसरे नियमित आहार करनेवाले प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं, यह सब भी, यज्ञों द्वारा पापों का नाश करनेवाले, यज्ञों के ज्ञाता हैं | (४/३०) तात्पर्य यह कि अपने स्वभाव, अपने गुणों, अपने वर्ण के अनुसार उपरोक्त निम्न अथवा उच्च सौपनों के यज्ञों का आचरण करनेवाले समस्त साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करनेवाले हैं और यज्ञों के स्वरुप के ज्ञाता हैं | पापों का नाश अर्थात् जन्म जन्मान्तरों में किये कर्मबंधन का नाश और परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति | इन यज्ञों द्वारा पापों का नाश कैसे होता है, इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, कि यज्ञ शेष के अमृत भोजी सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं | (४/३१,पु० ) यज्ञ शिष्ट अर्थात् यज्ञ के अनुष्ठान के पश्चात जो बचता है, जिस प्रकार वैदिक कर्म काण्डों के पश्चात् जिस भोज्य सामग्री से देवतओं का पूजन करा जाता है, पूजन के उपरान्त उसे परमात्मा का प्रसाद मानकर ग्रहण करा जाता है, उसी प्रकार परमार्थ मार्ग में यज्ञार्थ कर्मों के, यज्ञों के अनुष्ठान के पश्चात् जो शेष रहता है, जो इन यज्ञों का परिणाम है, वह योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार अमृततत्त्व है तथा इस यज्ञ शेष अमृततत्त्व के पान से सनातन ब्रह्म की प्राप्ति होती है | यह परमतत्त्व की प्राप्ति किस प्रकार होती है, इस तथ्य को स्पष्ट करने हेतु योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, यावन्मात्र समस्त कर्म ज्ञान से भलीभाँति समाप्त हो जाते हैं | (४/३३) द्रव्ययज्ञ; जिस यज्ञ की चर्चा योगेश्वर ने श्लोक संख्या (४/२८) में करी थी कि आत्मपरायण होने को प्रयत्नशील साधक प्राप्य धन सामग्री को भोगों हेतु व्यय न करके, देह सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए, शेष धन सामग्री को आत्मपथ में लगे साधकों, महापुरुषों और स्थितप्रज्ञ पुरूषों की सेवा में अर्पित करते हैं | परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकी द्रव्ययज्ञ यद्यपि सांसारिक संस्कारों को भस्म करने में सक्षम हैं, तब भी इनके बहिर्मुखी होने के कारण, सांसारिक विषयों और पदार्थों का संयोग होने के कारण, इन यज्ञों के अनुष्ठान स्वरूप सांसारिक विषयों का विसृजन कठिन है, अतः परमार्थ का साधन नहीं है | इसकी अपेक्षा अन्य यज्ञ जो अन्तर्मुखी है, एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित हैं, जिनका परिणाम केवल हृदयस्थ परमात्मा का साक्षात्कार ही है, वह यज्ञ श्रेष्ठ हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जिस यज्ञ शेष रूप अमृततत्त्व की प्राप्ति की चर्चा करी थी, उस अमृततत्त्व का पान करनेवाले साधकों की जो उपलब्धि है, जिसके द्वारा वे सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, वह यही ज्ञान है | यह ज्ञान सामान्य बौद्धिक ज्ञान नहीं है, शास्त्रों अथवा संतजनों के उपदेशों से प्राप्त ज्ञान नहीं है, अपितु इस ज्ञान की उत्पत्ति अमृततत्त्व के पान स्वरूप होती है, हृदय देश में होती है | समस्त यज्ञार्थ कर्मों के अनुष्ठान का, हृदयस्थ ईष्ट के साक्षात्कार का परिणाम, यह ज्ञान है | इस ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, कि सर्वं कर्म अखिलम्, अर्थात् मनुष्य के जन्म जन्मान्तरों से संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म तथा क्रियमाण सभी कर्म इस ज्ञान की प्राप्ति से, इस ज्ञान में ही समाहित हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, कोई कर्मबंधन नहीं रहता |
                         
यहाँ जिस ज्ञान की चर्चा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने करी है, वह अमृततत्त्व का पान करनेवाले साधकों को ही उपलब्ध होता है, यही गीता शास्त्र का सार है, इस ज्ञान की प्राप्ति कहाँ और कैसे होती है, इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि निःसंदेह इस लोक में इस ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला अन्य कुछ विद्यमान नहीं है, ‘तत्स्वयं’ उस ज्ञान को तू स्वयं ‘योग संसिद्धः कालेन’ जब योग सिद्ध होगा उस काल में ‘आत्मनि विन्दति’ स्वयं में ही पायेगा | (४/३८) योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ निश्चयात्मक रूप से कहते हैं कि निःसंदेह, समस्त संदेहों, शंकाओ से परे यह निश्चयात्मक तथ्य है कि इस लोक में अर्थात् इस देही की मुक्ति के लिये, कर्मबंधन के नाश के लिये आत्मज्ञान के समान पवित्र करने वाला अन्य कुछ भी विद्यमान नहीं है, क्योंकी इस इस ज्ञान से जो प्राप्ति है, उस परमतत्त्व परमात्मा से पवित्र अन्य कुछ भी नहीं है तथा अन्य कोई भी विधिविशेष, विधिविधान विद्यमान नहीं है, जिससे कर्मबंधन का नाश हो सके | उस ज्ञान को तू स्वयं अर्थात् यह अन्य सांसारिक ज्ञानों की तरह कहने सुनने का विषय नहीं है, योगेश्वर स्वयं भी अर्जुन को इस ज्ञान को प्राप्त करने की विधिविशेष ही कह पाये, परन्तु यह आत्मज्ञान नहीं कह पाये तथा ना ही यह ज्ञान अन्य किसी तत्त्वदर्शी महापुरुष के सानिध्य से यह प्राप्त होगा, इस ज्ञान को तुझे स्वयं ही प्राप्त करना है | यह ज्ञान कब और कहाँ प्राप्त होगा ? इस पर योगेश्वर कहते हैं कि जब योग सिद्ध होगा उस काल में, जब तू प्राणायाम परायण हो जायेगा उस काल में यह ज्ञान प्राप्त होगा तथा इस ज्ञान को तू स्वयं, हृदयस्थ ईष्ट के परायण होकर, आत्मनि विन्दति, स्वयं में ही पायेगा, इसलिये इसे आत्मज्ञान कहते हैं | यह ज्ञान बाहर कहीं से भी प्राप्त होने योग्य नहीं है | इसी आत्मज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए ही योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं (४/१९), सर्वं कर्माखिलं ज्ञाने परिसमाप्यते (४/३३) , ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते (४/३७) | इस ज्ञान की प्राप्ति ही कृष्णायोग का उद्देश्य है, ध्येय है, यही गीता शास्त्र का सार है |

वस्तुतः अध्याय चार में आत्मज्ञान को प्राप्त करने की विधिविशेष के साथ ही कृष्णयोग संबंधित महावाक्यों का अर्थात् उन महावाक्यों का जो कृष्णयोग की विधिविशेष से संबंधित है, उनका धारा प्रवाह समाप्त हो जाता है,  अन्यथा गीता शास्त्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण का प्रत्येक वाक्य एक महावाक्य है | अध्याय के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को निर्देश देते हैं कि योग द्वारा कर्मों का त्याग अर्थात् कर्मबंधन का नाश कर तथा ज्ञान द्वारा संशय का नाश कर | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ कहा गया ज्ञान वस्तुतः सांसारिक बौद्धिक ज्ञान है, विवेकबुद्धि है | अन्यथा जब तक संशय है, तब तक आत्मज्ञान की प्राप्ति तो होती नहीं, इसलिये यह आत्मज्ञान नहीं है | यह  ज्ञान वस्तुतः योगेश्वर द्वारा अर्जुन के प्रति सांख्य दृष्टि से कहा गया बौद्धिक ज्ञान है, जिसके लिये योगेश्वर ने पूर्व में कहा था कि इस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्म बंधन का नाश कर सकेगा | अपने इसी व्यक्तव्य को यहाँ दोहराते हुए कहते हैं कि आत्मपरायण पुरुष को, योगयुक्त पुरुष को कर्म नहीं बाँधते | (४/४१) इसलिये अज्ञानजन्य अर्थात् प्रकृति के गुणों से मोहित होने के कारण अविवेक से उत्पन्न हृदय में स्थित इस संशय को ज्ञानरुपी अर्थात् समभाव, समबुद्धि रूपी खड्ग से काटकर, योग में ही उठो, बैठो अर्थात् जीवन को ही योगमय बना लो | (४/४२)  

इस प्रकार गीता शास्त्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अब तक कहे, कृष्णयोग से सम्बंधित महावाक्यों का संकलन और पुनरावृति रूप से मनन करने के पश्चात्, आइये अब इस पंचम अध्याय में प्रवेश करते हैं |
                                                                                                                 
अर्जुन उवाच :
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि |
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् || (५/१)

संन्यासम् कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगम् च शंससि |
यत् श्रेयः एतयोः एकम् तत् ब्रूहि सुनिश्चितम् || (५/१)

संन्यासम् (संन्यास की), कर्मणाम्(कर्मों के), कृष्ण(कृष्ण), पुनः(फिर), योगम्(योग की),(और), शंससि(प्रशंसा करते हैं) | यत् (जो),  श्रेयः(श्रेयस्कर),  एतयोः(इन दोनों में से),  एकम्(एक), तत्(वह),  ब्रूहि(कहिये),  सुनिश्चितम्(भलीभाँति निश्चय करके) | (५/१)

कृष्ण ! (आप) कर्मों के संन्यास की और फिर योग की प्रशंसा करते हैं, इन दोनों में से जो श्रेयस्कर है, वह एक भलीभाँति निश्चय करके कहिये | (५/१)

अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है कि आप कर्मों के संन्यास की प्रशंसा करते हैं तथा गीता शास्त्र के अधिकतर व्याख्याकार भी अर्जुन के इस व्यक्तव्य के साथ अपनी सहमति प्रकट करते हैं कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ऐसा कहा है | जब भी गीता शास्त्र का अध्ययन करता हुआ पंचम अध्याय के इस प्रथम श्लोक पर आता हूँ और गीता शास्त्र की व्याख्याओं का अध्ययन करता हुआ, केवल ऐसा पढ़ता ही नहीं अपितु अर्जुन के इस व्यक्तव्य के समर्थन में व्याख्याकारों के तर्क और युक्ति युक्त युक्तियाँ भी पढ़ता हूँ कि योगेश्वर ने ऐसा कहा, तब स्वयं को कृष्णयोग से भटकता हुआ महसूस करता हूँ, ऐसा जान पड़ता है कि अभी तक मैं कृष्णयोग को समझ ही नहीं पाया हूँ, कृष्णयोग के संदर्भ में मेरा सारा बौद्धिक और व्यवहारिक ज्ञान एक भ्रम मात्र है | कितनी बार इस श्लोक का सार जानने को पुनः गीता शास्त्र के पिछले तीन अध्यायों का अध्ययन मनन करा, परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कर्मों के संन्यास के संबंध में कोई भी व्यक्तव्य अथवा उपदेश दिया हो, ऐसा कही भी नहीं पाता | वस्तुतः योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कर्मों के संन्यास को नहीं अपितु अर्जुन को यह अवश्य कहा है कि जय-पराजय में, लाभ-हानि में और सुख-दुःख में मन एवं बुद्धि को सम करके, उसके बाद युद्ध में लग जा, इस प्रकार पाप को प्राप्त नहीं होगा | (२/३८) तथा यह भी कहा कि वेद तीन गुणों के कार्य का ही वर्णन करते है | अर्जुन ! तू तीनों गुणों से रहित हो जा, निर्द्वन्द, नित्यसत्त्वस्थित, निर्योगक्षेम और आत्मपरायण हो | (२/४५) तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण का अर्जुन को स्पष्ट निर्देश है कि समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर कर्मों को करो इस प्रकार तुम पाप को अर्थात् नये कर्मबंधन को प्राप्त नहीं होगे तथा स्वर्गादिक भोगों की व्याख्या करने वाले, प्रकृतिजन्य तीनों गुणों से प्रभावित वेद में वर्णित काम्यकर्मों का त्याग करो, निस्त्रैगुन्यो भवार्जुन | योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार कोई भी, क्षण मात्र भी, किसी भी अवस्था में कर्म किये बिना नहीं रह सकता, क्योंकी सभी प्रकृतिजन्य गुणों के द्वारा परवश हुए कर्म करने को बाध्य होते हैं | (३/५)

वस्तुतः कर्मसंन्यास एक कुरीति है, जो श्रीकृष्ण के काल में भी प्रचलित थी और योगेश्वर श्रीकृष्ण इस तथ्य को बार बार स्पष्ट करते हैं, यह अविनाशी और पुरातन योग जो मैंने सृष्टि के आदि काल सूर्य के प्रति कहा था, वह अब लुप्तप्राय हो गया है | इस कृष्णयोग के स्थान पर अब तथाकथित ज्ञानियों ने ज्ञानयोग, कर्मियों ने कर्मयोग, ध्यानियों ने ध्यानयोग, भक्तों ने भक्तियोग आदि जैसी कुरीतियों का आश्रय ग्रहण कर लिया है | योगेश्वर ने तथाकथित विद्वानो को भी कहा कि युक्त पुरुष कर्मों में आसक्त अज्ञानियों में बुद्धिभेद ना उत्पन्न करे अपितु समस्त कर्मों का भलीभाँति आचरण करता हुआ उनसे भी करवाये |(३/२६) प्रकृति के गुणों से मोहितजन गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं, कर्म को ना जानने वाले उन मन्दबुद्धि मनुष्यों को कर्म के जानकार विचलित न करें |(३/२९) तथा स्पष्ट करते हैं कि जो साधक श्रद्धाभाव से, दोषदृष्टि से रहित मेरे इस मत का सदैव अनुसरण करते हैं, वे भी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं |(३/३१) परन्तु जो मेरे मत में दोषारोपण करते हुए इसका अनुसरण नहीं करते, उन ज्ञान से मोहित भ्रमित चित्त वालों को नष्ट हुआ जान |(३/३२) केवल इतना ही नहीं, यह सब तो योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सामान्य पुरूषों और साधकों के प्रति कहा, योगेश्वर ने स्वयं अपने और स्थितप्रज्ञ महापुरुषों के प्रति भी कहा कि राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करते हुए ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं और प्राप्ति के पश्चात् भी जहाँ कार्यं कर्मों को करने से ना कोई लाभ है तथा ना करने से कोई हानि, फिर भी लोक संग्रह को विचार करते हुए कार्यंकर्मों को करने योग्य ही मानते थे | लोक संग्रह अर्थात् प्रजा की उल्टे मार्ग में जाने वाली प्रवृति के निवारण रूप कार्यंकर्मों के आचरण को ही योग्य माना है |(३/२०) तथा पार्थ ! मेरे लिये तीनों लोकों में कोई भी कर्तव्य कर्म शेष नहीं है और ना ही प्राप्त करने योग्य अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ |(३/२२) इस प्रकार कर्म की अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए, कर्मसंन्यास के पक्षधरों के संदर्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो कर्मेन्द्रियों को वश में कर करके, इन्द्रियों के विषयों के चिंतन मनन में रहता है, वह मूढ़बुद्धि मनुष्य मिथ्या आचरण वाला कहा जाता है |(३/६) क्योंकी विषयों का सेवन ना करने से देही के विषय तो निवृत हो जाते हैं, विषयों के प्रति रस निवृत नहीं होता | परन्तु योगपरायण मनुष्य का रस भी परमतत्त्व के साक्षात्कार से, यज्ञार्थ कर्मों के आचरण से निवृत हो जाता हैं |(२/५९) सारांशतः योगेश्वर श्रीकृष्ण के कर्मसंन्यास के संदर्भ में कभी भी कुछ भी नहीं कहा है |

अतः स्पष्ट है कि कर्मसंन्यास जैसी कुरीति की बात योगेश्वर ने कभी भी नहीं कही अपितु सदैव कर्म की अनिवार्यता का ही समर्थन करा है | वह कर्म आप चाहे सांख्य निष्ठा से करें अथवा कर्म में आस्था रखते हुए करें | जैसी अर्जुन की जिज्ञासा है कि कर्मसंन्यास और योग में से क्या श्रेयस्कर है, उसे मेरे लिये कहिये | जो योगेश्वर के उपदेशानुसार योगपरायण होना चाहता है, वह चाहे भ्रमित हो परन्तु अपने कल्याण हेतु जिज्ञासा अवश्य करेगा, ऐसी ही जिज्ञासा अर्जुन ने करी है | अर्जुन की जिज्ञासा को तथा परमार्थ मार्ग को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

श्रीभगवानुवाच :

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ |
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते || (५/२)

संन्यासः कर्म योगः च निःश्रेयसकरौ उभौ |
तयोः तु कर्म संन्यासात् कर्म योगः विशिष्यते || (५/२)

संन्यासः(संन्यास),  कर्म(कर्म),  योगः(योग),(और),  निःश्रेयसकरौ(निःसंदेह श्रेयस्कर हैं), उभौ(यह दोनों) | तयोः(उन दोनों में), तु(परन्तु), कर्म(कर्म), संन्यासात्(संन्यास से), कर्म(कर्म), योगः(योग), विशिष्यते(विशेष रूप से श्रेष्ठ है) | (५/२)

संन्यास और कर्म यह दोनों योग निःसंदेह श्रेयस्कर हैं, परन्तु उन दोनों में कर्मसंन्यास से कर्मयोग विशेष रूप से श्रेष्ठ है | (५/२)

संन्यासयोग अर्थात् सांख्यदर्शन के अनुरूप योग का आचरण, जिसके लिये योगेश्वर ने कहा था कि दुसरे ब्रह्म अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन करते हैं |(४/२५,उ०) दुसरे ब्रह्म अग्नि में यज्ञ के द्वारा अर्थात् अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् के अनुरूप ‘बौद्धिक’ ब्रह्मज्ञान द्वारा, सांख्यदर्शन के अनुसार, तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप सर्वत्र परमात्मा तत्त्व के दर्शनरूप ‘यज्ञ का हवन’ अर्थात् कामनाओं और आसक्तियों से रहित होकर ज्योति स्वरूप दिव्यरूप परमात्मातत्त्व का ध्यान करते हैं | तथा
कर्मयोग अर्थात् दुसरे योगयुक्त पुरुष अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण के मतानुसार योग का आचरण करनेवाले योगीजन दैवम् यज्ञम्; ‘यज्ञ’ अर्थात् कामना और आसक्तिरहित होकर देवतओं का पूजन करते हैं |(४/२५,पु०) आसुरी सम्पदा के विनाश हेतु दैवी सम्पदा का अर्जन और संचय करते हैं | अपने गुणों का, स्वभाव का उर्ध्वमुखी उत्थान करते हैं | कर्म में निष्ठा रखने वाले पुरुष जो जन्म जन्मान्तरों से देवतओं का पूजन सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिये करते रहे थे, वे अब योगेश्वर श्रीकृष्ण के मतानुसार परमार्थ हेतु इन्ही देवतओं का पूजन कामना और आसक्ति रहित होकर निष्काम भाव से करते हैं | यही योगेश्वर श्रीकृष्ण का कर्मयोग है |

योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस प्रकार संन्यास में, सांख्य में निष्ठा रखते वाले और कर्म में, योगेश्वर के मत में निष्ठा रखने वाले यह दोनों योग निःसंदेह श्रेयस्कर हैं, मुक्ति का साधन हैं | परन्तु उन दोनों में अर्थात् जो अर्जुन की जिज्ञासा है, कर्मसंन्यास और योग में क्या श्रेयस्कर है ? इस पर योगेश्वर कहते हैं कि कर्मसंन्यास से कर्मयोग ‘विशिष्यते’ विशेष रूप से श्रेष्ठ है, क्योंकी कर्मयोग परमार्थ का साधन है और इसके विपरीत कर्मसंन्यास एक कुरीति है | त्याग के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए त्याग के संदर्भ चार प्रचलित मतों का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण (१८/३,पु०) में कहते हैं कि कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि सभी कर्म दोषयुक्त हैं; अतः त्याग देने योग्य हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने वहां भी इस मत को नकारते हुए कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप ये तीन प्रकार के कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं, इन्हें तो करना ही चाहिये क्योंकी यह तीनों ही पुरूषों को पवित्र करने वाले हैं अर्थात् परमार्थ का, आत्मज्ञान का साधन हैं |(१८/५)

यहाँ मनन करने को है कि जब योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कर्मसंन्यास के संदर्भ में कुछ भी नहीं कहा, तब अर्जुन को कर्मसंन्यास का ध्यान कहाँ से आया ? वस्तुतः जैसी कुरीतियाँ आज है, वैसी रहनी कृष्णकाल में भी थी | भगवे वस्त्र पहन, कमण्डल हाथ में लिये, विभूति लगाये नगरों और तीर्थस्थलों में भिक्षान्न और द्रव्यदान पर जीवन निर्वाह करता तथाकथित संन्यासी आज भी है, कृष्णकाल में भी था | ये तथाकथित संन्यासी ना तो जीवन निर्वाह को कोई कर्म करता है और ना ही जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु योग का आचरण | इनमें से कुछ तो तंत्र मंत्र और  सांसारिक कर्मकाण्डों के ज्ञाता हो जाते हैं और कुछ रामायण, भागवत आदि ग्रन्थों को कंठस्थ कर लोगों को उपदेश देते फिरते हैं | ये साधुजन ना तो जीवन निर्वाह को कर्म करते हैं, ना जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु यज्ञार्थ कर्मों का आचरण अपितु अंधविश्वास से भरे जनसमुदाय के दान पर भोग करते हैं | ऐसा समाज ही कर्मसंन्यास का पक्षधर होता है | योगेश्वर श्रीकृष्ण का अर्जुन के प्रति यह गीता शास्त्र रूपी उपदेश कर्मसंन्यास से नहीं अपितु यज्ञार्थ कर्मों से, योग से सम्बंधित है, निष्ठा आपकी कि आप इस योग का आचरण संन्यास अर्थात् सांख्य दृष्टि से करते हैं अथवा योगेश्वर के मतानुसार कर्मयोग का, कृष्णयोग का आचरण करते हैं | इसी को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं | कि

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासि यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति |
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते || (५/३)

ज्ञेयः स नित्य संन्यासी यः न द्वेष्टि न काङ्क्षति |
निर्द्वन्द्वः हि महाबाहो सुखम् बन्धात् प्रमुच्यते || (५/३)

ज्ञेयः(समझने योग्य है), सः(वह),  नित्य(नित्य), संन्यासी(संन्यासी), यः(जो),(न), द्वेष्टि(द्वेष करता है),(न), काङ्क्षति(आकांक्षा करता है) | निर्द्वन्द्वः(द्वन्द्वों से मुक्त), हि(क्योंकी),  महाबाहो(महाबाहो),  सुखम्(सुखपूर्वक),  बन्धात्(बंधन से), प्रमुच्यते(पूर्णरूप से छुट जाता है) | (५/३)

जो ना द्वेष करता है, ना आकांक्षा रखता है, वह नित्य संन्यासी समझने योग्य है, क्योंकी महाबाहो ! द्वन्द्वों से मुक्त
पुरुष सुखपूर्वक बंधन से पूर्णरूपेण छुट जाता है | (५/३)

यहाँ बहुत ही ध्यान से मनन करने की आवश्यकता है क्योंकी यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कृष्णयोग के मौलिक रूप पर प्रकाश डाला है | गीता शास्त्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को सांख्यदर्शन के अनुसार, अव्यक्त ब्रह्म के प्रति परायण होकर, योग का आचरण करने के विपरीत, सदैव कर्मयोग का, कृष्णयोग का आचरण करने को कहते हैं, कृष्णयोग का आचरण अर्थात् सगुण साकार परमात्मा के परायण हो योग का आचरण | प्राणायाम परायण होने के लिये योगेश्वर अर्जुन को कहते हैं कि तू मत्परः, मदाश्रयः, मद्याजी, मद्भक्तः, मत्परायणः, मेरा अनन्य भक्त हो, मुझमें मन वाला हो, मेरे परायण हो, मुझको नमस्कार कर, ना कि सांख्यदर्शन, संन्यास मार्ग के अनुसार अव्यक्त ब्रह्म के परायण हो | परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्वयं अर्जुन को सर्वप्रथम सांख्य का ही उपदेश दिया और यह भी कहा कि इस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्म बंधन का नाश कर सकेगा | यही गीता शास्त्र का मौलिक रूप है कि आप सांख्यदर्शन के अनुसार जीवन निर्वाह करें और योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहे अनुसार समबुद्धि से युक्त होकर योग का आचरण करें, प्राणायाम परायण होएं |
                                                                                                    
परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार आप अपने ईष्ट के परायण हो लाख प्रयत्न करें, अपने ईष्ट के सामर्थ्य के प्रति कितने ही तर्क और युक्तियाँ दें, जन्म जन्मान्तर तक प्राणायाम परायण होने का प्रयत्न करें, किसी भी मंत्र का जाप लाखों की संख्या में करे, कैसा भी सात्विक आचरण करें, कितना भी यज्ञ, दान और तप करें परन्तु परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति दुर्लभ है | क्योकि योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार प्राणायाम परायण होने के लिये सांख्यदर्शन में कहे बौद्धिक ज्ञान का आचरण आवश्यक है, अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् (१३/११) के अनुरूप बौद्धिकज्ञान द्वारा, सांख्य दर्शन के अनुसार, तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप सर्वत्र परमात्मा तत्त्व के दर्शन करना आवश्यक है | इसी के अनुरूप योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता शास्त्र में तत्त्वदर्शी महापुरुषों द्वारा कहे ज्ञान का उपदेश अर्जुन के प्रति कई संदर्भो में कहा है | इस तथ्य को यहाँ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो ना द्वेष करता है, ना आकांक्षा अर्थात् जो समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर जीवन निर्वाह करता है और मेरे परायण हो योग का आचरण करता है, ऐसा कर्मयोगी नित्य संन्यासी समझने योग्य है, क्योंकी महाबाहो ! द्वन्द्वों से मुक्त पुरुष सुखपूर्वक बंधन से पूर्णरूपेण छुट जाता है |  

पुनः ध्यान दें कि कृष्णयोग केवल योग की एक विधिविशेष का आचरण ही नहीं है, कृष्णयोग का प्रसार बहुत व्यापक है | कृष्णयोग अर्थात् अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मुख्यतया गीता शास्त्र के अंतिम छह अध्याय कहे तथा कृष्णयोग अर्थात् तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्, सांख्यदर्शन के अनुसार, तत्त्वज्ञान के अर्थरूप सर्वत्र परमात्मा तत्त्व के दर्शन, इसी को स्पष्ट करने हेतु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मुख्यतया गीता शास्त्र के अध्याय सात से अध्याय बारह तक छह अध्याय कहे तथा कृष्णयोग अर्थात् प्राणायाम परायण होने की विधिविशेष का वर्णन जिसे योगेश्वर ने मुख्यतया दुसरे से छटे अध्याय तक कहा | इसी स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि   

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः |
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् || (५/४)

साङ्ख्य योगौ पृथक् बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः |
एकम् अपि आस्थितः सम्यक् उभयोः विन्दते फलम् || (५/४)

साङ्ख्य(सांख्यदर्शन), योगौ(योग को), पृथक्(पृथक), बालाः(बालबुद्धि वाले), प्रवदन्ति(कहते हैं),(न), पण्डिताः(पण्डित जन) | एकम्(एक में),  अपि(भी), आस्थितः(स्थित), सम्यक्(सम्यक रूप से), उभयोः(दोनों के), विन्दते(प्राप्त करता है), फलम्(फल को) | (५/४)

सांख्य और योग को ‘बालाः’ बालबुद्धि मनुष्य (ही) पृथक कहते हैं, ना कि पण्डितजन | एक में भी सम्यक रूप से स्थित (पुरुष) दोनों के फल को विदित करता है | (५/४)

योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट रूप से कह देते हैं कि ज्ञानयोग और कर्मयोग को बालबुद्धि मनुष्य ही पृथक कहते हैं, क्योंकी सांख्य के आचरण के बिना योग अधुरा है और योग के आचरण के बिना सांख्य अधुरा है | पण्डितजन अर्थात् अध्यात्मविषयक ज्ञान से ओतप्रोत बुद्धि ‘पंडा’ के अधिकारीजन, पण्डितजन सांख्य और योग को पृथक नहीं मानते, क्योंकी एक में भी सम्यक रूप से, पूर्णरूप से स्थित पुरुष दोनों के परिणाम परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त होता है | अतः परिणाम की दृष्टि से दोनों का समान रूप से आचरण आवश्यक है | इस तथ्य को और स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि   

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते |
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति || (५/५)

यत् साङ्ख्यै प्राप्यते स्थानम् तत् योगैः अपि गम्यते |
एकम् साङ्ख्यम् च योगम् च यः पश्यति स पश्यति || (५/५)

यत्(जो), साङ्ख्यै(सांख्यदर्शन के द्वारा), प्राप्यते(प्राप्त किया जाता है), स्थानम्(स्थान), तत्(वहाँ), योगैः(योग द्वारा), अपि(भी), गम्यते(जाया जाता है) | एकम्(एक), साङ्ख्यम्(सांख्य को),(और),  योगम्(योग को),(और), यः(जो), पश्यति(देखता है),सः(वही),  पश्यति(देखता है) | (५/५)

सांख्य द्वारा जो स्थान प्राप्त किया जाता है, योग द्वारा भी वहीं पहुँचा जाता है, जो सांख्य और योग को (प्राप्ति की दृष्टि से) एक देखता है, वही (यथार्थ) देखता है | (५/५)

जहाँ सांख्यदर्शन के अनुसार योग का आचरण करनेवाला पहुँचता है, वहीं कृष्णयोग परायण साधक पहुँचता है, अतः जो सांख्य और योग को प्राप्ति की दृष्टि से एक देखता है, वही यथार्थ देखता है | यह सभी योगेश्वर ने अर्जुन की जिज्ञासा का समाधान करने के लिये कहा | परन्तु कर्मसंन्यास को लेकर अर्जुन के मन में कोई भ्रम न रहे, भविष्य में कोई बुद्धिभेद ना उत्पन्न हो जाये, इसलिये कर्मसंन्यास को, संन्यास को, योग को और कृष्णयोग को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं | कि 

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः |
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति || (५/६)

संन्यासः तु महाबाहो दुःखम् आप्तुम् अयोगतः |
योग युक्तः मुनि ब्रह्म नचिरेण अधिगच्छति || (५/६)

संन्यासः(संन्यास),  तु(परन्तु),  महाबाहो(महाबाहो), दुःखम्(दुःखपूर्वक), आप्तुम्(प्राप्त होना), अयोगतः(योग के आचरण के बिना) | योग(योग), युक्तः(युक्त), मुनिः(मुनि), ब्रह्म(ब्रह्म में), नचिरेण(शीघ्र ही), अधिगच्छति(भलीभाँति जाता है) | (५/६)

परन्तु महाबाहो !  ‘अयोगतः’ योग के आचरण के बिना संन्यास की प्राप्ति दुखद है, योगयुक्त मुनि शीघ्र ही ब्रह्म में भलीभाँति समाहित हो जाता है | (५/६)

योग के आचरण के बिना संन्यास की प्राप्ति दुखद है | लगभग सभी व्याख्याकार योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस व्यक्तव्य का अभिप्राय यह कहते हैं, कि योग के आचरण के बिना संन्यास की प्राप्ति अर्थात् भगवत् प्राप्ति दुखकर है, दुख:प्रद है, कठिन है | परन्तु योगेश्वर का ऐसा अभिप्राय नहीं है | गीता शास्त्र एक विशुद्ध निवृति विषयक शास्त्र है, इस शास्त्र में किसी भी विधिविशेष से प्राप्ति अगर दुखद है तो इसका अभिप्राय है कि इस विधिविशेष से जो प्राप्ति है वह बंधनकारी है, आवागमन में हेतु है तथा जिस विधिविशेष से प्राप्ति सुखद है, उससे अभिप्राय यह है कि इस विधिविशेष से जो प्राप्ति है वह भगवत् प्राप्ति है, मुक्ति है, मोक्ष है | योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कह रहे हैं कि योग के आचरण के बिना संन्यास मार्ग से जो भी प्राप्ति है वह दुखद है, योग के आचरण के बिना संन्यास से मनुष्य केवल आवागमन को, माया के पाश को, कर्मबंधन को ही प्राप्त होता है | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यहाँ स्फटिकशिला की भांति स्पष्ट शब्दों में कहा है कि आपकी निष्ठा कोई भी हो, योग का आचरण आवश्यक है | इसी को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि योगयुक्त मुनि शीघ्र ही ब्रह्म में भलीभाँति समाहित हो जाता है | यहाँ योगेश्वर ने ‘मुनि’ और ‘ब्रह्म’ शब्द का उपयोग करा है, स्पष्ट है कि योगेश्वर सांख्ययोगी को संबोधित करके कह रहे हैं कि योगयुक्त अर्थात् योग का आचरण करता हुआ सांख्यदर्शन का अनुयायी शीघ्र ही ब्रह्म में भलीभाँति समाहित हो जाता है |     

इस प्रकार सांख्य के, ज्ञान के, संन्यास के, कर्म के, योग के, ज्ञानयोग और कर्मयोग के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन की जिज्ञासा का समाधान करते हैं और अब योगेश्वर अगले नौ श्लोकों में भिन्न भिन्न दृष्टान्तों से सांख्ययोग और कर्मयोग दोनों माध्यम से यज्ञार्थ कर्मों के आचरण को स्पष्ट करते हैं तत्पश्चात् (५/१६) में यज्ञार्थ कर्मों के आचरण स्वरूप प्राप्त आत्मज्ञान (४/३८) से परमात्मा को साक्षात् करने की महिमा का वर्णन करते हैं |  

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः |
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते || (५/७)

योग युक्तः विशुद्ध आत्मा विजित आत्मा जितेन्द्रियः |
सर्व भूतात्म भूतात्मा कुर्वन् अपि न लिप्यते || (५/७)

योग(योग), युक्तः(युक्त), विशुद्ध(विशुद्ध), आत्मा(अन्तकरण वाला), विजित(जीते हुए), आत्मा(अन्तकरण वाला), जितेन्द्रियः(जीती हुई इन्द्रियों वाला) | सर्व-भूतात्म(समस्त प्राणियों का स्वरूप), भूतात्मा(स्वयं का स्वरूप), कुर्वन्(करके), अपि(कभी),(नहीं), लिप्यते(लिप्त होता है) || (५/७)

योगयुक्त, जो इन्द्रियों और अन्तकरण को वश में कर विशुद्धात्मा हो गया है, समस्त प्राणियों का स्वरूप ही जिसका स्वरूप है, कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता | (५/७)

योगयुक्त अर्थात् जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने परिभाषित करा है कि ‘योग के अभ्यास से विशेषरूप से वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में भलीभाँति स्थित हो जाता है,उस काल में सम्पूर्ण कामनाओं से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त कहा जाता है | (६/१८) इस प्रकार योगयुक्त पुरुष जो इन्द्रियों और अन्तकरण को वश में करके विशुद्धात्मा हो गया है, अपने स्वरूप को पा गया है तथा समस्त प्राणियों का स्वरूप ही जिसका स्वरूप है, जिसके लिये योगेश्वर ने कहा था कि आत्मज्ञान को ज्ञात करके पुनः मोह को प्राप्त नहीं होओगे, निःशेष भाव से समस्त प्राणियों को स्वयं में देखोगे, उसके पश्चात् मुझमें | (४/३५) ऐसा योगयुक्त पुरुष कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता | योगेश्वर के कहने का सारांश यह कि योग से युक्त होकर, योगाभ्यास द्वारा चित्त को वश में करके, अपने स्वरूप को प्राप्त पुरुष को कर्म लिप्त नहीं करते |  
                                                                                                                                                                                                      
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् |
पश्यन्शृण्वन्स्पृशन्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वन्श्वसन् || (५/८)
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् || (५/९)

न एव किञ्चित् करोमि इति युक्तः मन्येत तत्त्व वित् |
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अश्नन् गच्छन् स्वपन् श्वसन् || (५/८)
प्रलपन् विसृजन् गृह्णन् उन्मिषन् निमिषन् अपि |
इन्द्रियाणि इन्द्रिय अर्थेषु वर्तन्ते इति धारयन् || (५/९)

(नहीं), एव(ही), किञ्चित्(कुछ भी), करोमि(करता हूँ), इति(ऐसा), युक्तः(युक्त), मन्येत(मानता है), तत्त्व(तत्त्व), वित्(विदित करने वाला)  | पश्यन्(देखता हुआ), शृण्वन्(सुनता हुआ), स्पृशन्(स्पर्श करता हुआ), जिघ्रन्(सूंघता हुआ), अश्नन्(खाता हुआ), गच्छन्(जाता हुआ), स्वपन्(स्वपन देखता हुआ), श्वसन्(श्वास लेता हुआ) | (५/८)
प्रलपन्(बोलता हुआ),  विसृजन्(त्यागता हुआ), गृह्णन्(ग्रहण करता हुआ), उन्मिषन्( आँखे खोलता हुआ) निमिषन्(मूँदता हुआ),  अपि(भी) | इन्द्रियाणि(इन्द्रियाँ), इन्द्रिय(इन्द्रियों के), अर्थेषु(विषय में), वर्तन्ते(बरत रही हैं), इति(ऐसी), धारयन्(धारणा वाला होता है) | (५/९)

‘युक्तः’ योग से युक्त (होकर) ‘तत्त्ववित’ परमतत्त्व को विदित करा (पुरुष) ‘इति मन्येत’ ऐसा मानता है (कि मैं) किंचित मात्र भी कुछ नहीं करता | देखता, सुनता, स्पर्श करता हुआ, सूँघता, खाता, जाता हुआ, स्वपन देखता, श्वास लेता, बोलता, त्यागता, ग्रहण करता, आँखे खोलता, मूँदता हुआ भी इन्द्रियाँ इन्द्रियों के अर्थों में बरत रही हैं, ऐसी धारणा वाला होता है | (५/८,९)  

‘युक्तः’ योग से युक्त ‘तत्त्ववित्त’ अर्थात् योग से युक्त  पुरुष जिसने परमतत्त्व को, आत्मज्ञान को विदित कर लिया है, वह ‘इति मन्येत’ ऐसा मानता है कि मैं किंचित मात्र कुछ भी नहीं करता | वह देखता, सुनता, स्पर्श करता हुआ, सूँघता, खाता, जाता हुआ, स्वपन देखता, श्वास लेता, बोलता, त्यागता, ग्रहण करता, आँखे खोलता, मूँदता हुआ भी इन्द्रियाँ इन्द्रियों के अर्थों में बरत रही हैं, ऐसी धारणा वाला होता है | तात्पर्य यह कि योगयुक्त तत्त्ववित्त महापुरुष स्वयं तो समस्त कामनाओं का उलंघन कर गया होता है, वह तो इन्द्रियों और इन्द्रियों के विषयों से अतीत हो गया होता है परन्तु प्रारब्धवश प्राप्त शरीर का समभाव से जीवन निर्वाह करता हुआ ऐसा मानता है कि वह इस शरीर निर्वाह को जो कुछ भी करता दिखाई पड़ता है, वह स्वयं कुछ नहीं करता अपितु इन्द्रियाँ इन्द्रियों के अर्थों में बरत रही हैं | आत्मज्ञान की प्राप्ति के कारण ऐसे पुरुष कर्मों से लिप्त नहीं होते | एक और दृष्टान्त के माध्यम से योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि    
                                                                                                                                                                                                                                                                     
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः |
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा || (५/१०)

ब्रह्मणि आधाय कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा करोति यः |
लिप्यन्ते न स पापेन पद्म् पत्रम् इव अम्भसा || (५/१०)

ब्रह्मणि(ब्रह्म में),  आधाय(अर्पण करके), कर्माणि(कर्मों को), सङ्गम्(आसक्ति का), त्यक्त्वा(त्यागकर), करोति(करता है), यः(जो) | लिप्यन्ते(लिप्त होता है),(नहीं), सः(वह), पापेन(पाप से), पद्म्(कमल के), पत्रम्(पत्ते की), इव(सदृश्य)  अम्भसा(जल के द्वारा) | (५/१०)

जो आसक्ति का त्याग करके, कर्मों को ब्रह्म में अर्पण करता है, वह जल के द्वारा कमल के पत्ते के सदृश्य लिप्त नहीं होता है | (५/१०)
                      
जो आसक्ति का त्याग करके तात्पर्य यह कि अभी साधक है, आसक्ति का सर्वथा त्याग हुआ नहीं है परन्तु आसक्ति का त्याग करके कर्मों को ब्रह्म में अर्पण करता है अर्थात् जिसके समस्त कर्म ईष्ट को समर्पित होते हैं, वह योग का भलीभाँति आचरण करता है, वह भी कर्मों से लिप्त नहीं होता | यहाँ योगेश्वर उदाहरणार्थ कहते हैं कि जैसे जल के द्वारा कमल का पत्ता लिप्त नहीं होता उसी प्रकार वह कर्मों से लिप्त नहीं होता |

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि |
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये || (५/११)

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैः इन्द्रियैः अपि |
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गम् त्यक्त्वा आत्म शुद्धये || (५/११)

कायेन(शरीर से), मनसा(मन से), बुद्ध्या(बुद्धि द्वारा), केवलैः(केवल), इन्द्रियैः(इन्द्रियों से), अपि(भी) | योगिनः(योगीजन), कर्म(कर्म),  कुर्वन्ति(करते हैं), सङ्गम्(आसक्ति), त्यक्त्वा(त्यागकर), आत्म(आत्म), शुद्धये(शुद्धि के लिये) | (५/११)

योगीजन केवल शरीर, मन, बुद्धि (और) इन्द्रियों द्वारा भी आसक्ति का त्याग करके आत्म शुद्धि के लिये कर्म करते
हैं | (५/११)

योगीजन अर्थात् वे पुरुष जो योगयुक्त हैं, परन्तु स्थितप्रज्ञता की स्थिति को प्राप्त नहीं हैं, ऐसे पुरुष मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा आसक्ति का त्याग करके, कर्मफल की लालसा का त्याग करके केवल आत्म शुद्धि के लिये ही कर्म करते हैं | तात्पर्य यह कि यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करते हैं | इन नौ श्लोकों में ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण योगयुक्त पुरुष की निष्ठा का, सांख्य अथवा कर्म निष्ठा का उपदेश नहीं दे रहे हैं अपितु योग के स्वरूप को स्पष्ट कर रहे हैं और यहाँ जो योगेश्वर के उपदेशों का आधार है उसमे कर्म के त्याग का नहीं अपितु ‘कर्म सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये’ रूपी तत्त्व आधार रूप से है | इसी को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण आगे कहते हैं | कि
  
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् |
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते || (५/१२)

युक्तः कर्म फलम् त्यक्त्वा शान्तिम् आप्नोति नैष्ठिकीम् |
अयुक्तः काम कारेण फले सक्तः निबध्यते || (५/१२)

युक्तः(युक्त पुरुष), कर्म(कर्म), फलम्(फल को), त्यक्त्वा(त्यागकर), शान्तिम्(शान्ति को), आप्नोति(प्राप्त होता है), नैष्ठिकीम् (पराकाष्ठा) | अयुक्तः(अयुक्त पुरुष), काम(कामनाओं), कारेण(के कारण), फले(फल में), सक्तः(असक्त हो), निबध्यते(बँध जाता है) | (५/१२)

युक्त पुरुष कर्मफल को त्यागकर ‘नैष्ठिकीम् शान्तिम्’ (अर्थात् निष्ठायां भवाम् शान्तिम्; अपनी सांख्य अथवा कर्म निष्ठा के अनुसार) शान्ति को प्राप्त होता है | अयुक्त कामनाओं के कारण फल में आसक्त होकर बँधता है | (५/१२)                        
युक्त पुरुष अर्थात् जैसा अभी (५/७) में योगेश्वर द्वारा कही ‘युक्त’ की परिभाषा से जाना, ऐसा युक्त पुरुष कर्मफल को त्यागकर नैष्ठिकीम् शान्तिम्’; निष्ठायां भवाम् शान्तिम्, अपनी सांख्य अथवा कर्म निष्ठा के अनुसार शांति को प्राप्त होता है | यह शांति योगयुक्त पुरुष की वह स्थिति है जिसके लिये योगेश्वर ने कहा था कि पार्थ ! यह ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त करके (पुरुष) कभी मोहित नहीं होता, इसमें स्थित होकर अन्तकाल में भी ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होता है | (२/७२) तात्पर्य यह कि ‘नैष्ठिकीम् शान्तिम्’ को, योग की पराकाष्ठा को प्राप्त करने के लिये कर्मफल में आसक्ति का त्याग अनिवार्य है | एक अन्य दृष्टान्त देते हुए योगेश्वर कहते हैं | कि

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी |
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् || (५/१३)

सर्व कर्माणि मनसा संन्यस्य आस्ते सुखम् वशी |
नव द्वारे पुरे देही न एव कुर्वन् न कारयन् || (५/१३)

सर्व(समस्त), कर्माणि(कर्मों का), मनसा(मन से), संन्यस्य(त्याग करके), आस्ते(रहता है), सुखम्(सुखपूर्वक), वशी(संयमी) | नव(नौ), द्वारे(द्वारों वाले), पुरे(नगर में), देही(देही),(न), एव(ही) कुर्वन्(करता हुआ),(नहीं), कारयन्(कृत्य) | (५/१३)

संयमी समस्त कर्मों का मन से त्याग करके सुखपूर्वक रहता है, नवद्वार रूपी नगर में देही न कुछ करता है, ना कराता है | (५/१३)   

नवद्वार रूपी नगर अर्थात् दो कान, दो नेत्र, दो नासिका छिद्र, एक मुख, उपस्थ एवं पायु रूपी पुर में जो निवास करता है, वह पुरुष है | तात्पर्य यह कि देह में रहनेवाला देही जो ‘वशी’ रूप से स्थित हो जाता है, वशी अर्थात् जिसने अन्तकरण वश में कर रखा है और जो इन्द्रियों के संधात अर्थात् मन में उठनेवाले समस्त संकल्प विकल्प रूपी काम्य कर्मों का त्याग करके स्वरूपानंद में आसीन हो रहता है, स्वरूपानंद अर्थात् अपने स्वरूप में आनन्दपूर्वक रहता है, वह ना कुछ करता है, ना करवाता है, अर्थात् उसका कोई भी कर्म बंधनकारी नहीं रहता | यह वशी पुरुष ना कुछ करता है, ना करवाता है, तब इसकी रहनी कैसी होती है ? योगेश्वर श्रीकृष्ण इस वशी पुरुष की रहनी को ब्रह्म में स्थित पुरुष की रहनी से तुलना करते हुए उसे प्रभु और विभु कहते हुए, कहते हैं | कि
    
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः |
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते || (५/१४)
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः |
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः || (५/१५)

न कर्तृत्वम् न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः |
न कर्म फल संयोगम् स्वभावः तु प्रवर्तते || (५/१४)
न आदत्ते कस्यचित् पापम् न च एव सुकृतम् विभुः |
अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानम् तेन मुह्यन्ति जन्तवः || (५/१५)

(नहीं), कर्तृत्वम्(कर्तापन को),(नहीं), कर्माणि(कर्मों को), लोकस्य(मनुष्यों के), सृजति(रचता है), प्रभुः(प्रभु) | न(नहीं), कर्म(कर्म), फल(फल), संयोगम्(संयोग को), स्वभावः(स्वभाव), तु(परन्तु), प्रवर्तते(प्रवृत होता है) | (५/१४)
(नहीं), आदत्ते(ग्रहण करता है), कस्यचित्(किसी के), पापम्(पापकर्म को),(नहीं),(और),  एव(ही), सुकृतम्(पुन्यकर्मों को), विभुः(विभु) | अज्ञानेन(अज्ञान से), आवृतम्(आवृत हुआ), ज्ञानम्(ज्ञान के), तेन(उससे), मुह्यन्ति(मोग ग्रस्त होते हैं), जन्तवः(समस्त जीव) | (५/१५)

प्रभु मनुष्यों के न कर्तापन को, न कर्मों को, न कर्मफल के संयोग को रचता है, अपितु स्वभाव बरतता है | (५/१४)
विभु न किसी के पापकर्म को और न ही पुण्यकर्म को ग्रहण करता है, अज्ञान के द्वारा ज्ञान आवृत है, उससे समस्त
जीव मोहग्रस्त हो रहे हैं | (५/१५)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यह व्यक्तव्य एक सिद्धांत रूप से कहा है कि परमतत्त्व परमात्मा मनुष्यों के न कर्तापन को, न कर्मों को, न कर्मफल के संयोग को रचता है, अपितु स्वभाव बरतता है | इसी प्रकार नवद्वार रूपी पुर में रहनेवाला वशी ना कर्तापन में, ना कर्मों में और ना ही कर्मफल में आसक्त होता है, इसलिये उसके द्वारा किसी भी कर्मफल की रचना नहीं होती, क्योंकी वह ‘इति मन्येत’ यह मानता है कि इन्द्रियाँ इन्द्रियों के अर्थ में बरत रही हैं और गुण गुणों में बरत रही हैं अर्थात् स्वभाव बरत रहा है | इस प्रकार इस वशी पुरुष की रहनी स्थितप्रज्ञ पुरुष की रहनी होती है और यही ब्रह्म में स्थित पुरुष की स्थिति है | तथा

यह दूसरा व्यक्तव्य भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सिद्धांत रूप से ही कहा है कि परमतत्त्व परमात्मा न किसी के पापकर्म को ग्रहण करता है और न ही पुण्यकर्म को ग्रहण करता है | यही इस वशी पुरुष की रहनी है, यह समस्त कर्म कामना और आसक्तिरहित करता है, इसके कर्म बंधनकारी नहीं होते अर्थात् वे न पुण्यकर्म होते हैं और न ही पापकर्म, वह कर्मों के परिणाम से अतीत होता है | अन्य समस्त जीव इस प्रकार की रहनी क्यों नहीं कर पाते ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अज्ञान के द्वारा ज्ञान आवृत है, उससे यह समस्त जीव मोहग्रस्त हो रहे हैं | यह अज्ञान और ज्ञान क्या है ? इसका स्पष्टीकरण योगेश्वर श्रीकृष्ण सांख्यदर्शन से करते हुए (१३/७) से (१३/११) तक कहते हैं कि बौद्धिक ज्ञान के साधन में अमानित्व आदि नौ गुणों का आचरण तो ज्ञान है, जो इसके विपरीत है, वह अज्ञान है | परन्तु जो ज्ञान पुरुष को पवित्र करता है, उस ज्ञान की महिमा योगेश्वर ने आत्मज्ञान के रूप में श्लोक संख्या (४/३८) में करी थी | वहाँ योगेश्वर कहते हैं कि निःसंदेह इस लोक में इस ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला अन्य कुछ विद्यमान नहीं है, ‘तत्स्वयं’ उस ज्ञान को तू स्वयं ‘योग संसिद्धः कालेन’ जब योग सिद्ध होगा उस काल में ‘आत्मनि विन्दति’ स्वयं में ही पायेगा | (४/३८) और योगेश्वर का यहाँ अज्ञान से ज्ञान आवृत है, ऐसा कहने का अभिप्राय भी यही है कि योग के आचरण के बिना ज्ञान की प्राप्ति दुखद है, असंभव है | इस आत्मज्ञान की महिमा का बखान करते हुए योगेश्वर कहते हैं | कि
                                                
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः |
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् || (५/१६)

ज्ञानेन तु तत् अज्ञानम् येषाम् नाशितम् आत्मनः |
तेषाम् आदित्यवत् ज्ञानम् प्रकाशयति तत्परम् || (५/१६)

ज्ञानेन(ज्ञान के द्वारा), तु(परन्तु), तत्(उस), अज्ञानम्(अज्ञान का), येषाम्(जिन्होंने), नाशितम्(नाश कर दिया है), आत्मनः (स्वयं के) | तेषाम्(उनका), आदित्यवत्(सूर्य की भाँति), ज्ञानम्(ज्ञान को), प्रकाशयति(प्रकाशित करता है), तत्परम् (उस परम तत्त्व परमात्मा) | (५/१६)

परन्तु जिन्होंने उस ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश कर दिया है, उनका सूर्य की सदृश्य (वह) ज्ञान परमतत्त्व परमात्मा को प्रकाशित करता है | (५/१६)

पूर्व श्लोक के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, उसी अज्ञान से समस्त जीव मोहित हो रहे हैं | इससे आगे कहते हैं कि परन्तु मेरे मतानुसार योग का आचरण करके जिसने ज्ञान को, आत्मज्ञान को प्राप्त कर लिया है और उस ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश कर दिया है | उनका सूर्य के सदृश्य वह ज्ञान परमतत्त्व परमात्मा को प्रकाशित करता है | तो क्या परमात्मा कहीं अन्धकार में रहते हैं, जिन्हें प्रकाशित कर पाया जाता है ? ऐसा नहीं है, वस्तुतः हम ही गहन अंधकार में पड़े हैं, हमें कुछ भी सूझता, कुछ भी नहीं दिखाई देता, माया के पाश से बंधे पशुवत सा जीवन व्यतीत करते हैं | परन्तु योगेश्वर के मतानुसार योग का आचरण कर जब यह ज्ञान विदित होता है, तब अज्ञान का अंधकारमय आवरण हटता है और तब हम सर्वव्यापी परमतत्त्व परमात्मा को देख पाते हैं, साक्षात् कर पाते हैं | पुनः इस ज्ञान की महिमा का बखान करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः |
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः || (५/१७)

तत् बुद्धयः तत् आत्मानः तत् निष्ठाः तत् परायणाः |
गच्छन्ति अपुनः आवृत्तिम् ज्ञान निर्धुत कल्मषाः || (५/१)

तत्(उसमें), बुद्धयः(बुद्धि वाले), तत्(उसमें), आत्मानः(अन्तकरण वाले), तत्(उसमें), निष्ठाः(निष्ठावान), तत्(उसके) परायणाः(परायण) | गच्छन्ति(जाते हैं), अपुनः-आवृत्तिम्(आवागमन को नहीं), ज्ञान(ज्ञान से), निर्धुत(शुद्ध किये गये), कल्मषाः(पापों को) | (५/१)

ज्ञान के द्वारा पापरहित होकर उसमें (परमतत्त्व परमात्मा में) बुद्धि, उसमें अन्तकरण, उसमें ही निष्ठा और उसके ही परायण होकर पुनः आवागमन को नही जाते हैं | (५/१७)

अध्यात्मविद्या से नहीं, ब्रह्मविद्या से नहीं, किसी भी शास्त्र रूपी ज्ञान से नहीं अपितु जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि इस ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला कुछ भी नहीं है, योग की पराकाष्ठा को प्राप्त होकर उस आत्मज्ञान की प्राप्ति के द्वारा पवित्र होकर, पापरहित होकर तथा पूर्व श्लोक में कहे अनुसार परमतत्त्व परमात्मा को साक्षात् करके जब मन, बुद्धि और निष्ठा उसी परमात्मा से तद्रूप हो जाती है, एकीभाव हो जाती है | तब वह पुरुष आवागमन से मुक्त हो जाता है | यही परमगति, परमधाम, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण का चित्रण है | तथा ऐसा पुरुष    

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः || (५/१८)

विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
शुनि च एव श्वपाके च पण्डिताः सम दर्शिनः || (५/१८)

विद्या(विद्या), विनय(विनय), सम्पन्ने(संपन्न), ब्राह्मणे(ब्राह्मण में), गवि(गाय में), हस्तिनि(हाथी में) | शुनि(कुत्ते में),(और), एव(ही), श्वपाके(कुत्ताभक्षी चाण्डाल में),(और), पण्डिताः(पण्डित जन), सम(सम), दर्शिनः(देखनेवाले) | (५/१८)

पण्डितजन विद्याविनय सम्पन्न ब्राह्मण में, गाय में, हाथी में, कुत्ते में और कुत्ताभक्षी चाण्डाल में ही समदर्शी होते हैं | (५/१८)

जिस आत्मज्ञान के द्वारा परमतत्त्व परमात्मा को साक्षात् किया जाता है, जिस आत्मज्ञान से परमतत्त्व परमात्मा से एकीभाव हुआ जाता है, उस आत्मज्ञान से युक्त बुद्धि का नाम ‘पंडा’ है और ऐसी बुद्धि को धारण करनेवाला पण्डित | ऐसे पण्डित की दृष्टि में विद्याविनय संपन्न ब्राह्मण ना कोई विशेषता रखता है, ना चंडाल कोई हीनता, ना गाय धर्म का अभिप्राय है, ना कुत्ता अधर्म का और ना ही हाथी की विशालता कोई विशेषता है | पण्डित के लिये यह सभी प्रकृतिजन्य गुणों के पाश से बंधे मोहित जीव हैं, आवागमन को प्राप्त जीव हैं | परन्तु समस्त प्राणी उसी परमतत्त्व परमात्मा के सनातन अंश हैं तथा यह पण्डित उस समष्टि परमात्मा के व्यष्टि रूप आत्मा का प्रसार ही इन समस्त प्राणियों में देखता है | यही उस पण्डित का समदर्शिन स्वरूप है, समभाव, समबुद्धि, समदृष्टि है | पण्डित के इसी स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः |
  निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः || (५/१९)

इह एव तैः जितः सर्गः येषाम् साम्ये स्थितम् मनः |
निर्दोषम् हि समम् ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः || (५/१९)

इह(इस लोक में), एव(ही), तैः(उनके द्वारा), जितः(जीता गया), सर्गः(जन्म मृत्यु चक्र), येषाम्(जिनका), साम्ये(समभाव में), स्थितम्(स्थित है), मनः(अन्तकरण) | निर्दोषम्(दोषरहित), हि(क्योंकी), समम्(सम है), ब्रह्म(ब्रह्म), तस्मात्(इसलिये), ब्रह्मणि(ब्रह्म में), ते(वे), स्थिताः(स्थित हैं) | (५/१९)

जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस लोक (देह) में ही ‘सर्गः’ जन्ममृत्यु रूपी संसार चक्र जित लिया गया है | क्योंकी ब्रह्म दोषरहित सम है इसलिये वे ब्रह्म में स्थित हैं | (५/१९)

जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस लोक (देह) में ही ‘सर्गः’ जन्ममृत्यु रूपी संसार चक्र जित लिया गया है | मन का प्रसार ही जगत है | जब मन ही समभाव में स्थित हो जाये, पूर्व श्लोक में पण्डित की तरह समदर्शी हो जाये, निर्दोष हो जाये तब मन का प्रसार नहीं रहता, यह जगत नहीं रहता, सर्वत्र केवल उसी परमतत्त्व परमात्मा का ही प्रसार शेष रहता है | यही उस पण्डित का इस देह के रहते ही जन्ममृत्यु रूपी संसार चक्र जितना है | यहाँ इस महापुरुष का मन भी सम और निर्दोष है और ब्रह्म भी सम और निर्दोष है | अतः ऐसे महापुरुष का मन ब्रह्म से एकीभाव होने के कारण, उसकी रहनी भी ब्रह्ममय है | ऐसे ब्रह्ममय पुरुष के अन्य लक्षणों पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् |
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः || (५/२०)

न प्रहृष्येत् प्रियम् प्राप्य न उद्विजेत् प्राप्य च अप्रियम् |
स्थिर बुद्धिः असम्मूढः ब्रह्म वित् ब्रह्मणि स्थितः || (५/२०)

(नहीं), प्रहृष्येत्(हर्षित होता है), प्रियम्(प्रिय को), प्राप्य(प्राप्त करके),(नहीं), उद्विजेत्(उद्विग्न होता है), प्राप्य(प्राप्त करके),(और), अप्रियम्(अप्रिय को) | स्थिर, बुद्धिः(स्थितप्रज्ञ), असम्मूढः(मोहरहित), ब्रह्म(ब्रह्म), वित्(विदित करनेवाला), ब्रह्मणि(ब्रह्म में),  स्थितः(स्थित है) | (५/२०)

प्रिय को पाकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को पाकर उद्विग्न नहीं होता, मोहरहित स्थिरबुद्धि ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म में स्थित है | (५/२०)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि अज्ञान के द्वारा ज्ञान आवृत है,उसी अज्ञान से समस्त जीव मोहित ही रहे हैं अर्थात् प्रिय को पाकर हर्षित होते हैं और अप्रिय को पाकर उद्विग्न होते हैं, परन्तु मोहरहित, स्थिरबुद्धि पुरुष अर्थात् जिसका वह अज्ञान ज्ञान के द्वारा नष्ट हो गया है, ऐसा ब्रह्मवेत्ता पुरुष जिसने ब्रह्म को, अपने स्वरूप को, आत्मज्ञान को पा लिया है, वह सदैव ब्रह्म में स्थित है | ऐसा पुरुष प्रिय को पाकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को पाकर उद्विग्न नहीं होता, वह योगेश्वर के उपदेशों का सत रूप में आचरण करनेवाला होता है, जैसा योगेश्वर श्री कृष्ण ने कहा था कि जय-पराजय में, लाभ-हानि में और सुख-दुःख में मन एवं बुद्धि को सम करके, उसके बाद युद्ध में लग जा, इस प्रकार पाप को प्राप्त नहीं होगा | (२/३८) इसलिये वह न हर्षित होता है, न उद्विग्न |
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् |
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते || (५/२१)
बाह्य स्पर्शेषु असक्त आत्मा विन्दति आत्मनि यत् सुखम् |
सः ब्रह्म योग युक्त आत्मा सुखम् अक्षयम् अश्नुते || (५/२१)

बाह्य, स्पर्शेषु(इन्द्रियों और विषयों के संयोग वियोग में), असक्त(अनासक्त), आत्मा(पुरुष), विन्दति(विदित करता है), आत्मनि(स्वयं में), यत्(जो), सुखम्(सुख को) | सः(वह), ब्रह्म(ब्रह्म से), योग(योग द्वारा) युक्त(युक्त), आत्मा(पुरुष), सुखम्(सुख को), अक्षयम्(अक्षय), अश्नुते(अनुभव करता है) | (५/२१)

इन्द्रियों और विषयों के संयोग वियोग में अनासक्त पुरुष स्वयं में जो सुख विदित कर लेता है, वह ब्रह्म से योग द्वारा युक्त पुरुष अक्षय आंनद को अनुभव करता है | (५/२१)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि कौन्तेय ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख देनेवाले इन्द्रियों और विषयों के संयोग-वियोग तो आने-जाने वाले, अनित्य हैं | भारत ! उनको सहन करो | (२/१४) क्योंकि पुरुष श्रेष्ठ ! सुख-दुःख में सम रहने वाले जिस धीर पुरुष को यह व्यथित नहीं करते, वह अमृत की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१५) इसी तथ्य को यहाँ स्पष्ट करते हुए पुनः कहते हैं कि ‘बाह्य स्पर्शेषु’ इन्द्रियों और विषयों के सांसारिक संयोग वियोग में अनासक्त पुरुष स्वयं में जो सुख, अमृततत्त्व विदित कर लेता है, वह ब्रह्म से योग द्वारा युक्त अर्थात् ब्रह्म से युक्त होने को एक मात्र उपाय योग ही है, इस प्रकार ब्रह्म से योग द्वारा युक्त पुरुष अक्षय आनंद को अनुभव करता है | अक्षय आनंद अर्थात् वह आनंद जिसका कभी क्षय नहीं होता, ऐसा आनंद को, अमृततत्त्व को अनुभव करता है | यह अक्षय आनंद स्वयं में ही अनुभव किया जाता है, बाह्य स्पर्शों में, इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग में यह सुख नहीं होता, इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि  

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते |
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः || (५/२२)

ये हि संस्पर्श जाः भोगा दुःख योनयः एव ते |
आदि अन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः || (५/२२)

ये(जो), हि(क्योंकी), संस्पर्श(इन्द्रियों और विषयों के संयोग वियोग से), जाः(उत्पन्न होनेवाले) भोगा(समस्त भोग), दुःख(दुःख), योनयः(स्त्रोत), एव(ही), ते(वे) | आदि(आदि), अन्तवन्तः(अन्तवाले), कौन्तेय(कौन्तेय),(नहीं), तेषु(उनमें), रमते(रमण करते हैं), बुधः(बुद्धिमान पुरुष) | (५/२२)

क्योंकी इन्द्रियों और विषयों के संयोग वियोग से उत्पन्न, वे आदि अन्तवाले समस्त भोग दुःख के ही स्त्रोत हैं, कौन्तेय ! बुधः पुरुष उनमें रमण नहीं करते | (५/२२)

‘संस्पर्शजा’ अर्थात् बहिर्मुखी इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के स्पर्श से, संयोग से उत्पन्न होने वाले बाह्य सुख, सांसारिक सुख आदि अन्त वाले हैं अर्थात् अक्षय नहीं है, एक रस नहीं हैं तथा दूसरा जब आदि अन्त वाले हैं तो निश्चय रूप से अगर शुरू में सुखरूप से भासते हैं तो अन्त में वियोग के कारण दुखकर भी होंगे | इसलिय बुद्ध पुरुष, जिनकी बुद्धि अब परमात्मा तत्त्व में समाहित हो चुकी है, ऐसे पुरुष उनमें रमण नहीं करते, बाह्य संस्पर्शजा में कभी आसक्त नहीं होते | क्योंकी ये भोग कामाग्नि को ही बड़ाते हैं, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि रजोगुण से उत्पन्न यह काम, यह क्रोध कभी तृप्त न होने वाले महापापी हैं, इस ज्ञान के विषय में इनको वैरी जान | (३/३७) जैसे धुएँ से अग्नि, मैल से दर्पण और गर्भाशय से गर्भ आवृत है, वैसे काम और क्रोध से यह ज्ञान आवृत है | (३/३८) अपने इसी सन्देश को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं | कि  
  
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् |
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः || (५/२३)

शक्नोति इह एव यः सोढुम् प्राक् शरीर विमोक्षणात् |
काम क्रोध उद्भवम्वेगम् सः युक्तः सः सुखी नरः || (५/२३)
शक्नोति(समर्थ होता है), इह(इस लोक में), एव(ही), यः(जो), सोढुम्(सहन करने में), प्राक्(पहले), शरीर(शरीर), विमोक्षणात्(त्याग करने से) | काम(काम), क्रोध(क्रोध), उद्भवम्(उत्पन्न होनेवाले), वेगम्(वेह को), सः(वह), युक्तः(युक्त है), सः(वह), सुखी(सुखी),  नरः(नर है) | (५/२३)

जो इस लोक में शरीर त्याग करने से पहले काम, क्रोध से उत्पन्न होनेवाले वेग को सहने में समर्थ होता है, वह युक्त है, वह सुखी नर है | (५/२३)

वह युक्त है, वह सुखी नर है | सुखी अर्थात् अब योग से युक्त होने का जो परिणाम है, वह उस सुख का, मुक्ति का, मोक्ष का अधिकारी है | यहाँ सुख का वही अर्थ है जो पहले मनन करा था, सुख अर्थात् परमतत्त्व की प्राप्ति और दुःख अर्थात् संसारबंधन | योग से युक्त होने पर यह सुख कब उपलब्ध होता है ? जब योग से युक्त पुरुष अपने उत्थान करता हुआ, इस लोक में श्री में रहते हुए ही, शरीर त्याग से पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न होनेवाले वेग को सहने में समर्थ हो जाता है | वेग अर्थात् काम और क्रोध के वशीभूत यह इन्द्रियाँ बहुत ही प्रमथनशील स्वभाव की हो जाती हैं, जो इनके प्रवाह को, वेग को शरीर त्याग से पूर्व सहने में समर्थ हो जाता है, वह सुख का अधिकारी है | तात्पर्य यह की मुक्ति, मोक्ष अथवा निर्वाण जो भी कहें, उसका जीते जी ही, शरीर के रहते ही प्राप्ति का विधान है | इस वेग को सहनेवाले, स्वरुपस्थ महापुरुष के लक्षणों को योगेश्वर पुनः कहते हैं | कि

योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः |
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति || (५/२४)

यः अन्तः सुखः अन्तः आरामः तथा अन्तः ज्योतिः एव यः |
सः योगी ब्रह्म निर्वाणम् ब्रह्म भूतः अधिगच्छति || (५/२४)

यः(जो), अन्तः(अंतरात्मा में), सुखः(सुखवाला), अन्तः(अंतरात्मा में), आरामः(रमण करनेवाला), तथा(तथा), अन्तः (अंतरात्मा में) ज्योतिः(ज्योति वाला), एव(ही), यः(जो) | सः(वह), योगी(योगी), ब्रह्म(ब्रह्म), निर्वाणम्(निर्वाण को), ब्रह्म(ब्रह्म), भूतः(प्राणी), अधिगच्छति(भलीभाँति जाता है) | (५/२४)

जो अंतरात्मा में सुखवाल, अंतरात्मा में स्थित तथा जो अंतरात्मा में ज्योतिवाला है, वह योगी ब्रह्मभूत हुआ, ब्रह्म निर्वाण को भलीभाँति जाता है | (५/२४)

वह योगी ब्रह्मभूत हुआ, कौन योगी ? जो अंतरात्मा में, स्वयं में ही सुख वाला अर्थात् स्वयं में अमृततत्त्व का पान करनेवाला, स्वयं में स्थित अर्थात् स्वस्वरूप में उसकी स्थिति, उसकी बुद्धि स्थिर है और स्वयं में ही ज्योतिवाला अर्थात् आत्मज्ञान से जिसके समस्त पापों का क्षय हो गया है, ऐसा योगी ब्रह्मभूत हुआ, ब्रह्ममय हुआ भलीभाँति ब्रह्म निर्वाण को अर्थात् शरीर त्याग के उपरान्त आवागमन को नहीं अपितु ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होता है | ब्रह्म निर्वाण अर्थात् अव्यक्त ब्रह्म का वह अव्यक्त, अचिन्त्य, अकथनीय धाम जिसको वाणी कह सकने में असमर्थ है, उस स्थान को, परमधाम को प्राप्त होता है | इसी को और स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं | कि
                                                                                  
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः |
छिन्नद्वैधाः यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः || (५/२५)

लभन्ते ब्रह्म निर्वाणम् ऋषयः क्षीण कल्मषाः |
छिन्न द्वैधाः यत् आत्मानः सर्व भूत हिते रताः || (५/२५)

लभन्ते(प्राप्त करते हैं), ब्रह्म(ब्रह्म), निर्वाणम्(निर्वाण को), ऋषयः(ऋषिजन), क्षीण(भलीभाँति नष्ट), कल्मषाः(पाप) | छिन्न(निवृत होकर), द्वैधाः(द्वन्द्वों से), यत्(जिसका), आत्मानः(अन्तकरण), सर्व(समस्त), भूत(प्राणियों), हिते(कल्याणकारी हित में), रताः(लगा है) | (५/२५)

जिनके पाप भलीभाँति नष्ट हो गये हैं, अन्तकरण द्वन्द्वों से निवृत हो गया है, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत है,
ऐसे ऋषिजन ब्रह्म निर्वाण का लाभ उठाते हैं | (५/२५) 

जिनके पाप भलीभाँति नष्ट हो गये हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं (४/१९), सर्वं कर्माखिलं ज्ञाने परिसमाप्यते (४/३३) , ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते | (४/३७) तात्पर्य यह कि जो पुरुष योग के आचरण द्वारा आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है, उसके समस्त पुन्य ही नहीं, पाप भी, समस्त कर्मबंधन नष्ट हो जाता हैं तथा जिसका अन्तकरण द्वंदों से निवृत हो गया है, अर्थात् जो समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करता हुआ कोई भी नवीन कर्म बंधन उत्पन्न नहीं करता क्योंकी द्वंदों से निवृत हो गया है, जिसके लिये योगेश्वर ने कहा था कि जय पराजय में, लाभ-हानि में और सुख-दुःख में मन एवं बुद्धि को सम करके, उसके बाद युद्ध में लग जा, इस प्रकार पाप को, नवीन कर्मबन्धन को प्राप्त नहीं होगा | (२/३८) तथा जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं अर्थात् जैसा योगेश्वर ने कहा था कि राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करते हुए ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं और प्राप्ति के पश्चात् भी जहाँ कार्यं कर्मों को करने से ना कोई लाभ है तथा ना करने से कोई हानि, फिर भी लोक संग्रह को विचार करते हुए कार्यंकर्मों को करने योग्य ही मानते थे | लोक संग्रह अर्थात् प्रजा की उल्टे मार्ग में जाने वाली प्रवृति के निवारण रूप कार्यंकर्मों के आचरण को ही योग्य माना है | अर्थात् जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं, ऐसे ऋषिजन ब्रह्म निर्वाण का लाभ उठाते हैं | एक और दृष्टान्त से योगेश्वर इसी तथ्य को पुनः स्पष्ट करते हैं |
                        
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् |
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् || (५/२६)

काम क्रोध विमुक्तानाम् यतीनाम् यत् चेतसाम् |
अभितः ब्रह्म निर्वाणम् वर्तते विदित आत्मनाम् || (५/२६)

काम(काम), क्रोध(क्रोध), विमुक्तानाम्(सर्वथा रहित), यतीनाम्(यत्नशील पुरुष), यत्(जिनका), चेतसाम्(संयम चित्त है) | अभितः(सब प्रकार से), ब्रह्म(ब्रह्म), निर्वाणम्(निर्वाण को), वर्तते(परिपूर्ण है) विदित(विदित कर लिया है), आत्मनाम्(स्वयं को, अपने स्वरूप को) | (५/२६)

काम, क्रोध से रहित, यत्नशील पुरुष जिनका संयमित चित्त है, जिन्होंने स्वयं को विदित कर लिया है, (वे) सब प्रकार से ब्रह्म निर्वाण से परिपूर्ण हैं | (५/२६)

योगेश्वर श्रीकृष्ण बार बार अर्जुन के प्रति समभाव, समबुद्धि से युक्त जीवन निर्वाह को तथा योग से युक्त जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु योगपरायण साधक की रहनी का चित्रण कर रहे हैं क्योंकी अर्जुन ने अपने कल्याण हेतु योगेश्वर को उपदेश देने की विनती करी थी | योगेश्वर कहते हैं कि जिस यत्नशील पुरुष, योग परायण पुरुष का चित्त वश में है, जिसने काम और क्रोध का त्याग कर दिया है, जिसने अपने स्वरूप को विदित कर लिया है, वह सब प्रकार से ब्रह्म निर्वाण से परिपूर्ण है, परिपूर्ण अर्थात् अब उस यत्नशील पुरुष की परमगति संशय रहित है | यह यत्नशील पुरुष किस प्रकार योग से युक्त होकर ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त करता है, इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
                        
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः |
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ || (५/२७)
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः |
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः || (५/२८)

स्पर्शान् कृत्वा बहिः बाह्यान् चक्षुः च एव अन्तरे भ्रुवोः |
प्राण अपानौ समौ कृत्वा नास अभ्यन्तर चारिणौ || (५/२७)
यत् इन्द्रिय मनः बुद्धिः मुनिः मोक्ष परायणः |
विगत इच्छा भय क्रोधः यः सदा मुक्तः एव सः || (५/२८)


स्पर्शान्(इन्द्रियों और विषयों के संयोग वियोग को), कृत्वा(करके), बहिः(बाहर करके), बाह्यान्(बाहरी), चक्षुः(नेत्रों को),
(और), एव(ही), अन्तरे(मध्य में), भ्रुवोः(भौहों के) | प्राण(प्राणवायु), अपानौ(अपानवायु), समौ(सम), कृत्वा(करके), नास(नासिका में), अभ्यन्तर(भीतर), चारिणौ(चलनेवाले) | (५/२७)
यत्(जिसकी), इन्द्रिय(इन्द्रियाँ), मनः(मन), बुद्धिः(बुद्धि), मुनिः(मुनि), मोक्ष(मोक्ष), परायणः(परायण) | विगत(सर्वथा रहित), इच्छा(कामना), भय(भय), क्रोधः(क्रोध से), यः(जो), सदा(सदैव), मुक्तः(मुक्त है), एव(ही), सः(वह) | (५/२८)

बाह्य स्पर्शों को बाहर करके और नेत्रों को भौहों के मध्य में ही करके, नासिका के भीतर चलनेवाली प्राणवायु और अपानवायु को सम करके, जो मोक्ष परायण जितेन्द्रिय पुरुष इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित है, वह मुनि सदा ही मुक्त है | (५/२७,२८)

 बाह्यान् स्पर्शान् बहिः एव कृत्वा’; बाह्य स्पर्शों का, सांसारिक विषयों का इन्द्रियों, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी त्याग करके, सारांशतः बहिर्मुखी प्रवृति का त्याग करके, आत्मवान होने हेतु अन्तर्मुखी प्रवृति के उत्थान को योगेश्वर ने यह सन्देश दिया है | तथा

चक्षुः भ्रुवोः अन्तरे’; दायेंबायें - इधरउधर देखने का विधान नहीं है, नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के मध्य स्थित करके, इस प्रकार सीधा सामने देखने से नेत्र स्वतः ही आधे बंद और आधे खुले रह जाते हैं अन्यथा खुले नेत्रों से बाह्य जगत के विषय अन्दर प्रवेश करते हैं अथवा बंद नेत्रों से मन के जगत का प्रसार हो जाता है इसलिये चक्षुः भ्रुवोः अन्तरे का विधान है | अधखुले नेत्रों से न तो बाहरी जगत के विषय सरलता से भीतर प्रवेश पा सकते हैं और न ही मन के जगत का प्रसार हो पाता है | ऐसी अवस्था में अभ्यास स्वरूप दृष्टि स्वतः ही अपने से एक हाथ आगे पड़ती है और वहाँ अपने ईष्ट सम्बन्धी, आराध्य सम्बन्धी वस्तु, पदार्थ अथवा विग्रह पाकर ध्यान केन्द्रित होने लगता है | चक्षुः भ्रुवोः अन्तरे से योगेश्वर का यही सन्देश है |

नास अभ्यन्तर चारिणौ प्राण अपानौ समौ कृत्वा’ नासिका द्वारा विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जैसा योगेश्वर ने (४/२९) में स्पष्ट करा था कि प्राणवायु वह श्वास है जिसे हम ग्रहण करते हैं और अपानवायु वह प्रश्वास है जिसे हम त्यागते हैं | स्थितप्रज्ञ पुरूषों की अनुभूति है कि हम श्वास के साथ संकल्प अर्थात् सांसारिक विषयों को ग्रहण करते हैं और प्रश्वास के साथ भीतर इन संकल्पों को उठने देते हैं, विषयों की प्राप्ति को विकल्प तैयार करते हैं | बाहरी किसी भी संकल्प को, विषय को ग्रहण ना करना अपानवायु में प्राणवायु का हवन है और भीतर भी इन विषयों से व्यथित ना होना प्राणवायु में अपानवायु का हवन कारण है | इसकी प्राप्ति हेतु श्वास प्रश्वास के साथ हृदयस्थ ईष्ट के नामजप का विधान है | कर्म में निष्ठा रखने वाले साधक अपने सगुण साकार ईष्ट का नामजप करते हैं और सांख्य निष्ठा में आस्था रखने वाले ब्रह्मास्मि इत्यादि जप करते हैं | इस नामजप के लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘यज्ञानाम् जपयज्ञोऽस्मि (१०/२५) सब प्रकार के यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूँ और जैसा योगेश्वर पूर्व में कह आये हैं कि सर्वव्यापी परमतत्त्व परमात्मा सर्वदा यज्ञ में ही प्रतिष्ठित है | (३/१५उ०) इसलिये नामजप रूपी यज्ञ ही परमात्मा को प्राप्त करने की विधि है | अतः स्पष्ट है कि श्वास प्रश्वास का यह हवन, प्राणायाम परायण होना ही परमात्मा को साक्षात् करने की विधि है |
      
इसी विधिविशेष का पालन करनेवाला मोक्षपरायण जितेन्द्रिय साधक अर्थात् जिसने योगाभ्यास द्वारा इन्द्रियों को वश में कर लिया है तथा इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा रहित है | वह मुनि सदा ही मुक्त है, तात्पर्य यह कि मुक्ति की प्राप्ति जीते जी ही करने का विधान है, जो जीते जी देह मुक्त नहीं हुआ, वह मोक्ष को नहीं अपितु देहान्तर को प्राप्त होता है | देह मुक्त हुआ साधक ही अमृततत्त्व का पान करता हुआ, आत्मज्ञान को प्राप्त कर परमतत्त्व परमात्मा को साक्षात् करता हुआ, ब्रह्म में स्थित होकर, ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होता है |

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यहाँ योग परायण साधक को जिस यज्ञ और तप का निर्देश दिया है, इस के आचरण स्वरूप योग परायण साधक किस प्रकार ब्रह्म को, शान्ति को प्राप्त होता है, इस पर योगेश्वर कहते हैं | कि      
    
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् |
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति || (५/२९)

भोक्तारम् यज्ञ तपसाम् सर्व लोक महा ईश्वरम् |
सुहृदम् सर्व भूतानाम् ज्ञात्वा माम् शान्तिम् ऋच्छति || (५/२९)

भोक्तारम्(भोगनेवाला), यज्ञ(यज्ञ), तपसाम्(तप का) सर्व(समस्त), लोक(लोक), महा(महान), ईश्वरम्(ईश्वर) | सुहृदम् (सुहृदय), सर्व(समस्त), भूतानाम्(प्राणियों का), ज्ञात्वा(ज्ञात करके), माम्(मुझको) शान्तिम्(शांति को), ऋच्छति(प्राप्त हो जाता है) | (५/२९)
                                                                                                                                                            
मुझको सब यज्ञों, तपों का भोक्ता, सम्पूर्ण लोकों का महान ईश्वर, समस्त प्राणियों का सुहृदय ज्ञात करके शान्ति को प्राप्त हुआ जाता है | (५/२९)

समस्त प्राणियों का सुह्रदय अर्थात् योग परायण साधकों को संसार बंधन से मुक्ति दिलाने हेतु उनके हृदय में व्यष्टि रूप से आत्मा रूप में स्थित तथा इसी प्रकार समष्टि रूप से सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर अर्थात् व्यष्टि रूप आत्मा का समष्टि रूप प्रसार, मैं परमपिता परमात्मा ही योग परायण साधकों के यज्ञों और तपों का भोक्ता हूँ अर्थात् सभी यज्ञ और तप जिसमें विलय हो जाते हैं, वह मैं हूँ और इन यज्ञ और तप का परिणाम भी मैं हूँ, ऐसा जानकार योग परायण साधक, उपरोक्त श्लोक अनुसार देह मुक्त हुए साधक शांति को अर्थात् मुझको प्राप्त होता है |


योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस उपदेश के साथ ही गीता शास्त्र के पंचम अध्याय का समापन होता है |
                                                 






***** ॐ तत् सत् *****