** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
सप्तदशोऽध्यायः
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते
श्रद्धयान्विताः |
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वम् आहो
रजस्तमः || (१७/१)
ये
शास्त्र विधिम् उत्सृज्य यजन्ते श्रद्धया अन्विताः |
तेषाम्
निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वम् आहो रजः तमः || (१७/१)
ये
(जो), शास्त्र
विधिम् (शास्त्रविधि को), उत्सृज्य
(त्यागकर), यजन्ते
(यजन करते हैं), श्रद्धया(श्रद्धा), अन्विताः(युक्त होकर) |
तेषाम् (उनकी), निष्ठा
(निष्ठा), तु
(परन्तु), का
(क्या है), कृष्ण
(कृष्ण), सत्त्वम्
(सत्त्वम), आहो
(अथवा), रजः
(राजसी), तमः
(तामसी) |
(१७/१)
जो शास्त्रविधि को त्यागकर परन्तु श्रद्धापूर्वक यजन करते हैं,
कृष्ण ! उनकी निष्ठा सात्विक, राजसी अथवा तामसी क्या है ? (१७/१)
‘शास्त्रविधि को त्यागकर’
यहाँ दो तथ्य ध्यान देने योग्य हैं, पहला कि वह शास्त्रविधि क्या है और दूसरा यह
कि अर्जुन का प्रश्न किसके लिये है, जो शास्त्रविधि का उपेक्षापूर्ण अर्थात् काम्य
कर्मों में आसक्ति के कारण त्याग करता है अथवा उसका विरोध करता है जैसे रावण, कंस
आदि अथवा फिर अज्ञान के, तमस के कारण मनमाना व्यवहार करते हैं | ‘परन्तु श्रद्धापूर्वक
यजन करते हैं’ जैसे काम्य कर्मों में आसक्त श्रद्धापूर्वक वैदिक कर्मकाण्डों का
यजन करते हैं, जिसको योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अविधिपूर्वक कहा है अथवा रावण की तरह
राम से विरोध परन्तु शिव का श्रद्धापूर्वक यजन करते हैं अथवा फिर अज्ञान के, तमस
के कारण शास्त्रविधि का त्याग करके भुत को, प्रेतों को भजते हैं | तथा इस प्रकार
शास्त्रविधि का त्याग करके, श्रद्धापूर्वक यजन करने वालों की श्रद्धा अनुरूपा उनकी
निष्ठा किस प्रकार की हुई, सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी | इस अध्याय में योगेश्वर
श्रीकृष्ण पहले श्रद्धा तत्त्व को स्पष्ट करते है, उसके पश्चात् उस श्रद्धा पर
आधारित सात्त्विक, राजसी अथवा तामसी निष्ठा को स्पष्ट करते हैं और अन्त में शास्त्रविधि
को स्पष्ट करते हैं कि परमार्थ मार्ग के साधकों हेतु शास्त्रविधि का स्वरूप क्या
है |
श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा |
सात्त्विकी राजसि चैव तामसि चेति तां श्रुणु
|| (१७/२)
त्रि
विधा भवति श्रद्धा देहिनाम् सा स्व भाव जा |
सात्त्विकी
राजसि च एव तामसि च इति ताम् श्रृणु ||
(१७/२)
त्रि
(तीन), विधा
(प्रकार से), भवति
(होती है), श्रद्धा
(श्रद्धा), देहिनाम्
(देहधारियों की), सा
(वह), स्व
(स्वयं के), भाव
(भावों से), जा
(उत्पन्न) |
सात्त्विकी (सात्त्विकी), राजसि (राजसी), च
(और), एव
(ही), तामसि
(तामसी), च
(और), इति (ऐसे), ताम्
(उसको),
श्रृणु (सुनो) |
(१७/२)
देहधारियों
की वह स्वयं के भावों से उत्पन्न श्रद्धा सात्विकी और राजसी और तामसी ही, तीन
प्रकार से होती है, उसको सुनो | (१७/२)
देहधारियों की वह स्वयं के भावों से
उत्पन्न श्रद्धा, तात्पर्य यह कि दैविक अथवा आसुरी भावों की भाँति, भावों के
कार्यरूप गुणों की भाँति मनुष्यों की श्रद्धा भी प्रकृतिजन्य भावों से भावित होती
है, सतो, रजो और तम भावों से भावित होती है और स्वयं के भावों से उत्पन्न यह
श्रद्धा भी सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी तीन प्रकार की होती है | उस श्रद्धा को
विभागपूर्वक स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत |
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः
|| (१७/३)
सत्त्व
अनुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत |
श्रद्धा
मय अयम् पुरुषः यः यत् श्रद्धः सः एव सः || (१७/३)
सत्त्व
अनुरूपा (स्व स्वभाव के
अनुरूप), सर्वस्य (सबकी), श्रद्धा
(श्रद्धा), भवति
(होती है), भारत
(भारत) |
श्रद्धा मय (श्रद्धामय), अयम् (यह), पुरुषः
(पुरुष), यः
(जो), यत्
(जैसी), श्रद्धः
(श्रद्धा है), सः
(वह), एव
(ही), सः
(वह है) |
(१७/३)
भारत
! स्व स्वभाव के अनुरूप सबकी श्रद्धा होती है, यह पुरुष श्रद्धामय है, जैसी
श्रद्धा है, वह वही है | (१७/३)
सबकी श्रद्धा ‘सत्त्व अनुरुपा’ होती है,
तथा (२/१६,१८) के अनुसार देहधारियों में सत्त्व तत्त्व है वह अविनाशी, अप्रमेय,
नित्यस्वरूप देही, जो क्षेत्र के प्रकृतिजन्य भावों को अपने भाव मानकर, कर्ताभाव
से भावित होकर, क्षेत्र के विकारों और प्रभावों को अपना मान लेता है, इस कारण सब
देहधारियों की श्रद्धा ‘सत्त्व अनुरुपा’ होती है, उस क्षेत्र के देही के जो भाव
हैं, उनके अनुरूप होती है | यह मनुष्य श्रद्धामय है अर्थात् भावों से भावित है
इसलिये जैसी जिस मनुष्य की श्रद्धा, वह मनुष्य स्वयं भी वही है | तात्पर्य यह कि
मनुष्य किस भाव से भावित है, मनुष्य का स्वभाव किस प्रकार का है, मनुष्य सात्त्विक
है अथवा राजसी अथवा फिर तामसी, इसका निर्णय उस मनुष्य की श्रद्धा से ही हो जाता है
|
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः
|
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ||
(१७/४)
यजन्ते
सात्त्विकाः देवान् यक्ष रक्षांसि राजसाः |
प्रेतान्
भूत गणान् च अन्ये यजन्ते तामसाः जनाः || (१७/४)
यजन्ते
(यजन करते हैं), सात्त्विकाः
(सात्त्विक पुरुष), देवान्
(देवों को), यक्ष
(यक्ष), रक्षांसि
(राक्षसों का), राजसाः
(राजसी) |
प्रेतान् भूत गणान्(भुत, प्रेत गणों का), च(और), अन्ये(अन्य), यजन्ते(यजन करते हैं), तामसाः
जनाः(तामसी पुरुष) |
(१७/४)
सात्त्विक
पुरुष देवताओं का, राजसी यक्ष राक्षसों का यजन करते हैं और अन्य तामसी पुरुष
भुतप्रेत गणों का यजन करते हैं | (१७/४)
यहाँ जानने योग्य यह है कि ऐसा नहीं है
कि सात्विक पुरुष गणेश, सीताराम, कृष्ण, लक्ष्मी, सरस्वती अथवा हनुमान को पूजते
हैं और राजसी यक्ष अर्थात् कुबेर आदि की, राक्षस अर्थात् रावण आदि की पूजा करते
हैं और तामसी शमशान में जाकर भुत प्रेतों को पूजते हैं, अज्ञान के कारण मनुष्य ऐसा
भी करते हैं परन्तु यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण का ऐसा कहने से तात्पर्य यह है कि सात्त्विक
पुरुष उन्ही सांसारिक देवताओं को हृदयस्थ ईष्ट के परायण होकर दैविक सम्पदा को
उन्नत करने हेतु पूजते है, जबकि राजसी पुरुष उन्ही सांसारिक देवताओं को कामनाओं के
वश में होकर यक्ष और राक्षसों की भाँति केवल अर्थ और भोग के लिये पूजते हैं और
तामसी वृति के पुरुष उन्ही सांसारिक देवताओं को तमस के कारण दूसरों के अहित के
लिये, क्षय के लिये पूजते हैं |
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः |
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ||
(१७/५)
अशास्त्र
विहितम् घोरम् तप्यन्ते ये तपः जनाः |
दम्भ
अहंकार संयुक्ताः काम राग बल अन्विता || (१७/५)
अशास्त्र
विहितम् (शास्त्रविधि से रहित),
घोरम्
(घोर), तप्यन्ते
(तप करते हैं), ये
(जो), तपः
(तप), जनाः
(लोग) |
दम्भ (दंभ),
अहंकार (अहंकार), संयुक्ताः
(से प्रवृत होकर), काम
(काम), राग
(राग), बल
(बल), अन्विता
(युक्त होकर) |
(१७/५)
जो
लोग शास्त्रविधिरहित काम, राग, (एवं) बल से युक्त, दम्भ, अहंकार से प्रवृत होकर
घोर तप करते हैं | (१७/५)
पूर्व श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने
पुरूषों के श्रद्धापूर्वक यजन को तीन प्रकार से विभागपूर्वक कहा परन्तु इस श्लोक
में दो प्रकार के भावों से भावित मनुष्यों के विषय में कहते हैं कि जो शास्त्रविधि
से रहित होकर घोर तप तपते हैं परन्तु ‘दम्भ अहंकार संयुक्ताः’ अथवा ‘काम
राग बल अन्विता’ भावों से भावित होकर घोर
तप तपते हैं | यहाँ ध्यान देने योग्य है कि जो दम्भ और अहंकार से संयुक्त होकर घोर
तप तपते हैं, वे तामसी प्रवृति की मनुष्य हैं और जो काम, राग और बल आदि भावों से
भावित होकर घोर तप तपते हैं, वे राजसी प्रवृति के मनुष्य हैं तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण
ने यहाँ यह कहा हिया कि वे ‘घोर’ तप तपते हैं अर्थात् ये दोनों प्रकार के मनुष्य
‘सौम्य’ रूप से, ‘सात्त्विक’ रूप से यजन नहीं करते, अपितु शास्त्रविधि रहित होकर,
शास्त्रविधि की उपेक्षा करके, अथवा विरोध करके अथवा फिर अज्ञानवश घोर तप तपते हैं
| अन्यथा जो सात्त्विक भावों से, ‘घोर’ नहीं अपितु सौम्य रूप से देवताओं का दैवी
सम्पदा को उन्नत करने हेतु भजते हैं, उनके विषय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यहाँ
कुछ भी नहीं कहा और इन दो प्रकार मनुष्यों के घोर तप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
| कि
कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः |
मां चैवान्तःशरीरस्थं
तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् || (१७/६)
कर्शयन्तः
शरीर स्थम् भूत ग्रामम् अचेतसः |
माम्
एव च अन्तः
शरीर स्थम् तान् विद्धि आसुर निश्चयान् || (१७/६)
कर्शयन्तः
(कृश करते हैं), शरीर
स्थम् (शरीर में स्थित), भूत
ग्रामम् (भुत समुदाय को), अचेतसः
(भ्रमित चित्तवाले) |
माम् (मुझको),
एव (ही), च
(और), अन्तः
शरीर स्थम् (अंतःकरण में स्थित), तान् (उनको), विद्धि
(जान), आसुर
(असुर), निश्चयान्
(निश्चय रूप से)
| (१७/६)
वे
भ्रमित चित्तवाले शरीर में स्थित भुतसमुदाय को और अंतःकरण में स्थित मुझको ही कृश
करते हैं, उनको निश्चय रूप से असुर जान | (१७/६)
वे भ्रमित चित्तवाले अर्थात् राजसी अथवा
तामसी भावों से घोर तप तपने वाले, शरीर में स्थित भुत समुदाय को अर्थात् भ्रमित
चित्त के कारण वे देह देही के भेद को तो जानते नहीं, क्षेत्र के विकारों और प्रभावों
के ज्ञाता तो होते नहीं, इसलिये शरीर में स्थित परमात्मा के सनातन अंश को,
जीवात्मा को, देही को, और अंतःकरण में स्थित मुझको अर्थात् समष्टि परमात्मा के
व्यष्टि रूप ‘आत्मा’ को कृश करनेवाले होते हैं, क्योंकी जीवात्मा दैवी सम्पदा का
अर्जन करके सबल होती है और प्रकृतिजन्य भावों से भावित होकर दुर्बल होती है, कृश
होती है तथा इन भावों से भावित मनुष्यों से हृदयस्थ ईष्ट भी दूर ही रहता है, कृश
होता है, इसलिये उनको अर्थात् जो राजसी अथवा तामसी भावों से घोर तप तपते हैं, उनको
योगेश्वर श्रीकृष्ण असुर ही कहते हैं | तात्पर्य यह कि जिस एकमात्र परमात्मा के आप
अंश है और जो अंतःकरण में, हृदयस्थ ईष्ट के रूप में स्थित है, उस उर्ध्व मूल
परमात्मा का भजन करना चाहिए और इस प्रकार स्वयं का अर्थात् शरीर में स्थित स्वयं
का, अपने विशुद्ध स्वरूप का उत्थान करना चाहिये और अंतःकरण में स्थित परमात्मा को
सबल बनाना चाहिये |
पूर्व श्लोक (१७/३) में योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने कहा है कि यह मनुष्य श्रद्धामय है अर्थात् भावों से भावित है इसलिये
जैसी जिस मनुष्य की श्रद्धा, वह मनुष्य स्वयं भी वही है | तात्पर्य यह कि मनुष्य
किस भाव से भावित है, मनुष्य का स्वभाव किस प्रकार का है, मनुष्य सात्त्विक है
अथवा राजसी अथवा फिर तामसी, इसका निर्णय उस मनुष्य की श्रद्धा से ही हो जाता है |
मनुष्य की श्रद्धा अनुसार मनुष्य के आहार, यज्ञ, दान और तप की प्रवृति को स्पष्ट
करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः |
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रुणु ||
(१७/७)
आहारः
तु अपि सर्वस्य त्रि विधः भवति प्रियः |
यज्ञः
तपः तथा दानम् तेषाम् भेदम् इमम् श्रृणु || (१७/७)
आहारः
(आहार), तु
(जैसे), अपि
(भी), सर्वस्य
(सभी का), त्रि
विधः (तीन प्रकार का), भवति
(होता है), प्रियः
(प्रिय) |
यज्ञः (यज्ञ), तपः
(तप), तथा
(तथा), दानम्
(दान भी), तेषाम्
(उनके), भेदम्
(भेद), इमम्
(इस), श्रृणु
(सुनो) |
(१७/७)
जैसे
आहार भी सभी को तीन प्रकार का प्रिय होता है, वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी, उनके इस
भेद को सुनो |
जैसे मनुष्य की श्रद्धा तीन प्रकार की
होती है, उसी प्रकार मनुष्यों को आहार भी अपनी प्रवृति के अनुसार तीन प्रकार का
प्रिय होता है और उसी प्रकार यज्ञ, तप और दान भी मनुष्य अपनी स्वभाव जन्य श्रद्धा
के अनुरूप तीन प्रकार के भावों से भावित होकर करते हैं | अब योगेश्वर श्रीकृष्ण
सात्त्विक, राजसी अथवा तामसी प्रवृति से भावित मनुष्यों के आहार, यज्ञ, तप और दान
के भेदों को कहते हैं |
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिवर्धनाः |
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः
सात्विकप्रियाः || (१७/८)
आयुः
(आयु), सत्त्व
बल (आत्मिक बल), आरोग्य
(आरोग्य), सुख
(सुख), प्रीति
(प्रीति), विवर्धनाः
(बढ़ानेवाला) |
रस्याः (रसयुक्त), स्निग्धाः
(चिकना), स्थिराः
(स्थिर), हृधाः
(हृदय को प्रिय), आहाराः
(आहार), सात्त्विक
(सात्त्विक पुरूषों
को), प्रियाः
(प्रिय है)|
(१७/८)
आयु,
आत्मिक बल, आरोग्य, सुख, प्रीति बढ़ानेवाला रसयुक्त, चिकना, स्थिर, हृदय को प्रिय
आहार सात्त्विक
पुरूषों
को प्रिय होता है | (१७/८)
‘आयु’ अर्थात् वो आहार जो शारीरिक तंत्र
को स्वस्थ रखता है, ‘सत्त्व बल’ अर्थात् जिस आहार से अंतःकरण, आत्मिक बल की उन्नति
होती है, ‘आरोग्य’ अर्थात् जो आहार शरीर को निरोग रखता है, ‘सुख’ अर्थात् जो भोजन
खाकर आत्मा तृप्त होती हो, ऐसा प्रीतिकर, रसयुक्त, चिकना और स्थिर हृदय को प्रिय
लगनेवाला आहार सात्त्विक पुरूषों को प्रिय होता है | तात्पर्य यह कि सात्त्विक
पुरूषों का आहार विषय भोग ना होकर आयु, आत्मिक बल और आरोग्य वर्धक होता है, जो
परमार्थ मार्ग हेतु साधना में सहायक होता है |
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः |
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ||
(१७/९)
कटु
अम्ल लवण अति उष्ण तीक्ष्ण रुक्ष विदाहिनः |
आहाराः
राजसस्य इष्टाः दुःख शोक आमय प्रदाः || (१७/९)
कटु
(कड़वा), अम्ल
(खट्टा), लवण (नमकवाला), अति उष्ण
(ज्यादा गर्म), तीक्ष्ण
(तीखा), रुक्ष
(रुखा), विदाहिनः (दाहकारक)
| आहाराः (आहार), राजसस्य (राजसिक पुरूषों को), इष्टाः
(रुचिकर है), दुःख
(दुःख), शोक
(शोक), आमय
प्रदाः (रोगाप्रद) |
(१७/९)
कडवा,
खट्टा, नमकीन, ज्यादा गर्म, तीखा, रुखा, दाहकारक, दुःख, शोक, रोगप्रद आहार राजसिक
पुरूषों को रुचिकर है | (१७/९)
कड़वा, खट्टा, नमकीन, ज्यादा गर्म, तीखा,
रुखा और दाहकारक आहार अर्थात् इन्द्रियों और शरीर में उत्तेजना पैदा करनेवाले आहार
राजसी पुरूषों को प्रिय होते हैं, यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण यह भी स्पष्ट कर देते
हैं कि ऐसे आहार दुःख, शोक और रोगप्रद होते हैं |
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् |
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ||
(१७/१०)
यात
यामम्
गत रसम् पूति पर्युषितम् च यत् |
उच्छिष्टम्
अपि च अमेध्यम् भोजनम् तामस प्रियम् || (१७/१०)
यात
यामम्
(अधपका), गत
रसम् (रसरहित), पूति
(दुर्गन्धयुक्त), पर्युषितम्
(बासी), च
(और), यत्
(जो) |
उच्छिष्टम् (दूसरों का झूठन), अपि (भी), च
(और), अमेध्यम्
(अस्पर्शनीय), भोजनम्
(भोजन), तामस
(तामसी), प्रियम्
(प्रिय है) |
(१७/१०)
अधपका,
रसरहित, दुर्गन्धयुक्त और बासी और दूसरों का झूठन भी अस्पर्शनीय आहार तामसी प्रिय
है | (१७/१०)
‘यातयामं’ अर्थात् अधपका अथवा ज्यादा
पका, रसहीन, दुर्गन्धयुक्त और बासी भी और दूसरों का झूठन भी और अस्पर्शनीय अर्थात्
जानवर आदि का झूठा करा हुआ भी आहार तामसी वृति के पुरूषों को प्रिय होता है | ऐसा
आहार तामसी वृति वाले पुरूषों को क्यों प्रिय होता है, क्योंकी तमस अर्थात्
प्रमाद, आलस्य और निद्रा प्रवृति के पुरुष इससे अन्य और क्या आहार कर सकते हैं | यहाँ
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस प्रकार के आहार के आरोग्य आदि गुण अथवा रोग आदि दोष कुछ
भी नहीं कहे क्योंकी तमस अपने आप में एक रोग है | अब यज्ञ |
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते |
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ||
(१७/११)
अफल
आकाङ्क्षिभिः यज्ञः विधि दृष्टः यः इज्यते |
यष्टव्यम्
एव इति मनः समाधाय सः सात्विकः || (१७/११)
अफल
आकाङ्क्षिभिः (फल की कामना से रहित), यज्ञः
(यज्ञ), विधि
(विधि), दृष्टः
(देखते हुए), यः
(जो), इज्यते
(किया जाता है) |
यष्टव्यम् (करना कर्तव्य है), एव (ही), इति
(ऐसा), मनः
(मन का), समाधाय
(समाधान करके), सः
(वह), सात्विकः
(सात्त्विक है) |
(१७/११)
जो
यज्ञ विधिपूर्वक फल की कामना से रहित, करना ही कर्तव्य है, मन का ऐसा समाधान करके
किया जाता है, वह सात्त्विक है | (१७/११)
फल की इच्छा ना रखनेवाले पुरूषों द्वारा,
शास्त्रविधि को ध्यान में रखते हुए, जिन यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता है,
यज्ञार्थ कर्म करना ही कर्त्तव्य है, इस प्रकार मन का समाधान करते हुए अर्थात् इन
यज्ञों से मुझे कोई पुरुषार्थ सिद्घ नहीं करना है, ऐसा निश्चय करके जो यज्ञ किया
जाता है, वह यज्ञ सात्त्विक है |
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् |
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ||
(१७/१२)
अभिसन्धाय
तु फलम् दम्भ अर्थम् अपि च एव यत् |
इज्यते
भरत श्रेष्ठ तम् यज्ञम् विद्धि राजसम् || (१७/१२)
अभिसन्धाय
(इच्छा करके), तु
(परन्तु), फलम्
(फल की), दम्भ अर्थम्
(दंभ के लिये), अपि
(भी), च
(और), एव
(ही), यत्
(जो) | इज्यते (किया जाता है), भरत
श्रेष्ठ(भरतश्रेष्ठ), तम्(उस), यज्ञम्(यज्ञ को), विद्धि(जान), राजसम्(राजसी) |
(१७/१२)
परन्तु
जो भी फल की इच्छा से और दम्भ के लिये ही किया जाता है, भरतश्रेष्ठ ! उस यज्ञ को
राजसी जान |
जो फल की इच्छा से अर्थात् जो यज्ञ
कामनाओं और आसक्ति से किया जाता है और दम्भ के लिये अर्थात् पाखण्ड के लिये,
दिखावे के लिये किया जाता है, उस यज्ञ को राजसी कहते हैं | यह यज्ञ वैदिक
कर्मकाण्डो के अनुसार तो विधिपूर्वक हो सकते हैं परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस
प्रकार के यजन को शास्त्रविधि से रहित माना है |
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् |
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ||
(१७/१३)
विधि
हीनम् असृष्ट अन्नम् मन्त्र हीनम् अदक्षिणम् |
श्रद्धा
विरहितम् यज्ञम् तामसम् परिचक्षते || (१७/१३)
विधि
हीनम् (विधिहीन), असृष्ट
अन्नम् (अन्नदान रहित), मन्त्र
हीनम् (मन्त्र रहित), अदक्षिणम्
(दक्षिणा रहित) |
श्रद्धा विरहितम् (श्रद्धा रहित), यज्ञम् (यज्ञ को), तामसम्
(तामसी), परिचक्षते
(कहते हैं) |
(१७/१३)
विधिहीन,
अन्नदान रहित, मन्त्ररहित, दक्षिणारहित यज्ञ को तामसी कहते हैं | (१७/१३)
विधिहीन अर्थात् जो शास्त्रविधि से तो
रहित है ही अपितु काम्य कर्मों हेतु कर्मकाण्डो की विधि से भी रहित हो, जो समस्त
विधियों से रहित हो इस प्रकार का यज्ञ अन्नदान, मन्त्ररहित, दक्षिणारहित होता है
और इस प्रकार के यज्ञों को तामसी कहा जाता है | कारण पुनः वही कि तमस के कारण,
प्रमाद, आलस्य और निद्रा के कारण तामसी पुरुष इसके अन्यत्र और कर भी क्या सकते हैं
? अब तप |
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ||
(१७/१४)
देव
द्विज गुरु प्राज्ञ पूजनम् शौचम् आर्जवम् |
ब्रह्मचर्यम्
अहिंसा च शारीरम् तपः उच्यते || (१७/१४)
देव
(देव), द्विज
(ब्राह्मण), गुरु
(गुरु), प्राज्ञ
(प्रज्ञावान), पूजनम्
(पूजन), शौचम्
(पवित्रता), आर्जवम्
(सरलता) |
ब्रह्मचर्यम् (ब्रह्म आचरण), अहिंसा (अहिंसा), च
(और), शारीरम्
(शरीर के ), तपः
(तप), उच्यते
(कहे जाते हैं) |
(१७/१४)
देव,
द्विज, गुरु, प्रज्ञावानों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा शरीर
के तप कहेजाते हैं | (१७/१४)
देव अर्थात् दैविक सम्पदा की उन्नति
हेतु, द्विज अर्थात् जिन्होंने परमात्मा तत्त्व में स्थिति पा ली है, गुरु अर्थात्
जो आपके अज्ञानमय अन्धकार को दूर कर आपको परमार्थ मार्ग पर चलाता है और प्रज्ञावान
अर्थात् अर्जुन के प्रश्न स्वरूप जिस उन्नत अवस्था को प्राप्त साधक की स्थिति का
वर्णन योगेश्वर श्रीकृष्ण ने (२/५५ से ५८) तक किया है, इन पुरूषों का पूजन और
पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा शरीर के तप कहे जाते हैं |
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् |
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ||
(१७/१५)
अनुद्वेग
करम् वाक्यम् सत्यम् प्रिय हितम् च यत् |
स्वाध्याय
अभ्यसनम् च एव वाक् मयम् तपः उच्यते || (१७/१५)
अनुद्वेग
करम्(क्षुब्ध न करनेवाले), वाक्यम्(कथन), सत्यम्(सत्य), प्रिय(प्रिय), हितम्(हितकर), च(और), यत्(जो) |
स्वाध्याय (स्वाध्याय), अभ्यसनम् (अभ्यास), च (और), एव (ही), वाक्
मयम् (वाणी के), तपः (तप), उच्यते (कहे जाते हैं) |
(१७/१५)
क्षुब्ध
न करने वाला, सत्य, प्रिय और जो हितकर कथन है और स्वाध्याय अभ्यास ही वाणी के तप
हैं | (१७/१५)
स्वयं और दूसरों में उद्वेग ना पैदा करने
वाले, सत्य अर्थात् यथार्थ कथन जो प्रिय और हितकर हों तथा स्वाध्याय का अभ्यास
अर्थात् नाम जप आदि वाणी सम्बन्धी तप कहलाते हैं |
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः |
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ||
(१७/१६)
मनः
प्रसादः सौम्यत्वम् मौनम् आत्म विनिग्रहः |
भाव
संशुद्धिः इति एतत् तपः मानसम् उच्यते || (१७/१६)
मनः
(मन की), प्रसादः
(प्रसन्नता), सौम्यत्वम्
(सौम्यता), मौनम्
(मौन), आत्म
विनिग्रहः (संयम) | भाव (भावों का), संशुद्धिः (शुद्धिकरण), इति (ऐसा), एतत् (यह), तपः
(तप), मानसम्
(मानसिक), उच्यते
(कहा जाता है) |
(१७/१६)
मन
की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, संयम, भावों का शुद्धीकरण ऐसा यह मानसिक तप कहा जाता
है | (१७/१६)
रागद्वेष से परे, द्वन्द्वों से परे मन
की प्रसन्नता, सौम्यता अर्थात् घोर भाव से नहीं अपितु सौम्य भाव से यज्ञार्थ
कर्मों का आचरण, मौन अर्थात् सांसारिक विषयों का चिंतन ना करते हुए नाम जप और भगवन
चिंतन का अभ्यास और भावों का, अन्तःकरण का युक्तियुक्त भलीभाँति शुद्धीकरण करना
मानसिक तप कहलाता है |
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः |
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते
|| (१७/१७)
श्रद्धया
परया तप्तम् तपः तत् त्रि विधम् नरैः |
अफल
आकाङ्क्षिभिः युक्तैः सात्त्विकम् परिचक्षते || (१७/१७)
श्रद्धया
(श्रद्धा), परया
(परम), तप्तम्
(तपे हुए), तपः
(तप को), तत्
(उपर्युक्त), त्रि
(तीन), विधम्
(प्रकार के), नरैः
(पुरूषों द्वारा) |
अफल आकाङ्क्षिभिः (फलकामना से रहित), युक्तैः(योगयुक्त), सात्त्विकम्(सात्त्विक), परिचक्षते(कहते हैं) |
(१७/१७)
योगयुक्त
पुरूषों द्वारा फल कामनासे रहित, उपर्युक्त तीन प्रकारके परमश्रद्धा से तपे हुए तप
को सात्त्विक कहते हैं |
योगयुक्त पुरूषों द्वारा फल की कामना से
रहित होकर अर्थात् किसी पुरुषार्थ की सिद्धि हेतु योग का आचरण नहीं अपितु जीवन
यात्रा की सिद्धि हेतु योग का आचरण करनेवाले पुरूषों द्वारा ऊपर कहे तीन प्रकार के
तपों का अर्थात् शारीरक, वाचिक और मानसिक तपों का परमश्रद्धा से अर्थात् परमभाव की
प्राप्ति हेतु जो सात्त्विक श्रद्धा अनिवार्य है, उस श्रद्धा से युक्त होकर,
हृदयस्थ ईष्ट के प्राप्ति एकीभाव से इन तीनों तपों का तपना सात्त्विक तप कहलाता है
|
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् |
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ||
(१७/१८)
सत्
कार मान पूजा अर्थम् तपः दम्भेन च एव यत् |
क्रियते
तत् इह प्रोक्तम् राजसम् चलम् अध्रुवम् || (१७/१८)
सत्
कार (आदर), मान
(मान), पूजा
अर्थम् (पूजा के लिये), तपः
(तप), दम्भेन
(पाखण्ड से), च
(और), एव
(ही), यत्
(जो) |
क्रियते (किया जाता है), तत्
(वह), इह
(यहाँ), प्रोक्तम्
(कहा जाता है), राजसम्
(राजसी), चलम्
(समाप्त होनेवाला), अध्रुवम्
(अनिश्चित) |
(१७/१८)
जो
तप आदर, मान, पूजा के लिये दम्भ से किया जाता है, वह अनिश्चित, चलम (तप) यहाँ
राजसी कहा जाता है |
जो तप अर्थात् शारीरक अथवा वाचिक अथवा
फिर मानसिक तप दूसरों से, समाज से आदर, मान अथवा अपने में पूज्य भाव प्राप्त करने
हेतु पाखण्डपूर्वक, दिखावे के लिये किया जाता है, वह अनिश्चित अर्थात् ऐसा तप
पुरुष सदैव, नित्य निरन्तर कर भी नहीं सकता और ऐसा तप चलम अर्थात् फलदायक भी नहीं
होता, इस प्रकार का तप राजसी तप कहलाता है |
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः |
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ||
(१७/१९)
मूढ
ग्राहेण आत्मनः यत् पीडया क्रियते तपः |
परस्य
उत्सादन अर्थम् वा तत् तामसम् उदाहृतम् || (१७/१९)
मूढ
ग्राहेण (मूढ़तापूर्वक), आत्मनः
(स्वयं को), यत्
(जो), पीडया
(पीड़ादायक), क्रियते
(किया जाता है), तपः
(तप) |
परस्य (दुसरों के),
उत्सादन(अनिष्ट), अर्थम्(हेतु), वा
(अथवा), तत्
(वह), तामसम्
(तामसी), उदाहृतम्(कहा गया है) |
(१७/१९)
जो
तप स्वयं को पीड़ादायक, मूढ़तापूर्वक अथवा दूसरों के अनिष्ट हेतु किया जाता है, वह
तामसी कहा जाता है |
दूसरों के अनिष्ट हेतु अर्थात् जो इस भाव
से किया जाता है जिसमें दूसरों का अहित हो, क्षय हो ऐसा तप स्वयं को भी पीड़ादायक
ही होता है और यह निश्चित रूप से मूढ़ता ही है | इस प्रकार के तप को तामसी तप कहते
हैं | इस प्रकार यज्ञ और तप के विषय को विभागपूर्वक कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण अब
दान के विषय में कहते हैं |
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे |
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं
स्मृतम् || (१७/२०)
दातव्यम्
इति यत् दानम् दीयते अनुपकारिणे |
देशे
काले च पात्रे च तत् दानम् सात्त्विकम् स्मृतम् || (१७/२०)
दातव्यम्
(दान देना कर्तव्य है),
इति
(इस प्रकार), यत्
(जो), दानम्
(दान), दीयते
(दिया जाताहै), अनुपकारिणे
(प्रत्युपकार की भावना
के बिना) | देशे (स्थान), काले
(काल), च
(और), पात्रे
(पात्र), च
(और), तत्
(वह), दानम्
(दान), सात्त्विकम्
(सात्त्विक), स्मृतम्
(माना गया है) |
(१७/२०)
दान
देना कर्तव्य है, इस भाव से, प्रत्युपकार की भावना के बिना, देश और काल और पात्र
को (देखकर) जो दान दिया जाता है, वह दान सात्विक माना गया है | (१७/२०)
दान देना कर्तव्य है अर्थात् परमार्थ
मार्ग के साधक को जीवन निर्वाह से अधिक प्राप्य साधनों का दान अवश्य करना चाहिये
तथा प्रत्युपकार की भावना से रहित होकर करना चाहिये अर्थात् किसी पर उपकार की
भावना से अथवा बदले में किसी कार्य सिद्धि की कामना से रहित होकर दान करना चाहिये
और देश, काल और पात्र को देखकर दान करना चाहिये | देश और काल अर्थात् जहा दान दिया
जा रहा है उस प्रदेश की और उस समय उस प्रदेश के मौसम की परिस्थियों के अनुकूल दान
करना चाहिये तथा उचित पात्र को अर्थात् जिसे दान में दिये हुए पदार्थ की वस्तुतः
आवश्यकता हो, उसे दान करना चाहिये | इस प्रकार दिया हुआ दान सात्त्विक माना जाता
है |
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः |
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ||
(१७/२१)
यत्
तु प्रति उपकार अर्थम् फलम् उद्दिश्य वा पुनः |
दीयते
च परिक्लिष्टम् तत् दानम् राजसम् स्मृतम् || (१७/२१)
यत्
(जो), तु
(परन्तु), प्रति
उपकार अर्थम् (प्रत्युपकार के प्रयोजन से), फलम्
(फल), उद्दिश्य
(हेतु), वा
(अथवा), पुनः(फिर) |
दीयते (दिया जाता है), च
(और), परिक्लिष्टम्
(न चाहते हुए), तत्
(वह), दानम्
(दान), राजसम्
(राजसी), स्मृतम्
(माना गया है) |
(१७/२१)
परन्तु
जो प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फिर फल हेतु और न चाहते हुए दिया जाता है, वह
दान राजसी माना गया है | (१७/२१)
परन्तु प्रत्युपकार की भावना से अर्थात्
किसी पर उपकार की भावना से अथवा बदले में किसी कार्य सिद्धि की कामना से दान करना
अथवा फिर किसी फल की आकांक्षा से दान करना और ना चाहते हुए अर्थात् दान करने की
कोई इच्छा तो नहीं है परन्तु समाज में अपनी मान प्रतिष्ठा के कारण जो दान देना
पड़ता है, ऐसा दिया हुआ दान राजसी दान कहलाता है |
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते |
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् || (१७/२२)
अदेश
काले यत् दानम् अपात्रेभ्य च दीयते |
असत्
कृतम् अवज्ञातम् तत् तामसम् उदाहृतम् || (१७/२२)
अदेश(अनुपयुक्त स्थान), काले
(अनुपयुक्त काल), यत्(जो), दानम्(दान), अपात्रेभ्य(कुपात्र को), च(और), दीयते (दिया जाता है) |
असत् कृतम्(सत्काररहित), अवज्ञातम्(बिना ज्ञान के), तत्(वह), तामसम्(तामसी), उदाहृतम्(कहा गया है) |
(१७/२२)
जो
दान अनुपयुक्त स्थान में, अनुपयुक्त काल में और कुपात्र को बिना ज्ञान के
सत्काररहित दिया जाता है, वह तामसी कहा गया है | (१७/२२)
जो दान प्रदेश और समय के अनुकूल नहीं
होता और कुपात्र को अर्थात् जिसे उस दान की कोई आवश्यकता भी नहीं है, ऐसा अज्ञानवश
तथा तिरस्कारपूर्ण दिया गया दान तामसी कहलाता है |
इस प्रकार आहार, यज्ञ, तप और दान के
स्वरूप को विभागपूर्वक स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण अब अर्जुन के प्रश्न
स्वरूप उस शास्त्रविधि पर प्रकाश डालते हैं, जिसके अनुसार यह यज्ञ, दान और तप करने
चाहिये और आहार ग्रहण करना चाहिये |
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः
|
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा
|| (१७/२३)
ॐ
तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रि विधः स्मृतः |
ब्राह्मणाः
तेन वेदाः च यज्ञाः च विहिताः पुरा || (१७/२३)
ॐ
(ओम्), तत्
(तत्), सत्
(सत्), इति
(यह), निर्देशः
(निर्देश), ब्रह्मणः
(ब्रह्मका), त्रिविधः(तीन विधिद्वारा), स्मृतः( स्मरणीय माना गया है)
|
ब्राह्मणाः (ब्राह्मण), तेन (इन्ही से), वेदाः
(वेद), च
(और), यज्ञाः
(यज्ञ आदि), च
(और), विहिताः
(रचे गया हैं), पुरा
(पूर्व काल में) |
(१७/२३)
‘ॐ
तत् सत्’ यह ब्रह्म
का स्मरणीय निर्देश माना गया है, इन्ही से पूर्वकाल में ब्राह्मण, वेद और यज्ञ रचे
गये हैं |
इन्हीं से अर्थात् जो शास्त्रविधि कही जा
रही है, इस शास्त्रविधि से युक्त होकर पूर्वकाल में अर्थात् सदैव ही ऐसा नियम रहा
है कि इस शास्त्रविधि से युक्त होकर ही ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त करने
हेतु ‘चातुर्वर्ण्यं’ के अनुसार पुरुष का जो ब्राह्मण रूपी सर्वोत्तम वर्ण है उसकी
रचना अर्थात् ब्रह्म में प्रवेश करने हेतु, ब्रह्मभाव की प्राप्ति हेतु जिस स्थिति
की प्राप्ति करनी है, वह स्थिति तथा वेद की रचना अर्थात् जो जानने योग्य है उस
अध्यात्मविद्या और तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु तथा यज्ञ अर्थात् यज्ञार्थ कर्म,
योग के आचरण में जो हेतु हैं, उसकी प्राप्ति के लिये, तात्पर्य यह कि जिस
शास्त्रविधि से युक्त होकर ब्राह्मणत्व की प्राप्ति होती है, अध्यात्मविद्या और तत्त्व
ज्ञान की प्राप्ति होती है और योग का आचरण होता है, उस शास्त्रविधि को ‘ॐ तत् सत्’ यह ब्रह्म का स्मरणीय
निर्देश माना गया है अर्थात् ब्रह्म भाव की प्राप्ति हेतु पुरुष जो भी आचरण करता
है, समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करता है और जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु जिन
भी यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करता है, उसमे प्रवृत होने के लिये पुरुष को ‘ॐ तत् सत्’ इस भाव से सदैव भावित
रहना चाहिये, क्योंकी यह ब्रह्म का स्मरणीय निर्देश माना गया है, तात्पर्य यह कि ‘ॐ
तत् सत्’ से भावित पुरुष सदैव
ब्रह्म भाव से भावित रहता है | इस शास्त्रविधि को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर
श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः |
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्
|| (१७/२४)
तस्मात्
ओम् इति उदाहृत्य यज्ञ दान तपः क्रियाः |
प्रवर्तन्ते
विधान उक्ताः सततम् ब्रह्म वादिनाम् || (१७/२४)
तस्मात्
(इसलिये), ओम्
(ओम्), इति
(ऐसा), उदाहृत्य
(उच्चारण करके), यज्ञ
(यज्ञ), दान(दान), तपः(तप), क्रियाः(क्रियाएँ) |
प्रवर्तन्ते(प्रारम्भ होती हैं), विधान(विधि), उक्ताः(अनुसार), सततम्(सदैव), ब्रह्म(ब्रह्म), वादिनाम्(वादियों की) |
(१७/२४)
इसलिये
ब्रह्मवादी पुरूषों द्वारा सदैव ‘ओम्’ ऐसा उच्चारण करके विधि अनुसार यज्ञ, दान, तप
क्रियाएँ प्रारम्भ होती हैं | (१७/२४)
पूर्व श्लोक में कहे अनुसार ‘ॐ तत् सत्’ यह ब्रह्म का स्मरणीय
निर्देश माना गया है इसलिये ‘ब्रह्म वादिनाम्’ ब्रह्म परायण पुरूषों द्वारा
शास्त्रविधि अनुसार ‘ओम्’ ऐसा उच्चारण करके यज्ञ, दान और तप क्रियाएँ प्रारम्भ
होती हैं अर्थात् ‘ओम्’ का उच्चारण करना ही वह विधि विशेष है जिसका उच्चारण करके
आपके यज्ञ, दान और तप आदि कर्म ब्रह्ममय हो जाते हैं, यही वह विधिविशेष है, जो
आपके कर्मों को ब्रह्ममय बनाती है और इसके आचरण स्वरूप अन्य समस्त भावों का,
कामनाओं का विसर्जन होता है |
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः |
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते
मोक्षकाङ्क्षिभिः || (१७/२५)
तत्
इति अनभिसन्धाय फलम् यज्ञ तपः क्रियाः |
दान
क्रियाः च विविधाः क्रियन्ते मोक्ष काङ्क्षिभिः || (१७/२५)
तत्
(सब वह परमात्मा ही
है), इति
(ऐसा प्रकार), अनभिसन्धाय
(इच्छारहित), फलम्
(फल की), यज्ञ
(यज्ञ), तपः
(तप), क्रियाः
(क्रियाएँ) |
दान (दान), क्रियाः
(क्रिया), च
(और), विविधाः
(विविध प्रकार की), क्रियन्ते
(करते हैं), मोक्ष
(मोक्ष), काङ्क्षिभिः
(अभिलाषी) |
(१७/२५)
‘तत्’
सब वह परमात्मा ही है, इस प्रकार फल की इच्छा से रहित मोक्षपरायण पुरूष विविध
प्रकार की यज्ञ, तप क्रियाएँ और दान क्रियाएँ करते हैं | (१७/२५)
‘तत्’ सब वह परमात्मा ही है, सब उसको ही
समर्पित है, इस भाव से भावित होकर ही फल की इच्छा से रहित मोक्षपरायण पुरुष विविध
प्रकार की यज्ञ, दान और तप क्रियाएँ करते हैं | जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण का
अर्जुन को निर्देश है कि जो करता है, जो खाता है, जो यज्ञरूप कर्म करता है, जो दान
देता है, जो तप करता है कौन्तेय ! वह मेरे को अर्पण कर | (९/२७)
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते |
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते
|| (१७/२६)
सत्
भावे साधु भावे च सत् इति एतत् प्रयुज्यते |
प्रशस्ते
कर्मणि तथा सत् शब्दः पार्थ युज्यते || (१७/२६)
सत्
(वह ही सत्य है), भावे
(भाव से), साधु
(श्रेष्ठ), भावे
(भाव से), च
(और), सत्
(सत्), इति
(इस प्रकार), एतत्
(यह), प्रयुज्यते
(प्रयुक्त किया जाता
है) |
प्रशस्ते (प्रमाणिक), कर्मणि (कर्मों में), तथा
(तथा), सत्
(सत्), शब्दः
(शब्द), पार्थ
(पार्थ), युज्यते
(प्रयोग किया जाता है) |
(१७/२६)
‘सत्’ वह ही
सत्त्व तत्त्व है, इस भाव से, और श्रेष्ठ भाव से, इस प्रकार यह ‘सत्’ प्रयुक्त
किया जाता है, पार्थ ! वैसे ही प्रमाणिक कर्मों में ‘सत्’ शब्द प्रयोग किया
जाता है |
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘न
अभावः विद्यते सतः’ (२/१६) सत्त्व तत्त्व का
तीनों कालों में अभाव नहीं होता, यह भाव सदैव रहता है, यह कालातीत भाव है | इस भाव
से, इस श्रेष्ठ भाव से ‘सत्’ प्रयुक्त किया जाता है, तात्पर्य यह की सत्त्व भाव परमभाव ही
है, ब्रह्मभाव ही है और इसी भाव से, इस साधु भाव से अर्थात् इस श्रेष्ठ भाव से ‘सत्’ प्रयुक्त किया जाता है, इसलिये
‘ब्रह्म वादिनाम्’ ब्रह्म परायण पुरूषों
द्वारा प्रमाणिक कर्मों में, यज्ञ में, दान में, तप में ‘सत्’ शब्द प्रयोग किया जाता
है जिससे यह कर्म ब्रह्ममय हो जाते हैं और सत्त्व अनुरुपा इन कर्मों के परिणाम का
कभी नाश नहीं होता, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि इसमें प्रयत्न के
आरम्भ का नाश नहीं होता, कोई विपरीत दोष भी विद्यमान नहीं है | इस धर्म का थोड़ा सा
भी (आचरण) महान भय से रक्षा करता है | (२/४०) तात्पर्य यह कि इस शास्त्रविधि
अनुसार आप यज्ञार्थ कर्मों के आचरण में लग भर जाएँ, इसमें प्रयत्न के आरम्भ का नाश
नहीं होता और फल रूपी कोई दोष भी नहीं है कि फल भोग और इन यज्ञ, दान अथवा तप का
परिणाम नष्ट हो जाये और इस धर्म का अर्थात् इस शास्त्रविधि से किये यज्ञार्था
कर्मों का थोड़ा सा भी आचरण महान भय से रक्षा करता है, महान भय अर्थात् पुनः माया
के पाश में बंधने के भय से भी रक्षा करता है, तात्पर्य यह कि इस शास्त्रविधि के
अनुसार किये गये यज्ञार्थ कर्मों का परिणाम आपको मुक्त करा ही देता है |
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते |
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते || (१७/२७)
यज्ञे
तपसि दाने च स्थितिः सत् इति च उच्यते |
कर्म
च एव तत् अर्थीयम् सत् इति एव अभिधीयते || (१७/२७)
यज्ञे (यज्ञ), तपसि (तप), दाने (दान), च (और), स्थितिः (स्थिति), सत् (सत्), इति (ऐसा), च (और), उच्यते (कहा जाताहै) |
कर्म (कर्म), च
(और), एव(ही), तत्(उस परमात्मा के), अर्थीयम् (के लिये), सत् (सत्),
इति (ऐसा), एव (ही), अभिधीयते (कहे जाते हैं) |
(१७/२७)
और
इस प्रकार कहा जाता है (कि) यज्ञ, दान और तप में ‘सत्’ स्थित है और इस
प्रकार ही उसके लिये ही कर्म ‘सत्’ कहे जाते हैं | (१७/२७)
इस शास्त्रविधि से युक्त होकर यज्ञ, तप
और दान में जो स्थिति है, वह ही ‘सत्’ है, इस प्रकार कहा जाता है और ‘तत्
अर्थीयम्’ उस परमात्मा की प्राप्ति
के लिये किया गया कर्म ही ‘सत्’ है, ऐसा भी कहा जाता है | तात्पर्य यह
कि योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कही गयी शास्त्रविधि जिसे ‘ॐ तत् सत्’ यह ब्रह्म का स्मरणीय
निर्देश माना गया है, इस भाव से भावित होकर जीवन निर्वाह और जीवन यात्रा की सिद्धि
हेतु किये गये कर्म ही ब्रह्मभाव की प्राप्ति में हेतु हैं | इस प्रकार अर्जुन के
प्रश्न को भलीभाँति स्पष्ट करके योगेश्वर श्रीकृष्ण अन्त में इस शास्त्रविधि में
श्रद्धा रहित पुरुष के प्रति अपना मत कहते हुए, इस अध्याय का समापन करते हैं
|
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् |
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ||
(१७/२८)
अश्रद्धया
हुतम् दत्तम् तपः तप्तम् कृतम् च यत् |
असत्
इति उच्यते पार्थ न च तत् प्रेत्य नो इह || (१७/२८)
अश्रद्धया
(श्रद्धारहित), हुतम्
(हवन), दत्तम्
(दिया हुआ दान), तपः
(तप), तप्तम्
(तपा हुआ), कृतम्
(कृत्य), च
(और), यत्
(जो) |
असत् (असत्य), इति
(ऐसा), उच्यते
(कहा जाता है), पार्थ
(पार्थ), न
(न), च
(और), तत्
(वह), प्रेत्य
(मरकर), नो
(न ही), इह
(इस) |
(१७/२८)
श्रद्धारहित
हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो क्रियाएँ हैं, ‘असत्’ हैं, ऐसा कहा जाता है
और पार्थ ! वह न मरकर, न इस (लोक में ‘सत्’ है |)
सारांशतः योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा
उपदेशित ब्रह्म का स्मरणीय निर्देश मानी गयी शास्त्रविधि ‘ॐ तत् सत्’ में श्रद्धा रखकर यज्ञ,
दान, और तप आदि समस्त कर्म करनेवाला कृष्णयोग का साधक ब्रह्मभाव की प्राप्ति करता
है |
इस प्रकार सत्रहवें अध्याय का समापन होता
है |
***** ॐ तत् सत् *****