Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

अध्याय ९

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** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
नवमोऽध्यायः

श्रीभगवानुवाच

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे |
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् || (९/१)

इदम् तु ते गुह्यतमम् प्रवक्ष्यामि अनसूयवे |
ज्ञानम् विज्ञान सहितम् यत् ज्ञात्वा मोक्ष्यसे अशुभात् || (९/१)

इदम् (इस), तु (परन्तु), ते (तेरे लिये), गुह्यतमम् (परं गोपनीय), प्रवक्ष्यामि (कहूँगा), अनसूयवे (असूयारहित) | ज्ञानम् (ज्ञानको), विज्ञान (विज्ञान), सहितम् (सहित), यत् (जिसे), ज्ञात्वा (ज्ञात करके), मोक्ष्यसे (मुक्त हो जायेगा), अशुभात् (अशुभ से) | (९/१)

परन्तु अनसुयवे तेरे लिये इस परं गोपनीय ज्ञान को विज्ञान सहित कहूँगा, जिसे ज्ञात करके अशुभ से मुक्त हो जायेगा | (९/१)

जो भी योगशास्त्र और अध्यात्मविद्या रूपी उपदेश योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व अध्यायों में कहे हैं अथवा आगे भी कहेंगे, उन उपदेशों से भिन्न और विलक्षण उपदेश, जो योगेश्वर श्रीकृष्ण इस अध्याय में कह रहे हैं, उनको विशेषता से लक्ष्य कराने के लिये यहाँ ‘तु’ अर्थात् परन्तु का उपयोग किया गया है, यह शास्त्र सम्मत भी है |

योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘अनसुयवे’ अर्थात् ईर्ष्यारहित अर्जुन इस परं गोपनीय ज्ञान को विज्ञान सहित अर्थात् इस ज्ञान को जानने की विधि सहित यह ज्ञान मैं तेरे लिये कहूँगा, जिसे ज्ञात करके अर्थात् मैं तेरे को संबोधित करके जो कहूँगा, उसका आचरण करके उसे ज्ञात करता हुआ, तु ‘मोक्ष्यसे अशुभात्’ अशुभ से, संसार बन्धन से मुक्त हो जायेगा | यह ज्ञान कैसा है, इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि  

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् |
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् || (९/२)

राज विद्या राज गुह्यम् पवित्रम् इदम् उत्तमम् |
प्रत्यक्ष अवगमम् धर्म्यम् सुसुखम् कर्तुम् अव्ययम् || (९/२)

राज (सर्वोपरि), विद्या (विद्या), राज (सर्वोपरि), गुह्यम् (गोपनीय), पवित्रम् (पवित्र), इदम् (यह), उत्तमम् (अति उत्तम) | प्रत्यक्ष (प्रत्यक्ष), अवगमम् (परिणाम, फल), धर्म्यम् (धर्म युक्त), सुसुखम् (अत्यन्त सुखदायी),कर्तुम् (आचरण में), अव्ययम् (अविनाशी है) | (९/२)

यह सर्वोपरि गोपनीय विद्या, अतिउत्तम, पवित्र, प्रत्यक्ष परिणाम वाली, सनातन धर्मयुक्त (तथा) आचरण में अत्यंत सुखदायी है | (९/२)  

यह विद्या समस्त विद्याओं में सर्वोपरि, समस्त गोपनीय ज्ञानों की राजा अर्थात् अत्यंत गोपनीय, अतिउत्तम और पवित्र अर्थात् इसका लक्ष्य उत्तम और पवित्र है तथा यह विद्या प्रत्यक्ष परिणाम वाली है अर्थात् जिस प्रकार प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार इस विद्या को आत्मसात करने को प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं है और सनातन धर्मयुक्त है | सनातन क्या है ? योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार सनातन तो केवल देही ही है, देह तो अन्त को प्राप्त होनेवाली है और जो भी धर्म इस देही के उत्थान को है, वही धर्म सनातन धर्म है | केवल इतना ही नहीं अपितु यह आचरण में अत्यंत सुखदायी है, यहाँ ध्यान रहे कि गीता शास्त्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण जब भी यह कहते हैं कि यह सुखदायी है, उसका तात्पर्य केवल एक ही है कि यह कर्म बन्धन से मुक्ति का उपाय है और जहाँ भी योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह दुःखदायी है, उसका तात्पर्य भी केवल एक ही है कि यह कर्म बन्धन है | अतः यह जो ज्ञान विज्ञान सहित योगेश्वर श्रीकृष्ण कहने जा रहे हैं, यह ज्ञान कर्म बंधन से मुक्ति का उपाय है, परन्तु अर्थात् जिस ‘परन्तु’ को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व श्लोक में कहा है उसके अनुसार यह ज्ञान योगशास्त्र अथवा अध्यात्मविद्या विषयक नहीं है परन्तु फिर भी समस्त विद्याओं का राजा और अत्यंत गोपनीय है |   

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अध्याय सात में प्रकृतिजन्य भावों के आधार पर मनुष्यों को ‘दुष्कृतिनो’ और ‘सुकृतिनो’ कहकर मुख्यतः दो प्रकार से विभक्त किया है, इनमें ‘दुष्कृतिनो’ अर्थात् माया द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले, अधम नर, आसुरी भाव के आश्रित, दुष्कर्मी, मूढ़जन जो मुझको नहीं भजते | (७/१५) तथा ‘सुकृतिनो’ अर्थात् अच्छे कर्म करनेवाले चार प्रकार के भक्तजन जो मुझको भजते हैं, दुखी, जिज्ञासु, कामनाओं में आसक्त और ज्ञानी | (७/१६) ज्ञानी भक्त को तो अपना ही रूप कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह मुझको प्राप्त होता है परन्तु ‘दुष्कृतिनो’ और ‘सुकृतिनो’ में से दुखी, जिज्ञासु और कामनाओं में आसक्त भक्त की गति का वर्णन योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी तक नहीं किया है | इस अध्याय में अगले श्लोक से श्लोक संख्या (९/१२) तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ‘दुष्कृतिनो’ की गति का वर्णन करते हैं तत्पश्चात् दुखी और कामनाओं में आसक्त भक्तों की गति का वर्णन करते हुए अन्त में जिज्ञासु अर्थात् अर्जुन की भाँति जिज्ञासु भक्तों को उनके उत्थान हेतु दिशा निर्देश देते हैं | आइये योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों को आत्मसात करने का प्रयास करें |

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप |
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि || (९/३)

अश्रद्दधानाः पुरुषाः धर्मस्य अस्य परन्तप |
अप्राप्य माम् निवर्तन्ते मृत्यु संसार वर्त्मनि || (९/३)

अश्रद्दधानाः (श्रद्धारहित), पुरुषाः (पुरुष), धर्मस्य (धर्म में),अस्य (इस), परन्तप (शत्रुहन्ता) | अप्राप्य (प्राप्त ना होकर), माम् (मुझको),  निवर्तन्ते (भ्रमण करते हैं), मृत्यु (मृत्युरूपी), संसार (संसार), वर्त्मनि (वर्तुल में) | (९/३)

शत्रुहन्ता अर्जुन ! इस धर्म में श्रद्धा रहित पुरुष मुझको प्राप्त ना होकर, मृत्यु रूपी संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं  |(९/३)

इस धर्म में श्रद्धा रहित पुरुष अर्थात् जो धर्म के स्वरूप और सिद्धांत में आस्तिक भाव से रहित हैं, नास्तिक हैं, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूर्व में कहा है कि माया द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले, अधम नर, आसुरी भाव के आश्रित, दुष्कर्मी, मूढ़जन मुझको नहीं भजते | (७/१५) आसुरी भाव के आश्रित जन, जो केवल देह मात्र को ही जानते और समझते हैं, ऐसे अधम नर अर्थात् अधम योनियों को प्राप्त पशु आदि की भाँति जो प्रकृति द्वारा संचालित होते हैं, वे परमात्मा को प्राप्त ना होकर मृत्यु रूपी संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं |

संसार चक्र में तो परमात्मा को भजने वाले पुरुष भी भ्रमण करते रहते हैं परन्तु यहाँ इस श्रद्धा रहित पुरूषों के संसार चक्र का और परमात्मा को भजने वाले अर्थात् आर्त और कामाकामी भक्तों के संसार चक्र का जो भेद है, उसका स्पष्टीकरण ही, योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा विज्ञान सहित कहा गया ज्ञान है | यहाँ मृत्यु रूपी संसार चक्र से योगेश्वर श्रीकृष्ण का तात्पर्य है कि वह संसार चक्र जो केवल जन्म और मृत्यु रूप है, जिसमें नरक और अधम योनियाँ ही अर्थात् पशु पक्षी आदि योनियाँ ही प्राप्त होती हैं, ऐसा संसार चक्र में पुरुष अपने उत्थान को कभी भी प्राप्त नहीं होता | परमात्मा को भजनेवाले भी आवागमन को प्राप्त होते हैं, परन्तु किस प्रकार ? इसका विवरण योगेश्वर श्रीकृष्ण श्लोक संख्या (९/१३) से आगे कहेंगे | योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहे इन ‘दुष्कृतिनो’ और ‘सुकृतिनो’ के संसार चक्र के भेद को ध्यानपूर्वक जानने का प्रयास करें |

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना |
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः || (९/४)

मया ततम् इदम् सर्वम् जगत् अव्यक्त मूर्तिना |
मत् स्थानि सर्व भूतानि न च अहम् तेषु अवस्थितः || (९/४)

मया (मेरे), ततम् (व्याप्त है, परिपूर्ण है), इदम् (यह), सर्वम् (समस्त), जगत् (जगत), अव्यक्त (अव्यक्त), मूर्तिना (रूप) | मत् (मुझमें), स्थानि (स्थान पाये हैं), सर्व (समस्त), भूतानि (प्राणी), (नहीं), (और), अहम् (मैं), तेषु (उनमें), अवस्थितः (स्थित नहीं हूँ) | (९/४)

यह समस्त जगत मेरे अव्यक्तरूप से व्याप्त है, सभी प्राणी मुझमें स्थान पाये है और मैं उनमें स्थित नहीं हूँ | (९/४)

यह समस्त जगत मेरे ‘अव्यक्त मुर्तिना’ से व्याप्त है अर्थात् मुझ अव्यक्त रूप ‘परं अक्षय ब्रह्म’ की चेतना रूपी, जीव रूपी परं प्रकृति से व्याप्त है, यह समस्त प्राणी मेरी परं प्रकृति की चेतना रूपी, जीव रूपी प्रकृति से ही चेष्टात्मक हैं, क्रियात्मक हैं, व्यवहार कर पाते हैं तथा कोई भी निर्जीव प्राणी अर्थात् जिस प्राणी को मेरी चेतना रूपी परं प्रकृति त्याग देती है, वह व्यवहार नहीं कर पाता इसलिये समस्त प्राणी मुझमें अर्थात् मेरी चेतना रूपी परं प्रकृति में ही स्थान पाये हैं, अन्यथा वे निर्जीव हैं, उनकी पंचभोतिक देह पुनः मेरी जड़ प्रकृति को प्राप्त हो जाती है | तात्पर्य यह कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जितने भी प्राणी हैं, वे सभी उस अव्यक्त ब्रह्म की ही मूर्तियाँ अर्थात् उस अव्यक्त ब्रह्म के कारण ही रूप पाये हैं अर्थात् उनमें ही स्थान पाये हैं |

परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण केवल इन श्लोकों में, जहाँ वे ‘दुष्कृतिनो’ की गति का वर्णन कर रहे हैं, अन्त में यह भी कहते हैं कि मैं उनमें स्थित नहीं हूँ अन्यथा तो योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः’ | (१०/२०) अपने इसी व्यक्त्व्य के विरोधाभास को स्पष्ट करने हेतु योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं |

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् |
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः || (९/५)

न च मत् स्थानि भूतानि पश्य मे योगम् ऐश्वरम् |
भूत भृत् न च भूत स्थः मम् आत्मा भूत भावनः || (९/५)

(नहीं), (और), मत् (मुझमें), स्थानि (स्थान पाये हैं), भूतानि (प्राणी), पश्य (देख), मे (मेरा), योगम् (योग),ऐश्वरम् (ईश्वरीय) | भूत (प्राणियों का), भृत् (धारण पोषण करनेवाला), (नहीं), (और), भूत (प्राणियों में), स्थः (स्थित), मम् (मेरी), आत्मा (आत्मा), भूत (प्राणियों को), भावनः (उत्पन्न करनेवाली) | (९/५)

और (समस्त) प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं हैं, मेरा ईश्वरीय योगसामर्थ्य देख (कि) प्राणियों का धारण पोषण करने वाला और प्राणियों को उत्पन्न करनेवाली मेरा आत्मा प्राणियों में स्थित नहीं है | (९/५)

योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने परं अक्षय ब्रह्म रूप के योग सामर्थ्य का परिचय देते हुए कहते हैं कि मैं ही इन प्राणियों को उत्पन्न करता हूँ, मैं ही इन प्राणियों को धारण करता हूँ, मैं ही इन प्राणियों का पोषण करता हूँ फिर भी मेरा योग सामर्थ्य देख कि समस्त प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं हैं और मैं आत्मा रूप से भी इन प्राणियों में स्थित नहीं हूँ |

परन्तु इसी अध्याय के श्लोक संख्या (९/२९) में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं समस्त प्राणियों में समभाव से हूँ, ना मेरा अप्रिय है, ना प्रिय परन्तु जो मुझको भक्तिभाव से पूजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें (हूँ) | (९/२९) ध्यान दे कि परन्तु जो मुझे भक्तिभाव से पूजते हैं वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ और यहाँ कहते हैं कि समस्त प्राणी मुझमें स्थित नहीं है और मेरी आत्मा प्राणियों में स्थित नहीं है | स्पष्ट है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण इन श्लोकों में ‘दुष्कृतिनो’ के संदर्भ में ही कह रहे हैं | एक तथ्य पर और ध्यान देने की जरुरत है कि पूर्व श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि समस्त प्राणी मुझमें स्थान पाये हैं और यहाँ कहते हैं कि समस्त प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं है | यह किस प्रकार होता है ? पूर्व श्लोक में किये मनन से यह तो स्पष्ट हो गया कि समस्त प्राणी उस अव्यक्त की चेतना रूपी, जीव रूपी परं प्रकृति से ही ‘मुर्तिना’ हैं अर्थात् रूप पाये हुए हैं, चेष्टात्मक हैं | इससे यह भी स्पष्ट होता है कि समस्त प्राणी अव्यक्त ब्रह्म की परं प्रकृति से ही संभव हो पाते हैं, इसलिये प्रकृति में स्थित हैं और प्रकृति उस अव्यक्त की है, केवल इस नाते वे उस अव्यक्त में स्थित है, अन्यथा जो परमात्मा को नहीं भजते, वे उस अव्यक्त में स्थित नहीं है, केवल प्रकृति में स्थित हैं और वे ही ‘दुष्कृतिनो’ हैं | ये ‘दुष्कृतिनो’ उस अव्यक्त में स्थित ना होकर केवल उस अव्यक्त की प्रकृति में किस प्रकार स्थित हैं, इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि     

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् |
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय || (९/६)

यथा आकाश स्थितः नित्यम् वायुः सर्वत्र गः महान् |
तथा सर्वाणि भूतानि मत् स्थानि इति उपधारय || (९/६)

यथा (जैसे), आकाश (आकाश में है), स्थितः (स्थित), नित्यम् (सदा), वायुः (वायु), सर्वत्र (सर्वत्र), गः (बहनेवाली), महान् (महान) | तथा (वैसे ही), सर्वाणि (समस्त), भूतानि (प्राणी), मत् (मुझमें), स्थानि (स्थान पाये हैं), इति (ऐसा), उपधारय (जान) | (९/६)

जैसे आकाश में सर्वत्र बहनेवाली महान वायु सदा आकाश में स्थित है, वैसे ही समस्त प्राणी मुझमें स्थान पाये हैं, ऐसा जान | (९/६)

जैसे आकाश में बहने वाली महान वायु सदा आकाश में स्थित है, महान वायु अर्थात् मेरी चेतना रूपी जीव शक्ति की प्राण वायु जिस प्रकार सदा आकाश में अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति में सदा स्थित है, उसी प्रकार ये ‘दुष्कृतिनो’ भी मुझमें स्थान पाये हैं, ऐसा जान | ये ‘दुष्कृतिनो’ मेरे आश्रित नहीं है, माया द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले ये प्राणी प्रकृति के आश्रित हैं इसलिये प्रकृति में स्थान पाये हैं | मुझमें तो केवल मुझको भजने वाले भक्त ही स्थान पाते हैं | ऐसे पुरूषों की ‘दुष्कृतिनो’ की गति का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् |
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् || (९/७)

सर्व भूतानि कौन्तेय प्रकृतिम् यान्ति मामिकाम् |
कल्प क्षये पुनः तानि कल्प आदौ विसृजामि अहम् || (९/७)

सर्व (समस्त), भूतानि (प्राणी), कौन्तेय (कौन्तेय), प्रकृतिम् (प्रकृति को), यान्ति (प्राप्त होते हैं), मामिकाम् (मेरी), | कल्प (कल्प), क्षये (अन्त में), पुनः (फिर से), तानि (उनको), कल्प(कल्प), आदौ(आदि में), विसृजामि(रचता हूँ), अहम्(मैं) | (९/७)

कौन्तेय ! ‘कल्पक्षये’ कल्प के अन्त में समस्त प्राणी मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं, ‘कल्पादौ’ कल्प के आदि में मैं उनको फिर से रचता हूँ | (९/७)

पूर्व अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट कर दिया है कि परमधाम के अतिरिक्त ब्रह्मभुवन पर्यन्त सभी लोक काल के अधीन हैं अर्थात् काल के सापेक्ष में परिवर्तनशील हैं और आदि तथा अन्तवाले हैं | परमात्मा की किसी भी व्यक्त रचना की, लीला की आदि और अन्त के मध्य अवधि कल्प कहलाती है तथा यहाँ विषय प्राणियों की गति का है, अतः कल्प का आदि और अन्त इन प्राणियों के जन्म और मृत्यु से सम्बंधित है |

यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि कल्प के अन्त में अर्थात् प्रारब्धवश प्राप्त जीवन की अवधि समाप्त होने पर, मृत्यु के आगमन पर यह समस्त प्राणी मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं | जरा ध्यानपुर्वक विचार करें, यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण यह नहीं कहते कि वे मुझे प्राप्त होते हैं, ब्रह्म निर्वाण को, परंशान्ति को अथवा स्वर्गलोक या ब्रह्मलोक को प्राप्त होते है अथवा चन्द्रज्योति को प्राप्त होते हैं | ऐसा कुछ भी नहीं प्राप्त करते तो श्रीमानों के कुल को प्राप्त होते हैं अथवा ज्ञानियों के, योगियों के कुल को प्राप्त होते है अथवा देहान्तर उपरान्त पुनः मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं | योगेश्वर श्रीकृष्ण ऐसा कुछ भी नहीं कहते अपितु कहते हैं कि समस्त प्राणी कल्प के अन्त में मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं | तात्पर्य स्पष्ट है कि ये ‘दुष्कृतिनो’ परमधाम से लेकर सामान्य मनुष्य योनि को भी प्राप्त नहीं होते अपितु प्रकृति को, अधमयोनियों को प्राप्त होते हैं, माया के द्वारा हरे हुए ज्ञानवाले, माया के पाश से परवश हुए, माया के पाश से पशुवत से बंधे पशु पक्षियों से लेकर किट पतंग आदि अथवा उससे भी अधम नरक योनि को प्राप्त होते हैं तथा कल्प के आदि में अर्थात् जब यह दुष्ट प्रवृति के प्राणी, अपनी दुष्टताओं के फलस्वरूप प्राप्त अधम योनियों को भोग चुके होते हैं, तब योगेश्वर अपने योग सामर्थ्य से पुनः मनुष्य योनि प्रदान करते हैं | ‘दुष्कृतिनो’ के इसी संसार चक्र को और अधिक स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं |  

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः |
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् || (९/८)

प्रकृतिम् स्वाम् अवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः |
भूत ग्रामम् इदम् कृत्स्नम् अवशम् प्रकृतेः वशात् || (९/८)

प्रकृतिम् (प्रकृति को), स्वाम् (अपनी), अवष्टभ्य (वश में करके), विसृजामि (रचता हूँ), पुनः (बार), पुनः (बार) | भूत (प्राणियों का), ग्रामम् (समुदाय), इदम् (यह), कृत्स्नम्(सम्पूर्ण), अवशम्(परवश), प्रकृतेः(स्वभाव के), वशात्(वश में) | (९/८)

‘प्रकृतेर्वशात्’ प्रकृति के वश में होने से ‘कृत्स्नमवशं’ सम्पूर्ण रूप से परवश हुए इन प्राणियों के समुदाय को मैं अपनी प्रकृति को वश में करके बारम्बार रचता हूँ | (९/८)

योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि प्रकृति के वश में होने से, माया के पाश से बंधे होने के कारण, सम्पूर्ण रूप से परवश हुए अर्थात् पशुवत से स्वभाव को प्राप्त इस प्राणियों के समुदाय को मैं अपनी प्रकृति को वश में करके बारम्बार रचता हूँ | यहाँ दो तथ्य ध्यान देने योग्य हैं, पहला कि मैं अपनी प्रकृति को वश में करके, जिसका स्पष्टीकरण योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अगले दो श्लोकों में किया है कि यह कैसे होता है | दूसरा कि इन प्राणियों के समुदाय को बारम्बार रचता हूँ, कारण स्पष्ट है कि इन ‘दुष्कृतिनो’ प्राणियों का समुदाय जो परमात्मा को नहीं भजता, परमात्मा में श्रद्धा नहीं रखता, उन प्राणियों का समुदाय भी पूर्व अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहे सिद्धांत अनुसार ही कर्मों में प्रवृत होता है अर्थात् ‘सदा तत् भाव भावितः (८/६) के अनुसार ही कर्मों में प्रवृत होता है | क्योंकी ‘दुष्कृतिनो’ प्राणियों का समुदाय परमात्मा के शरणागत तो होता नहीं, इसलिये इसके उत्थान का भी कोई उपाय नहीं होता और इसी कारण यह बारम्बार प्रकृति को प्राप्त है, अपने दुष्ट कर्मों के फल को, नरक को भोगता है और पशुवत यातना भोगने के पश्चात् योगेश्वर ही प्रकृति द्वारा परवश इन प्राणियों के समुदाय को अपनी प्रकृति को वश में करके बारम्बार रचते हैं, उन्हें अपने उत्थान का अवसर प्रदान करते हैं, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण इस अध्याय के अन्त में अर्जुन को दिशा निर्देश देते हुए कहते हैं कि इस क्षण भंगुर दुःखालय को प्राप्त हुआ, मुझको भज | (९/३३)

उपर्युक्त दो श्लोकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा ‘विसृजामि कहने से भी यही तात्पर्य है कि इन दुष्ट प्राणियों का समुदाय अपना उत्थान स्वयं तो नहीं कर सकता परन्तु अपने पशुवत कर्मों की यातनाओं को भोगने के पश्चात् मैं ही इन्हें बारम्बार इनके उत्थान हेतु मनुष्य योनि प्रदान करता हूँ, ‘विसृजामि’ विशेष रूप से सृजित करता हूँ, रचता हूँ | यहाँ योगेश्वर अपनी प्रकृति को वश में करके, इन प्राणियों का विशेष रूप से बारम्बार सृजन करते हैं, इस प्रकार कर्मों से लिप्त होने पर क्या परमात्मा को कर्म बंधन का नियम लागु नहीं होता | इसको सपष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय |
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु || (९/९)

न च माम् तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय |
उदासीनवत् आसीनम् असक्तम् तेषु कर्मसु || (९/९)

(नहीं), (और), माम् (मुझको), तानि (वे), कर्माणि (कर्म), निबध्नन्ति (बाँधते हैं), धनञ्जय (धनंजय) | उदासीनवत् (उदासीन के सदृश्य), आसीनम् (स्थित), असक्तम् (आसक्तिरहित), तेषु (उन), कर्मसु (कर्मों में) | (९/९)

और धनंजय ! उन कर्मों में आसक्तिरहित, उदासीनवत् स्थित मुझको वे कर्म नहीं बाँधते | (९/९)

उन कर्मों में अर्थात् ‘दुष्कृतिनो’ द्वारा अपने पशुवत कर्मों की यातनाओं को भोगने के पश्चात् मैं ही इन्हें बारम्बार इनके उत्थान हेतु मनुष्य योनि प्रदान करता हूँ, ‘विसृजामि’ विशेष रूप से सृजित करता हूँ | इन कर्मों को मैं  आसक्तिरहित करता हूँ, निर्द्वन्द्व भाव से करता हूँ, भावातीत होकर करता हूँ, फल सम्बन्धी कामनाओं से अतीत होकर करता हूँ तथा उदासीनवत् अर्थात् इन प्राणियों द्वारा मैं उपेक्षित हूँ, ये प्राणी मुझको भजते भी नहीं हैं, परमात्मा में उनका विश्वास भी नहीं है, फिर भी मैं उन कर्मों में उदासीन की भाँति स्थित रहता हूँ, कर्तव्य कर्म करना ही उचित है, इसलिये करता हूँ | इस कारण वे कर्म मुझको नहीं बाँधते |

यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दो परस्पर विरोधी व्यक्तव्य दिये हैं कि इनको मैं रचता हूँ और मैं उदासीन की भाँति स्थित रहता हूँ | इस शंका का समाधान करते हुए योगेश्वर कहते हैं | कि  

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् |
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते || (९/१०)

मया अध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते स चर अचरम् |
हेतुना अनेन कौन्तेय जगत् विपरिवर्तते || (९/१०)

मया (मेरी), अध्यक्षेण (अध्यक्षता में), प्रकृतिः (प्रकृति), सूयते (रचती है), (सहित), चर (चर), अचरम् (अचर) | हेतुना (कारण से), अनेन (इस), कौन्तेय (कौन्तेय), जगत् (जगत), विपरिवर्तते (परिवर्तित होता रहता है) | (९/१०)

कौन्तेय ! मेरी अध्यक्षता में चर अचर सहित प्रकृति रचती है, इस कारण जगत परिवर्तित होता रहता है | (९/१०)

मेरी अध्यक्षता में अर्थात् मेरी उपस्थिति मात्र से, सर्वत्र व्याप्त मेरे अध्यास से, प्रभाव से चर अचर सहित यह समस्त कर्म मेरे विधान के अनुसार प्रकृति द्वारा किये जाते हैं, मैं केवल दृष्टा मात्र हूँ, इस परिवर्तन का साक्षी मात्र हूँ, इस कारण जगत परिवर्तित होता रहता है अर्थात् इस ‘दुष्कृतिनो’ का सृष्टि चक्र चलता रहता है | जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी पूर्व में कहा है कि इस धर्म में श्रद्धा रहित पुरुष मुझको प्राप्त ना होकर, मृत्यु रूपी संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं  | (९/३) इस प्रकार बारम्बार यह दुष्टजन प्रकृति को ही क्यों प्राप्त होते हैं यद्यपि  योगेश्वर श्रीकृष्ण बारम्बार अपनी प्रकृति को वश में करके, इन प्राणियों का विशेष रूप से बारम्बार सृजन करता हूँ, इनके उत्थान हेतु बारम्बार इनको मनुष्य योनि प्रदान करते हैं | इस पर भी ये दुष्ट प्रवृति के आश्रित जन परमात्मा में श्रद्धा क्यों नहीं रख पाते ? इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि 

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् |
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् || (९/११)

अवजानन्ति माम् मूढाः मानुषीम् तनुम् आश्रितम् |
परम् भावम् अजानन्तः मम भूत महेश्वरम् || (९/११)

अवजानन्ति (नहीं जानते), माम् (मुझको), मूढाः (मूढ़जन), मानुषीम् (मनुष्यरूप), तनुम् (तन के), आश्रितम् (आश्रित) | परम् (परं), भावम् (भाव को), अजानन्तः (नहीं जानने के कारण), मम (मेरे), भूत (प्राणियों के), महेश्वरम् (महेश्वर को)| (९/११)

मेरे परंभाव को, प्राणियों के महान ईश्वर होने को नहीं जानने के कारण, मूढ़जन मुझको मनुष्यरूपी तन के आश्रित होने के कारण नहीं जानते | (९/११) 

इसी भाव को योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में भी, अपने जन्म और कर्म के दिव्यता को स्पष्ट करते हुए कह आये हैं कि मैं
अजन्मा, अविनाशी स्वरूप होते हुए, समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी, प्रकृति को अपने अधीन करके आत्ममाया से संभव होता हूँ | (४/६) यही योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कह रहे हैं कि मेरे परं भाव को, प्राणियों के महान ईश्वर होने के कारण को नहीं जानने के कारण मूढ़जन मुझको नहीं जानते | क्योंकी मेरा जन्म अलोकिक है, दिव्य है, मैं पिण्ड रूप में जन्म नहीं लेता, परं अक्षरं ब्रह्म एक भाव है जो स्थितप्रज्ञ महापुरुषों के हृदय से प्रकट होता है, इसलिये मुझको मनुष्यरूपी तन के आश्रित होने के कारण ये मूढ़जन मुझको नहीं जानते | क्योंकी ये तो केवल उस देहधारी को ही जान पाते हैं, वे जहाँ दृष्टि करते हैं उनकी दृष्टि केवल देह तक ही जाती है, इससे ज्यादा  ये कुछ नहीं जानते और इसी कारण केवल देह तृप्ति को प्रवृत इन दुष्ट प्रवृति के प्राणियों के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि   

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः |
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः || (९/१२)

मोघ आशाः मोघ कर्माणः मोघ ज्ञानाः विचेतसः |
राक्षसीम् आसुरीम् च एव प्रकृतिम् मोहिनीम् श्रिताः || (९/१२)

मोघ (व्यर्थ), आशाः (आशा), मोघ (व्यर्थ), कर्माणः (कर्म), मोघ (व्यर्थ), ज्ञानाः (ज्ञान), विचेतसः (विक्षिप्त चित्तवाले) | राक्षसीम् (राक्षसी), आसुरीम् (आसुरी), (और), एव (ही), प्रकृतिम् (प्रकृति के, भावों के), मोहिनीम् (मोहिनी), श्रिताः (आश्रित जन) | (९/१२)

व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म, व्यर्थ ज्ञान, मोहिनी प्रकृति के आश्रित जन विक्षिप्त चित्तवाले, राक्षसी और आसुरी भाव के होते हैं | (९/१२)

व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान तात्पर्य यह कि इनकी आशायें, इनकी कामनाएं, इनके कर्म, इनका ज्ञान इनका किसी भी प्रकार का किन्चित मात्र भी उद्धार नहीं करता क्योंकी ये मेरे आश्रित नहीं अपितु मोहिनी प्रकृति के आश्रित होते हैं और इसी कारण विक्षिप्त चित्तवाले होते हैं, राक्षसी और आसुरी भाव के होते हैं | इन राक्षसी और आसुरी भाव को प्राप्त मनुष्यों की रहनी किस प्रकार की होती है, इसका स्पष्ट चित्रण योगेश्वर श्रीकृष्ण अध्याय सोलह में श्लोक संख्या (१६/७) से (१६/२०)तक करते हैं | अतः यह व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान पर भी मनन वहीं करेंगे |

इस प्रकार उपर्युक्त दस श्लोकों में योगेश्वर श्रीकृष्ण ‘दुष्कृतिनो’ भाव को प्राप्त मनुष्यों के जीवन और संसार चक्र का वर्णन करते हैं | अब अगले श्लोक से योगेश्वर श्रीकृष्ण ‘सुकृतिनो’ भाव को प्राप्त आर्त और अर्थार्थी भक्तों के विषय में अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं | कि  

 महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः |
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् || (९/१३)

महा आत्मनः तु माम् पार्थ दैवीम् प्रकृतिम् आश्रिताः |
भजन्ति अनन्य मनसः ज्ञात्वा भूत आदिम् अव्ययम् || (९/१३)

महा (महान), आत्मनः (व्यक्ति), तु (परन्तु), माम् (मुझको), पार्थ (पार्थ), दैवीम् (दैवी), प्रकृतिम् (प्रकृति के), आश्रिताः (आश्रित हैं) | भजन्ति (भजते हैं), अनन्य (अनन्य), मनसः (मन से), ज्ञात्वा (ज्ञात करके), भूत (प्राणियों), आदिम् (आदि कारण), अव्ययम् (सनातन) | (९/१३)

परन्तु कौन्तेय ! दैवी प्रकृति के आश्रित महान व्यक्ति मुझको प्राणियों का सनातन, आदि कारण जानकार अनन्य मन से भजते हैं | (९/१३)

यहाँ दो तथ्यों पर ध्यान देना आवश्यक है, प्रथम कि दैवी प्रकृति के आश्रित और दूसरा यह कि वे अनन्य मन से
भजते हैं | दैवी प्रकृति के आश्रित अर्थात् जो हृदयस्थ ईष्ट के नहीं अपितु दैवी प्रकृति के आश्रित होते हैं और जो आत्मपरायण होकर नहीं भजते, योगमाया अथवा आत्ममाया के आश्रित नहीं होते अपितु मन से भजते हैं अर्थात् कामनाओं के वश में होकर भजते हैं, अन्य अन्य देवताओं को भजते हैं | जिनके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में ही कह आये हैं कि उन उन कामनाओं द्वारा जिनका ज्ञान हरा हुआ है, स्वयं की ‘प्रकृत्या’ प्रकृति से, स्वभाव द्वारा प्रेरित होकर, उन उन विधिविधान में आस्था रखते हुए अन्य देवतओं को भजते हैं | (७/२०) इन पुरूषों को भी योगेश्वर श्रीकृष्ण महात्मा कहते हैं क्योंकी ये पुरुष कामनाओं के वश में ही हों परन्तु श्रद्धावान तो होते हैं, हृदयस्थ ईष्ट को नहीं भजते परन्तु उसके रूप को तो भजते हैं, अपने को अधोगति में तो नहीं डालते, परमार्थ हेतु अपना उत्थान नहीं करते परन्तु सांसारिक पतन को तो प्राप्त नहीं होते, इस कारण योगेश्वर श्रीकृष्ण इनको महात्मा कहते हैं |

इस श्लोक में तो केवल इतना कहते हैं कि दैवी प्रकृति के आश्रित महान व्यक्ति मुझको प्राणियों का सनातन, आदि कारण जानकार अनन्य मन से भजते हैं अर्थात् ये भक्तजन इस भाव से अवश्य भावित होते हैं कि इस सृष्टि का कोई नियन्ता है, कोई विधिविधान है, इस भाव से, इस बुद्धि से भावित होकर वे परमात्मा तत्त्व को भजते हैं | उस परमात्मा तत्त्व को ये भक्तजन कैसे भजते हैं, किन भावों से भजते हैं और इस प्रकार इन भावों से भजने के कारण किस गति को प्राप्त होते हैं, अब इन आर्त और अर्थार्थी भक्तों की गति के बारे में योगेश्वर श्लोक संख्या (९/२५) तक वर्णन करते हैं |आइये इसका अध्ययन करें |      

सततं किर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः |
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते || (९/१४)

सततम् कीर्तयन्तः माम् यतन्तः च दृढ व्रताः |
नमस्यन्तः च माम् भक्त्या नित्य युक्ताः उपासते || (९/१४)

सततम् (सतत रूप से), कीर्तयन्तः (नाम और गुणों का कीर्तन करते हैं), माम् (मुझको), यतन्तः (यत्नपूर्वक), (और), दृढ (दृढ़),  व्रताः (व्रतधारी) | नमस्यन्तः (नमन करते हुए), (और), माम् (मुझको), भक्त्या (भक्तिभाव से), नित्य (नित्य), युक्ताः  (युक्त हुए), उपासते (उपासते हैं) | (९/१४)

यत्नपूर्वक और दृढ़ व्रतधारी नमन करते हुए, सतत रूप से मुझको नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए और नित्य भक्तिभाव से युक्त होकर मुझको उपासते हैं | (९/१४)

भक्तिभाव तो ईष्ट के प्रति प्रेम का एक धाराप्रवाह है, उसमें यत्नपूर्वक और दृढ़ता पूर्वक भजने को क्या है ? वस्तुतः जो दुःखी है, दुःखों से पार पाने में अपने को असमर्थ पाता है, वही पूर्व श्लोक में कहे अनुसार दैवी प्रकृति के आश्रित होकर अन्य अन्य देवतओं को भजते हैं, तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार आर्त भक्त यत्नपूर्वक और दृढ़ता पूर्वक व्रतों को धारण करते हुए सतत रूप से मुझको नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए अर्थात् मुझ अव्यक्त के रूप को, उस रूप के नामों को, उसके गुणों को, अन्य अन्य देवताओं को भजते हैं, बहिर्मुखी साधना करते हैं, नित्य करते हैं, भक्तिभाव से युक्त होकर करते हैं, मुझको उपासते हैं | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण तो कह रहे हैं कि मुझको भजते हैं और हम मनन कर रहे हैं कि अन्य अन्य देवताओं को भजते हैं, ऐसा क्यों ? क्योंकी जैसा हम मनन कर रहे हैं, इसी भाव को योगेश्वर आगे स्पष्ट करेंगे | सारांशतः यत्नपूर्वक और दृढ़ता पूर्वक व्रतों को धारण करके आर्त भक्त परमात्मा को भजते हैं |  

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते |
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् || (९/१५)

ज्ञान यज्ञेन च अपि अन्ये यजन्तः माम् उपासते |
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतः मुखम् || (९/१५)

ज्ञान (ज्ञान), यज्ञेन (यज्ञ द्वारा), (और), अपि (भी), अन्ये (दुसरे), यजन्तः (पूजते हुए), माम् (मुझको), उपासते (उपासना करते है) | एकत्वेन (एकीभाव से), पृथक्त्वेन (अनेक भावों से), बहुधा (बहुत से), विश्वतः (विश्व के), मुखम्(रूपमें) | (९/१५)

दुसरे एकीभाव से ज्ञान यज्ञ के द्वारा भी मुझको पूजते हुए और बहुत से अनेक भावों से विश्वरूप में उपासना करते हैं | (९/१५)

दुसरे भक्त जो एकीभाव से ज्ञान यज्ञ के द्वारा अर्थात् प्रकृतिजन्य भावों से परे होकर, कामनाओं और आसक्ति से परे होकर, राग द्वेष से परे होकर, एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित होते हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों का, दिशा निर्देश का अनुसरण करते हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कही अध्यात्मविद्या का अध्ययन करते हैं, यज्ञार्थ कर्मों का पालन करते हैं, श्रद्धा और समर्पण के साथ करते हैं, धाराप्रवाह करते हैं, बिना किसी यत्न अथवा दृढ़ व्रतों को धारण किये हुए करते हैं, अन्तरात्मा से करते हैं, यही ज्ञान यज्ञ है, वही भक्त परमात्मा को, हृदयस्थ ईष्ट को ज्ञान यज्ञ के द्वारा एकीभाव से पूजते हैं, यही भक्त जिज्ञासु भक्त कहलाते हैं, जो परमात्मा से एकीभाव की प्राप्ति को ज्ञान यज्ञ के द्वारा उनको भजते हैं |

तथा बहुत से अनेक भावों से विश्वरूप में उपासना करते हैं अर्थात् परमात्मा के प्रति एकीभाव नहीं अपितु प्रकृतिजन्य भावों से भावित होकर अनेक भावों से भावित होकर परमात्मा को विश्वरूप में अर्थात् परमात्मा को इस विश्व में उपलब्ध समस्त ऐश्वर्यों का, भोगों का प्रभु मानकर, स्वामी मानकर उनकी उपासना करते हैं | जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि अव्यवसायिक पुरूषों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं | (२/४१) अर्थात् वे अनेक भावों से भावित रहते हैं | यही भक्त अर्थार्थी भक्त कहलाते हैं, जिसका स्पष्ट विवरण योगेश्वर श्रीकृष्ण ने (२/४२,४३,४४) में किया है और यहाँ आगे भी करेंगे | त्रयी विद्या अर्थात् तीन वेदों में प्रीति रखने वाले भोगों और स्वर्ग की ही कामना करते हैं | इन त्रयी विद्या के ज्ञाताओं के अनुसार परमात्मा का विश्वरूप क्या है ? यह किस प्रकार से परमात्मा को भजते हैं, इसका विवरण देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं |

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् |
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् || (९/१६)
                                                                                             
अहम् क्रतुः अहम् यज्ञः स्वधा अहम् अहम् औषधम् |
मन्त्रः अहम् अहम् एव आज्यम् अहम् अग्नि अहम् हुतम् || (९/१६)

अहम् (मैं), क्रतुः (वैदिक यज्ञ, कर्मकाण्ड), अहम् (मैं), यज्ञः (यज्ञ), स्वधा (पितरों को दिये जानेवाला तर्पण), अहम् (मैं), अहम् (मैं), औषधम् (ओषधि) | मन्त्रः (मन्त्र), अहम् (मैं), अहम् (मैं), एव (ही), आज्यम् (यज्ञ में आहुति हेतु धृत), अहम् (मैं), अग्नि (हवन अग्नि), अहम् (मैं), हुतम् (हवनरूप कर्म) | (९/१६)

मैं वैदिक यज्ञ अर्थात् कर्मकाण्ड, मैं यज्ञ, मैं पितरों को दिया जानेवाला तर्पण, मैं ओषधि, मैं मंत्र, मैं ही यज्ञ में आहुति हेतु धृत अर्थात् यज्ञ सामग्री, मैं ही हवन अग्नि, मैं ही हवनरूप कर्म (हूँ) | (९/१६)  

‘अहं क्रतुः’ मैं वैदिक यज्ञ अर्थात् वैदिक कर्मकाण्ड हूँ | त्रयीविद्या, त्रयीधर्म, वैदिक धर्म के ज्ञाता परमात्मा को जिस विश्व रूप में जानते हैं, भजते हैं, वह समस्त ज्ञान उनकी इस एक धारणा से स्पष्ट हो जाता है कि वे वैदिक यज्ञ अर्थात् वैदिक कर्मकाण्डों को ही परमात्मा का रूप मानते हैं | पितरों को दिया जाने वाला तर्पण परमात्मा का रूप है ? योगेश्वर श्रीकृष्ण पहले ही स्पष्ट कर आये हैं कि जो कामनाओं में तन-मन से लिप्त हैं, जो पुण्यकर्मों के प्रशंसक वेद वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि के अनुसार स्वर्ग ही परमप्राप्य तत्त्व है और जो स्वर्ग से अधिक कोई अन्य उपलब्धि नहीं है, ऐसे वचन कहने वाले हैं | वे अविवेकीजन जिस पुष्पित अर्थात् शोभायुक्त दिखावटी वाणी को कहते हैं, वे पाप पुण्य कर्मफल रूपी जन्म तथा भोग एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की क्रियाओं का विशेष रूप से वर्णन करते हैं, इस प्रकार जिनका चित्त कामनाओं द्वारा हर लिया गया है, भोग और ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त उन पुरूषों की परमात्मा में निश्चयात्मक व्यावसायिक बुद्धि नहीं होती | (२/ ४२,४३,४४) वस्तुतः यह योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया धर्म ही नहीं है, यह तो वह धर्म है, जिसकी विवेचना अर्जुन ने की थी कि ‘इति अनुशुश्रुम’ (१/४४) हम ऐसा सुनते आये हैं | वेदों में कहा गया ज्ञान और धर्म तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया ज्ञान और धर्मं दो भिन्न और विलक्षण ज्ञान और धर्म हैं | इन अर्थार्थी भक्तों के पूजन को (२/४२,४३, ४४) में कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता शास्त्र में प्रथम दिशा निर्देश देते हुए स्पष्ट कहते हैं कि ‘त्रैगुण्य विषयाः वेदाः निस्त्रै गुण्यः भव अर्जुन | (२/४५) अर्थात् अर्जुन वेद तीन गुणों अर्थात् प्रकृतिजन्य तीन भावों के कार्यरूप उत्पन्न गुणों तक ही प्रकाश डालते हैं, अर्जुन तु इन तीनों गुणों से अतीत होकर कर्म कर |

इस मनन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार हम योगेश्वर के उपदेशों का मनन कर रहे हैं, वह धाराप्रवाह ही सत्य है | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण यह नहीं कह रहे कि वैदिक यज्ञ अर्थात् वैदिक कर्मकाण्ड मैं हूँ, अपितु योगेश्वर इन अर्थार्थी भक्तों की मान्यताओं का, इनके पूजन का विवरण दे रहे हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण ने आगे स्पष्ट रूप से कहा है कि पितरों को तर्पण देने वाले अर्थात् पितरों को पूजनेवाले पितरों को प्राप्त हैं, मुझको नहीं | इसलिये स्पष्ट है कि अर्थार्थी भक्तों की यह धारणा कि पितरों को दिया जानेवाला तर्पण परमात्मा है, गलत है | यहाँ केवल योगेश्वर बता रहे हैं कि ये अर्थार्थी भक्त किस प्रकार मुझे विश्वरूप में मानते हैं और भजते है |

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः |
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च | (९/१७)

पिता अहम् अस्य जगतः माता धाता पितामहः |
वेद्यम् पवित्रम् ओङ्कारः ऋक् साम यजुः एव च || (९/१७)
                                                                                                                                                                                
पिता (पिता), अहम् (मैं), अस्य (इस), जगतः (जगत का), माता (माता), धाता (धारण करनेवाला), पितामहः (पितामह) | वेद्यम्(जानने योग्य), पवित्रम्(पवित्र), ओङ्कारः(ॐकार), ऋक्(ऋक), साम(साम), यजुः(यजु), एव(ही), (और) | (९/१७)

इस जगत का पिता, माता, धाता, पितामह, जानने योग्य पवित्र ‘ॐ’कार, ऋक, साम और यजु मैं ही हूँ | (९/१७)

संक्षिप्त में इन अर्थार्थी भक्तों के अनुसार ऋक, साम और यजुर्वेद भी परमात्मा ही हैं जबकि योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ‘त्रैगुण्य विषयाः वेदाः निस्त्रै गुण्यः भव अर्जुन | (२/४५) जिस वैदिक ज्ञान और धर्म से अर्जुन को अलग हो जाने को कहते हैं, वह ज्ञान और धर्म योगेश्वर स्वयं किस प्रकार हैं ? अतः यहाँ जो भी कहा गया है, वह अर्थार्थी भक्तों की मान्यताएं हैं |

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् |
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् || (९/१८)

गतिः भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणम् सुहृत् |
प्रभवः प्रलयः स्थानम् निधानम् बीजम् अव्ययम् || (९/१८)

गतिः (कर्मफल), भर्ता (सबका पोषण करनेवाला), प्रभुः (स्वामी), साक्षी (प्राणियों के कर्मों का साक्षी), निवासः (प्राणियों का निवास स्थान), शरणम् (शरण), सुहृत् (प्रत्युपकार ना चाहकर उपकार करनेवाला) | प्रभवः (उत्पत्ति का कारण), प्रलयः (परिवर्तन का कारण),  स्थानम् (जिसमे समस्त जगत स्थित है), निधानम् (करने योग्य कर्मों का विधान), बीजम् (कारण), अव्ययम् (सनातन) | (९/१८)

गति अर्थात् कर्मों का कर्मफल, भर्ता अर्थात् सबका पोषण करनेवाला, प्रभु अर्थात् सबका स्वामी, साक्षी अर्थात् जगत का कारण होने के कारण समस्त प्राणियों के कर्मों का साक्षी, निवास अर्थात् समस्त प्राणियों का निवास स्थान, शरण, सुहृत अर्थात् प्रत्युपकार ना चाहकर उपकार करनेवाला, प्रभव अर्थात् जगत की उत्पत्ति का कारण, प्रलय अर्थात् जगत के परिवर्तन का कारण, स्थान अर्थात् जिसमें समस्त जगत स्थित है, निधान अर्थात् करने योग्य कर्मों का विधान, सनातन बीज अर्थात् सबका मूल कारण (मैं हूँ) | (९/१८)  

‘गति’ अर्थात् पुरूषों के कर्मों का कर्मफल मैं हूँ | जबकि योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में ही स्पष्ट कर आये हैं कि प्रभु
मनुष्यों के न कर्तापन को, न कर्मों को, न कर्मफल के संयोग को रचता है, अपितु स्वभाव बरतता है | (५/१४) विभु न किसी के पापकर्म को और न ही पुण्यकर्म को ग्रहण करता है, अज्ञान के द्वारा ज्ञान आवृत है, उससे समस्त जीव मोहग्रस्त हो रहे हैं | (५/१५) तब पुरूषों के कर्मों का कर्मफल परमात्मा किस प्रकार हो गये ? स्पष्ट है कि मोहग्रस्त अर्थार्थी भक्तों की मान्यताओं का चित्रण योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कर रहे हैं |        

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च |
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन || (९/१९)

तपामि अहम् अहम् वर्षम् निगृह्णामि उत्सृजामि च |
अमृतम् च एव मृत्युः च सत् असत् च अहम् अर्जुन || (९/१९)

तपामि (तपानेवाला), अहम् (मैं), अहम् (मैं), वर्षम् (वर्षा को), निगृह्णामि (आकर्षित करता हूँ), उत्सृजामि (बरसता हूँ), (और) | अमृतम् (अमृत्व), (और), एव (ही), मृत्युः (मृत्यु), (और), सत् (सत्य), असत् (असत्य), (और), अहम् (मैं), अर्जुन (अर्जुन) | (९/१९)

अर्जुन ! मैं तपाता हूँ, मैं वर्षा को आकर्षित करता हूँ और बरसता हूँ, अमृत्व और मृत्यु और सत्य और असत्य मैं ही हूँ | (९/१९)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी पूर्व में इसी अध्याय में अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा है कि कौन्तेय ! मेरी अध्यक्षता में चर अचर सहित प्रकृति रचती है, इस कारण जगत परिवर्तित होता रहता है | (९/१०) तब वर्षा हेतु परमात्मा यह किस प्रकार का कर्म कर रहे हैं और अगर करते भी हैं तो इस धरती और उस धरती में भेद क्यों करते हैं, सभी जगह सामान्य रूप से वर्षा क्यों नहीं करते, कहीं बाढ़ तो कहीं मरुभूमि, परमात्मा का यह भेद भाव पूर्ण व्यवहार कैसा ? वस्तुतः यह सब ही अर्थार्थी भक्तों की मान्यताएं हैं, जिसको योगेश्वर श्रीकृष्ण अगले दो श्लोकों में स्पष्ट करते हुए इन अर्थार्थी भक्तों की मान्यताओं स्वरूप उनकी प्राप्ति और गति का वर्णन करते हैं |

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते |
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् || (९/२०)

त्रै विद्याः माम् सोम पाः पूत पापाः यज्ञैः इष्ट्वा स्वर्गतिम् प्रार्थयन्ते |
ते पुण्यम् आसाद्य सुर इन्द्र लोकम् अश्नन्ति दिव्यान् दिवि देव भोगान् || (९/२०)

त्रै (तीन), विद्याः (विद्या), माम् (मुझको), सोम (सोमरस), पाः (पान करनेवाले), पूत (पवित्र होकर), पापाः (पापों से), यज्ञैः (यज्ञों द्वारा),  इष्ट्वा (चाहनेवाले), स्वर्गतिम् (स्वर्ग की प्राप्ति की), प्रार्थयन्ते (प्रार्थना करते हैं) | ते (वे), पुण्यम् (पुण्य स्वरूप), आसाद्य (प्राप्त करके), सुर (देवतओं), इन्द्र (इंद्र), लोकम् (लोक को), अश्नन्ति (भोगते हैं), दिव्यान् (अलौकिक), दिवि (स्वर्ग में), देव (देवतओं के), भोगान् (भोगों को) | (९/२०)

त्रिविद्या अनुसार सोमरस का पान की इच्छा से मुझको यज्ञों द्वारा (पूजकर) पापों से पवित्र होकर स्वर्ग की प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं, वे पुण्यों स्वरूप देवतओं के इंद्र लोक को प्राप्त करके, स्वर्ग में देवतओं के अलोकिक भोगों को भोगते हैं | (९/२०)

त्रिविद्या अनुसार अर्थात् तीनों वेदों में कहे सकाम कर्मों को, पुण्य कर्मों को करने की विधि अनुसार सोमरस का पान की इच्छा से अर्थात् दिव्य भोगों को भोगने की इच्छा से यज्ञों द्वारा अर्थात् पूर्व श्लोकों में कहे वैदिक कर्मकाण्डों द्वारा, पुण्य कर्मों द्वारा पापों से पवित्र होकर स्वर्ग की प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं अर्थात् सर्वोपरि भोगों की प्राप्ति हेतु प्रार्थना करते हैं, यह स्पष्ट है कि जब पुण्य कर्म करेंगे तो कर्मफल भी उनके अनुसार ही प्राप्त होगा, अतः पुण्यों स्वरूप देवतओं के इंद्र लोक को, देवताओं की गति को प्राप्त करके देवताओं समान दिव्य शरीर प्राप्त करते हैं और अपने पुण्य कर्मों और उनके कर्मफल अनुसार देवताओं के भोगों को, दिव्य, अलोकिक भोगों को भोगते हैं |
परन्तु ध्यान रहे कि योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्थार्थी भक्तों की इस प्राप्ति का विवरण भी पूर्व में कह आये हैं, योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार जो जो भक्त जिस जिस देवता के रूप की श्रद्धापूर्वक अर्चनापूजा की इच्छा रखता है, उस उस भक्त की श्रद्धा उसमें मैं ही अचल करता हूँ | (७/२१) वह उस श्रद्धा से युक्त होकर उसकी आराधना करता है और उनसे मेरे ही विधान द्वारा उन कामनाओं को निःसंदेह प्राप्त करता है | (७/२२) क्या इन अर्थार्थी भक्तों को इनकी कामनाओं की प्राप्ति सदैव होती रहती है, ये सदैव ही देवताओं के भोग भोगते रहते है ? इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति |
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते || (९/२१)

ते तम् भुक्त्वा स्वर्ग लोकम् विशालम् क्षीणे पुण्ये मर्त्य लोकम् विशन्ति |
एवम् त्रयी धर्मम् अनुप्रपन्नाः गत आगतम् काम कामाः लभन्ते || (९/२१)

ते (वे), तम् (उस), भुक्त्वा(भोगकर), स्वर्ग (स्वर्ग), लोकम् (लोक को), विशालम् (विस्तृत), क्षीणे (क्षीण होने पर), पुण्ये (पुण्यों के), मर्त्य (मृत्यु), लोकम् (लोक को), विशन्ति (प्राप्त होते है) | एवम् (इस प्रकार), त्रयी (तीन), धर्मम् (धर्म के), अनुप्रपन्नाः (पालन करनेवाले), गत (जाते हैं), आगतम् (लौट आते हैं), काम (भोग), कामाः (कामनावाले), लभन्ते (प्राप्त करते हैं) | (९/२१)

वे उस विस्तृत स्वर्ग लोक को भोगकर पुण्यों के क्षीण होने पर मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं, इस प्रकार त्रयी धर्म के पालन करनेवाले, भोगों की कामना करनेवाले, जाते हैं, लौट आते हैं | (९/२१) 

वे उस विस्तृत तात्पर्य यह कि उत्तम तो नहीं परन्तु उच्च स्वर्गादिक लोकों को भोगकर पुण्यों के क्षीण होने पर मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं अर्थात् पुनः मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं, क्षणभंगुर दुःखालय को प्राप्त होते है, इस प्रकार अर्थात् त्रयी धर्म के पालन करने वाले, भोगों की कामना करने वाले जाते हैं, लौट आते हैं, स्वर्गादिक लोकों का सुख पाते हैं फिर क्षणभंगुर दुःखालय को लौट आते हैं |

अथक परिश्रम किया, त्रयीधर्म के आचरण स्वरूप पुण्य कर्म, वैदिक कर्मकाण्ड, यज्ञ, दान, तप भी किया, परमात्मा का भजन भी किया,परन्तु जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में कह आये हैं कि ‘पचन्ति आत्म कारणात् (३/१३) अर्थात् इन सब पूजन के बदले एक मीठी सी चाह है कि शरीर, शरीर के भोगों, शरीर के संबंधो के लिये कुछ मिले | वह मिल तो जाता है परन्तु जन्म जन्मान्तरों तक किये इतने अथक परिश्रम का परिणाम क्या हुआ ? समस्त पुण्य कर्मों को इस कामाग्नि ने भस्मसात् कर दिया, पुनः दरिद्र बना दिया, पुनः दुःखालय प्राप्त हो गया | यही अर्थार्थी भाव से भावित, कामनाओं और आसक्ति से भजनेवाले भक्तों की गति है | ना तो यह योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया ज्ञान है, ना उनके द्वारा कहा गया धर्म | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जिस धर्म की प्रस्तावना की है उस धर्म के प्रयत्न के आरम्भ का नाश नहीं होता अर्थात् उस धर्म से प्राप्त फल के परिणाम का नाश नहीं होता तथा कोई विपरीत दोष भी विद्यमान नहीं है कि पुनः विपरीत यात्रा करके मृत्यु लोक की प्राप्ति हो और इस धर्म का थोड़ा सा भी आचरण महान भय से रक्षा करता है अर्थात् संसार रूपी दुःखो से ईर्ष्या द्वेष से, काम क्रोध से, जरा व्याधि से और दुःख रूपी संसार से अर्थात् संसार बंधन से रक्षा करता है | (२/४०) योगेश्वर श्रीकृष्ण के धर्म में प्राप्ति का, कर्मफल का, परमात्मा को भजने के परिणाम का नाश क्यों नहीं होता, विपरीत फल क्यों नहीं होता, इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते |
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् || (९/२२)

अनन्याः चिन्तयन्तः माम् ये जनाः पर्युपासते |
तेषाम् नित्यम् अभियुक्तानाम् योगक्षेमम् वहामि अहम् | (९/२२)

अनन्याः (अनन्य भाव से), चिन्तयन्तः (चिंतन में यत्नशील), माम् (मुझको), ये (जो), जनाः (लोग), पर्युपासते (परम भाव से पूजते हैं) | तेषाम् (उन), नित्यम् (नित्य रूप से), अभियुक्तानाम् (मुझसे युक्त जनोका), योगक्षेमम् (योग के परिणाम की रक्षा), वहामि (वहन करता हूँ), अहम् (मैं) | (९/२२)

चिन्तन में यत्नशील जो लोग अनन्य भाव से मुझको परम भाव से पूजते हैं, उन नित्यरूप से मुझसे युक्त जनों के योग के परिणाम की रक्षा मैं वहन करता हूँ | (९/२२)

चिन्तन में यत्नशील अर्थात् आर्त भाव | परन्तु जो संसार रूपी दुःखो से मुक्ति को, काम क्रोध, जरा व्याधि, दरिद्रता, शरीर, शरीर के भोगों, शरीर के संबंधो को लेकर दैवी प्रकृति के आश्रित हैं और जो दुःख रूपी संसार बंधन से मुक्ति को यत्नशील हैं, उनकी उपासना का भेद सर्वविदित है | इसलिये चिंतन में यत्नशील जो लोग अनन्य भाव से अर्थात् प्रकृतिजन्य भावों से भावित होकर नहीं अपितु परमात्मा से एकीभाव से भावित होकर मुझको अर्थात् परमात्मा के हृदयस्थ स्वरूप आत्मा को, हृदयस्थ ईष्ट को ‘पर्युपासते’ अर्थात् ‘परं भावः उपासते’ परम भाव से भजते हैं, अर्थात् मेरे पूजन स्वरूप मेरी प्राप्ति के अन्यत्र अन्य कोई भी सांसारिक कामना नहीं रखते, उन नित्य रूप से मुझसे युक्त अर्थात् मेरे उपदेशानुसार योग से युक्त जनों के ‘योगक्षेम वहाम्यहम्’ योग के परिणाम की, फल   की रक्षा मैं वहन करता हूँ | इसलिये मेरे कहे अनुसार धर्म का आचरण करने से प्राप्त कर्मफल का नाश नहीं होता, कोई विपरीत दोष रूपी फल भी नहीं होता | योगेश्वर श्रीकृष्ण परमात्मा को भजने की विशुद्ध विधि को कहकर, उससे प्राप्त परिणाम को, नाशरहित परिणाम की प्राप्ति को बताकर, अब योगेश्वर श्रीकृष्ण अन्य अन्य देवताओं को त्रयीधर्म, त्रयी विद्या के अनुसार पूजने की विधि पर अपना स्पष्ट मत प्रगट करते हैं |   

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः |
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् || (९/२३)

ये अपि अन्य देवता भक्ताः यजन्ते श्रद्धया अन्विताः |
ते अपि माम् एव कौन्तेय यजन्ति अविधि पूर्वकम् || (९/२३)

ये (जो), अपि (भी), अन्य (अन्य), देवता (देवतओं को), भक्ताः (भक्त जन), यजन्ते (पूजते हैं), श्रद्धया (श्रद्धा से), अन्विताः (युक्त होकर) | ते (वे), अपि (भी), माम् (मुझको), एव (ही), कौन्तेय (कौन्तेय), यजन्ति (पूजते हैं), अविधि (अविधि, त्रुटि), पूर्वकम् (पूर्वक) | (९/२३)

जो भी भक्तजन अन्य देवतओं को श्रद्धा से युक्त होकर पूजते हैं, कौन्तेय ! वे भी मुझको ही पूजते हैं (परन्तु) त्रुटि पूर्वक (पूजते हैं) | (९/२३)

योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं अर्थात् साधकों को दिशा निर्देश देते हुए कहते हैं कि कौन्तेय ! जो भी भक्तजन अन्य देवतओं को श्रद्धा से युक्त होकर भजते हैं, वे भी मुझको ही भजते हैं परन्तु त्रुटि पूर्वक भजते हैं | क्योंकी भोगों की, स्वर्गादिक लोकों की प्राप्ति तो मेरा योगभ्रष्ट भक्त भी करता है, योग संसिद्ध काल की प्राप्ति से पूर्व देहान्तर को प्राप्त मेरा भक्त भी उच्च लोकों को प्राप्त करता है, चन्द्रज्योति को प्राप्त होता है, परन्तु पुनः क्षणभंगुर दुःखालय को प्राप्त ना होकर, श्रीमानों के घर को, ज्ञानियों अथवा योगियों के घर को प्राप्त होता है और बुद्धि संयोग के कारण, योग के परिणाम की रक्षा के कारण, जिस रक्षा के दायित्व को मैं वहन करता हूँ, उसके कारण पुनः योग को प्राप्त होकर, अन्ततः अनेक जन्मों के योग परिणाम के फलस्वरूप वो उस परमपद को प्राप्त होता है, उस ज्ञान को प्राप्त होता है, उस भाव को प्राप्त होता है जिसे ‘वासुदेव सर्वम’ भाव कहते हैं | इसलिये कामनाओं, आसक्ति, प्रकृतिजन्य भावों से भावित होकर जो अन्य अन्य देवतओं को पूजते है वे अन्ततः दरिद्रता को ही प्राप्त होते हैं और जो मेरे कहे अनुसार धर्म का आचरण करता है, वह मुझको प्राप्त होता है | क्योंकी

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च |
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते || (९/२४)

अहम् हि सर्व यज्ञानाम् भोक्ता च प्रभु एव च |
न तु माम् अभिजानन्ति तत्त्वेन अतः च्यवन्ति ते || (९/२४)

अहम् (मैं), हि (क्योंकी), सर्व (समस्त), यज्ञानाम् (यज्ञों का), भोक्ता (भोक्ता), (और), प्रभु (स्वामी), एव (ही), (और) | न (नहीं), तु (परन्तु), माम् (मुझको), अभिजानन्ति (भलीभाँति जानते), तत्त्वेन (तत्त्वरूप से), अतः (इसलिये), च्यवन्ति (च्युत हो जाते हैं), ते (वे) | (९/२४)

क्योंकी समस्त यज्ञों को भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ, परन्तु वे मुझको तत्त्वरूप से भलीभाँति नहीं जानते इसलिये च्युत हो जाते हैं | (९/२४)

क्योंकी समस्त यज्ञों का भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ अर्थात् आप दैवी प्रकृति के आश्रित अन्य अन्य देवताओं को भजते हैं अथवा मुझ हृदयस्थ ईष्ट को, आप भजते मुझको ही हैं क्योंकी समस्त यज्ञों का, पूजनों का भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ, अब श्रद्धा आपकी कि आप अथक परिश्रम से प्राप्त पुण्यों से अपनी कामाग्नि शान्त करके पुनः दरिद्रता को प्राप्त होते हैं, त्रुटि पूर्वक भजन करते हैं अथवा मुझको प्राप्त करते हैं | आर्त और अर्थार्थी भक्त त्रुटि पूर्ण क्यों भजते हैं ? क्योंकी वे परमतत्त्व परमात्मा को तत्त्वरूप से नहीं जानते, इसलिये च्युत हो जाते हैं | अथक परिश्रम से पुण्य कमाते हैं पर फिर से दरिद्र हो जाते हैं, च्युत हो जाते हैं, परमार्थ से भटक जाते हैं |

यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः |
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् || (९/२५)

यान्ति देव व्रताः देवान् पितॄन् यान्ति पितृ व्रताः |
भूतानि यान्ति भूत इज्याः यान्ति मत् याजिनः अपि माम् || (९/२५)

यान्ति (प्राप्त होते हैं), देव (देवतओं को), व्रताः (पूजनेवाले), देवान् (देवतओं को), पितॄन् (पितरों को ), यान्ति (प्राप्त करते हैं), पितृ (पितरों को), व्रताः (पूजनेवाले) | भूतानि (भूतो को), यान्ति (प्राप्त होते हैं), भूत (भूतो को), इज्याः (पूजनेवाले), यान्ति (प्राप्त होते हैं), मत् (मेरा), याजिनः (पूजन करनेवाले), अपि (भी), माम् (मुझको) | (९/२५)

देवतओं को पूजनेवाले देवतओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजनेवाले पितरों को प्राप्त हैं, भूतों को पूजनेवाले भूतों को प्राप्त होते हैं, मेरा पूजन करनेवाले भी मुझको (प्राप्त होते हैं) | (९/२५)

जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी पूर्व में चित्रित किया है उस प्रकार देवताओं को पूजनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजनेवाले अर्थात् देहान्तर उपरान्त पुनः मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजनेवाले अर्थात् तामसी भाव के, आसुरी, राक्षसी भाव से भावित पुरुष भूतों को अर्थात् प्रकृति को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भी मुझको प्राप्त होते हैं | तात्पर्य वही जो योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में भी कह आये हैं कि ‘सदा तत् भाव भावितः (८/६) | इस अध्याय के प्रारंभ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा था कि यह धर्म आचरण में ‘सुसुखम्’ अर्थात् करने में सुगम, सरल और परिणाम में सुखदायी है, अब इस अध्याय के अन्त में इस धर्म के आचरण की सुगमता और सरलता पर प्रकाश डालते हुए, अर्जुन के समान जिज्ञासु भक्तों को दिशा निर्देश देते हुए कहते हैं | कि   
                                                                                                                                                                                                               
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः || (९/२६)

पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम् यः मे भक्त्या प्रयच्छति |
तत् अहम् भक्ति उपहृतम् अश्नामि प्रयत आत्मनः || (९/२६)

पत्रम् (पत्र), पुष्पम् (पुष्प), फलम् (फल), तोयम् (जल), यः (जो), मे (मेरे लिये), भक्त्या (भक्तिभाव से), प्रयच्छति (भेंट करता है) | तत् (वह), अहम् (मैं), भक्ति (भक्तिभाव से), उपहृतम् (अर्पित), अश्नामि (स्वीकार करता हूँ, खाता हूँ), प्रयत (शुद्ध), आत्मनः (चित्तवाले) | (९/२६)
   
जो मेरे लिये पत्र, पुष्प, फल, जल भक्तिभाव से अर्पित करता है, वह शुद्ध चित्तवाले से, भक्तिभाव से अर्पण को मैं ग्रहण करता हूँ | (९/२६) 

शुद्ध चित्त और भक्तिभाव को योगेश्वर श्रीकृष्ण महत्ता देते हैं, क्या अर्पण किया गया, इससे परमात्मा का कोई संबंध नहीं है, परमात्मा छप्पन भोगों की लालसा नहीं रखते | पत्र, पुष्प, फल, जल आदि तो परमात्मा द्वारा ही, परमात्मा की प्रकृति द्वारा ही हमें प्राप्त है | परन्तु जो वास्तव में परमात्मा को अर्पण करने योग्य है, उसके प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् || (९/२७)

यत् करोषि यत् अश्नासि यत् जुहोषि ददासि यत् |
यत् तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मत् अर्पणम् || (९/२७)

यत् (जो), करोषि (करता है), यत् (जो), अश्नासि (खाता है), यत् (जो), जुहोषि (यज्ञरूप कर्म), ददासि (दान देता है), यत् (जो) | यत् (जो), तपस्यसि (तप करता है), कौन्तेय(कौन्तेय), तत्(वह), कुरुष्व(करो), मत्(मेरेको), अर्पणम्(अर्पण) | (९/२७)

जो करता है, जो खाता है, जो यज्ञरूप कर्म करता है, जो दान देता है, जो तप करता है कौन्तेय ! वह मेरे को अर्पण कर | (९/२७)

कौन्तेय ! तु जो भी करता है, जो यज्ञ रूप कर्म करता है, यज्ञार्थ कर्म करता है, जो दान देता है, जो तप करता है वह सब मेरे को अर्पण कर | तात्पर्य यह कि तेरे समस्त कर्म हृदयस्थ ईष्ट को साक्षी रखकर करे गये हों | इससे प्राप्ति ? इसको योगेश्वर श्रीकृष्ण अभी स्पष्ट कर आये हैं कि ‘योगक्षेम वहाम्यहम्’ और इस रूप में रहनी स्वरूप तु आर्त अथवा अर्थार्थी भक्तों के भाव को भी प्राप्त नहीं होगा, पुण्यों को भस्म करनेवाली कामाग्नि को और पुण्यों के क्षीण होने पर दरिद्रता को भी प्राप्त नहीं होगा | अपितु

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः |
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि || (९/२८)

शुभ अशुभ फलैः एवम् मोक्ष्यसे कर्म बन्धनैः |
संन्यास योग युक्त आत्मा विमुक्तः माम् उपैष्यसि || (९/२८)

शुभ (शुभ), अशुभ (अशुभ), फलैः (फलरूप), एवम् (इस प्रकार), मोक्ष्यसे (मुक्त होकर), कर्म (कर्म), बन्धनैः (बंधन से) | संन्यास(संन्यास), योग(योग), युक्त(युक्त), आत्मा(आत्मा), विमुक्तः(मुक्तहोकर), माम्(मुझको), उपैष्यसि(प्राप्तहोगे) | (९/२८)

इस प्रकार शुभ अशुभ फलरूप कर्म बंधन से मुक्त होकर, ‘संन्यास’, ‘योग’ युक्त विमुक्त आत्मा होकर, मुझको प्राप्त करोगे | (९/२८)

इस प्रकार अर्थात् अपने समस्त कर्मों को मुझको अर्पण करके तु शुभ अशुभ फलरूप कर्म बंधन से मुक्त होकर, संन्यास अर्थात् समभाव, समबुद्धि से युक्त रहनी और योग अर्थात् समभाव से युक्त होकर हृदयस्थ ईष्ट के प्रति होकर, एकीभाव से युक्त हुआ, विमुक्त आत्मा होकर मुझको प्राप्त करेगा | संक्षेप में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समभाव से जीवन निर्वाह करते हुए, समबुद्धि से युक्त हुआ योग के आचरण का उपदेश पुनः दिया है | इस प्रकार युक्त हुआ, तु योग के संसिद्ध काल में मुझको प्राप्त करेगा | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ‘दुष्कृतिनो’ के संसार चक्र का विवरण देते हुए कहा था कि ना तो वे मुझमें स्थित हैं और ना मैं उनमें स्थित हूँ | परन्तु आत्मपरायण जिज्ञासु भक्तों को कहते हैं | कि
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः |
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् || (९/२९)
समः अहम् सर्व भूतेषु न मे द्वेष्य अस्ति न प्रियः |
ये भजन्ति तु माम् भक्त्या मयि ते तेषु च अपि अहम् || (९/२९)

समः (समभाव से हूँ), अहम् (मैं), सर्व (समस्त), भूतेषु (प्राणियों में), (नहीं), मे (मेरा), द्वेष्य (अप्रिय), अस्ति (है), (नहीं), प्रियः (प्रिय) | ये (जो), भजन्ति (भजते हैं), तु (परन्तु), माम् (मुझको), भक्त्या (भक्तिभाव से), मयि (मुझमें हैं), ते (वे), तेषु (उनमें), (और), अपि (भी), अहम् (मैं) | (९/२९)

मैं समस्त प्राणियों में समभाव से हूँ, ना मेरा अप्रिय है, ना प्रिय परन्तु जो मुझको भक्तिभाव से पूजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें (हूँ) | (९/२९)

मैं समस्त प्राणियों में समभाव से हूँ, ना कोई मेरा अप्रिय है, ना कोई प्रिय अर्थात् ना मुझको ‘दुष्कृतिनो’ अप्रिय हैं और ना ‘सुकृतिनो’ प्रिय परन्तु जो मुझको भक्तिभाव से पूजते हैं, बहिर्मुखी भक्ति नहीं, आर्त और अर्थार्थियों की भक्ति नहीं अपितु जो हृदयस्थ ईष्ट को भक्तिभाव से पूजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ | इसलिये  

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् |
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि यः || (९/३०)

अपि चेत् सु दुराचारः भजते माम् अनन्य भाक् |
साधुः एव सः मन्तव्यः सम्यक् व्यवसितः हि सः || (९/३०)

अपि (भी), चेत् (यदि), सु (अत्यंत), दुराचारः (दुराचारी), भजते (भजता है), माम् (मुझको), अनन्य (अनन्य), भाक् (भक्तिभाव से) | साधुः (साधु), एव (ही), सः (वह), मन्तव्यः (मानने योग्य है), सम्यक् (पूर्णतया, यथार्थ), व्यवसितः (निश्चयात्मक हो गया है), हि (क्योंकी), सः (वह) | (९/३०)

यदि अत्यंत दुराचारी भी मुझको अनन्य भक्तिभाव से पूजता है, वह साधु ही मानने योग्य है क्योंकी वह सम्यक रूप से निश्चयात्मक हो गया है | (९/३०)

यदि कोई अत्यंत दुराचारी भी मुझको अनन्य भक्तिभाव से पूजता है, किसी भी अन्य भाव को मन में लाये बिना पूजता है, केवल एक मेरे भाव से एकीभाव से पूजता है, वह साधु ही मानने योग्य है क्योंकी वह सम्यक रूप से निश्चयात्मक हो गया है | तात्पर्य यह कि इस कृष्णयोग की प्रस्तावना स्वरूप योगेश्वर श्रीकृष्ण ने जिस निश्चयात्मक बुद्धि को कृष्णयोग का एक आवश्यक अंग माना था, वह निश्चयात्मक बुद्धि और भक्त का हृदयस्थ ईष्ट के प्रति अनन्य भाव से, एकीभाव से समर्पण एक ही बात है, एक ही सिक्के के दो पहलु हैं | तथा इस प्रकार निश्चयात्मक बुद्धि से अथवा कहें कि हृदयस्थ ईष्ट के प्रति अनन्यभाव, एकी भाव से युक्त साधक किस गति को प्राप्त होता है, उसके प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि  

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति |
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति || (९/३१)

क्षिप्रम् भवति धर्म आत्मा शश्वत् शान्तिम् निगच्छति |
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति || (९/३१)

क्षिप्रम् (शीघ्र ही), भवति (हो जाता है), धर्म (धर्म), आत्मा (आत्मा), शश्वत् (शाश्वत), शान्तिम् (शांति में), निगच्छति (चला जाता है)| कौन्तेय(कौन्तेय), प्रति(यथार्थ), जानीहि(जान), (नहीं), मे(मेरा), भक्तः(भक्त), प्रणश्यति(नष्ट होता है) | (९/३१)

(वह) शीघ्र ही धर्म आत्मा हो जाता है, शाश्वत शांति में चला जाता है, कौन्तेय ! यथार्थ जान मेरा भक्त नष्ट नहीं होता | (९/३१)

वह शीघ्र ही धर्मात्मा अर्थात् योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहे अनुसार धर्म अनुयायी हो जाता है, कृष्णयोग से युक्त हो
जाता है और शाश्वत शांति में चला जाता है अर्थात् कृष्णयोग से युक्त होना और शाश्वत शांति की प्राप्ति भी एक ही सिक्के के दो पहलु हैं | यह केवल अत्यंत दुराचारी के लिये ही संभव है, ऐसा भी नहीं है | अपितु

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः |
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || (९/३२)

माम् हि पार्थ व्यपाश्रित्य ये अपि स्युः पाप योनयः |
स्त्रियः वैश्याः तथा शूद्राः ते अपि अपि यान्ति पराम् गतिम् || (९/३२)

माम् (मेरी), हि (क्योंकी), पार्थ (पार्थ), व्यपाश्रित्य (पूर्णरूपेण शरणागत होकर), ये (जो), अपि (भी), स्युः (हों), पाप (पाप),  योनयः (योनि वाले) | स्त्रियः (स्त्री), वैश्याः (वैश्य), तथा (तथा), शूद्राः (शुद्र), ते (वे), अपि(भी), यान्ति (प्राप्त करते हैं), पराम् (उत्तम), गतिम् (गति) | (९/३२)

क्योंकी पार्थ ! पापयोनि वाले, स्त्री, वैश्य, तथा शुद्र, जो भी हों, वे भी पूर्णरूपेण शरणागत होकर उत्तम गति को प्राप्त होते हैं | (९/३२)

पापयोनि वाले, स्त्री, वैश्य तथा शुद्र जो भी हों, वे भी पूर्णरूपेण शरणागत होकर अर्थात् अनन्यभाव से, एकीभाव से हृदयस्थ ईष्ट के परायण होकर उत्तम गति अर्थात् शीघ्र ही अपना उत्थान करते हुए परमगति को प्राप्त होते हैं | इस श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया ‘क्योंकी’ अगले श्लोक से सम्बंधित है, योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब पापयोनि वाले, स्त्री, वैश्य तथा शुद्र भी अर्थात् जो नीच नहीं ‘दुष्कृतिनो’ नहीं अपितु अल्पज्ञ हैं, वे भी अपना उत्थान कर सकते हैं तब

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा |
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् || (९/३३)

किम् पुनः ब्राह्मणाः पुण्याः भक्ताः राज ऋषयः तथा |
अनित्यम् असुखम् लोकम् इमम् प्राप्य भजस्व माम् | (९/३३)

किम् (क्या), पुनः (फिर), ब्राह्मणाः (ब्राह्यण), पुण्याः (पुण्यात्मा), भक्ताः (भक्त), राज (राज), ऋषयः (ऋषि), तथा (तथा) | अनित्यम् (क्षणभंगुर), असुखम् (दुःखालय), लोकम् (लोक को), इमम् (इस), प्राप्य (प्राप्त हुआ), भजस्व (भजनेवाले), माम् (मुझको)  | (९/३३)

फिर क्या ब्राह्मण, पुण्य आत्मा भक्त, राजा और ऋषि ? इस क्षण भंगुर दुःखालय को प्राप्त हुआ, मुझको भज | (९/३३)  

फिर ब्राह्मण, पुण्य आत्मा भक्त अर्थात् आर्त और अर्थार्थी भक्त, राजा अर्थात् क्षत्रिय और ऋषियों को तो कहना ही क्या ? क्योंकी ये तो अल्पज्ञ नहीं है, इनको इतना तो ज्ञान है कि इस सृष्टि का नियन्ता, कोई रचियता, कोई रक्षक, कोई पालनहार है | इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस क्षणभंगुर दुःखालय अर्थात् काल के अधीन इस दुःख रूपी संसार और मनुष्य योनि को पाकर, मुझको भज क्योंकी परमतत्त्व परमात्मा की प्राप्ति का विधान केवल मनुष्य शरीर से ही है, अन्यत्र सभी योनियाँ भोग योनियाँ हैं | और किस प्रकार भज ? इस पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं | कि 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः || (९/३४)

मत् मनाः भव मत् भक्तः मत् याजी माम् नमस्कुरु |
माम् एव एष्यसि युक्त्वा एवम् आत्मानम् मत् परायणः || (९/३४)

मत् (मेरे में), मनाः (मनवाला), भव (हो), मत् (मेरा), भक्तः (भक्त), मत् (मेरा), याजी (उपासक), माम् (मुझको), नमस्कुरु (नमन कर) | माम् (मुझको), एव (ही), एष्यसि (प्राप्त करोगे), युक्त्वा (युक्त हुआ), एवम् (इस प्रकार), आत्मानम् (स्वयं), मत् (मेरे), परायणः (परायण, शरणागत होकर) | (९/३४)

मेरे में मनवाला हो, मेर भक्त, मेरा उपासक, मुझको नमन कर, इस प्रकार स्वयं मेरे परायण होकर, युक्त हुआ, मुझको ही प्राप्त करोगे | (९/३४)

जिस एकीभाव की प्राप्ति को जिज्ञासु भक्त ज्ञान यज्ञ करते हैं, जिस भाव की प्राप्ति को साधक ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस भाव की, परंभाव की प्राप्ति हेतु तु मुझ में मनवाला, मेरा भक्त बन, मुझको ही नमन कर, मेरा पूजन कर, इस प्रकार युक्त हुआ अर्थात् योगयुक्त हुआ तु मुझको ही प्राप्त करेगा |


इस प्रकार अध्याय नौ का समापन होता है |







***** ॐ तत् सत् *****