Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

अध्याय १०

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** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
दशमोऽध्यायः 
श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः |
तत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया || (१०/१)

भूयः एव महाबाहो श्रृणु मे परमम् वचः |
यत् ते अहम् प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हित काम्यया || (१०/१)

भूयः (फिर), एव (ही), महाबाहो (महाबाहो), श्रृणु (सुन), मे (मेरे), परमम् (परम), वचः (वचन) | यत् (जो), ते (तेरे लिये), अहम् (मैं), प्रीयमाणाय (प्रिय मानकर), वक्ष्यामि (कहूँगा), हित (हित की), काम्यया (कामना के लिये) | (१०/१)

महाबाहो ! मेरे परम वचन ‘फिर’ सुन, जो मैं प्रिय मानकर तुम्हारे हित की कामना से ‘ही’ कहूँगा | (१०/१)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस अध्याय की प्रस्तावना ‘भूय एव’ अर्थात् ‘फिर ही’ कहकर, इस प्रकार की है जैसे कोई महापुरुष अपने उपदेशों का समापन करता हुआ साधकों के प्रति आवश्यक दिशा निर्देश एक बार पुनः कहकर अपने उपदेशों को विराम दे | योगेश्वर श्रीकृष्ण श्लोक संख्या (१०/११) अर्जुन को तक उपदेश देते हैं, उसके पश्चात् मेरे अनुभव में अर्जुन के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण की भाव भंगिमा कुछ इस प्रकार की रही होगी कि अर्जुन तेरे निवेदन अर्थात् ‘शिष्यः ते अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् (२/७) के अनुसार मैंने तुम्हारे उत्थान हेतु अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र विषयक आवश्यक समस्त ज्ञान कह दिया है, अब तेरा कोई संशय अथवा जिज्ञासा हो तो कह दे | इसके पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण बाहरवें अध्याय तक अर्जुन की शंकाओं और जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए अध्यात्मविद्या, ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र विषयक उपदेशों को विराम देते हुए, अध्याय तेरह से सांख्यदर्शन का ज्ञान अर्जुन के प्रति कहते हैं, यह तो हुआ गीता शास्त्र के धाराप्रवाह पर एक मनन और अब योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ क्या कहते हैं, उसका अध्ययन करते हैं |

योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि मेरे परम वचन अर्थात् परं की प्राप्ति हेतु मेरे उपदेशों को ‘फिर’ अर्थात् जैसा होता है कि अन्त में एक बार संक्षेप में फिर से सुन ले, ताकि कोई संशय ना रहे क्योंकी तु मेरा प्रिय है और ऐसा मानकर तेरे हित की कामना से ही यह समस्त ज्ञान का सार संक्षेप में कह रहा हूँ |

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः |
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः || (१०/२)

न मे विदुः सुर गणाः प्रभवम् न महा ऋषयः |
अहम् आदिः हि देवानाम् महा ऋषीणाम् च सर्वशः || (१०/२)

(नहीं), मे (मेरे), विदुः (जानते हैं), सुर (देव), गणाः (गण), प्रभवम् (उत्पत्ति और सम्भव होने को), (नहीं), महा (महान), ऋषयः (ऋषिजन) | अहम् (मैं), आदिः (आदि, कारण), हि (क्योंकी), देवानाम् (देवतओं का), महा (महान), ऋषीणाम् (ऋषियों का), (और), सर्वशः (सभी प्रकार से) | (१०/२)

मेरे ‘प्रभव’ को ना देवगण जानते हैं, ना महर्षि क्योंकी मैं सभी प्रकार से देवतओं और महर्षियों का भी आदि कारण हूँ | (१०/२)

मेरे प्रभव को तात्पर्य यह कि जैसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में अपने होने को स्पष्ट किया है, उस प्रकार मेरे प्रभव को अर्थात् ‘मैं अजन्मा, अविनाशी स्वरूप होते हुए, समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी, प्रकृति को अपने अधीन करके आत्ममाया से संभव होता हूँ | (४/६) तथा ‘तदा आत्मानम् सृजामि अहम् (४/७) मेरा जन्म पिण्ड रूप में नहीं होता, मैं संभव होता हूँ, स्वयं को सृजित करता हूँ, परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त महापुरुषों के हृदय में सृजित होता हूँ और साधु पुरूषों के हृदयदेश में ही ‘साधुओं के उद्धार के लिये और दुष्कृत्य करनेवालों के अर्थात् काम, क्रोध आदि के विनाश के लिये, धर्म की भलीभाँति स्थापना के लिये मैं युग युग में संभव होता हूँ | (४/८)’ किस धर्म की स्थापना हेतु ? जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कह आये हैं कि ‘इसमें प्रयत्न के आरम्भ का नाश नहीं होता, कोई विपरीत दोष भी विद्यमान नहीं है | इस धर्म का थोड़ा सा भी आचरण महान भय से रक्षा करता है | (२/४०)’ महान भय अर्थात् संसार रूपी दुःखो से, काम क्रोध से, द्वन्द्वों से, प्रकृतिजन्य भावों से और दुःख रूपी संसार बंधन से रक्षा करता है | तथा मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं (४/९) अर्थात् अलौकिक हैं, लौकिक नहीं हैं, देह चक्षु से देखने में नहीं आते, इसलिये इन कर्मों को करने हेतु, देह की, लौकिक जन्म की, देह धारण करने की आवश्यकता भी नहीं है | इस प्रकार जो तत्त्व से जान लेता है, तत्त्व से अर्थात् जैसा हमने मनन करा इस प्रकार नहीं अपितु जिसके हृदय देश में परमात्मा रथी बनकर निर्देश करते हैं, उन निर्देशों को जो तत्त्व से जान लेता है | वह देह को त्यागकर पुनः जन्म को प्राप्त नहीं होता अपितु मुझको, परमतत्त्व परमात्मा को ही प्राप्त होता है | यह तो हुआ योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार परं अक्षय ब्रह्म के ‘प्रभव’ पर एक मनन और योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने इस प्रभव के प्रति कहते हैं कि मेरे ‘प्रभव’ को ना देवगण जानते हैं, ना महर्षि क्योंकी मैं सभी प्रकार से देवतओं और महर्षियों का भी आदि कारण हूँ | अर्थात् देवत्त्व की, ऋषित्व की प्राप्ति भी मेरी ही अनुकम्पा स्वरूप होती है अर्थात् उनके देवत्त्व का और ऋषित्व का भी आदि कारण मैं ही हूँ, सारांशतः मेरे प्रभव को कोई नहीं जानता | अपने प्रभव के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् |
असम्मूढः सः मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते || (१०/३)

यः माम् अजम् अनादिम् च वेत्ति लोक महा ईश्वरम् |
असम्मूढः सः मर्त्येषु सर्व पापैः प्रमुच्यते || (१०/३)

यः (जो), माम् (मुझको), अजम् (अजन्मा), अनादिम् (सबका आदि), (और), वेत्ति (विदित कर लेता है), लोक (समस्त लोकों का), महा (महान), ईश्वरम् (ईश्वर) | असम्मूढः (ज्ञानवान है), सः (वह), मर्त्येषु (मरणाधर्मा लोक में), सर्व (समस्त), पापैः (पापों से), प्रमुच्यते (भलीभाँति मुक्त हो जाता है) | (१०/३)

जो मुझको अजन्मा, अनादि, और समस्त लोकों का महान ईश्वर विदित कर लेता है, वह मरणधर्मा लोक में ज्ञानवान है (और) समस्त पापों से भलीभाँति मुक्त हो जाता है | (१०/३)

जो मुझको ‘अजन्मा’ अर्थात् पूर्व श्लोक में किये मनन के अनुसार पिण्ड रूप में तो मेरा जन्म होता ही नहीं है, अतः जो मेरे प्रभव को जान लेता है और मेरे ‘अनादि’ तत्त्व को अर्थात् समस्त कारणों का कारण, इस सृष्टि में पूर्वोत्तर पूर्व में भी जो कुछ घटित हुआ हो, उसका कारण भी मैं ही हूँ, ऐसा मुझको जान लेता है और समस्त लोकों का महान ईश्वर अर्थात् समस्त शरीरधारियों के हृदयस्थ ईश्वर का भी ईश्वर अर्थात् महेश्वर, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इसी अध्याय में कहा है कि ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः अर्थात् मैं समष्टि परमात्मा आत्मा स्वरूप से मेरे भक्तों के हृदय में स्थित हूँ, जो इस प्रकार विदित कर लेता है, विदित अर्थात् जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि निःसंदेह इस लोक में इस आत्मज्ञान के समान पवित्र करनेवाला अन्य कुछ विद्यमान नहीं है, ‘तत्स्वयं’ उस आत्म ज्ञान को तू स्वयं ‘योग संसिद्धः कालेन’ जब योग सिद्ध होगा उस काल में ‘आत्मनि विन्दति’ स्वयं में ही पायेगा | (४/३८) सारांशतः इस प्रकार जो आत्म ज्ञान को प्राप्त हो जाता है, वह मरणधर्मा लोक में, मरणधर्मा इस देह में ही ज्ञानवान है, उसने उस आत्मज्ञान से मुझ परमात्मा को साक्षात् कर लिया है और इस कारण समस्त पापों से भलीभाँति मुक्त हो जाता है |

बुद्धिर्ज्ञानसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः |
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च || (१०/४)
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः |
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः || (१०/५)
बुद्धिः, ज्ञानम्, असम्मोहः क्षमा सत्यम् दमः शमः |
सुखम् दुःखम् भवः अभावः भयम् च अभयम् एव च || (१०/४)
अहिंसा संत तुष्टिः तपः दानम् यशः अयशः |
भवन्ति भावाः भूतानाम् मत्तः एव पृथग्विधाः || (१०/५)

बुद्धिः (बुद्धि), ज्ञानम् (ज्ञान), असम्मोहः (असम्मोह), क्षमा (क्षमा), सत्यम् (सत्य), दमः (बाह्य इन्द्रिय निग्रह), शमः (अंतःकरण, मनोनिग्रह) | सुखम् (सुख), दुःखम् (दुःख), भवः (उत्पत्ति, प्राप्य), अभावः (प्रलय, अप्राप्य), भयम् (भय), (और), अभयम् (अभय), एव (ही), (और) | (१०/४)
अहिंसा (अहिंसा), समता (समभाव), तुष्टिः (प्राप्य से संतुष्ट), तपः (इन्द्रियों और मन का संयम), दानम् (दान), यशः (ताश), अयशः (अपयश) | भवन्ति (होते हैं), भावाः (समस्त भाव), भूतानाम् (प्राणियों के), मत्तः (मुझसे), एव (ही), पृथग्विधाः (नाना प्रकार के जानने में आनेवाले) | (१०/५)

बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, प्राप्य, अप्राप्य, भय और अभय ही और (१०/४)
अहिंसा, समता, प्राप्य से तुष्ट, तप, दान, यश और अपयश (आदि) प्राणियों के नाना प्रकार के जानने में आनेवाले समस्त भाव मुझसे ही होते हैं | (१०/५)

योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि प्राणियों में नाना प्रकार के जानने में आनेवाले समस्त भाव मुझसे ही होते हैं अर्थात् समस्त प्राणी मेरी ही दैवी माया से उत्पन्न तीन प्रकार के भावों से, सत, रज और तम भावों से भावित हो जाते हैं, मनुष्यों के यह भाव, मनुष्यों का यह स्वभाव ही अध्यात्म है, प्रकृति से तादाम्य के कारण, प्रकृतिजन्य सत, रज और तम भावों और उनके कार्यरूप गुणों के कारण अन्तकरण में स्थित मनुष्य का यह स्वभाव वस्तुतः परमतत्त्व परमात्मा के परं भाव का ही विकृत रूप है | मनुष्य का यह स्वभाव ही योगेश्वर श्रीकृष्ण के अध्यात्म और योगशास्त्र विषयक उपदेशों का अनुसरण करने के परिणाम में ब्रह्म स्वरूप है और जो विद्या इस स्वभाव को ज्ञात कराती है, उसे अध्यात्मविद्या कहते हैं, क्योंकी यह विद्या ही ब्रह्म तत्त्व को साक्षात् कराती है इसलिये इसे ब्रह्मविद्या भी कहते हैं और यह कृष्णयोग ही ब्रह्म को साक्षात् कराने में हेतु है, परमतत्त्व की प्राप्ति हेतु योगेश्वर का विधिविधान है | यह कृष्णयोग रूपी विधिविशेष ही ब्रह्मभाव की प्राप्ति का एकमात्र साधन हैं |

   महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा |
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः || (१०/६)

महा ऋषयः सप्त पूर्वे चत्वारः मनवः तथा |
मत् भावा मानसाः जाताः येषाम् लोके इमाः प्रजाः || (१०/६)

महा (महान), ऋषयः (ऋषि), सप्त (सात), पूर्वे (पूर्व में), चत्वारः (चार), मनवः (मनु), तथा (तथा) | मत् (मेरे), भावा (भाव को), मानसाः (मन द्वारा), जाताः (उत्पन्न हुए हैं), येषाम् (जिनकी), लोके (लोक में), इमाः (यह), प्रजाः (प्रजा है) | (१०/६)


महान सप्त ऋषि, उनसे भी पूर्व चार सनकादी तथा ‘मनु’ मन द्वारा मेरे भाव को उत्पन्न हुए हैं, जिनकी लोक में यह प्रजा है | (१०/६)

महान सप्त ऋषि अर्थात् मरीचि, अंगीरा, अत्री, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ आदि जो ब्रह्म ऋषि कहलाते है और उनसे पूर्व चार सनकादी जो सावर्ण नाम से प्रसिद्ध सावर्णि, धर्मसावर्णि, दक्षसावर्णि और सावर्ण तथा मनु इत्यादि भी मन द्वारा अर्थात् जड़ प्रकृति का वह तत्त्व जो इन्द्रियों और विषयों के संयोग का संधात है तथा प्रकृति में विचरण करता है, उस मन के द्वारा अर्थात् उस मन के निग्रह द्वारा ही मुझ को प्राप्त हुए हैं, जिनकी लोक में यह प्रजा है अर्थात् आप सब ब्रह्मतत्त्व को प्राप्त इस महापुरुषों की ही संताने हों | तात्पर्य यह कि जो मेरे भाव को, योग को, मेरी विभूतियों को तत्त्व से जान लेता है, वह मेरे भाव को, परं भाव को प्राप्त हो जाता है | अतः मेरी प्राप्ति की संभावना केवल किसी व्यक्ति विशेष को है, ऐसा नहीं है अपितु योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार यदि अत्यंत दुराचारी भी मुझको अनन्य भक्तिभाव से पूजता है, वह साधु ही मानने योग्य है क्योंकी वह सम्यक रूप से
निश्चयात्मक हो गया है | (९/३०) वह शीघ्र ही धर्म आत्मा हो जाता है, शाश्वत शांति में चला जाता है, कौन्तेय ! यथार्थ जान मेरा भक्त नष्ट नहीं होता | (९/३१) इसीको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि 

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः |
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशय || (१०/७)

एताम् विभूतिम् योगम् च मम यः वेत्ति तत्त्वतः |
सः अविकम्पेन योगेन युज्यते न अत्र संशयः || (१०/७)

एताम् (इस), विभूतिम् (विभूति को, समग्र रूप के विस्तार को), योगम् (योग को), (और), मम (मेरे), यः (जो), वेत्ति (विदित कर लेता है), तत्त्वतः (तत्त्वरूप से) | सः (वह), अविकम्पेन (निश्चल), योगेन (योग से), युज्यते (युक्त हो जाता है), (नहीं), अत्र (इसमें), संशयः (संशय) | (१०/७)

मेरी इस विभूति को और योग को जो तत्त्वरूप से विदित कर लेता है, वह निश्चलरूप से योग से युक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है | (१०/७)

योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार योग उस परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति का एक निश्चित विधिविधान है, योग के संसिद्ध काल में जो आत्मज्ञान को प्राप्त करके परमात्मा को साक्षात् कर लेता है और ‘वासुदेव सर्वम्’ भाव से भावित हो जाता है, वह परमात्मा के समग्र रूप को, परमात्मा की विभूतियों को, जल में रस के समान सृष्टि के प्रत्येक कण में परमात्मा के ही प्रसार को तत्त्वरूप से विदित कर लेता है, वह निश्चलरूप से योग से युक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं और योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ‘जिससे दुखों के संयोग का वियोग हो, उसको ‘योग’ नाम से जानना चाहिये’ (६/२३) अर्थात् जिससे संसार रूपी दुःखो का, काम क्रोध का, राग द्वेष का, द्वन्द्वों का वियोग होता हो तथा दुःख रूपी संसार का अर्थात् संसार बंधन का नाश होता हो, वह योग है | सारांशतः वह पुरुष योग  संसिद्ध काल में मुक्त हो जाता है | योगपरायण होने को आवश्यक तत्व पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं | कि

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता || (१०/८)

अहम् सर्वस्य प्रभवः मत्तः सर्वम् प्रवर्तते |
इति मत्वा भजन्ते माम् बुधाः भाव समन्विताः || (१०/८)

अहम्(मैं), सर्वस्य(सभी का), प्रभवः(मूल कारण), मत्तः(मुझसे), सर्वम्(सब), प्रवर्तते(प्रवृत होता है) | इति(ऐसा), मत्वा(मानकर), भजन्ते(भजते हैं), माम्(मुझको), बुधाः(बुद्धजन), भाव(भावसे), समन्विताः( युक्त होकर) | (१०/८)

मैं सभीका मूलकारण, मुझसे सब प्रवृत होता है, ऐसा मानकर बुद्धजन (मेरे) भाव से युक्त होकर मुझको भजते हैं | (१०/८)

मैं सभी का मूलकारण हूँ, मनुष्य का बंधन उसके अज्ञानवश मेरी ही प्रकृति से उत्पन्न भावों से होता है तथा उन्ही भावों से भावित होकर सब प्रवृत हो रहे हैं, ‘दुष्कृतिनो’ प्रकृति द्वारा मोहित होकर प्रवृत होते है, ‘सुकृतिनो’ कामनाओं द्वारा मोहित होकर प्रवृत होते हैं, ऐसा जानकार अर्थात् इस प्रकार तो बंधन का नाश होता नहीं, ऐसा जानकार बुद्धजन मेरे भाव से युक्त होकर मुझको भजते हैं अर्थात् मुझ परमात्मा के हृदयस्थ स्वरूप ‘आत्मा’ के परायण होकर संसार बंधन से मुक्ति को प्राप्त होते हैं | ये बुद्धजन किस प्रकार मेरे आत्मपरायण हो पाते हैं, इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि  

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यति च रमन्ति च || (१०/९)

मत् चित्ताः मत् गत प्राणाः बोधयन्तः परस्परम् |
कथयन्तः च माम् नित्यम् तुष्यन्ति च रमन्ति च || (१०/९)

मत् (मुझमें), चित्ताः (चित्त को), मत् (मुझमें), गत (अर्पित), प्राणाः (प्राणों से), बोधयन्तः (बुद्धि द्वारा ग्राह्य रूप से जानते हुए), परस्परम् (आपस में) | कथयन्तः (कहते हुए), (और), माम् (मुझको), नित्यम् (नित्य निरन्तर), तुष्यन्ति (तृप्त होते हैं), (और), रमन्ति (रमण करते हैं), (और) | (१०/९)

मुझमें चित्त को, मुझमें प्राणों को अर्पित करके बुद्धि द्वारा ग्राह्य रूप से जानते हुए और आपस में मेरा कथन करते हुए, नित्य निरन्तर तृप्त रहते हैं, रमण करते हैं | (१०/९)

मुझमें चित्त को अर्थात् अनन्य भाव से, एकीभाव से हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित होकर, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि जिस काल में योग के अभ्यास से चित्त निरुद्ध होकर उपराम हो जाता है और जिस काल में स्वयं के द्वारा, स्वयं में, स्वयं को देखता हुआ तृप्त रहता है | (६/२०) तथा मुझमें प्राणों को अर्पित करके अर्थात् जैसा अर्जुन को निर्देश दिया है कि समस्त द्वारों का संयम करके और मन का हृदय में निरोध करके, योग धारण करते हुए स्थिर होकर, स्वयं के प्राण को मस्तक में स्थापित करके | (८/१२) ‘ॐ’ इतना ही, एक अक्षय ब्रह्म का उच्चारण करते हुए, मुझको स्मरण करते हुए, जो देह का त्यागकर जाता है, वह परंगति को प्राप्त करता है | (८/१३) इस प्रकार मुझमें प्राणों को अर्पित करके बुद्धि द्वारा ग्राह्य रूप से जानते हुए अर्थात् इन्द्रियों से अतीत, बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनंद है और जिसे ‘तत्त्वतः’ विदित करके स्थित हुआ, यह पुरुष फिर चलायमान नहीं होता | (६/२१) तात्पर्य यह कि उस काल में पूर्ण रूप से आत्मपरायण हुआ योगी इन्द्रियों से अतीत होकर बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनंद है, उस आनंद को विदित करके यह फिर चलायमान नहीं होता, पुनः माया के फेरे में नहीं पड़ता | इन्द्रियों से अतीत, क्योंकी विचलित होनेवाला जो चित्त पहले विशेषरूप से वश में करना पड़ता था, वह चित्त अब योगाभ्यास द्वारा निरुद्ध होकर उपराम हो गया है, ऐसा कहें कि वह चित्त अब यज्ञार्थ कर्मों के अनुष्ठान स्वरूप यज्ञ में स्वाहा हो गया है, यज्ञाग्नि में विलय हो गया है तो अतिश्योक्ति ना होगी | इस प्रकार चित्त के विलय के पश्चात्, वह चित्त जो इन्द्रियों और मन का आश्रय लेकर सांसारिक भोगों को ही आनंद मानता था, उस चित्त के निरुद्ध होकर उपराम होने के पश्चात्, योगी बुद्धि द्वारा ग्रहण (इन्द्रियों और मन द्वारा नहीं) करने योग्य जो अनन्त आनंद है, जो बाह्य विषयों में नहीं अपितु आत्मपरायण होकर स्वयं में, स्वस्वरूप में जो आनंद है, उस आनंद को विदित करके फिर चलायमान नहीं होता, क्योंकी स्वर्गादिक भोगों का आनंद भी इस आनंद के समक्ष तुच्छ सा प्रतीत होता है, इसलिये फिर सांसारिक अथवा स्वर्गादिक भोगों में ऐसा योगी आसक्त नहीं होता | तथा ऐसे पुरुष आपस में मेरा कथन करते हुए अर्थात् उस आनंद से अपने को नित्य निरन्तर तृप्त करते हुए  है मुझमें ही रमण करते हैं, हृदयस्थ ईष्ट के ही परायण रहते हैं | सदैव हृदयस्थ ईष्ट के परायण किस प्रकार रहा जाता है, इस को भी योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में ही स्पष्ट कर आये हैं कि जो करता है, जो खाता है, जो यज्ञरूप कर्म करता है, जो दान देता है, जो तप करता है कौन्तेय ! वह मेरे को अर्पण कर | (९/२७) इस प्रकार आपस में मेरा कथन करते हुए, नित्य निरन्तर तृप्त रहते हैं, रमण करते हैं | इससे प्राप्ति ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रितिपुर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || (१०/१०)

तेषाम् सतत युक्तानाम् भजताम् प्रीति पूर्वकम् |
ददामि बुद्धि योगम् तम् येन माम् उपयान्ति ते || (१०/१०)

तेषाम् (उन), सतत (सतत रूप से), युक्तानाम् (युक्त हुए), भजताम् (भजने वालों को), प्रीति (प्रीति), पूर्वकम् (पूर्वक) | ददामि(देता हूँ), बुद्धि(बुद्धि), योगम्(योग), तम्(वह), येन(जिस), माम्(मुझको), उपयान्ति(प्राप्त होते हैं), ते(वे) | (१०/१०)

उन सतत रूप से युक्त प्रीतिपूर्वक भजनेवालों को, वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे वे मुझको प्राप्त होते है | (१०/१०)

पूर्व श्लोक में मनन किये अनुसार, उन सतत रूप से युक्त प्रीतिपूर्वक भजने वालों को, यहाँ ध्यान दे कि योगेश्वर श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि कामनाओं में आसक्त ‘यत्नपूर्वक’ भजने वालों को नहीं अपितु पूर्व श्लोक में कहे अनुसार मुझमें चित्त को, मुझमें प्राणों को अर्पित करके प्रीतिपूर्वक भजने वालों को मैं वह बुद्धि योग देता हूँ, जिससे वे मुझको प्राप्त होते हैं |

इस बुद्धियोग की प्रस्तावना ही कृष्णयोग का आधार है जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा है कि ‘यह सब तुम्हारे लिये सांख्य बुद्धि से कहा गया है परन्तु इस सांख्य बुद्धि को योग के विषय में भी सुनो | पार्थ ! जिस बुद्धि से योग युक्त होकर कर्मबन्धन का सर्वथा नाश कर सकेगा’ (२/३९) सारांश यह कि सतत रूप से युक्त प्रीतिपूर्वक भजने वालों को योगेश्वर श्रीकृष्ण वह बुद्धि योग देते हैं जिसके द्वारा वह समभाव, समबुद्धि से युक्त हुआ जीवन निर्वाह करता है, अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त करता है, पाप को प्राप्त नहीं होता, नये कर्मबंधन उत्पन्न नहीं करता तथा इसी समबुद्धि से युक्त होकर योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित कृष्णयोग का आचरण ही योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया ‘बुद्धियोग’ है, यह बुद्धियोग योगेश्वर श्रीकृष्ण ही देते हैं, केवल वही देने वाले हैं और यह बुद्धियोग वे हृदयस्थ ईष्ट के रूप में हृदयदेश में रथी होकर योगपरायण साधक को दिशा निर्देश के रूप में देते हैं | जिस के आचरण स्वरूप कर्मबन्धन का नाश करके साधक परं अक्षय ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है | योगेश्वर श्रीकृष्ण यह बुद्धियोग किस प्रकार प्रदान करते हैं, उस पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं | कि 

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः |
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता || (१०/११)

तेषाम् एव अनुकम्पा अर्थम् अहम् अज्ञान जम् तमः |
नाशयामि आत्म भाव स्थः ज्ञान दीपेन भास्वता || (१०/११)

तेषाम् (उनको), एव (ही), अनुकम्पा (अनुग्रहित), अर्थम् (करने के लिये), अहम् (मैं), अज्ञान (अज्ञान), जम् (जनित), तमः (तमस का) | नाशयामि (नाश करता हूँ), आत्म (आत्मा), भाव (भाव से), स्थः (स्थित हुआ), ज्ञान (ज्ञान), दीपेन (दीप से), भास्वता (प्रकाशमय) | (१०/११)

उनको अनुग्रहित करने के लिये ही मैं आत्मा भाव से स्थित हुआ, प्रकाशमय ज्ञानदीप से अज्ञान जनित तमस का नाश करता हूँ | (१०/११) 

उनको अनुग्रहित करने के लिये ही, योगेश्वर श्रीकृष्ण ऐसे साधकों को ही क्यों अनुग्रहित करते हैं, सभी को अनुग्रहित क्यों नहीं कर देते, इस संशय का समाधान भी योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में कर आये हैं कि मैं समस्त प्राणियों में समभाव से हूँ, ना मेरा अप्रिय है, ना प्रिय परन्तु जो मुझको भक्तिभाव से पूजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ | (९/२९) इसलिये जो उपर्युक्त श्लोकों में कहे अनुसार परमात्मा को भजते हैं, उनको अनुग्रहित करने के लिये ही मैं आत्मभाव से स्थित हुआ, क्योंकी मैं भी उनमें हूँ, इसलिये प्रकाशमान ज्ञानदीप से अर्थात् उनको आत्मज्ञान देता हुआ, अज्ञान से जनित तमस का नाश करता हूँ, तमस अर्थात् मनुष्यों के प्रकृतिजन्य वे भाव जो मनुष्य की उर्ध्वगति में बाधक हैं, ये भाव या तो मनुष्य को संसार चक्र में ही, आवागमन में बांधें रखते हैं अथवा मनुष्य की अधोगति का कारण होते हैं, इनके नाश के उपरान्त ही कर्मबंधन का नाश होता है |

मेरे अपने अनुभव में इस अध्याय में यहाँ तक संक्षेप में अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र रूपी समस्त ज्ञान को संक्षेप कह कर योगेश्वर श्रीकृष्ण की भाव भंगिमा अर्जुन के प्रति ऐसी रही होगी कि अर्जुन तेरे निवेदन अर्थात् ‘शिष्यः ते अहम् शाधि माम् त्वाम् प्रपन्नम् (२/७) के अनुसार मैंने तुम्हारे उत्थान हेतु अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र विषयक आवश्यक समस्त ज्ञान कह दिया है, अब तेरा कोई संशय अथवा जिज्ञासा हो तो कह दे और अर्जुन अपनी जिज्ञासाएं योगेश्वर के समक्ष प्रस्तुत करता है, अब यहाँ से बारहवें अध्याय के अन्त तक योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन की शंकाओं और जिज्ञासाओं का ही समाधान करते हैं और अध्याय तेरह से उसे सांख्यदर्शन का ज्ञान कहते हैं | आइये जानें कि अर्जुन ने अब तक क्या जाना और अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण से किन शंकाओं और जिज्ञासाओं के समाधान को कहता है |  

अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् |
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् || (१०/१२)
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा |
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे || (१०/१३)

परम् ब्रह्म परम् धाम पवित्रम् परमम् भवान् |
पुरुषम् शाश्वतम् दिव्यम् आदि देवम् अजम् विभुम् || (१०/१२)
आहुः त्वाम् ऋषयः सर्वे देव ऋषिः नारदः तथा |
असितः देवलः व्यासः स्वयम् च एव ब्रवीषि मे || (१०/१३)

परम्(परम), ब्रह्म(ब्रह्म), परम्(परम), धाम(धाम), पवित्रम्(पवित्र), परमम्(परम), भवान्(आप) | पुरुषम्(पुरुष), शाश्वतम् (सनातन), दिव्यम्(अलौकिक), आदि(आदि कारण), देवम्(देवों के), अजम्(अजन्मा), विभुम्(सर्वव्यापी) | (१०/१२)
आहुः (कहते हैं), त्वाम् (आपको), ऋषयः (ऋषिजन), सर्वे (समस्त), देव (देव), ऋषिः (ऋषि), नारदः (नारद), तथा (तथा) | असितः (असित), देवलः (देवल), व्यासः (व्यास), स्वयम्(स्वयं), (और), एव(ही), ब्रवीषि(बतारहे हैं), मे(मुझे) | (१०/१३)

आप परं ब्रह्म, परं धाम, परं पवित्र, सनातन, अजन्मा, दिव्य पुरुष, आदिदेव, सर्वव्याप्त हैं | (१०/१२)
(ऐसा) आपको सब ऋषिजन, देवऋषि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और (आप) स्वयं मेरे प्रति कहते हैं | (१०/१३) 

अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित अध्यात्मविद्या के बौद्धिक ज्ञान से भावित होता हुआ, योगेश्वर श्रीकृष्ण से कहता है कि आपके प्रभव को जानकार अर्थात् कृष्ण रूपी इस देह का देही परं अक्षर ब्रह्म को, परमभाव को प्राप्त इस पुर में रहनेवाला पुरुष है, पुरुषोत्तम है | इसलिये अर्जुन कहता है कि आप ही परमब्रह्म, परमधाम, परम पवित्र अर्थात् आप ही आत्मज्ञान हैं, सनातन, अजन्मा, दिव्य पुरुष, आदिदेव अर्थात् देवत्व की प्राप्ति के कारण भी आप ही हैं, देवों के देव हैं और अपने समग्र रूप से आप ही सर्वव्याप्त हैं | ऐसा सब ऋषिजन कहते हैं, देवऋषि नारद और असित, देवल और व्यास भी कहते हैं और आप स्वयं भी मेरे निवेदन ‘शाधि माम’ के अनुरूप मुझे अनुग्रहित करने के लिये मुझसे कहते हैं |

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव |
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः || (१०/१४)

सर्वम् एतत् ऋतम् मन्ये यत् माम् वदसि केशव |
न हि ते भगवन् व्यक्तिम् विदुः देवाः न दानवाः || (१०/१४)

सर्वम्(सबको), एतत्(इस), ऋतम्(सत्य), मन्ये(मानता हूँ), यत्(जो), माम्(मुझको), वदसि(कहते हैं), केशव(केशव) | न (नहीं), हि(क्योंकी), ते(आपके), भगवन्(भगवन्), व्यक्तिम्(होने को), विदुः(जानते हैं), देवाः(देवजन), (नहीं), दानवाः (दानव) | (१०/१४)

केशव ! जो मुझको कहते हैं, इस सबको सत्य मानता हूँ क्योंकी आपके भगवन् होने को ना देवजन जानते हैं (और) ना दानव | (१०/१४)

पुराणों और शास्त्रों के अनुसार ‘क्’ ब्रह्मा को संबोधित करता है, ‘अ’ विष्णु को और ‘ईश्’ से शंकर को संबोधित किया जाता है, ‘व’ से वपु अर्थात् स्वरूप को संबोधित किया जाता है, इसलिये अर्जुन का योगेश्वर श्रीकृष्ण को केशव कहने से तात्पर्य यह है कि आप ही ब्रह्म स्वरूप संसार की उत्पत्ति (ब्रह्मा), स्थिति (विष्णु) और प्रलय (महेश) स्वरूप हो इसलिये आप जो भी मुझको कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ क्योंकी आपके भगवन् होने को, आपके प्रभव को जैसा आपने कहा कि ना देवजन जानते हैं और ना दानव ही, यहाँ दानव कहने से तात्पर्य कि मायावी होने पर भी दानव आपके प्रभव को नहीं जानते, क्योंकी इनके होने में भी आदि कारण आप ही हैं |

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम |
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते || (१०/१५)

स्वयम् एव आत्मना आत्मानम् वेत्थ त्वम् पुरुषोत्तम |
भूत भावन भूत ईश देव देव जगत् पते || (१०/१५)

स्वयम्(स्वयं), एव(ही), आत्मना(अपने से), आत्मानम्(अपने को), वेत्थ(जानते हो), त्वम्(आप), पुरुषोत्तम(पुरुषोत्तम) | भूत (प्राणियों), भावन(उत्पन्न करनेवाले), भूत(प्राणियों), ईश(ईश्वर), देव(देव), देव(देव), जगत्(जगत), पते(स्वामी) | (१०/१५)

भुतभावन ! भूतेश ! देवदेव ! जगत्पते ! पुरुषोत्तम आप स्वयं ही अपने को अपने से जानते हो | (१०/१५)

भूतभावन अर्थात् समस्त प्राणी जिस चेतना शक्ति से चेष्टा कर पाते हैं, उस परं प्रकृति के स्वामी, समस्त प्राणियों को उत्पन्न करने वाले आप ही हैं, भूतेश अर्थात् समस्त प्राणियों के ईश्वर, देवदेव अर्थात् देवों के भी देव, जगत्पते अर्थात् यह समस्त चर अचर जगत जिसका विस्तार है, वह आप ही हैं, पुरुषोत्तम अर्थात् सृष्टि के समस्त बंधनों से मुक्त, भावातीत, गुणातीत, कालातीत पुरुषरूप आप ही पुरुषोत्तम हैं और आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं क्योंकी आपके योग ऐश्वर्य को, आपके प्रभव को, आपकी विभूतियों को कहने में कोई भी अन्य सक्षम नहीं है |  

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः |
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि || (१०/१६)

वक्तुम् अर्हसि अशेषेण दिव्याः हि आत्म विभूतयः |
याभिः विभूतिभिः लोकान् इमान् त्वम् व्याप्य तिष्ठति || (१०/१६)

वक्तुम् (कहने में), अर्हसि (समर्थ हैं), अशेषेण (निःशेष रूप से), दिव्याः (अलौकिक), हि (क्योंकी), आत्म (स्वयं की), विभूतयः (विभूतियों को, समग्र रूप के विस्तार को) | याभिः (जिन), विभूतिभिः (विभूतियों द्वारा), लोकान् (लोकों में), इमान् (इन सब), त्वम् (आप), व्याप्य (व्याप्त होकर), तिष्ठति (स्थित हैं) | (१०/१६)

क्योंकी स्वयं की दिव्य विभूतियों को (आप ही) निःशेष रूपसे कहने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों द्वारा इन सब लोकों में आप व्याप्त होकर स्थित हैं | (१०/१६)

क्योंकी आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं इसलिये आपकी दिव्य विभूतियों को, आपके ‘व्यक्तिम्’ होने को, आपके जल में रस रूप से स्थित होने को, आपके समग्र रूप के विस्तार को आप ही निःशेष रूप से कहने में समर्थ हो, जिन विभूतियों के विस्तार द्वारा आप इन सब लोकों में व्याप्त होकर स्थित हो |

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् |
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया || (१०/१७)

कथम् विद्याम् अहम् योगिन् त्वाम् सदा परिचिन्तयन् |
केषु केषु च भावेषु चिन्त्यः असि भगवन् मया || (१०/१७)

कथम् (किस प्रकार), विद्याम् (जानूँ), अहम् (मैं), योगिन् (योगेश्वर), त्वाम् (आपको), सदा (सदा), परिचिन्तयन् (परम का चिन्तन करता हुआ) | केषु (किन), केषु (किन), (और), भावेषु (भावों से), चिन्त्यः (चिंतन योग्य), असि (हैं), भगवन् (भगवन्), मया (मेरे द्वारा) | (१०/१७)

योगेश्वर ! मैं किस प्रकार आपको सदा परं का चिन्तन करता हुआ जानूँ और किन किन भावों में भगवन् मेरे द्वारा चिन्तन योग्य हैं | (१०/१७)

अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण से निवेदन करता है कि आप अव्यक्त, अचिन्त्य रूप से, परं भाव रूप से, परमअक्षय ब्रह्म भाव से स्थित हैं, इसलिये मैं किस प्रकार सदैव आपका परं चिंतन अर्थात् आपके परंभाव का चिंतन करता हुआ जानूँ और भगवन् आप किन किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन योग्य हैं | तात्पर्य यह कि सृष्टि के प्रत्येक कण में आप उपस्थित हैं, आपके समग्र रूप का विस्तार ही यह सृष्टि है, यह प्रकृति है परन्तु आप की प्राप्ति हेतु किन किन भावों में आपका चिन्तन करूँ, क्योंकी अव्यक्त, अचिन्त्य का चिंतन कैसे हो ? इसलिये अपने ‘व्यक्तिम्’ को, अपनी विभूतियों को कहिये |

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन |
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् || (१०/१८)

विस्तरेण आत्मनः योगम् विभूतिम् च जनार्दन |
भूयः कथम् तृप्तिः हि श्रृण्वतः न अस्ति मे अमृतम् || (१०/१८)

विस्तरेण(विस्तारपूर्वक), आत्मनः(अपने), योगम्(योग), विभूतिम्(विभूतियों को), (और), जनार्दन(जनार्दन) | भूयः(फिर), कथम्(कहिये), तृप्तिः(तृप्ति), हि(क्योंकी), श्रृण्वतः(सुनते हुए),(नहीं), अस्ति(है), मे(मेरी), अमृतम्(अमृतमयी) | (१०/१८)

जनार्दन ! अपने योग (सामर्थ्य) और विभूतियों को फिर विस्तारित कहिये क्योंकी अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती | (१०/१८)

जनार्दन अर्थात् जनों पर दया करने वाले परमात्मा आप अपने योग सामर्थ्य को और अपनी विभूतियों को पुनः विस्तार से कहिये क्योंकी अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती | अमृतमय वचन अर्थात् आपका मुझको अपना प्रिय मानकर कहे वे वचन जो मेरे उद्धार को आपने मेरे प्रति कहे हैं, उन कर्मबन्धन का नाश करनेवाले अमृतमयी वचनों को सुनकर तृप्ति नहीं होती | अर्जुन की इस जिज्ञासा के समाधान हेतु योगेश्वर श्रीकृष्ण अब अर्जुन को परं अक्षर ब्रह्म के योग सामर्थ्य और उनकी विभूतियों कहते हैं |

श्रीभगवानुवाच

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः |
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे || (१०/१९)

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्याः हि आत्म विभूतयः |
प्राधान्यतः कुरु श्रेष्ठ न अस्ति अन्तः विस्तरस्य मे || (१०/१९)

हन्त(अब), ते(तेरेलिये), कथयिष्यामि(कहूँगा), दिव्याः(अलौकिक), हि(क्योंकी), आत्म(स्वयं), विभूतयः(विभूतियाँ) | प्राधान्यतः(मुख्य), कुरु(कुरुवंशी), श्रेष्ठ(श्रेष्ठ), (नहीं), अस्ति(है), अन्तः(अन्त), विस्तरस्य(विस्तारका), मे(मेरे) | (१०/१९)

अब तेरेलिये अपनी दिव्य विभूतियाँ प्रधानता से कहूँगा क्योंकी कुरुश्रेष्ठ ! मेरे विस्तार का अन्त नहीं है | (१०/१९)

अपनी विभूतियों को कहने से पूर्व ही योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट कह देते हैं कि तेरी जिज्ञासा के समाधान हेतु मैं अपनी दिव्य विभूतियाँ प्रधानता से अर्थात् जो मुख्य रूप से जो जानने योग्य है, उनको ही कहूँगा क्योंकी मेरे विस्तार का अर्थात् मेरे अलौकिक और लौकिक प्रभव का अन्त नहीं है | अलौकिक अर्थात् मेरे अचिन्त्य, अव्यक्त प्रसार का, तेरे हृदयदेश में आत्मा रूप में स्थित मेरे प्रसार का और लौकिक अर्थात् मेरे अचिन्त्य परन्तु ‘व्यक्तिम्’ प्रसार का, व्यक्त रूप में मैं किस प्रकार अव्यक्त रूप से स्थित हूँ, मैं किस प्रकार जल में रस रूप से स्थित हूँ, उस प्रसार का भी अन्त नहीं है इसलिये अपनी दिव्य विभूतियाँ मैं प्रधानता से कहूँगा |

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः |
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च || (१०/२०)

अहम् आत्मा गुडाकेश सर्व भूत आशय स्थितः |
अहम्  आदिः मध्यम् भूतानाम् अन्तः एव || (१०/२०)

अहम् (मैं), आत्मा (आत्मा हूँ), गुडाकेश (गुड़ाका अर्थात् निद्राविजयी, घने केशवाले गुडाकेश), सर्व (समस्त), भूत (प्राणियों के), आशय (हृदय देश), स्थितः (स्थित) | अहम् (मैं), आदिः (उत्पत्ति), (और), मध्यम् (स्थिति), (और), भूतानाम्
(भूतोंका), अन्तः (प्रलय), एव (ही), (और) | (१०/२०)
                                                                                                                                                                                                                                              
गुणाकेश ! सब प्राणियों के हृदय देश में स्थित मैं ‘आत्मा’ हूँ और मैं ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हूँ | (१०/२०)

निंद्रा पर विजय प्राप्त करने के कारण गुड़ाका और घने केश होने के कारण अर्जुन को गुणाकेश भी कहते हैं | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि निंद्रा पर विजय करने वाले, घनेकेशों वाले अर्जुन सब प्राणियों के हृदय देश में स्थित मैं ‘आत्मा’ हूँ | तात्पर्य यह कि गीता शास्त्र सहित समस्त शास्त्रों में वर्णित ‘आत्मा’, जिसको व्याख्याकारों ने ना जाने क्या क्या कहकर पाठकों और साधकों को इतना भ्रमित कर दिया है कि ‘आत्मा’ तत्त्व को लेकर जितना भ्रम पाठकों और साधकों को होता है उतना तो परं अक्षर ब्रह्म को लेकर भी नहीं होता | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यहाँ स्पष्ट से स्पष्ट शब्दों में ‘आत्मा’ को वर्णित कर दिया है कि आत्मा सूर्य और चन्द्रमा की भांति उनकी ही एक विभूति है, समग्र रूप से नहीं अपितु एक दिव्य विभूति है, तथा जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा का सृष्टि की रचना, स्थिति और प्रलय में अपना एक निश्चित कार्यक्षेत्र है, उसी प्रकार मनुष्य की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में ‘आत्मा’ का ही सारा खेल है, परमतत्त्व परमात्मा की यह विभूति आत्मा ही मनुष्य को अधोगति में डालती है, यह आत्मा ही मनुष्य को संसार चक्र में भरमाती है और यह आत्मा ही मनुष्य का उत्थान करके उसे परमात्मा का साक्षात् कराती है | परं अक्षर ब्रह्म का प्रभव, जो महापुरुषों के हृदयदेश में होता है, जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में कहा है कि मैं संभव होता हूँ, मैं स्वयं को सृजित करता हूँ, ब्रह्म में स्थित महापुरूषों के हृदयदेश में ब्रह्म तत्त्व का संभव होना, सृजित होना, जिस कारण संभव होता है, वह परमात्मा की इसी विभूति ‘आत्मा’ का ही कार्यक्षेत्र है, परमात्मा की इस विभूति ‘आत्मा’ का, इस आत्म तत्त्व का ज्ञान ही ‘आत्मज्ञान’ है तथा यहाँ अपनी समस्त विभूतियों के विस्तार को कहते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण सर्वप्रथम अपनी इस ‘आत्म’ विभूति को ही कहते हैं, तात्पर्य यह कि मनुष्य के उत्थान हेतु परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ विभूति, समष्टि परमात्मा का व्यष्टि रूप ‘आत्मा’ मनुष्य के हृदयदेश में ही स्थित है और मेरे अनुभव में परमतत्त्व परमात्मा की यह दिव्यतम् विभूति है | केवल इतना ही नहीं, योगेश्वर श्रीकृष्ण अपनी इस सर्वश्रेष्ठ विभूति का कार्यक्षेत्र, कार्य करने की विधि भी पूर्व में स्पष्ट कर आये हैं, आइये परमात्मा की इस विभूति को स्पष्ट रूप से जानने को एक बार पुनः विस्तार से योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों की पुनरावृति कर लें | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में अध्याय छः में कहा है कि

उद्धरेत् आत्मना आत्मानम् न आत्मानम् अवसादयेत् |
आत्मा एव हि आत्मनः बन्धुः आत्मा एव रिपुः आत्मनः || (६/५)
बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जितः |
अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् || (६/६)

स्वयं के द्वारा स्वयं का उद्धार करे, स्वयं का पतन ना करे क्योंकी आत्मा ही जीव की बन्धु है (और) आत्मा ही जीव की शत्रु है | (६/५) आत्मा उस जीव की मित्र है जिसने स्वयं ही आत्मा को जीत लिया है, परन्तु ‘अनात्मनः’ से आत्मा ही शत्रु के सदृश्य शत्रुता में बरतती है | (६/६) 
                                                                                 
उद्धरेत् आत्मना आत्मानम्’ मुनष्य स्वयं के द्वारा स्वयं का उद्धार करें, यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्वयं को इंगित करने हेतु ‘आत्मना’ शब्द का प्रयोग करा है, इससे योगेश्वर श्रीकृष्ण का मंतव्य है कि सांसारिक भोगों की, स्वर्गादिक की प्राप्ति हेतु नहीं अपितु तू मेरा ही सनातन अंश है और अपने उद्धार को अर्थात् अपने स्वरूप की प्राप्ति को, परमतत्त्व की प्राप्ति को, आत्मपरायण होकर तुझे स्वयं ही अपना उद्धार करना चाहिये | मनुष्य योनि में कर्मों को करने का अधिकार और स्वतंत्रता मनुष्य की है, वह चाहे तो भोगों में रमण करे अथवा अपना उत्थान करे, अपने उत्थान को परमतत्त्व की प्राप्ति को साधक को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है, परमतत्त्व परमात्मा तो हृदयस्थ होकर केवल दिशा निर्देश करता है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘अहम् आत्मा गुडाकेश सर्व भूत आशय स्थितः’ अर्जुन ! मैं समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मा रूप से स्थित हूँ | परमतत्त्व परमात्मा का यह हृदयस्थ स्वरूप, हृदयस्थ विभूति ‘आत्मा’ ही आत्मपरायण साधक का दिशा निर्देश करती है | अतः मनुष्य को चाहिये कि वह स्वयं ही आत्मपरायण होकर, स्वयं के उद्धार का प्रयत्न करे, तभी तो प्रभु दिशा निर्देश दे पाएंगे |

‘न आत्मानम् अवसादयेत्’ स्वयं का पतन ना करें, आत्मपरायण ना होकर भोगों में रमण करनेवाला पुरुष अपना पतन अर्थात् माया के पाश में स्वयं को स्वयं ही बांधे रखता है, यही स्वयं का पतन करना है | संसार में रमण करने में तो अनेक बन्धु बांधव दिखाई पड़ते हैं, आत्मपरायण होने में कौन संगी साथी है ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं,  कि

‘आत्मा एव हि आत्मनः बन्धुः’ परमतत्त्व परमात्मा की यह हृदयस्थ विभूति आत्मा ही आत्मपरायण साधक का बन्धु है, उसका मित्र है, उसका दिशा निर्देश करता है, क्योंकी परमात्मा की यह विभूति ‘आत्मा ही साधक के सबसे समीप है, हृदयदेश में ही रहती है, वहीं मिलती है, उसके उद्धार हेतु ही है इसलिये उसकी बन्धु है | परन्तु

‘आत्मा एव रिपुः आत्मनः’ यह आत्मा ही उस पुरुष की शत्रु भी है | परमतत्त्व परमात्मा का यह हृदयस्थ स्वरूप, हृदयस्थ विभूति आत्मा किस प्रकार मनुष्य की मित्र है और किस प्रकार मनुष्य से शत्रुवत व्यव्हार करती है, इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

‘बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य’ उस आत्मपरायण पुरुष की, साधक की परमतत्त्व परमात्मा की यह हृदयस्थ विभूति आत्मा बन्धु है, मित्र है | किसकी ?

‘येन आत्मा आत्मना जितः’ जिस आत्मपरायण पुरुष ने, साधक ने स्वयं को जीत लिया है अर्थात् जो साधक  योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार सांख्य बुद्धि के आश्रय होकर समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करता है  तथा समभाव, समबुद्धि से ही युक्त होकर हो निर्द्वन्द भाव से, नित्यसत्वस्थित भाव से, निर्योगक्षेम भाव से, निस्त्रैगुण्यो भाव से आत्मपरायण होकर योगाभ्यास करता है, ऐसा साधक हठी, बलवान और प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियों और मन के वेग को सहने में समर्थ हो जाता है, वह  इन्द्रियों, मन और बुद्धि का दास ना होकर उनका स्वामी हो जाता है, उस आत्मपरायण पुरुष का, साधक का परमतत्त्व परमात्मा का यह हृदयस्थ स्वरूप ‘आत्मा’ बन्धु है, मित्र है | क्योंकी अब वह साधक योगेश्वर के दिशा निर्देश को ज्ञात करता हुआ कर्मबन्धन से, आवागमन से मुक्त होने को, अपने स्वरूप की प्राप्ति को अग्रसर हो जाता है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि वह इससे बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं मानता | ऐसे साधक को ही योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिसने आत्म परायण होकर स्वयं को जित लिया है, आत्मा उसका बन्धु है, मित्र है |

‘अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत’ परन्तु जो आत्मपरायण नहीं है, योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु प्रयास नहीं करता अपितु भोगों में ही रमण करता है, वह स्वयं से ही शत्रुवत व्यवहार करता है | क्योंकी

‘आत्मा एव शत्रुवत्’ ऐसे पुरुष से परमतत्त्व परमात्मा की हृदयस्थ विभूति आत्मा ही उससे शत्रुवत व्यवहार करती है | वस्तुतः ना तो परमतत्त्व परमात्मा और ना ही उनकी विभूतियाँ किसी से भी शत्रुवत व्यवहार करती हैं, अपितु योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ‘पार्थ ! जो मुझको जैसे पूजते हैं, मैं उनको वैसे ही भजता हूँ, सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का का अनुसरण करते हैं | (४/११) अतः जो आत्मपरायण नहीं है, परमात्मा को विस्मृत किये हैं, संसार में भोगों में ही रमण करने वाले हैं, अन्य अन्य देवतओं को भजते हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण ही उनकी आस्था और श्रद्धा उन उन देवताओं में, स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति में स्थिर कर देते हैं, यही आत्मा का पुरुष से शत्रुवत व्यवहार है, ऐसा पुरुष अपने उत्थान को प्राप्त ना होकर, परमतत्त्व परमात्मा को ना पाकर, स्वर्ग को, संसार को, , आवागमन को, अधम योनियों को ही प्राप्त होता रहता है, आत्मा ही उसे जीवन मरण के चक्र में भरमाती रहती है, यही आत्मा की उस पुरुष से शत्रुता है |

तथा जैसा अभी हमने मनन किया, उसी को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हूँ अर्थात् मेरी यह आत्म विभूति ही मनुष्य की भविष्यता है | सारांशतः आकाश के किसी गढ्ढे में कोई चित्रगुप्त नामक देव आपके कर्मों का, पुण्यों का, पापों का हिसाब किताब नहीं रखता अपितु परमतत्त्व परमात्मा की यह हृदयस्थ विभूति ‘आत्मा’ ही जीवात्मा को भिन्न भिन्न योनियों में, आवागमन में, जन्म मरण के चक्र में भरमाती है और यह आत्मा ही आत्मपरायण साधक का दिशा निर्देश करती हुई उसे परमगति, परमधाम प्रदान करती है | यही ‘आत्मा’ की जीवात्मा से मित्रता और शत्रुता है | आत्मा के इसी गुण को आधार बनाकर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सर्वप्रथम गीता शास्त्र का बीजमंत्र रूपी उपदेश दिया था कि वेद तीन गुणों के कार्य का ही वर्णन करते है | अर्जुन ! तीनों गुणों से रहित हो जा, निर्द्वन्द, नित्यसत्त्वस्थित, निर्योगक्षेम और आत्मपरायण हो | (२/४५) अर्थात् वेदों का कार्यक्षेत्र तो तीनों गुणों से प्रभावित है, वह अनन्त योनियों में ही भरमाते हैं इसलिये अर्जुन तू सांख्यदर्शन अनुसार निस्त्रैगुण्यो, निर्द्वन्द, नित्यसत्त्वस्थित और निर्योगक्षेम भाव से जीवन निर्वाह करता हुआ तथा इन्ही भावों से युक्त होकर मेरी इस आत्म विभूति के परायण हो जा, आत्मपरायण हो जा, योगस्थ हो जा क्योंकी अपने उद्धार का यह आत्मपरायण होना ही एक मात्र साधन है | मनुष्य के उद्धार हेतु परमतत्त्व परमात्मा की केवल यही हृदयस्थ विभूति ‘आत्मा’ ही एकमात्र उपाय है |

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् |
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी || (१०/२१)

आदित्यानाम् अहम् विष्णुः ज्योतिषम् रविः अंशुमान् |
मरीचिः मरुताम् अस्मि नक्षत्राणाम् अहम् शशी || (१०/२१)

आदित्यानाम् (अदिति के बारह पुत्रों में ), अहम् (मैं), विष्णुः (विष्णु), ज्योतिषम् (ज्योतियों में), रविः (सूर्य), अंशुमान् (किरणोंवाला) | मरीचिः (मरीचि), मरुताम् (उनचास प्रकार की वायु में), अस्मि (हूँ), नक्षत्राणाम् (नक्षत्रों में), अहम् (मैं), शशी (चन्द्रमा) | (१०/२१)

आदित्यों में मैं विष्णु, ज्योतियों में किरणोंवाला सूर्य, मरुतों का तेज (और) मैं नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ | (१०/२१)

इस समस्त ब्रह्माण्ड का होना, सृष्टि का होना, इसकी उत्पति, स्थिति और प्रलय अर्थात् इसमें जो भी घटित होता है, परिवर्तित् होता है यह सब अराजकता नहीं है, यह सब स्वयं ही घटित नहीं हो जाता, इस सब का एक नियन्ता है और उस नियन्ता के विधान के अनुसार ही सब घटित होता है | नियमित रूप से दिन रात का होना, मौसम का परिवर्तन, नदियों का बहना, वर्षा होना, सुखा पड़ना, वनस्पति का होना, सभी उस नियन्ता के नियमों के अनुसार होता है परन्तु वह परमतत्त्व परमात्मा स्वयं कुछ भी नहीं करता अपितु जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में ही स्पष्ट कर आये हैं कि कौन्तेय ! मेरी अध्यक्षता में चर अचर सहित प्रकृति रचती है, इस कारण जगत परिवर्तित होता रहता है | (९/१०) मेरी अध्यक्षता में अर्थात् मेरी उपस्थिति मात्र से, सर्वत्र व्याप्त मेरे अध्यास से यह सब होता रहता है | परमतत्त्व परमात्मा की अध्यक्षता में, उनकी उपस्थिति मात्र में, सर्वत्र व्याप्त उनका अध्यास ही उनकी विभूतियाँ हैं | अर्जुन की जिज्ञासा के समाधान को योगेश्वर श्रीकृष्ण उन्हीं विभूतियों पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि अदिति के बारह पुत्रों में मैं विष्णु हूँ, ज्योतियों में किरणोंवाला सूर्य और मरुतों में अर्थात् वायु आदि का तेज मैं हूँ और नक्षत्रों में चन्द्रमा मैं हूँ |

प्रवृति विषयक शास्त्रों में अदिति कौन, अदिति के बारह पुत्र कौन, उन बारह पुत्रों में विष्णु कौन, विष्णु  पालनहार हैं, विष्णु सात्त्विक भाव और सात्त्विक गुणों के अधिपति हैं और विष्णु का वह ऐश्वर्य और सामर्थ्य क्या है, जिसके कारण योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि अदिति के बारह पुत्रों में मैं विष्णु हूँ | यह सभी प्रवृति विषयक ज्ञान है और हम निवृति विषयक गीता शास्त्र का अध्ययन कर रहे हैं, यहाँ यह सब योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन की जिज्ञासा के समाधान हेतु अपनी विभूतियों का वर्णन कर रहे हैं अन्यथा योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में ही कह आये हैं कि जिस काल में सुने हुए शास्त्रीय मतभेदों से विचलित तेरी बुद्धि जब निश्चला अर्थात् एकनिष्ठा को प्राप्त हो स्थिर हो जाएगी, तब समाधौ अर्थात् आत्मपरायण हो अचल रूप से योग को प्राप्त हो जाएगा | (२/५३) तात्पर्य यह कि निवृति हेतु तो योगेश्वर श्रीकृष्ण के अध्यात्म और योग शास्त्र विषयक उपदेश ही आत्मपरायण होने को परं के साधन हैं, परं वचन हैं और यहाँ भी अन्त में अपनी विभूतियों का वर्णन करने के पश्चात् योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि जो जो भी श्रीयुक्त, उर्जायुक्त और सत्त्वयुक्त विभूति है, वह तू मेरे तेज के अंश से संभव जान | (१०/४१) अथवा अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत सा जानने से क्या प्रयोजन, मैं एक अंशमात्र से इस जगत में व्याप्त होकर स्थित हूँ | (१०/४२) सारांश यह कि हम इन विभूतियों के अध्ययन हेतु, आवश्यक ना होने पर, विस्तार में ना जाकर केवल उतना ही जानेंगे जितना योगेश्वर श्रीकृष्ण कह रहे हैं |

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः |
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना || (१०/२२)

वेदानाम् साम वेदः अस्मि देवानाम् अस्मि वासवः |
इन्द्रियाणाम् मनः च अस्मि भूतानाम् अस्मि चेतना || (१०/२२)

वेदानाम् (वेदों में), साम (साम), वेदः (वेद), अस्मि (हूँ), देवानाम् (देवों में), अस्मि (हूँ), वासवः (इंद्र) | इन्द्रियाणाम् (इन्द्रियों में), मनः (मन), (और), अस्मि (हूँ), भूतानाम् (प्राणियों में), अस्मि (हूँ), चेतना (चेतना) | (१०/२२)

वेदों में सामवेद हूँ, देवतओं में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और प्राणियों में चेतना हूँ | (१०/२२)

वेदों की जिन ऋचाओं का गायन किया जाता है, उसका नाम सामवेद है और इंद्र रूप से परमतत्त्व परमात्मा की स्तुति सामवेद में की गयी है, परमतत्त्व को स्मृतिपटल पर बनाये रखने योग्य सामवेद को योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वेदों में सामवेद मैं हूँ | इंद्र का देवतओं का अधिपति होने के कारण योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस प्रकार इंद्र देवतओं का अधिपति है, मैं देवाधिदेव हूँ | परमात्मा की प्राप्ति को मन का निग्रह करके, जिसने मन को जित लिया, वह परमात्मा को भी पा जाता है, इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इन्द्रियों में मन मैं हूँ | अध्याय सात में अपनी जड़ और परा प्रकृति का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण स्पष्ट कह आये हैं कि अष्टधामूल जड़ प्रकृति से परे अन्य प्रकृति को मेरी ‘पराम्’ प्रकृति जानो, ‘पराम् अर्थात् जो परं, चेतन रूप है |  जिससे यह जीवरूपी जगत धारण किया जाता है | (७/५) तात्पर्य यह की समस्त प्राणी जिस कारण चेष्टा कर पाते हैं वह चेतना मैं हूँ |

रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् |
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् || (१०/२३)

रुद्राणाम् शङ्करः च अस्मि वित्त ईश यक्ष रक्षसाम् |
वसूनाम् पावकः च अस्मि मेरुः शिखरिणाम् अहम् || (१०/२३)

रुद्राणाम्(रुद्रों में), शङ्करः(शंकर), (और), अस्मि(हूँ), वित्त(कोषाध्यक्ष कुबेर), ईश(देवों का), यक्ष(यक्ष), रक्षसाम्(राक्षसों में) | वसूनाम्(वसुओं में), पावकः(अग्नि), (और), अस्मि(हूँ), मेरुः(सुमेरु), शिखरिणाम्(शिखरों में), अहम्(मैं) | (१०/२३)

रुद्रों में शंकर और देवों में कुबेर, यक्ष राक्षसों में हूँ और मैं वसुओं में अग्नि, शिखरों में सुमेरु हूँ | (१०/२३)    

त्र्यम्बक आदि ग्यारह रुद्रों में भगवान शंकर सबके अधिपति हैं, ‘शङ्क अरः सः शङ्करः’ समस्त शंकाओं से उपराम अवस्था को प्राप्त जीव ही शंकर है और योगेश्वर श्रीकृष्ण इस स्थिति को अपनी विभूति कहते हैं | देवयोनि एक भोग योनि है तथा समस्त भोगों और ऐश्वर्यों हेतु धन के स्वामी कुबेर को योगेश्वर अपनी विभूति कहते हैं, तात्पर्य यह कि कामनाओं के वश ही सही परन्तु जो सात्त्विक भाव से परमात्मा को पूजते हैं, वे ही स्वर्गादिक भोगों को पाते हैं अन्यथा पशु पक्षी आदि बहुत सी भोग योनियाँ अधोगति के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं | यक्ष राक्षसों में अर्थात् मूढ़ योनियों को प्राप्त राक्षसी स्वभाव के प्राणियों का अधिपति यक्ष भी मैं ही हूँ | प्रवृति विषयक कर्मकाण्डों में देवतओं तक यज्ञ की हवि पहुचानें वाले वसुओं में से पावक, पवित्र अग्नि को योगेश्वर यहाँ अपनी विभूति कहते हैं क्योंकी अग्नि के समान पवित्र करने वाला अन्य कुछ भी नहीं है | खनिज धातु के पर्वतों में, शिखरों में योगेश्वर श्रीकृष्ण पुराणों के अनुसार स्वर्ण और रत्नों के भण्डार ‘सुमेरु’ को अपनी विभूति बताते हैं | 

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् |
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः || (१०/२४)

पुरोधसाम् च मुख्यम् माम् विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् |
सेनानीनाम् अहम् स्कन्दः सरसाम् अस्मि सागरः || (१०/२४)

पुरोधसाम् (पुरोहितों में), (और), मुख्यम् (मुखिया), माम् (मुझको), विद्धि (जान), पार्थ (पार्थ), बृहस्पतिम् (बृहस्पति) | सेनानीनाम् (सेनापतियों में), अहम् (मैं), स्कन्दः (कार्तिकेय), सरसाम् (जलाशयों में), अस्मि(हूँ), सागरः(सागर) | (१०/२४)

और पार्थ ! पुरोहितोंमें मुखिया बृहस्पति मुझे जान, मैं सेनापतियों में कार्तिकेय, जलाशयों में सागर हूँ | (१०/२४) 

पुरोहितों में विद्या और बुद्धि में इंद्र के गुरु और देवतओं के कुलपुरोहित बृहस्पति श्रेष्ठ हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण उन्हें अपनी विभूति कहते हैं | भगवान शंकर के पुत्र, सेनाओं का नेतृत्त्व करने में श्रेष्ठ, देवतओं के सेनापति कार्तिकेय को योगेश्वर अपना ही रूप कहते हैं | समस्त जलाशयों और स्त्रोतों के जल को अपने में समाकर भी अपनी मर्यादा में रहने वाले और विष, अमृत तथा भोग हेतु मदिरा, मोती, रत्नों के भण्डार कहे जाने के कारण सागर को योगेश्वर अपनी विभूति कहते हैं |   

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः || (१०/२५)

महा ऋषीणाम् भृगुः अहम् गिराम् अस्मि एकम् एकम् अक्षरम् |
यज्ञानाम् जप यज्ञः अस्मि स्थावराणाम् हिमालयः || (१०/२५)

महा (महान), ऋषीणाम् (ऋषियों में), भृगुः (भृगु), अहम् (मैं), गिराम् (वाणी में), अस्मि (हूँ), एकम् (एक), अक्षरम्(अक्षर) | यज्ञानाम् (यज्ञों में), जप (जप), यज्ञः (यज्ञ), अस्मि (हूँ), स्थावराणाम् (स्थिरता में), हिमालयः (हिमालय) | (१०/२५)

महर्षियों में मैं भृगु, वाणी में एकाक्षर हूँ, यज्ञों में जपयज्ञ, स्थिरता में हिमालय हूँ | (१०/२५)

ब्रह्मर्षियों में भृगु श्रेष्ठ माने जाते हैं इसलिये महर्षियों में भृगु और वाणी में एकाक्षर अर्थात् ‘ओंकार’ मैं ही हूँ | समस्त यज्ञों में से प्राणायाम परायण होकर परं की प्राप्ति हेतु जो अंतर्मुखी यज्ञ किये जाते हैं, वे यज्ञ परमार्थ की प्राप्ति के कारक होने के कारण श्रेष्ठ हैं तथा इस प्रकार प्राणायाम परायण होने साथ परमात्मा के नाम का जप श्रेष्ठ माना जाता है जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निर्देश दिया है कि तू जप तो ‘ॐ’ का कर और स्मरण मेरा कर | इसीको योगेश्वर श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि यज्ञों में जपयज्ञ मैं हूँ, अर्थात् यह मेरी प्राप्ति का साधन है | स्थिरता में हिमालय प्रतिक माना जाता है, इसको योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्थिरता मैं हिमालय हूँ |

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः |
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः || (१०/२६)

अश्वत्थः सर्व वृक्षाणाम् देव ऋषीणाम् च नारदः |
गन्धर्वाणाम् चित्ररथः सिद्धानाम् कपिलः मुनि || (१०/२६)

अश्वत्थः (पीपल), सर्व (समस्त), वृक्षाणाम् (वृक्षों में), देव (देव), ऋषीणाम् (ऋषियों में), (और), नारदः (नारद) | गन्धर्वाणाम् (गन्धर्वों में), चित्ररथः (चित्ररथ), सिद्धानाम् (सिद्धों में), कपिलः (कपिल), मुनि (मुनि) | (१०/२६)

समस्त वृक्षों में पीपल और देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिल मुनि (हूँ) | (१०/२६)

पीपल वृक्ष प्राणवायु को शुद्ध करता है, आरोग्यवर्धक औषधियों का जनन करता है, परन्तु यह वृक्ष फल से वंचित होता है, इस वृक्ष की इसी विभूति को योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि समस्त वृक्षों में मैं पीपल हूँ | देवऋषियों में श्रेष्ठ होने के कारण नारद को अपना ही रूप कहते हैं | संगीत में महारथ को प्राप्त गन्धर्वों में चित्ररथ को अपना स्वरूप बताते हैं तथा देवहूति के पुत्र और अपने पूर्वज कपिल मुनि, जो जन्म से सिद्ध, परमभाव को प्राप्त, समस्त सिद्धों के गणाधीश माने जाते हैं और सांख्यदर्शन के आचार्य, ‘सांख्य’ जो गीता शास्त्र का भी आधार है उन कपिल मुनि को योगेश्वर श्रीकृष्ण अपना ही रूप कहते हैं |

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् |
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् || (१०/२७)

उच्चैःश्रवसम् अश्वानाम् विद्धि माम् अमृत उद्भवम् |
ऐरावतम् गजेन्द्राणाम् नराणाम् च नर अधिपम् || (१०/२७)

उच्चैःश्रवसम् (उच्चैःश्रवा), अश्वानाम् (घोड़ों में), विद्धि (जान), माम् (मुझको), अमृत (अमृत), उद्भवम् (उत्पन्न) | ऐरावतम् (ऐरावत),  गजेन्द्राणाम् (हाथियों में), नराणाम्(मनुष्यों में), (और), नर(मनुष्यों का), अधिपम्(स्वामी, राजा) | (१०/२७)

मुझको अमृत के साथ उत्पन्न घोड़ों में उच्चैःश्रवा, हाथियों में ऐरावत और मनुष्यों में राजा जान | (१०/२७)

समुन्द्रमंथन् में अमृत के साथ उत्पन्न घोड़े उच्चैश्रवा को, हाथियों में ऐरावत को और मनुष्यों में राजा को योगेश्वर श्रीकृष्ण अपनी विभूति कहते हैं |

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् |
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः || (१०/२८)

आयुधानाम् अहम् वज्रम् धेनूनाम् अस्मि कामधुक् |
प्रजनः च अस्मि कन्दर्पः सर्पाणाम् अस्मि वासुकिः || (१०/२८)

आयुधानाम् (शास्त्रों में), अहम् (मैं), वज्रम् (वज्र), धेनूनाम् (गौओं में), अस्मि (हूँ), कामधुक् (कामधेनु) | प्रजनः (प्रजनन हेतु), (और), अस्मि (हूँ), कन्दर्पः (कामदेव), सर्पाणाम् (सर्पों में), अस्मि (हूँ), वासुकिः (सर्पराज वासुकि) | (१०/२८)

आयुधों में मैं वज्र, गौओं में कामधेनु हूँ, प्रजनन हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में वासुकि हूँ | (१०/२८)

महान तपस्वी दधिची ऋषि की अस्थियों से बने वज्र नामक आयुध को योगेश्वर अपनी विभूति कहते हैं, नयी ब्याही हुई गाय को धेनु कहते हैं तथा कामनाओं के वश होकर किये गये समुन्द्रमंथन् से प्रगट होने तथा मनुष्यों और देवतओं की कामनाओं की पूर्ति करने के कारण इसे कामधेनु कहते हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि परमात्मा के प्रति समर्पित श्रद्धा और पुरुषार्थ से प्राप्त कामनाएं, कामधेनु मैं हूँ | वासनापूर्ति हेतु नहीं अपितु धर्मसम्मत प्रजजन हेतु कामदेव मैं हूँ | सर्पो के नाना प्रकार के भेदों में, सर्पराज वासुकि मैं हूँ |

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् |
पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् || (१०/२९)

अनन्तः च अस्मि नागानाम् वरुणः यादसाम् अहम् |
पितृणाम् अर्यमा च अस्मि यमः संयमताम् अहम् || (१०/२९)

अनन्तः (शेषनाग), (और), अस्मि (हूँ), नागानाम् (नागों में), वरुणः (जल देवता), यादसाम् (जलचरों में), अहम् (मैं) | पितृणाम् (पितरों में), अर्यमा (अर्यमा), (और), अस्मि (हूँ), यमः (यम), संयमताम् (संयमियों का), अहम् (मैं) | (१०/२९)

मैं नागों में शेषनाग हूँ और जलचरों में वरुण हूँ, पितरों में अर्यमा और संयमियों का यम हूँ | (१०/२९) 

नागों में राजा शेषनाग, जल जन्तुओं और जल स्त्रोतों का अधिपति देव वरुण तथा पितरों में मुख्य पितर अर्यमा मैं हूँ | परं की प्राप्ति को संयम अतिआवश्यक है तथा संयम की प्राप्ति को जो विधिविधान है, वह यम मैं हूँ |

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् |
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् || (१०/३०)

प्रह्लादः च अस्मि दैत्यानाम् कालः कलयताम् अहम् |
मृगाणाम् च मृगेन्द्रः अहम् वैनतेयः च पक्षिणाम् || (१०/३०)

प्रह्लादः (प्रह्लाद), (और), अस्मि (हूँ), दैत्यानाम् (दैत्यों में), कालः (काल), कलयताम् (गणनाओं में), अहम्(मैं) | मृगाणाम्(पशुओं में), (और), मृगेन्द्रः(मृगराज सिंह), अहम्(मैं), वैनतेयः(गरुड़), (और), पक्षिणाम्(पक्षियों में) | (१०/३०)

मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गणनाओं में काल हूँ और पशुओं में मैं सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ | (१०/३०)

अदिति की बहन दिति के पुत्र जो दैत्य कहलाते हैं, उनमें प्रह्लाद परमतत्त्व परमात्मा के अनन्य भक्त हैं, योगेश्वर उन्हें अपना ही रूप कहते हैं | गणना में काल हूँ अर्थात् मेरे परमधाम के अन्यत्र जितने भी ब्रह्मभुवन प्रयन्त लोक हैं, वे सभी मेरे अधीन ही हैं, मेरी एक उत्तम विभूति काल के अधीन हैं | काल परमात्मा की ही एक विभूति है | पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ मैं हूँ |

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् |
झषाणां मकरश्चास्मि स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी || (१०/३१)

पवनः पवताम् अस्मि रामः शस्त्र भृताम् अहम् |
झषाणाम् मकरः च अस्मि स्त्रोतसाम् अस्मि जाह्नवी || (१०/३१)

पवनः (वायु), पवताम् (पवित्र करनेवालों में), अस्मि (हूँ), रामः (राम), शस्त्र (शस्त्र), भृताम् (धारियों में), अहम् (मैं) | झषाणाम् (मछलियों में), मकरः (मकर), (और), अस्मि(हूँ), स्त्रोतसाम्(नदियों में), अस्मि(हूँ), जाह्नवी(गंगा) | (१०/३१)

मैं पवित्र करनेवालों में वायु, शस्त्रधारियों में राम हूँ और मछलियों में मगर हूँ, नदियों में गंगा हूँ | (१०/३१)

पवित्र करनेवालों में, श्वास और प्रश्वास के साथ योगपरायण साधकों के प्राणायाम परायण होने में प्राणवायु का जो कार्यक्षेत्र है, वह अतिउत्तम है, इसलिये योगेश्वर कहते हैं कि पवित्र करनेवालों में वायु मैं हूँ | शस्त्रधारियों में राम मैं हूँ, इस तथ्य पर हमने पूर्व में अध्याय चार में मनन किया है | अन्यथा भी ‘रमन्ते योगिनः यस्मिन् सः रामः’ राम अपने चरित्र के कारण पुरुषोत्तम रूप को प्राप्त हुए महापुरुष हैं, हृदयस्थ ईष्ट के रूप में योगियों को परं हेतु दिशा निर्देश देते हैं, इसलिये मैं ‘राम’ हूँ | मछलियों में मगर और नदियों में पवित्र गंगा हूँ |

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन |
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् || (१०/३२)

सर्गाणाम् आदिः अन्तः च मध्यम् च एव अहम् अर्जुन |
अध्यात्म विद्या विद्यानाम् वादः प्रवदताम् अहम् || (१०/३२)

सर्गाणाम्(सृष्टियों की), आदिः(उत्पत्ति), अन्तः(प्रलय), (और), मध्यम्(स्थिति), (और), एव(ही), अहम्(मैं), अर्जुन (अर्जुन)  अध्यात्म(अध्यात्म), विद्या(विद्या), विद्यानाम्(विद्याओं में), वादः(वाद), प्रवदताम्(परस्पर विवाद में), अहम्(मैं) |(१०/३२)

अर्जुन ! मैं ही सृष्टियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय, विद्याओं में अध्यात्मविद्या, विवाद में वाद (हूँ) | (१०/३२)  

सृष्टि का आदि कारण मैं हूँ, सृष्टि की स्थिति मैं हूँ और सृष्टि का प्रलय भी मैं ही हूँ तात्पर्य यह कि कभी सरस्वती नदी का उदगम हुआ था, वह मेरा ही कृत था, सरस्वती नदी मेरे कारण ही जल से परिपूर्ण थी और मेरे ही कारण अब सरस्वती नदी नहीं है, यह सब परिवर्तन मेरे ही अध्यास से होता है | विद्याओं में अध्यात्मविद्या अर्थात् जो विद्या मनुष्य के स्व-भाव का ज्ञान कराती है, मनुष्य के स्व-भाव का योगपरायण होकर रूपांतरण कराती है, परम-भाव की प्राप्ति कराती है, वह विद्या अर्थात् अध्यात्मविद्या मैं हूँ | परस्पर होने वाले विवादों में, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि शास्त्रीय मतभेदों से विचलित तेरी बुद्धि जब निश्चला अर्थात् निश्चयपूर्ण होकर स्थिर हो जाएगी, तब तु समाधौ अर्थात् समाधी को प्राप्त हो जायेगा, वह निश्चला बुद्धि अर्थात् ब्रह्मचर्चा का निर्णायक तथ्य, वह ‘वाद’ मैं हूँ, शेष निर्णय तो बनते बिगड़ते रहते हैं |

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च |
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः || (१०/३३)

अक्षराणाम् अकारः अस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च |
अहम् एव अक्षयः कालः धाता अहम् विश्वतः मुखः || (१०/३३)

अक्षराणाम् (अक्षरों में), अकारः (‘अ’ कार), अस्मि (हूँ), द्वन्द्वः (द्वन्द्व नामक समास), सामासिकस्य (समासों में), (और) | अहम् (मैं), एव (ही), अक्षयः (अक्षय), कालः (काल), धाता (विधाता), अहम् (मैं), विश्वतः (विश्व), मुखः (रूप) | (१०/३३)

अक्षरों में ‘अ’कार और समासों में द्वन्द्व हूँ, मैं ही अक्षय काल, मैं विश्वरूप विधाता (हूँ) | (१०/३३)

अक्षरों में ‘अ’कार अर्थात् ज्ञान की धारा मुझसे ही प्रवाहित होती है, समासों में द्वन्द्व समास, मैं ही अक्षय काल हूँ और विश्वरूप हूँ | विश्वरूप अर्थात् अव्यक्त, अचिन्त्य, अक्षर परं ब्रह्म के जितने भी रूप मनुष्यों द्वारा परमात्मा को सृष्टि का नियन्ता और विधाता मानकर पूज्यनीय हैं, वह सब मैं ही हूँ |

यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे काल तत्त्व पर मनन करते हैं, अभी पूर्व में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘कालः कलयताम् अहम्’ (१०/३०) अर्थात् गणना करने योग्य में मैं काल हूँ, और यहाँ कहते हैं कि ‘अहम् एव अक्षयः कालः’ अर्थात् मैं ही अक्षय काल हूँ | ‘मैं काल हूँ’ और ‘मैं ही अक्षय काल हूँ’ यह परमात्मा की योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कही गयी दो भिन्न और विलक्षण विभूतियाँ हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अध्याय आठ में ब्रह्मभुवन प्रयन्त समस्त लोकों को काल के अधीन बताया है और अपने परमधाम को काल के सापेक्ष से मुक्त कहा है, तात्पर्य यह कि ब्रह्मभुवन पर्यन्त समस्त लोक काल के अधीन है, उनमें काल के सापेक्ष से उत्पत्ति, परिवर्तन और प्रलय होता ही रहता, स्वर्गादिक आदि समस्त लोकों में आना जाना, आवागमन लगा ही रहता है, इस संसार के सापेक्ष में ब्रह्मभुवन का एक दिन होने को तो एक सहस्त्र युग के समान होता है परन्तु होता काल के अधीन ही है | जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘पुरातन काल अर्थात् कल्प के आदि में यज्ञों सहित प्रजा को रचकर प्रजापति ने कहा कि इन यज्ञों द्वारा समृद्धि को प्राप्त हो, यह तुम लोगों की  इष्टकामधुक अर्थात् ईष्ट संबंधी कामनाओं की पूर्ति करेगा | (३/१०) ‘कल्प के आदि में’ यहाँ दो तथ्य ध्यान देने योग्य हैं, प्रथम जिसका आदि है उसका अन्त भी होता है और आदि अन्त वाले समस्त कृत काल के अधीन होते हैं और ‘कल्प’ कहलाते हैं, दूसरा तथ्य यह कि आदि अन्त वाले होने से इस कल्प की अवधि में समस्त कृत परिवर्तनशील होते हैं और अन्त में नाश को ही प्राप्त होते हैं | अन्य शब्दों में भी नाश को प्राप्त होने को, सामान्य भाषा में कहते हैं कि इसका काल आ गया | यह तो हुआ योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कही उनकी एक विभूति ‘काल’ पर एक मनन | सारांशतः योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कही गयी यह विभूति ‘काल’ गणना करने योग्य है, और कल्प का काल के अनुसार आदि और अन्त भी होता है | और अब ‘अक्षय काल’

परमधाम के अन्यत्र सभी लोक काल के अधीन होते हैं, केवल परमधाम ही काल से मुक्त है, कालातीत है | जिसके
लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘परन्तु उस अव्यक्त से परे जो अन्य (विलक्षण) सनातन अव्यक्त भाव है, वह समस्त शरीरधारियों के अर्थात् समस्त लोकों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता | (८/२०) अव्यक्त परं (भाव) ब्रह्म इसे कहा गया है, उसे परमगति कहते हैं, जिसे प्राप्त करके वापस नहीं आते, वह मेरा परमधाम है | (८/२१) सारांशतः परमधाम परमात्मा की विभूति ‘काल’ से मुक्त है, इसलिये उसे इस काल से भिन्न और विलक्षण विभूति कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं ही अक्षय काल हूँ अर्थात् वह काल जिसका कभी क्षय नहीं होता, जहाँ कभी परिवर्तन नहीं होता, जहाँ उत्पत्ति और प्रलय नहीं होता केवल एक अक्षय स्थिति होती है, वह अक्षय काल मैं हूँ | तात्पर्य यह कि अगर अभी समय प्रातः काल का १०बजकर, १०मिनट और १०सेकंड है और योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने अपनी विभूति ‘अक्षय काल’ का प्रसार कर दें तो समय प्रातः काल का १०बजकर, १०मिनट और १०सेकंड ही रहेगा, सूर्य अपनी स्थिति में स्थिर रहेगा, नक्षत्र नहीं चलेंगे, सब कुछ जैसा है वैसा ही रहेगा, मेरे अनुभव में संसार एक चित्र के समान हो जायेगा, परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण जिस पर ‘अक्षय काल’ का प्रसार करेंगे, वह सब कृत्य करता रहेगा और काल स्थिर रहेगा | क्या आपने ऐसा ‘अक्षयकाल’ देखा है | नहीं ?

तब यह गीता शास्त्र किस काल में कहा गया ? गीता शास्त्र योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा ‘संभव’ और ‘सृजित’ अक्षयकाल  में कहा गया, जिस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में कहा है कि मैं संभव होता हूँ, स्वयं को सृजित करता हूँ, उसी प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपनी इस दिव्य विभूति को, ‘अक्षयकाल’ को भी संभव किया होगा, इसको सृजित किया होगा, जिस प्रकार अर्जुन को विराट रूप के दर्शन हेतु दिव्य दृष्टि प्रदान की थी, उसी प्रकार समस्त सृष्टि को अक्षयकाल के प्रभाव में लेकर, स्वयं को, अर्जुन और संजय को इससे मुक्त रखा होगा | अन्यथा गीता शास्त्र में श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद का, भाव भंगिमा सहित, संवाद को समझने हेतु आवश्यक समय का, योगेश्वर के विराट स्वरूप के दर्शन का यदि सक्षमरूप से नाट्यरूपांतरण किया जाये तो मेरे अनुभव में कम से कम दो तीन दिन का समय तो लग ही जायेगा | इतने समय शेष योद्धा और अठारह अक्षौहिणी सेना क्या करती रही, दुर्योधन और उसकी मित्र मंडली क्या करती रही ? अन्यथा भी ५२०० वर्षों से विद्वानों और गीता शास्त्र के टीकाकारों के वादविवाद का यह विषय यह काल, जिसे काल की गणना में हल करने का प्रयास हो रहा है, हल हो जाता |  

योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति गीता शास्त्र का उपदेश अक्षयकाल में हुआ, योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने योगसामर्थ्य से उस काल ‘अक्षयकाल’ का प्रसार किया और योगेश्वर श्रीकृष्ण, अर्जुन और संजय के अतिरिक्त सम्पूर्ण सृष्टि का एक क्षण भी ना बिता, सभी इस अक्षयकाल के प्रभाव से स्तंभित रहे, सम्मोहित रहे | मेरे अनुभव में अक्षय परं ब्रह्म ने अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अक्षयकाल का प्रसार कर उस अक्षयकाल में अक्षय अर्थात् सनातन धर्म हेतु, अक्षय अर्थात् सनातन अध्यात्मविद्या और योगशास्त्र का उपदेश जो उपदेश अर्जुन के प्रति कहा है, वह ही यह अक्षयरुप गीता शास्त्र है |
                                                                                                                                                                                                                                                                                         
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् |
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा || (१०/३४)

मृत्युः सर्व हरः च अहम् उद्भवः च भविष्यताम् |
कीर्तिः श्रीः वाक् च नारीणाम् स्मृतिः मेधा धृतिः क्षमा || (१०/३४)

मृत्युः (मृत्यु), सर्व (सबका), हरः (हरनेवाला), (और), अहम् (मैं), उद्भवः (भविष्यता), (और), भविष्यताम् (भविष्य की) | कीर्तिः (कीर्ति), श्रीः (श्री), वाक् (वाणी), (और), नारीणाम् (नारियों में), स्मृतिः (स्मृति), मेधा (बुद्धि), धृतिः (धृति), क्षमा (क्षमा) | (१०/३४)

मैं सबको हरनेवाली मृत्यु व भविष्य का उद्भव, नारी में कीर्ति, श्री, वाणी, स्मृति, मेधा और धृति हूँ | (१०/३४)

मृत्यु में हरण करने की ऐसी विलक्षण सामर्थ्य है कि इसके हरने के पश्चात् देही को देह से सम्बंधित कोई स्मृति भी नहीं रहती, मृत्यु की यह सामर्थ्य परमात्मा की ही एक विभूति है और भविष्य में पुनः जन्म की प्राप्ति के पश्चात् मृत्यु और जन्म के मध्य का काल भी विस्मृरण हो जाता है, यह भी परमात्मा की ही विभूति है | तथा कीर्ति, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा ये पाँच दक्षप्रजापति की कन्याएं हैं, ‘श्री’ महर्षि भृगु की और ‘वाक्’ ब्रह्मा की कन्या है, इन कन्याओं के गुणों से प्रसिद्ध ये संज्ञाओं को योगेश्वर अपना ही रूप कहते हैं |

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् |
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः || (१०/३५)

बृहत्साम तथा साम्नाम् गायत्री छन्दसाम् अहम् |
मासानाम् मार्गशीर्षः अहम् ऋतूनाम् कुसुम आकरः || (१०/३५)

बृहत्साम (बृहत्साम), तथा (तथा), साम्नाम् (सामवेद में), गायत्री (गायत्री), छन्दसाम् (छंदों में), अहम् (मैं) | मासानाम् (महीनों में), मार्गशीर्षः (मार्गशीर्ष), अहम् (मैं), ऋतूनाम् (ऋतुओं में), कुसुम आकरः (वसन्त ऋतु) | (१०/३५)

मैं सामवेद में बृहत्साम, छंदों में गायत्री तथा मैं महीनों में मार्गशीर्ष, ऋतुओं में वसन्त हूँ | (१०/३५)

पूर्व में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि वेदों में सामवेद मैं हूँ और यहाँ कहते हैं कि अगर सामवेद की ही बात करें तो सामवेद में गायन रूप से परमात्मा की गयी स्तुतियों में से बृहत्साम स्तुति मैं हूँ | इसी प्रकार समस्त छंदों में गायत्री छंद मैं हूँ क्योंकी गायत्री में स्वरूप, प्रार्थना और ध्यान तीनों का समावेश है तथा कृष्णकाल में मार्गशीर्ष माह में नवीन अन्न की उत्पत्ति का महोत्सव यज्ञरूप से किया जाता था और नया वर्ष इसी उपलक्ष्य में मार्गशीर्ष माह से आरम्भ होता था, इसीको योगेश्वर श्रीकृष्ण अपनी विभूति कहते हैं और अन्त में ऋतुओं के राजा को वसन्त को भी योगेश्वर अपना स्वरूप ही बताते हैं |

द्युतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् |
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् || (१०/३६)

द्युतम् छलयताम् अस्मि तेजः तेजस्विनाम् अहम् |
जयः अस्मि व्यवसायः अस्मि सत्त्वम् सत्त्ववताम् अहम् ||(१०/३६)

द्युतम् (जुआ), छलयताम् (छलनेवालों में), अस्मि (हूँ), तेजः (तेज), तेजस्विनाम् (तेजस्वियों का), अहम् (मैं) | जयः (जय), अस्मि(हूँ), व्यवसायः(व्यवसाय), अस्मि(हूँ), सत्त्वम्(सत्त्व), सत्त्ववताम्(सत्त्वयुक्त पुरूषों का), अहम्(मैं) | (१०/३६)

मैं छलनवालों में जुआ, तेजस्वियों का तेज हूँ, जय हूँ, व्यवसाय हूँ, मैं सत्त्वयुक्त पुरूषों का सत्त्व हूँ | (१०/३६)

जिस प्रकार जुए में छल जुए की जीत का प्रतिक है, उसी प्रकार यह माया बहुत ही ठगनी है, मोहित करती है, स्वर्गादिक भोगों की लालसा देती है, प्रकृतिजन्य भावों से उत्पन्न कामनाओं से मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है, मनुष्य को अपने पाश से बांधे रखती है परन्तु देती कुछ नहीं, जन्म मरण में ही भरमाती है, माया के इस जुए से जीतना हो तो माया से भी छल करना पड़ता है और वह छल है कि आप अन्य अन्य देवतओं को योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार कामनाओं और आसक्ति से रहित होकर, हृदयस्थ ईष्ट के रूप में अंतर्मुखी होकर भजे, साधना दिखावे का कृत्य नहीं है, विश्वामित्र जैसे साधक को भी इस माया ने तीन बार पटकी दी थी, इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जुए में छल की भाँति मेरा भजन भी दिखावे का नहीं अपितु छिपाव का, अंतर्मुखी साधन है और जो इस प्रकार मुझको भजता है उन तपस्वियों को तेज की, जो परिणाम में ब्रह्म तेज ही है, उसकी प्राप्ति होती है, यही जय है और यही वह व्यवसाय है जिसकी प्रस्तावना मैंने की थी कि इस प्रकार से अमृततत्त्व का अर्जन और संचय ही शुद्ध व्यवसाय है और यही सत्त्वपुरूषों का सत्त्व अर्थात् मैं हूँ |   

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः |
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः || (१०/३७)

वृष्णीनाम् वासुदेवः अस्मि पाण्डवानाम् धनञ्जयः |
मुनीनाम् अपि अहम् व्यासः कवीनाम् उशना कविः || (१०/३७)
वृष्णीनाम् (वृष्णियों में), वासुदेवः (वसुदेव), अस्मि (हूँ), पाण्डवानाम् (पाण्डवों में), धनञ्जयः (अर्जुन) | मुनीनाम् (मुनियों में), अपि (भी), अहम् (मैं), व्यासः (व्यास), कवीनाम् (कवियों में), उशना (शुक्राचार्य), कविः (कवि) | (१०/३७)

अर्जुन ! वृष्णियों में वासुदेव, पाण्डवों में अर्जुन हूँ, मुनियों में व्यास, कवियों में शुक्राचार्य भी मैं (हूँ) | (१०/३७)

वृष्णिवंश में जन्मा अर्थात् जिस देही ने वृष्णिवंश में वसुदेव पुत्र के रूप में जन्म लिया है, उस वासुदेव ने ही परं को प्राप्त किया है और इस वासुदेव नामक देह में वह परं अक्षय ब्रह्म मैं ही हूँ, पाण्डवों में परमात्मा का अनन्य भक्त अर्जुन मेरा ही रूप है, मुनियों में व्यास और कवियों में शुक्राचार्य भी मैं हूँ |

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् |
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् || (१०/३८)

दण्डः दमयताम् अस्मि नीतिः अस्मि जिगीषताम् |
मौनम् च एव अस्मि गुह्यानाम् ज्ञानम् ज्ञानवताम् अहम् || (१०/३८)

दण्डः (दण्ड), दमयताम् (दमन करनेवालों का), अस्मि (हूँ), नीतिः (निति), अस्मि (हूँ), जिगीषताम् (जय अभिलाषियों में) | मौनम् (मौन), (और), एव (ही), अस्मि (हूँ), गुह्यानाम् (गुप्त रखने योग्य भावों में), ज्ञानम् (ज्ञान), ज्ञानवताम् (ज्ञानवानों का), अहम् (मैं) | (१०/३८)
                                                                                                                                                                              
दमन करनेवालों का दण्ड, विजयाभिलाषीयों की निति हूँ और गोपनीय भावों में मौन और ज्ञानवानों का ज्ञान मैं ही हूँ | (१०/३८)

दुष्टों का दमन करने हेतु दण्ड अर्थात् इन्द्रियों और मन में वास करके मनुष्य को दुष्कृत्यों में लगानेवाले काम क्रोध हेतु तप रूपी दण्ड भी मैं ही हूँ, विजयाभिलाषी अर्थात् जो इन्द्रियों सहित मन को विजय करना चाहता है, उन विजयाभिलाषी की निति अर्थात् आचरण भी मैं ही हूँ, ब्रह्म आचरण मैं ही हूँ और परमात्मा से अनन्यभाव की, एकीभाव की प्राप्ति को समस्त गोपनीय प्रार्थनाओं हेतु मौन मैं ही हूँ तथा इस आचरण स्वरूप, आत्मपरायण साधक की जो प्राप्ति है, ज्ञानवानों का वह आत्म ज्ञान भी मैं ही हूँ |

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन |
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् || (१०/३९)

यत् च अपि सर्व भूतानाम् बीजम् तत् अहम् अर्जुन |
न तत् अस्ति विना यत् स्यात् मया भूतम् चर अचरम् || (१०/३९)

यत् (जो), (और), अपि (भी), सर्व (समस्त), भूतानाम् (भूतोंका), बीजम् (कारण हैं), तत् (वह), अहम् (मैं), अर्जुन (अर्जुन), | न (नहीं), तत् (वह), अस्ति (है), विना (रहित), यत् (जो), स्यात् (हो), मया (मुझसे), भूतम् (भुत), चर (चर), अचरम् (अचर) | (१०/३९)

और अर्जुन ! जो भी समस्त भूतों का कारण है, वह मैं हूँ, वह चराचर भुत नहीं है, जो मुझसे रहित हो | (१०/३९)

इस श्लोक से योगेश्वर श्रीकृष्ण की बदली हुई भाव भंगिमा का अनुभव होता है, योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि ‘ यत् च अपि’ अर्थात् जो भी मैंने कहा उसके अन्यत्र जो भी समस्त भूतों का कारण है, वह मैं हूँ, वह चर अर्थात् क्रियमाण, चेष्टामक, मेरी पराम प्रकृति से उत्पन्न कोई भी प्राणी और अचर अर्थात् मेरी अष्टधामूल प्रकृति में कोई भी भुत ऐसा नहीं है, जो मुझसे रहित हो | ‘दुष्कृतिनो’ की भी चेतना और जल का रस भी मैं ही हूँ | इसीको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि  

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप |
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया || (१०/४०)
न अन्तः अस्ति मम दिव्यानाम् विभूतीनाम् परन्तप |
एषः तु उद्देशतः प्रोक्तः विभूतेः विस्तरः मया || (१०/४०)

(नहीं), अन्तः (अन्त), अस्ति (है), मम (मेरी), दिव्यानाम् (दिव्य), विभूतीनाम् (विभूतियों का), परन्तप (परन्तप) | एषः (यह), तु (परन्तु), उद्देशतः (संक्षेप में), प्रोक्तः (कहा है), विभूतेः (विभूतियों का), विस्तरः (विस्तार), मया (मेरी) | (१०/४०)

परन्तप ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, परन्तु संक्षेप में मेरी विभूतियों का विस्तार कहा है | (१०/४०)

परन्तप तेरी जिज्ञासा के समाधान हेतु मैंने अपनी विभूतियों के विस्तार को संक्षेप में कहा है, परन्तु मेरी दिव्य विभूतियों के प्रसार का कोई अन्त नहीं है, चर अचर सहित कुछ भी तो नहीं है, जो मुझसे रहित हो |

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा |
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम् || (१०/४१)

यत् यत् विभूति मत् सत्त्वम् श्री मत् ऊर्जितम् एव वा |
तत् तत् एव अवगच्छ त्वम् मम् तेजः अंश सम्भवम् || (१०/४१)

यत्(जो), यत्(जो), विभूति(विभति), मत्(युक्त), सत्त्वम्(सत्त्व), श्री(श्री), मत्(युक्त), ऊर्जितम्(उर्जायुक्त), एव(ही), वा(और) | तत्(वह), तत्(वह), एव(ही), अवगच्छ(जान), त्वम्(तु), मम्(मेरे), तेजः(तेजके), अंश(अंशसे), सम्भवम्(सम्भव) | (१०/४१)

जो जो श्रीयुक्त, उर्जायुक्त और सत्त्वयुक्त ही विभूति है, वह वह ही तू मेरे तेज के अंश से संभव जान | (१०/४१)

जो जो श्रीयुक्त, उर्जायुक्त और सत्त्वयुक्त विभूति है अर्थात् इस ब्रह्माण्ड को भलीभाँति प्रवृत होने में मुझ नियन्ता की, मेरी अध्यक्षता में, मेरे होने मात्र से, मेरे अध्यास से ये समस्त विभूतियाँ मेरे विधिविधान के अनुसार ही जगत को प्रवृत करती हैं | वह वह विभूति अर्थात् सूर्य, चन्द्र की भाँति वह वह समस्त विभूतियाँ मेरे तेज के एक अंश से ही संभव जान | तात्पर्य यह कि यह समस्त विभूतियाँ तो मेरे एक अंश मात्र से संभव है, तु अपने उत्थान को इन विभुतिओं के, इन दैवीमाया के अन्य अन्य देवताओं के, सूर्य के, चन्द्र के, पीपल के, इंद्र के परायण ना होकर मेरे परायण हो जा और मैं तेरे हृदयदेश में आत्मविभूति के रूप में स्थित हूँ |  

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन |
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् || (१०/४२)

अथवा बहुना एतेन किम् ज्ञातेन तव अर्जुन |
विष्टभ्य अहम् इदम् कृत्स्नम् एक अंशेन स्थितः जगत् || (१०/४२)

अथवा(अथवा), बहुना(बहुत सा), एतेन(इस प्रकार), किम्(क्या), ज्ञातेन(जाननेसे), तव(तेरा), अर्जुन(अर्जुन) | विष्टभ्य(व्याप्त होकर), अहम्(मैं), इदम्(इस), कृत्स्नम्(सम्पूर्ण), एक(एक), अंशेन(अंशमात्र से), स्थितः(स्थित हूँ), जगत्(जगत में)| (१०/४२)

अथवा अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत सा जानने से क्या (प्रयोजन), मैं एक अंशमात्र से इस जगत में व्याप्त होकर स्थित हूँ | (१०/४२)

अथवा अर्जुन तुम्हें इस प्रकार बहुत सा जानने से क्या प्रयोजन ? इन विभूतियों को तो प्रवृति विषयक धर्म के ज्ञाताजन भजते हैं, तु मेरे उपदेशानुसार मुझको भज क्योंकी मैं एक अंशमात्र से इस जगत में व्याप्त होकर स्थित हूँ और यह विभूतियाँ तो केवल मेरे अध्यास से कार्यरत हैं | सारांशतः भजन तो एक हृदयस्थ ईष्ट का ही करना चाहिये |

अन्तिम तीन श्लोकों की अगर पुनरावृति करें तो एक तथ्य सपष्ट रूप से उभर के सामने आता है, परमात्मा के समग्र रूप का ज्ञान, परमात्मा की विभूतियों का ज्ञान परमतत्त्व परमात्मा में श्रद्धा और आस्था को बल देता है, परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण का अर्जुन को यह कहना कि तुम्हें इस प्रकार बहुत सा जानने से क्या प्रयोजन ? इस तथ्य को भी स्पष्ट करता है कि यह सब ज्ञान ‘वासुदेव सर्वम्’ भाव की प्राप्ति को ही कहा गया है, परन्तु ठगनी माया के पाश से भी बचना आवश्यक है, कहीं ऐसा ना हो कि यह माया परमात्मा की इन विभूतियों की प्राप्ति में, इन विभूतियों को ही पूजने में, रिद्धि सिद्धियों में ही लगा दे और आप परमार्थ मार्ग से च्युत हो जाएँ, इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट कह देते हैं कि इस प्रकार बहुत सा जानने से तेरा क्या प्रयोजन ? तु तो मेरे कहे अनुसार मुझको भज क्योंकी मैं एक अंशमात्र से इस जगत में व्याप्त होकर स्थित हूँ और यह समस्त विभूतियाँ तो केवल मेरे अध्यास से कार्यरत हैं तथा जो मुझे प्राप्त कर लेता है, उसको यह समस्त विभूतियाँ स्वतः ही प्राप्त हो जाती हैं |    

इस प्रकार दशम् अध्याय का समापन होता है |













***** ॐ तत् सत् *****