Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

अध्याय ११

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** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
एकादशोऽध्यायः   
अर्जुन उवाच  

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् |
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम || (११/१)

मत् अनुग्रहाय परमम् गुह्यम् अध्यात्म संज्ञितम् |
यत् त्वया उक्तम् वचः तेन मोहः अयम् विगतः मम || (११/१)

मत्(मुझको), अनुग्रहाय(अनुग्रहित करने के किये), परमम्(परम), गुह्यम्(गोपनीय), अध्यात्म(अध्यात्म), संज्ञितम्(विषयक) | यत्(जो), त्वया(आपके द्वारा), उक्तम्(कहे गये), वचः(उपदेश), तेन(उससे), मोहः(मोह), अयम्(यह), विगतः(चला गया है), मम(मेरा) | (११/१)

मुझको अनुग्रहित करने के लिये आपके द्वारा जो परम गोपनीय अध्यात्म विषयक उपदेश कहे गये, उनसे मेरा यह मोह चला गया है | (११/१)

यहाँ अर्जुन द्वारा कहे इस व्यक्तव्य में दो तथ्य गीता शास्त्र को समझने हेतु बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं, प्रथम यह कि अर्जुन कहता है कि ‘मुझको अनुग्रहित करने के लिये’ तात्पर्य यह कि अर्जुन ने योगेश्वर श्रीकृष्ण से निवेदन किया था कि ‘शिष्यः ते अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम्’, (२/७) उस निवेदन को स्वीकार करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को लाभकारी नहीं, प्रेय स्वरूप नहीं अपितु कल्याणकारी, श्रेय स्वरूप परमार्थ का जो साधन कहा और अर्जुन ने बिना किसी ‘पूर्वाग्रह’ के उन उपदेशों को ‘अनुग्रहपूर्ण’ सुना, इस कारण ‘अनुग्रहित’ हुआ, यहाँ ध्यान रहे कि बिना पूर्वाग्रह के सुने गये उपदेशों से ही साधक अनुग्रहित होता है अन्यथा पूर्वाग्रह या पुर्वाज्ञान से बंधा साधक अनुग्रहित नहीं हो सकता |  

दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि अर्जुन कहता है कि आपके द्वारा जो परम गोपनीय अध्यात्म विषयक उपदेश कहे गये, उनसे मेरा यह मोह चला गया | ध्यान रहे कि जिसका भी मोह योगेश्वर श्रीकृष्ण के परम गोपनीय अध्यात्म विषयक उपदेशों द्वारा नष्ट हो जाता है, वही अनुग्रहित होता है और उस साधक के लिये गीता शास्त्र ज्ञान मार्ग नहीं होता, कर्म मार्ग नहीं होता, ध्यान मार्ग नहीं होता, भक्ति मार्ग नहीं होता, उसके लिये तो गीता शास्त्र अध्यात्म विषयक होता है, उसके लिये गीता शास्त्र अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र विषयक है | क्योंकी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘स्वभावः अध्यात्मम् उच्यते’ (८/३) स्वभाव ही अध्यात्म कहलाता है, प्रकृति से तादाम्य के कारण, प्रकृतिजन्य सत, रज और तम भावों और उनके कार्यरूप गुणों के कारण अन्तकरण में स्थित मनुष्य का भावों से ओतप्रोत होना ही मनुष्य का स्वभाव है, यह स्वभाव वस्तुतः परमतत्त्व परमात्मा के ‘परंभाव’ का विकृत रूप है | मनुष्य का यह स्वभाव ही परिणाम में ब्रह्म स्वरूप है और जो विद्या इस स्वभाव को ज्ञात कराती है, उसे अध्यात्मविद्या कहते हैं, यह विद्या ही ब्रह्म तत्त्व को साक्षात् कराती है इसलिये इसे ब्रह्मविद्या भी कहते हैं, तात्पर्य यह कि प्रकृतिजन्य भाव और उनके कार्यरूप गुण परिवर्तनशील हैं, मनुष्यों के प्रयास स्वरूप इनका उत्कर्ष अपकर्ष होता ही रहता है और जो पुरुष परमात्मा के आश्रय होकर, योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार योगपरायण होते हैं, यज्ञार्थ कर्मों के आचरण स्वरूप उनके ‘स्व-भाव’ का उर्ध्वमुखी उत्थान होता है और अंततः परिणाम स्वरूप उन्हें  ‘परं-भाव’ की, परमात्मा तत्त्व की प्राप्ति होती है | इस परमभाव की प्राप्ति हेतु ज्ञान, यज्ञार्थ कर्म, ध्यान और भक्ति इत्यादि साधन मात्र हैं, साध्य तो केवल मनुष्य का स्व-भाव है जो परिणाम में परमभाव, परमब्रह्म ही है तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मोहरूपी दलदल और सुनेसुनाये शास्त्रीय मतभेदों से विचलित बुद्धि दोनों को ही परमार्थ मार्ग में विघ्न माना है | (२/५२,५३) यहाँ अर्जुन ने मोह रूपी दलदल तो पार कर ली है अर्थात वैराग्य को तो प्राप्त हो गया है और गीता शास्त्र के अन्त में जब अर्जुन पुनः कहता है कि ‘नष्टो मोहः स्मृतिः लब्धा’ (१८/७३) उस मोह का नाश तो यहाँ हो गया है परन्तु ‘स्मृतिः लब्धा’ अर्थात् (२/५३) में कहे अनुसार ‘समाधौ’ की स्थिति अर्जुन को अन्त में प्राप्त होती है | गीता शास्त्र का यह और (१८/७३) में अर्जुन का व्यक्तव्य ही अर्जुन की मनोदशा का दर्पण है और मेरे अनुभव में उसी दर्पण से हमें अपनी यात्रा को भी देखना चाहिये, गीता शास्त्र को अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र विषयक ही मानकर इसका अध्ययन करना चाहिये, इसमें ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग अथवा भक्तियोग नहीं खोजना चाहिये |

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतो विस्तरशो मया |
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् || (११/२)
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर |
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम || (११/३)

भव अप्ययौ हि भूतानाम् श्रुतौ विस्तरशः मया |
त्वतः कमल-पत्र-अक्ष माहात्म्यम् अपि च अव्ययम् || (११/२)
एवम् एतत् यथा आत्थ त्वम् आत्मानम् परम् ईश्वर |
द्रष्टुम् इच्छामि ते रूपम् ऐश्वरम् पुरुषोत्तम || (११/३)

भव(उत्पत्ति), अप्ययौ(प्रलय), हि(क्योंकी), भूतानाम्(प्राणियोंका), श्रुतौ(सुना गया है), विस्तरशः(विस्तारपूर्वक), मया (मेरे द्वारा)  त्वतः(आपसे), कमल-पत्र-अक्ष(कमलनयन), माहात्म्यम्(महिमा), अपि(भी), (और), अव्ययम्(अविनाशी) | (११/२)
एवम्(इस प्रकार), एतत्(यह), यथा(जैसा), आत्थ(कहा है), त्वम्(आपने), आत्मानम्(अपने को), परम्(परम), ईश्वर (ईश्वर) | द्रष्टुम्(देखने की), इच्छामि(इच्छा करता हूँ), ते(आपके), रूपम्(रूप को), ऐश्वरम्(ऐश्वर्य को), पुरुषोत्तम(पुरुषोत्तम) | (११/३)

क्योंकी कमलनेत्र ! आपसे मैंने प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने और (आपकी) अविनाशी महिमा भी (सुनी) | (११/२)
परमेश्वर ! आपने अपने को जैसा कहा (कि) यह इस प्रकार है | पुरुषोत्तम ! आपके रूप को, ऐश्वर्य को देखने की इच्छा करता हूँ | (११/३)

योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों में अर्जुन ने स्वयं योगेश्वर से ही परमेश्वर की, पुरुषोत्तम की अविनाशी महिमा और दिव्य विभूतियों का गुणगान सुना और जब स्वयं योगेश्वर ही साक्षात् उपस्थित हों तो किसको उनके योग सामर्थ्य और ऐश्वर्य को देखने की इच्छा न होगी ! यह इच्छा अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण के समक्ष रखता हुआ कहता है | कि 

मन्यसे यदि तच्छ्कयं मया द्रष्टुमिति प्रभो |
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् || (११/४)

मन्यसे यदि तत् शक्यम् मया द्रष्टुम् प्रभो |
योग ईश्वर ततः मे त्वम् दर्शय आत्मानम् अव्ययम् || (१/४)

मन्यसे(मानते हैं), यदि(यदि), तत्(वह), शक्यम्(संभव है), मया(मेरे द्वारा), द्रष्टुम्(देखा जाना),  प्रभो(सर्वसामर्थ्य भगवन्) | योग(योग), ईश्वर(ईश्वर), ततः(तब), मे(मुझे), त्वम्(आप), दर्शय(दिखाएँ), आत्मानम् (स्वयं), अव्ययम्(अविनाशी) | (१/४)

प्रभु ! यदि मेरे द्वारा वह (अविनाशी रूप और आपकी महिमा) देखा जाना संभव मानते हैं, तब योगेश्वर ! आप अपना अविनाशी स्वरूप दर्शाएँ | (११/४) 

प्रभु तात्पर्य यह कि आप सर्व सामर्थ्य स्वामी हैं, अगर आप कृपया करें और यदि मेरे द्वारा वह अर्थात् जैसा आपने स्वयं की महिमा, अविनाशी स्वरूप और योग सामर्थ्य को कहा है, वह देखा जाना संभव है, तब योगेश्वर अर्थात् जो स्वयं तो योग सामर्थ्य का ईश्वर हो तथा दुसरों को भी योग प्रदान करने की क्षमता रखता हो, वह योगेश्वर है | इसलिये अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण से निवेदन करता है कि अगर आपका अविनाशी स्वरूप का, आपकी विभूतियाँ का मेरे द्वारा देखा जाना संभव है तो कृपया उस स्वरूप को दर्शायें | गीता शास्त्र का यह अध्याय उपदेशात्मक ना होकर, दृष्टान्त रूप से है, इस अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना जो रूप दिखाते हैं, उन रूपों का चित्रण है, इसलिये जहाँ आवश्यक नहीं होगा, वहां हम मनन नहीं करेंगे, आवश्यक तथ्यों पर ही मनन होगा | 
श्रीभगवानुवाच

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्त्रशः |
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च || (११/५)

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशः अथ सहस्त्रशः |
नाना विधानि दिव्यानि नाना वर्ण आकृतीनि च || (११/५)

पश्य(देख), मे(मेरे), पार्थ(पार्थ), रूपाणि(रूपों को), शतशः(सैंकड़ो), अथ(तथा), सहस्त्रशः(हजारों) | नाना(अनेक), विधानि (प्रकार के), दिव्यानि(दिव्य), नाना(अनेक), वर्ण(रंग), आकृतीनि(आकृति),(और) | (११/५)

पार्थ ! मेरे सैंकड़ो और हजारों अनेक प्रकार के, अनेक रंगों और अनेक आकृति वाले दिव्य रूपों को देख | (११/५)

अब ही ३३कोटि देवी देवतओं की मान्यता हो, ऐसा नहीं है, कृष्ण काल में ऐसी ही मान्यताएं रही होंगी, इसलिये ही तो योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि मेरे सैकडों और हजारों, अनेक प्रकार के, अनेक रंगों और अनेक आकृति वाले दिव्य रूपों को देख | परन्तु आत्ममाया में स्थित अक्षरं परं ब्रह्म तो अव्यक्त, अचिन्त्य, निराकार रूप है, उसके सैकड़ो और हजारों, अनेक प्रकार के, अनेक रंगों के और अनेक आकृति वाले दिव्य रूप कहाँ से आये ? वस्तुतः योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ अपने जिन दिव्य रूपों को कह रहे हैं, वह आत्ममाया, योगमाया में स्थित अक्षरं परं ब्रह्म के रूप नहीं अपितु दैवीमाया के सांसारिक देवी देवताओं के रूप है, इसलिये ही तो सैकड़ो और हजारों हैं, अनेक प्रकार के हैं, अनेक रंगों के हैं, अनेक आकृतियों वाले हैं, सांसारिक मान्यताओं पर आधारित हैं | वस्तुतः ये सब रूप जैसे विष्णु रूप, सूर्य देव का रूप, चन्द्र देव का रूप, शिव रूप आदि उसी अक्षरं परं ब्रह्म की विभूतियाँ हैं जो योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व अध्याय में कह आये है और उन्ही को देखने का निवेदन अर्जुन ने किया है | अन्यथा अव्यक्त, अचिन्त्य, निराकार रूप का क्या रूप ? अतः यह स्पष्ट हुआ कि योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने जो भी रूप अर्जुन को दिखा रहे हैं, वे सब उस अक्षरं परं ब्रह्म की विभूतियाँ ही हैं, सांसारिक देवी देवताओं के रूप ही हैं | क्योंकी यह सभी रूप सांसारिक मान्यता प्राप्त देवी देवताओं के तो हैं परन्तु उस विश्वेश्वर के, उस विराट के ही रूप हैं, इसीको अक्षरं परं ब्रह्म का विश्वरूप, विराटरूप भी कहते हैं | इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं | कि   

पश्यादित्यान्वसूंरुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा |
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत || (११/६)

पश्य आदित्यान् वसून् रुद्रान् अश्विनौ मरुतः तथा |
बहूनि अदृष्ट पूर्वाणि पश्य आश्चर्याणि भारत || (११/६)

पश्य(देख), आदित्यान्(आदित्यों), वसून्(वसुओं), रुद्रान्(रुद्रों), अश्विनौ(अश्वनीकुमारों), मरुतः(मरुतों), तथा(तथा) | बहूनि (अनेकों), अदृष्ट(न देखे हुए), पूर्वाणि(पूर्व में), पश्य(देख), आश्चर्याणि(आश्चर्यों को) भारत(भारत) | (११/६)

भारत ! आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्वनीकुमारों, मरुतों तथा अनेकों पूर्व में न देखे हुए आश्चर्यों को देख | (११/६)

परमात्मा की विभूतियों को जो स्वरूप दैवीमाया में प्राप्त है, उन रूपों को योगेश्वर श्रीकृष्ण आश्चर्य कहते हैं क्योंकी ये सभी रूप उस अव्यक्त, अचिन्त्य, निराकार अक्षरं परं ब्रह्म के मानुषी परन्तु काल्पनिक रूप हैं इसलिये ये सब योगेश्वर की दृष्टि से मानुषी कल्पना का आश्चर्य ही है | योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को कहते हैं कि आदित्यों को अर्थात् समस्त बारह आदित्यों को, जिसमें विष्णु नामक विभूति मेरा ही रूप है उन आदित्यों को देख तथा आठों वसुओं को देख, जिसमें पावकः मेरी ही विभूति है | ग्यारह रुद्रों को देख, जिसमे शंकर मैं हूँ, दोनों अश्वनीकुमारों को भी देख तथा उनचास मरुतों को भी देख, जिसमे मरीचि अर्थात् तेज मेरा ही रूप है और पूर्व में न देखे हुए आश्चर्यों को देख | तात्पर्य यह कि यह वे देवी देवता हैं जिन्हें कोटि का कहते हैं, इनके अन्यत्र भी मेरी विभूतियों के अनन्त रूप हैं, उन सभी आश्चर्यों को देख | यहाँ ३३कोटि के देवी देवताओं को भी समझ लें तो अच्छा है, वस्तुतः मेरे अनुभव में दैवीमाया में कहे ३३कोटि देवी देवताओं से ३३करोड़ देवी देवता नहीं अपितु ३३कोटि के अर्थात् श्रेष्ठ देवी देवताओं को संबोधित किया गया है जिसमें १२आदित्य, ११रूद्र, ८ वसु और दो अश्वनीकुमार हैं अर्थात् १२+११+८+२=३३कोटि के देवी देवता हैं, ३३कोटि देवी देवता हैं तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण का अर्जुन को यह कहना कि इन्हें देख, यही योगेश्वर श्रीकृष्ण का विश्वरूप है, विश्वमूर्ते रूप है, विराटरूप है | यह सब योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहाँ दिखा रहे हैं, उसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं | कि        

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् |
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि || (११/७)

इह एक स्थम् जगत् कृत्स्नम् पश्य अद्य स चर अचरम् |
मम देहे गुडाकेश यत् च अन्यत् द्रष्टुम् इच्छसि || (११/७)

इह(इस), एक(एक), स्थम्(स्थान में), जगत्(जगत), कृत्स्नम्(सम्पूर्ण), पश्य(देख), अद्य(अब),(सहित), चर(चर), अचरम् (अचर) | मम(मेरी), देहे(देह में), गुडाकेश, यत्(जो),(और), अन्यत्(अन्य), द्रष्टुम्(देखना), इच्छसि(चाहतेहो) | (११/७)

गुणाकेश ! और (भी) जो अन्य देखना चाहते हो, अब इस एक मेरी देह में स्थित चर अचर सहित सम्पूर्ण जगत को देख | (११/७)   

और भी जो अन्य देखना चाहता है अर्थात् जो मैं दिखा रहा हूँ वह तो ठीक है, परन्तु तेरे मन में कुछ अन्यत्र भी देखने की इच्छा हो, तो सोच भर ले, अन्तर्यामी रूप से स्थित मैं तेरे मन को जान जाऊँगा और तू जो भी देखना चाहता है, वह दिखाऊंगा | कहा दिखाऊंगा ? इस पर कहते हैं कि मेरी इस देह में ही चर अचर सहित सम्पूर्ण जगत को देख | तात्पर्य यह कि केवल यही सब देवी देवता ही नहीं अपितु यह समस्त चर अचर जगत उसी एक परमतत्त्व परमात्मा का विस्तार है, देवी देवता नाम की कोई सत्ता तो होती नहीं, मानुषी आस्था है, जहाँ स्थिर हो जाये, वही देवीदेवता है, उसी परमात्मा का रूप है तथा प्राणियों की यह देह भी नाशवान है परन्तु देही अवध्य है, इसलिये जो भी देखना चाहता है, वह देख, सभी मेरा ही विस्तार है इसलिये मेरी ही देह में देख | वस्तुतः योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ जो कह रहे हैं, यही योगेश्वर का योग सामर्थ्य है, इसीको स्पष्ट करते हुए कहते हैं | कि 

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा |
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् || (११/८)

न तु माम् शक्यसे द्रष्टुम् अनेन एव स्व चक्षुषा |
दिव्यम् ददामि ते चक्षुः पश्य मे योग ऐश्वरम् || (११/८)

(न), तु(परन्तु), माम्(मुझको), शक्यसे(संभव है), द्रष्टुम्(देखना), अनेन(इन), एव(ही), स्व(स्वयं), चक्षुषा(नेत्रोंसे) | दिव्यम् (आलौकिक), ददामि(देता हूँ),  ते(तुझको), चक्षुः(नेत्र), पश्य(देख), मे(मेरे), योग(योग), ऐश्वरम्(ऐश्वर्य को)| (११/८)

परन्तु इन स्वयं के नेत्रों से मुझको देखना संभव नहीं है, तुझको दिव्य नेत्र देता हूँ, मेरा योग ऐश्वर्य देख | (११/८)

परन्तु इन देह चक्षुओं से मुझको देखना संभव नहीं, तब अर्जुन अब तक किस को देख रहा था, किससे संवाद कर रहा था ? यहाँ देह चक्षुओं से मुझको देखना संभव नहीं, ऐसा कहने से तात्पर्य यह है कि देह चक्षुओं से मेरे योग सामर्थ्य को, योग ऐश्वर्य को देखना संभव नहीं है इसलिये मैं तुझको दिव्य नेत्र, दिव्य दृष्टि देता हूँ और यह भी मेरा योग ऐश्वर्य है, स्पष्ट है कि जो स्वयं योग को प्राप्त हो और दूसरों को भी योग देने का सामर्थ्य रखता हो, वही योगेश्वर है, योग का भी ईश्वर है | इस दिव्य दृष्टि से ही अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण के योग सामर्थ्य को, योग ऐश्वर्य को देखने की, योगेश्वर की विभूतियों को देखने की क्षमता प्राप्त करता है | यही क्षमता संजय को भगवन् वेद व्यास ने प्रदान की थी, जिसके कारण संजय यह श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद देख और सुन पा रहा है तथा इस संवाद को और इसके पश्चात् कुरुक्षेत्र के युद्ध की समीक्षा वह राजा धृतराष्ट्र को करता है, यहाँ संजय राजा धृतराष्ट्र को संबोधित करता हुआ कहता है |  

सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः |
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् || (११/९)

एवम् उक्त्वा ततः राजन् महा योग ईश्वरः हरिः |
दर्शयामास पार्थाय परमम् रूपम् ऐश्वरम् || (११/९)

एवम् (ऐसा), उक्त्वा (कहकर), ततः (तत्पश्चात्), राजन् (राजन), महा (महान), योग (योग), ईश्वरः (ईश्वर), हरिः (हरी) | दर्शयामास (दिखलाया), पार्थाय (पार्थ को), परमम् (परम), रूपम् (रूप), ऐश्वरम् (ऐश्वर्य) | (११/९)

राजन ! ऐसा कहकर, उसके पश्चात् महायोगेश्वर हरी ने पार्थ को परम ऐश्वर्य रूप दर्शाया | (११/९)

राजन अर्थात् हे राजा धृतराष्ट्र ! ऐसा कहकर अर्थात् योगेश्वर ने किया कुछ भी नहीं केवल योगेश्वर श्रीकृष्ण का कहना ही इतना सक्षम है कि अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी इसलिये संजय श्रीकृष्ण को महायोगेश्वर कहता है, तत्पश्चात् संजय और अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण की देह में जो देखते हैं उसके प्रति संजय कहता है कि हरी ने अर्थात् मनुष्य के समस्त पापों को हरने में सक्षम भगवन् ने पार्थ को परम ऐश्वर्य रूप दर्शाया | संजय का योगेश्वर श्रीकृष्ण को हरी कहने से तात्पर्य यह है कि अर्जुन अभी तक अपने समस्त पापों से मुक्त होकर, उस योग सामर्थ्य को प्राप्त नहीं हुआ है कि उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाये, परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण संकल्प मात्र से अर्जुन के पापों को हरते हुए उसे दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं, इसलिये यहाँ हरी संबोधन का प्रयोग हुआ |

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् |
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् || (११/१०)
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् |
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् || (११/११)

अनेक वक्त्र नेत्र अनेक अद्भुत दर्शनम् |
अनेक दिव्य आभरणम् दिव्य अनेक अद्यत आयुधम् || (११/१०)
दिव्य माल्य अम्बर धरम् दिव्य गन्ध अनुलेपनम् |
सर्व आश्चर्य मयम् देवम् अनन्तम् विश्वतः मुखम् || (११/११)

अनेक (अनेक), वक्त्र (मुख), नेत्र (नेत्र), अनेक (अनेक), अद्भुत (अद्भुत), दर्शनम् (दृश्य) | अनेक (अनेक), दिव्य (दिव्य), आभरणम् (आभूषण), दिव्य (दिव्य), अनेक (अनेक), अद्यत (उठाये हुए), आयुधम् (आयुद्य) | (११/१०)
दिव्य (दिव्य), माल्य (मालाएँ), अम्बर (वस्त्र), धरम् (धारण किये हुए), दिव्य (दिव्य), गन्ध (गंध), अनुलेपनम् (लेप किये हुए) | सर्व (सभी), आश्चर्य (आश्चर्य), मयम् (मय), देवम् (देव), अनन्तम् (अनन्त), विश्वतः (विश्व), मुखम् (मुख) | (११/११)

अनेक मुख, अनेक नेत्र, अद्भुत दर्शन, अनेक दिव्य आभूषण, अनेक दिव्य आयुद्य उठाये हुए | (११/१०)
दिव्य मालाएँ, वस्त्र धारण किये हुए, दिव्य गंध का लेप किये हुए, समस्त आश्चर्य मय विश्व रूप अनन्त देव | (११/११)

सर्व आश्चर्य मयम् देवम् अनन्तम् विश्वतः मुखम्’ तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण की देह में ही अर्जुन जो भी देखता है, वह आश्चर्यमय है, अनन्त देव अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण की देह में अनन्त देवों को देखता है, विश्वरूप अर्थात् विश्व में देवी देवताओं के जितने भी जाने पहचाने रूप हैं, उन विश्वरूप अनन्त देवों को अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण में ही देखता है, इसलिये अनेक मुख, अनेक नेत्र, अनेक दिव्य आभूषण, अनेक दिव्य आयुद्य, दिव्य मालाएँ, दिव्य वस्त्र धारण किये देखता है, दिव्य गंध का लेप किये हुए देखता है, परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने तो केवल दिव्य दृष्टि दी थी, यह दिव्य नासिका ? वस्तुतः दिव्य दृष्टि देने से तात्पर्य यह नहीं कि अर्जुन को केवल एक ऐसी दृष्टि मिली कि वो जो चाहे वो देखे अपितु इसका अर्थ है कि अर्जुन योगेश्वर द्वारा प्रदान योग को प्राप्त हुआ |

दिवि सूर्यसहस्त्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता |
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः || (११/१२)
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा |
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा || (११/१३)

दिवि सूर्य सहस्त्रस्य भवेत् युगपत् उत्थिता |
यदि भाः सदृशी सा स्यात् भासः तस्य महात्मनः || (११/१२)
तत्र एकस्थम् जगत् कृत्स्नम् प्रविभक्तम् अनेकधा |
अपश्यत् देव देवस्य शरीरे पाण्डवः तदा || (११/१३)

दिवि (आकाश में), सूर्य (सूर्य), सहस्त्रस्य (हजारों), भवेत् (हों), युगपत् (एकसाथ), उत्थिता (उदय) | यदि (कदाचित्), भाः (प्रकाश),  सदृशी (के सदृश्य), सा (वह), स्यात् (हो), भासः (प्रकाश के), तस्य (उस), महात्मनः (महात्मा का) | (११/१२)
तत्र (वहां), एक (एक), स्थम् (स्थान में), जगत् (जगत), कृत्स्नम् (सम्पूर्ण), प्रविभक्तम् (विभक्त रूप से), अनेकधा (अनेक में) | अपश्यत् (देखा), देव (देव), देवस्य (देवों के), शरीरे (शरीर में), पाण्डवः (पाण्डव ने), तदा (तब) | (११/१३)

आकाश में हजारों सूर्य एकसाथ उदय हों, उस महात्मा के प्रकाश के सदृश्य कदाचित् वह प्रकाश हो | (११/१२)
पाण्डव ने तब वहाँ अनेक रूप में विभक्त सम्पूर्ण जगत को एक स्थान में देवों के देव के शरीर में देखा | (११/१३)

योगेश्वर के योग सामर्थ्य का, योग ऐश्वर्य का चित्रण है |

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः |
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत || (११/१४)

ततः सः विस्मय आविष्टः हृष्ट रोमा धनञ्जयः |
प्रणम्य शिरसा देवम् कृत अञ्जलि अभाषत || (११/१४)

ततः (तत्पश्चात्), सः (वह), विस्मय (विस्मय), आविष्टः (ओतप्रोत होकर), हृष्ट (पुलकित), रोमा (रोम), धनञ्जयः (धनंजय) | प्रणम्य (प्रणाम करके), शिरसा (दण्डवत्), देवम् (देव को), कृत-अञ्जलि (हाथ जोड़कर), अभाषत (कहने लगा) | (११/१४)

तत्पश्चात् विस्मय से ओतप्रोत होकर, हर्षित रोम हुआ, धनंजय परम देव को दण्डवत प्रणाम करके, हाथ जोड़ कर कहने लगा | (११/१४)

अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् |
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् || (११/१५)

पश्यामि देवान् तव देव देहे सर्वान् तथा भूत विशेष सङ्धान् |
ब्रह्माणम् ईशम् कमल आसन स्थम् ऋषीन् च सर्वान् उरगान् च दिव्यान् || (११/१५)

पश्यामि (देखता हूँ), देवान् (देवतओं को), तव (आपके), देव (देव), देहे (देह में), सर्वान् (समस्त), तथा (तथा), भूत (प्राणियों), विशेष (विशेष), सङ्धान् (समूह) | ब्रह्माणम् (ब्रह्मा), ईशम् (ईश्वर), कमल (कमल), आसन (आसन), स्थम् (स्थित हुए),  ऋषीन् (ऋषि), (और), सर्वान् (समस्त), उरगान् (सर्पों को), (और), दिव्यान् (दिव्य) | (११/१५)

आपकी देवदेह में समस्त देवतओं को तथा प्राणियों के विशेष समुदाय को और कमल आसन पर स्थित ब्रह्मा को, शंकर को, दिव्य ऋषियों और सर्पों को देखता हूँ | (११/१५)

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् |
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप || (११/१६)

अनेक बाहु उदर वक्त्र नेत्रम् पश्यामि त्वाम् सर्वतः अनन्त रूपम् |
न अन्तम् न मध्यम् न पुनः तव आदिम् पश्यामि विश्व ईश्वर विश्वरूप || (११/१६)

अनेक (अनेक), बाहु (बाहें), उदर (पेट), वक्त्र (मुख), नेत्रम् (नेत्र), पश्यामि (देखता हूँ), त्वाम् (आपके), सर्वतः (सब ओर), अनन्त (अनन्त), रूपम् (रूप) | न (न), अन्तम् (अन्त), (न), मध्यम् (मध्य), (न), पुनः (फिर), तव (आपका), आदिम् (आरम्भ), पश्यामि (देखता हूँ), विश्व (विश्व), ईश्वर (ईश्वर), विश्वरूप (विश्वरूप) | (११/१६)

आपकी अनेक बाहें, उदर, मुख (और) नेत्र सब ओर अनन्त रूप में देखता हूँ, विश्वेश्वर ! आपके विश्वरूप का न अन्त, न मध्य न फिर आरम्भ देखता हूँ | (११/१६)

जब अर्जुन इतना कुछ श्रीकृष्ण की एक देह में एक साथ ही देखता हो, इतने देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश और ऋषिजन, सिद्धजन, सर्प इत्यादि, तो अर्जुन को इसका आरम्भ, मध्य और अन्त कैसे ज्ञात हो ?

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् |
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् || (११/१७)

किरीटिनम् गदिनम् चक्रिणम् च तेजः राशिम् सर्वतः दीप्ति मन्तम् |
पश्यामि त्वाम् दुर्निरीक्ष्यम् समन्तात् दीप्त अनल अर्क द्युतिम् अप्रमेयम् || (११/१७)

किरीटिनम् (मुकुटधारी), गदिनम् (गदाधारी), चक्रिणम् (चक्रधारी), (और), तेजः (तेज), राशिम् (राशी), सर्वतः (सब ओर), दीप्ति (दीप्ती), मन्तम् (मान) | पश्यामि (देखता हूँ), त्वाम् (आपको), दुर्निरीक्ष्यम् (दर्शन को दुर्लभ), समन्तात् (सर्वत्र), दीप्त (प्रज्वलित), अनल (अग्नि), अर्क (सूर्य), द्युतिम् (कान्तिवाले), अप्रमेयम् (अचिन्त्य रूप) | (११/१७)

आपको मुकुटधारी, गदाधारी और चक्रधारी, सब ओर से तेजपुंज, दीप्तिमान्, प्रज्वलित अग्नि, सूर्य की कान्तिवाले दर्शन को दुर्लभ, अचिन्त्य रूप देखता हूँ | (११/१७)

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे || (११/१८)

त्वम् अक्षरम् परमम् वेदितव्यम् त्वम् अस्य विश्वस्य परम् निधानम् |
त्वम् अव्ययः शाश्वत धर्म गोप्ता सनातनः त्वम् पुरुषः मतः मे || (११/१८)

त्वम् (आप), अक्षरम् (अक्षय स्वरूप), परमम् (परम), वेदितव्यम् (विदित करने योग्य), त्वम् (आप), अस्य (इस), विश्वस्य (विश्व के), परम् (परम), निधानम् (आश्रय हो) | त्वम् (आप), अव्ययः (अविनाशी), शाश्वत (सनातन), धर्म (धर्म), गोप्ता (रक्षक, पालक), सनातनः (सनातन), त्वम् (आप), पुरुषः (पुरुष हैं), मतः (मत में), मे (मेरा) | (११/१८)

आप विदित करने योग्य परम अक्षरम् (ब्रह्म), आप इस विश्व के परम आश्रय, आप अविनाशी सनातन धर्म के रक्षक, आप सनातन पुरुष हैं, (ऐसा) मेरा मत है | (११/१८)

योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहे अनुसार, उनमें ही उनकी विभूतियों को देखते हुए, अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण की स्तुति करता हुआ कहता है कि आप ही विदित करने योग्य परं अक्षर ब्रह्म हैं, आप ही इस विश्व के परं आश्रय अर्थात् इस विश्व को आपके अन्यत्र कोई आश्रय भी नहीं है, आप ही सनातन धर्म के रक्षक और सनातन पुरुष हो |

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसुर्यनेत्रम् |
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् || (११/१९)

अनादि मध्य अन्तम् अनन्त वीर्यम् अनन्त बाहुम् शशि सूर्य नेत्रम् |
पश्यामि त्वाम् दीप्त हुताश वक्त्रम् स्व तेजसा विश्वम् इदम् तपन्तम् || (११/१९)

अनादि (आदिराहित), मध्य (मध्य), अन्तम् (अन्त), अनन्त (अनन्त), वीर्यम् (सामर्थ्यवान), अनन्त (अनन्त), बाहुम् (बाहें), शशि (चन्द्र), सूर्य (सूर्य), नेत्रम् (नेत्र हैं) | पश्यामि (देखता हूँ), त्वाम् (आपको), दीप्त (प्रज्वलित), हुताश (अग्नि के समान), वक्त्रम् (मुख), स्व (अपना), तेजसा (तेज को), विश्वम् (विश्व को), इदम् (इस), तपन्तम् (तपाते हुए) | (११/१९)

आप आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त सामर्थ्यवान, अनन्त बाहु, शशि सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि के समान मुखवाले, आपको अपने तेज से इस विश्व को तपाते हुए देखता हूँ | (११/१९)

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः |
दृष्ट्वाऽद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् || (११/२०)

द्यौ आ-पृथिव्योः इदम् अन्तरम् हि व्याप्तम् त्वया एकेन दिशः च सर्वाः |
द्रष्ट्वा अद्भुतम् रूपम् उग्रम् तव इदम् लोक त्रयम् प्रव्यथितम् महात्मन् || (११/२०)

द्यौ (आकाश), आ-पृथिव्योः (पृथ्वी तक), इदम् (यह), अन्तरम् (अन्तर), हि (क्योंकी), व्याप्तम् (व्याप्त करके), त्वया (आप), एकेन (अकेले), दिशः (दिशाओं में), (और), सर्वाः (समस्त) | द्रष्ट्वा (देखकर), अद्भुतम् (अद्भुत), रूपम् (रूप), उग्रम् (उग्र), तव (आपका), इदम् (यह), लोक (लोक), त्रयम् (तीनों), प्रव्यथितम् (व्यथित हैं), महात्मन् (महात्मा) | (११/२०)

महात्मा ! आपका यह अद्भुत उग्र रूप देखकर तीनों लोक व्यथित हैं क्योंकी आप आकाश पृथ्वी का यह अन्तर और समस्त दिशाएं अकेले व्याप्त करके (स्थित हैं) | (११/२०)

अमि हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति |
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः || (११/२१)

अमि हि त्वाम् सुर सङ्घाः विशन्ति केचित् भीताः प्राञ्जलयः गृणन्ति |
स्वस्ति इति उक्त्वा महर्षि सिद्ध सङ्घाः स्तुवन्ति त्वाम् स्तुतिभिः पुष्कलाभिः || (११/२१)

अमि (वे सब), हि (क्योंकी), त्वाम् (आपको), सुर (देव), सङ्घाः (समूह), विशन्ति (प्रवेश करते हैं), केचित् (कदाचित्), भीताः (भयभीत हैं), प्राञ्जलयः (हाथ जोड़कर), गृणन्ति (गुणगान करते हैं) | स्वस्ति (कल्याण हो), इति (ऐसा), उक्त्वा कहकर),  महर्षि (महर्षि), सिद्ध (सिद्ध), सङ्घाः (समूह), स्तुवन्ति (स्तुति करते हैं), त्वाम् (आपकी), स्तुतिभिः (स्तुतियों द्वारा), पुष्कलाभिः (उत्तमोत्तम) | (११/२१)

क्योंकी वे सब देवों के समुदाय भयभीत हैं, (कारण आपका यह अद्भुत उग्र रूप देखकर तीनों लोक व्यथित हैं क्योंकी कि आप आकाश पृथ्वी का यह अन्तर और समस्त दिशाएं अकेले व्याप्त करके स्थित हैं, अब जाए तो जाए भी कहाँ ? इसलिये) हाथ जोड़कर गुणगान करते हुए आप में (ही) प्रवेश करते हैं (अर्थात् आप में ही स्थित हैं | तथा जो आपके स्वभाव को, आपकी प्रवृति को जानते हैं, वे सिद्धजन) ‘कल्याण हो’ ऐसा कहकर सिद्ध महर्षियों के समुदाय उत्तमोत्तम स्तुतियों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं | (११/२१)

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च |
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे || (११/२२)

रुद्र आदित्याः वसवः ये च साध्याः विश्वे अश्विनौ मरुतः च उष्मपाः च |
गन्धर्व यक्षः असुर सिद्ध सङ्घाः वीक्षन्ते त्वाम् विस्मिताः च एव सर्वे || (११/२२)

रुद्र (ग्यारह रूद्र), आदित्याः (बारह आदित्य), वसवः (आठों वसु), ये (जो), (और), साध्याः (साध्य), विश्वे (विश्व में), अश्विनौ (दोनों अश्वनीकुमार), मरुतः (उनचास मरुत), (और), उष्मपाः (समस्त पितर)  (और) | गन्धर्व (गन्धर्व), यक्षः (यक्ष), असुर (असुर), सिद्ध (सिद्ध), सङ्घाः (समूह), वीक्षन्ते (देख रहे हैं), त्वाम् (आपको), विस्मिताः (विस्मयपूर्ण), (और), एव (ही), सर्वे (सभी) | (११/२२)

और जो विश्व में साध्य रूद्र, आदित्य, वसु दोनों अश्वनीकुमार और मरुत और समस्त पितर, गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्धों के समुदाय और सब ही आपको विस्मयपूर्ण देख रहे हैं | (११/२२)

‘और जो विश्व में साध्य है’ तात्पर्य यह कि आप की जिन विभूतियों को यह विश्व देवी देवताओं के रूप में भजता है, आपकी वे विभूतियाँ भी आपको नहीं जानती और आपको विस्मयपूर्ण देख रहे हैं | यह आपका ही योग सामर्थ्य और योग ऐश्वर्य है |

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् |
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् || (११/२३)
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् |
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो || (११/२४)
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि |
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास || (११/२५)

रूपम् महत् ते बहु वक्त्र नेत्रम् महाबाहो बहु बाहु ऊरु पादम् |
बहु उदरम् बहु दंष्ट्रा करालम् दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथिताः तथा अहम् || (११/२३)
नभः स्पृशम् दीप्तम् अनेक वर्णम् व्यात्त आननम् दीप्त विशाल नेत्रम् |
दृष्ट्वा हि त्वाम् प्रव्यथितः अन्तः आत्मा धृतिम् न विन्दामि शमम् च विष्णो || (११/२४)
दंष्ट्रा करालानि च ते मुखानि दृष्ट्वा एव काल अनल सन्नि भानि |
दिशः न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगत् निवास || (११/२५)

रूपम् (रूप), महत् (विशाल), ते (आपका), बहु (अनेक), वक्त्र (मुख), नेत्रम् (नेत्र), महाबाहो (महाबाहो), बहु (अनेक), बाहु (बाहें),  ऊरु (जंघाएँ), पादम् (चरण) | बहु (अनेक), उदरम् (पेट), बहु (अनेक), दंष्ट्रा (दांत), करालम् (विकराल), दृष्ट्वा (देखकर), लोकाः (समस्त लोक), प्रव्यथिताः (व्यथित हो रहे हैं), तथा (तथा), अहम् (मैं) | (११/२३)
नभः (आकाश), स्पृशम् (छूता हुआ), दीप्तम् (प्रज्वलित), अनेक (अनेक), वर्णम् (रंग), व्यात्त (फैलाये), आननम् (मुख), दीप्त (प्रज्वलित), विशाल (विशाल), नेत्रम् (नेत्र) | दृष्ट्वा (देखकर), हि (क्योंकी), त्वाम् (आपको), प्रव्यथितः (व्यथित हूँ), अन्तःआत्मा (अंतःकरण), धृतिम् (धैर्य), (नहीं), विन्दामि(पा रहाहूँ), शमम्(शान्ति), (और), विष्णो(विष्णु) | (११/२४)
दंष्ट्रा (दांत), करालानि (विकराल), (और), ते (आपके), मुखानि (मुखों में), दृष्ट्वा (देखकर), एव (ही), कालअनल (कालाग्नि),  सन्निभानि (समान भान होता है) | दिशः (दिशाएँ), (नहीं), जाने (जानता), (न), लभे (पाता हूँ), (और), शर्म (विश्राम), प्रसीद (प्रसन्न हों), देव (देव), ईश (ईश्वर), जगत् (जगत), निवास (निवास) | (११/२५)

महाबाहो ! आपके अनेक मुख, नेत्र, अनेक बाहें, जंघाएँ, चरण, अनेक उदर, अनल विकराल दांतोंवाले विशाल रूप को देखकर समस्त लोक व्यथित हो रहे हैं तथा मैं (भी) | (११/२३)
विष्णु ! अंतःकरण में धैर्य और शान्ति नहीं पा रहा हूँ, क्योंकी आपका आकाश छूता हुआ, अनेक वर्णोवाले, फैलाये हुए प्रज्वलित मुख (और) विशाल नेत्र देखकर व्यथित हूँ |(११/२४)
और आपके मुख में विकराल दांत देखकर ही कालाग्नि के समान भान होता है, दिशाएँ नहीं जान पाता और न विश्राम पाता हूँ, देवेश ! जगन्निवास ! प्रसन्न हों | (११/२५)

पहले तो अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण की देह में देवी देवताओं के दिव्य रूप का दर्शन करता है परन्तु उस विराट से विराट होते हुए रूप में जब अर्जुन परमात्मा के सर्व व्याप्त रूप को देखता है, तो उसे आकाश और पृथ्वी तथा दिशाओं का भी ज्ञान नहीं रहता | दिव्यता से भयानक होते हुए परमात्मा के स्वरूप से वह व्यथित होता है और परमात्मा को प्रसन्न करने को स्तुति करता है | परन्तु वह जो आगे देखता है, उसे कहता भी है |

अमि च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः |
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः || (११/२६)
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि |
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः || (११/२७)

अमि च त्वाम् धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सह एव अवनि पाल सङ्घैः |
भीष्मः द्रोणः सूतपुत्रः तथा असौ सह अस्मदीयैः अपि योद्य मुख्यैः || (११/२६)
वक्त्राणि ते त्वरमाणाः विशन्ति दंष्ट्रा करालानि भयानकानि |
केचित् विलग्नाः दशन अन्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितः उत्तम अङ्गैः || (११/२७)

अमि (वे सब), (और), त्वाम् (आपके), धृतराष्ट्रस्य (धृतराष्ट्र), पुत्राः (पुत्र), सर्वे (समस्त), सह (सहित), एव (ही), अवनिपाल (वीर राजाओं ), सङ्घैः (समूह) | भीष्मः (भीष्म), द्रोणः (द्रोण), सूतपुत्रः (कर्ण), तथा (तथा), असौ (यह), सह (सहित),  अस्मदीयैः (हमारे), अपि (भी), योद्य (योधा), मुख्यैः (प्रधान) | (११/२६)
वक्त्राणि (मुखों में), ते (आपके), त्वरमाणाः (वेगपूर्वक), विशन्ति (प्रवेश रहे हैं), दंष्ट्रा (दांतों), करालानि (विकराल), भयानकानि (भयानक) | केचित् (कुछ तो), विलग्नाः (लगे हुए), दशन (दांतों), अन्तरेषु (बिच में), सन्दृश्यन्ते (दिख रहे हैं), चूर्णितः (चूर्ण हुए), उत्तमअङ्गैः (शिशवाले) | (११/२७)

और वे सब धृतराष्ट्र के समस्त पुत्र, वीर राजाओं के समूह सहित ही आपमें (प्रवेश कर रहे हैं), भीष्म, द्रोण, कर्ण तथा यह हमारे भी प्रधान योधाओं सहित आपके भयानक, विकराल दांतों वाले मुखों में वेगपूर्वक प्रवेश कर रहे हैं, कुछ तो चूर्णहुए शीशवाले दांतों के बिच में दिख रहे हैं | (११/२६,२७)

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति |
तथा तवामि नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति || (११/२८)
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः |
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः || (११/२९)

यथा नदीनाम् बहवः अम्बु वेगाः समुद्रम् एव अभिमुखाः द्रवन्ति |
तथा तव अमि नर लोक वीराः विशन्ति वक्त्राणि अभिविज्वलन्ति || (११/२८)
यथा प्रदीप्तम् ज्वलनम् पतङ्गाः विशन्ति नाशाय समृद्ध वेगाः |
तथा एव नाशाय विशन्ति लोकाः तव अपि वक्त्राणि समृद्ध वेगाः || (११/२९)

यथा (जैसे), नदीनाम् (नदियाँ), बहवः (अनेक), अम्बु (स्वयं के), वेगाः (वेग से), समुद्रम् (समुन्द्र), एव (ही), अभिमुखाः (की ओर),  द्रवन्ति (दौड़ती हैं) | तथा (वैसे), तव (आपकी), अमि (वे सब), नरलोकवीराः (नरलोक के वीर), विशन्ति (प्रवेश कर रहे हैं), वक्त्राणि (मुखों में) अभिविज्वलन्ति (प्रज्वलित) | (११/२८)
यथा (जैसे), प्रदीप्तम् (प्रज्वलित), ज्वलनम् (अग्नि में), पतङ्गाः (पतंगा), विशन्ति (प्रवेश करते हैं), नाशाय (नाश को), समृद्ध (पूर्ण), वेगाः (वेग से) | तथा (वैसे), एव (ही), नाशाय (नाश को), विशन्ति (प्रवेश कर रहे हैं), लोकाः (समस्त लोक), तव (आपके), अपि (भी), वक्त्राणि (मुखों में), समृद्ध (पूर्ण), वेगाः (वेग से) | (११/२९)

जैसे अनेक नदियाँ स्वयं के ही वेग से समुन्द्र की ओर दौड़ती हैं, वैसे नरलोक के वे सब वीर आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं | (११/२८)
जैसे पतंगा नाश को पूर्ण वेग से प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश करता है, वैसे ही नाश को समस्त लोक भी आपके मुखों में पूर्ण वेग से प्रवेश कर रहे हैं | (११/२९)

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकाल्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भीः |
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो || (११/३०)
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद |
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् || (११/३१)

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्तात् लोकान् समग्रान् वदनैः ज्वलद्भिः |
तेजोभि आपूर्य जगत् समग्रम् भासः तव उग्राः प्रतपन्ति विष्णो || (११/३०)
आख्याहि मे कः भवान् उग्र रूपः नमः अस्तु ते देववर प्रसीद |
विज्ञातुम् इच्छामि भवन्तम् आद्यम् न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् || (११/३१)

लेलिह्यसे (चाट रहे हैं), ग्रसमानः(ग्रास करते हुए), समन्तात् (सब ओर से), लोकान् (लोकों को), समग्रान् (सम्पूर्ण), वदनैः (मुखों द्वारा), ज्वलद्भिः (ज्वलित) | तेजोभि (तेज से), आपूर्य (परिपूर्ण), जगत् (जगत), समग्रम् (सम्पूर्ण), भासः (प्रकाश), तव (आपका), उग्राः (उग्र), प्रतपन्ति (तपा रहा है), विष्णो (विष्णु) | (११/३०)
आख्याहि (कहिये), मे (मुझको), कः (कौन), भवान् (आप), उग्र (उग्र), रूपः (रूप), नमः (नमन), अस्तु (हो), ते (आपको), देववर (देवों में श्रेष्ठ), प्रसीद (प्रसन्न हों) | विज्ञातुम् (जानने को), इच्छामि (इच्छित हूँ), भवन्तम् (आपको), आद्यम् (आदिपुरुष), (न), हि (क्योंकी), प्रजानामि (जानता हूँ), तव (आपका), प्रवृत्तिम् (स्वभाव) | (११/३१)

समस्त लोकों को ज्वलित मुखों द्वारा सब ओर से ग्रास करते हुए चाट रहे हैं, विष्णु ! आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत को तेज से परिपूर्ण करके तपा रहा है | (११/३०)
देववर ! मुझको कहिये (कि) उग्र रूपवाले आप कौन हो, आपको नमन, प्रसन्न हों | आदिपुरुष ! आपको जानने को इच्छित हूँ क्योंकी आपकी ‘प्रवृति’ को नहीं जानता हूँ | (११/३१)

श्लोक संख्या (११/२५) तक अर्जुन जो भी देखता है, उससे व्यथित हुआ योगेश्वर को कहता है कि आपके इस विकराल और भयानक स्वरूप को देखकर मैं और समस्त लोक व्यथित है, कृपया आप प्रसन  हों, अर्थात् अपने उग्र रूप को शान्त करें परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण उसे उग्र से उग्रतम रूप दिखाते चले जाते हैं | अन्त में उस रूप को नमन करता हुआ, आप प्रसन्न हों, इस प्रकार स्तुति करता हुआ निवेदन करता है कि मुझको कहिये कि उग्र रूप वाले आप कौन हो तथा आपको जानने को अर्थात् आपके इस रूप के तात्पर्य को जानने को इच्छित हूँ, क्योंकी आपके इस रूप को देखकर, आपकी प्रवृति अर्थात् आप क्यों इस रूप में प्रवृत हुए हैं, यह नहीं जान पा रह हूँ | इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं |

श्रीभगवानुवाच

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृतः |
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः || (११/३२)

कालः अस्मि लोक क्षय कृत् प्रवृद्धः लोकान् समाहर्तुम् इह प्रवृत्तः |
ऋते अपि त्वाम् न भविष्यन्ति सर्वे ये अवस्थिताः प्रति अनीकेषु योधाः || (११/३२)

कालः (काल), अस्मि (हूँ), लोक (लोक), क्षय (क्षय), कृत् (करने को), प्रवृद्धः (प्रसार को प्राप्त हुआ), लोकान् (समस्त लोकों को), समाहर्तुम् (समाहित करने को), इह (यहाँ), प्रवृत्तः (प्रवृत हुआ हूँ) | ऋते (बिना), अपि (भी), त्वाम् (तुम्हारे), (नहीं),  भविष्यन्ति(भविष्य में होंगे), सर्वे(समस्त), ये(जो), अवस्थिताः(स्थित हैं), प्रति(प्रतिपक्ष), अनीकेषु(सेनामें), योधाः(योधा) | (११/३२)

लोक क्षय करने को प्रसार को प्राप्त हुआ काल हूँ, यहाँ समस्त लोकों को (अपने में) समाहित करने को प्रवृत हुआ हूँ, तुम्हारे बिना भी जो प्रतिपक्ष की सेना में समस्त योधा हैं, भविष्य में नहीं होंगे | (११/३२)

पूर्व श्लोक में अर्जुन ने दो प्रश्न किये थे प्रथम यह कि उग्र रूप वाले आप कौन हैं तथा दूसरा यह कि आप किसलिये प्रवृत हुए हैं ? अर्जुन के प्रथम प्रश्न का उत्तर देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोक क्षय करने को ‘प्रवृद्ध’ हुआ मैं ‘काल’ हूँ अर्थात् प्राणियों की मृत्यु कारक मेरी जो विभूति है, जिसको संसार में सभी ‘काल’ कहते हैं, वह ‘काल’ हूँ तथा प्राणियों की मृत्यु हेतु मैं प्रवृद्ध हुआ हूँ अर्थात् प्रसार को प्राप्त हुआ हूँ, इसलिये किसी एक विशेष को नहीं अपितु समस्त प्राणियों के क्षय को प्रवृत हुआ हूँ, यहाँ लोकों को अर्थात् समस्त प्राणियों को अपने में समाहित करने को प्रवृत हुआ हूँ,| यह हुआ अर्जुन के दुसरे प्रश्न का समाधान कि आप क्यों प्रवृत हुए हैं तथा अन्त में अर्जुन को कहते हैं कि तुम्हारे बिना भी अर्थात् जैसा तुम्हारा निश्चय है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ (२/९) तुम्हारे उस निर्णय पर अडिग रहने पर भी, तुम्हारे युद्ध में प्रवृत ना होने पर भी जो प्रतिपक्ष के सेना में समस्त योधा हैं, वे भविष्य में नहीं होंगे अर्थात् उनको मैं ग्रस लूँगा | तात्पर्य यह कि भीष्म, द्रोण आदि के कारण तू युद्ध से उपराम होना चाहता
है, परन्तु वे तो तेरे बिना भी मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे | इसलिये

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् || (११/३३)
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् |
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् || (११/३४)

तस्मात् त्वम् उत्तिष्ठ यशः लभस्व जित्वा शत्रुन् भुङ्क्ष्व राज्यम् समृद्धम् |
मया एव एते निहताः पूर्वम् एव निमित्त मात्रम् भव सव्यसाचिन् || (११/३३)
द्रोणम् च भीष्मम् च जयद्रथम् च कर्णम् तथा अन्यान् अपि योद्य वीरान् |
मया हतान् त्वम् जहि मा व्यथिष्ठाः युध्यस्व जेता असि रणे सपत्नान् || (११/३४)

तस्मात् (इसलिये), त्वम् (तुम), उत्तिष्ठ (उठो), यशः (यश), लभस्व (प्राप्त करो), जित्वा (जीतकर), शत्रुन् (शत्रुओं को), भुङ्क्ष्व (भोगो), राज्यम् (राज्य), समृद्धम् (समृद्ध) | मया (मेरे द्वारा), एव (ही), एते (ये सब), निहताः (प्राणहीन हैं), पूर्वम् (पहले), एव (ही), निमित्त (निमित्त), मात्रम् (मात्र), भव (बनो), सव्यसाचिन् (सव्यसाची) | (११/३३)
द्रोणम् (द्रोण), (और), भीष्मम् (भीष्म), (और), जयद्रथम् (जयद्रथ), (और), कर्णम् (कर्ण), तथा (तथा), अन्यान् (अन्य), अपि (भी), योद्य (योधा), वीरान् (वीर) | मया (मेरे द्वारा), हतान् (हत हुए), त्वम् (तुम), जहि (मारो), मा (मत), व्यथिष्ठाः (व्यथित हो), युध्यस्व (युद्ध करो), जेता (जीत), असि (सकोगे), रणे (रण में), सपत्नान् (शत्रुओं को) | (११/३४)

इसलिये तू उठ ! शत्रुओं की जीतकर यश प्राप्त कर, समृद्ध राज्य को भोग, ये सब मेरे द्वारा पहले ही प्राणहीन हैं | सव्यसाची ! तू केवल निमित्तमात्र ही बन | (११/३३)
द्रोण और भीष्म और जयद्रथ और कर्ण तथा मेरे द्वारा हत हुए अन्य भी वीर योधा तुम मारो, व्यथित मत हो, रण में शत्रुओं को जित सकोगे, युद्ध करो | (११/३४)

यहाँ जो योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, वह हमने भी जाना, मनन भी किया कि होई वही जो राम रची राखा, परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण के इन व्यक्तव्यों में तथ्य केवल यही है, जो योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा और हमने जाना अथवा कुछ और भी मनन करने को है |

अभी पूर्व में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा था कि ‘गुणाकेश ! और भी जो अन्य देखना चाहते हो, अब इस एक मेरी देह में देख | (११/७) परन्तु अर्जुन तो भीष्म, द्रोण और धृतराष्ट्र के पुत्रों और उनकी मित्र मंडली की भी हत्या न करने के कारण युद्ध से उपराम होना चाहता था और यहाँ अर्जुन उन सभी की मृत्यु देखता है | तो क्या अर्जुन दोहरी मानसिकता को प्राप्त पुरुष है ? स्पष्ट में तो रुधिर से सने राज्य की अभिलाषा नहीं रखता परन्तु देखता उन सब की मृत्यु ही है | मेरे अनुभव में ऐसा नहीं है क्योंकी योगेस्श्वर श्रीकृष्ण ने जिस पुरुष को एक बार ‘निष्पाप अर्जुन’ कह दिया, वह पुरुष कुछ भी हो सकता है, मन में दोहरी मानसिकता का पाप नहीं रख सकता | तब श्लोक संख्या (११/२६से३०तक) अर्जुन यह सब कैसे देख रहा है ?

परमात्मा अकारण ना कुछ कहते हैं और ना अकारण कुछ करते हैं | परन्तु ना जाने क्यों गीताशास्त्र में ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग अथवा भक्तियोग खोजनेवाले, यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस चरित्र का अभिप्राय नहीं खोज पाते ? अर्जुन ने योगेश्वर श्रीकृष्ण से प्रार्थना की थी कि ‘शिष्यः ते अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम्’ (२/७) अर्जुन की इस प्रार्थना के कारण योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रेयकारक अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र विषयक यह ज्ञान कहा और अब उसे ‘शाधि माम्’ अर्थात् अर्जुन को साधने हेतु लीलाधर यह लीला कर रहे हैं, जिसे गीता के व्याख्याकार योगेश्वर का ‘विराटरूप’, ‘विश्वरूप दर्शन योग’ आदि न जाने क्या क्या कहते हैं | अभी तक (११/२६-३०) जो भी अर्जुन ने देखा वह अर्जुन ने देखना नहीं चाहा था अपितु यह लीलाधर की लीला है |
 
परमात्मा की लीलाओं का कोई अन्त नहीं है, नारद मुनि को वानर रूप दे देते है, उस कारण श्राप भी ग्रहण कर
लेते है, पत्नी वियोग भी सहते हैं परन्तु अपने भक्त का तो उद्धार कर ही देते हैं | यही योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ गीता
शास्त्र में कर रहे हैं | अर्जुन के उद्धार को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यह भयानक, विकराल, उग्र काल रूप धारण किया है, परन्तु क्यों ? अर्जुन तो श्रीकृष्ण का भक्त है और भक्त को ऐसा उग्र रूप, यह तो हिरण्यकश्यप हेतु उचित जान पड़ता है | राधा को, गोपियों को तो मुरली सुनाते रहे, रास रचाते रहे, मीरा के प्याले का विष पी गये, सूरदास को अपनी बाल लीलाएँ दिखाते रहे, पांचाली को अपना वस्त्र दे उसकी लाज बजाते रहे और अर्जुन को कालरूप से व्यथित करते हैं | कारण स्पष्ट है, परमात्मा अपने भक्त को, नारद मुनि के समान, कभी भी स्वधर्म से च्युत नहीं होने देते, स्वधर्म से पलायन को योगेश्वर पाप मानते हैं और अर्जुन के संदर्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ‘यदि तुम इस धर्मरुपी संग्राम को, युद्ध को नहीं करोगे, तब स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगे’ (२/३३) तथा यहाँ अर्जुन भीष्म और द्रोण आदि की हत्या से उपराम होने को ही युद्ध से पलायन करना चाहता था अन्यथा तो वह युद्ध को प्रस्तुत हुआ ही था | इसी कारण योगेश्वर श्रीकृष्ण उसे उग्र काल रूप दिखा कर कहते हैं कि अगर तू यह सोचता है कि तेरे युद्ध से उपराम होने पर वे सब बच जाएंगे तो ऐसा भी नहीं है, तेरे बिना भी भीष्म, द्रोण आदि मृत्यु को प्राप्त होंगे | इसी कारण योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यह उग्र काल रूप धारण किया है अन्यथा क्या हृदयस्थ परमात्मा ऐसा होता है ? हाँ हृदयस्थ परमात्मा का रूप बेशक ऐसा ना हो परन्तु हृदयस्थ परमात्मा ऐसा ही होता है, धर्म की स्थापना को कुरुक्षेत्र का युद्ध करवाया और नारद मुनि के श्राप की भांति, धर्मयुद्ध का सारा अपयश अपने ऊपर लेते हुए गांधारी के श्राप को भी स्वयं ही ग्रहण किया | परन्तु अपने भक्त का, नारद का, अर्जुन का उद्धार तो कर ही दिया, अर्जुन अनुग्रहित हुआ, साधक अनुग्रहित हुए, जगत अनुग्रहित हुआ |

यह विराटरूपयोग है, विश्वरूपदर्शनम् योग है अथवा योगेश्वर श्रीकृष्ण की लीला है ? जो भी है, साधकों के मनन को है | अगर परमात्मा का यह उग्र काल रूप उनका विराट रूप है, विश्वरूप है तो ऐसे परमात्मा के दर्शन की इच्छा भी मैं नहीं रखता, मेरा परमात्मा प्रेम का, प्यार का विश्वमूर्ते रूप है, शबरी का राम है | जिनका परमात्मा यह उग्र काल रूप हो, वह उनको ही मुबारक और यही योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि यह तो मेरा घोर रूप है, हृदयस्थ सौम्य रूप तो चतुर्भुज रूप ही है | तत्पश्चात् श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद में क्या हुआ, यह संजय राजा धृतराष्ट्र को कहता है |

सञ्जय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी |
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य || (११/३५)

एतत् श्रुत्वा वचनम् केशवस्य कृताञ्जलिः वेपमानः किरीटी |
नमस्कृत्वा भूय एव आह कृष्णम् स गद्गदम् भीत भीतः प्रणम्य || (११/३५)

एतत् (इन), श्रुत्वा (सुनकर), वचनम् (वचनों को), केशवस्य (केशव के), कृताञ्जलिः (हाथ जोड़कर), वेपमानः (काँपता हुआ), किरीटी (मुकुटधारी) | नमस्कृत्वा (नमन करता हुआ), भूय (फिर), एव (ही), आह (बोला), कृष्णम् (कृष्ण से), (सहित), गद्गदम् (गद्गद् वाणी), भीतभीतः (भयभीत हुआ), प्रणम्य (प्रणाम करके) | (११/३५)

केशव के इन वचनों को सुनकर, हाथ जोड़कर काँपता हुआ मुकुटधारी (अर्जुन) भय से नमन करता हुआ, गद्गद् वाणी से कृष्ण को फिर प्रणाम करके बोला | (११/३५)

अर्जुन ने जो देखा, उससे वह भयभीत हुआ काँप रहा है और योगेश्वर श्रीकृष्ण से जो सुना उससे गद्गद् हो रहा है क्योंकी अर्जुन सुनकर जान पाया कि परमात्मा का उग्रकाल रूप उसके ही उत्थान को योगेश्वर की एक लीला है | अन्यथा भीष्म, द्रोण आदि की निश्चित मृत्यु देख और सुन कर अर्जुन गद्गद् होनेवाला नहीं है | योगेश्वर श्रीकृष्ण की लीला देखकर अर्जुन क्या कहता है, जानें |

अर्जुन उवाच

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च |
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यसि च सिद्धसङ्घाः || (११/३६)
स्थाने हृषीक ईश तव प्रकीर्त्या जगत् प्रहृष्यति अनुरज्यते च |
रक्षांसि भीतानि दिशः द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्ध सङ्घाः || (११/३६)

स्थाने (यह योग्य ही है), हृषीक (इन्द्रियों), ईश (स्वामी), तव (आपकी), प्रकीर्त्या (कीर्ति से), जगत् (जगत), प्रहृष्यति (हर्षित
हो रहा है), अनुरज्यते (अनुरागी हो रहा है) (और) | रक्षांसि (असुर), भीतानि (भयभीत होकर), दिशः (दिशाओं में),
द्रवन्ति (दौड़ रहे हैं) ,सर्वे (समस्त), नमस्यन्ति (नमन करते हैं), (और), सिद्ध (सिद्ध), सङ्घाः (समूह) | (११/३६)

ऋषिकेश ! आपकी कीर्ति से जगत हर्षित हो रहा है, अनुरागी हो रहा है, समस्त असुर भयभीत होकर दिशाओं में दौड़ रहे हैं और सिद्धों के समुदाय नमन करते हैं, यह उचित ही है | (११/३६)

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे |
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् || (११/३७)

कस्मात् च ते न नमेरन् महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणः अपि आदि कर्त्रे |
अनन्त देवेश जगत् निवास त्वम् अक्षरम् सत् असत् तत् परम् यत् || (११/३७)

कस्मात् (कैसे), (और), ते (वे सब), (न), नमेरन् (नमन करें), महात्मन् (महात्मा), गरीयसे (श्रेष्ठ), ब्रह्मणः (ब्रह्मा), अपि (भी), आदि (आदि), कर्त्रे (कारण) | अनन्त (अनन्त), देवेश (देवेश), जगत् (जगत), निवास (निवास), त्वम् (आप), अक्षरम् (अक्षयरूप),  सत् (सत्य), असत् (असत्य), तत् (उससे), परम् (परम), यत् (जो) | (११/३७)

और श्रेष्ठ महात्मा ! वे सब कैसे नमन ना करें, ब्रह्मा के भी आदि कारण, हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! जो सत्य है, असत्य है उससे परम आप अक्षयरूप हैं | (११/३७)  

त्वमादिदेवः पुरुष पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप || (११/३८)

त्वम् आदि देवः पुरुषः पुराणः त्वम् अस्य विश्वस्य परम् निधानम् |
वेत्ता असि वेद्यम् च परम् च धाम त्वया ततम् विश्वम् अनन्त रूपम् || (११/३८)

त्वम् (आप), आदि (आदि), देवः (देव), पुरुषः (पुरुष), पुराणः (सनातन), त्वम् (आप), अस्य (इस), विश्वस्य (विश्व के), परम् (परम), निधानम् (आश्रय) | वेत्ता (जानते ), असि (हो), वेद्यम् (जानने योग्य), (और),परम् (परम),(और), धाम (धाम), त्वया (आपके), ततम् (व्याप्त), विश्वम् (विश्व), अनन्त (अनन्त), रूपम् (रूप) | (११/३८)

आप आदि देव, पुराण पुरुष हैं, आप इस विश्व के परम आश्रय हैं, सबको जाननेवाले और जानने योग्य और परमधाम हैं, आपके अनन्त रूप से विश्व व्याप्त है | (११/३८)

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते || (११/३९)

वायुः यमः अग्निः वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिः त्वम् प्रपितामहः च |
नमः नमः ते अस्तु सहस्त्र कृत्वः पुनः च भूयः अपि नमः नमः ते || (११/३९)

वायुः (वायु), यमः (यम), अग्निः (अग्नि), वरुणः (वरुण), शशाङ्कः (चंद्रमा), प्रजापतिः (प्रजापति), त्वम् (आप), प्रपितामहः (परबाबा),(और) | नमः (नमन हो), नमः (नमन हो), ते (आपको), अस्तु (हो), सहस्त्र (हजारों), कृत्वः (बार), पुनः (फिर से), (और), भूयः (फिर), अपि (भी), नमः (नमन हो), नमः (नमन हो), ते (आपको) | (११/३९)

आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्र, प्रजापति और प्रपितामह हैं, आपको नमन हो, फिर हजारों बार नमन हो और फिर भी आपको नमन हो, नमन हो | (११/३९)


नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः || (११/४०)

नमः पुरस्तात् अथ पृष्ठतः ते नमः अस्तु ते सर्वतः एव सर्व |
अनन्त वीर्य अमित विक्रमः त्वम् सर्वम् समाप्नोषि ततः असि सर्वः || (११/४०)

नमः (नमन हो), पुरस्तात् (सामने से), अथ (और), पृष्ठतः (पीछे), ते (आपको), नमः (नमन), अस्तु (हो), ते (आपको), सर्वतः (सब ओर से), एव (ही), सर्व (सर्वेसर्वा) | अनन्त (अनन्त), वीर्य (सामर्थ्यवान), अमित (अमित), विक्रमः (पराक्रमी), त्वम् (आप), सर्वम् (सब कुछ), समाप्नोषि (समाहित किये हुए), ततः (अतएव), असि (हैं), सर्वः (सर्वेसर्वा) | (११/४०)

सर्वेसर्वा ! आपको सामने से नमन हो, पीछे से और सब ओर से ही नमन हो, अनन्त सामर्थ्यवान, अमित पराक्रमी आप सब कुछ समाहित किये हुए हैं, अतएव (आप ही) सर्वस्य हैं | (११/४०)

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति |
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि || (११/४१)
यच्चावहासार्थामसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु |
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् || (११/४२)

सखा इति मत्वा प्रसभम् यत् उक्तम् हे कृष्ण हे यादव हे सखे इति |
अजानता महिमानम् तव इदम् मया प्रमादात् प्रणयेन वा अपि || (११/४१)
यत् च अवहास अर्थम् असत् कृतः असि विहार शय्या आसन भोजनेषु |
एकः अथवा अपि अच्युत तत् समक्षम् तत् क्षामये त्वाम् अहम् अप्रमेयम् || (११/४२)

सखा (सखा), इति (ऐसा), मत्वा (मानकर), प्रसभम् (हठात्), यत् (जो भी), उक्तम् (कहा), हे कृष्ण (हे कृष्ण), हे यादव (हे यादव), हे सखे (हे सखे), इति (ऐसे) | अजानता (ना जानते हुए), महिमानम् (महिमा), तव (आपकी), इदम् (यह), मया (मेरे द्वारा),  प्रमादात् (प्रमादवश), प्रणयेन (प्यारवश), वा (अथवा), अपि (भी) | (११/४१)
यत् (जो), (और), अवहास (विनोद), अर्थम् (के लिये), असत् (अपमान), कृतः (किये गये), असि (हो), विहार (विहार), शय्या (शय्या), आसन (आसन), भोजनेषु (भोजन के लिये) | एकः (अकेले में), अथवा (अथवा), अपि (भी), अच्युत (अच्युत), तत् (उनके), समक्षम् (समक्ष), तत् (वह), क्षामये (क्षमाप्रार्थी), त्वाम् (आपको), अहम् (मैं), अप्रमेयम् (अचिन्त्य रूप के कारण) | (११/४२)

आपकी यह महिमा ना जानते हुए, आप मेरे सखा हैं, ऐसा मानकर, प्रेमवश या प्रमादवश भी ‘हे कृष्ण’, ‘हे सखे’, ‘हे यादव’ जो भी हठात् कहा और जो अच्युत ! विनोद के लिये विहार, शय्या, भोजन, आसन के लिये, अकेले में अथवा सबके समक्ष अपमान किया गया हो, आपके इस अचिन्त्य रूप के कारण मैं आपका क्षमाप्रार्थी हूँ |  

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् |
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रमितप्रभाव || (११/४३)
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् |
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् || (११/४४)

पिता असि लोकस्य चर अचरस्य त्वम् अस्य पूज्यः च गुरुः गरीयान् |
न त्वत् समः अस्ति अभ्यधिकः कुतः अन्यः लोक त्रये अपि अप्रतिम प्रभाव || (११/४३)
तस्मात् प्रणम्य प्रणिधाय कायम् प्रसादये त्वाम् अहम् ईशम् ईड्यम् |
पिता इव पुत्रस्य सखा इव सख्युः प्रियः प्रियायाः अर्हसि देव सोढुम् || (११/४४)

पिता (पिता), असि (हो), लोकस्य (लोक के), चर (चर), अचरस्य (अचर के), त्वम् (आप), अस्य (इस), पूज्यः (पूज्यनीय), (और),  गुरुः (गुरु), गरीयान् (श्रेष्ठ) | न (न), त्वत् (आपके), समः (समान), अस्ति (है) अभ्यधिकः (अधिक), कुतः (कैसे), अन्यः (अन्य), लोक (लोक), त्रये (तीनों), अपि (भी), अप्रतिम (अनुपम), प्रभाव (प्रभाववाले) | (११/४३)
तस्मात्(इसलिये), प्रणम्य(प्रणाम करके), प्रणिधाय(दण्डवत होकर), कायम्(शरीर से), प्रसादये(कृपया याचना करता हूँ), त्वाम् (आपको), अहम्(मैं), ईशम्(देवतओं के), ईड्यम्(पूज्य) | पिता(पिता), इव(जैसे), पुत्रस्य (पुत्रका), सखा(सखा), इव (जैसे), सख्युः(सखाके), प्रियः(प्रिय), प्रियायाः(प्रियतमाके), अर्हसि(योग्य है), देव(देव), सोढुम्(सहन करने) | (११/४४)

आप इस चर अचर जगत के पिता हो, श्रेष्ठ गुर और पूज्यनीय हो, अनुपम प्रभाववाले तीनों लोकों में भी आपके समान अन्य नहीं है, अधिक कैसे (होगा ?) (११/४३)
इसलिये काया से दण्डवत होकर, देवतओं के पूज्य, मैं आपसे कृपया याचना करता हूँ, पिता जैसे पुत्र के, जैसे सखा सखा के, प्रिय प्रियतमा के (अपराध) सहन करने योग्य है, देव ! (क्षमा करने में आप समर्थ हैं) | (११/४४)

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे |
तदेव मे दर्शय देवरूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास || (११/४५)

अदृष्ट पूर्वम् हृषितः अस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितम् मनः मे |
तत् एव मे दर्शय देव रूपम् प्रसीद देवेश जगत् निवास || (११/४५)

अदृष्ट (अनदेखा), पूर्वम् (पूर्व में), हृषितः (हर्षित), अस्मि (हूँ), दृष्ट्वा (देखकर), भयेन (भय से), (और), प्रव्यथितम् (व्यथित है), मनः (मन),मे (मेरा) | तत् (वह), एव (ही), मे (मुझको), दर्शय (दिखाइए), देव (देव), रूपम् (रूप), प्रसीद (प्रसन्न हों), देवेश (देवेश), जगत् (जगत), निवास (निवास) | (११/४५)

पूर्व में अनदेखा (रूप) देखकर हर्षित हूँ और भय से मेरा मन व्यथित है वह देव रूप ही मुझको दिखाएँ, हे देवेश ! हे जगन्निवास ! प्रसन्न हों | (११/४५)

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव |
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्त्रबाहो भव विश्वमूर्ते || (११/४६)

किरीटिनम् गदिनम् चक्र हस्तम् इच्छामि त्वाम् द्रष्टुम् अहम् तथा एव |
तेन एव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्त्र बाहो भव विश्व मूर्ते || (११/४६)

किरीटिनम् (मुकुटधारी), गदिनम् (गदाधारी), चक्र (चक्र), हस्तम् (हस्त में), इच्छामि (इच्छित हूँ), त्वाम् (आपको), द्रष्टुम् (देखने को),  अहम् (मैं), तथा (वैसे), एव (ही) | तेन (वह), एव (ही), रूपेण (रूप में), चतुर्भुजेन (चतुर्भुजम्), सहस्त्र (हजारों), बाहो (बाहों वाले), भव (होइए), विश्व (विश्व), मूर्ते (स्वरूप) | (११/४६)

मैं आपको वैसे ही मुकुटधारी, गदाधारी, हस्त में चक्र लिये देखने को इच्छित हूँ, हे सहस्त्रबाहो ! विश्वमूर्ते ! चतुर्भुज रूप हो जाइये | (११/४६)

श्रीभगवानुवाच

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् |
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् || (११/४७)

मया प्रसन्ने तव अर्जुन इदम् रूपम् परम् दर्शितम् आत्म योगात् |
तेजः मयम् विश्वम् अनन्तम् आद्यम् यत् मे त्वत् अन्येन न दृष्ट पूर्वकम् || (११/४७)

मया (मैंने), प्रसन्ने (प्रसन्नतापूर्वक), तव (तुझको), अर्जुन (अर्जुन), इदम् (यह), रूपम् (रूप), परम् (परम), दर्शितम् (दिखाया), आत्मयोगात् (स्वयं के योगसामर्थ्य से) | तेजः (तेज), मयम् (मय), विश्वम् (विश्व), अनन्तम् (अनन्त), आद्यम् (आदिरूप), यत् (जो), मे (मेरा), त्वत् (तेरे), अन्येन (अतिरिक्त), (न), दृष्ट (देखा), पूर्वकम् (पूर्व में) | (११/४७)

अर्जुन ! मैंने तुझको प्रसन्नतापूर्वक, अपने योगसामर्थ्य से यह मेरा परम तेजोमय, आदि, अनन्त, विश्वरूप दिखाया, जो तेरे अतिरिक्त पूर्व में (किसी ने), नहीं देखा | (११/४७)
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः |
एवंरूपं शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर || (११/४८)

न वेद यज्ञ अध्ययनैः न दानैः न च क्रियाभिः न तपोभिः उग्रैः |
एवम् रूपम् शक्य अहम् नृ लोके द्रष्टुम् त्वत् अन्येन कुरु प्रवीर || (११/४८)

(न), वेद (वेदों से), यज्ञ (यज्ञों से), अध्ययनैः (अध्ययन से), (न), दानैः (दान से ही), (न), (और), क्रियाभिः (क्रियाओं से), (न), तपोभिः (तपों से), उग्रैः (उग्र) | एवम् (ऐसा), रूपम् (रूप), शक्य (समर्थ है), अहम् (मैं), नृलोके (नर लोक में), द्रष्टुम् (देखे जाने में), त्वत् (तेरे), अन्येन (अन्यत्र), कुरु (कुरुवंशी), प्रवीर (वीर) | (११/४८)

कुरुवंशी वीर ! मनुष्य लोक में ऐसा रूप न वेदों से, यज्ञों से, अध्ययन से, ना दान से ही और न क्रियाओं से, न उग्र तपों से तेरे अन्यत्र मैं देखने में संभव हूँ | (११/४८)

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् |
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य || (११/४९)

मा ते व्यथा मा च विमूढ भावः दृष्ट्वा रूपम् घोरम् ईद्रक् मम इदम् |
व्यपेत भीः प्रीत मनाः पुनः त्वम् तत् एव मे रूपम् इदम् प्रपश्य || (११/४९)

मा (मत), ते (तुझको), व्यथा (व्यथा), मा (मत), (और), विमूढ (मूढ़), भावः (भाव), दृष्ट्वा (देखकर), रूपम् (रूप), घोरम् (घोर), ईद्रक् (इस प्रकार का), मम (मेरा), इदम्(यह) | व्यपेत(रहित), भीः(भय से), प्रीत(प्रीत), मनाः(मनवाला हो), पुनः (फिर), त्वम् (तू), तत् (वह), एव (ही), मे (मेरा), रूपम् (रूप), इदम् (यह), प्रपश्य (देख) | (११/४९)

इस प्रकार का मेरा यह घोर रूप देखकर तू व्यथित मत हो, मुढ़भाव मत हो, भयरहित हो, प्रीत मनवाला हो, तू फिर मेरा वह ही रूप, यह देख | (११/४९)

इस प्रकार मेरा यह घोर रूप देखकर तू व्यथित मत हो, मुढ़ाभाव मत हो, भयरहित हो, प्रीत मनवाला हो क्योंकी अपने भक्तों के लिये वह रूप परमात्मा का है ही नहीं, वह तो एक लीला थी, जो तेरे को सन्मार्ग में लगाने हेतु मैंने की थी, इसलिये ही कह रहा हूँ कि वह घोर रूप किसी के भी द्वारा, कैसे भी, कितने ही प्रयासों के बाद भी देखना संभव नहीं है, मनुष्य लोक में ऐसा रूप न वेदों से, यज्ञों से, अध्ययन से, ना दान से ही और न क्रियाओं से, न उग्र तपों से तेरे अन्यत्र मैं देखने में संभव हूँ | क्योंकी यह लीला केवल तेरे लिये ही थी | परन्तु अब तू प्रीत मन वाला हो और फिर मेरा वह ही चतुर्भुज रूप जिसका तूने निवेदन किया है, यह देख |

सञ्जय उवाच

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः |
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा || (११/५०)

इति अर्जुनम् वासुदेवः तथा उक्त्वा स्वकम् रूपम् दर्शयाम् आस भूयः |
आश्वासयाम् आस च भीतम् एनम् भूत्वा पुनः सौम्य वपुः महात्मा || (११/५०)

इति (इस प्रकार), अर्जुनम् (अर्जुन से), वासुदेवः (वासुदेव), तथा (वैसा), उक्त्वा (कहकर), स्वकम् (अपना), रूपम् (रूप), दर्शयामास (दर्शन कराया) भूयः (फिर) | आश्वासयाम् (आश्वस्त), आस (किया), (और), भीतम् (भयभीत), एनम् (इस), भूत्वा (होकर), पुनः (फिर), सौम्य (सौम्य), वपुः (मूर्ती), महात्मा (महात्मा) | (११/५०)

इस प्रकार अर्जुन से कहकर वासुदेव ने अपना वैसा (चतुर्भज) रूप का अर्जुन को फिर दर्शन कराया और महात्मा ने सौम्य मूर्ति होकर इस (अर्जुन) को फिर आश्वस्त किया | (११/५०)

अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन |
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः || (११/५१)

दृष्ट्वा इदम् मानुषम् रूपम् तव सौम्यम् जनार्दन |
इदानीम् अस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिम् गतः || (११/५१)

दृष्ट्वा (देखकर), इदम् (यह), मानुषम् (मानवी), रूपम् (रूप), तव (आपका), सौम्यम् (सौम्य), जनार्दन (जनार्दन) | इदानीम् (अब), अस्मि (हूँ), संवृत्तः (स्थिर), सचेताः(सचेत होकर), प्रकृतिम्(स्वभाव को), गतः(प्राप्त हो गया हूँ) | (११/५१)

जनार्दन ! आपका यह सौम्य मानवी रूप देखकर, अब स्थिर चित्त होकर सहज हो गया हूँ | (११/५१)

श्रीभगवानुवाच

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम |
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यम् दर्शनकाङ्क्षिणः || (११/५२)

सु दुर्दर्शम् इदम् रूपम् दृष्टवान् असि यत् मम |
देवाः अपि अस्य रूपस्य नित्यम् दर्शन काङ्क्षिणः || (११/५२)

सु (अति), दुर्दर्शम् (दुर्लभ दर्शन), इदम् (यह), रूपम् (रूप), दृष्टवान् (देखा), असि (है), यत् (जो), मम (मेरा) | देवाः (देवता), अपि (भी), अस्य (इस), रूपस्य (रूप के), नित्यम् (नित्य), दर्शन (दर्शन), काङ्क्षिणः (अभिलाषी हैं) | (११/५२)

मेरा यह जो अति दुर्लभ दर्शन रूप देखा है, देवता भी इस रूप के दर्शन हेतु नित्य अभिलाषी हैं | (११/५२)

योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार परमतत्त्व परमात्मा का यह सौम्य मानुषी, परन्तु चतुर्भुज रूप अर्थात् शंख,चक्र, कमल और गदाधारी चार भुजाओं वाला रूप दर्शन हेतु अति दुर्लभ है और देवता भी इस रूप के दर्शन हेतु नित्य अभिलाषी हैं |

योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस व्यक्तव्य में दो तथ्यों पर बहुत मनन किया, पहला कि देवता भी इस रूप के दर्शन को नित्य अभिलाषी हैं, और यह भी स्पष्ट है कि देव योनि हम साधारण मनुष्य योनि से अति उत्तम है और उत्तम होने का कारण यह नहीं कि उनको उत्तम भोग प्राप्त हैं अपितु देवताओं ने देव योनि की प्राप्ति उत्तम कर्मों द्वारा, पुण्य कर्मों द्वारा, यज्ञों और तपों द्वारा पाप्त की है, वे परमात्मा तत्त्व को हमसे अधिक जानते हैं, इसलिये अगर देवता भी परमतत्त्व परमात्मा के इस चतुर्भुज रूप के दर्शन को नित्य अभिलाषी हैं, तब तात्पर्य स्पष्ट है कि परमात्मा के इस रूप का दर्शन देवताओं को भी अति दुर्लभ है, वे भी इस रूप के दर्शन को नित्य अभिलाषी हैं अर्थात् इस रूप के दर्शन से देवताओं की भी तृप्ति नहीं होती | सारांशतः परमात्मा का यह चतुर्भुज रूप अपने में अवश्य ही कोई विशेषता संजोये हुए है |

वह विशेषता क्या है ? इस पर बहुत मनन किया, पुराणों में, भागवत् में जहाँ भी इस रूप की चर्चा है, उससे जानने की, समझने की बहुत कौशिश की परन्तु तृप्ति नहीं होती थी, समस्त शास्त्र परमात्मा के इस रूप की स्तुतियों से भरे हुए हैं परन्तु कलिकाल की यह विज्ञानिक बुद्धि नामक यंत्र की उन पुराणों की कथाओं से तृप्ति नहीं होती थी, इस बुद्धि को प्रमाण चाहिये | जिस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित जीवन निर्वाह हेतु कहे उपदेशों का, समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह का अंश मात्र भी पालन करके यह स्पष्ट अनुभव हुआ है कि इससे अन्यत्र परमात्मा को पाने का कोई भी अन्य साधन हो ही नहीं सकता तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु यज्ञार्थ कर्मों का पालन करने से जो हृदयस्थ ईष्ट के दिशा निर्देशों को जानने समझने की थोड़ी सी भी योग्यता प्राप्त की है, वह इस तथ्य की पुष्टि करता है कि योगेश्वर के उपदेशों का अनुसरण निश्चित रूप इस संसार सागर से मुक्ति का एकमात्र उपाय है | उसी प्रकार परमात्मा के इस चतुर्भुज रूप की क्या विशेषता है, उसे  प्रमाणित करने योग्य प्रमाण अब मिल गया हो ऐसा निश्चयपूवर्क तो नहीं कह सकता परन्तु परमतत्त्व परमात्मा में श्रद्धा रखने वाले हृदय को आशा की एक किरण अवश्य प्राप्त हुई है तथा हृदय और मस्तिष्क को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस व्यक्तव्य में जो संकेतात्मक भाव है, उस भाव की तृप्ति अवश्य हुई है |

योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार वह परमात्मा अव्यक्त, अचिन्त्य, अकथनीय रूप से, परं अक्षरं ब्रह्म रूप से स्थित है और इस श्लोक के अनुसार परमात्मा का यह चतुर्भुज रूप अति दुर्लभ है तात्पर्य यह कि इस रूप की महिमा अपरम्पार है, जो इस रूप को समझ पायेगा, वो परमात्मा के कार्य करने की विधि को समझ पायेगा क्योंकी इस रूप की विशेषता परमात्मा की चार बाजुएँ हैं तथा परमात्मा के इस व्यक्तव्य के ५२००वर्षों से अधिक व्यतीत हो जाने पर, आज की नवीनतम वैज्ञानिक खोज ‘हिग़स बोसॉन का गौड़ पार्टिकल’ के अनुसन्धान में जहाँ इस सृष्टि के निर्माण हेतु आवश्यक अणु को विभाजित करते हुए, आज तक का सबसे सूक्ष्म और यह कहें कि इससे सूक्ष्म रूप से अणु को विभाजित करना संभव नहीं है अथवा अभी तक तो संभव नहीं है तो अतिशयोक्ति ना होगी | सृष्टि की रचना में, उत्पत्ति में, परिवर्तन में, प्रलय में आवश्यक अणु के सूक्ष्म से सुक्षतम भाग को जब प्राप्त करने को अनुसन्धान किया गया तब एक नहीं अपितु चार प्रकार के ‘गौड़ पार्टिकल’ प्राप्त हुए, जिनसे इस ज्ञात और अज्ञात ना जाने कितने ब्रह्मांडो की रचना हो सकती है | यहाँ ध्यान देने योग्य है कि यह ‘गौड़ पार्टिकल’ चार प्रकार के हैं, पहला है ‘स्पेस’ (space) अर्थात् योगेश्वर द्वारा कहा जड़ प्रकृति का सबसे सूक्ष्म तत्त्व आकाश जिसमें सभी अन्य तत्त्व स्थिति पाए हैं, दूसरा है ‘मास’ (mass) अर्थात् अणु का वह भाग जो भार की उत्पत्ति करता है, वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी तत्त्वों की उत्पत्ति करता है , तीसरा है ‘गुरुत्वाकर्षण’ (gravitational) अर्थात् जो ब्रह्मांडो की स्थिति को, सौरमण्डल को बनाये रखने में आवश्यक है, तथा गीता शास्त्र के अनुसार प्रकृति की सत, राज और तम आदि भावों के, इनके आकर्षण का कारण तथा चौथा और अंतिम है ‘चुम्बकीय विद्युत’ (electro megnatic) अर्थात् जिसका सृष्टि में अपना महत्त्व है और गीता शास्त्र के अनुसार यही प्राणियों के द्वन्द्वात्मक भाव जो जोड़े से होते हैं, जैसे राग द्वेष इत्यादि | यह तो हुई आज तक की नवीनतम खोज कि ज्ञात अज्ञात समस्त ब्रह्मांडो की रचना में जो भी मुलभुत रूप से कार्यरत है वह चार प्रकार से अथवा कहें कि चार भुजाओं से कार्य करता है, यही मेरे अनुभव में परमात्मा का चतुर्भुज रूप है परन्तु यह चार प्रकार के ‘गौड़ पार्टिकल’ कहाँ से उत्पन्न होते हैं, इसकी खोज अब तक नहीं हुई है अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहा वह परं अक्षरं ब्रह्म अव्यक्त रूप से ही स्थित है, केवल इतना ही नहीं इस अनुसन्धान से जो दूसरा तथ्य सामने आया है, वह यह कि ‘There no empty space, total space is filled with Higgs Boson particle in non active sleeping state and these particles get acticated from unknown source and than in the activated state these particles can creat or destroy anything’ तात्पर्य यह कि वह परं अक्षरं ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है, वह क्षीरसागर में, आकाश में आराम करता है और समस्त ब्रह्मांडो की उत्पत्ति, स्थित और प्रलय उसके संकल्प मात्र से संभव है | विज्ञान की इस नवीनतम खोज से किसी का भला हो अथवा नहीं परन्तु मेरे भटकते हुए मन को तो एक विश्वास हुआ है, क्या आपको भी ऐसा महसूस हो रहा है | जो भी है, यह आस्था का विषय है और सबकी आस्था का एक अपना स्वयं का आधार होता है | आइये अब योगेश्वर श्रीकृष्ण के वचनों का अध्ययन करें |    

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया |
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा || (११/५३)

न अहम् वेदैः न तपसा न दानेन न च इज्यया |
शक्य एवम् विधः द्रष्टुम् दृष्टवान् असि माम् यथा || (११/५३)

(न), अहम् (मैं), वेदैः (वेदों से), (न), तपसा (तप से), (न), दानेन (दान से), (न), (और), इज्यया (यज्ञ आदि पूजन से) | शक्य (संभव है), एवम् (इस प्रकार), विधः (विदित), द्रष्टुम् (देखने को), दृष्टवान् (देखा), असि (है), माम् (मुझको), यथा (जैसा) | (११/५३)

मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ आदि पूजन से इस प्रकार विदित देखने को संभव हूँ, जैसा (तूने) मुझको देखा है | (११/५३)

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन |
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप || (११/५४)

भक्त्या तु अनन्यया शक्यः अहम् एवम् विधः अर्जुन |
ज्ञातुम् द्रष्टुम् च तत्त्वेन् प्रवेष्टुम् च परन्तप || (११/५४)

भक्त्या(भक्तिमय), तु(परन्तु), अनन्यया(अन्य,ना), शक्यः(संभव), अहम्(मैं), एवम्(ऐसा), विधः(विदित), अर्जुन(अर्जुन) | ज्ञातुम्(जानने को), द्रष्टुम्(देखने को), (और), तत्त्वेन्(तत्त्व से), प्रवेष्टुम्(प्रवेश को), (और), परन्तप(परन्तप) | (११/५४)

परन्तप अर्जुन ! परन्तु अनन्य भक्ति द्वारा मैं ऐसा विदित करने को, जानने को, देखने को और तत्त्व से प्रवेश को संभव हूँ | (११/५४)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में कहा कि मेरा घोर उग्रकाल रूप किसी के भी द्वारा देखा जाना संभव नहीं है और यह
सौम्य देव रूप, चतुर्भुज रूप भी न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ आदि पूजन से इस प्रकार विदित देखने को संभव हूँ, जिस प्रकार तू देख रहा है, परन्तु अनन्य भक्ति द्वारा मैं ऐसा विदित करने को, साक्षात् करके जानने को और जान कर तत्त्व रूप से प्रवेश को अर्थात् मेरे भाव को प्राप्त होने को संभव हूँ, तात्पर्य यह कि समस्त यज्ञार्थ कर्मों का आचरण अनन्य भक्ति से एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पण भाव के साथ करना चाहिये | किस प्रकार ?

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः |
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव || (११/५५)

मत् कर्म कृत् मत् परमः मत् भक्तः सङ्ग वर्जितः |
निर्वैरः सर्व भूतेषु यः सः माम् ति पाण्डव || (११/५५)

मत् (मेरे लिये), कर्म (कर्म), कृत् (कर), मत् (मेरे), परमः (परायण हो), मत् (मेरा), भक्तः (भक्त हो), सङ्ग (कामना और आसक्ति), वर्जितः (रहित) | निर्वैरः (वैरभाव से रहित), सर्व (समस्त), भूतेषु (प्राणियों में),यः (जो), सः (वह), माम् (मुझको), एति (पाता है), पाण्डव (पाण्डव) | (११/५५)

मेरे लिये कर्म कर, मेरे परायण हो, मेरा भक्त हो, जो कामना और आसक्ति रहित समस्त प्राणियों में वैरभाव से रहित है, पाण्डव ! वह मुझको पाता है | (११/५५)

मेरे लिये कर्म कर जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पूर्व में भी निर्देश दिया है कि जो करता है, जो खाता है, जो यज्ञरूप कर्म करता है, जो दान देता है, जो तप करता है कौन्तेय ! वह मेरे को अर्पण कर | (९/२७) इस प्रकार शुभ अशुभ फलरूप कर्म बंधन से मुक्त होकर, ‘संन्यास’, ‘योग’ युक्त विमुक्त आत्मा होकर, मुझको प्राप्त करोगे | (९/२८) तथा इसके लिये हृदयस्थ ईष्ट के परायण होने को, अनन्य भक्ति भाव से भावित होने को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी पूर्व श्लोक में भी कहा है तथा जो कामना और आसक्तिरहित समस्त प्राणियों में वैरभाव से रहित है, पाण्डव ! वह मुझको पाता है |

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस एक श्लोक में पुनः पूर्ण कृष्णयोग का सार कह दिया | कामना और आसक्तिरहित समस्त प्राणियों में वैरभाव से रहित अर्थात् समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह और ‘मत् कर्म कृत् मत् परमः मत् भक्तः सङ्ग वर्जितः’ अर्थात् जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु कृष्णयोग परायण हो जा |

इस प्रकार ग्याहरवें अध्याय का समापन होता है |



***** ॐ तत् सत् *****