Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

अध्याय २

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** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
द्वितीयोऽध्यायः  
गीता शास्त्र का प्रथम अध्याय गुरु-शिष्य संवाद हेतु भूमिका रूप में है और द्वितीय अध्याय सम्पूर्ण अध्यात्म विषयक शास्त्रों मे, वेदांत और उपनिषदोंअद्वितीय है | अद्वितीय अर्थात् यहाँ जिस कृष्णयोग का बीजारोपण होता है | वह कृष्णयोग ही अद्वितीय है | इस कृष्णयोग की अद्वितीयता के दो-तीन मुख्य पहलू हैं | प्रथम यह कि यह कृष्णयोग अर्थात् परमात्मा के साक्षात्कार का योगेश्वर श्रीकृष्ण की अमृतमय वाणी द्वारा उपदेशित योग है | परमात्मा श्रीकृष्ण ने कोई भी पुर्वप्रचलित योग अथवा ज्ञान पद्यति अर्जुन के प्रति नहीं कही, अगर ऐसा ही होता, तो श्रीकृष्ण ने वस्तुतः कुछ भी नहीं कहा, केवल वही पुराना दोहराया भर होगा, परन्तु ऐसा नहीं है | यह कृष्णयोग ना तो तथाकथित ज्ञानयोग है, ना अष्टांगयोग, ना पतांजलि योग-सूत्र, ना ध्यानयोग है और ना ही भक्तियोग है | इन सभी योगों का योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने नियमानुसार तथा कृष्णयोग पद्धति की आवश्यक्ता अनुसार समावेश कर, मनुष्य के स्वभाव के रूपांतरण को एक अद्वितीय योग का बीजारोपण करा है, जिसका उद्देश्य है मनुष्य के स्व-भाव का रूपांतरण !! स्वभाव का रूपांतरण ? यह अक्षरसः सत्य है | वस्तुतः प्रत्येक चेतन-अचेतन तत्त्व का एक स्वभाव होता है | इसी रूप मे परमपिता परमात्मा का भी एक स्वभाव है | परन्तु परमतत्त्व का यह स्वभाव माया के, प्रकृति के गुणों से परे होने के कारण परं ही होता है,  परमतत्त्व का वह स्व-भाव परं-भाव कहलाता है, तथा श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित योग पद्धति के आचरण स्वरूप मनुष्य के स्व-भाव का रूपांतरण कर परं-भाव की प्राप्ति का नाम ही कृष्णयोग है |

कृष्णयोग की अद्वितीयता का दूसरा पहलू यह है कि इस योग के बीजारोपण का अर्थात् इस कृष्णयोग के आरम्भ का कभी नाश नहीं होता, अर्थात् आप इस कृष्णयोग को अपना भर लें, फिर आप भला ही इस कृष्णयोग को छोड़ दें, परन्तु यह योग आपको नहीं छोड़ेगा | शिथिल प्रयत्न करनेवाले को भी यह योग जन्म-जन्मान्तरों की साधना के पश्चात उसी सौपन पर ला खड़ा कर देता है, जहाँ परमात्मा का वास होता है, परमधाम होता है, यह कृष्णयोग परमात्मा का साक्षात्कार करा कर ही दम लेता है |

तीसरा पहलू यह है कि इस कृष्णयोग का सीमित फल रूपी दोष भी नहीं होता अर्थात् इस कृष्णयोग का आचरण सांसारिक पाप-पुण्य की परिधि से मुक्त है | इसके आचरण स्वरूप आपको किसी सांसारिक भोगों की प्राप्ति नहीं होती कि भोग मिले, उनको भोगा और उनका क्षय हो जाए | इस योग का थोड़ा सा भी आचरण आपका उर्ध्वमुखी उत्थान ही करता है, संसार के महान भय से आपकी रक्षा करता है | संसार के महान भय अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, मूढ़ता और भ्रम आदि से उत्पन्न इन्द्रियों, मन और बुद्धि का नाश करने वाले, दुःख, शोक और विषाद रूपी भय | संसार के इन्ही महान भय से अर्जुन ग्रसित हो रहा था | हम सभी को जन्म-जन्मान्तरों से यही महान भय पीड़ित कर रहें हैं | मनुष्य के स्वभाव से उत्पन्न इसी भय से मुक्ति को परमात्मा श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रति यह योग कहा |

शोक से उद्विग्न मन वाले, धनुष-बाण त्यागे अर्जुन को रणभूमि में रथ के मध्य भाग में बैठा छोड़कर, तथा शास्त्र में प्रवेश से पूर्व ही, शास्त्र में कहे परमात्मा श्रीकृष्ण के उपदेशों पर संक्षिप्त रूप से मनन करने का मंतव्य केवल यह है, कि अगर आप मुक्ति के, मोक्ष के अभिलाषी नहीं है, अध्यात्म विषयक ज्ञान के प्रति भी कोई जिज्ञासा नहीं रखते, तो भी आपको गीता शास्त्र का अध्ययन करना चाहिये | क्योंकि गीता शास्त्र केवल मुक्ति का, मोक्ष का, निर्वाण का, परमात्मा को साक्षात् करने का ही शास्त्र नहीं है | संसार में जीवन निर्वाह हेतु, अपने उर्ध्वमुखी उत्थान हेतु, चरित्र निर्माण हेतु, जीवन के आधारभूत मूल्यों के आंकलन हेतु, पाप-पुण्य के आडम्बरों से परे, तथाकथित धार्मिक कर्म-कांडों से परे, सरल एवं  सुगम जीवन यापन हेतु मनुष्य के चहुँमुखी उत्थान का, मनुष्य के अपने स्वरूप की पहचान का स्त्रोत है, आपका यह गीता शास्त्र | मेरा अपना मत यह है कि गीता किसी धार्मिक संप्रदाय का नहीं, अपितु मनुष्य मात्र का शास्त्र है | शास्त्र में प्रवेश से पूर्व इस मनन का भी यही अभिप्राय है कि गीता शास्त्र का अध्ययन प्रत्येक मनुष्य को अवश्य करना चाहिये |

अब अर्जुन की मनोदशा को समझने का प्रयास करते है | अगर शत्रुवत वैरभाव से कोई भी महान सेना अर्जुन के समक्ष उपस्थित होती, तो गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन मोह और विषाद को ना प्राप्त होता | परन्तु यहाँ तो सम्पूर्ण पक्ष-विपक्ष के महान योद्धा अपने ही आदरणीय, पूज्यनीय, आचार्य, पितामह, भाई और पुत्र इत्यादि थे | जो अपने अपने कारणों से, बन्धनों से, अथवा स्वार्थवश पक्ष-विपक्ष में थे | केवल दुर्योधन आदि आततायियों को छोड़, शेष कुलक्षय के परिणाम का चिंतन अर्जुन को उद्विग्न किये था | जिन संबंधों को साथ लेकर ही अर्जुन को राज्य, राज्यभोग, सुख और जीवन की आकांक्षा थी, उन संबंधों का विच्छेद अनिवार्य हो गया था | अर्जुन का मन राज्य और कुलक्षय को लेकर भ्रमित और विषादपूर्ण हो गया था | वह युद्ध के इस स्वरूप से निवृत होना चाहता था | अब आगे

सञ्जय उवाच :-
तं तथा क्रिपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् |
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः || (२/१)

तम् तथा कृपया आविष्टम् अश्रु पूर्ण आकुल ईक्षणम् |
विषीदन्तम् इदम् वाक्यम् उवाच मधुसूदनः || (२/१)

तम्(उसके प्रति), तथा(उस प्रकार), कृपया(करुणा से), आविष्टम्(व्याप्त हुए), अश्रु पुर्ण आकुल ईक्षणम्(अश्रुपूर्ण व्याकुल नेत्रों वाले) | विषीदन्तम्(विषादयुक्त), इदम्(यह), वाक्यम्(वचन), उवाच(बोले), मधुसूदनः(मधु नामक दैत्य को मारने वाले श्रीकृष्ण) | (२/१)

उस प्रकार करुणा से व्याप्त अश्रुपूर्ण व्याकुल नेत्रों वाले विषाद युक्त्त अर्जुन के प्रति मधुसुदन ने यह वचन बोले |

करुणा से व्याप्त अर्थात् जिस राज्य की प्राप्ति को अर्जुन उद्यत हुआ था, और विजय को सक्षम भी था, परन्तु सनातन कुलधर्म और कुलक्षय के भय से इस युद्ध से निवृत होने को करुणा से व्याप्त हुआ, अश्रुपूर्ण व्याकुल नेत्रों वाला अर्जुन, नेत्रों मे अश्रु तो दुःख और सुख दोनों से आ जाते है, परन्तु अश्रुपूर्ण नेत्र, व्याकुल भी हो तो एक ही अर्थ होता है कि वह मनुष्य अपने समक्ष किसी महान भय को देख रहा है तथा उस भय को कैसे टाला जा सकता है इस व्यथा से व्याकुल है | यह व्यथा ही अर्जुन के विषाद का कारण थी | इस विषाद को प्राप्त अर्जुन के प्रति मद का नाश करने वाले मधुसूदन श्रीकृष्ण ने यह वचन बोले |

श्री भगवानुवाच :-
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तीकरमर्जुन || (२/२)
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते |
क्षुद्रं ह्रदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप || (२/३)

कुतः त्वा कश्मलम् इदम् विषमे समुपस्थितम् |
अनार्य जुष्टम् अस्वर्ग्यम् अकीर्तिकरम् अर्जुन || (२/२)
क्लैब्यम् मा स्म गमः पार्थ न एतत् त्वयि उपपद्यते |
क्षुद्रम् हृदय दौर्बल्यम् त्यक्त्वा उत्तिष्ठ परम् तप || (२/३)

कुतः(कहाँ से), त्वा(तुझे), कश्मलम्(मोह रूपी कायरता), इदम्(यह), विषमे(विषम अवसर पर), समुपस्थितम्(प्राप्त हुई) | अनार्य जुष्टम्(श्रेष्ठ पुरूषों द्वारा आचरित नहीं है), अस्वर्ग्यम्(स्वर्ग देने वाली नहीं है), अकीर्तिकरम्(अकीर्ति कारक) अर्जुन(अर्जुन) | (२/२)
क्लैब्यम्(नपुंसकता को), मा(मत), स्म(प्राप्त), गमः(हो), पार्थ(पृथा पुत्र), (ना), एतत्(यह), त्वयि(तुझमें), उपपद्यते(उचित जान पड़ता) | क्षुद्रम्(तुच्छ), हृदय दौर्बल्यम(हृदय की दुर्बलता), त्यक्त्वा(त्यागकर), उत्तिष्ठ(खड़ा हो जा), परम् तप(युद्ध मे शत्रुओं को तपाने वाले अर्जुन) | (२/३)

अर्जुन ! इस विषम अवसर पर यह कायरता रूपी दोष कहाँ से प्राप्त हुआ ? जिसका श्रेष्ठ पुरुष आचरण नहीं करते, यह ना ही स्वर्ग देने वाला है और ना किर्तिकारक है | (२/२)
पार्थ ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, यह तुझमें उचित नहीं जान पड़ती | परन्तप ! अपने हृदय की इस दुर्बलता को त्याग कर युद्ध हेतु खड़ा हो जा | (२/३)

विषम अवसर अर्थात् जिसकी समता का कोई भी अन्य अवसर ना हो, जहाँ एक ही कुल के समस्त सदस्य पक्ष-विपक्ष में
विभाजित हो युद्ध को प्रस्तुत हो जाए, ऐसे ना भूतो ना भविष्यति जैसे महायुद्ध के अवसर पर, यह कायरता रूपी दोष
कहाँ से प्राप्त हुआ ? लाक्षाग्रह, युधिष्ठिर का जुए में हारना, द्रौपदी का अपमान, बारह वर्ष का वनवास, एक वर्ष का अज्ञातवास, दुर्योधन को मुक्त कराने को गन्धर्वों से युद्ध, किरात रूप धारण करे शिव से युद्ध, विराट के युद्ध में अकेले ही पितामह, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, शकुनी दुशासन सहित दुर्योधन को हराना | ऐसे अर्जुन में यह कायरता रूपी दोष कहाँ से आया ? सन्मार्ग पर आरुड़ श्रेष्ठ पुरुष तो ऐसा आचरण नहीं करते, इस अवसर पर युद्ध से निवृत होना अथवा कुलक्षय के भय से निःशस्त्र रहकर युद्ध में प्रतिकार ना कर मृत्यु को प्राप्त होना, परमात्मा श्रीकृष्ण के अनुसार कोई पुण्य का कार्य नहीं है, इसलिये यह स्वर्ग देने वाला कृत्य भी नहीं है तथा क्षत्रिय का युद्ध से पलायन कीर्तिदायक भी नहीं है | तथा पार्थ नपुंसकता को मत प्राप्त हो | तू पौरुष और पुरुषार्थ के लिये प्रसिद्ध है, यह पौरुष और पुरुषार्थ विहीन आचरण ही नपुंसकता है, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती | समस्त शत्रुओं को तपाने वाले परन्तप अर्जुन हृदय की दुर्बलता को त्याग कर युद्ध हेतु खड़ा हो जा |

संवाद में सब कुछ कहने में नहीं आता, दो व्यक्तियों के बिच संवाद मे बहुत कुछ भाव-भंगिमा से भी कहा जाता है | श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति वचनों पर मनन करने से ऐसा प्रतीत होता है, कि श्रीकृष्ण अर्जुन के युद्ध से निवृत होने की अभिलाषा से प्रसन्न तो नहीं है, अपितु अर्जुन के इस आचरण के प्रति उनके मन में थोड़ा सा रोष भी है, अन्यथा परमात्मा नपुंसकता जैसे शब्द का प्रयोग नहीं करते | यह रोष उचित भी है, क्योंकि युद्ध से पूर्व युद्ध के इस स्वरूप की तस्वीर अर्जुन के समक्ष स्पष्ट थी | तब अर्जुन को कुलक्षय के नाश से उपराम होने का विचार कर लेना चाहिये था | श्रीकृष्ण को ही सर्वेसर्वा बना, उन्हें ही शांतिदूत और सम्मान पूर्वक संधि ना होने पर, उनसे ही युद्ध का निर्णय कहलवा कर, अर्जुन अब युद्ध से उपराम होना चाहता था | श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण आर्यावर्त मे अनीति, अन्याय, अधर्म के विरुद्ध आजीवन अभियान करा | पाण्डवों के भी पक्षधर वे केवल इसलिये थे, कि पाण्डव धर्म के साथ खड़े थे | ऐसे मे अर्जुन का युद्ध से पलायन किसको उचित जान पड़ता ? इसलिये ही प्रभु कहते हैं कि सन्मार्ग पर आरुड़ श्रेष्ठ पुरुष ऐसा आचरण नहीं करते | अर्जुन ! यह हृदय की दुर्बलता है, इसका त्याग कर |

परन्तु अर्जुन कुलक्षय को लेकर, सुनी-सुनाई सनातन धर्म की व्याख्या को लेकर, अधर्म और पाप का आश्रय न लेने हेतु अपने ही विचारों से इतना भावित और व्याकुल था, कि वह प्रभु के वचनों को सुना-अनसुना सा करता हुआ पुनः अपने मन की व्यथा श्रीकृष्ण के प्रति कहता है |

अर्जुन उवाच :-
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मदुसूदन |
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन || (२/४)
गुरुनहत्वा हि महानुभाव श्रेयो भोक्त्तुं भैक्ष्यमपीह लोके |
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् || (२/५)

कथम् भीष्मम् अहम् सङ्ख्ये द्रोणम् च मधुसूदन |
इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजा अर्हो अरिसूदन || (२/४)
गुरुन् अहत्वा हि महा अनुभावान् श्रेयः भोक्तुम् भैक्ष्यम् अपि इह लोके |
हत्वा अर्थ कामान् तु गुरुन् इह एव भुञ्जीय भोगान् रुधिर प्रदिग्धान् || (२/५)

कथम्(किस प्रकार), भीष्मम्(पितामह भीष्म), अहम्(मैं), सङ्ख्ये(रणभूमि में), द्रोणम्(द्रोणाचार्य), (और), मधुसूदन(मधुसूदन) | इषुभिः(बाणों से), प्रति(प्रति), योत्स्यामि(युद्ध करूँगा), पूजा अर्हौ(पूजनीय), अरिसूदन(अरिसूदन) | (२/४)
गुरुन्(गुरुजनों को), अहत्वा(हत्या ना), हि(क्योंकि), महाअनुभावान्(महानुभाव), श्रेयः(कल्याणकारी), भोक्त्तुम्(भोग), भैक्ष्यम् (भिक्षान्न), अपि(भी), इह(इस), लोके(लोक में) | हत्वा(हत्या), अर्थ कामान्(अर्थ और काम), तु(तो), गुरुन्(गुरुजनों को), इह(यहाँ), एव(ही), भुञ्जीय(भोगूँगा), भोगान्(भोगों को), रुधिर(रक्त),प्रदिग्धान्(रंजित, सने हुए) | (२/५)

मधुसूदन ! मै रणभूमि में किस प्रकार बाणों से पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य के विरुद्ध युद्ध करूँगा | अरिसूदन ! ये दोनों ही पूजनीय है | (२/४)
इन महानुभावों और गुरुजनों की हत्या न करके मेरे लिये इस लोक मे भिक्षान्न का भोग भी कल्याणकारी है | क्योंकि गुरुजनों की हत्या से यहाँ रुधिर से सने हुए अर्थ और काम रूप भोग ही तो भोगूँगा | (२/५)
मधुसूदन और अरिसूदन अर्थात् आप मधु-कैटभ आदि दैत्यों का नाश करने वाले तथा आसुरी स्वभाव के राक्षसों का नाश करने वाले है और आप ही पूजनीय पितामह और गुरुजनों का नाश करने को कहते है ? किस प्रकार इनको बाणों से मारूं, इनकी हत्या स्वरूप इनके रुधिर से सने अर्थ और काम रूपी भोग ही तो मिलेंगे | इससे तो मैं भिक्षान्न का अन्न भी  कल्याणकारी मानता हूँ | अर्जुन अब संसार मे प्रवृत होने को प्रवृति विषयक धर्म, अर्थ और काम इन तीनो तत्त्वों के प्रति वैराग्य भाव से भावित हो रहा था | वह किसी भी प्रकार इस युद्ध से निवृत होना चाहता था | इसी निवृति हेतु पुनः श्रीकृष्ण से कहता है | कि

न चैतद्विद्यः  कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः |
यावेन हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः || (२/६)

न च एतत् विद्यः कतरत् नः गरीयः यत् वा जयेम यदि वा नः जयेयुः |
यान् एव हत्वा जिजीविषामः ते अवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः || (२/६)

(नहीं), (और), एतत्(यह), विद्यः(जानते), कतरत्(दोनों में से कौन), नः(हमारे लिये), गरीयः(श्रेष्ठ), यत् वा(अथवा), जयेम (जीतेंगे), यदि वा(अन्यथा), नः(हमको), जयेयुः(जीतेंगे) | यान्(जिनको), एव(ही), हत्वा(हत्या), (नहीं), जिजीविषामः(जीने की अभिलाषा), ते(वे), अवस्थिताः(स्थित हैं), प्रमुखे(सामने), धार्तराष्ट्राः(धृतराष्ट्र के पुत्र) | (२/६)
                       
हम यह भी नहीं जानते कि दोनों में से अर्थात् युद्ध में प्रवृत होने में अथवा निवृत होने में हमारे लिये क्या श्रेष्ठ है ? हम जीतेगें या वे ही हमको जीतेगें जिनकी हत्या कर हम जीवन की अभिलाषा भी नहीं रखते | ये ही सब, धृतराष्ट्र के पुत्रों के साथ, सामने उपस्थित हैं | (२/६)

श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध के लिये कहते हैं परन्तु अर्जुन के वचनों से स्पष्ट है कि व्यथा और व्याकुलता, मोह और विषाद के कारण वो अपना प्राकृतिक स्वभाव खो चुका है, अकेला ही विराट के युद्ध में हस्तिनापुर के समस्त महान योद्धाओं को पराजित करने वाला अर्जुन, अब अपनी जीत के प्रति ही आशंकित लग रहा है, और कहता है कि हम यह भी नहीं जानते कि दोनों में से अर्थात् युद्ध में प्रवृत होने में अथवा निवृत होने में हमारे लिये क्या श्रेष्ठ है ? हम जीतेगें या वे ही हमको जीतेगें जिनकी हत्या कर हम जीवन की अभिलाषा भी नहीं रखते | ऐसी मानसिकता से, द्वंदों से जब मनुष्य की विवेकबुद्धि भ्रमित होती है, वह कोई निश्चय नहीं कर पाता, तब मनुष्य अपने उस हितैषी की सलाह चाहता है, जिस सुहृदय पर वह सबसे अधिक विश्वास करता है | ऐसा ही यहाँ होता है, अपनी अनिश्चितता को वह श्रीकृष्ण को समर्पित करता है |

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् || (२/७)
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् य्च्छोकमुच्छोष्णमिन्द्रियाणाम् |
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् || (२/८)

कार्पण्य दोषः उपहत स्वभावः पृच्छामि त्वाम् धर्म सम्मूढ चेताः |
यत् श्रेयः स्यात् निश्चितम् ब्रूहि तत् मे शिष्यः ते अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् || (२/७)
न हि प्रपश्यामि मम अपनुद्यात् यत् शोकम् उच्छोषणम् इन्द्रियाणाम् |
अवाप्य भूमौ असपत्नम् ऋद्धम् राज्यम् सुराणाम् अपि च आधिपत्यम् || (२/८)

कार्पण्य(कायरता रूपी), दोषः(दोष), उपहत(नष्ट), स्वभावः(स्वभाववाला), पृच्छामि(पूछता हूँ), त्वाम्(आपसे), धर्म सम्मूढ चेताः (धर्म के विषय में मोहित चित्त से) | यत्(जो), श्रेयः(कल्याणकारी), स्यात्(हो), निश्चितम्(निश्चित), ब्रूहि(कहिये), तत्(वह), मे (मुझको), शिष्यः(शिष्य), ते(आपका), अहम्(मैं), शाधि(साधिये), माम(मुझको), त्वाम्(आपके), प्रपन्नम्(शरण हूँ) | (२/७)
(नहीं), हि(क्योंकि), प्रपश्यामि(देखता हूँ), मम(मेरी), अपनुद्यात्(दूर कर सके), यत्(जो), शोकम्(शोक को), उच्छोषणम् (सुखानेवाले को), इन्द्रियाणाम्(इन्द्रियोंको), अवाप्य(प्राप्त होकर भी), भूमौ(भूमि का), असपत्नम्(निष्कंटक), ऋद्धम्(धन-धान्य संपन्न), राज्यम्(राज्य को), सुराणाम्(देवताओं को), अपि(भी),(और), आधिपत्यम्(स्वामित्व) | (२/८)

कायरता रूप दोष से नष्टप्राय स्वभाव वाला, धर्म के संबंध मे मोहित चित्त हुआ, मैं आपसे पूछता हूँ, कि जो भी निश्चित कल्याणकारी हो वह मुझसे कहिये | आपकी शरण में आया मैं आपका शिष्य हूँ, मुझे साधिये | (२/७)
क्योंकि पृथ्वी के धन-धान्य संपन्न राज्य को अथवा देवताओं के स्वामित्व को पाकर भी, ऐसा कोई उपाय नहीं देखता, जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर कर सके | (२/८)

अर्थरुपी राजसुख और कामरूपी भोगों हेतु अपने स्वार्थ कारणों के पाश में पशुवत से बंधे, पक्ष-विपक्ष मे विभाजित स्वजनों को देख अर्जुन का भ्रमतीव च मे मन:, मन भ्रमित हो रहा था | इति अनुशुश्रुम सुने-सुनाए धर्म के कारण मोहित चित्त धर्मसंमूढचेताः वाला अर्जुन श्रीकृष्ण द्वारा कहे कायरता रूप दोष को स्वीकार करते हुए, कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः  कायरता रूपी दोष से नष्ट स्वभाव अर्थात जिस आधार पर मनुष्य धर्म, अर्थ और काम को लेकर निश्चय पूर्वक संसार में प्रवृत होता रहा है | कारणोंवश वह आधार, वह निश्चय डगमगा जाता है | धर्म, अर्थ और काम जीवन में निरर्थक मालूम पड़ते है | अब वह किस उद्देश्य हेतु जीवन में प्रवृत हो, कोई दिशा, कोई मार्ग नहीं सूझता | इस प्रकार जब वीर चित्त पुरुष भी जब संसार में प्रवृत नहीं हो पाता, उसे ही कायरता रूपी दोष से नष्ट स्वभाव कहते हैं | इस नष्ट स्वभाव के कारण अर्जुन कोई ऐसा उपाय नहीं देख पा रहा, जिसके कारण वह युद्ध को प्रस्तुत हो जाए, श्रीकृष्ण द्वारा उसे अनार्यजुष्टम और क्लैब्यं कहने पर भी अर्जुन महानुभावों और गुरुजनों के रुधिर से सने अर्थरुपी राज और कामरूपी भोगों से भिक्षान्न कल्याणकारी मानता है | अगर पृथ्वी के निष्कंटक धन-धान्य संपन्न राज्य और स्वर्ग के आधिपत्य हो, तो भी अर्जुन का विषाद नहीं जाता | अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति सदा ही समर्पित रहा है | परन्तु आज श्रीकृष्ण कहने पर भी युद्ध को प्रस्तुत नहीं हो रहा, इसका क्या कारण है ? कारण यह है कि अर्जुन मन और इन्द्रियों के अधीन जीवन यापन करता है, इन्ही से देखता समझता है, अर्जुन संसार को, जीवन की सार्थकता को केवल इन्द्रियों और मन से देख रहा है | इसलिये तो कहता है कि मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देखता, जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर कर सके | इन्द्रियों और मन से जीने वाला अन्ततः द्वन्दों को ही, मूढ़ता को ही, मोह को, शोक को, विषाद को ही प्राप्त होता है | यही हम सब के साथ सदा से होता रहता है | मूढ़ता, मोह, शोक, विषाद सदा हमें घेरे रहतें हैं और हम सदैव पशुवत से पृथ्वी पर रेंगते हुए जीते रहते हैं | इतना होने पर भी अर्जुन ने अपना विवेक नहीं खोया | वह परमात्मा श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित हो कहता है, कि मैं आपकी शरण में आया हूँ, आपका शिष्य हूँ शाधि माम् अर्थात् मुझे साधिये | केवल शिक्षा नहीं, केवल मार्ग-दर्शन नहीं अपितु मुझे साधिये | साधिये अर्थात् मुझे वो उपदेश कहिये, वो आदेश दीजिये, उस कर्म को प्रेरित कीजिये कि मैं पुनः जन्म-जन्मान्तरों तक दोबारा न लड़खड़ाऊँ | अर्जुन का यही समर्पण उसे परमार्थ मार्ग के उपदेशों का अधिकारी  बनाता है |

सञ्जय उवाचः-
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह || (२/९)
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः || (२/१०)

एवम् उक्त्वा हृषीकेशम् गुडाकेशः परम् तप |
न योत्स्ये इति गोविन्द उक्त्वा तूष्णीम् बभूव ह || (२/९)
तम् उवाच हृषीकेशः प्रहसन् इव भारत |
सेनयोः उभयोः मध्ये विषीदन्तम् इदम् वचः || (२/१०)

एवम्(इस प्रकार), उक्त्वा(कहकर), हृषीकेशम्(हृषीकेश के प्रति), गुडाकेशः(निद्रा को जीतनेवाला अर्जुन), परन्तप(परन्तप) | न (नहीं), योत्स्ये(युद्ध करना), इति(यह), गोविन्दं(गोविन्दं), उक्त्वा(कहकर), तूष्णीम्(चुप), बभूव(हो गया), (स्पष्ट) | (२/९)
तम्(उसको), उवाच(बोले), हृषीकेशः(हृषीकेश), प्रहसन्(मुस्कुराते हुए), इव(से), भारत(भारत) | सेनयोः(सेनाओं), उभयोः(दोनों), मध्ये(मध्य में), विषीदन्तम्(शोकाकुल), इदम्(यह), वचः(वचन) | (२/१०)

राजन ! गुडाकेश हृषीकेश के प्रति इस प्रकार स्पष्ट कह कर चुप हो गये, गोविन्द ! मै युद्ध नहीं करूँगा | (२/९)
भरतवंशी ! तब हृषीकेश ने दोनों सेनाओं के मध्य स्थित शोकाकुल अर्जुन को मुस्कुराते हुए से यह वचन बोले | (२/१०)

ना भूतो ना भविष्यति जैसे महायुद्ध के द्वार पर दोनों सेनाओं के मध्य निःशस्त्र हुआ रथ के मध्य भाग में बैठा पाण्डवों का सबसे उत्तम योद्धा और निश्चित रूप से दोनों सेनाओं का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन, गोविन्द ! मैं युद्ध नहीं करूँगा, ऐसा स्पष्ट कहकर चुप हो गया | और परमात्मा श्रीकृष्ण प्रहसन इव मुस्कारते हुए से अर्जुन को संबोधित करने जा रहे हैं | क्या परमात्मा श्रीकृष्ण का ऐसा करना कुछ असंगत नहीं लगता | परन्तु ऐसा नहीं है | जहाँ भी संवाद होता है, वहां सब कुछ कहने में नहीं आता, बहुत कुछ भाव-भंगिमा से ही कहा और सुना जाता है | परमात्मा श्रीकृष्ण का अर्जुन के अश्रुपूर्ण व्याकुल नेत्रों पर, उसकी व्यथा पर, उसकी सनातन धर्म की व्याख्या पर तो मुस्कुराए ही, साथ ही अर्जुन के पृथ्वी और स्वर्ग के स्वामित्व से, धर्म से, अर्थ से और काम के प्रति वैराग्य पर भी प्रभु हसें होंगे | क्योंकि जो वैराग्य सांसारिक कारणोंवश उत्पन्न होता है, वह कभी फलित नहीं होता | पारिवारिक कारणों से, घर-गृहस्थी के झंझटों से, नौकरीपेशा कारणों से, पत्नी-बच्चों के कारण, कितने ही मनुष्य प्रतिदिन सन्यास का संकल्प करते है | क्या ऐसे संकल्प, ऐसे वैराग्य फलित होते है ? कदापि नहीं | इस तथ्य को भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रति स्पष्ट कहा है कि “ जो अहंकार का आश्रय लेकर तू यह मान रहा है, कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या सिद्ध होगा; तेरा स्वभाव तुझे युद्ध में लगा देगा | कौन्तेय ! मोह के कारण जिस युद्ध तू को नहीं करना चाहता, अपने स्वभावजन्य कर्मों से बंधा हुआ उसको भी परवश होकर करेगा ” | (१८/५९,६०) तात्त्पर्य यह कि मनुष्य का यह मोह, यह विषाद, उसका इन्द्रियों और मन से संसार को जानने और समझने का आचरण कल्याणकारी नहीं होता, मन और इन्द्रियों के अधीन हो जीवन यापन करने वाला जीव, अन्ततः मोह, शोक, विषाद में ही तो गिरता है | जब तक मनुष्य अध्यात्म विषयक ज्ञान चक्षुओं से संसार को देखने की क्षमता प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसका पतन होता ही रहता है |

अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति शिष्यत्व भाव से समर्पित था | परन्तु यहाँ उसका समर्पण भी सशर्त हो गया | वह परमात्मा की शरण तो ग्रहण करता है, शिष्य भाव से समर्पित हो उनसे निवेदन भी करता है कि धन-धान्य संपन्न पृथ्वी के निष्कंटक राज्य तथा स्वर्ग के आधिपत्य से भी परे, धर्म, अर्थ और काम से भी परे, जो भी निश्चित हितकारी और परम कल्याणकारी हो, उसे मेरे प्रति कहिये, परन्तु अर्जुन शर्त भी रखता है, कि मै युद्ध नहीं करूँगा | परमात्मा के प्रति सशर्त समर्पण केवल मनुष्य की आसक्त इन्द्रियों और मोहित मन की देन है | जब तक हमारा समर्पण परमात्मा के प्रति सशर्त होगा, कारणोंवश होगा, तब तक संसार में आवागमन लगा रहता है | जिस क्षण परमात्मा के प्रति मनुष्य का समर्पण निःस्वार्थ भाव से, कामना और आसक्तिरहित हो जाएगा, उसी क्षण परमात्मा का साक्षात्कार हो जाएगा | परन्तु अर्जुन के सशर्त समर्पण में भी एक दैविक भाव था | अर्जुन युद्ध से निवृत होने को, सांसारिक धर्म, अर्थ और काम से परे, जो निश्चित ही परमकल्याणकारी मार्ग हो, ऐसे निवृति विषयक मार्ग हेतु श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित हुआ था | शोकग्रस्त अर्जुन के इसी सशर्त समर्पण भाव पर परमात्मा श्रीकृष्ण प्रसन्नतापूर्वक मुस्कराते हुए अर्जुन को जो उपदेश देते है वही है आपका                  
श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवाद |

परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति ही परमहित है, परमकल्याणकारी है | इस श्लोक से पूर्व जो भी श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद है, वह महाभारत की युद्धस्थली में दो सेनाओं के मध्य हुआ श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद है | परन्तु इस श्लोक के उपरान्त संवाद का विषय महाभारत की युद्धस्थली कुरुक्षेत्र से सिमटकर, अन्तकरण की युद्धस्थली में इन्द्रियों. मन, बुद्धि और अहंकार पर आधिपत्य हेतु, देवी और आसुरी सम्पदा का युद्ध है | विद्या-अविद्या, ज्ञान-अज्ञान का विषय है | कामना, आसक्ति, अर्थ और काम रूपी धर्म तथा भोगों से माया के पाश से बंधे मनुष्य की मुक्ति हेतु, परमात्मा की शरण आए, साधक का युद्ध है | परमात्मा को प्रीतिकर भी वही मनुष्य है, जो अर्थ और काम रूपी धर्म का त्याग करके, कामना और आसक्तिरहित कल्याणकारी धर्म का,परमार्थ मार्ग का अनुयायी हो | इसीलिये परमात्मा श्रीकृष्ण प्रसन्नता पूर्वक अर्जुन को परम हितकारी कृष्णयोग का उपदेश देते हैं | श्रीकृष्ण के ही शब्दों में “उस सनातन अव्यक्त्त भाव को (सत्ता को), अक्षय अर्थात अविनाशी कहा जाता है, उसी को परमगति, परमधाम कहते हैं | उस परमधाम को प्राप्त मनुष्य पुनः इस सत्ता को नहीं खोता (उसका पुनर्जन्म नहीं होता)” | (८/२१) यह धर्म पृथ्वी अथवा स्वर्ग की अस्थायी सत्ता का नहीं अपितु परमधाम की अक्षय सत्ता का अधिकारी बनाता है |

अब हम निवृति विषयक गीता शास्त्र के मुख्य भाग में प्रवेश कर रहे हैं , गीता शास्त्र का विषय अथवा कहें कि श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद का विषय अब सांसारिक नहीं है, परन्तु मुझ अधम की बुद्धि सांसारिक है | गीताकार श्रीकृष्ण के अनुसार काम, क्रोध और लोभ यह तीनों नरक के द्वार है और मुझ अधम के ये तीनों ही द्वार खुले हैं | एक अन्य कारण से भी आगे व्याख्या करते हुए भय और संकोच हो रहा है, भय यह कि मुझ सा अधम परमात्मा श्री की अमृतमय वाणी की व्याख्या करने का कोई अनुचित कार्य तो नहीं कर रहा और संकोच यह कि अगर परमात्मा की दृष्टि में यह अनुचित भी नहीं है, तो भी क्या मै इसका अधिकारी हूँ ? क्योंकि महाभारत के युद्ध के उपरान्त युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के अवसर पर, अर्जुन ने श्रीकृष्ण से निवेदन करा था, कि प्रभु युद्ध के अवसर पर जो उपदेश आपने मेरे प्रति कहा था, वह मै भलीभांति बुद्धि में संजो नहीं पाया था, इसलिये एक बार पुनः आप सब के समक्ष, सभी को कृतार्थ करते हुए उस गीता शास्त्र रूपी उपदेशों को कह दें | इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि

न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वन्कुमशेषतः |
परं हि ब्रह्म कथितं योग युक्तेन तन्मया || महाभारत (१६/१२)

वह गीता शास्त्र रूपी उपदेश सब का सब उसी रूप में दोहरा पाना अब मेरे वश की बात नहीं हैं, उस समय योगयुक्त होकर ही मैंने उस परमतत्त्व का वर्णन करा था | योगयुक्त अवस्था से योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जिस परमतत्त्व परमात्मा का उपदेश स्वयं दिया था, सामान्य अवस्था में उसी तत्त्व ज्ञान रूपी उपदेश को पुनः उसी रूप में दोहरा पाना अब श्रीकृष्ण के अनुसार, उनके भी वश की बात नहीं है | अर्जुन जैसा सखा, शिष्य और भक्त जिन उपदेशों को भलीभांति बुद्धि में संजो नहीं पाया, उस परमतत्त्व की व्याख्या ना तो इतनी सरल होगी कि कोई भी उस पर टीका करते रहे और मुझ से अधम को तो शोभा ही नहीं देती | परन्तु वही कारण जिन्हें मैं पूर्व में कह आया हूँ, कि गीता शास्त्र की एक व्याख्या, जो बिना किसी पूर्वाग्रह, पूर्वज्ञान अथवा अन्य शास्त्रों से बिना किसी संबंध अथवा समर्थन के निष्पक्ष भाव से हो, ऐसी व्याख्या का अभिलाषी हूँ | इन्ही कारणों से यह प्रयत्न कर रहा हूँ |

सद्गुरु शिवबाबा और योगेश्वर श्रीकृष्ण को पुनः पुनः नमन करते हुए, शास्त्र में प्रवेश से पूर्व गीता शास्त्र के अध्ययन स्वरूप अपने एक-दो अनुभव यहाँ कह देना उचित समझाता हूँ | पहला यह कि हम सब जानते है और जानते भी कैसे हैं, जैसे अर्जुन सनातन कुलधर्म जानता था | अर्थात् इति अनुशुश्रुम ऐसा हम सुनते आए है कि गीताकार ने कहा है कि आत्मा अजर है, अमर है, सनातन है, अविनाशी है, अनादि है, इसे कोई भिगो नहीं सकता, जला नहीं सकता, काट नहीं सकता इत्यादि | यह अक्षरशः सत्य भी है, परन्तु गीताकार श्रीकृष्ण ने स्वयं ऐसा अपने उपदेशों में कहीं भी, कभी भी नहीं कहा है | यह तो टीकाकारों की, व्याख्याकारों की देन है | गीता शास्त्र के अगले बीस श्लोकों की व्याख्या करते हुए, आदिशंकराचार्य सहित अधिकांशतः सभी टीकाकारों ने अपने पूर्वाग्रह और अन्य शास्त्रों के पूर्वज्ञान के आधार पर परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा इंगित शरीरी अथवा देही को आत्मा कहा है | परन्तु गीताकार श्रीकृष्ण ने स्वयं ही स्पष्ट करा है और जैसा हम पूर्व में भी मनन कर आए है कि समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित उस परमात्मा तत्त्व को ही आत्मा कहा जाता है (१०/२०) और यह जीवरूपा शरीरधारी चेतन तत्त्व परमात्मा का सनातन अंश है | (१५/७) शरीर में रहने से शरीरी, देह कहने से देही, नवद्वार रूपी पुर में रहने से पुरुष, और पंचभोतिक तत्त्वों के संयोग से व्यक्त होने के कारण व्यक्ति तथा जीवात्मा कहलाता है |

इस शरीरी को, देही को, पुरुष को, जीवात्मा को आत्मा कहकर, ये व्याख्याकर क्या कहना चाहते है ? क्या परमात्मा श्रीकृष्ण को यह रास आएगा ? क्योंकि जब देही द्वारा वस्त्रों की भांति देह के क्षीण होने पर शरीर बदलने की व्याख्या की जाती है (२/२०), तब वहां शरीर का परिवर्तन शरीरी ही करेगा, क्योंकि माया के गुणों के अधीन, कर्मफलों से बंधा शरीरी ही आवागमन को प्राप्त होता है | अगर यहाँ ऐसा कहे कि आत्मा आवागमन को प्राप्त होती है, तो आत्मा का और सर्वव्याप्त आत्मा अर्थात् परमात्मा का माया के गुणों से लिप्त होना तथा कर्मफलों से बंधा होना सिद्ध होता है, जो असत है | अत: जैसा प्रभु ने कहा है, वैसा ही मानते हुए इसे आत्मा न कहकर, शरीरी अथवा देही ही जाने | इसके अतिरिक्त्त अगले बीस श्लोकों में जिसे “एनम् अथवा “अयम् कह कर इंगित करा गया है, वह भी शरीरी अथवा देही के ही संबंध में है, क्योंकि व्याकरण अनुसार जिसका वर्णन चल रहा है, उसे पुनः पुनः नाम से ना कहकर, उसके स्थान पर सर्वनाम का प्रयोग करना अर्थात् यह अथवा इस का प्रयोग उसी पूर्ववर्णित शरीरी की ओर ही संकेत करता है और व्याकरण में इसे अन्वादेश में कहा गया है, ऐसा कहा जाता है | अत: एनम् अथवा अयम् से इंगित शरीरी अथवा देही को आत्मा कहना व्याकरण की दृष्टि से भी असंगत है | इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान में रहे कि प्रभु ने अपने उपदेशों में आत्मा शब्द का उच्चारण पहली बार श्लोक संख्या (२/४५) में करा है | उससे पहले इसका उच्चारण अथवा प्रयोग टीकाकारों की देन है, ना कि प्रभु का उपदेश |

दूसरा अनुभव जो गीता शास्त्र के साधको से कहना चाहूँगा, वह यह कि अगले पैतीस श्लोक (२/११-२/४५), गीता शास्त्र का हृदय है, उसकी धड़कन है, जो इसे सुन पायेगा, समझ पायेगा, आत्मसात कर पायेगा वही गीता शास्त्र में वर्णित कृष्णयोग का अधिकारी होगा | परमात्मा श्रीकृष्ण के उपदेशों पर मनन, उनके श्रीचरणों में ध्यान बहुत आवश्यक है | इसी के साथ आइये शास्त्र में, श्री भगवान के उपदेशों में, प्रवचनों में  प्रवेश करते हैं |

श्री भगवानुवाच :-
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे |
गतासूनगतासूंश्च नानु पण्डिताः || (२/११)

अशोच्यान् अन्वशोचः त्वम् प्रज्ञावादान् च भाषसे |
गत असून् अगत असुन् च न अनुशोचन्ति पण्डिताः || (२/११)

अशोच्यान्(शोक न करने योग्य का), अन्वशोचः(शोक करा), त्वम्(तुम), प्रज्ञावादान्(प्रज्ञावानों की) (और), भाषसे(भाषा बोलते हो) | गत-असून्(जिनके प्राण चले गये हैं), अगत-असून्(जिनके प्राण नहीं गए हैं), (और), (नहीं), अनुशोचन्ति(शोक करते), पण्डिताः(पण्डितजन) | (२/११)

तु शोक ना करने योग्य का शोक करता है और प्रज्ञावानों सी भाषा बोलता है | गतप्राण और जिनके प्राण नहीं  गये है, पण्डितजन उनका शोक नहीं करते | (२/११)

मस्तिष्क इस शरीर से आबद्ध मनुष्य को प्राप्त एक निश्चयात्मक भाव की स्वीकृति का यंत्र मात्र है, जो निर्णय लेता है | जैसे इन्द्रियां समस्त संसार में विचरण करती है, विषयों से मन को अवगत कराती है, मन उन विषयों के प्रति द्वंदात्मक यंत्र है, विषय को स्वीकारे अथवा अस्वीकार करे, ऐसे द्वन्दों में रहता है तथा बुद्धि निश्चयात्मक यंत्र होने से सर्वोपरि है | यह मस्तिष्क रूपी यंत्र जब तक प्रकृति के, माया के गुणों के गुणों से भावित रहता है, तब तक इसे बुद्धि, ऐसा कहते है और जब यह यंत्र माया के गुणों से अतीत हो जाता है, इसको धारण करने वाला गुणातीत हो जाता है, तब इस यंत्र को प्रज्ञा तथा इसको धारण करने वाले को प्रज्ञावान कहते हैं | इसी प्रकार अध्यात्म विषयक बुद्धि का नाम पण्डा है और अध्यात्म विषयक ज्ञान को प्राप्त पुरुष ही पण्डित है |

श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को कहते हैं, कि तु शोक ना करने योग्य का अर्थात् जो जीवित हैं, उनकी मृत्यु के शोक से और तथाकथित सनातन कुलधर्म के ज्ञान से पीड़ित हो रहा है | केवल यही नहीं अपितु सुनी-सुनाई बातों की प्रज्ञावान पुरूषों की तरह व्याख्या भी कर रहा है | परन्तु प्रज्ञावान और पण्डितजन जीवन और मृत्यु का शोक नहीं करते, क्योंकि यह नित्य-निरन्तर होता है, जन्म-मरण काल के अधीन है और जो अपने वश में नहीं, उसका शोक कैसा ? परन्तु अर्जुन स्वयं को कर्त्ता मानता था, युद्ध से निवृत हो कुल को काल के पाश से बचाने की युक्ति में लगा था | इसीलिये शोक न करने के कारणों पर, कुलक्षय को अपने कर्त्ताभाव के अधीन मानकर, मन और इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को प्राप्त था, मूढ़ता को प्राप्त था |
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः |
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् || (२/१२)

न तु एव अहम् जातु न आसम् न त्वम् न इमे जन अधिपाः |
न च एव न भविष्यामः सर्वे वयम् अतः परम् || (२/१२)

(ना), तु(तो), एव(ही), अहम्(मैं), जातु(किसी काल में), (नहीं), आसम्(था), (ना), त्वम्(तुम), (ना), इमे(यह), जनाधिपाः (जनअधिपति) | न(ना), (और), एव(ही), (ना) भविष्यामः(भविष्यमें), सर्वे(सब), वयम्(हम), अतः(इससे), परम्(परे) | (२/१२)

किसी काल में मैं नहीं था, तू नहीं था अथवा यह राजालोग नहीं थे और ना ऐसा है कि  इससे  आगे भविष्य में भी हम
सब नहीं रहेगें  | (२/१२)
किसी काल में मैं, तू या यह राजा लोग नहीं थे, ऐसा नहीं है अर्थात् अवश्य थे | कहने का तात्त्पर्य यह कि भूतपूर्व शरीरों की उत्त्पत्ति और विनाश होते हुए भी हम सदा थे और अब इन वर्तमान शरीरों के नाश होने पर भी हम नहीं रहेंगे ऐसा भी नहीं है | भविष्य में भी हम सब होंगे, हमारा पुनर्जन्म होगा, तात्त्पर्य यह कि काल के सापेक्ष में काल के अधीन रहने वाला यह शरीर जन्मता और मरता है, हम नहीं जन्मते अथवा मरते |

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति || (२/१३)

देहिनः अस्मिन् यथा देहे कौमारम् यौवनम् जरा |
तथा देह अन्तर प्राप्ति धीरः तत्र न मुह्यति || (२/१३)

देहिनः(देही की), अस्मिन्(इस), यथा(जैसे), देहे(देह में), कौमारम्(कुमार), यौवनम्(यौवन), जरा(वृद्धावस्था होती है) | तथा(वैसे ही), देहान्तर प्राप्तिः(देहान्त उपरान्त देह की प्राप्ति पर), धीरः(धीर पुरुष), तत्र(वहां), (नहीं), मुह्यति(मोहित होते) | (२/१३)

जैसे देही की इस देह में कुमार, यौवन और वृद्धावस्था हैं, वैसे ही देहान्तर के उपरान्त देह की प्राप्ति के प्रति धीर पुरुष मोहित नहीं होता | (२/१३)

जिसने देह धारण करी है, वह देही है, इस देही की इस वर्तमान शरीर में जिस प्रकार कुमार अर्थात् बाल्यावस्था होती है, उसी प्रकार यौवन अर्थात् तरुणाई और वृद्धावस्था होती हैं | यह तीनों अवस्थाएं  परस्पर विलक्षण हैं, अलग-अलग हैं, परन्तु जैसे बाल्यावस्था के नाश से देही का नाश नहीं होता अपितु यौवन की प्राप्ति होती है तथा इस देह में यौवन की प्राप्ति, देही की उत्त्पत्ति नहीं है | उसी प्रकार वृद्धावस्था के नाश से देही का नाश नहीं होता अपितु देहान्तर की प्राप्ति होती है, यह देहान्तर देही का नाश नहीं अपितु जीर्ण देह के नाश के उपरान्त देही को एक नवीन देह की प्राप्ति है | इस प्रकार देहान्त स्वरूप अन्य देह की प्राप्ति पर धीर पुरुष मोहित नहीं होता | धीर पुरुष अर्थात् धैर्यवान, प्रज्ञावान पुरुष मोहित नहीं होता, मूढ़ता को प्राप्त नहीं होता |  परमात्मा श्रीकृष्ण के इस कथन से स्पष्ट है कि संसार के महान भय अर्थात् मोह और मूढ़ता आदि के त्याग हेतु मनुष्य का धैर्यवान, प्रज्ञावान, पण्डित होना आवश्यक है | तात्त्पर्य यह कि मनुष्य को सनातन कुलधर्म का नहीं अपितु अध्यात्म विषयक ज्ञान का ज्ञाता होना आवश्यक है | इसी अध्यात्म विषयक ज्ञान को अब प्रभु अगले दो श्लोकों में स्पष्ट करते है, कि धीर पुरुष कैसा होता है और इस योग्यता को प्राप्त पुरुष की प्राप्ति क्या है ?
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत || (२/१४)
                                                                                                                                            
मात्रा स्पर्शाः तु कौन्तेय शीत-उष्ण सुख-दुःख-दाः |
आगम अपायिनः अनित्याः तान् तितिक्षस्व भारत || (२/१४)

मात्रा-स्पर्शाः(इन्द्रियों-विषयों के संयोग-वियोग), तु(तो), कौन्तेय(कुन्तीपुत्र), शीत-उष्ण(सर्दी-गर्मी), सुख-दुःख-दाः(सुख-दुःख देने वाले)| आगम-अपायिनः(आने-जाने वाले), अनित्याः(अनित्य हैं), तान्(उनको), तितिक्षस्व(सहन करो), भारत(भरतवंशी) | (२/१४)

कौन्तेय ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख देनेवाले इन्द्रियों और विषयों के संयोग-वियोग तो आने-जाने वाले, अनित्य हैं | भारत ! उनको सहन करो | (२/१४)

यहाँ शीत-उष्ण तथा सुख-दुःख अनुकूलता और प्रतिकूलता के प्रतिक हैं | शीत कभी सुखकर होती है तो कभी दु:खकर, इसी प्रकार इसके विपरीत उष्ण भी कभी दु:खकर होती है कभी सुखकर | इस तरह इन्द्रियों को प्रिय विषयों के संयोग सुखकर और वियोग दु:खकर तथा अप्रिय विषयों के संयोग दु:खकर और वियोग सुखकर प्रतीत होते हैं | यह आने-जाने वाले हैं, सदा एक सा नहीं रहता, ऐसे संयोग-वियोग लगे ही रहते हैं, अत: यह अनित्य हैं | इनसे हर्ष अथवा विषाद को न प्राप्त हो इन्हें सहन करना चाहिये | अर्जुन युद्ध के विषय में मोह और विषाद के कारण इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को प्राप्त था | इसी को स्पष्ट करते हुए प्रभु कहते है, कि कौन्तेय मन और इन्द्रियों को लेकर ऐसे संयोग-वियोग अर्थात् पूर्व श्लोक में कहे अनुसार जन्म-मरण के साथ लगे संबंधियों और साथियों के संयोग-वियोग अनित्य हैं, यह होते रहते हैं, आज हैं, कल नहीं रहेंगे | अत: ऐसे अनित्य विषयों और इन्द्रियों के संयोग-वियोग को सहन करना सीखो | इससे प्राप्ति, लाभ, कल्याण ? तो इस पर प्रभु कहते हैं | कि
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते || (२/१५)

यम् हि न व्यथन्ति एते पुरुषम् पुरुष ऋषभ |
सम दुःख सुखम् धीरम् सः अमृतत्वाय कल्पते || (२/१५)

यम्(जिस), हि(क्योंकि), (नहीं), व्यथयन्ति(व्यथित करते), ऐते(यह), पुरुषम्(पुरुष को), पुरुष-ऋषभ(पुरूषों में श्रेष्ठ) | सम(सम), दुःख-सुखम् (दुःख-सुख में), धीरम्(धैर्यवान), सः(वह), अमृतत्वाय(अमृत के लिये), कल्पते(योग्य, समर्थ हो जाता है) | (२/१५)

क्योंकि पुरुष श्रेष्ठ ! सुख-दुःख में सम रहने वाले जिस धीर पुरुष को यह व्यथित नहीं करते, वह अमृत की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१५)

संसार में प्रवृत प्राणियों के सुख-दुःख रूपी समस्त भाव द्वंदात्मक रूप से होते हैं, जैसे लाभ-हानी, राग-द्वेष, जन्म-मरण, मित्र-शत्रु, हितैषी-वैरी इत्यादि तथा जैसा प्रभु ने अभी पूर्व श्लोक में स्पष्ट करा है कि इनका संयोग-वियोग भी लगा ही रहता है, यह अनित्य हैं | सदा एकरस दुःखभाव अथवा सदा सुखभाव नहीं रहता, यह आने-जाने वाले तथा अनित्य हैं | सम-भाव को प्राप्त जो पुरुष इन विषयों और इन्द्रियों के संयोग-वियोग से व्यथित-व्याकुल नहीं होता, वह धीर पुरुष है | ऐसा धीर पुरुष अमृत की प्राप्ति के योग्य, समर्थ होता है | अमृत अर्थात् अमरता के योग्य हो जाता है, समर्थ हो जाता है अथवा कहे कि अमरता की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त कर लेता है, अमरता का, अमृत तत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है | स्पष्ट है कि ऐसा धीर पुरुष पृथ्वी अथवा स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति से परे, अमृत तत्त्व की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त कर लेता है | वस्तुतः यह अमृत तत्त्व सदैव ही प्राप्त है, पुरुष की अमरता तो स्वतःसिद्ध है, केवल विषयों और इन्द्रियों के संयोग-वियोग की लिप्तता का ही बंधन है | पुरुष की, देही की, शरीरि की, जीवात्मा की इसी अमरता को परमात्मा श्रीकृष्ण अगले तीन श्लोकों में स्पष्ट करते है |

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः |
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः || (२/१६)

न असतः विद्यते भावः न अभावः विद्यते सतः |
उभयोः अपि दृष्टः अन्तः तु अनयोः तत्त्व दर्शिभिः || (२/१६)

(नहीं), असतः(असत्य का), विद्यते(विद्यमान), भावः(भाव, सत्ता), (नहीं), अभावः(अभाव), विद्यते(विद्यमान), सतः (सत्य का)| उभयोः(दोनों का), अपि(ही), दृष्टः(देखा), अन्तः(अंतर), तु(परन्तु), अनयोः(इन), तत्त्व-दर्शिभिः(तत्त्व दर्शियों ने) | (२/१६)

असत का तो भाव अर्थात् सत्ता विद्यमान नहीं है, सत का अभाव विद्यमान नहीं है | इन दोनों का अन्तर तत्त्वदर्शियों ने देखा है | (२/१६)

असत का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है अर्थात् काल के सापेक्ष में जो कभी होता है, कभी नहीं होता अथवा परिवर्तित होता है | तीनों काल में भुत, वर्तमान और भविष्य में सदैव एक सा नहीं रहता, वह असत है, जैसे हमारे यह शरीर तथा सत का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् जिसका तीनों काल मे अभाव नहीं है, चाहकर भी जिसे मिटाया नहीं जा सकता, परिवर्तित नहीं होता, सदैव रहता है, एक सा रहता है, एकरस रहता है, वह सत है | सारांशतः प्रभु यहाँ सत और असत को परिभाषित करते हैं और कहते हैं कि तत्त्वदर्शियों ने ही इन दोनों का अन्तर देखा है | तत्त्वदर्शी अर्थात् तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा को सर्वत्र देखने वाला, सांख्यदर्शन का ज्ञानी, जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने (१३/११) में  अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं  तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् कहा है |  इस प्रकार सत और असत को परिभाषित कर प्रभु अब सत तत्त्व की विशेषताओं को, गुणों को बताते हैं |

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वविदं ततम् |
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति || (२/१७)
अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् |
विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति || (२/१७)

अविनाशि(नाशरहित,), तु(तो), तत्(उसे), विद्धि(जान), येन्(जिससे), सर्वम्(समस्त), इदम्(यह), ततम्(व्याप्त है) | विनाशम् (विनाश), अव्ययस्य(अपरिवर्तनशील का), अस्य(इस), (नहीं), कश्चित्(कोई भी), कर्तुम्(करने में), अर्हति(समर्थ) | (२/१७)

नाशरहित, सनातन तो उसे जान जिससे यह सर्वत्र व्याप्त है | इस अपरिवर्तनशील का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है | (२/१७)

पूर्व श्लोक में जिसे सत कहकर प्रभु ने परिभाषित करा था, ऐसा अविनाशी अर्थात् नाशरहित, सनातन तत्त्व तो उसे जानना चाहिये जिस अव्ययस्य अर्थात् जिसका कभी परिवर्तन भी नहीं होता, कभी घटता-बढता भी नहीं , इसका विनाश अर्थात्  व्यय करने में कोई भी समर्थ नहीं हैं | तथा यह सर्वत्र व्याप्त है अर्थात् काल के सापेक्ष से यह भूतकाल में भी था, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी रहेगा तथा देश के सापेक्ष में भी यह सर्वत्र व्याप्त है, अर्थात् आप, मैं, हम सभी हैं, सर्वत्र हैं | ऐसे सनातन तत्त्व का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं हैं | ऐसा कह प्रभु अब यह स्पष्ट करते हैं  कि यह अविनाशी, सनातन और अव्ययस्य सत क्या है ? तथा असत क्या है ?

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः |
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत || (२/१८)

अन्त वन्त इमे देहाः नित्यस्य उक्ताः शरीरिणः|
अनाशिनः अप्रमेयस्य तस्मात् युध्यस्व भारत || (२/१८)

अन्त-वन्त(अंत को प्राप्त होने वाले), इमे(यह) देहा:(देह), नित्यस्य(नित्य रहने वाला), उक्ताः(कहा गया है), शरीरिणः(शरीरी को) | अनाशिनः(नाशरहित), अप्रमेयस्य(जानने में ना आने वाला), तस्मात्(इसलिये), युध्यस्व(युद्ध कर), भारत(भरतवंशी) | (२/१८)

अविनाशी, अप्रमेय और नित्यस्वरूप इस शरीरी की यह देह अन्त को प्राप्त होने वाली कही गयी है, इसलिये भरतवंशी युद्ध कर | (२/१८)

सारांशतः यह शरीरी अविनाशी अर्थात् सनातन है, अप्रमेय अर्थात् नेत्रों से जानने में ना आने वाला और नित्यस्वरूप अर्थात् जो तीनो काल में विद्यमान होता है और सर्वत्र विद्यमान होता है, जो पूर्वकाल में भी था, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी होगा, मुझमें, तुझमें और हम सभी में सर्वत्र यही तत्त्व विद्यमान है, जिसको प्रभु ने (२/१२) में भी स्पष्ट करा था | तथा इस शरीरी की यह देह अन्त को प्राप्त होनेवाली है | अर्जुन युद्ध में इस देह के संबंधो को लेकर ही मोह और विषाद से ग्रस्त था | योगेश्वर श्रीकृष्ण उसे देह और देही के भेद से अवगत करा उसे स्पष्ट करते हैं कि मनुष्यों की यह देह जो जानने में आती है, दिखाई देती है, संबंधो और मित्रों का कारण होती है, यह देह अन्त को प्राप्त होने वाली है, नाशवान है इसका तो नाश होगा ही | यह देह दिखाई पड़ने पर भी असत है, इसलिये इस देह के, असत के  संबंध भी असत ही हैं | परन्तु जो इस देह को धारण करता है, यद्यपि वह जानने में नहीं आता, दिखाई नहीं देता, तब भी वह अविनाशी, सनातन, अप्रमेय और नित्यस्वरूप शरीरी ही सत है | इस सत और असत के भेद को जानकर भरतवंशी अर्जुन अब तु युद्ध से निवृत होने का विचार छोड़कर, युद्ध कर |

इस देही को, शरीरी को, पुरुष को, जीवात्मा को, पूर्व तीन श्लोको में कहे  सनातन, अविनाशी, अप्रमेय और नित्यस्वरूप सत्य को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने (१५/७) में भी कहा है कि ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः | अर्थात् इस देह मे यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, इसी जीवात्मा के स्वरूप को, गुण-धर्म को, लक्षणों को परमात्मा  श्रीकृष्ण अगले सात श्लोकों में अर्जुन के प्रति बहुत ही स्पष्ट करते हैं |  गीता शास्त्र के पाठकों से करबद्ध विनती है कि वह इन सात श्लोंको का अध्ययन बहुत ही ध्यानपूर्वक करें, यही वह सात श्लोक हैं, जिनमें परमात्मा श्रीकृष्ण ने आपके (मनुष्य के) सत्य स्वरूप का बहुत ही स्पष्ट वर्णन करा है, परन्तु गीता शास्त्र के टीकाकारों और व्याख्याकारों की करनी कुछ ऐसी रही, कि मनुष्य को अपने ही सत-स्वरूप से, गुण-धर्म से, लक्षणों से अवगत ही नहीं होने देते | इन व्याख्याकारों द्वारा जीवात्मा को समष्टि परमात्मा का व्यष्टि स्वरूप अर्थात् आत्मा कहना अथवा कहें कि इस देही को हृदय देश में स्थित परमात्मा तत्त्व रूप आत्मा कहना अथवा ऐसा कहें कि जीवात्मा को परमात्मा का अन्तर्यामी स्वरूप आत्मा कहना, इस प्रकार से व्याख्या करने से यह टीकाकार क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? इस प्रकार तो प्रभु के उपदेशों के सम्पूर्ण भाव का ही नाश हो जाता है | क्या प्रभु को ऐसी व्याख्या रास आएगी ? मेरा यह आग्रह टीकाकारों के विपरीत कोई टिप्पड़ीं करने का, अथवा अपने मत को सिद्ध करने का या उसे उचित कहने हेतु नहीं है | अपितु परमात्मा श्रीकृष्ण का इस व्याख्या से जो मंतव्य है कि मनुष्य अपने सनातन, अविनाशी, अप्रमेय, और नित्यस्वरूप की पहचान करके, पूर्व श्लोकों में कहे धीर पुरुष की भांति आचरण करके, अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी बने, जो वस्तुतः वह है; केवल विषयों और इन्द्रियों के संयोग-वियोग से तादाम्य कर अपने ही स्वरूप को विस्मरण करे बैठा है | जो भी है, इस विषय को साधकों के, पाठकों के चिंतन-मनन हेतु  छोड़कर आइये मनुष्य के सत्य स्वरूप का, देही का, शरीरी का अध्ययन-मनन करते हैं |

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्  |
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते || (२/१९)
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे || (२/२०)
वेदाविनाशिनं नित्यं च एनमजमव्ययम् |
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् || (२/२१)

यः एनम् वेत्ति हन्तारम् यः च एनम् मन्यते हतम् |
उभौ तौ न विजानीतः न अयम् हन्ति न हन्यते || (२/१९)
न जायते म्रियते वा कदाचित्न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजः नित्यः शाश्वतः अयम् पुराणः न हन्यते हन्यमाने शरीरे || (२/२०)
वेद अविनाशिनम् नित्यम् च एनम् अजम् अव्ययम् |
कथम् सः पुरुषः पार्थ कम् धातयति हन्ति कम् || (२/२१)

यः(जो), एनम्(इसको), वेत्ति(जानता है), हन्तारम्(मारनेवाला), यः(जो), (और), एनम्(इसको), मन्यते(मानता है), हतम्(मारा हुआ), | उभौ(दोनों ही), तौ(वे), (नहीं), विजानीतः(जानते), (नहीं), अयम्(यह), हन्ति(मारता है), (नहीं), हन्यते(मारा जाता है) | (२/१९)
(नहीं), जायते(जन्मता है), म्रियते(मरता है), वा(तथा), कदाचित्(किसी काल में भी), (नहीं), अयम्(यह), भूत्वा(होकर),  भविता(होनेवाला), वा(तथा), (नहीं), भूयः(फिर) | अजः(अजन्मा), नित्यः(नित्य), शाश्वतः(सनातन), अयम्(यह), पुराण: (पुरातन), (नहीं), हन्यते(मारा जाता), हन्यमाने(मारे जाने पर भी), शरीरे(शरीरके) | (२/२०)
वेद(जानता है), अविनाशिनम्(नाशरहित), नित्यम्(नित्य स्वरूप), यः(जो), एनम्(इसको), अजम्(अजन्मा), अव्ययम्(अव्यय) | कथम्(कैसे), सः(वह), पुरुषः(पुरुष), पार्थ(पृथा पुत्र), कम्(किसको), घातयति(मरवाये), हन्ति(मारे), कम्(किसको) | (२/२१)

जो इसको मारने वाला समझता है और जो इसको मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही यह नहीं जानते कि यह ना मारता है, ना मारा जाता है | (२/१९)
यह किसी काल में न जन्मता है तथा न मरता है तथा यह होकर, फिर होने वाला नहीं है | यह अजन्मा, नित्य, सनातन, पुरातन शरीर के मारे जाने पर भी नहीं मारा जाता | (२/२०)
जो इसको नाशरहित, नित्य, अजन्मा, अपरिवर्तनशील जानता है | पार्थ ! वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है किसको मारता है ? (२/२१)

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देहि || (२/२२)
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः || (२/२३)
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च |
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः || (२/२४)
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते |
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचिमुमर्हसि || (२/२५)
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरः अपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही || (२/२२)
न एनम् छिन्दन्ति शस्त्राणि न एनम् दहति पावकः |
न च एनम् क्लेदयन्ति आपः न शोषयति मारुतः || (२/२३)
अच्छेद्यः अयम् अदाह्यः अयम् अक्लेद्यः अशोष्यः एव च |
नित्यः सर्व गतः स्थाणुः अचलः अयम् सनातनः || (२/२४)
अव्यक्तः अयम् अचिन्त्यः अयम् अविकार्यः अयम् उच्यते |
तस्मात् एवम् विदित्वा एनम् न अनुशोचितुम् अर्हसि || (२/२५)

वासांसि(वस्त्रों को), जीर्णानि(जीर्ण-शीर्ण), यथा(जैसे), विहाय(त्यागकर), नवानि(नवीन), गृह्णाति(ग्रहण करता है), नरः(मनुष्य), अपराणि(अन्य दुसरे) | तथा(वैसे ही), शरीराणि(शरीर को), विहाय(त्यागकर), जीर्णानि(जीर्ण-शीर्ण),  अन्यानि(अन्य को), संयाति (प्राप्त होता है), नवानि(नवीन), देही(देही) | (२/२२)
नहीं), एनम्(इसको), छिन्दन्ति(काट सकते), शस्त्राणि(शस्त्र), (नहीं), एनम्(इसको), दहति(जला सकती), पावकः(अग्नि) | (नहीं), (और), एनम्(इसको), क्लेदयन्ति(गला सकता), आपः(पानी), (नहीं), शोषयति(सुखा सकती), मारुतः(वायु) | (२/२३)
अच्छेद्यः(काटा नहीं जा सकता), अयम्(इसे), अदाह्यः(जलाया नहीं जा सकता), अयम्(इसे), अक्लेद्यः(गलाया नहीं जा सकता), अशोष्यः(सुखाया नहीं जा सकता), एव(भी), (और) | नित्यः(नित्य), सर्वगतः(सर्वगत), स्थाणुः(स्थिर), अचलः(अचल), अयम् (यह), सनातनः(सनातन) | (२/२४)
अव्यक्तः(अव्यक्त), अयम्(यह), अचिन्त्यः(अचिन्त्य), अयम्(यह), अविकार्यः(विकाररहित,), अयम्(यह), उच्यते(कहा जाता है) | तस्मात्(इसलिये), एवम्(ऐसा), विदित्वा(विदित करके), एनम्(इसे), (नहीं), अनुशोचितुम्(शोक रहित), अर्हसि(योग्य) | (२/२५)

जैसे मनुष्य जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दुसरे नवीन (वस्त्र) धारण करता है वैसे ही देही जीर्ण शरीर को त्याग कर अन्य नवीन (शरीर) को प्राप्त होता है | (२/२२)
इसको शस्त्र काट नहीं सकते, इसको अग्नि जला नहीं सकती, इसको जल गला नहीं सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती | (२/२३)
यह काटा नहीं जा सकता, यह जलाया, गलाया और सुखाया भी नहीं जा सकता,  यह नित्य, सर्वगत, अचल, स्थिर (और) सनातन है | (२/२४)
इसे अव्यक्त, इसे अचिन्त्य, निर्विकार कहा जाता है, इसलिये इसको ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये | (२/२५)

इस प्रकार इन सात श्लोकों में परमात्मा श्रीकृष्ण ने एक ही तत्त्व के गुण-धर्म कहे हैं | इससे पूर्व श्लोक संख्या (२/१८) तक प्रभु ने शरीरी को परिभाषित करा है तथा इन सात श्लोकों में केवल श्लोक संख्या (२/२२) में देही के संदर्भ कह, अन्य श्लोकों में एनम्” तथा “अयम्” आदि सर्वनामों का प्रयोग करा है | इससे यह स्पष्ट होता है कि अन्य छह श्लोकों में भी प्रभु ने जिस तत्त्व की व्याख्या करी है वह भी शरीरी, देही अथवा कहें कि जीवात्मा के संबंध में ही है | क्योंकि नाम के स्थान पर सर्वनाम का प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से भी उचित है तथा सर्वनाम उसे ही संबोधित करता है जिसे कम से कम एक बार नाम से कहा गया है और आत्मा शब्द का प्रयोग परमात्मा श्रीकृष्ण ने अपने उपदेशों में अभी तक करा ही नहीं है, इसलिये इन श्लोकों में वर्णित तत्त्व आत्मा तो हो ही नहीं सकता | अत: सिद्ध है कि अभी तक परमात्मा ने जिस तत्त्व की विवेचना की है वह देही, शरीरी, जीवात्मा ही है |

यह निश्चित रूप से स्थापित होने के पश्चात कि प्रभु जिस तत्त्व के विषय में कह रहे हैं, वह देही, शरीरी अथवा कहें कि जीवात्मा ही है, आइये अब उपर्युक्त सात श्लोकों पर मनन करते हैं | सर्वप्रथम प्रभु ने कहा कि यह धारणा गलत है कि यह देही मारता है अथवा मरता है, वस्तुतः यह ना मारता है, ना मरता है | यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक है कि फिर वह कौन है जो मारता है अथवा मरता है ? अभी इस प्रश्न का समाधान ना कर प्रभु अपने प्रथम व्यक्तव्य को स्पष्ट और निश्चयात्मक रूप से स्थापित करते हुए कहते है कि यह देही ना जन्मता है, ना मरता है, यह देही एक बार अस्तित्त्व में आकर फिर होने वाला नहीं है, यह जन्मरहित, नित्य, निरन्तर रहने वाला, शाश्वत और अनादि है और पार्थ जब यह देही इस प्रकार जन्मरहित, नित्य, अविनाशी और अव्यय है, तब यह कैसे किसी को मारता है अथवा मरवाता है ? परन्तु मनुष्य तो जन्म और मृत्यु के अधीन ही दिखाई पड़ते हैं, जन्मते हैं और मरते हैं | तो इस पर प्रभु कहते हैं कि मनुष्य जैसे जीर्ण वस्त्रों को त्याग नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार यह देही भी जीर्ण शरीरों को त्याग नवीन शरीर ग्रहण करता है | तब देह में देही का अस्तित्त्व किस प्रकार का है ? इस पर कहते हैं कि इसे काटा नहीं जा सकता, जलाया नहीं जा सकता, गलाया नहीं जा सकता और ना ही सुखाया जा सकता है | क्योंकि यह नित्य अर्थात् तीनों काल में इसका स्वरूप एक सा रहता है, सर्वव्याप्त अर्थात् काल और देश की परिधि से परे प्रत्येक देह में देही होता है, देह का अस्तित्व ही देही से है, अचल अर्थात् परिवर्तन रहित, कम-ज्यादा होने से रहित, छोटा-बड़ा होने से रहित, स्थिर अर्थात् सदैव एक रस, एक रूप रहता है, सनातन अर्थात् आदि अंत से रहित, अव्यक्त अर्थात् यह इन्द्रियों और मन का विषय नहीं है, दिखाई नहीं देता, इन्द्रियों की पहुँच से परे का तत्त्व है, अचिन्त्य अर्थात् मन और बुद्धि का भी विषय नहीं है, यह कैसा है ? इस विषय पर विचार को बुद्धि प्रयाप्त नहीं है (यह प्रज्ञा का विषय है), तथा अविकार्य अर्थात् यह समस्त विकारों से रहित निर्विकार निराकार है | अर्जुन ! इसे ऐसा जानकर इसके लिये शोक नहीं करना चाहिये | तात्पर्य यह की अर्जुन हम सब नाशवान देह ना होकर इस देही रूप से व्यवस्थित हैं |  जैसा पूर्व में कहा कि देही ही सत्य है, और इसकी यह देह असत्य है इसलिये इस असत्य देह के संबंध भी असत्य ही हैं और असत्य वस्तु के होने अथवा ना होने पर शोक कैसा ?

परन्तु दृश्य जगत तो ऐसा नहीं है, जो दिखाई पड़ता है, वही तो मारता है मरता है | इस को स्पष्ट करने हेतु परमात्मा श्रीकृष्ण कहते है कि जैसा मैंने कहा, अगर तू वैसा नहीं मानता, तो भी

अथं चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् |
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि || (२/२६)
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च |
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि || (२/२७)

अथ च एनम् नित्य जातम् नित्यम् वा मन्यते मृतम् |
तथा अपि त्वम् महाबाहो न एवम् शोचितुम् अर्हसि || (२/२६)
जातस्य हि ध्रुवःमृत्युः ध्रुवम् जन्म मृतस्य च |
तस्मात् अपरिहार्ये अर्थे न त्वम् शोचितुम् अर्हसि || (२/२७)

अथ(किंतु), (और), एनम्(इसको), नित्य-जातम्(सदा जन्मता), नित्यम्(सदा), वा(तथा), मन्यसे(मानता है), मृतम्(मरनेवाला) | तथापि(तब भी), त्वम्(तू), महाबाहो (महाबाहो), (नहीं), एवम्(इसप्रकार), शोचितुम्(शोक करने), अर्हसि(योग्य) | (२/२६)
जातस्य(जन्म हुए की), हि(क्योंकि), ध्रुवः(निश्चित), मृत्युः(मृत्यु), ध्रुवम्(अवश्य), जन्म(जन्म), मृतस्य(मरे हुए का), (और) | तस्मात्(इस कारण), अपरिहार्ये(निवारण रहित), अर्थे(विषय), (नहीं), त्वम्(तू), शोचितुम्(शोक करने), अर्हसि(योग्य) | (२/२७)

महाबाहो ! किन्तु तू इसे सदा जन्म लेनेवाला तथा सदा मरने वाला मानता है, तब भी तू इस प्रकार शोक करने के योग्य नहीं है | (२/२६)
क्योंकि जन्म लेनेवाले की निश्चित मृत्यु और मरे हुए का जन्म अवश्य है, इस कारण जन्म-मरण रूपी चक्र के प्रवाह का निवारण रहित विषय में, तू शोक करने योग्य नहीं है | (२/२७)

परन्तु ऐसा है नहीं, यह देही ना कभी मरता है और ना ही जन्म लेता है, इस देही और देह के जन्म-मरण रूपी चक्र के प्रवाह को स्पष्ट करते हुए प्रभु कहते हैं कि

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत |
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना || (२/२८)

अव्यक्त आदीनि भूतानि व्यक्त मध्यानि भारत |
अव्यक्त निधानानि एव तत्र का परिवेदना || (२/२८)

अव्यक्त-दीनि(जन्म से पूर्व अव्यक्त), भूतानि(समस्त प्राणी), व्यक्त-मध्यानी(मध्य में व्यक्त), भारत(भरतवंशी अर्जुन) | अव्य्क्त-निधनानी(निधन के उपरान्त अव्यक्त), एव(केवल), तत्र(इसमें), का(क्या), परिवेदना(शोक कारण) | (२/२८)

भरतवंशी अर्जुन ! समस्त प्राणी जन्म से पूर्व अव्यक्त, केवल मध्य में व्यक्त और निधन के उपरान्त अव्यक्त होते हैं | इसमें
क्या शोक करना ?  (२/२८)

यह देही जन्म से पहले अव्यक्त अर्थात् अव्यक्त रूप में स्थिति पाए होता है, मध्य में अर्थात् जन्म-मरण के मध्य व्यक्त अर्थात् देह में स्थिति पाए हुए होता है और निधन के पश्चात पुनः अव्यक्त रूप में स्थित होता है | इस अव्यक्त-व्यक्त-अव्यक्त भाव में स्थिति पाए देही का क्या शोक करना ? जन्म से पूर्व तथा निधन के उपरान्त भी देही तो रहता ही है | देही का जन्म से पूर्व तथा निधन के पश्चात अव्यक्त भाव के मध्य, यह जो देह धारण कर व्यक्त होना है, यही इस देही का व्यक्ति भाव से होना है | इसी को व्यक्ति कहते हैं | देही के इस एक भाव के लिये, अव्यक्त व्यक्त चक्र में भ्रमण कर रहे देही के लिये, क्या शोक करना ?
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः |
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् || (२/२९)

आश्चर्यवत् पश्यति कश्चित् एनम् आश्चर्यवत् वदति तथा एव च अन्यः |
आश्चर्यवत् च एनम् अन्यः शृणोति श्रुत्वा अपि एनम् वेद न च एव कश्चित् || (२/२९)

आश्चर्यवत्(आश्चर्य से), पश्यति(देखता है), कश्चित्(कोई), एनम्(इसको), आश्चर्यवत्(आश्चर्य से), वदति(कहता है), तथा(वैसे), एव (ही), च(और), अन्यः(दूसरा कोई) | आश्चर्यवत्(आश्चर्य से), (और), एनम्(इसको), अन्यः(दूसरा कोई), शृणोति(सुनता है), श्रुत्वा (सुनकर), अपि(भी), एनम्(इसको), वेद(जानता),  न(नहीं), च(और),  एव(ही), कश्चित्(कोई तो) | (२/२९)

कभी कोई इसको आश्चर्य से देखता है और वैसे ही दूसरा कोई आश्चर्य से कहता है तथा अन्य इसको आश्चर्य से सुनता है और सुनकर भी कोई इसको नहीं ही जान पाता | (२/२९)

कश्चित् अर्थात् कभी कोई विरला पुरुष ही एनम् अर्थात् इस देही को, जीवात्मा को आश्चर्यवत देखता है, देख वही सकता है जो इस अनुभव से ओत-प्रोत हो कि वह देह नहीं देही है | वही इस जीवात्मा का अनुभव कर सकता है | वैसे ही अन्य दूसरा कोई इसका आश्चर्यवत वर्णन करता है, जिसने इसे देखा वही तो वर्णन कर पाएगा तथा अन्य दुसरे इसे आश्चर्य की तरह सुनते हैं, जिज्ञासु ही सुनते हैं, सुनकर भी अन्य इसे नहीं जान पाते, कारण की यह, न वेद; सरलता से जानने में नहीं आता | क्योंकी मनुष्य जब तक इन्द्रियों और मन के अधीन हो जीवन व्यतीत करता है, तब तक वह लाख चाहे, कितनी ही ज्ञान की बातें सुने, जिज्ञासा करे, परन्तु पार नहीं लगता | कारण कि इधर सुना और उधर मोह फिर संसार में लिप्त कर देता है | बिना विवेक-वैराग्य के तत्त्व-ज्ञान जानने में नहीं आता | तत्त्व का ज्ञान जिज्ञासु को केवल तत्त्व ज्ञान के अनुरूप रहनी से ही होता है | इसी तत्त्वज्ञानी अथवा कहें कि प्रज्ञावान की रहनी का विस्तार से वर्णन आगे है | इस प्रकार देह-देही के प्रकरण को विस्तार से कहते हुए परमात्मा श्रीकृष्ण अब इस प्रकरण का समापन करते हुए अर्जुन से निर्णयात्मक रूप से कहते हैं | कि
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत |
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि || (२/३०)

देही नित्यम् अवध्यः अयम् देहे सर्वस्य भारत |
तस्मात् सर्वाणि भूतानि न त्वम् शोचितुम् अर्हसि || (२/३०)

देही(देही), नित्यम्(नित्य है), अवध्यः(अवध्य है), अयम्(यह), देहे(देह में), सर्वस्य(सभी के), भारत(भरतवंशी) | तस्मात्(अत:),  सर्वाणि(समस्त), भूतानि(प्राणियों), (नहीं), त्वम्(तू), शोचितुम्(शोक करने के), अर्हसि(योग्य) | (२/३०)

भरतवंशी अर्जुन ! सब देहों में यह देही नित्य है, अवध्य है, इसलिये समस्त प्राणियों के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये | (२/३०)

परमात्मा श्रीकृष्ण का यहाँ अर्जुन को स्पष्ट संकेत है कि असत देह के समस्त संबंध भी असत ही तो होते हैं, ऐसे असत संबंधो के प्रति मोह और शोक व्यर्थ है, परन्तु इस देह में जो देही है, वही सत है, नित्य है, अवध्य है | इस सत, नित्य और अवध्य देही की यह जो देह है, उसकी मृत्यु का क्या शोक ? देही तो अवध्य ही है | यहाँ तक प्रभु ने अर्जुन का संबंधो को लेकर, जो मोह और शोक था, उसके निवारण हेतु अर्जुन को उपदेश दिया | अब अर्जुन को इस युद्ध के दोष स्वरूप जो
अधर्म और पाप के आश्रय का भय था, उसके निवारण करने हेतु श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है  | कि 

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि |
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते || (२/३१)

स्व धर्मम् अपि च अवेक्ष्य न विकम्पितुम् अर्हसि |
धर्म्यात् हि युद्धात् श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते || (२/३१)

स्वधर्मम्(अपने धर्म को), अपि(भी), (और), अवेक्ष्य(देखकर), न(नहीं), विकम्पितुम्(विचलित), अर्हसि(योग्य) | धर्म्यात् (धर्म के लिये), हि(क्योंकि), युद्धात्(युद्ध से), श्रेयः(कल्याणकारी), अन्यत्(कोई दूसरा), क्षत्रियस्य(क्षत्रिय को), (नहीं), विद्यते(है)| (२/३१)

और स्वधर्म को देख विचार कर भी विचलित नहीं होना चाहिये, क्योंकी क्षत्रिय के लिये धर्ममय युद्ध से कल्याणकारी दूसरा कोई नहीं है | (२/३१)

महाभारत की कथा के अनुसार शकुनी के रचे षडयंत्र और दुर्योधन द्वारा हठपूर्वक कहने पर, धृतराष्ट्र ने धर्मराज युधिष्ठिर को जुआ खेलने को प्रस्तुत होने का निमंत्रण भेजा | पाण्डव सदा ही धृतराष्ट्र की प्रत्येक उचित-अनुचित बात का आदर के साथ अनुसरण करा करते थे, खेल-भावना से खेला गया, क्षत्रियों का खेल यह जुआ, शकुनी और दुर्योधन आदि के षडयंत्र के कारण पाण्डवों पर भारी पड़ा | पुत्र मोह से बंधे धृतराष्ट्र के समक्ष बलात ही पाण्डवों का सारा राज्य हड़प लिया गया | अन्त में जुए की शर्त के अनुसार बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण होने पर भी जब धार्तराष्ट्रान ने पाण्डवों का राज-पाट उन्हें वापस नहीं करा तथा श्रीकृष्ण द्वारा संधि-वार्ता में केवल पाँच गाँव भी पाण्डवों को जीवन-निर्वाह हेतु नहीं दिये गए, तब वहां उपस्थित श्रीकृष्ण तथा समस्त धर्माचार्यों ने भी इस युद्ध की अनिवार्यता को स्वीकारते हुए युद्ध की घोषणा की | इसलिये यह युद्ध धर्मयुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुआ | इस को इंगित करते हुए श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यह युद्ध राजाओं की लिप्सा हेतु नहीं अपितु धर्म की स्थापना हेतु धर्मयुद्ध है और क्षत्रियों के लिये धर्ममय युद्ध से कल्याणकारी अर्थात् श्रेय का साधन अन्य दूसरा कोई भी नहीं हैं | केवल इतना ही नहीं अर्जुन यह धर्ममय युद्ध -
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् |
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् || (२/३२)

यदृच्छया च उपपन्नम् स्वर्ग द्वारम् अपावृतम् |
सुखिनः क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धम् ईदृशम् || (२/३२)

यदृच्छया(अपने आप), (और), उपपन्नम्(उत्पन्न हुआ), स्वर्ग(स्वर्ग), द्वारम्(द्वार), अपावृतम्(खुला हुआ) | सुखिनः(सुखी है),  क्षत्रिया( वे क्षत्रिय), पार्थ(पृथापुत्र), लभन्ते(प्राप्त करते हैं), युद्धम्(युद्ध को), ईदृशम्(इस प्रकार के) | (२/३२)

अपने आप उत्पन्न हुआ यह युद्ध स्वर्ग का खुला हुआ द्वार है  और पार्थ ! वे क्षत्रिय भाग्यशाली हैं, (जिनको) इस प्रकार का युद्ध (धर्ममय) प्राप्त होता है | (२/३२)

तुम्हारी लिप्सा से नहीं अपितु तुम्हारे विरुद्ध षडयंत्र और हठपूर्वक उत्पन्न, ऐसा धर्ममय युद्ध क्षत्रियों के लिये खुला हुआ स्वर्ग का द्वार होता है क्योंकि ऐसा युद्ध काम और भोगों की प्राप्ति हेतु अन्य राज्य पर करा गया युद्ध, जो अधर्म और पाप का कारण होता है, ऐसा ना होकर, शास्त्र सम्मत युद्ध  है तथा युद्ध क्षत्रिय का धर्म भी है | इसलिये शास्त्रसम्मत धर्ममय युद्ध क्षत्रियों के लिये कर्तव्य-कर्म की भांति पुण्य का, स्वर्ग का खुला हुआ द्वार होता है |

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि |
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि || (२/३३)

अथ चेत् त्वम् इमम् धर्म्यम् सङ्ग्रामम् न करिष्यसि |
ततः स्व धर्मम् कीर्तिम् च हित्वा पापम् अवाप्स्यसि || (२/३३)

अथ(अतः), चेत(यदि), त्वम्(तुम), इमम्(इस), धर्म्यम्(धर्म रूपी), सङ्ग्रामम्(संग्राम को), न(नहीं), करिष्यसि(करोगे) | ततः(तब), स्वधर्मम्(स्वधर्म को), कीर्तिम्(कीर्ति को, यश को), (और), हित्वा(खोकर), पापम्(पाप को), अवाप्स्यसि(प्राप्त होगे) | (२/३३)

अब यदि तुम इस धर्मरुपी संग्राम को, युद्ध को नहीं करोगे, तब स्वधर्म और कीर्ति अर्थात् यश को खोकर पाप को प्राप्त होगे | (२/३३)

कहने का तात्त्पर्य यह कि अपने आप प्राप्त हुए पुण्य रुपी कर्त्तव्य कर्म, धर्ममय युद्ध से क्षत्रिय का पलायन, ऐसे युद्ध का त्याग करने वाला क्षत्रिय, क्षात्र धर्म के अनुसार पाप का अधिकारी होता है | केवल यही नहीं -

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेअव्य्याम् |
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते || (२/३४)

अकीर्तिम् च अपि भूतानि कथयिष्यन्ति ते अव्ययाम् |
सम्भावितस्य च अकीर्तिः मरणात् अतिरिच्येत || (२/३४)

अकीर्तिम्(अपयश), (और), अपि(भी), भूतानि(समस्त प्राणी), कथयिष्यन्ति(कथन कहेंगे), ते(तुम्हारी), अव्ययाम्(सदा के लिये) | सम्भावितस्य(सम्मानित पुरुष को), (और), अकीर्तिः(अपयश), मरणात्(मरण से भी), अतिरिच्येत(अधिक दुःखदायी) | (२/३४)

और समस्त प्राणी तुम्हारी अकीर्ति, अपयश का कथन कहेंगे और सम्मानित पुरूषों के लिये अपयश मरण से भी अधिक
दुःखदायी होता है | (२/३४)

जिस मोह और शोक के कारण, अधर्म तथा पाप के आश्रय से बचने को अर्जुन युद्ध से निवृत होना चाहता था, उस युद्ध के त्याग से अर्जुन तुम उससे भी बड़े दुःख को प्राप्त होगे | केवल इतना ही नहीं , अपितु

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः |
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् || (२/३५)

भयात् रणात् उपरतम् मंस्यन्ते त्वाम् महारथाः |
येषाम् च त्वम् बहु-मतः भूत्वा यास्यसि लाघवम् || (२/३५)

भयात्(भय के कारण), रणात्(रण से), उपरतम्(उपराम हुए), मंस्यन्ते(मानेंगे), त्वाम्(तुम्हें), महारथाः(महारथी) | येषाम्(जिनके लिये), (और), त्वम्(तुम), बहुमतः (अति सम्मानित), भूत्वा(होकर), यास्यसि(प्राप्त करोगे), लाघवम् (लघुता को) | (२/३५)

महारथी योद्धा तुम्हें भय के कारण रण से विमुख हुआ मानेंगे और जिनमें तुम बहुत सम्मानित हो चुके हो , (उनमें) लघुता को, अपयश को प्राप्त होगे | (२/३५)
                                                                                                                                                                                          
एक क्षत्रिय के रण स्थल से पलायन को तो साधारण जन भी हीन दृष्टि से देखते हैं फिर महारथी योद्धाओं का तो क्या ही कहना ? किसी भी कारणवश ऐसा आचरण अपयश का कारण होता है | इस तथ्य को प्रभु और स्पष्ट रूप से कहते हैं |

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः |
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम् || (२/३६)

अवाच्य वादान् च बहून् वदिष्यन्ति तव अहिताः |
निन्दन्तः तव सामर्थ्यम् ततः दुःख तरम् नु किम् || (२/३६)

अवाच्य(ना कहने योग्य), वादान्(वचन), (और), बहून्(बहुत से), वदिष्यन्ति(कहेंगे), तव(तुम्हारा), अहिताः(अहित चाहनेवाले) | निन्दन्तः(निंदा करतेहुए), तव(तुम्हारे), सामर्थ्यम्(सामर्थ्य की), ततः(उससे), दु:ख-तरम् (अधिक दुःख), नु(निःसंदेह), किम्(क्या होगा) | (२/३६)
                      
तुम्हारा अहित चाहने वाले तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए, अनेक ना कहने योग्य वचन कहेंगे, उससे अधिक दुःख
क्या होगा ? (२/३६)

श्रीकृष्ण के अनुसार अर्जुन का युद्ध से पलायन निन्दा, अपयश और दुःख का ही कारण बनेगा, इसलिये युद्ध से पलायन का विचार त्याग कर प्रभु अर्जुन को स्वधर्म अनुसार कर्त्तव्य-कर्म रूप, धर्ममय युद्ध को अंगीकार करने का प्रस्ताव रखते हैं | क्योंकि
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् |
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः || (२/३७)

हतः वा प्राप्स्यसि स्वर्गम् जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम् |
तस्मात् उतिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चयः || (२/३७)

हतः(मारा जाकर), वा(या तो), प्राप्स्यसि(प्राप्त करोगे), स्वर्गम्(स्वर्ग को), जित्वा(विजयी होकर), वा(अथवा), भोक्ष्यसे(भोगोगे), महीम्(पृथ्वी) | तस्मात्(इसलिये), उत्तिष्ठ(उठो), कौन्तेय(कुन्तीपुत्र), युद्धाय(युद्ध को), कृत (दृढ़), निश्चयः (संकल्प करके) | (२/३७)

या तो मर कर स्वर्ग को प्राप्त करोगे अथवा विजयी होकर पृथ्वी का राज्य भोगोगे, इसलिये कौन्तेय ! युद्ध के लिये दृढ़ संकल्प करके उठो | (२/३७)

उपर्युक्त छह श्लोकों में श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रति स्वधर्म पर दृष्टि रखते हुए, क्षात्र धर्म के अनुसार युद्ध से पलायन ना करने का प्रस्ताव रखते हैं | परन्तु अर्जुन ने तो परमात्मा श्रीकृष्ण के प्रति शरणागत हो, उनका शिष्यत्व ग्रहण कर, स्पष्ट कहा था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तथा पृथ्वी अथवा स्वर्ग का आधिपत्य भी मुझ अर्जुन के इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर नहीं कर सकता | पृथ्वी अथवा स्वर्ग के साम्राज्य से भी परे कोई कल्याणकारी मार्ग कहिये, मुझे साधिये | यहाँ अगर श्रीकृष्ण थोड़ा सांख्य दृष्टि से और थोड़ा सामाजिक दृष्टिकोण से उपदेश कह कर अर्जुन को पुनः युद्ध के लिये ही प्रेरित करते हैं, तो यह कौन सा कल्याणकारी मार्ग हुआ ? यह कैसा परमार्थ मार्ग ? जन्म-मरण के पाश से बंधे मनुष्य का इससे कौन सा हित सिद्ध होगा ? अर्जुन का निवेदन था कि मुझे साधिये अर्थात् कुछ ऐसा करिए, ऐसा कहिये कि मैं जन्म-जन्मान्तरों तक फिर मूढ़ता, मोह, शोक को ना प्राप्त होऊं अपितु श्रेय को प्राप्त होऊं | श्रेय अर्थात् लाभकारी नहीं, अपितु कल्याणकारी प्राप्ति को प्राप्त होऊं | परन्तु अभी तक परमात्मा श्रीकृष्ण के उपदेशों से ऐसा कोई दिशा-निर्देश नहीं मिलता | परमात्मा श्रीकृष्ण के अभी तक के परामर्श ने अर्जुन को केवल पृथ्वी अथवा स्वर्गादिक भोगों के लिये ही तो प्रेरित करा है |

वस्तुतः यही गीता शास्त्र की अद्वितीयता है | अन्य सभी महापुरुषों से विपरीत परमात्मा श्रीकृष्ण ने परमार्थ हेतु अर्थात् परं-अर्थ हेतु, मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण हेतु कभी भी जीवन से पलायन को, गृहस्थ के, समाज के, कर्मों के त्याग को अनिवार्य नहीं माना | अपितु इसके विपरीत जीवन के, स्वधर्म रूपी कर्तव्य-कर्म के त्याग को ही प्रभु पाप का आचरण, आश्रय कहते हैं | (२/३३) श्रीकृष्ण तथाकथित सन्यास के पक्षधर कभी नहीं रहे, इसीलिए श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित परमार्थ मार्ग को ज्ञानी जन कर्मयोग भी कहते हैं | कर्मयोग अर्थात् जीवन निर्वाह हेतु कर्मों का और मोक्ष हेतु योग का ऐसा समन्वय जो परमार्थ हेतु है | अगले दो श्लोकों में परमात्मा श्रीकृष्ण के उपदेशों का स्पष्ट स्वरूप सामने आएगा, निवेदन है कि ध्यानपूर्वक अध्ययन-मनन करें |
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ |
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि || (२/३८)

सुख दुःखे समे कृत्वा लाभ अलाभौ जय अजयौ |
ततः युद्धाय युज्यस्व न एवम् पापम् अवाप्स्यसि || (२/३८)

सुख(सुख), दुःखे(दुःख में), समे(सम होकर, समभाव से), कृत्वा(करके), लाभ-अलाभौ(लाभ-हानि), जय-अजयौ(जय-अजय) | ततः (तब),  युद्धाय(युद्ध के लिये), युज्यस्व(लग जा), (नहीं), एवम्(इस प्रकार), पापम्(पाप को), अवाप्स्यसि(प्राप्त होगे) | (२/३८)

जय-पराजय में, लाभ-हानि में (और) सुख-दुःख में (मन एवं बुद्धि को) सम करके, उसके बाद युद्ध में लग जा, इस प्रकार
पाप को प्राप्त नहीं होगा | (२/३८)

समस्त मनुष्य जाति को योगेश्वर श्रीकृष्ण का यह अमूल्य सन्देश है कि समभाव से स्वधर्म का पालन करते हुए जीवन
निर्वाह करना चाहिये और इस प्रकार जीवन-निर्वाह हेतु आवश्यक बौद्धिक ज्ञान, देह-देही का भेद भी परमात्मा ने स्पष्ट करा | परमात्मा श्रीकृष्ण अर्जुन की भिक्षान्न की याचना, स्वजनों के रुधिर से सने राज्य का त्याग और कुलक्षय से उत्पन्न कुलधर्म के प्रति तथाकथित अधर्म और पाप को भी नकारते हुए, समभाव से स्वधर्म का पालन करते हुए जीवन-निर्वाह का उपदेश देते हैं तथा यह भी स्पष्ट करते हैं कि इस प्रकार तू अर्थात् समभाव से स्वधर्म का पालन करते हुए तू पाप को प्राप्त नहीं होगा |

परमार्थ हेतु परमात्मा श्रीकृष्ण जीवन-निर्वाह को दो आवश्यक तत्त्वों की अनिवार्यता को स्पष्ट करते हैं | प्रथम तत्त्व समभाव है |  वस्तुतः यह संसार द्वैत के कारण ही अस्तित्व में है, मनुष्य के समस्त भाव द्वंदात्मक हैं और यही मनुष्य जाति की पीड़ा है | स्वयं अपने और परमात्मा में द्वैत भाव, सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय और राग-द्वेष आदि में द्वंदात्मक भाव ही तो मनुष्य को मूढ़ बनाए रखते हैं और यहाँ युद्ध स्थल पर अपने-पराये, मित्र-वैरी, पाप-पुण्य अथवा राज्यभोग-भिक्षान्न के द्वंदात्मक भाव ही तो अर्जुन की व्यथा और शोक के कारण थे | दूसरा तत्त्व स्वधर्म का पालन है | परमात्मा श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि दुसरे के धर्म से (इस संदर्भ में अर्जुन द्वारा भिक्षान्न की याचना) स्वधर्म में मरना भी कल्याणकारी है, क्योंकी यह स्वर्ग का खुला द्वार है | (२/३७) यही सन्देश अर्थात् स्वधर्म और समभाव से जीवन-निर्वाह का सन्देश प्रभु ने पहले सांख्य दृष्टि से भी कहा है कि सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख देनेवाले इन्द्रियों और विषयों के संयोग-वियोग तो आने-जाने वाले, अनित्य हैं, उनको सहन करो अर्थात् उनके प्रति समभाव से जीवन-निर्वाह करो | (२/१४) तथा सुख-दुःख में सम रहने वाले अर्थात् समभाव से जीवन-निर्वाह करनेवाले जिस धीर पुरुष को यह द्वन्द व्यथित, व्याकुल नहीं करते, वह अमृत की प्राप्ति के योग्य, समर्थ हो जाता है | (२/१५) परमात्मा श्रीकृष्ण के उपदेशों स्वरूप यहाँ एक और गहन तथ्य मनन को प्रस्तुत होता है कि मनुष्य का प्रकृतिजन्य स्वभाव द्वंदात्मक है तथा उसके स्वभाव से उत्पन्न अर्थात् सांसारिक कारणों से उत्पन्न वैराग्य फलित नहीं होता क्योंकी ऐसे वैराग्य के मूल में भी राग-द्वेष रूपी बीज ही होता है परन्तु विवेक बुद्धि के कारण समभाव, समबुद्धि  से उत्पन्न वैराग्य, अमृततत्त्व की प्राप्ति का कारण बनता है, मनुष्य को मुक्ति का, मोक्ष का अधिकारी बनाता है | मनुष्य का यही सम-भाव उसके स्व-भाव का योग द्वारा रूपांतरण कर उसे परं-भाव की प्राप्ति कराता है | यही कृष्णयोग का आधार है | यह जो विवेक बुद्धि है, यही इस कृष्णयोग का सांख्य दृष्टि से कहा गया बौद्धिक ज्ञान है |

 इस प्रकार अर्जुन को साधते हुए प्रभु यह स्पष्ट करते हैं कि समभाव,समबुद्धि से स्वधर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता, अपितु अमृततत्त्व अर्थात् परमार्थ मार्ग हेतु, परमगति, परमधाम हेतु योग्यता को प्राप्त कर लेता है, इसका अधिकारी हो जाता है | यहाँ तक प्रभु ने परमार्थ मार्ग हेतु जीवन-निर्वाह के अनिवार्य तत्त्वों पर प्रकाश डाला और अब यहाँ से प्रभु के उपदेशों का स्वरूप इस परमार्थ मार्ग के अधिकारी के प्रति है अर्थात् अब प्रभु के उपदेश विशुद्ध रूप से मुक्ति, मोक्ष हेतु हैं, अब कृष्णयोग का वर्णन है |     

एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु  |
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि || (२/३९)

एषा ते अभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिः योगे तु इमाम् शृणु |
बुद्धया युक्तः यया पार्थ कर्म बन्धनम् प्रहास्यसि || (२/३९)

एषा(यह सब), ते(तुम्हारे लिये), अभिहिता(कहा गया), साङ्ख्ये(सांख्य), बुद्धिः(बुद्धि से), योगे(योग के विषय में), तु(लेकिन), इमाम्(इसको),  श्रृणु(सुनो) | बुद्धया(बुद्धि से), युक्तः(युक्त होकर), यया(जिस), पार्थ(पृथापुत्र), कर्मबन्धनम्(कर्मबन्धन का),  प्रहास्यसि (त्याग कर दोगे, सर्वथा नाश कर सकोगे) | (२/३९)

यह सब तुम्हारे लिये सांख्य बुद्धि से कहा गया है परन्तु इसको (बुद्धि को) योग के विषय में (भी) सुनो | पार्थ ! जिस बुद्धि से (योग) युक्त होकर कर्मबन्धन का सर्वथा नाश कर सकेगा | (२/३९)

यह श्लोक गीता शास्त्र द्वारा स्थापित परमधाम की यात्रा हेतु मील का पहला पत्थर है, परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा कहा इस
कृष्णयोग का पहला देशा-निर्देश है | अगर साधक इस दिशा-निर्देश को चुक गया तो वह गीता शास्त्र की कितनी ही पुनरावृति करे, मार्ग से च्युत हो ही जाएगा | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित इस कृष्णयोग की यात्रा हेतु अपना समस्त पूर्वज्ञान, पूर्वाग्रह तथा अन्य शास्त्रों में कहे उपदेशों का चिंतन-मनन इस यात्रा में निषेध ही जानें तो हितकर होगा | केवल कृष्णमय हो इस यात्रा का आनंद लें |

परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह सब तेरे लिये सांख्य बुद्धि से कहा गया है अर्थात् पूर्व-श्लोक तक प्रभु का समस्त उपदेश सांख्य दर्शन की दृष्टि से कहा गया है, जीवन-निर्वाह हेतु कहा गया है | यहाँ जीवन-निर्वाह और कर्मबंधन के नाश हेतु दो भिन्न अर्थात् परस्पर विलक्षण प्रकरण एक ही श्लोक में कहे गये हैं तथा एक ही बुद्धि से युक्त होकर कहे गये हैं | इसलिये प्रभु यहाँ परन्तु का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि परन्तु इन दो विलक्षण प्रकरण में एक ही बुद्धि सहयोगी है | इसलिये प्रभु कहते हैं कि यह सब तुम्हारे लिये सांख्य बुद्धि से कहा गया है परन्तु इसको (बुद्धि) को योग के विषय में भी सुनो | अर्थात् प्रभु द्वारा बुद्धि को एक ही दिशा-निर्देश है, जो दोनों में अर्थात् जीवन-निर्वाह में भी तथा कर्मबंधन के नाश में भी हेतु है, तत्पश्चात कहते हैं कि पार्थ ! जिस बुद्धि से युक्त होकर कर्मबंधन का नाश कर सकेगा | अर्थात् यह बुद्धि, जो जीवन-निर्वाह हेतु कही गई है, जिसके आचरण स्वरूप तू अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी हुआ, उसी बुद्धि से युक्त होकर, मुझ योगेश्वर द्वारा उपदेशित योग का अनुष्ठान करके तू कर्मबंधन का नाश कर सकेगा | कहने का तात्त्पर्य यह कि परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित गीता शास्त्र में जीवन-निर्वाह और जीवन मुक्ति हेतु एक ही बुद्धि की प्रस्तावना है | यात्रा में आगे जाने से पूर्व सार रूप से प्रभु द्वारा उपदेशित सांख्य दृष्टि से कही इस बुद्धि पर एक मनन |

सर्वप्रथम परमात्मा श्रीकृष्ण संसार में द्वंदात्मक भावों के प्रति, इन्द्रियों और विषयों के संयोग-वियोग के प्रति समभाव की प्रस्तावन करते हैं और कहते हैं कि जो धीर पुरुष इन द्वंदों से व्यथित, व्याकुल नहीं होता वह अमृत तत्त्व की प्राप्ति के योग्य होता है | फिर प्रभु इस समभाव में स्थिति बनाये रखने हेतु सत और असत तत्त्व को परिभाषित करते हैं | अविनाशी, अप्रमेय, अव्ययस्य, नित्य, सनातन और सर्वव्याप्त देही को सत और देही के द्वारा धारण देह को असत के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं | इस प्रकार समभाव, समबुद्धि में स्थिति और सत-असत के भेद को जान जो पुरुष स्वधर्म का आचरण करता हुआ जीवन-निर्वाह करता है, वह पाप को अर्थात् इस प्रकार जीवन यापन करने से, नये कर्मरूपी बन्धनों को प्राप्त नहीं होता | जीवन में इस प्रकार से कही बुद्धि का आचरण करने से नए कर्मरूपी बंधन उत्पन्न नहीं होते तथा इसी बुद्धि का आश्रय लेकर, इस बुद्धि से युक्त रहकर कृष्णयोग का अनुष्ठान करने से पूर्व में उत्पन्न कर्मबंधन का भी नाश होता है |

परमात्मा श्रीकृष्ण ने जीवन में प्रवृत होने को जिस बुद्धि का उपदेश दिया, उसी बुद्धि से युक्त हो योग के अनुष्ठान स्वरूप जीवन से निवृत होने का भी उपदेश दिया | अब परमात्मा श्रीकृष्ण इस योग के क्रियात्मक पहलू, चेष्टात्मक पहलू को ना कहकर, पहले समभाव से, समबुद्धि से युक्त इस योग की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हैं | तत्पश्चात श्लोक संख्या (२/४५) में इस योग का स्वरूप स्पष्ट करते हैं |

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते |
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् || (२/४०)

न इह अभिक्रम नाशः अस्ति प्रत्यवायः न विद्यते |
स्वल्पम् अपि अस्य धर्मस्य त्रायते महतः भयात् || (२/४०)

(नहीं), इह(इसमें), अभिक्रम(प्रयत्न के आरम्भ का), नाशः(नाश), अस्ति(है), प्रत्यवायः(विपरीत दोष), (नहीं), विद्यते(होता है) | स्वल्पम्(थोड़ा सा), अपि(भी), अस्य(इस), धर्मस्य(धर्म का), त्रायते(रक्षा करता है), महतः(महान), भयात्(भय से) | (२/४०)

इसमें प्रयत्न के आरम्भ का नाश नहीं होता, कोई विपरीत दोष भी विद्यमान नहीं है | इस धर्म का थोड़ा सा भी (आचरण) महान भय से रक्षा करता है | (२/४०)

पूर्व श्लोक में कही समबुद्धि से युक्त होकर, प्रस्तावित योग के अनुष्ठान में प्रवृत होने को श्रीकृष्ण यहाँ धर्म कहते हैं | मनुष्य के द्वारा इस धर्म के आचरण हेतु किये गए प्रयत्न का कभी नाश नहीं होता अर्थात् इस कृष्णयोग रूपी धर्म में आप लग भर जाए, आपके द्वारा जितना भी साधन इस कृष्णयोग द्वारा हो पाएगा, उसका अर्थात् उस साधना के परिणाम का जन्म-जन्मान्तरों तक कभी नाश नहीं होता तथा इसमें प्रत्यवाय अर्थात् कोई विपरीत दोष भी नहीं होता | तात्पर्य यह कि इस कृष्णयोग में आप जो भी साधना करते हैं, उसका परिणाम कर्मबंधन के नाश हेतु आपका उर्ध्वमुखी उत्थान ही करता है, इस धर्म में ऐसा नहीं होता कि आपकी साधना का परिणाम आपको कर्मफल के रूप में प्राप्त हो, जिसे भोग कर उसका नाश हो जाए | अन्यथा भी इस धर्म का एक बार आचरण करने के उपरान्त आप संसार के मोहवश यह धर्म, यह साधना भला ही छोड़ दें, परन्तु यह साधन आपको नहीं छोड़ेगा, पुनः पुनः इस धर्म के प्रति भावों का आप में स्फुरण होता रहेगा, कृष्णयोग का बीजारोपण शिथिल प्रयत्न वाले साधक को भी अनेक जन्मों के पश्चात् वहीं ला खड़ा करता है, जिसका नाम परमधाम है | माया कितना ही प्रयत्न करे, विलम्ब हो सकता है, परन्तु माया में कोई ताकत नहीं जो इसके परिणाम को मिटा सके | इसीको प्रभु कहते हैं कि इसमें प्रयत्न के आरम्भ का नाश नहीं होता तथा कोई विपरीत दोष भी विद्यमान नहीं है | केवल इतना ही नहीं अपितु इस धर्म का थोड़ा सा भी आचरण महान भय से रक्षा करता है | महान भय अर्थात् संसार रूपी दुखों से, मोह, मूढ़ता, काम-क्रोध, लोभ, राग-द्वेष रूपी भय तथा दुःख रूपी संसार बंधन से, आवागमन से आपकी रक्षा करता है | कृष्णयोग से युक्त समबुद्धि और सांसारिक बुद्धि के भेद को स्पष्ट करते हुए प्रभु कहते हैं | कि
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् || (२/४१)

व्यवसाय आत्मिका बुद्धिः एका इह कुरु नन्दन |
बहु शाखा: हि अनन्ताः च बुद्धयः अव्यवसायिनाम् || (२/४१)

व्यवसाय(व्यावसायिक, अर्जित करने वाली), आत्मिका(निश्चयात्मक), बुद्धिः(बुद्धि), एका(एक ही), इह(इसमें), कुरु (कुरुवंश), नन्दन(प्रिय पुत्र) | बहु(बहुत, अनेक), शाखाः(शाखाओं में विभक्त), हि(निःसंदेह), अनन्ताः(अनन्त), (और), बुद्धयः(बुद्धियाँ), अव्यवसायिनाम्(अव्यवसायिक पुरूषों की, अर्जित ना करने वालों की) | (२/४१)

कुरुनन्दन ! इसमें व्यावसायिक निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है, अव्यवसायिक पुरूषों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं | (२/४१)

समबुद्धि से युक्त कृष्णयोग परायण साधक अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी होता है तथा पूर्व श्लोक में परमात्मा श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि इसमें प्रयत्न के आरम्भ का नाश नहीं होता | अतः स्पष्ट है कि समबुद्धि से युक्त कृष्णयोग परायण साधक अपनी साधना स्वरूप जिस अमृततत्त्व का अर्जन करता है, उसका संचय होता है, उसका कभी नाश नहीं होता | इस नाशरहित अर्जन और संचय को परमात्मा श्रीकृष्ण व्यावसायिक बुद्धि कहते हैं तथा इस अमृततत्त्व के संचय का उद्देश्य और परिणाम भी एक ही होता है, परमतत्त्व से एकीभाव तथा यह परमतत्त्व रूपी परमात्मा भी एक ही है, यह कभी एक से अनेक हुआ ही नहीं | अतः उस एक परमतत्त्व की प्राप्ति को प्रयत्न करने वाली समबुद्धि भी एक ही और निश्चयात्मक होती है | यही प्रभु ने यहाँ कहा है कि व्यावसायिक निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है | परन्तु

जो पुरुष समबुद्धि युक्त कृष्णयोग परायण नहीं होते, जिनका चिंतन-मनन परमात्मा की प्राप्ति की ओर न होकर, सांसारिक भोगों में रमण करता है, उनके प्रति परमात्मा कहते हैं कि ऐसे पुरूषों की बुद्धि अव्यवसायिक होती है क्योंकी यह पुरुष अपनी बुद्धि से जिन भोगों का, भोग सामग्री का संग्रह करते हैं, वह सब नाशवान है | नाशवान का अर्जन और संचय करने वाली बुद्धि अव्यवसायिक ही होती है तथा यह बुद्धि एक परमतत्त्व परमात्मा के प्रति स्थिर ना होकर, भोगों के प्रति लालायित रहती है अर्थात् अव्यवसायिक पुरूषों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं, क्योंकी माया जिन भोगों को प्रस्तुत कर ऐसे पुरूषों को अपने पाश से बांधती है वह भोग भी बहुत भेदों वाले और अनन्त रूपों में उपस्थित होते हैं | इसी अव्यवसायिक बुद्धि का चित्रण प्रभु अगले तीन श्लोकों में करते हैं |

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः |
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः | (२/४२)
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् |
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति || (२/४३)
 भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् |
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते || (२/४४)

याम् इमाम् पुष्पिताम् वाचम् प्रवदन्ति अविपश्चितः |
वेद वाद रताः पार्थ न अन्यत् अस्ति इति वादिनः || (२/४२)
काम आत्मानः स्वर्ग परा जन्म कर्म फल प्रदाम् |
क्रिया विशेष बहुलाम् भोग ऐश्वर्य गतिम् प्रति || (२/४३)
भोग ऐश्वर्य प्रसक्तानांम् तया अपहृत चेतसाम् |
व्यवसाय आत्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते || (२/४४)

याम्(जो), इमाम्(इसप्रकार), पुष्पिताम्(शोभायुक्त दिखाऊ), वाचम्(वचनों को), प्रवदन्ति(कहते हैं), अविपश्चितः(अल्पज्ञ) | वेद (वेद), वाद(वाक्य), रताः(रमनेवाले), पार्थ(पार्थ), (नहीं), अन्यत्(अन्यकु), अस्ति(है), इति(ऐसा), वादिनः(कहनेवाले)| (२/४२)
काम(भोग आदि हेतु काम्य कर्म), आत्मानः(पुरुष), स्वर्ग(स्वर्ग), पराः(परम प्राप्य), जन्म(जन्म), कर्मफल(कर्मफल), प्रदाम्(प्रदान करनेवाले) | क्रिया(कृत्य), विशेष(विशेष), बहुलाम्(बहुत से), भोग(भोग), ऐश्वर्य(ऐश्वर्य), गतिम्(प्रगति), प्रति(की ओर) | (२/४३)
भोग(भोग), ऐश्वर्य(ऐश्वर्य), प्रसक्तानाम्(आसक्त पुरुष), तया(उससे), अपह्यत(हर लिया), चेतसाम्(जिनका चित्त) | व्यवसाय (अर्जित करने वाली),  आत्मिका(निश्चयात्मक), बुद्धिः(बुद्धि), समाधौ(नियंत्रित अन्तकरण), (नहीं),  विधीयते(होती) | (२/४४)

पार्थ ! जो कामनाओं में तन-मन से लिप्त हैं, जो पुण्यकर्मों के प्रशंसक वेद वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि के अनुसार स्वर्ग ही परमप्राप्य तत्त्व है और जो स्वर्ग से अधिक कोई अन्य उपलब्धि नहीं है, ऐसे वचन कहने वाले हैं | वे अविवेकीजन जिस पुष्पित अर्थात् शोभायुक्त दिखावटी वाणी को कहते हैं, वे (पाप) पुण्य कर्मफल रूपी जन्म तथा भोग एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की क्रियाओं का विशेष रूप से वर्णन करते हैं, इस प्रकार जिनका चित्त (कामनाओं द्वारा) हर लिया गया है, भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त उन पुरूषों की परमात्मा में निश्चयात्मक व्यावसायिक बुद्धि नहीं होती | (२/ ४२,४३,४४)

प्रवृति विषयक, पुण्यकर्मों के प्रशंसक वेद वाक्यों में आसक्त, सांसारिक और स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति ही जिनका उद्देश्य होता है, ऐसे पुरुष बहुत प्रकार के कर्म-काण्ड और नाना प्रकार की पूजा-पाठ की क्रियाओं का वर्णन करते हुए, भोग और ऐश्वर्य हेतु इन्ही से लिप्त रहते हैं | प्रकृति के, माया के तीन गुणों के प्रभाव से लिप्त ऐसे पुरुष केवल नाशवान भोगों और ऐश्वर्य का अर्जन और संचय करते है, कल्याणकारी अमृत तत्त्व की प्राप्ति का इनको ज्ञान भी नहीं होता | ऐसी सांसारिक बुद्धि जो अंततः दुःख, शोक और विषाद का ही कारण बनती है, उसके त्याग और कल्याणकारी परमार्थ मार्ग हेतु, अब परमात्मा श्रीकृष्ण अर्जुन को एक बहुत ही महत्वपूर्ण सदेश देते हैं |

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् || (२/४५)

त्रैगुण्य विषयाः वेदाः निस्त्रै गुण्यः भव अर्जुन |
निर्द्वन्द् नित्य सत्व स्थः निर्योगक्षेमः आत्मवान् || (२/४५)

त्रैगुण्य(प्रकृति, माया के तीन गुण), विषयाः(विषय से सम्बंधित), वेदाः(समस्त वेद शास्त्र), निस्त्रै(रहित), गुण्यः(गुणों), भव(हो), अर्जुन(अर्जुन) | निर्द्वन्द्वः(द्वन्दभाव रहित), नित्य(सदैव), सत्व(सत्य में), स्थः(स्थित), निर्योग-क्षेमः(अप्राप्य की प्राप्ति और उनकी रक्षा के भावों से मुक्त), आत्मवान्(आत्म परायण) | (२/४५)

वेद तीन गुणों के कार्य का ही वर्णन करते है | अर्जुन ! तीनों गुणों से रहित हो जा, निर्द्वन्द, नित्यसत्त्वस्थित, निर्योगक्षेम और आत्मपरायण हो | (२/४५)

परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित गीता शास्त्र का कोई भी मंत्र अगर बीजमंत्र के रूप में ग्रहण करना हो तो मेरे अनुभव में वह यही मंत्र है | परमात्मा श्रीकृष्ण के उपदेशों का, योगेश्वर श्रीकृष्ण के कृष्णयोग का सम्पूर्ण सार इस मंत्र में समाहित है | आइये इस पर मनन करते हैं |

त्रैगुण्यविषया वेदा :- समस्त वेद शास्त्र प्रकृतिजन्य तीन गुणों के विषय से ही सम्बंधित हैं | माया के तीनों गुणों अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तक ही इन वेदों का कार्य क्षेत्र है | इसलिये ही वेदों को प्रवृति विषयक शास्त्र कहा जाता है, प्रकृति से जो परे है, परं है, उसका ज्ञान वेदों से नहीं होता | वेदांत अर्थात् जहाँ वेदों का कार्य क्षेत्र समाप्त होता है, वे शास्त्र प्रकृति से परे उस परमतत्त्व पर प्रकाश डालते हैं | वेद अर्थरुपी, कामरूपी धर्म है, तात्पर्य यह कि सांसारिक और स्वर्गादिक भोगों और ऐश्वर्यों हेतु जो अर्थ और काम रूपी धर्म है तथा इन्ही भोगों और ऐश्वर्यों की प्राप्ति हेतु जो बहुत प्रकार के कर्म-काण्ड और नाना प्रकार की पूजा-पाठ की क्रियाओं का वर्णन है, वही वेदों का कार्य क्षेत्र है | प्रकृति के तीनों गुणों से भावित बुद्धि ही वेदों में वर्णित नाशवान भोगों के प्रति लालायित रहती है | ऐसी बुद्धि कल्याणकारी अमृत तत्त्व की प्राप्ति का साधन नहीं होती | इसलिये प्रभु अर्जुन को कहते हैं | कि

निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन :- अर्जुन ! तीनों गुणों से रहित हो जा, क्योंकी जो कर्म प्रकृति के तीनो गुणों के प्रभाव से कार्यान्वित होते हैं वही कर्म तो कर्मफल को उत्पन्न करने में तथा उनको भोगने हेतु आवगमन में, पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं के कारण होते हैं | तीनों गुण और इनसे कार्यान्वित कर्म ही बंधनकारी हैं, संसार का बंधन हैं | भोगों और ऐश्वर्य आदि को सकाम कर्मों की कामना, कर्मफल में आसक्ति, माया के इन्ही तीनों गुणों के आश्रय का फल है, इसलिये अर्जुन तू इन तीन गुणों से होने वाले कर्मों से रहित हो जा | इन गुणों से किस प्रकार रहित हुआ जाता है, किस प्रकार गुणातीत हुआ जाता है और किस प्रकार कल्याणकारी अमृत तत्त्व की प्राप्ति होती है, उस पर परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

निर्द्वन्द :- द्वन्दो से रहित हो | यह परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा पूर्व में सांख्य दृष्टि से कहे समभाव, समबुद्धि का आश्रय ग्रहण करने से सम्बंधित दिशा-निर्देश है | प्रभु ने कहा था, कि अर्जुन ! इन्द्रियों और विषयों के संयोग-वियोग द्वन्दात्मक हैं, सुख-दुःख, राग-द्वेष रूपी हैं तथा अनित्य भी हैं, आने-जाने वाले हैं, इनको सहन कारण सीखो तथा जो धीर पुरुष इनसे व्यथित, व्याकुल नहीं होता वह अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी होता है | यही निर्द्वन्दभाव अर्थात् इन्द्रियों और सांसारिक भोग विषयों के प्रति समभाव पुरुष को कल्याणकारी अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी बनाता है और इस समभाव में, समबुद्धि में किस प्रकार अपनी स्थिति को स्थिर रखा जाता है, उस पर कहते हैं | कि  

नित्यसत्त्वस्थित :- नित्य सत्य तत्त्व में स्थित हो, इससे समभाव, समबुद्धि में स्थिति स्थिर रहती है | इस सत्य तत्त्व को भी प्रभु पूर्व में परिभाषित कर आए हैं | परमात्मा श्रीकृष्ण के अनुसार नित्य, अविनाशी, अव्ययस्य, अप्रमेय और सनातन सत्य तो यह देही है और इस देही के यह सब शरीर नाशवान हैं, असत्य हैं | संसार के जितने भी भोग और ऐश्वर्य है वह तो इस देह के ही भोग-ऐश्वर्य हैं अतः इस असत्य  देह के भोग-ऐश्वर्य भी असत्य ही हैं, मायाजनित भ्रम मात्र है, वस्तुतः यह देही के भोग ही नहीं हैं, देही तो इनसे निर्लिप्त ही रहता है | पुरुष को अपने इस सनातन स्वरूप का नित्य बोद्ध होना ही नित्य सत्व तत्त्व में स्थित रहना है | अब समभाव से, समबुद्धि से युक्त होकर कृष्णयोग का आश्रय किस प्रकार ग्रहण करना है, इस पर परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

निर्योगक्षेम :- योगक्षेम अर्थात् सांसारिक भोग ऐश्वर्यों से परे अप्राप्त तत्त्व की प्राप्ति का नाम ही योग है और प्राप्त तत्त्व की रक्षा का नाम क्षेम है | जब यह कृत्य, यह कर्म कामनाओं और आसक्ति पूर्ण करे जाते हैं, तब अमृततत्त्व की प्राप्ति ना होकर मनुष्य ऋद्धि-सिद्धियों की प्राप्ति करता है, उन्ही में भटकता रहता है और उनकी रक्षा का प्रयास भी करता है, इसका नाम योगक्षेम है | परन्तु समबुद्धि से युक्त हो, अमृततत्त्व की प्राप्ति हेतु कृष्णयोग का आश्रय, सांसारिक कामनाओं और आसक्ति से रहित होकर लिया जाता है तथा इस कृष्णयोग स्वरूप प्राप्त परिणाम को तो प्रभु पहले ही स्पष्ट कर आए हैं कि यह नाशरहित है अतः कृष्णयोग परायण साधक को योगक्षेम का चिंतन नहीं कारण पड़ता, अन्यथा भी प्रभु कृष्णयोग के साधक को यह आश्वासन देते हैं कि योगक्षेमं वहाम्यहम्  (९/२२) अर्थात् जो आसक्ति और कामना रहित, समबुद्धि से युक्त हो इस कृष्णयोग का आश्रय लेगा उसका योगक्षेम मैं स्वयं वहन करूँगा | इस विधि से कृष्णयोग का आश्रय लेने को ही प्रभु निर्योगक्षेम कहते हैं | निस्त्रैगुण्य, निर्द्वन्द, नित्यसत्त्वस्थित और निर्योगक्षेम होने के पश्चात् साधना हेतु जिस परमतत्त्व परमात्मा के परायण होना है, वह कहाँ मिलेगा ? एक बार यात्रा हेतु दिशा-निर्देश तो परमात्मा श्रीकृष्ण ने कह दिये, परन्तु रास्ते में अगर बहक गए, भटक गए तो कौन सम्हालेगा ? कौन पार्थासारथी बन भटके हुए को रास्ता दिखाएगा ? इस पर कहते हैं | कि

आत्मपरायण हो :- समष्टि परमतत्त्व परमात्मा ही व्यष्टि रूप से प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित है, जिसे आत्मा ऐसा कहा  जाता है | परमात्मा श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः (१०/२०) अर्जुन ! मैं समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित, सबका आत्मा हूँ | जब परमतत्त्व, अमृततत्त्व स्वयं ही हृदय देश में स्थित हो तो उसकी प्राप्ति को, उससे एकी भाव को, उसकी शरणागति को ओर किधर जाएँ ? किस मंदिर, किस मठ, किस देव विग्रह की शरण प्राप्त करें | इसीलिए परमात्मा श्रीकृष्ण का आदेश है, कि अर्जुन आत्मपरायण हो | हृदयस्थ ईष्ट ही साधक का मार्ग दर्शन करता है, पूर्ति-पर्यन्त साधक को सम्हालता है |

जैसा पूर्व में मनन करा था कि परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित गीता शास्त्र का यह श्लोक बीजमंत्र रूप में है | इस मंत्र पर हम अधम जितना भी मनन करें, इसका पार नहीं पा सकते | अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण को भी शायद इस तथ्य का पूर्वाभास रहा हो, इसलिये इस श्लोक के प्रत्येक सूत्र रूपी शब्द की व्याख्या उन्होंने आगे आठ श्लोकों में करी है | आइये इस बीजमंत्र रूपी श्लोक को आत्मसात करें |

त्रैगुन्यविषया वेदा  के विषय में प्रभु कहते हैं | कि

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके |
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः || (२/४६)

यावान् अर्थः उद पाने सर्वतः संप्लुत उदके |
तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः || (२/४६)

यावान्(जितना), अर्थः(अर्थ, प्रयोजन), उदपाने(छोटे जलाशयों से), सर्वतः(सभी प्रकार से), सम्प्लुत उदके(परिपूर्ण महान जलाशय से) | तावान्(उतना ही), सर्वेषु(समस्त), वेदेषु(वेदों से), ब्राह्मणस्य(ब्रह्मज्ञानी), विजानतः(विशेष रूप से जानकार) | (२/४६)

सभी प्रकार से परिपूर्ण महान जलाशय के समक्ष जितना प्रयोजन छोटे जलाशयों से रहता है, विशेष रूप से ज्ञान को प्राप्त ब्रह्मज्ञानी के समक्ष उतना ही प्रयोजन वेदों से रहता है | (२/४६)

जब सब ओर से परिपूर्ण जलाशय मनुष्य को प्राप्त हो तो मनुष्य का जितना प्रयोजन छोटी मोटी ताल-तलैयों से रह जाता है, तत्त्व रूप से परमात्मा तत्त्व के ज्ञाता ब्राह्मण का समस्त वेदों से उतना ही प्रयोजन रह जाता है | तात्पर्य यह कि कृष्णयोग परायण साधक का वेदोक्त काम्य कर्मों से और वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता, क्योंकी वेद का कार्यक्षेत्र
तीन गुणों के अधीन है और योग गुणातीत की प्राप्ति का साधन है |

निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन से परमात्मा श्रीकृष्ण का सन्देश है कि

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || (२/४७)

कर्मणि एव अधिकारः ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्म फल हेतु: भूः मा ते सङ्ग अस्तु अकर्मणि || (२/४७)

कर्मणि(कर्म करने में), एव(ही), अधिकारः(अधिकार), ते(तेरा), मा(नहीं), फलेषु(कर्मफल में), कदाचन(कदापि) | मा(कभी नहीं), कर्मफल(कर्मफल), हेतुः(हेतु), भूः(होओं), मा(नहीं), ते(तुम्हारा), सङ्गः(आसक्ति), अस्तु(हो),  अकर्मणि(कर्म न करने में) | (२/४७)

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, कर्मफल में कभी नहीं | तू कर्मफल का हेतु कभी नहीं हो, तथा कर्म न करने में आसक्ति भी न हो | (२/४७)

केवल मनुष्य योनी ही केवल कर्म योनी है, अन्यत्र सभी योनियाँ भोग योनियाँ हैं और मनुष्य प्रकृति के तीनो गुणों से भावित हुआ इच्छित भोगों हेतु ही कर्म में प्रवृत होता है | परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं कि तू मनुष्य योनी को प्राप्त है, इसलिये  कर्म करने में तेरा अधिकार है परन्तु प्रकृति के गुणों से लिप्त हो इच्छित भोगों हेतु कर्म नहीं कर, कामना और आसक्ति से कर्म मत कर, कर्मफल में आसक्त हो कर कर्म नहीं कर | जब कर्म करोगे तब फल कहाँ जाएगा ? कर्मफल तो मिलेगा ही | परन्तु बंधन कर्मफल का नहीं अपितु कर्मफल की कामना और आसक्ति का है | इसलिये प्रभु कहते हैं कि कर्मफल के प्रति कोई कामना अथवा आसक्ति भी ना रख, कर्मफल में तेरा कोई अधिकार नहीं है, कर्म करेगा तो फल मिलेगा ही, परन्तु कर्मफल का हेतु ना हो अर्थात् फल के लिये ही कर्म करा जाये ऐसा भाव नहीं होना चाहिये, अपितु कर्तव्य कर्म तो को करने ही चाहिये तथा फल की इच्छा ना हो, तो कर्तव्यकर्म भी क्यों करे, ऐसा भाव भी नहीं होना चाहिये, अर्थात् कर्तव्यकर्म से कभी च्युत नहीं होना चाहिये | सार यह कि जीवन-निर्वाह को आवश्यक और कर्तव्यकर्म तो करने ही पड़ते हैं और करो भी, परन्तु कामना और आसक्ति से रहित होकर, माया के गुणों से रहित होकर करो | बंधन कामना और आसक्ति का है, कर्मों का नहीं और यह कामना और आसक्ति माया के गुणों से ही उत्पन्न होती हैं, इसलिये माया के इन गुणों से रहित हो कर्म करो |

अब निर्द्वन्द भाव अर्थात् समभाव,समबुद्धि से परमात्मा श्री कृष्ण का सन्देश है कि

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय |
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते || (२/४८)

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गम् त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्धि असिद्धयो समः भूत्वा समत्वम् योग उच्यते || (२/४८)

योगस्थः(योग युक्त होकर), कुरु(करो), कर्माणि(कर्मों को), सङ्गम्(आसक्ति), त्यक्त्वा(त्यागकर), धनञ्जय(धनंजय) | सिद्धि (सफलता), असिद्धयोः(विफलता में), समः(समभाव), भूत्वा होकर), समत्वम्(समभाव), योगः(योग), उच्यते(कहलाता है)| (२/४८)

धनंजय ! योगयुक्त होकर कर्मो के प्रति आसक्ति का त्याग करके, सफलता-असफलता में सम होकर कर्म करो, समत्व भाव ही योग कहलाता है | (२/४८)

भोगों में आसक्ति, कर्मफलों की कामना का होना ही कर्मों के प्रति आसक्त होना है, परमात्मा श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि अमृततत्त्व की प्राप्ति हेतु योगयुक्त होकर कर्मों के प्रति आसक्ति का त्याग करके अर्थात् भोगों और कर्मफलों में कामना और आसक्ति का त्याग करके तथा कर्मों के सिद्ध होने में अथवा असिद्ध होने आदि में मन के द्वंदों का त्याग करके, निर्द्वन्द भाव से समभाव होकर, समबुद्धि से कर्म करो | यहाँ प्रभु भोगों के, कर्मों के प्रति कामना और आसक्ति का तथा कर्मों के सिद्ध होने में अथवा असिद्ध होने में मन के द्वंदों का, दोनों के त्याग को कहते हैं | यही समत्वभाव है तथा समत्वभाव ही योग कहलाता है | समत्वभाव अर्थात् जैसा प्रभु पहले कह आए हैं कि इन्द्रियों और विषयों के संयोग-वियोग द्वन्दात्मक हैं, सुख-दुःख, राग-द्वेष रूपी हैं तथा अनित्य भी हैं, आने-जाने वाले हैं, इनको सहन कारण सीखो तथा जो धीर पुरुष इनसे व्यथित, व्याकुल नहीं होता वह अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी होता है | यही निर्द्वन्दभाव अर्थात् इन्द्रियों और सांसारिक भोग विषयों के प्रति समभाव पुरुष को कल्याणकारी अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी बनाता है | यह समत्वभाव ही योग कहलाता है | क्योंकी अमृततत्त्व की प्राप्ति का साधन है अतः योग है |

मनुष्य की इन्द्रियाँ सदा ही विषयों में रमण करती है और मन भोगों के प्रति लालायित रहता है | योगयुक्त रहने को, समत्वभाव को बनाये रखने हेतु मनुष्य को इन इन्द्रियों और मन के आश्रय लिये इन भोगों का त्याग अत्यंत आवश्यक है | इस पर प्रभु कहते हैं कि
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय |
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः || (२/४९)

दूरेण हि अवरम् कर्म बुद्धि योगात् धनञ्जय |
बुद्धौ शरणम् अन्विच्छ कृपणाः फल हेतवः || (२/४९)

दूरेण(अत्यन्त, दूर से ही), हि(क्योंकी), अवरम्(निन्दनीय), कर्म(कर्म), बुद्धि(बुद्धि), योगात्(योग से युक्त), धनञ्जय(धनंजय) | बुद्धौ (बुद्धि का ही), शरणम्(आश्रय), अन्विच्छ(प्रयत्नपूर्वक ले), कृपणाः(अत्यन्त दीन हैं), फल-हेतवः(फल के हेतु रहनेवाले) | (२/४९)

धनंजय ! बुद्धियोग से युक्त कर्मों से (की अपेक्षा) काम्यकर्म दूर से ही अत्यंत निंदनीय हैं, बुद्धि का आश्रय ले, क्योंकी फल

के हेतु रहनेवाले अत्यंत दीन हैं | (२/४९)

यह श्लोक परमात्मा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समत्वभाव बनाये रखने हेतु कहा है, प्रभु अर्जुन को इन्द्रियों और मन से अतीत होकर सदैव बुद्धि का आश्रय ले योगयुक्त रहने का परामर्श देते हैं | किस बुद्धि का ? उसी बुद्धि का जिसकी प्रस्तावना प्रभु ने पूर्व में करी थी और कहा था कि इस बुद्धि और योग से युक्त हुआ तू कर्मबंधन का नाश कर सकेगा | परमात्मा श्रीकृष्ण का पुनः पुनः समबुद्धि से युक्त साधक की रहनी पर जोर दे रहे हैं | साधक के निर्द्वन्द भाव पर जोर दे रहे हैं | क्योंकी निर्द्वन्द भाव, समभाव, समबुद्धि ही कृष्णयोग का आधार है | अब निर्योगक्षेम भाव को स्पष्ट करते हुए प्रभु कहते हैं | कि

निर्योगक्षेम से जो प्राप्ति है, उसके विषय में परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् || (२/५०)

बुद्धि युक्तः जहाति इह उभे सुकृत दुष्कृते |
तस्मात् योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् || (२/५०)

बुद्धि(बुद्धि), युक्तः(युक्त), जहाति(त्याग देता है, मुक्त हो जाता है), इह(इन), उभे(दोनों), सुकृत(अच्छे कर्म), दुष्कृते(बुरे कर्म) | तस्मात्(इसलिये), योगाय(योग के लिये), युज्यस्व(लग जाओ), योगः(योग), कर्मसु(कर्मो को ), कौशलम्(कुशलता है)  | (२/५०)

इस बुद्धि से युक्त पुरुष अच्छे और बुरे इन दोनों कर्मों को त्याग देता है , इसलिये योग में लग जा, योग ही कर्मों का कौशल है | (२/५०)

इस बुद्धि से युक्त पुरुष अर्थात् निर्द्वन्द भाव से, समभाव से, समबुद्धि से युक्त पुरुष सुकृत अर्थात् अच्छे कर्म, पुण्यकर्म और दुष्कृते अर्थात् बुरे कर्म, पाप कर्म दोनों का ही त्याग कर देता है | यही है निर्योगक्षेम भाव, यही कृष्णयोग का लक्ष्य है, कर्मों में पुण्य-पाप भाव का त्याग, कर्मों में कामना और आसक्ति का त्याग | कर्मों के प्रति कामना और आसक्ति का होना, पुण्य-पाप में, अच्छे-बुरे कर्मों में प्रवृत होना ही तो आवागमन का कारण है | इनका त्याग ही मुक्ति है | प्रभु यहाँ स्पष्ट करते हैं कि निर्द्वन्द भाव से, समभाव से, समबुद्धि से, निर्योगक्षेम भाव से युक्त पुरुष ही अच्छे-बुरे कर्मों का त्याग कर, उनसे मुक्त हो पाता है, यही कर्मबंधन से मुक्ति है | इसलिये योग के लिये लग जाओ | योग ही कर्मों का कौशल है अर्थात् समबुद्धि से युक्त योग परायण पुरुष को कर्मबंधन नहीं होता, परन्तु जब तक देह है, तब तक देही जीवन-निर्वाह को कर्म तो करेगा ही परन्तु ऐसे पुरुष के ये कर्म बंधनकारी नहीं होते और यही कर्मों को करने का कौशल है कि कर्म तो करे और जब कर्म करे तो कर्म फल भी प्राप्त होगा ही, फल कहाँ जाएगा ? परन्तु ये कर्म और इनका कर्मफल बंधनकारी नहीं होता क्योंकी ना तो काम्य कर्मों की कामना है, ना कर्मफल में आसक्ति है | कर्मफल के त्याग से जिस प्राप्ति को हमने यहाँ मनन करा है, उसी निर्योगक्षेम भाव को परमात्मा श्रीकृष्ण अपने शब्दों में कहते हैं |

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः |
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् || (२/५१)

कर्म जम् बुद्धि युक्ताः हि फलम् त्यक्त्वा मनीषिणः |
जन्म बन्ध विनिर्मुक्ताः पदम् गच्छन्ति अनामयम् || (२/५१)

कर्म-जम् (कर्म से जन्मे), बुद्धि(बुद्धि), युक्ताः(से युक्त), हि(क्योंकी), फलम्(फल का), त्यक्त्वा(त्याग करके), मनीषिणः(मनीषि जन)| जन्मबन्ध(जन्मबंधन से), विनिर्मुक्ताः(मुक्त होकर), पदम्(पद पर), गच्छन्ति(प्राप्त हो जाते है), अनामयम्(निर्विकार) | (२/५१)

क्योंकी बुद्धि से (योग) युक्त मुनिजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल का त्याग करके जन्मबंधन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त होते हैं | (२/५१)

 क्योंकी अर्थात् यहाँ जो कहा जा रहा है, वह पूर्व श्लोक से सम्बंधित है | क्योंकी समबुद्धि से युक्त मुनिजन अर्थात् मननशील पुरुष पुर्व श्लोक के अनुसार अच्छे-बुरे दोनों ही कर्मों का त्याग कर देते है, तात्पर्य यह कि कर्मों से उत्पन्न कर्मफल के संग्रह अर्थात् योगक्षेम में आसक्त नहीं होते और परमात्मा श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार निर्योगक्षेम भाव से योग परायण रहते हैं | इस प्रकार समबुद्धि से युक्त, निर्योगक्षेम भाव से योग परायण पुरुष जन्मबंधन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को, अमृततत्त्व को प्राप्त होते हैं | इस परमपद की प्राप्ति कर्मफल के प्रति मोह का त्याग अतिआवश्यक है , इस भाव की प्राप्ति को जी भाव से सदा भावित रहना होता है, उसके प्रति परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

नित्यसत्त्वस्थित सत्य स्थित रहो  |

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति |
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च || (२/५२)

यदा ते मोह कलिलम् बुद्धिः व्यतितरिष्यति |
तदा गन्तासि निर्वेदम् श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च || (२/५२)

यदा(जब), ते(तुम्हारा), मोह(मोह), कलिलम्(दलदल को), बुद्धिः(बुद्धि), व्यतितरिष्यति(भलीभांति पारकर जाएगी) | तदा(तब), गन्तासि(तुम पाओगे), निर्वेदम्(विरक्ति को, वैराग्य को), श्रोतव्यस्य(सुनने में आनेवाले), श्रुतस्य(सुनने योग्य), (और) | (२/५२)

जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूपी दल-दल को भलीभांति पार कर जाएगी, तब सुनने योग्य को सुन सकेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त कर सकेगा | (२/५२)

यह जो मोह होता है, यह शरीर, शरीर के संबंधो और शरीर के भोगों के प्रति होता है, यह सांसारिक मोह है | प्रभु कहते हैं कि जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूपी दल-दल को अर्थात् सांसारिक मोह को पार कर जाएगी | तब जो सुनने योग्य है, उसे तू सुन पायेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त हो सकेगा | तात्पर्य यह कि सांसारिक मोह से मनुष्य का चित्त परमार्थ मार्ग हेतु कल्याणकारी चिंतन-मनन में नहीं अपितु विषय चिंतन में ही रमण करता है | सांसारिक मोह के त्याग को इस विषय चिंतन का त्याग आवश्यक है, परन्तु स्वयं तो ऐसा होने से रहा | इसी के लिये परमात्मा श्रीकृष्ण ने  देह-देही के भेद का, सत्य-असत्य के ज्ञान का उपदेश दिया था  और इस ज्ञान  पर आचरण आवशयक है | अतः स्पष्ट है कि नित्य सत्य तत्त्व में स्थिति  हेतु सांसारिक मोह एक दोष रूप है और उसका निवारण आवश्यक है | इस सांसारिक मोह के निवारण हेतु साधक को सदैव देह-देही और सत-असत के भेद के ज्ञान से भावित रहना होता है, नित्यसत्त्वस्थित रहना होता है | परमात्मा श्रीकृष्ण के अनुसार देह-देही के भेद, सत-असत के ज्ञान से ही वैराग्य सम्भव है | क्योंकी देह-देही के ज्ञान से भावित पुरुष ही सांसारिक मोह से उपराम हुआ नित्य सत्य तत्त्व में स्थित रहता है | अब आत्मपरायण होने को क्या आवश्यक है ? उस पर प्रभु कहते हैं | कि

आत्मपरायण हो | आत्म परायण होने हेतु प्रभु का सन्देश है कि

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला |
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि || (२/५३)

श्रुति विप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला |
समाधौ अचला बुद्धिः तदा योगम् अवाप्स्यसि || (२/५३)

श्रुति(सुने हुए शास्त्र), विप्रतिपन्ना(के प्रति विचलित), ते(तुम्हारा), यदा(जब), स्थास्यति(स्थिर हो जाएगी), निश्चला(निश्चल) | समाधौ(नियंत्रित अन्तकरण), अचला(अचल), बुद्धिः(बुद्धि), तदा(तब), योगम्(योग को), अवाप्स्यसि (प्राप्त हो जाएगा) | (२/५३)

जिस काल में सुने हुए शास्त्रीय मतभेदों से विचलित तेरी बुद्धि जब निश्चला अर्थात् एकनिष्ठा को प्राप्त हो स्थिर हो जाएगी, तब समाधौ अर्थात् आत्मपरायण हो अचल रूप से योग को प्राप्त हो जाएगा | (२/५३)

शास्त्रीय मतभेद अर्थात् जैसा प्रभु पहले कह आए है कि अव्यवसायिक बुद्धि बहुत भेदों और अनन्त शाखाओं वाली होती है, बहुत से कर्म-काण्डों और पूजा-पाठों से लिप्त रहती है | पुष्पित वेद वाक्यों से भावित रहती है, यह शास्त्रीय मोह कहलाता है | परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब सुने बहुत भेदों और अनन्त शाखाओं वाले शास्त्रों के मतभेदों से विचलित हुई बुद्धि निश्चला अर्थात् एकनिष्ठा को प्राप्त होकर, स्थिर हो जाएगी | एकनिष्ठा अर्थात् कृष्णयोग के परायण हेतु, परमार्थ हेतु यह बुद्धि व्यावसायिक और निश्चयात्मक हो जाएगी, तब तू आत्मपरायण हो योग को प्राप्त हो जायेगा | तात्पर्य यह कि आत्मपरायण होने को शास्त्रीय मतभेदों, शास्त्रीय मोह से परे एक परमतत्त्व परमात्मा के प्रति आस्था का स्थिर होना अनिवार्य है तथा आत्मपरायण होने को शास्त्रीय मोह भी एक दोष रूप है | परमात्मा श्रीकृष्ण के इसी आदेश को ग्रहण कर, प्रारंभ से ही मेरा गीता शास्त्र के साधकों से यह आग्रह था कि आप पहले इस दोष का निवारण करें, तत्पश्चात इस शास्त्र का अध्ययन करें | दोष अर्थात् किसी भी प्रकार के शास्त्रीय मोह का, पूर्वज्ञान का, पूर्वज्ञान से उत्पन्न पूर्वाग्रह का त्याग करें तब श्रीकृष्ण के आदेशानुसार गीता शास्त्र का, शास्त्र में कहे उनके उपदेशों का, बिना किसी अन्य शास्त्र के संबंध अथवा समर्थन के, गीताशास्त्र का अध्ययन-मनन करें |

इस प्रकार परमात्मा श्रीकृष्ण ने गीता शास्त्र के बीजमंत्र को, आधारभूत सूत्र को स्पष्ट करा | श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनकर अर्जुन को जो भी अनुभूति होगी, उसका अनुभव तो अर्जुनको ही ज्ञात होगा, परन्तु यहाँ कहे समाधौ अर्थात् समाधिस्थ पुरुष और इन उपदेशों के प्रारंभ में जैसा परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा था कि अर्जुन तू प्रज्ञावानों जैसी बातें भर करता है, जानता कुछ नहीं है, इस समाधिस्थ पुरुष और प्रज्ञावान को लेकर अर्जुन परमात्मा श्रीकृष्ण के प्रति एक जिज्ञासा प्रकट करता है |

अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव |
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् || (२/५४)

स्थित प्रज्ञस्य का भाषा समाधि स्थस्य केशव |
स्थित धीः किम् प्रभाषेत किम् आसीत व्रजेत किम् || (२/५४)

स्थित(स्थिर), प्रज्ञस्य(प्रज्ञावान), का(क्या), भाषा(भाषा, लक्षण), समाधि(नियंत्रित अन्तकरण), स्थस्य(स्थित पुरुष), केशव(केशव)| स्थित(स्थिर), धीः(बुद्धि), किम्(कैसे), प्रभाषेत(बोलता है), किम्(कैसे), आसीत(बैठता है), व्रजेत(चलता है), किम्(क्या) | (२/५४)

केशव ! समाधिस्थ स्थितप्रज्ञ पुरुष के क्या लक्षण होते हैं, स्थिरबुद्धि कैसे बोलता है, बैठता है तथा चलता है ? (२/५४)

अर्जुन का यह प्रश्न वस्तुतः अर्जुन की व्यथा के कारण ही उत्पन्न हुआ है, अर्जुन संबंधो के प्रति शोक और धर्म के प्रति पाप के भाव उद्विग्न था | परमात्मा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा था कि प्रज्ञावान पुरुष सांसारिक मोह के कारण व्यथित ना होकर, शोक ना करने योग्य का शोक नहीं करते और यहाँ उपर्युक्त श्लोकों में परमात्मा स्पष्ट करते हैं, कि समबुद्धि से युक्त योगपरायण पुरुष पुण्य-पाप को त्याग कर, समाधिस्थ हो परमपद को प्राप्त करता है | अर्जुन इन्ही प्रज्ञावान और समाधिस्थ पुरुष के लक्षणों और व्यव्हार के प्रति अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करता है | अर्जुन की जिज्ञासा का समाधान करते हुए परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं  |

श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते || (२/५५)

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनः गतान् |
आत्मनि एव आत्मना तुष्टः स्थित प्रज्ञ तदा उच्यते || (२/५५)

प्रजहाति(त्यागता है), यदा(जब), कामान्(कामनाओं को), सर्वान्(समस्त), पार्थ(पृथापुत्र), मनः(मन में), गतान्(आई हुई) | आत्मनि (पुरुष), एव(ही), आत्मना(स्वयं में), तुष्टः(प्रसन्नतापूर्वक संतुष्ट), स्थितप्रज्ञः (स्थितप्रज्ञ), तदा(तब), उच्यते(कहा जाता है) | (२/५५)

पार्थ ! जब मन में उठनेवाली समस्त कामनाओं को भलीभांति त्याग कर, पुरुष स्वयं में ही प्रसन्नतापूर्वक संतुष्ट रहता है,
तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है | (२/५५)

प्रकृति ने पंचभोतिक देह के साथ देही को वश में रखने हेतु इन्द्रियां और मन दे दिया, परन्तु परमात्मा के विधान अनुसार यह मनुष्य योनी अन्य योनियों की भांति भोग योनी ना होकर कर्म योनी है इसलिये मनुष्य को प्राप्त जीव को उसकी इच्छा अनुसार कर्म करने को उसे मष्तिष्क रूपी यंत्र भी दिया | इस यंत्र के उपयोग से मनुष्य चाहे तो माया में रमण करे काम्य कर्मों की पूर्ति करे अन्यथा परमात्मा की शरण हो इस यंत्र के उपयोग से माया से निवृत होने का प्रयत्न करे | जब तक मनुष्य कामनाओं से बंधा इस मष्तिष्क रूपी यंत्र का उपयोग देह और देह के भोगों हेतु करता है, तब तक इस यंत्र को बुद्धि कहते हैं | परन्तु जब मनुष्य इस माया के बंधन से निवृत होने का निश्चय करता है, एक ईष्ट के परायण हो साधना करता है, तब यह मस्तिष्क रूपी यंत्र निश्चयात्मक बुद्धि, समबुद्धि कहलाता है, जिस काल तक साधक में कामनाओं का अंश मात्र भी रहता है तब तक साधक निश्चयात्मक, समबुद्धि से युक्त साधक ही कहलाता है परन्तु कृष्णयोग के परायण साधक में जब समस्त कामनाओं का सर्वथा अभाव हो जाता है, सांसारिक अथवा शास्त्रीय मोह का लेशमात्र अंश भी नहीं रहता, उस काल में साधक सम्पूर्ण भाव से आत्मपरायण हो, हृदयस्थ ईष्ट से एकीभाव को प्राप्त होता है | इस को समाधी कहते हैं | इस अवस्था को प्रभु यहाँ कहते हैं कि जब मन में उठनेवाली समस्त कामनाओं को भलीभांति त्याग कर आत्मना अर्थात् देह-देही के भेद का ज्ञाता देही आत्मनि एव अर्थात् अपने अविनाशी, अप्रमेय, नित्य, सनातन स्वरूप में ही प्रसन्नतापूर्वक संतुष्ट रहता है, समाधिस्थ रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है | इस अवस्था को प्राप्त साधक की बुद्धि को प्रज्ञा और साधक को स्थितप्रज्ञ कहते हैं | स्थितप्रज्ञ को परिभाषित कर अब प्रभु अर्जुन के प्रश्न अनुसार इस स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताते हैं |

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः |
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते || (२/५६)

दुःखेषु अनुद्विग्न मनाः सुखेषु विगत स्पृहः |
वीत राग भय क्रोधः स्थित धीः मुनि: उच्यते || (२/५६)

दुःखेषु(दुःख में), अनुद्विग्न(उद्विग्न हुए बिना), मनाः(मन वाला), सुखेषु(सुख में), विगत-स्पृहः(और प्राप्ति की इच्छा से रहित) | वीत (मुक्त), राग(आसक्ति), भय(भय), क्रोधः(क्रोध), स्थित(स्थिर), धीः(बुद्धि), मुनिः(मुनि), उच्यते(कहा जाता है) | (२/५६)

दुखों में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुखों में और अधिक की इच्छा नहीं रहती, जो आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त हो गया है ऐसा मननशील पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है | (२/५६)

दुखों में अर्थात् दैहिक, दैविक अथवा भोतिक तीनों प्रकार के दुखों से जिसका मन उद्विग्न अर्थात् व्यथित, व्याकुल नहीं होता, सुखों में और अधिक सुखों की प्राप्ति की इच्छा अर्थात् तृष्णा नहीं होती, जितना मिला उसी से संतुष्ट, अधिक सुख-भोग के संग्रह से रहित पुरुष जो आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त हो गया है | यहाँ भय और क्रोध पर एक मनन | भय अर्थात् देह, देह के संबंधो, देह के लिये प्राप्त भोगों, भोग सामग्री के संग्रह की रक्षा को जिस भाव से मनुष्य भावित रहता है वह भय है और क्रोध अर्थात् कामनाओं की पूर्ति न होने से जो भाव उत्पन्न होता है वह क्रोध भाव है | जो आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त अर्थात् कामनाओं से सर्वथा मुक्त, मननशील पुरुष अर्थात् जैसा प्रभु अपने उपदेशों में कहा है उन भावों के प्रति सदैव चिंतन-मनन से युक्त, भावित पुरुष स्थितप्रज्ञ कहा जाता है |

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् |
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || (२/५७)

यः सर्वत्र अनभिस्नेहः तत् तत् प्राप्य शुभ अशुभम् |
न अभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || (२/५७)

यः(जो), सर्वत्र(सभी जगह), अनभिस्नेहः(स्नेहरहित हुआ), तत्(उस), तत्(उस), प्राप्य(प्राप्ति के प्रति), शुभ(शुभ), अशुभम्(अशुभ) | न(नहीं), अभिनन्दति(प्रशंसा से प्रसन्न), (नहीं), द्वेष्टि(द्वेष करता है), तस्य(उसकी), प्रज्ञा(प्रज्ञा), प्रतिष्ठिता(स्थिर है) | (२/५७)
जो सर्वत्र स्नेहरहित उस-उस शुभ-अशुभ की प्राप्ति के प्रति ना प्रसन्न होता है, ना द्वेष करता है, उसकी प्रज्ञा अचल रूप से स्थिर है | (२/५७)

जो सर्वत्र अर्थात् देह, देह के संबंधो और देह के भोगों सभी के प्रति स्नेहरहित अर्थात् किसी भी प्रकार की आसक्ति, लगाव  से रहित है, उस-उस अर्थात् जीवन में आने वाले अनित्य शुभ-अशुभ संयोग-वियोग के प्रति अर्थात् द्वंदों के प्रति समभाव से है, शुभ से प्रसन्न, हर्ष को प्राप्त नहीं होता, अशुभ से द्वेष नहीं करता, उस पुरुष की प्रज्ञा अचल रूप से स्थिर है अर्थात् 
इन सभी के प्रति वह एकरस, एकरूप रहता है | सांसारिक विषयों के संयोग-वियोग उसे व्यथित नहीं कर पाते |

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || (२/५८)

यदा संहरते च अयम् कूर्मः अङ्गानि इव सर्वशः |
इन्द्रियाणि इन्द्रियः अर्थेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || (२/५८)

यदा(जब), संहरते(समेटता है), (और), अयम्(यह), कूर्मः(कछुआ), अङ्गानि(अंगो को), इव(सदृश्य), सर्वशः(सब ओर से) | इन्द्रियाणि(इन्द्रियाँ), इन्द्रियः(इन्द्रियोंके), अर्थेभ्यः(विषयों से), तस्य(उसकी), प्रज्ञा(प्रज्ञा), प्रतिष्ठिता(स्थिर है) | (२/५८)

जैसे कछुआ अंगों को सब ओर से समेट लेता है उसी तरह जो इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से (समेट लेता है) उसकी प्रज्ञा अचल रूप से स्थिर है | (२/५८)

खतरे को देखकर जिस प्रकार कछुआ अपने अंगो को सब ओर से समेट कर अपनी खोल के अन्दर कर लेता है उसी प्रकार संसार में विचरण करती इन्द्रियों का इन्द्रियों के विषयों से संयोग होने पर, इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होने वाले अपने चित्त को परमतत्त्व परमात्मा के चिंतन-मनन से, विषय-चिंतन से निवृत करने में सक्षम होता है, उसकी प्रज्ञा अचल रूप से स्थिर है |
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः |
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते || (२/५९)

विषयाः विनीवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः |
रसः वर्जम् रसः अपि  अस्य परम् दृष्ट्वा निवर्तते | (२/५९)

विषयाः(विषय आदि तो), विनिवर्तन्ते(निवृत होते हैं), निराहारस्य(विषयोंका सेवन ना करने से), देहिनः(देही के) | रसः(रस), वर्जम्(निवृत नहीं होता), रसः(रस), अपि(भी), अस्य(इसका), परम्(परं), दृष्ट्वा(देखकर), निवर्तते(निवृत हो जाता है) | (२/५९)

विषयों का सेवन ना करने से देही के विषय तो निवृत हो जाते हैं, (विषयों के प्रति) रस निवृत नहीं होता | इसका रस भी परमतत्त्व के साक्षात्कार से निवृत हो जाता हैं |(२/५९)

यह श्लोक पूर्व श्लोक से सम्बंधित है, पूर्व श्लोक में परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्थितप्रज्ञ विषयों के प्रति आसक्त अपने चित्त को, परमात्मा के चिंतन-मनन से, विषयों से निवृत करने में सक्षम होता है | यहाँ कहते हैं कि इस प्रकार विषयों का सेवन ना करने से देही के विषय तो निवृत हो जाते हैं अर्थात् समबुद्धि से कृष्णयोग परायण देही विषयों से तो अपने को निवृत कर लेता है परन्तु विषयों के प्रति जो प्राकृतिक राग-रस होता है वह निवृत नहीं होता क्योंकी वह तो चित्त का नहीं अपितु इन्द्रियों का विषय है और इन्द्रियाँ संसार में विचरण को सदैव सवतंत्र हैं | परन्तु इसका अर्थात् स्थितप्रज्ञ पुरुष का रस भी अर्थात् इसकी इन्द्रियों का राग-रस भी परमतत्त्व परमात्मा के साक्षात्कार के साथ निवृत हो जाता है | तात्पर्य यह कि परमात्मा के साक्षात्कार के साथ ही देही मुक्त हो जाता है, संसार बंधन का नाश हो जाता है, अमृततत्त्व की प्राप्ति हो जाती है | इसी को देहमुक्त कहा जाता है, जब तक प्रारब्धवश देह है, तब तक देह तो है, परन्तु वह स्थितप्रज्ञ अब देह मुक्त है, इस देह मुक्त स्थितप्रज्ञ को देहान्तर के पश्चात् जिसे मोक्ष कहते हैं, परमधाम कहते हैं उसकी प्राप्ति हो जाती है | यहाँ तक प्रभु के उपदेशों को सुनकर ऐसी प्रतीति होती है कि आत्म साक्षात्कार सुगम एवं सरल है | ऐसा भाव भी अन्तर्यामी परमात्मा जानते हैं इसलिये अर्जुन को वस्तुतः अर्जुन के माध्यम से साधकों को सावधान करते
हुए कहते हैं | कि
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः |
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः || (२/६०)

यततः हि अपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः |
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभम् मनः || (२/६०)

यततः(यत्न करनेवाले), हि(क्योंकी), अपि(भी), कौन्तेय(कुन्तीपुत्र), पुरुषस्य(पुरुष की), विपश्चितः(विवेकचित्त) | इन्द्रियाणि (इन्द्रियां), प्रमाथीनि(प्रबल वेग के कारण मथने में सक्षम), हरन्ति(हर लेती हैं), प्रसभम्(हठात्, बलात्), मनः(मन को) | (२/६०)

कौन्तेय ! क्योंकी इन्द्रियाँ प्रमथनशील अर्थात् प्रबल वेग के कारण चित्त को मथने में सक्षम होने से यत्न करने वाले विवेक
चित्त पुरुष के मन को भी बलात हर लेती हैं | (२/६०) 

श्रीकृष्ण ने यह वचन क्योंकी कहकर प्रारंभ करा है, इसलिये इसका संबंध या तो पूर्व श्लोक से है अथवा प्रभु इस वचन से कोई महत्वपूर्ण तथ्य को स्पष्ट करना चाहते हैं | वस्तुतः प्रभु का यह वचन अगले श्लोक में से सम्बंधित है | यहाँ प्रभु कहते हैं, क्योंकी इन्द्रियाँ प्रमथनशील अर्थात् प्रबल वेग के कारण, पुरुष के चित्त को उत्तेजित करके उसे मथने में सक्षम होती हैं अर्थात् ना चाहते हुए भी पुरुष इन्द्रियों और विषयों के संयोग में बह जाता है | इस प्रकार ये इन्द्रियाँ यत्न करने वाले अर्थात् समबुद्धि से युक्त हो कृष्णयोग के परायण होने वाले विवेक चित्त पुरुष के मन को भी बलात हर लेती हैं अर्थात् विवेकपूर्वक साधना में रत साधक को भी सांसारिक विषय भोगों में बरबस घसीट ले जाती हैं | सिद्ध है कि साधक को इन्द्रिय संयम बहुत आवश्यक है, वह कैसे होता है, इस पर कहते हैं | कि

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः |
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || (२/६१)

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत् परः |
वशे हि यस्य इन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || (२/६१)

तानि(उन), सर्वाणि(समस्त), संयम्य(संयम-निषेध द्वारा), युक्त(युक्त हुआ), आसीत(बैठो, आश्रय), मत्(मेरे), परः(परायण हो कर) | वशे(वश में), हि(क्योंकी), यस्य(जिसकी), इन्द्रियाणि(इन्द्रियां), तस्य(उसकी), प्रज्ञा(प्रज्ञा), प्रतिष्ठिता (स्थिर है) | (२/६१)

उन समस्त इन्द्रियों को संयम और निषेध द्वारा युक्त होकर मेरे परायण हो, आश्रित हो, क्योंकी जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी प्रज्ञा अचल रूप से स्थिर होती है | (२/६१)

पूर्व श्लोक से संबंध के कारण इसका भावार्थ यह है कि समबुद्धि से युक्त कृष्णयोग परायण साधक को समस्त इन्द्रियों को संयम  और निषेध द्वारा वश में करके युक्त और आसीत मत्परः होना चाहिये, यहाँ युक्त और आसीत मत्परः पर एक मनन |युक्त अर्थात् विशेष रूप से वश में किया हुआ चित्त जब भलीभांति आत्मपरायण हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहा रहित पुरुष अर्थात् प्राप्त-अप्राप्त, दृष्ट-अदृष्ट, श्रुत-अश्रुत, इहलोकिक-परलोकिक सम्पूर्ण भोगों से निवृत पुरुष युक्त कहा जाता है | (६/१८) अर्थात् मोक्ष परायण साधक को यह स्थिति प्राप्त करनी होती है | यह किस प्रकार प्राप्त होती है, इस पर प्रभु कहते हैं | कि आसीत मत्परः अर्थात् केवल संयम और निषेध से इन्द्रियाँ वश में नहीं होती, आत्मपरायण होने को समर्पण के साथ हृदयस्थ ईष्ट का आश्रय और चिंतन अनिवार्य है | यहाँ कृष्णयोग में परमात्मा श्रीकृष्ण ने ज्ञानयोग में अव्यक्त ब्रह्म के परायण अर्थात् अहं ब्रह्मास्मि के विपरीत मत्परः कहा है अर्थात् सगुण-साकार हृदयस्थ ईष्ट के आश्रय और चिंतन की अनिवार्यता पर बल दिया है | क्योंकी ईष्ट चिन्तन के अभाव में विषय चिन्तन का भय सदैव लगा रहता है | इस विषय चिन्तन पर परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते |
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते || (२/६२)
क्रोधाद्भवति सम्मोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः |
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति || (२/६३)
ध्यायतः विषयान् पुंसः सङ्ग तेषु उपजायते |
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते | (२/६२)
क्रोधात् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृति विभ्रमः |
स्मृति भ्रंशात् बुद्धि नाशः बुद्धि नाशात् प्रणश्यति || (२/६३)

ध्यायतः(ध्यान करने से), विषयान्(विषयों का), पुंसः(पुरुष में), सङ्ग(आसक्ति), तेषु(उनमें), उपजायते(पैदा हो जाती है) | सङ्गात् (आसक्ति से), सञ्जायते(संचित होता है), कामः(काम), कामात्(काम से), क्रोधः( क्रोध), अभिजायते(प्रकट होता है) | (२/६२)
क्रोधात्(क्रोध से), भवति(होता है), सम्मोहः(सम्पूर्ण मोह), सम्मोहात्(सम्मोह से), स्मृति(स्मृति), विभ्रमः(भ्रमित होती है) | स्मृति (स्मृति), भ्रंशात्(भ्रष्ट होने से), बुद्धि(बुद्धि), नाशः(नाश), बुद्धि(बुद्धि), नाशात्(नाश होने से),प्रणश्यति(पतन हो जाता है) | (२/६३)

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से काम संचित होता है, काम से क्रोध पैदा होता है | (२/६२)
क्रोध से सम्पूर्ण मोह अर्थात् अत्यंत मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रमित (नष्ट) हो जाती है, स्मृति नष्ट होने पर (विवेक) बुद्धि का नाश होता है, बुद्धि के नाश होने पर (मनुष्य का) पतन हो जाता है | (२/६३)

आसक्ति से काम संचित होता है अर्थात् जिस विषय में आसक्ति होती है, उस विषय भोग मनन करता हुआ मन धीरे धीरे उस भोग को भोगने हेतु मनुष्य को काम के वश में करने लगता है, काम से क्रोध के पैदा होने का भय होता है क्योंकी मनष्य की सभी कामनाओं की पूर्ति तो संभव नहीं है, जब कामना पूर्ति में बाधा आती है तो क्रोध पैदा होना स्वाभाविक है | क्रोध से मूढ़ता अर्थात् क्रोध के वश में हुआ मनुष्य किसी भी प्रकार काम पूर्ति का प्रयत्न करता है, अच्छे-बुरे का विचार नहीं करता, यही मूढ़ता है, मूढ़ता से स्मृति भ्रष्ट अर्थात् विवेक बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि नाश से पुरुष का पतन स्वाभाविक ही है | विषय चिन्तन के प्रादुर्भाव को कहकर, परमात्मा श्रीकृष्ण पुनः स्थितप्रज्ञता को प्राप्त करने हेतु साधक द्वारा अन्तकरण को वश में रखने हेतु बल देते हैं |

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् |
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति || (२/६४)
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते |
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते || (२/६५)

राग द्वेष वियुक्तैः तु विषयान् इन्द्रियैः चरन् |
आत्म वश्यैः विधेय आत्मा प्रसादम् अधिगच्छति || (२/६४)
प्रसादे सर्व दुःखानाम् हानिः अस्य उपजायते |
प्रसन्न चेतसः हि आशु बुद्धिः परि अवतिष्ठते || (२/६५)

राग(राग), द्वेष(द्वेष), वियुक्तैः(रहित), तु(परन्तु), विषयान्(विषयों में),इन्द्रियैः(इन्द्रियों द्वारा), चरन्(विचरता हुआ) | आत्म(स्वयं), वश्यैः(के वश में), विधेय(वशीभूत), आत्मा(अन्तकरण पुरुष), प्रसादम्(निर्मल, प्रसन्नता), अधिगच्छति (प्राप्त करता है) | (२/६४)
प्रसादे(निर्मलता से), सर्व(समस्त), दुःखानाम्(दु:खों का), हानिः(अभाव, क्षय), अस्य(इसके), उपजायते(पैदा हो जाता है) | प्रसन्न (निर्मल), चेतसः(चित्तवाला), हि(निश्चय ही), आशु(शीघ्र), बुद्धिः(बुद्धि), परि(भलीभांति), अवतिष्ठते(स्थिर हो जाती है) | (२/६५)

परन्तु राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ (भी) अपने वश में करे वशीभूत अन्तकरण वाला निर्मल प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है | (२/६४)
निर्मलता से इसके समस्त दु:खों का अभाव हो जाता है, ऐसे प्रसन्न चित्त साधक की बुद्धि निःसंदेह भलीभांति स्थिर हो जाती है | (२/६५)

राग-द्वेष से रहित अर्थात् निर्द्वन्द, समभाव, समबुद्धि से युक्त पुरुष इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ | यहाँ दो तथ्य जानने योग्य हैं, पहला कि अगर इस पुरुष की इन्द्रियों को विषय उपलब्ध है तो सिद्ध है कि यह समाज में ही रहता है, तथाकथित सन्यास अथवा वनवासी साधक नहीं है | यही इस कृष्णयोग का दृष्टिकोण है, कि संसार में रहते हुए ही समबुद्धि से काम्य कर्मों का त्याग और कर्तव्यकर्म का पालन करते हुए जीवन-निर्वाह करो तथा  योग परायण रहो | श्रीकृष्ण तथाकथित सन्यास के पक्षधर कभी नहीं रहे |  दूसरा यह कि अगर निर्द्वन्द भाव को प्राप्त ही हो, तो विषयों से द्वेष क्या करना ? अपने वश में करे वशीभूत अन्तकरण से अर्थात्  इन्द्रियों का दास ना होकर, इन्द्रियों पर स्वामी भाव से जीने वाला पुरुष विषयों के प्रस्तुत होने पर भी उनसे पलायन ना करके, निर्द्वन्द भाव से उन विषयों के समक्ष प्रस्तुत रहता है | यही उसकी साधना की कसौटी है | सोना तपा कर ही शुद्ध होता है और शुद्ध सोना ही शुद्धता की कसौटी पर कसा परखा जाता है और कसौटी पर खरा पुरुष ही अन्तकरण की निर्मल प्रसन्नता को, आनंद को प्राप्त होता है | ना कि प्रस्तुत विषयों को पीठ दिखने वाला | वस्तुतः परमात्मा श्रीकृष्ण का मत है कि आप या तो काम भाव से विषयों की ओर भागते हो अन्यथा वैराग्य भाव से विषयों के विपरीत भागते हो | दोनों स्थिति में केवल भागते हो और भागने के मूल में विषय ही होता है | परमात्मा श्रीकृष्ण का उपदेश है कि संसार की इस भाग-दौड़ का त्याग करके हृदयस्थ ईष्ट के परायण हो, अन्तकरण को वश में करके, जब आप संसार में रमण करते हैं और विषय आपको लिप्त नहीं कर पाते, आपका पतन नहीं कर पाते, उस समय हृदयस्थ ईष्ट के कृपा प्रसाद स्वरूप अन्तकरण को जो आनंद भाव प्राप्त होता है वही यह निर्मल प्रसन्नता का भाव है |

इस प्रकार प्राप्त निर्मल प्रसन्नता के भाव से पुरुष के समस्त दु:खों का अभाव हो जाता है, जब प्रस्तुत विषयों के भोग से ही चित्त उपराम रहता है, आनंद मगन रहता है, विषय भोग नहीं करता तो किन अप्राप्य विषयों के विषय में चिंतन से वह दुःख को प्राप्त होगा ? इस कारण ऐसे प्रसन्न चित्त साधक की बुद्धि निःसंदेह भलीभांति स्थिर हो जाती है अर्थात् योग परायण हो जाती है |

श्लोक संख्या (२/६०) से प्रभु प्रमथनशील इन्द्रियों के विषय में कह रहे हैं कि संसार में विचरण करने वाली और विषयों से संयोग रखने वाली ये इन्द्रियाँ बुद्धि का मंथन कर मन को हर लेती हैं | इन्द्रियों का संयम और निषेध अनिवार्य है और इसके लिये समबुद्धि से युक्त कृष्णयोग परायण साधक के लिये आदेश है कि वह युक्त और आसीत मत्परः का पालन करे | जो साधक ना युक्त होते हैं और ना ही आसीत मत्परः की भावना से भावित होते हैं, अपितु सांसारिक विषय भोगों में ही  लिप्त रहते हैं अथवा केवल ज्ञान अर्थात् अहं ब्रह्मास्मि आदि अन्य किसी विधि विशेष का पालन करते हैं या अष्टांगयोग पद्धति आदि का पालन करते हैं अन्यथा शक्ति साधना आदि के अनुयायी होते हैं, उनके प्रति परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं |

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना |
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् || (२/६६)
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते |
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि || (२/६७)

न अस्ति बुद्धिः अयुक्तस्य न च अयुक्तस्य भावना |
न च अभावयतः शान्तिः अशान्तस्य कुतः सुखम् || (२/६६)
इन्द्रियाणाम् हि चरताम् यत् मनः अनु विधीयते |
तत् अस्य हरति प्रज्ञाम् वायुः नावम् इव अम्भसि || (२/६७)
(नहीं), अस्ति(हो सकती), बुद्धिः(बुद्धि), अयुक्तस्य(अयुक्त पुरुष की), (नहीं), (और), अयुक्तस्य(अयुक्त पुरुष की), भावना(प्रभु में भावना)| न(नहीं), (और), अभावयतः(भावरहित), शान्तिः(शांति), अशान्तस्य(अशान्तको), कुतः(कैसा), सुखम्(सुख)| (२/६६)
इन्द्रियाणाम्(इन्द्रियों में), हि(क्योंकी), चरताम्(विचरण करता हुआ), यत्(जिसके), मनः(मन), अनु(साथ), विधीयते(रहता है)| तत् (वह), अस्य(इसकी), हरति(हर लेती है), प्रज्ञाम्(प्रज्ञाको), वायुः(वायु), नावम्(नावको), इव(जिसप्रकार), अम्भसि(जलमें)| (२/६७)

अयुक्त पुरुष की बुद्धि नहीं हो सकती और ना ही अयुक्त पुरुष की भावना, भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं और अशान्त को सुख कहाँ ? (२/६६)
क्योंकी जल में नाव को वायु जिस प्रकार गन्तव्य से दूर कर देती है, उसी प्रकार विषयों में विचरण करती हुई इन्द्रियों में से जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय उस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है | (२/६७)

अयुक्त पुरुष अर्थात् परमात्मा श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार (६/१८) में कहे युक्त पुरुष के विपरीत जिस पुरुष का चित्त वश में नहीं है और भोगों से स्पृहा रहित नहीं हुआ है अर्थात् उसकी भोगों से निवृति नहीं हुई है ऐसे पुरुष की बुद्धि परमात्मा श्रीकृष्ण के अनुसार कृष्णयोग से युक्त होने को सक्षम नहीं होती अर्थात् समभाव से युक्त समबुद्धि नहीं होती और ना ही ऐसे अयुक्त पुरुष में किसी प्रकार की भावना होती है, भावना अर्थात् चित्त वश में ना होने के कारण तथा भोगों से निवृति ना होने के कारण वह आसीत मत्परः की भावना से भी भावित नहीं होता | हृदयस्थ ईष्ट के प्रति शरणागत नहीं होता | वस्तुतः तब होता यह है कि ऐसा पुरुष त्रैगुन्यविषयावेदा आदि शास्त्रों के अनुसार साधना में रत होता है परन्तु युक्त और आसीत मत्परः भावना से भावित ना होने के कारण उसे शान्ति अर्थात् परमतत्त्व की शरणागति नहीं अपितु सांसारिक ऋद्धि-सिद्धियाँ ही प्राप्त होती हैं और जिसे परमतत्त्व की शरणागत शांति ही नहीं मिली, उसे परमतत्त्व का आनंद, चित्त की निर्मल प्रसन्नता का सुख कहाँ से प्राप्त हो ?

पुरुष युक्त और आसीत मत्परः की भावना से भावित क्यों नहीं हो पाता ? इस पर प्रभु कहते हैं | कि जिस प्रकार जल में विहार करती हुई नाव को वायु धकेलती हुई गन्तव्य से दूर कर देती है, उसी प्रकार विषयों में विचरण करती हुई इन्द्रियों में से जिसके साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय उस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है | कहने का तात्पर्य यह कि परमार्थ मार्ग हेतु इन्द्रियों के संयम और निषेध में कोई छुट नहीं है, प्रभु के अनुसार सभी इन्द्रियाँ अर्थात् प्रत्येक  इन्द्रिय पृथक रूप से इतनी प्रमथनशील होती है कि बुद्धि को नष्ट-भ्रष्ट करने में सक्षम होती है, अतः सकलेन्द्रिय संयम अर्थात् समस्त इन्द्रियों का सर्वथा संयम और निषेध अनिवार्य है | ऐसा नहीं चलेगा कि बाकी सब तो वश में है, केवल यही एक अवगुण है, ऐसा परमार्थ मार्ग में निषेध है, सभी अवगुण हों परन्तु सभी पर स्वामित्व हो, सभी इन्द्रियों पर स्वामी भाव हो, तभी आप परमार्थ मार्ग के अधिकारी हैं |

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || (२/६८)

तस्मात् यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः |
इन्द्रियाणि इन्द्रिय अर्थेभ्य तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || (२/६८)

तस्मात्(इसलिये), यस्य(जिसकी), महाबाहो(महाबाहो), निगृहीतानि(निग्रह, वशीभूत की हुई), सर्वशः(सब ओर से) | इन्द्रियाणि (इन्द्रियाँ ),इन्द्रिय(इन्द्रियों के), अर्थेभ्यः(विषयों में), तस्य(उसकी), प्रज्ञा(प्रज्ञा), प्रतिष्ठिता (अचल रूप से स्थिर है) | (२/६८)

महाबाहो ! इसलिये जिस पुरुष की (समस्त) इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सर्वश अर्थात् सम्पूर्ण रूप से वश में हों, उसकी प्रज्ञा अचल रूप से स्थिर होती है | (२/६८)

सकलेन्द्रिय संयम को प्राप्त स्थितप्रज्ञ पुरुष और इन्द्रियों के विषयों में रमण करने वाले सांसारिक पुरुष की रहनी का भेद बताते हुए परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी |
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः || (२/६९)

य निशा सर्व भूतानाम् तस्याम् जागर्ति संयमी |
यस्याम् जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतः मुनेः || (२/६९)

या(जो), निशा(निशा है), सर्व(सर्व), भूतानाम्(प्राणियों के लिये), तस्याम्(उसमें), जागर्ति(जाग्रत रहता है), संयमी (संयमी पुरुष) | यस्याम्(जिसमें), जाग्रति(जगे हैं), भूतानि(सभी प्राणी), सा(वह), निशा(निशा है), पश्यतः(देखता है), मुनेः(मुनि) | (२/६९)

जो सम्पूर्ण प्राणियों को निशा समान है उसमें संयमी जाग्रत रहता है, जिसमें समस्त प्राणी जगे रहते हैं उसमे मुनि निशा देखता है | (२/६९)
           
सांसारिक मनुष्य जिस परमार्थ मार्ग को निश्चयात्मक बुद्धि से, समबुद्धि, समभाव से युक्त होकर नहीं जान पाते, जो मार्ग उनके भोतिक चक्षुओं से अतीत है, निशा समान है, उस परमार्थ मार्ग हेतु संयमी जाग्रत रहता है, होशपूर्वक, संयमपूर्वक उस परमार्थ मार्ग की यात्रा करता है और जिस में समस्त प्राणी जगे रहते हैं, भोगों में रमण करते हैं, उसमें मुनि निशा देखता है अर्थात् उन सांसारिक विषयों से, भोगों से मुनि का किसी प्रकार का कोई भी संबंध नहीं होता | वह मुनि इन सांसारिक विषयों के प्रति, भोगों के प्रति किस प्रकार बरतता है, इन विषय-भोगों के प्रति उसका व्यवहार कैसा होता है, इस पर प्रभु कहते हैं | कि

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् |
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी || (२/७०)

आपूर्यमाणम् अचल प्रतिष्ठिम् समुद्रम् आपः प्रविशन्ति यद्वत् |
तद्वत् कामाः यम् प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिम् आप्नोति न कामा कामी || (२/७०)

आपूर्यमाणम्(नित्य परिपूर्ण), अचल(अचल), प्रतिष्ठम्(स्थित), समुद्रम्(समुद्र में), आपः(जल), प्रविशन्ति(प्रवेश करता है), यद्वत् (जिस प्रकार) | तद्वत्(उस प्रकार), कामाः(भोग, इच्छाएँ), यम्(जिसमें), प्रविशन्ति(प्रवेश करती हैं), सर्वे(सभी), सः(वह), शान्तिम् (शांति को), आप्नोति(प्राप्त होता है), (नहीं), कामा-कामी (भोगों की कामनाओं वाला) | (२/७०)

जैसे नदियों का जल सब ओर से नित्य परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुंद्र में प्रवेश करता हैं, उसी प्रकार जिसमें समस्त भोग इच्छाएं प्रवेश करती हैं, वह शान्ति को प्राप्त होता है, ना कि भोगों के कामनाओं वाला | (२/७०)

जैसे नदियों का जल सब ओर से नित्य परिपूर्ण अर्थात् सदैव तृप्त अचल प्रतिष्ठा वाले समुंद्र में प्रवेश कर के उसे व्यथित, व्याकुल नहीं कर पाता, ना समुंद्र कम होता है, ना ज्यादा | उसी प्रकार संसार के प्राप्त-अप्राप्त, देखे-अनदेखे, सुने-अनसुने, लोकिक-परलोकिक समस्त विषय-भोग संयमी पुरुष को, समबुद्धि समभाव से युक्त पुरुष को, कृष्णयोग परायण पुरुष को व्यथित, व्याकुल नहीं कर सकते | ऐसा पुरुष ही शान्ति को प्राप्त होता है ना कि कामकामी | मेरे अनुभव में प्रभु ने यह उपदेश समस्त साधको के प्रति तो कहा ही है, विशेषरूप से इन वचनों को अर्जुन के प्रति कहा है | कि सांसारिक बुद्धि से युक्त हुआ तू जिस शोक को, विषाद को प्राप्त हो रहा है | उससे परे निस्त्रैगुन्य भाव से, निर्द्वन्द भाव से अर्थात् समबुद्धि समभाव से. नित्यसत्त्वस्थित भाव से, निर्योगक्षेम भाव से, आत्म परायण हो कर स्वधर्म रूपी कर्तव्यकर्म रूपी धर्मयुद्ध को अंगीकार कर, इस प्रकार स्वजनों की हत्या और गुरुजनों के रुधिर से सने राज्य अथवा राज्य भोग तुझे व्यथित, व्याकुल नहीं कर पाएंगे | संसार के समस्त भय से परे शान्ति का अनुभव कर सकेगा | इसी तथ्य को अर्जुन के प्रति और स्पष्ट करते हुए कहते परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
 
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः |
निर्ममो निरहङ्कारः सः शान्तिमधिगच्छति || (२/७१)

विहाय कामान् यः सर्वान् पुमान् चरति नि:स्पृहः |
निर्ममो निरहङ्कारः सः शान्तिम् अधिगच्छति || (२/७१)

विहाय(त्याग कर), कामान्(कामनाओं को), यः(जो), सर्वान्(सम्पूर्ण), पुमान्(पुरुष), चरति(विचरण करता है), निःस्पृहः(स्पृहा रहित) | निर्ममो(ममता रहित), निरहङ्कारः(अहंकार रहित), सः(वह), शान्तिम्(शांति को), अधिगच्छति(प्राप्त होता है) | (२/७१)

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर, स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित हुआ जीवन-निर्वाह करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है | (२/७१)

अप्राप्त को प्राप्त करने की इच्छा का नाम कामना है | जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके, स्पृहारहित हुआ अर्थात् प्राप्त-अप्राप्त, देखे-अनदेखे, सुने-अनसुने, लोक-परलोक के सम्पूर्ण भोगों की प्राप्ति हेतु काम्यकर्मों से निवृत हुआ पुरुष, ममतारहित अर्थात् देह, देह के संबंधो और जीवन निर्वाह को प्राप्त साधनों के प्रति स्नेहवश मैं और मेरा के भाव से रहित तथा अहंकाररहित अर्थात् देह, देह के संबंधो और जीवन निर्वाह को प्राप्त साधनों के प्रति अभिमान वश भी मैं और मेरा के भाव से रहित हुआ, जो पुरुष इस प्रकार जीवन-निर्वाह करता है, वह परमशान्ति को प्राप्त होता है, परमशान्ति अर्थात् परमतत्त्व के आश्रय को, परंभाव को, परमपिता परमात्मा की शरणागति को, संसार बंधन से मुक्ति को प्राप्त होता है | ध्यान रहे कि मुक्ति जीते जी की प्राप्ति का नाम है | देहान्तर के उपरान्त कोई मुक्त नहीं हो सकता | इस को स्पष्ट करते हुए परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं | कि  
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति |
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति || (२/७२)

एषा ब्राह्मी स्थित्तिः पार्थ न एनाम् प्राप्य विमुह्यति |
स्थित्वा अस्याम् अन्त काले अपि ब्रह्म निर्वाणम् ऋच्छति || (२/७२)

एषा(यह), ब्राह्मी(ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की), स्थितिः(स्थिति है), पार्थ(पृथापुत्र), (नहीं), एनाम्(इसको), प्राप्य(प्राप्त कर के), विमुह्यति(मोहित होता है) | स्थित्वा(स्थित होकर), अस्याम्(इसमें), अन्त(अन्त), काले(काल में), अपि(भी), ब्रह्म(ब्रह्म), निर्वाणम् (निर्वाण को, शांति को), ऋच्छति(पा जाता है) | (२/७२)

पार्थ ! यह ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त करके (पुरुष) कभी मोहित नहीं होता, इसमें स्थित होकर अन्तकाल में भी ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होता है | (२/७२)
                                                                                                                                                                                                                                                                     
यह अर्थात् जिस स्थिति को परमात्मा श्रीकृष्ण पूर्व श्लोक में कह आए हैं वही शान्ति, ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति है अर्थात् शान्ति को प्राप्त पुरुष ही ब्रह्म भाव को, परं भाव को प्राप्त पुरुष है | इस शांति को, ब्रह्म भाव को प्राप्त पुरुष कभी मोहित नहीं होता अर्थात् इस स्थिति को प्राप्त करने की यात्रा में तो पतन के अनेकों कारण है परन्तु इस स्थिति की प्राप्ति के उपरान्त पुरुष को यह माया कभी भी, किसी भी प्रकार से मोहित नहीं कर सकती, ऐसा पुरुष माया के बंधन से, कर्म बंधन से सदा को मुक्त है | यही देह मुक्त अवस्था है, देह मुक्त अर्थात् प्रकृति से उत्पन्न देह से, प्रकृति के सभी संबंधो से मुक्त अवस्था है | इस अवस्था को प्राप्त पुरुष अन्तकाल में भी अर्थात् यह देहान्तर काल नहीं है कि फिर दूसरी देह प्राप्त होगी, यह शुद्ध अन्तकाल है, अर्थात् इस प्रकृति से सदा-सदा के लिये मुक्ति | अतः इस अवस्था को प्राप्त पुरुष अन्तकाल मे भी ब्रह्म निर्वाण को, मोक्ष को, परमगति, परमधाम को प्राप्त होता है | परमात्मा श्रीकृष्ण का अर्जुन को संकेत है कि जैसे तू मोहित हुआ है परन्तु मेरा शिष्यत्व ग्रहण कर मुझसे निवेदन करा था कि प्रभु मुझे साधिये, तो अर्जुन सुन, इस अवस्था को प्राप्त पुरुष कभी भी मोहित नहीं होगा तथा जिस परम कल्याणकारी मार्ग के उपदेश का निवेदन करा था, वह परम कल्याणकारी परमार्थ मार्ग, मेरा परमधाम, ब्रह्म निर्वाण भी यही है |

इस प्रकार गीता शास्त्र के द्वितीय अध्याय का समापन होता है |








***** ॐ तत् सत् *****