Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

अध्याय ३

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** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
तृतीयोऽध्यायः 
परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशीत गीता शास्त्र में श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद का स्वरूप, अध्याय दो के ग्यारहवें श्लोक से अध्यात्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक है | इस संवाद में श्रीकृष्ण अर्जुन के मोह का, शोक का, सनातन धर्म के प्रति उसके अज्ञान का समाधान करते हुए, उसकी अन्य जिज्ञासाओं का भी निवारण करते हैं तथा जीवन निर्वाह हेतु क्या आचरण उचित है, क्या अनुचित है, इस विषय पर भी प्रकाश डालते हैं | महापुरुषों की, मुनियों की, स्थितप्रज्ञ पुरूषों की रहनी कहते हुए, कछुआ और समुद्र आदि उदाहरणों से अपना मंतव्य भी स्पष्ट करते हैं | इस प्रकार उपदेश देते हुए, योगेश्वर श्रीकृष्ण परमार्थ हेतु, श्रेय, मुक्ति, मोक्ष हेतु अर्जुन को जीवन निर्वाह तथा योग परायण होने को आवश्यक दिशानिर्देश भी देते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के प्रति कहे इन उपदेशों में से वे महावाक्य रूपी उपदेश जो जीवन निर्वाह करते हुए अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता हेतु तथा योग के आचरण स्वरूप परमतत्त्व की प्राप्ति हेतु, एक विधिविशेष का वर्णन करते हैं, वही कृष्णयोग है | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा पूर्व अध्याय में अर्जुन के प्रति कहे इस विधिविशेष का, कृष्णयोग का सार रूप से एक मनन करने के पश्चात् इस अध्याय में अध्ययन हेतु प्रवेश करेंगे |

सर्वप्रथम योगेश्वर श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु अधिकारी पुरुष की योग्यताओं का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कौन्तेय ! शीत-उष्ण और सुख-दुःख देनेवाले इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग-वियोग तो आने-जाने वाले, अनित्य हैं | भारत उनको सहन करो | (२/१४) इससे लाभ ? तो प्रभु कहते हैं क्योंकी सुख-दुःख में समभाव से रहनेवाले जिस धीर पुरुष को यह व्यथित, व्याकुल नहीं करते, वह अमृततत्त्व की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१५) अर्थात् कृष्णयोग को अंगीकार करने का अधिकारी हो जाता है | इस प्रकार समभाव से जीवन निर्वाह करने से अमृततत्त्व की प्राप्ति का प्रमाण ? इसका प्रमाण देते हुए प्रभु कहते कि इस तथ्य के सत्य और असत्य का प्रमाण, अमृततत्त्व का पान करनेवाले तत्त्वदर्शी महापुरुष स्वयं ही हैं और उन तत्त्वदर्शी महापुरुषों के अनुसार असत्य का तो भाव अर्थात् सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्य का अभाव विद्यमान नहीं है | (२/१६) इस प्रकार सत्य और असत्य तत्त्व को परिभाषित कर, प्रभु स्पष्ट करते हैं कि अविनाशी, सनातन, अप्रमेय, नित्य स्वरूप सत्य तत्त्व तो यह देही है और इस देही की यह देह अन्त को, नाश को प्राप्त होने के कारण असत्य तत्त्व है | (२/१८) इस देह-देही के भेद को स्पष्ट करते हुए, परमात्मा श्रीकृष्ण अर्जुन को इस अव्यक्त, अचिन्त्य और निर्विकार देही के गुणधर्म कहते हैं कि यह देही अजन्मा, नित्य, सनातन, पुरातन, अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य स्वरूप है तथा जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर नवीन वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार यह देही जीर्ण देह को त्याग नवीन देह को प्राप्त करता है | (२/१९-२५) और भरतवंशी अर्जुन क्योंकी सब असत्यरूप देहों में यह नित्य, अवध्य देही ही सत्यरूप से स्थित है तथा असत्यरूप देह और इस देह के संबंध भी निश्चित रूप से असत्य ही होते हैं, अतः देह और देह के संबंधो का मोह अथवा शोक नहीं करना चाहिए | (२/३०) इस प्रकार देह-देही के बोध से युक्त, समभाव से जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है | 
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                              
इसके पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग की अद्वितीयता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु जीवन में स्वधर्म से उपराम होने को, कर्तव्य कर्मों के त्याग को, अर्जुन के संदर्भ में भिक्षान्न की याचना को अर्थात् सांसारिक कारणों से लिये सन्यास को, संसार से पलायन को प्रभु पाप का आचरण कहते हैं | (२/३३) यही इस कृष्णयोग की अद्वितीयता है कि इसे अंगीकार करने को कोई विधिविशेष नहीं है, संसार का त्याग, गृहस्थी का त्याग आवश्यक नहीं है | अपितु श्रीकृष्ण के अनुसार दुसरे के धर्म से, अर्जुन के संदर्भ में भिक्षान्न की याचना से, स्वधर्म में मरण भी कल्याणकारी है, स्वर्ग का खुला द्वार है | (२/३७) इसलिये अर्जुन को कहते हैं कि जय-पराजय में, लाभ-हानि में, सुख-दुःख में मन और बुद्धि को सम करके अर्थात् समभाव से युक्त होकर युद्ध में अर्थात् स्वधर्म अनुसार कर्तव्य कर्म में लग जा, इस प्रकार पाप को प्राप्त नहीं होगा | (२/३८) तात्पर्य यह कि समभाव से, समबुद्धि से युक्त होकर सवधर्म के अनुसार जीवन निर्वाह करता हुआ मनुष्य पाप को, कर्मबंधन को प्राप्त नहीं होता अपितु अमृततत्त्व अर्थात् परमार्थ मार्ग हेतु, परमगति, परमधाम हेतु कृष्णयोग को अंगीकार करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है |

इस प्रकार कृष्णयोग को अंगीकार करने हेतु अधिकारी पद की योग्यता का वर्णन करके, योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्णयोग की प्रस्तावना रखते हैं | योगेश्वर के अनुसार जिस बुद्धि से युक्त होकर मनुष्य अमृततत्त्व का अधिकारी बनता है, जिसे अभी पूर्व में परमात्मा ने सांख्य दृष्टि से कहा है, उसी बुद्धि से युक्त होकर कृष्णयोग परायण होने से मनुष्य कर्म बंधन का सर्वथा नाश कर सकेगा | (२/३९) अर्थात् परमपद को, परमधाम को प्राप्त कर सकेगा | यहाँ पूर्व में जो धीर पुरुष का, इन्द्रियों और सांसारिक विषयों के संयोग-वियोग में, समभाव से रहनी का वर्णन है, तत्त्वदर्शी महापुरुषों द्वारा कही सत्य-असत्य की परिभाषा, देह-देही का भेद और समबुद्धि से स्वधर्म अनुसार कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए जीवन निर्वाह हेतु परमात्मा ने जो उपदेश दिये हैं, वह सब सांख्य-दर्शन के अनुसार कहा है | सांख्य दर्शन अर्थात् अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् (१३/११) अर्थात् अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्व ज्ञान के अनुरूप सर्वत्र परमात्मा तत्व के दर्शन का बौद्धिक ज्ञान | कर्मबंधन के नाश हेतु कृष्णयोग की प्रस्तावन करके, योगेश्वर श्रीकृष्ण इस कृष्णयोग के क्रियात्मक अथवा चेष्टात्मक पहलुओं को ना कहकर, समभाव से, समबुद्धि से युक्त हो कृष्णयोग परायण होने को ही धर्म कहते हुए हैं तथा इस धर्म की विषेशताओं पर प्रकाश डालते हैं कि इस धर्म के आचरण में प्रयत्न के आरम्भ का नाश नहीं होता, कोई विपरीत दोष भी विद्यमान नहीं है तथा इस धर्म का थोड़ा सा भी साधन महान भय से रक्षा करता है | (२/४०) महान भय अर्थात् संसार बंधन और संसार बंधन के कारणों जैसे काम, क्रोध, मोह, मत्सर आदि से रक्षा करता है | तथा इस योग में व्यावसायिक अर्थात् अविनाशी अमृततत्त्व का अर्जन और संचय करने वाली निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है | (२/४१) क्योंकी निश्चयपूर्वक एक ही परमतत्त्व के प्रति समर्पित होती है | इसके पश्चात् वेद इत्यादि प्रवृति विषयक, बंधनकारी काम्यकर्मों में प्रवृत हुए मनुष्यों द्वारा नाशवान और बंधनकारी फल की प्राप्ति का विधान बताते हुए, प्रभु अर्जुन को कृष्ण योग परायण होने हेतु स्पष्ट दिशा-निर्देश देते हुए गीता शास्त्र का बीजमंत्र रूपी महावाक्य कहते हैं, कि वेद तीन गुणों के बंधनकारी कर्म और नाशवान फल का ही वर्णन करते हैं | अतः अर्जुन ! तू तीनों गुणों से रहित होकर, निर्द्वन्द, नित्यसत्वस्थित, निर्योगक्षेम भाव से आत्मपरायण हो जा | (२/४५)
     
गीता शास्त्र के इस बीजमंत्र रूपी महावाक्य का परमात्मा श्रीकृष्ण स्पष्टीकरण भी करते हैं | निस्त्रैगुन्यो भव अर्जुन से परमात्मा श्रीकृष्ण अर्जुन को सन्देश देते हैं कि तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, कर्मफल में कभी नहीं | तू कर्मफल का हेतु कभी ना हो तथा कर्म ना करने में आसक्ति भी ना हो | (२/४७) निर्द्वन्द भाव को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि धनंजय ! योगयुक्त हो कर्मों के प्रति आसक्ति का त्याग करके, सफलता-असफलता में सम होकर कर्म करो | समत्व भाव ही योग कहलाता है | (२/४८) निर्योगक्षेम भाव से जो प्राप्ति है, उसके विषय में कहते हैं कि समबुद्धि से युक्त मुनिजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल का त्याग करके, जन्मबंधन से मुक्त होकर, निर्विकार परमपद को प्राप्त होते हैं | (२/५१) नित्यसत्त्वस्थित किस प्रकार रहा जाता है, इस पर कहते हैं कि जिस काल में तेरी बुद्धि संसार मोहरूपी दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी, तब सुनने योग्य को सुन सकेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त कर सकेगा | (२/५२) तथा अन्त में आत्मपरायण होने को कहते हैं कि जिस काल में सुने हुए शास्त्रीय मतभेदों से विचलित तेरी बुद्धि निश्चला अर्थात् एक निष्ठा को प्राप्त कर स्थिर हो जाएगी, तब तू समाधौ अर्थात् आत्मपरायण हो अचल रूप से योग को प्राप्त हो जायेगा | (२/५३)

इस प्रकार कृष्णयोग के आधारभूत स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रभु अन्त में कहते हैं कि जो पुरुष सम्पूर्ण सांसारिक कामनाओं का त्याग करके, स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित योग परायण हुआ जीवन निर्वाह करता है, वह परमशान्ति को प्राप्त होता है | (२/७१) और पार्थ ! यह परमशान्ति की अवस्था ही, ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थित्ति है, इसको प्राप्त करके पुरुष फिर कभी मोहित नहीं होता तथा इसमें स्थित हुआ पुरुष अन्तकाल में भी ब्रह्म निर्वाण को, परमधाम को  प्राप्त होता है | (२/७२)

इस प्रकार गीता शास्त्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे कृष्णयोग सम्बंधित महावाक्यों का संकलन और पुनरावृति रूप से मनन करके, अब आइये इस तृतीय अध्याय में प्रभु के उपदेशों का अध्ययन-मनन हेतु प्रवेश करते हैं |
     
अर्जुन उवाच :

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन |
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव || (३/१)
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे |
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् || (३/२)

ज्यायसी चेत् कर्मणः ते मता बुद्धिः जनार्दन |
तत् किम् कर्मणि घोरे माम् नियोजयसि केशव || (३/१)
व्यामिश्रेण एव वाक्येन बुद्धिम् मोहयसि एव मे |
तत् एकम् वद निश्चित्य येन श्रेयः अहम् आप्नुयाम् || (३/२)

ज्यायसी(श्रेष्ठ),  चेत्(यदि, अगर),  कर्मणः(कर्म से),  ते(आपको),  मता(मान्य),  बुद्धिः(बुद्धि),  जनार्दन(जनार्दन) | तत्(तब), किम्(क्यों),  कर्मणि(कर्म में),  घोरे(घोर, भयंकर),  माम्(मुझे),  नियोजयसि(नियुक्त करते  हैं),  केशव(केशव) | (३/१)
व्यामिश्रेण(मिश्रित हुए),  एव(ही, से),  वाक्येन(वाक्यों से),  बुद्धिम्(बुद्धि को),  मोहयसि(मोहित करते हो),  एव(ही),  मे(मेरी)  | तत्(उस),  एकम्(एक को),  वद(कहिये),  निश्चित्य(निश्चय करके),  येन(जिससे),  श्रेयः(परम कल्याण को),  अहम्(मैं),  आप्नुयाम्(प्राप्त हो जाऊं) | (३/२)

जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ मान्य है, तब केशव ! मुझे घोर कर्मों में क्यों नियुक्त करते हो ? (३/१)
इन मिले हुए वाक्यों से मेरी बुद्धि मोहित ही करते हैं, उस एक को निश्चित करके कहिये, जिससे मैं परम कल्याण को प्राप्त हो जाऊं | (३/२)

परमात्मा श्रीकृष्ण ने प्रवृति विषयक शास्त्रों जैसे वेद इत्यादि में कहे काम्य कर्मों को तथा फल हेतु करे गये कर्मों को अवरं कर्म कह कर अर्जुन को मुख्य रूप से निस्त्रैगुण्यो भव का उपदेश दिया तथा निर्द्वन्द, नित्यसत्त्वस्थित और निर्योगक्षेम भाव से आत्म परायण होने को कहा, परन्तु जय पराजय में, लाभ हानि में, सुख दुःख में समभाव, समबुद्धि से युक्त हो जीवन निर्वाह को भी कहा | अर्जुन के संदर्भ में जीवन निर्वाह हेतु, अर्जुन को सर्वप्रथम उसी युद्ध में प्रवृत होना था जिससे वह निवृत होना चाहता था | इसलिये अर्जुन श्रीकृष्ण अर्थात् जनों पर दया करने वाले जनार्दन को, अपने प्रति भी दया भाव रखने हेतु कहता है कि यदि आपको कर्म की अपेक्षा अर्थात् युद्ध स्वरूप जो राज्य और राज्य भोग प्राप्त होंगे, उनकी अपेक्षा समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर इन्द्रियों और विषयों के अनित्य संयोग-वियोग के प्रति वैराग्य भाव से रहना श्रेष्ठ मान्य है, तब केशव मुझे घोर कर्मों में क्यों नियुक्त करते हो, मुझे युद्ध में प्रवृत होने को क्यों कहते हो ?

वस्तुतः अर्जुन समभाव से, समबुद्धि से युक्त होकर कर्मों में प्रवृत होने को, समत्वं योग उच्यते भाव को, योगः कर्मसु कौशलम् भाव को आत्मसात नहीं कर पाया था, कि इस प्रकार मनुष्य पाप को अर्थात् कर्मबंधन को प्राप्त नहीं होता,  समभाव से जीवन निर्वाह ही पुरुष को अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी बनाता है, ना कि जीवन से पलायन करने वाले पुरूषों को | अन्यथा भी कर्म घोर अथवा सौम्य भी तभी तक होते हैं, जब तक पुरुष माया की सत्ता के अधीन होता है, तीन गुणों से भावित हो काम्य कर्मों में प्रवृत होता है | निस्त्रैगुण्यो भाव से, समभाव, समबुद्धि से युक्त पुरुष द्वारा जीवन निर्वाह हेतु किये गए कर्म, घोर अथवा सौम्य नहीं होते अपितु स्वधर्म अनुसार जीवन निर्वाह हेतु कर्तव्य कर्म होते हैं तथा मुक्ति हेतु इस प्रकार जीवन निर्वाह करते हुए योग युक्त रहनी ही कृष्णयोग है |

कृष्णयोग के प्रति इस भ्रम से मोहित अर्जुन श्रीकृष्ण को कहता है कि आप इन मिले हुए से वाक्यों से मेरी बुद्धि को मोहित ही करते हैं, कृपया उस एक बात को निश्चित करके कहिये, जिससे मैं परम कल्याण को प्राप्त हो सकूँ | इधर परमात्मा श्रीकृष्ण उसके कल्याण हेतु एक ही सरल और सुगम परमार्थ मार्ग का ही उपदेश दे रहे थे, परन्तु हम सभी की तरह अर्जुन भी भ्रमित होता है, कि प्रभु उसे दो भिन्न और विलक्षण मार्गो के बारे में कह रहे हैं | यही भ्रम लगभग सभी व्याख्याकारों को होता है, वे भी अर्जुन द्वारा प्रथम श्लोक में कही बुद्धि को, ज्ञान कह कर, ऐसा समझते हैं और समझाते भी हैं कि अगर आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो मुझे घोर कर्मों में क्यों लगाते हो ? इन व्याख्याकारों की अव्यवसायिक बुद्धि और उनका पूर्वज्ञान श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित कृष्णयोग में भी दो मार्गों को अर्थात् कर्मयोग और ज्ञानयोग को स्थापित कर देता है | जबकि श्रीकृष्ण ने कोई पूर्व प्रचलित ज्ञान अथवा योग अर्जुन के प्रति नहीं कहा है,  अन्यथा भी क्या बुद्धि और ज्ञान एक ही हैं ? एक अनपड़, गंवार भी जीवन के प्रति परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित समभाव, समबुद्धि से भावित हो सकता है और यह भी संभव है कि समस्त शास्त्रों के ज्ञान का ज्ञाता भी समभाव से, समबुद्धि से भावित न हो, कृष्णयोग का अधिकारी ना हो | तब अर्जुन द्वारा श्लोक में बुद्धि से इंगित भाव को ज्ञान कहना कहाँ तक उचित है ? और इस प्रकार गीता शास्त्र की व्याख्या कर साधकों को भ्रमित करना भी कहाँ तक उचित है ? ज्ञान और बूढी के इस भेद को भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने (३/२५,२६,२९) में स्पष्ट करा है | इस पर आप भी चिंतन-मनन करें |  कृष्णयोग के प्रति अर्जुन के भ्रम के स्पष्टीकरण हेतु प्रभु कहते हैं | कि

श्री भगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविद्या निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ |
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् || (३/३)

लोके अस्मिन् द्वि-विद्या निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया अनद्य |
ज्ञान योगेन साङ्ख्यानाम् कर्म योगेन योगिनम् || (३/३)

लोके(लोक में),  अस्मिन्(इस),  द्वि-विद्या(दो प्रकार से विद्या),  निष्ठा(श्रद्धा, आस्था),  पुरा(पूर्व में),  प्रोक्ता(कहा गया),  मया(मेरे द्वारा),  अनद्य(निष्पाप)  | ज्ञान(बौद्धिक ज्ञान),  योगेन(युक्त होकर),  साङ्ख्यानाम्(सांख्य दर्शीयों की),  कर्म(कर्म),  योगेन(युक्त होकर),  योगिनाम्(योगी की)  | (३/३)

निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की विद्या निष्ठा अनुसार मेरे द्वारा पर्व में कही गई हैं, बौद्धिक ज्ञान से युक्त सांख्य- दर्शियों की निष्ठा (और) कर्म से युक्त योगियों की निष्ठा का ज्ञान | (३/३)

अर्जुन कौन था ? अर्जुन भरतवंशी परिवार का सदस्य, कुंती और देवराज इंद्र की संतान, कृपाचार्य एवं द्रोणाचार्य का शिष्य, पितामह भीष्म अर्थात् आठवें वसु का पौत्र, धर्मराज युधिष्ठिर का अनुज, संगीतकार गन्धर्व चित्रसेन का शिष्य, उर्वशी एवं मेनका को मातृवत् देखने वाला, किरात रूप में उपस्थित शिव से युद्ध के उपरान्त, उनका साक्षात्कार कर, उनसे पशुपात अस्त्र और शिव एवं शक्ति के आशीर्वाद से युक्त, श्रीकृष्ण और उद्धव का सखा था | क्या इस अर्जुन को तथाकथित ज्ञानयोग, भक्तियोग अथवा कर्मयोग का ज्ञान नहीं रहा होगा ? अन्यथा भी क्या योगेश्वर श्रीकृष्ण किसी पूर्व प्रचलित ज्ञान का ही उपदेश अर्जुन को कह रहे थे ? या ऐसा तो नहीं कि प्रभु अर्जुन को केवल ज्ञान अथवा कर्म या भक्ति मार्ग ना कहकर, सभी मार्गों का उपदेश दे रहे थे, कि अपनी इच्छा अनुसार, अपनी निष्ठा अनुसार वह कोई भी मार्ग चुनकर कल्याण को प्राप्त हो सके ? वस्तुतः ऐसा कुछ भी नहीं था, परमात्मा श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रत्ति कोई पूर्व प्रचलित परमार्थ मार्ग की व्याख्या नहीं करी थी | अपितु उसे एक सरल एवं सुगम कृष्णयोग कहा, जिसमे सांख्य दृष्टि से बौद्धिक ज्ञान, योग से युक्त हो यज्ञार्थात कर्म करने का उपदेश तथा एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति अनन्य भक्ति भाव से समर्पण का समवेश है |

युद्ध के स्वरूप को देख अधर्म के, पाप के आश्रय से मुक्त रहने को तथा परमकल्याण हेतु प्रयत्नशील अर्जुन को संबोधित करते हुए परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं  कि निष्पाप अर्जुन ! इस लोक में, देही को यह देह ही लोक है, अतः इस देही के कल्याण हेतु दो प्रकार की विद्या निष्ठा अनुसार अर्थात् पुरुष की निष्ठा, श्रद्धा, उसकी आस्था अनुसार दो प्रकार की विद्या अर्थात् दो प्रकार से बौद्धिक ज्ञान मेरे द्वारा पूर्व में कहा गया है | पूर्व में अर्थात् किसी पुरातन काल में नहीं अपितु अभी तेरे कल्याण के लिये कृष्णयोग हेतु कहा गया है | जिसमें सांख्ययोगियों की निष्ठा का ज्ञान अर्थात् समत्वं योग उच्यते का भाव सांख्य दृष्टि से तथा योगः कर्मसु कौशलम् का भाव कर्मयोगियों की दृष्टि से कहा गया है | तथा यह दोनों ज्ञान का समावेश मैंने तेरे लिये सरल एवं सुगम कृष्णयोग हेतु करा है | क्योंकी   

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते |
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति || (३/४)

न कर्मणाम् अनारम्भात् नैष्कर्म्यम् पुरुषः अश्नुते |
 न च संन्यसनात् एव सिद्धिम् समधिगच्छति || (३/४)

(नहीं),  कर्मणाम्(कर्मों का),  अनारम्भात्(आरम्भ किये बिना),  नैष्कर्म्यम्(नैष्कर्म्य को),  पुरुषः(पुरुष),  अश्नुते(प्राप्त करता है) | न (नहीं), (और),  संन्यसनात्(संन्यास से), एव(ही),  सिद्धिम्(सिद्धि को),  समधिगच्छति(प्राप्त होता है) | (३/४) 

पुरुष कर्मों का आरम्भ किये बिना नैष्कर्म्य को प्राप्त नहीं करता है और ना ही संन्यास से सिद्धि को प्राप्त होता है | (३/४)

नैष्कर्म्य अर्थात् वह अवस्था जब पुरुष जीवन निर्वाह हेतु कर्मों में तो प्रवृत होता है, परन्तु वह कर्म कोई फल उत्पन्न नहीं कर पाते, बंधनकारी नहीं होते | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि पुरुष कर्मों का आरम्भ किये बिना अर्थात् कृष्णयोग का आचरण किये बिना नैष्कर्म्य को प्राप्त नहीं करता है और ना ही संन्यास से सिद्धि को प्राप्त होता है | संन्यास क्या है ? संन्यास अर्थात् ज्ञान मार्ग के साधक जो साङ्ख्य निष्ठा प्राप्त होते हैं, जिनके लिये प्रभु ने पूर्व श्लोक में कहा है कि ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां  तात्पर्य यह कि जो अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् (१३/११) अर्थात् अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति, अध्यात्मज्ञान से युक्त और तत्त्व ज्ञान के अनुरूप सर्वत्र परमात्मा तत्व के दर्शन का बौद्धिक ज्ञान के अनुयायी होते हैं | परन्तु परमात्मा श्रीकृष्ण के अनुसार को भी पुरुष संन्यास से सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है | परमात्मा श्रीकृष्ण का यह कथन थोड़ा जटिल अवश्य है, परन्तु कृष्णायोग को समझने हेतु प्रभु का यह कथन बहुत ही उपयोगी है |

योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कोई भी पुरुष संन्यास मार्ग से सिद्धि को प्राप्त नहीं होता अर्थात् केवल सांख्य दर्शन अनुसार तत्त्व ज्ञान के अनुरूप सर्वत्र परमात्मा तत्त्व के विद्यमान होने का बौद्धिक ज्ञान मुक्ति का साधन नहीं है | योग मुक्ति का साधन है, परन्तु कर्मों का आरम्भ किये बिना नैष्कर्म्य को प्राप्त नहीं होता | तात्पर्य यह कि केवल योग का आचरण भी मुक्ति का साधन नहीं है अपितु

सांख्य दृष्टि से समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर स्वधर्म के अनुसार कर्तव्य कर्म करते हुए, जीवन निर्वाह करते हुए, पहले अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त करना आवश्यक है उसके पश्चात् कृष्णायोग की प्रस्तावना के अनुसार इस सांख्य बुद्धि से युक्त हो अर्थात् निस्त्रैगुण्यो, निर्द्वन्द, नित्यसत्त्वस्थित और निर्योगक्षेम भाव से आत्मपरायण होना आवश्यक है | इसीको परमात्मा श्रीकृष्ण ने पूर्व श्लोक में कहा था कि इस लोक में अर्थात् इस देही के कल्याण हेतु कृष्णायोग की प्रस्तावना कर इस योग को आवश्यक दोनों निष्ठाएं अर्थात् ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां और कर्मयोगेन योगिनाम् को पूर्व मे अर्थात् द्वितीय अध्याय में मैंने कहा है | इसी तथ्य को पूर्व अध्याय में प्रभु अन्य शब्दों में भी कह आए हैं, जिसमें सांख्ययोगियों की निष्ठा का ज्ञान अर्थात् समत्वं योग उच्यते का भाव सांख्य दृष्टि से तथा योगः कर्मसु कौशलम् का भाव कर्मयोगियों की दृष्टि से कहा गया है | तथा इन दोनों का समावेश मैंने तेरे लिये सरल एवं सुगम कृष्णयोग हेतु करा है | इसीको स्पष्ट करते हुए प्रभु अब अगले दो श्लोकों में सांख्य दृष्टि से कहे ज्ञान की आवश्यकता तथा योग की अनिवार्यता को कहते हैं |    

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः || (३/५)
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते || (३/६)
                                                                                                                                                                                              
न हि कश्चित् क्षणम् अपि जातु तिष्ठति अकर्म कृत् |
कार्यते हि अवशः कर्म सर्वः प्रकृति जैः गुणैः || (३/५)
कर्म इन्द्रियाणि संयम्य यः आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रिय अर्थान् विमूढ आत्मा मिथ्या आचारः सः उच्यते || (३/६)

 न(नहीं),  हि(क्योंकी),  कश्चित्(कोई भी),  क्षणम्(क्षण मात्र भी),  अपि(भी),  जातु(किसी भी अवस्था में),  तिष्ठति(रहता),  अकर्म (कर्म के बिना),  कृत्(करे) | कार्यते(बाध्य होता है),  हि(क्योंकी),  अवशः(परवश हुआ),  कर्म(कर्म को), सर्वः(सभी),  प्रकृति (प्रकृति),  जैः(जन्य),  गुणैः(गुणों द्वारा)  | (३/५)
कर्म(कर्म),  इन्द्रियाणि(इन्द्रियोंको),  संयम्य(वश में करके),  यः(जो),  आस्ते(रहता है),  मनसा(मन से),  स्मरन्(चिंतन-मनन) | इन्द्रिय(इन्द्रिय),  अर्थान्(विषयोंका),  विमूढ(मूढ़-बुद्धि),  आत्मा(मनुष्य),  मिथ्या(मिथ्या),  आचारः(आचरण),  सः(वह),  उच्यते (कहा जाता है)  | (३/६)

क्योंकी कोई भी, क्षण मात्र भी, किसी भी अवस्था में कर्म किये बिना नहीं रह सकता, क्योंकी सभी प्रकृतिजन्य गुणों के द्वारा परवश हुए कर्म (करने) को बाध्य होते हैं | (३/५)
जो कर्मेन्द्रियों को वश में कर करके, इन्द्रियों के विषयों के चिंतन मनन में रहता है, वह मूढ़बुद्धि मनुष्य मिथ्या आचरण वाला कहा जाता है | (३/६)
         
पूर्व श्लोक में परमात्मा श्रीकृष्ण सिद्धांत रूप से एक व्यक्तव्य देते हैं कि कोई भी, क्षणमात्र भी, किसी भी अवस्था में कर्म किये बिना नहीं रह सकता, क्योंकी सभी मनुष्य प्रकृतिजन्य गुणों के द्वारा परवश हुए कर्म करने को बाध्य होते हैं | तब तो इस सिद्धांत के अनुसार मुक्ति असंभव है, क्योंकी परवश हुए पुरुष को कैसी मुक्ति ? प्रकृति के इसी सिद्धांत से पार पाने के लिये परमात्मा श्रीकृष्ण सांख्य दृष्टि से जीवन निर्वाह का समावेश कृष्णायोग में करते हैं | सांख्य बुद्धि अर्थात् समभाव, समबुद्धि से युक्त पुरुष को अमृत तत्त्व की प्राप्ति की योग्यता हेतु कही बुद्धि (२/१४,१५) तथा पाप को भी प्राप्त नहीं होता | (२/३८) इन दोनों कथनों का एक ही अर्थ है कि समभाव, समबुद्धि से युक्त पुरुष के कर्म फल हेतु नहीं होते अतः बंधनकारी भी नहीं होते, ऐसा पुरुष मुक्ति का अधिकारी होता है |

तत्पश्चात कहते हैं कि जो कर्मेन्द्रियों को वश में करके, इन्द्रियों के विषयों के चिंतन-मनन में रहता है, वह मूढ़बुद्धि मिथ्या आचरण वाला कहा जाता है | क्योंकी परमात्मा श्रीकृष्ण के अनुसार ही (२/५९) योग में प्रवृत हुए बिना, प्रभु के साक्षात्कार किये बिना विषय निवृत नहीं होते | तात्पर्य यह कि सांख्य दृष्टि के अनुसार आप कर्मेन्द्रियों को तो वश में कर लोगे, परन्तु विषयों के प्रति राग-रस तो योग के आचरण से ही निवृत होता है | परन्तु योग का आचरण समबुद्धि से जीवन निर्वाह करने वाले का ही सिद्ध होता है | अतः परमात्मा श्रीकृष्ण ने सांख्य और योग दोनों का समावेश कृष्णायोग में करा है | कृष्णायोग के स्वरूप को स्फटिक मणि की भांति स्पष्ट करते हुए प्रभु कहते हैं | कि    

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन |
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते || (३/७)

यः तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन |
कर्म इन्दियै कर्म योगम् असक्तः सः विशिष्यते || (३/७)

यः(जो),  तु(परन्तु),  इन्द्रियाणि(इन्द्रियोंको),  मनसा(मन से),  नियम्य(अपने वश में करके), आरभते(आचरण करता है),  अर्जुन (अर्जुन)  | कर्म(कर्म),  इन्दियै(इन्द्रियों से),  कर्म(कर्म),  योगम्(योग का),  असक्तः(अनासक्त भाव से),  सः(वह),  विशिष्यते(विशिष्ठ है) | (३/७)

परन्तु अर्जुन ! जो मन से इन्द्रियों को अपने वश में करके, अनासक्त भाव से कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म करता हुआ योग का आचरण करता है, वही विशिष्ठ है | (३/७)

जो मनसा अर्थात् केवल मन से नहीं अपितु सम्पूर्ण अन्तकरण द्वारा अर्थात् मन और बुद्धि से समस्त इन्द्रियों को अपने वश में करके, समबुद्धि से युक्त हुआ, अनासक्त भाव से, निस्त्रैगुण्यो, निर्योगक्षेम भाव से कर्मेन्द्रियों द्वारा स्वधर्म के अनुसार कर्त्तव्य कर्म करता हुआ जीवन निर्वाह करता है तथा  योग का आचरण करता है, वह विशिष्ठ है | विशिष्ठ अर्थात् वही कृष्णायोग का ज्ञाता है, ना कि ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा भक्तियोग में से प्रभु किसे श्रेष्ठ कहते हैं ? इस प्रकार शास्त्रीय मतभेदों से विचलित बुद्धि वाला पुरुष | शास्त्रीय मतभेदों से विचलित बुद्धि वाले समस्त व्याख्याकार इस श्लोक के उत्तरार्ध का वाक्यार्थ कुछ इस प्रकार करते हैं | कर्म इन्दियै कर्म योगम् असक्तः सः विशिष्यते || अर्थात् अनासक्त भाव से कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है | यहाँ ध्यान देने योग्य है, कि कर्मेन्द्रियों (अर्थात् वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा) द्वारा तो कर्म करा जाता है, इनसे किस प्रकार आप योग का आचरण करेंगे ? योग अर्थात् योगासन नहीं अपितु आत्मपरायण हो हृदयस्थ ईष्ट से एकीभाव | ना जाने ये व्याख्याकार कर्मेन्द्रियों द्वारा किस प्रकार हृदयस्थ ईष्ट के परायण होते हैं ? तथा इस प्रकार से कृष्णायोग की व्याख्या करके यह गीता शास्त्र के साधकों को क्यों भ्रमित करते हैं ? साधक इसका चिंतन मनन अवश्य करें | इस प्रकार अर्जुन की जिज्ञासा का समाधान करके, परमात्मा श्रीकृष्ण अब पुनः कृष्णायोग के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए को अर्जुन को कहते हैं | कि

नियतं कुरु कर्म त्वं ज्यायो ह्यकर्मणः |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः || (३/८)

नियतम् कुरु कर्म त्वम् कर्म ज्यायः हि अकर्मणः |
शरीर यात्रा च अपि न प्रसिद्धयेत् अकर्मणः || (३/८)

नियतम् (विधि विशेष से नियत), कुरु(करो), कर्म(कर्म), त्वम्(तुम), कर्म(कर्म ), ज्यायः(श्रेष्ठ), हि(क्योंकी), अकर्मणः(कर्म न करने से) | शरीर(शरीर), यात्रा(यात्रा),(और), अपि(भी), (नहीं), प्रसिद्धयेत्(सिद्ध होगा), अकर्मणः(कर्म न करने से) | (३/८)

तुम नियतं अर्थात् विधिविशेष से निर्धारित होकर कर्म करो क्योंकी कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से शरीर यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी | (३/८)

यहाँ दो तीन तथ्य गहन मनन को प्रस्तुत हैं | पहला कि परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा है कि तुम विधिविशेष से निर्धारित होकर कर्मों को करो, ना कि विधिविशेष से निर्धारित कर्मों को करो | ध्यान दें कि परमात्मा श्रीकृष्ण कहरहे हैं कि तुम विधिविशेष से निर्धारित होकर अर्थात् जैसा प्रभु का दिशा निर्देश है, समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर, नित्यसत्त्वस्थित होकर, निर्योगक्षेम भाव से भावित होकर कर्मों को करो, ना कि जैसा गीता शास्त्र के व्याख्याकार कहते हैं कि प्रभु ने कुछ कर्म निर्धारित करें हैं कि आप उन कर्मों को करो | योगेश्वर के प्रवचन को ध्यान से समझें, योगेश्वर ने कहा है कि नियतं कुरु अर्थात् विधिविशेष से निर्धारित होकर, उसके अनुसार करो, कर्म त्वं तुम कर्मों को, ना कि नियतं कर्म विधिविशेष से निर्धारित कर्मों को, कुरु त्वं तुम करो | यहाँ इस तथ्य का स्पष्ट होना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा गीता शास्त्र का सार ही नष्ट भ्रष्ट हो जाता है | गीताकार ने कोई संप्रदाय अथवा कोई मठ बना कर, उस संप्रदाय के प्रति किन्ही निर्धारित कर्मों के, कर्म कांडों के विधान को नहीं कहा है अपितु गीताकार ने गीता शास्त्र में कर्मों को करने के कौशल को कहा है, योगः कर्मसु कौशलम्  तथा कर्मों को करने के भाव को कहा है कि समत्वं योग उच्यते | सारांशतः परमात्मा श्रीकृष्ण का दिशा निर्देश है कि तुम समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर, नित्यसत्त्वस्थित होकर, निर्योगक्षेम भाव से, निस्त्रैगुण्यो भाव से कर्मों को करो | क्योंकी कर्म ना करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है | इस तथ्य को भी प्रभु पहले स्पष्ट रूप से कह आएं हैं कि कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता तथा जो हठपूर्वक कर्मेन्द्रियों को रोककर इन्द्रियों से भोगों का मनन करता है, वह मिथ्याचारी, पाखंडी है | (३/५,६) अतः कर्मों में तो प्रवृत होना ही पड़ता है, तो क्यों ना कल्याण हेतु परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा कहे विधिविशेष से निर्धारित होकर,उनके अनुसार कर्मों को करें | योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस कथन से स्पष्ट संकेत है कि इस प्रकार विधिविशेष से निर्धारित होकर आप जो भी कर्म करेंगे, वह समस्त कर्म श्रेय हेतु, कल्याण हेतु ही होंगे, क्योंकी इन भावों से भावित पुरुष अवरं कर्म में प्रवृत ही नहीं हो सकता | 

दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य, जिसे प्रभु यहाँ स्पष्ट करते हैं कि कर्म न करने से तेरी शरीर यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी | शरीर यात्रा ! वस्तुतः गीता शास्त्र अन्य वेदौक्त्त शास्त्रों की भाँति प्रवृति विषयक शास्त्र नहीं है, यह देह के प्रति नहीं अपितु देही के प्रति कहा गया शास्त्र है | देही का इस माया के बंधन से निवृति हेतु कहा गया, निवृति विषयक शास्त्र है और यह देही इस देह के बंधन में कर क्या रहा है ? यह देही इस देह में काम्य कर्मों को, कर्मफलों को भोगने हेतु शरीरों की यात्राएँ भर ही तो कर रहा है | परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म न करने से तेरी जीवन यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी, जीवन यात्रा सिद्ध तब होती है, जब यात्रा का अन्त होता है, यात्री अन्तिम यात्रा करता हुआ अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है अर्थात् परमगति करता हुआ, परमधाम को प्राप्त होता है | देही को यह देह इस यात्रा को आवश्यक है परन्तु इस देह की भोगों में आसक्ति ही देही को बंधन स्वरूप हैं | इस देह के जीवन निर्वाह और देही की जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु ही परमात्मा श्रीकृष्ण ने अध्यात्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक गीता शास्त्र का उपदेश अर्जुन के माध्यम से साधकों के प्रति कहा है | जैसे पृथ्वी से दूर जाने को अंतरीक्ष यान को एक निश्चित से अधिक गति से उड़ना पड़ता है ताकि वह पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण से पार हो सके, उसी तरह परमगति हेतु, माया के गुणों से पार होने को मनुष्य को एक सम गति से, समभाव से, समबुद्धि से जीवन निर्वाह कारण पड़ता है, अन्यथा यह माया इस देह के अंतरीक्ष यान का, इस देही का पिण्ड नहीं छोड़ती, मुक्ति नहीं होती तथा पहले जीते जी इस देह की मुक्ति का ही विधान है, फिर उसके बाद मोक्ष है | परमात्मा श्रीकृष्ण ने नियतं कुरु कर्म त्वं, तक माया से इस परमगति हेतु, इस देहरूपी पिण्ड के जीवन निर्वाह को आवश्यक सभी दिशानिर्देश कह दिये हैं | साधक को केवल इतना ध्यान रखना है, कि परमात्मा श्रीकृष्ण के सभी उपदेश इस अव्यक्त, अचिंत्य और निर्विकार देही को संबोधित करते हुए कहें हैं, देह को नहीं | जीवन निर्वाह को आवश्यक दिशानिर्देश कह अब परमात्मा श्रीकृष्ण जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु अर्जुन को उपदेश देते हैं | आइये जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु, परमधाम, मोक्ष हेतु परमात्मा के वचनों का अध्ययन मनन करें |

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर || (३/९)

यज्ञ अर्थात् कर्मणः अन्यत्र लोकः अयम् कर्म बन्धनः |
तत् अर्थम् कर्म कौन्तेय मुक्त सङ्ग समाचर || (३/९)

यज्ञ(यज्ञ), अर्थात्(के निमित्त), कर्मणः(कर्मों से), अन्यत्र(अन्यत्र), लोकः(लोक का), अयम्(यह), कर्म(कर्म), बन्धनः(बंधन है) | तत्(उस), अर्थम्(के लिये),  कर्म(कर्म),  कौन्तेय(कुन्तीपुत्र), मुक्त(रहित), सङ्ग(आसक्ति), समाचर(आचरण कर)  | (३/९)

यज्ञ के निमित्त कर्मों से अन्यत्र (समस्त) कर्म इस लोक का बंधन है, कौन्तेय ! उस यज्ञ के लिये कर्मों का, आसक्तिरहित होकर, भलीभाँति आचरण कर | (३/९)

जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु यज्ञ के निमित्त कर्मों से अन्यत्र समस्त कर्म इस लोक अर्थात् इस देह का बंधन है | इस श्लोक से पूर्व परमात्मा श्रीकृष्ण ने इस देही को जीवन निर्वाह हेतु कर्मों को करने के विधिविशेष का वर्णन करा और अब इस देही को जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु आवश्यक कर्मों की प्रस्तावना करते हुए कहते हैं कि आसक्तिरहित होकर, यज्ञार्थात कर्मों का आचरण करना चाहिये, इन यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों के अन्यत्र दुसरे सभी कर्म इस देह के बंधन हैं | तात्पर्य यह कि परमात्मा श्रीकृष्ण अब जिन यज्ञार्थात कर्मों की प्रस्तावना करते हैं, उनका आसक्तिरहित होकर भलीभाँति आचरण करना, इस देही को, जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु अनिवार्य है | यहाँ ध्यान देने योग्य है कि इससे पूर्व जीवन निर्वाह को परमात्मा श्रीकृष्ण ने कर्मों को करने हेतु एक विधिविशेष का उपदेश दिया था और अब जीवन यात्रा की सिद्दी हेतु यज्ञों का अर्थात् योग का आसक्तिरहित अर्थात् उसी विधिविशेष से युक्त होकर योग का भलीभाँति आचरण करने का उपदेश दे रहें हैं और यही प्रस्तावना परमात्मा श्रीकृष्ण ने पूर्व में करी थी कि पार्थ ! यह सब तुम्हारे लिये सांख्य बुद्धि से कहा गया है परन्तु इसको (बुद्धि को) योग के विषय में (भी) सुनो | पार्थ ! जिस बुद्धि से (योग) युक्त होकर कर्मबन्धन का सर्वथा नाश कर सकेगा | (२/३९) अर्थात् जिस बुद्धि से युक्त होकर इस श्लोक से पूर्व तक परमात्मा श्रीकृष्ण ने जीवन निर्वाह का उपदेश दिया है जिससे तू पाप को प्राप्त नहीं होगा, उसी बुद्धि से युक्त होकर योगेश्वर श्रीकृष्ण अब योग के, यज्ञार्थात कर्मों के आचरण का उपदेश दे रहे हैं, जिससे युक्त होकर कर्मबंधन का सर्वथा नाश हो सकेगा अर्थात् जीवन यात्रा सिद्ध हो सकेगी |

इस यज्ञ का, कृष्णायोग का विस्तृत स्वरूप योगेश्वर श्रीकृष्ण अगले अध्याय में स्पष्ट करेगें | इस अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण बताते हैं कि इन यज्ञों का आधार क्या है, यह यज्ञ आए कहाँ से, प्रवेशिका श्रेणी के साधकों हेतु यज्ञ का स्वरूप क्या है तथा परमार्थ हेतु इन यज्ञों की क्या अनिवार्यता है ?

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः |
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् || (३/१०)

सह यज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरा उवाच प्रजापतिः |
अनेन प्रसविष्यध्वम् एषः वः अस्तु इष्ट काम धुक् || (३/१०)

सह(के साथ), यज्ञाः(यज्ञों), प्रजाः(प्रजा), सृष्ट्वा(रचकर), पुरा(पुरातन), उवाच(कहा), प्रजापतिः(प्रजा के स्वामी ने) | अनेन(इससे) प्रसविष्यध्वम्(अधिक समृद्ध हो), एषः(यह),  वः(तुमको), अस्तु(हो),  इष्ट(इच्छित), काम(कामना),  धुक्(प्रदाता)  | (३/१०)

पुरातन काल में यज्ञों सहित प्रजा को रचकर प्रजापति ने कहा कि इन यज्ञों द्वारा समृद्धि को प्राप्त हो, यह तुम लोगों की  इष्टकामधुक अर्थात् ईष्ट संबंधी कामनाओं की पूर्ति करेगा | (३/१०)

पुरातन काल में अर्थात् सदा से ही, पुरातन काल से ही परमार्थ हेतु यही विधिविधान है, जिसे प्रजापति ने कहा, प्रजापति अर्थात् परमार्थ मार्ग हेतु लगे साधकों के मार्गदर्शक महापुरुष, जिन्होंने जीवन यात्रा को सिद्ध  कर लिया है तथा जिसके लिये परमात्मा श्रीकृष्ण ने पूर्व में में कहा था कि यह परमशान्ति, परंब्रह्म को, परमभाव को प्राप्त पुरुष की स्थिति है |(२/७१,७२) उन महापुरुषों ने प्रजा को रचकर अर्थात् जैसा परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं कि (४/१३) चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः अर्थात् चार वर्णों की रचना मनुष्य के गुणों के अनुसार कर्म को चार भागों में विभाजित करके मैंने की | इस प्रकार प्रजा को विभागपूर्वक रचकर, प्रत्येक विभाग की प्रजा के कल्याण हेतु, परमार्थ हेतु यज्ञार्थात कर्मों का विधान प्रजापति ने पुरातन काल से ही कर रखा है | अपने वर्ण के अनुसार परमार्थ हेतु, इन यज्ञार्थात कर्मों का आचरण करते हुए समृद्धि को अर्थात् परमार्थ मार्ग में उर्ध्वमुखी उत्थान को प्राप्त हो, यह यज्ञार्थात कर्म तुम लोगों की इष्टकामधुक अर्थात् ईष्ट सम्बन्धी, परमार्थ सम्बन्धी कामनाओं की पूर्ति करेगा | परमार्थ हेतु यज्ञ के, कृष्णायोग के आधार को स्पष्ट करके, अब योगेश्वर श्रीकृष्ण साधकों के प्रति प्रवेशिका श्रेणी के यज्ञ का स्वरूप बताते हैं |

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः |
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ || (३/११)

देवान् भावयत अनेन ते देवा भावयन्तु वः |
परस्परम् भावयन्तः श्रेयः परम् अवाप्स्यथ || (३/११)

देवान्(देवतओं को), भावयत(उन्नत करो), अनेन(इस यज्ञ के द्वारा), ते(वे), देवा(देवगण), भावयन्तु(उन्नत करेंगे), वः(तुमको) | परस्परम्(आपस में),  भावयन्तः(उन्नत करते हुए),  श्रेयः(कल्याण), परम्(परम), अवाप्स्यथ(प्राप्त करोगे)  | (३/११)

इस यज्ञ के द्वारा तुम देवतओं को उन्नत करो, वे देवगण तुमको उन्नत करें, परस्पर उन्नत करते हुए श्रेय को प्राप्त करोगे | (३/११)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यह व्यक्तव्य सिद्धांत रूप से कहा कि यही इस कृष्णायोग को अंगीकार करने का विधिविधान है कि पहले इस यज्ञ के द्वारा तुम देवतओं को उन्नत करो | यह देवता कौन हैं ? दैवी संपदा के अधिकारी ही देवता हैं जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि दैवी सम्पत् विमोक्षाय निबन्धाय आसुरी मता (१६/५) अर्थात् दैवी सम्पदा (गुण) तो मुक्ति के लिये हैं और आसुरी बंधन हेतु | अतः जिस यज्ञ से, गुणों से, मनुष्य के जिन भावों से मुक्ति संभव है, वह तो दैवी सम्पदा है और इसके विपरीत जो आवागमन में, बंधन में हेतु है, वह आसुरी सम्पदा है | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सिद्धांत रूप से साधकों को यह कहा है कि जिन देवी-देवतओं का पूजन आप लोग कामनाओं के लिये, भोगों के लिये करते रहे हो, परमार्थ हेतु उनका पूजन निष्काम भाव से, आसक्ति और कामनाओं से रहित होकर, इष्टकामधुक भाव से अर्थात् ईष्ट के प्रति, परमार्थ मार्ग में उर्ध्वमुखी उत्थान के लिये करो, दैवी गुणों के, अमृततत्त्व के अर्जन और संचय के लिये करो | इस प्रकार यज्ञ के द्वारा देवतओं को, देवी गुणों को उन्नत करने से, यह दैवी सम्पदा, दैवी गुण तुम्हारा उर्ध्वमुखी उत्थान करेंगे और परस्पर उन्नत होते हुए तुम श्रेय को अर्थात् परमकल्याण को प्राप्त करोगे | योगेश्वर श्रीकृष्ण का यह बहुत ही गहन मनोविज्ञानिक व्यक्तव्य है, कि प्रवेशिका श्रेणी के साधक जिन देवी-देवतओं को कामना और आसक्ति से भोगों हेतु जन्म जन्मान्तरों से पूजते रहे हैं, उन्हें पहले अन्य किसी यज्ञ के लिये ना कहकर, उन्ही देवी-देवतओं को निष्काम भाव से, उस बुद्धि से युक्त होकर पूजने को कहते हैं, जिसकी प्रस्तावना योगेश्वर ने पूर्व इस कृष्णायोग हेतु करी थी कि इस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्म बंधन का नाश कर सकेगा | यज्ञ वही, पूजन उन्ही देवी-देवतओं का परन्तु दुसरे भाव से, अब भोगों के लिये नहीं अपितु देवी सम्पदा के, दैवी गुणों के, अमृततत्त्व के अर्जन और संचय के लिये करो और यही कृष्णायोग का आधारभूत तत्त्व है कि योग परायण मनुष्य के स्वभाव का रूपांतरण कराकर, उसे परमभाव की प्राप्ति कराना | मनुष्य के स्वभाव के रूपांतरण हेतु प्रवेशिका श्रेणी के साधकों के लिये किसी अन्य यज्ञ की प्रस्तावना ना करके, योगेश्वर श्रीकृष्ण सर्वप्रथम देवतओं के पूजन का विधान ही क्यों रखते हैं ? इसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं | कि      

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ||
तैदर्त्तानूदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः || (३/१२)


इष्टान् भोगान् हि वः देवाः दास्यन्ते यज्ञ भाविताः |
तैः दत्तान् अप्रदाय एभ्य यः भुङ्क्ते स्तेन एव सः || (३/१२)
                                                                                                                                                                                                                                     
इष्टान्(इच्छित), भोगान्(भोगों को), हि(क्योंकी), वः(तुमको), देवाः(देवगण), दास्यन्ते(देते रहेंगे), यज्ञ(यज्ञ), भाविताः(यज्ञ से उन्नत हुए)  | तैः(उनके द्वारा), दत्तान्(दिये हुए), अप्रदाय(बिना दिये), एभ्य(इनको), यः(जो), भुङ्क्ते(भोगता है), स्तेन(चोर है),  एव(ही)  सः(वह)  | (३/१२)

क्योंकी यज्ञ द्वारा उन्नत देवता तुम्हें इष्टान भोगान् अर्थात् ईष्ट सम्बन्धी भोगों को देते रहेंगे, तैः दत्तान् अर्थात् (केवल) वे ही देनेवाले हैं | जो इनको दिये बिना भोगता है, वह चोर ही है | (३/१२)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने प्रवेशिका श्रेणी के साधकों के हित के लिये देवतओं को पूजने के ही सिद्धांत को कहा क्योंकी दैवी गुणों का अर्जन निष्काम भाव से देवतओं के पूजन से ही संभव है, तैः दत्तान् , केवल वे ही इन दैवी गुणों को देने वाले हैं | परन्तु जो पुरुष इन दैवी गुणों को उन्नत किये बिना ही श्रेय की आशा रखता है अथवा इस स्थिति का भोग करता है अर्थात् परमार्थ का साधक होने का पाखंड या दिखावा करता है, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार वह साधक नहीं अपितु निश्चय ही चोर है | योगेश्वर श्रीकृष्ण के विधिविधान अनुसार जो बरतता है और जो बिना इनको दिये भोगता है अर्थात् बदले में कामना रखते हुए, निष्काम भाव से नहीं पूजता, उनकी गति का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि  

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः |
भुञ्जते ते त्वधं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् || (३/१३)

यज्ञ शिष्ट अशिनः सन्तः मुच्यन्ते सर्व किल्बिषैः |
भुञ्जते ते तु अधम् पापाः ये पचन्ति आत्म कारणात् || (३/१३)

यज्ञ(यज्ञ), शिष्ट(शेष), अशिनः(खाने वाले), सन्तः(सन्तजन), मुच्यन्ते(मुक्त हो जाते हैं), सर्व(समस्त), किल्बिषैः(पापों से) | भुञ्जते(भोगते हैं), ते(वे), तु(परन्तु), अधम्(अधम),  पापाः(पापिजन), ये(जो), पचन्ति(पचाते हैं), आत्म(निज, अपने), कारणात् (कारणों से) | (३/१३)
                                                                                                        
यज्ञ शेष का पान करने वाले सन्तजन समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं परन्तु जो अपने लिये ही पचते हैं, वे पापी लोग पाप को ही भोगते हैं | (३/१३)

यज्ञ शिष्ट आशिन: यज्ञ के आचरण स्वरूप जो शेष रहता है, वह दैवी गुणों का भोग है, इन दैवी गुणों का पान करने वाले सन्तजन तो पापों से मुक्त हो जाते हैं | परन्तु जो पचन्ति आत्म कारणात् अर्थात् जो देवतओं का पूजन परमार्थ हेतु नहीं अपितु आत्म कारणात्, स्वयं के लिये, देह के लिये, देह के संबंधो, देह के भोगों की कामनाओं के लिये करते हैं, वे पापी लोग पाप को ही भोगते हैं अर्थात् इन कर्मों के फलस्वरूप वह माया के पाश से बंधे ही रहते हैं | इसलिये परमार्थ हेतु तो योगेश्वर के विधिविधान से ही देवतओं का पूजन करना चाहिये | साधकों के लिये प्रवेशिका श्रेणी के यज्ञ का विधान कर प्रभु अब परमार्थ मार्ग के साधकों हेतु अन्य उच्च सौपनों के यज्ञों के विषय में ना कहकर, इन यज्ञों की अनिवार्यता पर प्रकाश हैं | कि परमार्थ हेतु इन यज्ञों की क्या आवश्यकता है | 

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः || (३/१४)

अन्नात् भवन्ति भूतानि पर्जन्यात् अन्न सम्भवः |
यज्ञात् भवति पर्जन्यः यज्ञः कर्म समुद्भवः || (३/१४)

अन्नात्(अन्न से), भवन्ति(होते हैं), भूतानि(समस्त प्राणी), पर्जन्यात्(वृष्टि से), अन्न(अन्न), सम्भवः(संभव है) | यज्ञात्(यज्ञ से), भवति(होता है), पर्जन्यः(वृष्टि), यज्ञः(यज्ञ), कर्म(कर्म), समुद्भवः(उद्भव होता है) | (३/१४)

समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, वृष्टि से अन्न संभव है, वृष्टि यज्ञ से होती है, यज्ञ कर्मों से उद्भव होता है | (३/१४)

समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं ; परमात्मा श्रीकृष्ण का गीता शास्त्र रूपी उपदेश देह को नहीं अपितु देही को संबोधित है तथा जिसे हम व्यावहारिक भाषा में अन्न कहते हैं उससे प्राणी नहीं अपितु प्राणियों की पंचभोतिक देह ही उत्पन्न होती है | प्राणी तो परमात्मा श्रीकृष्ण के अनुसार ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः (१५/७), अर्थात् इस देह में (देही को यह देह ही लोक है) यह देही मेरा ही सनातन अंश है | अतः यहाँ अन्न से जिसे इंगित करा गया है, वह परमतत्व परमात्मा ही है तथा समस्त प्राणी उसी परमतत्त्व परमात्मा से ही उत्पन्न होते हैं, उन्ही का सनातन अंश हैं |
वृष्टि अन्न से संभव है ; यहाँ वृष्टि से मानसूनी वर्षा का संबंध नहीं है क्योंकी यह अध्यात्म विषयक प्रवचन है | वृष्टि अर्थात् प्राणी के अन्तकरण में परमतत्व परमात्मा का उद्भव, परमार्थ मार्ग में साधक का उर्ध्वमुखी उत्थान परमतत्त्व परमात्मा की कृपया वृष्टि से संभव होता है |
वृष्टि यज्ञ से संभव है ; जैसा अभी मनन करा कि वृष्टि का संबंध मानसूनी वर्षा से नहीं है, वह यहाँ सिद्ध होता है क्योंकी अगर वृष्टि यज्ञ से होती है तो संसार में इतनी मरुभूमि कैसे है ? करें मरुभूमि में यज्ञ और ले आएँ हरियाली | वस्तुतः ऐसा कुछ नहीं है, जैसा अभी मनन करा कि परमार्थ मार्ग में साधक का उर्ध्वमुखी उत्थान परमतत्त्व परमात्मा की कृपया वृष्टि से ही संभव है, परमात्मा की यह कृपया वृष्टि साधक द्वारा किये गये यज्ञों के अनुष्ठानों से से ही संभव है |
यज्ञ कर्मों से उद्भव होता है ; उद्भव अर्थात् यज्ञों का अनुष्ठान कर्मों द्वारा ही संपन्न करा जाता है | यहाँ जिन कर्मों से यज्ञों का अनुष्ठान संपन्न करा जाता है, यह कर्म ही यज्ञार्थात कर्म हैं, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी पूर्व में कहा है कि यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः (३/९) | इस श्लोक का संबंध अगले श्लोक से है |

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् |
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् || (३/१५)

कर्म ब्रह्म उद्भवम् विद्धि ब्रह्म अक्षर समुद्भवम् |
तस्मात् सर्व गतम् ब्रह्म नित्यम् यज्ञे प्रतिष्ठितम् || (३/१५)

 कर्म(कर्म),  ब्रह्म(ब्रह्म से), उद्भवम्(उत्पन्न होता है), विद्धि(जानो), ब्रह्म(ब्रह्म), अक्षर(अक्षय), समुद्भवम्(प्रकट हुआ) | तस्मात् (अतः), सर्व(सर्व), गतम्(व्यापी),  ब्रह्म(ब्रह्म), नित्यम्(नित्य ही), यज्ञे(यज्ञ में), प्रतिष्ठितम्(प्रतिष्ठित है) | (३/१५)

कर्मों को ब्रह्म से उत्पन्न जान, ब्रह्म का अक्षय से उद्भव होता है, अतः सर्वव्यापी ब्रह्म नित्य ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है | (३/१५)

कर्मों को ब्रह्म से उत्पन्न जान ; कर्मों को अर्थात् यज्ञार्थात कर्मों का यह जो विधिविधान है इसको ब्रह्म अर्थात् उन महापुरुषों द्वारा जिनके लिये परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा था कि यह ब्रह्म में स्थित महापुरुष की स्थिति है(२/७२), उन परमतत्त्व परमात्मा में स्थित महापुरुषों के द्वारा ही इन यज्ञार्थात कर्मों का विधिविधान कहा गया है और यह उन्हीं यज्ञार्थात कर्मों का विधिविधान है जिससे इन महापुरुषों ने स्वयं भी ब्रह्म में स्थिति पाई थी |
ब्रह्म का अक्षय से उद्भव होता है ; यह जो परमतत्त्व परमात्मा में स्थित महापुरुष हैं, इन महापुरुषों की वाणी, बुद्धि उसी परमतत्त्व परमात्मा हेतु यंत्र मात्र होते हैं, उनकी वाणी, उनकी बुद्धि से परमतत्त्व परमात्मा ही बोलता है | इन महापुरुषों के समस्त कर्म उस अक्षरं परं ब्रह्म द्वारा ही संचालित होते हैं, इसीको परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं कि देह को प्राप्त इन ब्रह्म रूपी महापुरुषों का उद्भव अक्षय से होता है | अतः इन महापुरुषों द्वारा यह जो यज्ञार्थात कर्मों का विधिविधान कहा गया है, यह वस्तुतः अक्षरं परं ब्रह्म द्वारा ही रचित है |
अतः सर्वव्यापी ब्रह्म नित्य ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है ; तात्पर्य यह कि अक्षरं परं ब्रह्म इन यज्ञार्थात कर्मों के अनुष्ठान स्वरूप ही प्राप्य है अथवा कहें कि सर्वव्यापी ब्रह्म नित्य ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है |

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इन दो श्लोकों द्वारा जिस सिद्धांत की स्थापना करी है उससे स्पष्ट है कि परमतत्त्व परमात्मा सदैव ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है और उनकी प्राप्ति का विधान केवल यज्ञार्थात कर्मों का अनुष्ठान है |
      
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः |
अधायुरिन्द्रियारामो मोधं पार्थ स जीवति || (३/१६)

एवम् प्रवर्तितम् चक्रम् न अनुवर्तयति इह यः |
अध आयुः इन्द्रिय आरामः मोधम् पार्थ सः जीवति || (३/१६)

एवम्(इस प्रकार),  प्रवर्तितम्(प्रचलित), चक्रम्(चक्र के),(नहीं), अनुवर्तयति(अनुकूल बरतता), इह(इस), यः(जो) | अध(पाप पूर्ण), आयुः(जीवन),  इन्द्रिय(इन्द्रियों), आरामः(आराम), मोधम्(वृथा), पार्थ(पृथापुत्र), सः(वह), जीवति(जीता है) | (३/१६)

जो इस लोक में इस प्रकार प्रचलित सृष्टिक्रम के अनुसार नहीं बरतता, पार्थ ! इन्द्रियों का आराम चाहने वाला वह पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है | (३/१६)

इस लोक में अर्थात् इस मनुष्य शरीर को पा कर भी क्योंकी परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति का विधान केवल मनुष्य योनि को प्राप्त है अन्यत्र सभी योनियाँ, किट पतंग से लेकर ब्रह्मा लोक तक सभी भोग योनियाँ हैं | अतः इस लोक में इस प्रकार प्रचलित अर्थात् परमतत्त्व परमात्मा सदैव यज्ञ में ही प्रतिष्ठित है और उसकी प्राप्ति का विधान भी इन यज्ञों का अनुष्ठान ही है, इस प्रकार प्रचलित सृष्टिक्रम के अनुसार अर्थात् यह विधिविधान परमात्मा श्रीकृष्ण ने अभी कहा हो ऐसा नहीं है, यह तो सृष्टिक्रम है | सारांशत इस मनुष्य शरीर को पा कर भी जो इस प्रकार प्रचलित सृष्टि क्रम के अनुसार नहीं बरतता, उसके लिये परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह इन्द्रियों का आराम अर्थात् भोगों में रमण करने वाला पापायु अर्थात् मनुष्य योनि को पा कर भी भोग योनियों सा बर्ताव करने वाला पुरुष व्यर्थ ही जीता है |

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः |
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते || (३/१७)

यः तु आत्म रतिः एव स्यात् आत्म तृप्तः च मानवः |
आत्मनि एव च संतुष्टः तस्य कार्यम् न विद्यते || (३/१७)
                                                                                                                                                                        
यः(जो), तु(परन्तु), आत्म(स्वयं)), रतिः(रमण करनेवाला), एव(ही), स्यात्(रहता है), आत्म(स्वयं) तृप्तः(तृप्त),(और), मानवः (मनुष्य) | आत्मनि(स्वयं से), एव(ही),(और), संतुष्टः(संतुष्ट रहता है), तस्य(उसका), कार्यम्(कर्तव्य कर्म),(नहीं), विद्यते(विद्यमान होता) | (३/१७)

परन्तु जो मनुष्य स्वयं में रमण करने वाला और स्वयं में तृप्त रहता है तथा स्वयं से ही संतुष्ट रहता है उसके लिये कोई कर्त्तव्य कर्म विद्यमान नहीं होता | (३/१७)

वस्तुतः यह परमशान्ति की, ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति है (२/७२), ऐसा मनुष्य स्वयं में ही अर्थात् अपने स्वरूप में ही, परमात्मा के सनातन अंशरूप में ही रमण करने वाला, परमात्मा के सनातन अंशरूप की प्राप्ति से ही तृप्त तथा परमात्मा की प्राप्ति से ही संतुष्ट रहता है, क्योंकी यज्ञार्थात कर्मों का परिणाम, कृष्णायोग से प्राप्य परमतत्त्व परमात्मा में उसने स्थिति पा ली है, इससे अधिक और श्रेष्ठ पाने को अब शेष भी क्या है, इसलिये तृप्त और संतुष्ट रहता है | उस पुरुष के लिये कोई कर्त्तव्य कर्म विद्यमान नहीं होता क्योंकी परमात्मा श्रीकृष्ण के अनुसार परमतत्त्व का साक्षात्कार करके अब इस पुरुष का सांसारिक विषयों में राग रस भी निवृत हो गया होता है (२/५९), और परं की प्राप्ति ही गयी होती है, इसलिये इस पुरुष के लिये कोई भी कर्तव्यकर्म विद्यमान नहीं होता | इसी को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं | कि

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन |
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः || (३/१८)

न एव तस्य कृतेन अर्थः न अकृतेन इह कश्चन |
न च अस्य सर्व भूतेषु कश्चित् अर्थ व्यपाश्रयः || (३/१८)
                                                                                            
(नहीं), एव(ही), तस्य(उसका), कृतेन(कर्म करने से), अर्थः(तात्पर्य, प्रयोजन),(नहीं), अकृतेन(कार्य ना करने से), इह(इस), कश्चन(कोई) | न(नहीं),(और), अस्य(इसका), सर्व(समस्त), भूतेषु(प्राणियों में), कश्चित्(किंचिन्मात्र भी), अर्थ(प्रयोजन), व्यपाश्रयः(आश्रय) | (३/१८)

इस लोक में कर्म करने से उसका कोई प्रयोजन नहीं होता, ना ही कर्म ना करने से और समस्त प्राणियों में इसका किंचितमात्र भी आश्रय का प्रयोजन नहीं रहता | (३/१८)
                                                                                                             
कृष्णायोग को सिद्ध किये हुए उस महापुरुष का इस शरीर में कर्म करने का कोई प्रयोजन नहीं होता और ना ही कर्मों को ना करने से क्योंकी कृष्णायोग को सिद्ध करा महापुरुष देहमुक्त ही है अतः देह और देह के भोगों के प्रति यह महापुरुष निष्क्रिय भाव से जीवन निर्वाह कर सकते हैं | तथा समस्त प्राणियों में अर्थात् अन्य प्राणी जो भोगों में ही रमण करने वाले हैं, उन समस्त प्राणियों से इसका किंचितमात्र भी, किसी प्रकार का भी आश्रय का प्रयोजन अर्थात् स्वार्थ संबंध नहीं रहता | परमात्मा श्रीकृष्ण के इस अंतिम तथ्य को ध्यान से समझें कि समस्त प्राणियों का, अर्जुन की भांति, यह जो देह, देह के संबंधो और देह के भोगों के प्रति लगाव से मोह होता है, यह वस्तुतः स्वार्थ संबंध ही हैं | कृष्णायोग सिद्ध देहमुक्त महापुरुष का समस्त प्राणियों में किंचितमात्र भी स्वार्थ संबंध नहीं रहता | कृष्णायोग सिद्ध पुरुष की स्थिति और प्राप्ति को बताते हुए परमात्मा श्रीकृष्ण साधकों को इस योग को अंगीकार करने को प्रोत्साहित करते हैं |

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः || (३/१९)

तस्मात् असक्तः सततम् कार्यम् कर्म समाचर |
असक्तः हि आचरन् कर्म परम् आप्नोति पूरुषः || (३/१९)

तस्मात्(इसलिये), असक्तः(आसक्तिरहित), सततम्(निरन्तर), कार्यम्(कर्त्तव्य), कर्म(कर्म), समाचर(आचरण करो) | असक्तः (आसक्तिरहित), हि(क्योंकी), आचरन्(आचरण से), कर्म(कर्म), परम्(परम), आप्नोति(प्राप्त होता है), पूरुषः(पुरुष को) | (३/१९)

इसलिये आसक्तिरहित होकर निरन्तर कार्यंकर्म का भलीभाँति आचरण करो, क्योंकी अनासक्त भाव से कर्मों का आचरण करता हुआ पुरुष परं को प्राप्त होता है | (३/१९)

इसलिये आसक्तिरहित होकर निरन्तर, परमार्थ हेतु योग में निरन्तर लगने का ही विधान है, कार्यं कर्म अर्थात् परमार्थ हेतु करने योग्य कर्म, समबुद्धि से युक्त हो धीर पुरुष की भाँति जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु योग का आचरण ही कार्यं कर्म हैं, इस प्रकार आसक्तिरहित होकर निरन्तर कार्यंकर्म का भलीभाँति आचरण करो क्योंकी अनासक्त भाव से कर्मों का आचरण करता हुआ पुरुष परं अर्थात् परमभाव को, परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त होता है |

यहाँ तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जीवन निर्वाह हेतु नियतं कर्मों का विधिविधान, योग परायण होने हेतु यज्ञार्थात कर्मों का आचरण, दैवी गुणों के अर्जन और संचय हेतु प्रवेशिका श्रेणी के यज्ञ का स्वरूप, यज्ञ की अनिवार्यता अर्थात् प्राप्य परमतत्त्व सदा ही यज्ञ में स्थित है और यज्ञों के आचरण स्वरूप प्राप्त स्थिति का संक्षिप्त वर्णन करा | प्रभु ने स्पष्ट कहा कि योग के आचरण स्वरूप प्राप्त अमृततत्त्व का पान करने वाले महापुरुषों को कर्म करने अथवा ना करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता | कृष्णायोग परायण , ब्रह्म में स्थिति पाए महापुरुषों की रहनी कैसी होती है, इस संदर्भ को योगेश्वर श्रीकृष्ण अगले सात श्लोकों में स्पष्ट करते हैं |

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः |
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि || (३/२०)

कर्मणा एव हि संसिद्धिम् आस्थिताः जनक आदयः |
लोक सङ्ग्रहम्  एव अपि सम्पश्यन् कर्तुम् अर्हसि || (३/२०)

कर्मणा(कर्मसे), एव(ही), हि(क्योंकी), संसिद्धिम्(परमसिद्धि को), आस्थिताः(स्थित हुए), जनक(राजा जनक), आदयः(आदि) | लोक(लोक), सङ्ग्रहम्(संग्रह को), एव(ही), अपि(भी), सम्पश्यन्(विचार पूर्वक देखते हुए), कर्तुम्(कर्तव्य कर्म करने को), अर्हसि (योग्य है) | (३/२०)

क्योंकी राजा जनक आदि भी कर्मों से ही परमसिद्धि में स्थित हुए भी लोक संग्रह को विचार करते हुए कर्तव्यकर्म करने को ही योग्य मानते थे | (३/२०)
भारतीय दर्शन में राजा जनक का प्रसंग अनेक शास्त्रों में आता है, जन्म से क्षत्रिय और स्वभाव से परमतत्त्व को प्राप्त महापुरुष थे, इसलिये अर्जुन को यह उदाहरण देते हुए परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसे अनेक महापुरुष यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करते हुए ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं और प्राप्ति के पश्चात् भी जहाँ कार्यं कर्मों को करने से ना कोई लाभ है तथा ना करने से कोई हानि, फिर भी लोक संग्रह को विचार करते हुए कार्यंकर्मों को करने योग्य ही मानते थे | लोक संग्रह अर्थात् प्रजा की उल्टे मार्ग में जाने वाली प्रवृति के निवारण रूप कार्यंकर्मों के आचरण को ही योग्य माना है | क्योंकी    

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते || (३/२१)

यत् यत् आचरति श्रेष्ठः तत् तत् एव इतरः जनः |
सः यत् प्रमाणम् कुरुते लोकः तत् अनुवर्तते || (३/२१)

यत्(जो), यत्(जो), आचरति(आचरण करता है), श्रेष्ठः(श्रेष्ठ पुरुष), तत्(वह), तत्(वह), एव(ही), इतरः(सामान्य), जनः(जन) | सः (वह), यत्(जो), प्रमाणम्(प्रमाण),  कुरुते(करता है), लोकः(लोक), तत्(वह), अनुवर्तते(अनुसरण करता है) | (३/२१)

श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्यजन भी वह वह आचरण करते हैं | वह श्रेष्ठ पुरुष जो प्रमाण देता है, सामान्यजन उनका ही अनुसरण करते हैं | (३/२१)

श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष जिस प्रकार समबुद्धि से युक्त हुआ आसक्ति और कामना रहित जीवन निर्वाह करता है तथा जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु जिस प्रकार आत्म परायण होकर योग का आचरण करता है, सामान्यजन भी वह वह आचरण करते हैं | यह कैसे ? अपने आचरण स्वरूप श्रेष्ठ पुरुष जो प्रमाण देता है, सामान्यजन उनका ही अनुसरण करते हैं | अगले तीन श्लोकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं अपने को उदाहरणार्थ कहते हैं परन्तु योगेश्वर बिना कारण कुछ भी नहीं कहते | यहाँ परमतत्त्व परमात्मा को प्राप्त महापुरुषों की श्रेणी में अपने को तुलनात्मक रूप से कहने से योगेश्वर का जो तात्पर्य है वह स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण ने भी यह अवस्था, यह स्थिति समबुद्धि से युक्त हो स्वधर्म के अनुसार जीवन निर्वाह और योग परायण हो यज्ञार्थात कर्मों के आचरण स्वरूप ही प्राप्त करी है, ना कि वैकुण्ठ से आये कोई विशेष अवतार हैं | आइये जानें कि योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने बारे में क्या कहते हैं |

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन |
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्ते एव च कर्मणि || (३/२२)

न मे पार्थ अस्ति कर्तव्यम् त्रिषु लोकेषु किञ्चन |
न अनवाप्तम् अवाप्तव्यम् वर्ते एव च कर्मणि || (३/२२)

(नहीं), मे(मेरेलिए), पार्थ(पृथापुत्र), अस्ति(है), कर्तव्यम्(कर्त्तव्य कर्म), त्रिषु(तीनों), लोकेषु(लोकों में), किञ्चन(कोई भी) | न(नहीं) अनवाप्तम्(अप्राप्त है), अवाप्तव्यम्(प्राप्त करने योग्य), वर्ते(बरतता हूँ),  एव(ही),(और), कर्मणि(कर्मो में) | (३/२२)

पार्थ ! मेरे लिये तीनों लोकों में कोई भी कर्तव्यकर्म नहीं है और ना ही प्राप्त करने योग्य अप्राप्त है (फिर भी मैं) कर्म में ही बरतता हूँ | (३/२२)

पूर्वजन्मों और इस जन्म के सभी कर्मबंधन कट चुके हैं और अगले जन्म का कोई कारण शेष नहीं है क्योंकी परमतत्त्व की प्राप्ति हो चुकी है | इसलिये तीनों लोकों के प्रति कोई कर्तव्यकर्म शेष नहीं है और न प्राप्त करने योग्य अप्राप्त है क्योंकी परमतत्त्व की प्राप्ति के पश्चात् सांसारिक विषयों के प्रति राग रस भी निवृत हो जाता है, अतः प्राप्त करने योग्य कुछ भी अप्राप्त नहीं है | फिर भी मैं कर्मों में भलीभाँति लगा रहता हूँ, कर्मों में अर्थात् समबुद्धि से, समभाव से युक्त हुआ स्वधर्म के अनुसार जीवन निर्वाह करता हूँ और योग परायण हो यज्ञार्थात कर्मों का आचरण भी करता हूँ | परमात्मा भाव को प्राप्त होकर भी आप इन कर्मों में प्रवृत होने की क्या आवश्यकता हैं ? इस तथ्य को  सपष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
यदि हि ह्याहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || (३/२३)

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् |
संकरस्य च कर्त्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः || (३/२४)

यदि हि अहम् न वर्तेयम् जातु कर्मणि अतन्द्रितः |
मम वर्त्म अनुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || (३/२३)
उत्सीदेयुः इमे लोकाः न कुर्याम् कर्म चेत् अहम् |
संकरस्य च कर्ता स्याम् उपहन्याम् इमाः प्रजाः || (३/२४)

यदि(यदि), हि(क्योंकी), अहम्(मैं),(नहीं), वर्तेयम्(व्यव्हार करूँ), जातु(कभी), कर्मणि(कर्मों में), अतन्द्रितः(सावधानीपूर्ण) | मम (मेरा), वर्त्म(व्यवहार), अनुवर्तन्ते(अनुसरण करेंगे), मनुष्याः(सभी मनुष्य), पार्थ(पृथापुत्र), सर्वशः(सभी प्रकार से) | (३/२३)
उत्सीदेयुः(नष्ट हो जाएँ), इमे(ये), लोकाः(लोक),(नहीं), कु र्याम्(करूँ), कर्म(कर्म), चेत्(यदि), अहम्(मैं) | संकरस्य(संकरता का),(और),  कर्ता(कर्त्ता), स्याम्(होउँगा), उपहन्याम्(नष्ट करने वाला), इमाः(इस), प्रजाः(प्रजा का) | (३/२४)

क्योंकी पार्थ ! यदि मैं कभी सावधानीपूर्वक कर्मों में ना बरतूं (तो) सभी मनुष्य सभी प्रकार से मेरे व्यवहार अनुसरण करेंगे |(३/२३)
यदि मैं कर्म ना करूँ (तो) यह मनुष्य समुदाय नष्ट भ्रष्ट हो जाएगा और मैं संकरता का कर्ता बनूँगा, इस प्रजा का हनन करनेवाला बनूँगा | (३/२४)

जैसा योगेश्वर ने राजा जनक आदि के विषय में कहा था कि वे विचारपूर्वक लोकसंग्रह हेतु कर्मों में बरतते हैं, इसके विपरीत अगर स्थितप्रज्ञ महापुरुष जैसे मैं कभी भी सावधानीपूर्वक कर्मों में ना बरतूं अर्थात् स्थितप्रज्ञ महापुरुषों को सदैव अपने आचरण के प्रति सावधान रहना पड़ता है, क्योंकी उनके आचरण पर सामान्यजन सदैव दृष्टि रखते हैं और उनके किसी भी अनुचित आचरण को कारण बनाकर, बहाना बनाकर वैसा व्यवहार भी करेंगे |

इसलिये योगेश्वर कहते हैं कि यदि मैं कर्म अर्थात् समबुद्धि से, समभाव से युक्त हुआ स्वधर्म अनुसार जीवन निर्वाह करता हुआ, यज्ञार्थात कर्मों का आचरण ना करूँ तो यह मनुष्य समुदाय नष्ट भ्रष्ट हो जायेगा क्योंकी सामान्यजन श्रेष्ठ पुरुष के किसी भी अनुचित आचरण का बहाना बनाकर स्वयं भी वैसा ही व्यवहार करेंगे और वह श्रेष्ठ पुरुष संकरता का कर्ता बनेगा, प्रजा का हनन करनेवाला बनेगा | संकरता अर्थात् प्रकृतिजन्य गुणों के कारण मनुष्य के स्वभाव को वर्ण कहते हैं, जिसके लिये परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं कि चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं ; प्रकृतिजन्य गुणों के कारण योगेश्वर ने मनुष्यों को चार वर्णों में विभाजित करा और प्रत्येक वर्ण का अपना स्वधर्म होता है | अगर श्रेष्ठ पुरुष स्वधर्म का पालन विचारपूर्वक, सावधानी पूर्वक नहीं करें तो सामान्यजन को भी स्वधर्म के अनुसार आचरण ना करने का बहाना मिल जाता है, यही संकरता, वर्ण संकरता है | समाज का, प्रजा का इससे हनन होता है, सामाजिक व्यवस्थाएँ टूटती हैं | केवल इतना ही नहीं परमार्थ मार्ग हेतु भी स्वधर्म का पालन आवश्यक है, जीवन निर्वाह और यज्ञार्थात कर्मों का आचरण भी अपने धर्म के अनुसार ही करना पड़ता है |

अन्यथा भी अगर परमार्थ मार्ग की दृष्टि से देखें और कहें तो परमतत्त्व परमात्मा जीवात्मा का विशुद्ध वर्ण है और कामनाओं के कारण कर्मफल से बंधे हुए माया में आवागमन जीवात्मा की वर्ण संकरता है | यदि परमतत्त्व को प्राप्त महापुरुष लोकहित में समभाव से स्वधर्म का पालन करते हुए जीवन निर्वाह ना करें, यज्ञार्थात कर्मों का आचरण ना करें तो इनको देखा देखी साधक भी आत्मपथ से, परमार्थ मार्ग से भटक जाएँगे, परमात्मा को ना प्राप्त हो प्रकृति में ही खो जाएँगे, वर्ण संकरता को प्राप्त होंगे | स्थितप्रज्ञ महापुरुषों के विषय में कहकर, अब योगेश्वर श्रीकृष्ण विद्वानों को संबोधित करते हुए कहते हैं | कि

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत |
कुर्याद्विद्वान्स्तथासक्तस्चिकिर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् || (३/२५)
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् |
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् || (३/२६)
सक्ताः कर्मणि अविद्वांसः यथा कुर्वन्ति भारत |
कुर्यात् विद्वान् तथा असक्तः चिकीर्षुः लोक सङ्ग्रहम् || (३/२५)
न बुद्धि भेदम् जनयेत् अज्ञानाम् कर्म सङ्गिनाम् |
जोषयेत् सर्व कर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् || (३/२६)

सक्ताः(आसक्त), कर्मणि(कर्मों में) अविद्वांसः(अज्ञानीजन), यथा(जैसे), कुर्वन्ति(करते हैं), भारत(भरतवंशी) | कुर्यात्(करे), विद्वान् (विद्वान), तथा(वैसे). असक्तः(आसक्तिरहित), चिकीर्षुः(करना चाहता हुआ), लोक(लोक), सङ्ग्रहम्(संग्रह)  | (३/२५)
(नहीं), बुद्धि(बुद्धि), भेदम्(भेद), जनयेत्(उत्पन्न करे), अज्ञानाम्(अज्ञानियों में), कर्म(कर्म), सङ्गिनाम्(आसक्त) | जोषयेत् (करवाये), सर्व(सभी), कर्माणि(कर्मों को), विद्वान्(विद्वान), युक्तः(युक्त हुआ), समाचरन्(भलीभाँति आचरण करता हुआ) | (३/२६)

भरतवंशी अर्जुन ! जैसे कर्मों में आसक्त अविद्वान जन कर्म करते हैं, वैसे अनासक्त विद्वान लोकसंग्रह को चाहता हुआ कर्म करे | (३/२५)
युक्त पुरुष कर्मों में आसक्त अज्ञानियों में बुद्धिभेद ना उत्पन्न करे, समस्त कर्मों का भलीभाँति आचरण करता हुआ (उनसे भी) करवाये | (३/२६)

अनासक्त विद्वान लोकसंग्रह को चाहता हुआ आसक्त अज्ञानियों की भाँति ही सामान्यरूप से कर्म करे, युक्त पुरुष अर्थात्
योग परायण अनासक्त पुरुष अज्ञानियों में बुद्धिभेद ना उत्पन्न करे अर्थात् उनमें हीनभावना उत्पन्न न करता हुआ, समस्त कर्मों का अर्थात् समभाव से स्वधर्म अनुसार जीवन निर्वाह और यज्ञार्थात कर्मों का आचरण करता हुआ, उन अज्ञानियों से भी करवाये अर्थात् उन्हें भी ऐसे ही आचरण के लिये उत्साहित करे |

अनासक्त विद्वान और युक्त विद्वान कहने से प्रभु का तात्पर्य यह है कि स्थितप्रज्ञ महापुरुष तो लोकसंग्रह को देखते हुए विचारपूर्वक कर्म करे ही, उच्च सौपनों पर स्थित योगपरायण साधक भी प्रवेशिका श्रेणी के साधकों तथा सामान्य जन में बुद्धिभेद उत्पन्न न करता हुआ, समस्त कर्मों का भलीभाँति आचरण करता हुआ उनसे भी ऐसा ही करवाये |

यहाँ तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञ और योगपरायण पुरूषों को लोकहित में किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये, इस विषय पर प्रकाश डाला | यह अध्याय कर्म और यज्ञ के मौलिक रूप पर प्रकाश डालता है | यज्ञार्थात कर्मों के मौलिक रूप पर अपने उपदेशों के पश्चात अब योगेश्वर श्रीकृष्ण कर्म को स्पष्ट करते हुए अर्जुन को संबोधित करते हैं |   
                                                                                                                                                                                      
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः |
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || (३/२७)

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः |
अहङ्कार विमूढ आत्मा कर्ता अहम् इति मन्यते || (३/२७)

प्रकृतेः(प्रकृति के), क्रियमाणानि(किये जाते हैं), गुणैः(गुणों द्वारा), कर्माणि(समस्त कर्म), सर्वशः(सदैव) | अहङ्कार(अहंकार), विमूढ (मोहित), आत्मा(जीवात्मा), कर्ता(कर्ता), अहम्(मैं), इति(ऐसा), मन्यते(मानता है) | (३/२७)

समस्त कर्म सदैव प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित जीव मैं कर्ता हूँ, ऐसा मानता है | (३/२७)

परमात्मा श्रीकृष्ण यहाँ सांख्यदर्शन की दृष्टि से तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् हेतु कर्मों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते एक प्राकृतिक सिद्धांत की व्याख्या करते हैं कि सदा ही समस्त कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं | तात्पर्य यह कि मनुष्य समस्त कर्म अपने वृतियों के अनुसार करता है, वृतियां संस्कारों से बनती हैं, संस्कार पूर्वजन्मों के कर्म और कर्मफल पर आधारित होते हैं और सदैव अर्थात् पूर्वजन्मों में भी और इस जन्म में भी समस्त कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा सतो, रजो और तमो गुणों के द्वारा ही किये जाते हैं | परन्तु अहंकार से मोहित जीव ऐसा मानता है, कि समस्त कर्मों का कर्ता मैं हूँ | परन्तु ऐसा नहीं है | इसलिये परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं | कि


तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः |
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते || (३/२८)

तत्त्ववित् तु महाबाहो गुण कर्म विभागयोः |
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा सज्जते || (३/२८)

तत्त्ववित्(तत्त्व का ज्ञाता), तु(परन्तु), महाबाहो(महाबाहो), गुण(गुण), कर्म(कर्म), विभागयोः(विभागपूर्वक) | गुणा(समस्त गुण), गुणेषु(गुणों में), वर्तन्त(बरत रहे हैं), इति(ऐसा), मत्वा(मानते हैं), न(नहीं), सज्जते(आसक्त होता है) | (३/२८)

परन्तु महाबाहो ! गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त, समस्त गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होते | (३/२८)


गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त अर्थात् सांख्यदर्शन के अनुसार गुणों और कर्मों को तत्त्व रूप से विभागपूर्वक जानने वाले महापुरुष ऐसा जानते हैं कि गुण गुणों में बरत रहे हैं अर्थात् मनुष्य पूर्वजन्मों के संस्कार स्वरूप एक स्वभाव पाता है तथा इस जन्म में भी प्रकृतिजन्य गुणों से तथा पूर्वजन्मों के संस्कारों से भावित हुआ कर्म करता है | अतः मनुष्य के कर्म उसके गुणों द्वारा, पूर्वजन्मों के संस्कारों स्वरूप उसके स्वभाव को प्रभावित हैं, ऐसा जानकार तत्त्ववित्त महापुरुष उनमे आसक्त नहीं होते अर्थात् अपने को कर्ता नहीं मानते अपितु जानते हैं कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं | परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा सांख्य दृष्टि से कहा गया यह तत्त्व ज्ञान ही कृष्णायोग का आधार है | मनुष्य अपने गुणों, अपने स्वभाव अनुसार कर्मो में प्रवृत होता है और परमात्मा श्रीकृष्ण का उपदेश है कि निस्त्रैगुण्यो भव अर्थात् इन गुणों से भावित हो कर कर्मों को ना करो | प्रकृतिजन्य गुणों से भावित होकर कर्मों में प्रवृत होने के मनुष्य के स्वभाव के रूपांतरण को ही परमात्मा श्रीकृष्ण ने इस कृष्णायोग की प्रस्तावना की है, जिसके आचरण स्वरूप मनुष्य के स्वभाव का रूपांतरण होकर वह परमभाव की प्राप्ति करता है | मनुष्य के स्वभाव के रूपांतरण हेतु ही परमात्मा श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम देवतओं को अनासक्त भाव से पूजने के यज्ञ विधान किया, जिससे दैवी गुणों का अर्जन और संचय करके मनुष्य बंधनकारी गुणों का, आसुरी सम्पदा का नाश कर सके |

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु |
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् || (३/२९)

प्रकृते गुण सम्मूढाः सज्जन्ते गुण कर्मसु |
तान् अकृत्स्नविदः मन्दान् कृत्स्नवित् न विचालयेत् || (३/२९)

प्रकृते(प्रकृति के), गुण(गुणों से), सम्मूढाः(मोहित), सज्जन्ते(आसक्त होते हैं), गुण(गुणों में), कर्मसु(कर्मों में) | तान्(उन), अकृत्स्नविदः (कर्म को ना जाननेवाले), मन्दान्(मन्दबुद्धि), कृत्स्नवित्(कर्म के जानकार),(नहीं), विचालयेत् (विचलित करे) | (३/२९)

प्रकृति के गुणों से मोहितजन गुणों और कर्मों में आसक्त रहते हैं, कर्म को ना जानने वाले उन मन्दबुद्धि मनुष्यों को कर्म के जानकार विचलित न करें | (३/२९)

परमात्मा श्रीकृष्ण के इस व्यक्तव्य को एक बार पढ़ने पर यह व्यक्तव्य साधारण सा ही मालूम होता है कि कर्म के जानकार अर्थात् सांख्यदर्शन के ज्ञाता, जो गुण और कर्म के भेद को विभागपूर्वक समझते हैं, वे कर्म को ना जानने वालों को विचलित ना करें अर्थात् उन्हें हतोत्साहित ना करें, यह ज्ञानी को शोभा नहीं देता | परन्तु मेरा निवेदन है कि गीता शास्त्र का अध्ययन करते हुए साधक इस बात का सदैव ध्यान रखें कि योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता रूपी यह गीत योगस्थ होकर गाया है, यह परमतत्त्व परमात्मा की वाणी का ही प्रसार है और परमात्मा अकारण कुछ भी नहीं कहते | आइये योगेश्वर के इस व्यक्तव्य पर मनन करें |

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस व्यक्तव्य में सांख्यदर्शन से कहे गुणों और कर्मों  के भेद के जानकारों को संबोधित करा है अर्थात् ज्ञान योगियों को संबोधित करते हुए कहा है कि आप लोग कर्म को ना जाननेवाले मन्दबुद्धि मनुष्यों को विचलित ना करें | यहाँ योगेश्वर का मंतव्य यह नहीं है कि मन्दबुद्धि मनुष्य परमार्थ के अथवा ज्ञान के अधिकारी नहीं हैं अपितु यह कहा कि ज्ञान मार्ग से परमार्थ मार्ग में प्रवृत ना हो पाने वाले मन्दबुद्धि मनुष्यों को आप लोग ज्ञान की महिमा बखान कर विचलित ना करें | मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार ही कर्मों में प्रवृत हो पाता है तथा जिनकी निष्ठा कर्मों में है, वे ज्ञान मार्ग से, अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् (१३/११) के द्वारा परमार्थ मार्ग में प्रवृत नहीं हो सकते, इसलिये अनावश्यक रूप से उनके प्रति ज्ञान का बखान ना करें | योगेश्वर ने अनासक्त विद्वान (३/२५) और युक्त विद्वान (३/२६) कहकर भी यही सन्देश ज्ञान योगियों को अभी पूर्व में कहा है | श्रीकृष्ण में आसक्त गोपियों और ज्ञान योगी उद्धव के बिच हुए संवाद की भाँति योगेश्वर श्रीकृष्ण का यह निश्चित किया हुआ मत है कि ज्ञान योगियों की अपेक्षा अनन्यभाव से एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित तथा कर्म में आस्था रखनेवाले, समभाव से योग परायण साधक कर्मबंधन से मुक्त हो जाते हैं | अपने इस मंतव्य को स्पष्ट करते हुए, योगेश्वर श्रीकृष्ण गुणों और कर्मों के भेद को ना जाननेवाले मनुष्यों को संबोधित करते हुए कहते हैं | कि

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा |
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः || (३/३०)
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः |
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः || (३/३१)

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्य अध्यात्म चेतसा |
निराशीः निर्ममः भूत्वा युध्यस्व विगत ज्वरः || (३/३०)
                        ये मे मतम् इदम् नित्यम् अनुतिष्ठन्ति मानवाः |
श्रद्धा वन्तः अनसूयन्तः मुच्यन्ते ते अपि कर्मभिः || (३/३१)
मयि(मुझमें), सर्वाणि(सम्पूर्ण), कर्माणि(कर्मों को), सन्न्यस्य(अर्पण करके), अध्यात्म(अध्यात्म), चेतसा(चित्तवाला) | निराशीः (आशारहित), निर्ममः(ममतारहित), भूत्वा(होकर), युध्यस्व(युद्ध करे), विगत(रहित), ज्वरः(संताप से) | (३/३०)
ये(जो), मे(मेरे), मतम्(मतको), इदम्(इस), नित्यम्(सदैव), अनुतिष्ठन्ति(अनुसरण करते हैं), मानवाः(मनुष्य) | श्रद्धा(श्रद्धा) वन्तः(वान होकर), अनसूयन्तः(दोषदृष्टि रहित), मुच्यन्ते(मुक्त हो जाते हैं), ते(वे), अपि(भी), कर्मभिः(कर्मों के बंधन से) | (३/३१)

अध्यात्मचेतसा अर्थात् अन्तरात्मा में चित्त का निरोध करके, समस्त कर्मों को मुझे अर्पण करके आशारहित और ममतारहित होकर युध्यस्व विगतज्वरः अर्थात् संतापरहित होने को युद्ध कर | (३/३०)
जो मनुष्य श्रद्धाभाव से, दोषदृष्टि से रहित मेरे इस मत का सदैव अनुसरण करते हैं, वे भी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं | (३/३१) 

अन्तरात्मा में चित्त का निरोध करके अर्थात् अनन्य भाव से एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित होकर, समस्त कर्मों को मुझे अर्पण करके अर्थात् मेरे विधिविधान अनुसार समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर स्वधर्म के अनुसार जीवन निर्वाह और यज्ञार्थात कर्मों का आचरण करते हुए, आशारहित अर्थात् कामना और आसक्तिरहित होकर तथा ममतारहित अर्थात् देह, देह के संबंधो, देह के भोगों और भोग सामग्री के संग्रह में, मैं और मेरे के भाव से रहित होकर युध्यस्व विगतज्वरः, अर्थात् संतापरहित होने को युद्ध करो | संताप अर्थात् मानसिक ज्वर जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह मत्सर इत्यादि, इनमानसिक संताप रूपी बंधनकारी आसुरी सम्पदा का नाश करने को दैवी सम्पदा का अर्जन और संचय करते हैं, तथा

श्रद्धा भाव से और मेरे द्वारा कहे इस विधिविधान में दोषदृष्टि ना रखते हुए अर्थात् मेरे मत में पूर्ण आस्था रखते हुए सदैव मेरे मत का अनुसरण करते हैं, वे भी अर्थात् वे मन्दबुद्धि मनुष्य भी, जो मेरे मत का अनुसरण करते हैं, मेरे कहे अनुसार चलते हैं, वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं | ज्ञानी, अज्ञानी, मन्दबुद्धि इत्यादि सभी मनुष्यों के प्रति अपने मत को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर पुनः कहते हैं | कि
   
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः || (३/३२)
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति || (३/३३)

ये तु एतत् अभ्यसूयन्तः न अनुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्व ज्ञान विमूढान् तान् विद्धि नष्टान् अचेतसः || (३/३२)
सदृशम् चेष्टते सवस्याः प्रकृते ज्ञानवान् अपि |
प्रकृतिम् यान्ति भूतानि निग्रहः किम् करिष्यति || (३/३३)

ये(जो), तु(परन्तु), एतत्(इस), अभ्यसूयन्तः(दोष रोपण करते हुए),(नहीं), अनुतिष्ठन्ति(अनुसरण करते हैं), मे(मेरे) मतम्(मत को) | सर्व(सर्व), ज्ञान(ज्ञान), विमूढान्(मोहित), तान्(उन), विद्धि(जान), नष्टान्(नष्ट हुआ), अचेतसः(भ्रमित चित्त) | (३/३२)
सदृशम्(अनुसार), चेष्टते(चेष्टा करता है), सवस्याः(अपने), प्रकृते(प्रकृति के), ज्ञानवान्(ज्ञानवान), अपि(भी) | प्रकृतिम्(प्रकृति को, स्वभाव को), यान्ति(प्राप्त होते हैं), भूतानि(सभी प्राणी), निग्रहः(हठ), किम्(क्या), करिष्यति(करेगा) | (३/३३)

परन्तु जो मेरे मत में दोषारोपण करते हुए इसका अनुसरण नहीं करते, उन ज्ञान से मोहित भ्रमित चित्त वालों को नष्ट हुआ जान | (३/३२)
सभी प्राणी प्रकृति से भावित हैं, ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, (इसमें) हठ क्या है ? (३/३३)

योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो ज्ञानवान हैं परन्तु ज्ञान के कारण जिनका चित्त भ्रमित रहता है तथा जो मेरे मत में दोषारोपण करते हुए इसका अनुसरण नहीं करते, उनको नष्ट हुआ ही जान अर्थात् परमार्थ मार्ग से च्युत हुआ ही जान | इस भाव को परमात्मा श्रीकृष्ण एक अन्य सन्दर्भ में भी कह आये हैं कि श्रुतिविप्रतिपन्ना (२/५३) अर्थात् शास्त्रीय मतभेदों से विचलित तेरी बुद्धि जब निश्चला अर्थात् एकनिष्ठा को प्राप्त हो स्थिर हो जाएगी, तब समाधौ अर्थात् आत्म परायण हो अचल रूप से योग को प्राप्त हो जाएगा | अन्यथा जैसा योगेश्वर ने कहा कि वह योग से च्युत हो जायेगा | यह ज्ञानी लोग भी इस प्रकार व्यवहार क्यों करते हैं, कैसे योग से च्युत हो जाते हैं ? इस पर योगेश्वर कहते हैं | कि सभी मनुष्य प्रकृति से भावित हैं अर्थात् प्रकृतिजन्य गुणों के अनुसार ही बरतते हैं, ज्ञानवान भी अपने स्वभाव के अनुसार चेष्टा करता है | यह एक प्राकृतिक सिद्धांत है, इसलिये इस विषय में हठ क्या है ? अर्थात् ज्ञानी ऐसा क्यों करता है अथवा मन्दबुद्धि वैसा क्यों करता है, इसमें क्या हठ ? यह तो प्राकृतिक सिद्धांत है |

वस्तुतः मोक्ष अकार्य है, यह ना ज्ञान से, ना कर्म से, ना भक्ति से और ना ही ध्यानयोग आदि से प्राप्य है | आप ज्ञानी हैं अथवा अज्ञानी हैं, इसका परमार्थ मार्ग से कोई संबंध नहीं है | योगेश्वर श्री कृष्ण के उपदेशानुसार सांख्यदर्शन से कहा थोड़ा सा बौद्धिक ज्ञान और अनन्य भाव से उनके मत का अनुसरण ही इस परमार्थ मार्ग के साधक की योग्यता का परिचायक है | इस परमार्थ मार्ग से च्युत होने के कारण तो अन्य ही हैं, अब उन कारणों पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि  

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ || (३/३४)
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः || (३/३५)

इन्द्रियस्य इन्द्रियस्य अर्थे राग द्वेषो व्यवस्थितो |
तयोः न वशम् आगच्छेत् तौ हि अस्य परिपन्थिनौ || (३/३४)
श्रेयान् स्व धर्मः विगुणः पर धर्मात् सु-अनुष्ठितात् |
स्व धर्मे निधनम् श्रेयः पर धर्मः भय आवहः || (३/३५)

इन्द्रियस्य(इन्द्रियाँ),  इन्द्रियस्य(इन्द्रियों के), अर्थे(विषय में), राग(राग), द्वेषो(द्वेष में), व्यवस्थितो(व्यवस्थित हैं) | तयोः(उनके),(नहीं), वशम्(वश में), आगच्छेत्(आना चाहिये), तौ(वे दोनों), हि(क्योंकी), अस्य(इसमें),  परिपन्थिनौ(अवरोधक हैं) | (३/३४)
श्रेयान्(अधिक श्रेष्ठ  है), स्व(स्वयं का), धर्मः(धर्म), विगुणः(गुणरहित), पर(दुसरे के) धर्मात्(धर्म से), सु-अनुष्ठितात्(भलीभाँति अनुष्ठान करे) | स्व(अपने), धर्मे(धर्म में), निधनम्(मरना भी), श्रेयः(श्रेयस्कर है), पर(दुसरे के), धर्मः(धर्म) भय(भय) आवहः(देनेवाला है) | (३/३५)

इन्द्रियों और इन्द्रियों के विषयों में राग द्वेष व्यवस्थापूर्वक स्थित हैं, उनके वश में नहीं आना चाहिये, क्योंकी वे दोनों
इसमें अवरोधक हैं | (३/३४)
भलीभाँति अनुष्ठान करे दुसरे के धर्म से गुणरहित स्वयं का धर्म अधिक श्रेष्ठ है, अपने धर्म में मरना भी श्रेयस्कर है, दुसरे का धर्म भय देनेवाला है | (३/३५)

योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इन्द्रियों और इन्द्रियों के विषयों में अर्थात् विषय भोगों में राग और द्वेष व्यवस्था पूर्वक स्थित हैं, यह माया द्वारा देही को दी गयी इस देह के बंधनकारी गुण धर्म हैं, उनके अर्थात् राग और द्वेष के वश में नहीं आना चाहिये क्योंकी यह दोनों ही इसमें अर्थात् परमार्थ मार्ग में अवरोधक, विघ्न डालने वाले शत्रु हैं | यही भाव अन्य संदर्भ में भी योगेश्वर पूर्व में कह आयें हैं, कि धीर पुरुष इन्द्रियों और विषयों के संयोग वियोग से व्यथित नहीं होता, इसीलिए अमृततत्त्व की प्राप्ति का अधिकारी होता है | यह तो हुआ, परमार्थ मार्ग से च्युत होने का एक कारण |

योगेश्वर परमार्थ मार्ग से च्युत होने का एक अन्य कारण भी कहते हैं | कि स्वधर्म अर्थात् स्वभाव से उत्पन्न कर्म में प्रवृत होने की क्षमता, से पलायन करना भी पाप का कारण है, योगेश्वर के अनुसार भलीभाँति अनुष्ठान करे दुसरे के धर्म से गुणरहित स्वयं का धर्म अधिक श्रेष्ठ है, तात्पर्य यह कि जीवन निर्वाह हेतु युद्ध से निवृत होने को अर्जुन की सन्यस्थ हो भिक्षान्न की कामना भी पाप का आचरण है तथा जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु भलीभाँति अनुष्ठान करके उच्च सौपनों पर पहुंचे साधकों की नक़ल करने से प्रवेशिका श्रेणी के साधकों का गुणरहित प्रतीत होता स्वधर्म अधिक श्रेष्ठ है अथवा कहें कि मन्दबुद्धि ज्ञानवानों की नक़ल ना करके, योगेश्वर के मत का अनुसरण करे, तो वह अधिक श्रेष्ठ है | स्वधर्म का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर है क्योंकी (प्रभु इसका वर्णन अध्याय छह में करेंगे) यह स्वर्ग देनेवाला और उसके उपरान्त  अगले जन्म में इस जन्म की साधना का परिणाम भी आपको देने वाला है जिससे आप पुनः अपने उत्थान का प्रयास कर सकेंगे तथा दुसरे का धर्म भय देनेवाला है, भय अर्थात् आप आचरण तो दुसरे के धर्म का करेंगे परन्तु प्रकृतिजन्य गुणों के कारण, जन्मसिद्ध स्वभाव के कारण कर्म स्वधर्म के अनुसार ही कर पाएंगे, इस प्रकार जो वर्ण संकरता का दोष उत्पन्न होगा वह भय का अर्थात् परमार्थ मार्ग से च्युत होने का कारण होगा | उदाहरणार्थ दूसरी कक्षा का छात्र अगर बाहरवीं कक्षा का पठन पाठन करेगा तो बाहरवीं में तो क्या उत्तीर्ण होगा, दूसरी कक्षा में भी अनुत्तीर्ण हो जायेगा | इसलिये सदैव स्वधर्म का पालन कारण चाहिये |     

योगेश्वर के राग और द्वेष के संबंध में तथा स्वधर्म के अनुसार जीवन निर्वाह और योग परायण होने के विषय में सुन कर अर्जुन योगेश्वर श्रीकृष्ण से अपने जिज्ञासा व्यक्त करता है |

अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः |
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || (३/३६)

अथ केन प्रयुक्तः अयम् पापम् चरति पूरुषः |
अनिच्छन् अपि वार्ष्णेय बलात् इव नियोजितः || (३/३६)

अथ(तब), केन(किस के द्वारा), प्रयुक्तः(प्रेरित होकर), अयम्(यह), पापम्(पाप का), चरति(आचरण करता है), पूरुषः(मनुष्य) | अनिच्छन्(बिना इच्छा के), अपि(भी), वार्ष्णेय(वार्ष्णेय), बलात्(बलपूर्वक), इव(मानो), नियोजितः(लगाया गया) | (३/३६)

तब किस के द्वारा प्रेरित होकर यह पुरुष पाप का आचरण करता है ? वार्ष्णेय ! बिना इच्छा के भी मानो बलात लगाया जाता है | (३/३६)

तब किसके द्वारा प्रेरित होकर अर्थात् वह कौन सी अव्यक्त शक्ति है, जिससे प्रेरित होकर, जिसके प्रभाव से यह पुरुष पाप का, बंधनकारी कर्मों का आचरण करता है ? वृष्णिवंश में जन्म के कारण श्रीकृष्ण को वार्ष्णेय भी कहते हैं, हे वार्ष्णेय ! बिना इच्छा के, ना चाहते हुए भी मानो बलात, जैसे कोई अदृश्य शक्ति बलपूर्वक बंधनकारी कर्मों में लगा देती है | उदाहरणार्थ व्यसनों से पिण्ड छुड़ाने का संकल्प करके भी मनुष्य किस अदृश्य शक्ति द्वारा बलात व्यसनों में लगा दिया जाता है | प्रश्न का स्वरूप भिन्न है परन्तु यह प्रश्न योगेश्वर के उपदेशों से ही सम्बंधित है, कि मनुष्य का आपके मत के अनुसार आचरण ना करने का क्या कारण है ? वह कौन सी अदृश्य शक्ति है, जो मनुष्य को बलात बंधनकारी कर्मों के लिये प्रेरित करती है, निश्चय ही आपसे से तो ऐसे मनुष्य प्रेरित नहीं हैं |

श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् || (३/३७)
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च |
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदामावृतम् || (३/३८)
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च || (३/३९)

कामः एष क्रोधः एष रजोगुण समुद्भवः |
महा अशनः महा पाप्मा विद्धि एनम् इह वैरिणम् || (३/३७)
धूमेन आव्रियते वह्निः यथा आदर्शः मलेन च |
यथा उल्बेन आवृतः गर्भः तथा तेन इदम् आवृतम् || (३/३८)
 आवृतम् ज्ञानम् एतेन ज्ञानिनः नित्य वैरिणा |
काम रूपेण कौन्तेय दुष्पूरेण अनलेन च || (३/३९)

कामः(काम), एष(यह), क्रोधः(क्रोध), एष(यह), रजोगुण(रजोगुण), समुद्भवः(के कारण उत्पन्न) | महा(महान), अशनः(खानेवाला) महा(महा), पाप्मा(पापी है), विद्धि(जान), एनम्(इसको),  इह(इसमें), वैरिणम्(वैरी) | (३/३७)
धूमेन(धुएँ के), आव्रियते(आवरण से), वह्निः(अग्नि), यथा(जैसे), आदर्शः(दर्पण), मलेन(मैल के),(और) | यथा(जैसे), उल्बेन(गर्भाशय के), आवृतः(आवरण से), गर्भः(गर्भ), तथा(वैसे), तेन(उनसे), इदम्(यह), आवृतम्(आवृत हुआ है) | (३/३८)
आवृतम्(आवृत हुआ) ज्ञानम्(ज्ञान), एतेन(इससे), ज्ञानिनः(ज्ञानियों का), नित्य(नित्य), वैरिणा(वैरी है) | काम(काम), रूपेण(रूप में), कौन्तेय(कुन्तीपुत्र), दुष्पूरेण(ना पूर्ण होनेवाले), अनलेन(अग्नि से),(और) | (३/३९)

रजोगुण से उत्पन्न यह काम, यह क्रोध कभी तृप्त न होने वाले महापापी हैं, इस विषय में इनको वैरी जान | (३/३७)
जैसे धुएँ से अग्नि, मैल से दर्पण और गर्भाशय से गर्भ आवृत है, वैसे उनसे(काम और क्रोध से) यह आवृत है | (३/३८)
कौन्तेय ! कभी तृप्त ना होनेवाली और ज्ञानियों की नित्य वैरी इस कामरूपी अग्नि से ज्ञान आवृत है | (३/३९)  
                                                                                                                                                                                               
यह काम और क्रोध रजोगुण से उत्पन्न हैं और रजोगुण प्रकृतिजन्य गुण है तथा देही को यह देह प्रकृति के देन है | इसलिये देही को जब तक इस देह का बंधन है, तब तक देही इस काम और क्रोध से भी बंधा है तथा यह काम और क्रोध कभी ना तृप्त होनेवाले महापापी है, इनका नाश नहीं होता | तात्पर्य यह कि अगर मनुष्य इनको तृप्त करने में जन्म जन्मान्तरों तक भी लगा रहे तो भी इनकी तृप्ति नहीं होती तथा यह महापापी भी हैं अर्थात् देही को इस देह के बंधन का आधारभूत कारण भी यही काम और क्रोध ही हैं | इस विषय में अर्थात् मनुष्यों द्वारा मेरे मत के अनुसार आचरण ना करने में इनको वैरी जान | परमार्थ हेतु, मुक्ति, मोक्ष हेतु इन काम और क्रोध को ही वैरी जान | तथा

जैसे धुएँ के कारण अग्नि भभक नहीं पाती, मैल के कारण दर्पण में प्रतिबिम्ब स्पष्ट नहीं होता, जैसे गर्भ गर्भाशय से आवृत रहता है, उसी प्रकार काम और क्रोध से योगेश्वर श्रीकृष्ण के मत के अनुसार आचरण हेतु परमार्थ मार्ग आवृत रहता है |

कभी न तृप्त होनेवाली कामरूपी अग्नि, जैसे अग्नि ईंधन को समाप्त करके ही बुझती है उसी प्रकार यह कामरूपी अग्नि मनुष्य का नाश करके ही दम लेती है इसलिये यह ज्ञानियों की नित्य वैरी है | परन्तु शास्त्रीय मतभेदों से विचलित ज्ञानियों को, जो योगेश्वर के मत के अनुसार आचरण नहीं करते, उनके प्रति तो प्रभु पहले ही कह आएं हैं कि उन अविवेकी मनुष्यों को तो तू नष्ट हुआ ही जान | (३/३२) तब यहाँ योगेश्वर ज्ञानियों से किसको इंगित कर रहें हैं ? वस्तुतः जो परमतत्त्व परमात्मा के मत के अनुसार आचरण करते हैं, केवल वही ज्ञानी हैं, विवेकी मनुष्य है, शेष सभी अज्ञानी ही हैं | सारांशतः कभी ना तृप्त होनेवाली, विवेकशील पुरूषों की नित्य वैरी इस कामरूपी अग्नि से ज्ञान अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे मत को आत्मसात करने वाली विवेकबुद्धि आवृत है | इस श्लोक में योगेश्वर ने काम को तो अग्नि रूप कहा परन्तु क्रोध के विषय में कुछ नहीं कहा | वस्तुतः क्रोध काम में ही छुपा होता है, काम की पूर्ति होने पर काम और भभकता है तथा काम की पूर्ति ना होने पर कामरूपी अग्नि क्रोधरूपी अग्नि का रूप धारण कर लेती है | रजोगुण से उत्पन्न यह काम और क्रोध रहते कहाँ हैं ?

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते |
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् || (३/४०)

इन्द्रियाणि मनः बुद्धिः अस्य अधिष्ठानम् उच्यते |
एतैः वि-मोहयति एषः ज्ञानम् आवृत्य देहिनम् || (३/४०)

इन्द्रियाणि(इन्द्रियाँ), मनः(मन), बुद्धिः(बुद्धि), अस्य(इसके), अधिष्ठानम्(निवास स्थान), उच्यते(कहे जाते हैं) | एतैः(इनके द्वारा ही),  वि-मोहयति(विशेषरूप से मोहित करता है), एषः(यह), ज्ञानम्(ज्ञान को), आवृत्य(आवृत करके), देहिनम्(देही को) | (३/४०)

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके निवास स्थान कहे जाते हैं, इनके द्वारा ही यह ज्ञान को आवृत करके देही को विशेषरूप से मोहित करता है | (३/४०)

देही की इस देह में इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके निवास स्थान कहे गये हैं तथा इन्द्रियों, मन और बुद्धि के द्वारा ही यह ज्ञान को अर्थात् विवेकबुद्धि को आवृत करके देही को विशेष रूप से मोहित करता है अर्थात् देही को अपनी कामरूपी अग्नि में ही भस्म करता रहता है | तब परमार्थ मार्ग में यात्रा हेतु क्या करें ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं | कि

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ |
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् || (३/४१)

तस्मात् त्वम् इन्द्रियाणि आदौ नियम्य भरत ऋषभ |
पाप्मानम् प्रजहि हि एनम् ज्ञान विज्ञान नाशनम् || (३/४१)

तस्मात्(इसलिये), त्वम्(तुम), इन्द्रियाणि(इन्द्रियोंको), आदौ(सबसे पहले), नियम्य(नियमित करके), भरत(भरतवंशी), ऋषभ(श्रेष्ठ)| पाप्मानम्(पाप के कारण का), प्रजहि(परित्याग करो), हि(अवश्य ही), एनम्(इस), ज्ञान(ज्ञान), विज्ञान(विज्ञानं), नाशनम्(नाश करने वाला) | (३/४१)

इसलिये भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! तुम सबसे पहले इन्द्रियों का वश में करके ज्ञान और विज्ञान का नाश करनेवाले पाप के कारण का ही दमन करो | (३/४१)

तुम सबसे पहले इन्द्रियों को वश में करो, उसके बाद ज्ञान और विज्ञान का नाश करनेवाले पाप के कारण का अर्थात् काम का परित्याग करो | शास्त्र, आचार्य और सद्गुरु के उपदेशों स्वरूप विवेक और अविवेक का जो बोध होता है, वह ज्ञान है तथा इस ज्ञान से कर्मों में प्रवृत होकर जो अनुभव होता है, वह विज्ञान है | अतः यह कामरूपी अग्नि  शास्त्र, आचार्य और सद्गुरु के उपदेशों स्वरूप उत्पन्न विवेकबुद्धि और विवेकबुद्धि से कर्मों में प्रवृत होने से उत्पन्न अनुभव दोनों का नाश करती है | अतः इसका परित्याग करो | गीता शास्त्र के बहुत से व्याख्याकार कहते हैं | कि काम को मार डालो | साधकों से निवेदन है कि ऐसा कोई प्रयास ना करें क्योंकी काम को मारा नहीं जा सकता, जब तक देह है, तब तक देह का यह अवगुण देह में ही रहेगा, आप केवल इसका परित्याग कर सकते हैं | अर्थात् इसके दास न बनें | योगेश्वर ने यहाँ काम के परित्याग को कहा है , तो किस का आश्रय लेकर, किस साधन से इसका परित्याग करा जा सकता है, इस पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि   

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः || (३/४२)

इन्द्रियाणि पराणि आहुः इन्द्रियेभ्यः परम् मनः |
मनसः तु पराः बुद्धि यः बुद्धे परतः तु सः || (३/४२)

इन्द्रियाणि(इन्द्रियाँ), पराणि(परे), आहुः(कहते हैं), इन्द्रियेभ्यः(इन्द्रियों से), परम्(परे), मनः(मन है) | मनसः(मन से), तु(परन्तु), पराः(परे), बुद्धि(बुद्धि), यः(जो), बुद्धे(बुद्धि से), परतः(परे), तु(परन्तु), सः(वह है) | (३/४२)

इन्द्रियाँ सूक्ष्म और बलवान हैं, इन्द्रियों से सूक्ष्म और बलवान मन है परन्तु मन से सूक्ष्म और बलवान बुद्धि है परन्तु जो वह है, वो बुद्धि से भी सूक्ष्म और बलवान है | (३/४२)

योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इन्द्रियाँ सूक्ष्म और बलवान हैं क्योंकी यह इन्द्रियाँ ही संसार में विचरण करती हुई विषय भोगों से संयोग कर, जैसे आँखे देखकर, रसना रस लेकर काम को उत्साहित करती हैं तथा इन्द्रियों से सूक्ष्म और बलवान मन है क्योंकी यह अव्यक्त है और सभी इन्द्रियों के विषयों का ज्ञाता और उनमें समन्वय करने का साधन है इसलिये यह काम को उत्साहित करने में भी ज्यादा सक्ष्म और बलवान है | परन्तु मन से सूक्ष्म और बलवान बुद्धि है क्योंकी इन्द्रियों के सभी विषयों का ज्ञाता होने पर भी मन विषयों के प्रति निश्चय नहीं कर पाता कि इसे भोगें अथवा त्यागें | परन्तु बुद्धि समस्त इन्द्रियों और मन के विषयों की ज्ञाता भी है और निश्चयात्मक यंत्र भी है, जो एक बार निश्चय करके उन उन भोगों के प्रति मनुष्य को निश्चयात्मक रूप से लगा देती है | परन्तु जो वह है, वो बुद्धि से भी सूक्ष्म और बलवान है | वह कौन ? वह है जिसे, यह काम इन्द्रियों,मन और बुद्धि के द्वारा ही विवेक को आवृत करके मोहित करता है, अर्थात् देही | (३/४०)  अतः योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार देही इन्द्रियों, मन और बुद्धि सबसे परे है, सूक्ष्म और बलवान है | इसलिये   

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना |
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् || (३/४३)

एवम् बुद्धेः परम् बुद्ध्वा संस्तभ्य आत्मानम् आत्मना |
जहि शत्रुम् महाबाहो काम रूपम् दुरासदम् || (३/४३)

एवम्(इस प्रकार), बुद्धेः(बुद्धि से), परम्(परे), बुद्ध्वा(जानकर), संस्तभ्य(स्थित होकर), आत्मानम्(स्वयं के द्वारा), आत्मना(स्वयं में) | जहि(त्यागकर), शत्रुम्(शत्रु का), महाबाहो(महाबाहो), काम(काम), रूपम्(रूपी), दुरासदम्(दुर्जय) | (३/४३)

इस प्रकार बुद्धि से सूक्ष्म और बलवान स्वयं को जानकर, स्वयं के द्वारा स्वयं को स्थित करके, महाबाहो ! कामरूप दुर्जय शत्रु का त्याग करो | (३/४३)  

स्वयं के द्वारा स्वयं को स्थित करके अर्थात् देह देही के भेद के विवेक से स्वयं को देही जानकर देह के इन विषयों का, भोगों का  त्याग करो, क्योंकी समस्त सांसारिक विषय इस देह के हैं ना कि तुझ देही के | देही तो केवल प्रकृतिजन्य इस देह का निवासी है, दो दिन का यह बसेरा है, परायी देह के इन विषय भोगों  में मोहित नहीं होना चाहिये क्योंकी इनका मोह ही बंधनकारी है, इसलिये इन विषय भोगों का त्याग करो |

योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस उपदेश के साथ ही गीता शास्त्र के तृतीय अध्याय का समापन होता है |



***** ॐ तत् सत् *****