Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

अध्याय १४

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** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
चतुर्दशोऽध्यायः     
श्रीभगवानुवाच

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् |
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः || (१४/१)

परम् भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानाम् ज्ञानम् उत्तमम् |
यत् ज्ञात्वा मुनयः सर्वे पराम् सिद्धिम् इतः गताः || (१४/१)

परम्(परम), भूयः(फिर), प्रवक्ष्यामि(कहूँगा), ज्ञानानाम् (ज्ञानोंमें), ज्ञानम्(ज्ञान), उत्तमम्(उत्तम) | यत्(जिसको), ज्ञात्वा (ज्ञात करके), मुनयः(मुनिजन), सर्वे(समस्त), पराम्(परम), सिद्धिम्(सिद्धि को), इतः(यहाँ से), गताः(गये हैं) | (१४/१)

ज्ञानों में उत्तमज्ञान को फिर से कहूँगा, जिसको ज्ञात करके समस्त मुनिजन यहाँ से परमसिद्धि को गए हैं | (१४/१)

योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार उत्तम ज्ञान वही है जो निवृति विषयक है, प्रवृति विषयक ज्ञान को, वैदिक कर्मकाण्डों को योगेश्वर बंधनकारी होने के कारण उत्तम नहीं मानते, क्योंकी वह ज्ञान परमसिद्धि में हेतु नहीं है, इसलिये अर्जुन को कहते हैं कि ज्ञानों में उत्तम ज्ञान को फिर से कहूँगा, जिस ज्ञान को ज्ञात करके समस्त मुनिजन यहाँ से परमसिद्धि को गये है, परमगति को, परमधाम को गये हैं | 

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधम्यर्मागताः |
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च || (१४/२)

इदम् ज्ञानम् उपाश्रित्य मम साधर्म्यम् आगताः |
सर्गे अपि न उपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च || (१४/२)

इदम्(इस), ज्ञानम्(ज्ञान के), उपाश्रित्य (आश्रय होकर), मम (मेरे), साधर्म्यम् (सधर्मता), आगताः (प्राप्त करके) | सर्गे (सृष्टि), अपि(भी), (न), उपजायन्ते(उत्पन्न होते हैं), प्रलये(प्रलयकाल में), (न), व्यथन्ति(व्यथित होते हैं), (और) | (१४/२)

इस ज्ञान के आश्रय होकर मेरी सधर्मता को प्राप्त करके, सृष्टि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में व्यथित भी नहीं होते | (१४/२)

इस ज्ञान के आश्रय होकर अर्थात् इस ज्ञान के अनुसार जीवन यापन करते हुए, जीवन यात्रा की सिद्धि को यज्ञार्थ कर्म केरते हुए, मेरी सधर्मता अर्थात् मेरे स्वरूप को, ब्रह्मभाव को प्राप्त करके, सृष्टि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में, देह के विसर्जन काल में व्यथित नहीं होते | इस प्रकार इस ज्ञान की महिमा कहकर योगेश्वर श्रीकृष्ण अब उस ज्ञान को कहते हैं | 

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् |
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत || (१४/३)
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः |
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिताः || (१४/४)

मम योनिः महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भम् दधामि अहम् |
सम्भवः सर्व भूतानाम् ततः भवति भारत || (१४/३)
सर्व योनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः |
तासाम् ब्रह्म महत् योनिः अहम् बीजप्रदः पिता || (१४/४)

मम(मेरी), योनिः महद् ब्रह्म(अष्टधामूल प्रकृति संपूर्ण भूतो की योनि है),  तस्मिन्(उसमें), गर्भम्(गर्भ), दधामि(देता हूँ), अहम् (मैं) | सम्भवः(उत्पत्ति), सर्व भूतानाम् (समस्त प्राणियों की), ततः (इससे), भवति(होती है), भारत(भारत) | (१४/३)
सर्व(समस्त), योनिषु(योनियों में), कौन्तेय(कौन्तेय), मूर्तयः(शरीरधारी), सम्भवन्ति(संभव होते हैं), याः(जो) | तासाम्(उन सबका), ब्रह्म महत् योनिः(अष्टधामूल प्रकृति संपूर्ण भूतो की योनि है), अहम्(मैं), बीजप्रदः(बीजप्रद), पिता(पिता) | (१४/४)

भारत ! मेरी अष्टधामूल प्रकृति सम्पूर्ण प्राणियों की योनि है, उसमें मैं (प्राणियों को) गर्भ देता हूँ, इससे समस्त प्राणियों की उत्पत्ति होती है | (१४/३)
कौन्तेय ! समस्त योनियों में जो शरीरधारी सम्भव होते हैं, उन सबकी अष्टधामूल प्रकृति योनि है (और) मैं बीजप्रद
पिता हूँ | (१४/४)

योनिः महद् ब्रह्म’ मेरी अष्टधामूल प्रकृति समस्त प्राणियों की योनि है, परमात्मा के व्यक्त रूप में सबसे बड़ी और अपने विकारों और प्रभावों को धारण करने के कारण इसको महद् ब्रह्म’ इस विशेषण से कहा गया है | इस ‘योनिः महद् ब्रह्म’ में मैं गर्भ देता हूँ अर्थात् अविद्या, कामना, कर्ताभाव से युक्त पुरूषों को इस क्षेत्र से संयुक्त कराकर मैं ही उनकी उत्पत्ति में कारण हूँ, जब तक पुरुष मेरे भाव को प्राप्त नहीं हो जाता, मैं उसे यह गर्भ देता ही रहता हूँ  |

समस्त योनियों में जो भी शरीरधारी संभव होते है, अर्थात् ब्रह्मभुवन पर्यन्त जितने भी लोक हैं, देव, पितृ, मनुष्य, पशु पक्षी आदि उन सब के लिये मेरी अष्टधामूल प्रकृति योनि है और मैं बीजप्रद अर्थात् इन सब के कर्मों के अनुसार कर्मफल प्रदान करनेवाला पिता हूँ | तात्पर्य यह कि अन्य ना कोई माता है, ना पिता है, जब तक क्षेत्र का संयोग होता रहेगा, तब तक कोई ना कोई तो निमित्त बनता रहेगा, देहधारी माता पिता निमित्तमात्र हैं, अन्यथा परमात्मा की अष्टधामूल प्रकृति योनि है और परमात्मा स्वयं पिता हैं | यह जो क्षेत्र का संयोग है, यह जो पुरुष का आवागमन है, इसके कारण को, पुरुष के प्रकृति से बंधन के कारण को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं |      

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः |
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् || (१४/५)

सत्त्वम् रजः तमः इति गुणाः प्रकृति सम्भवाः |
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनम् अव्ययम् || (१४/५)

सत्त्वम् (सत्त्व), रजः (रज), तमः (तम), इति (यह), गुणाः (गुण), प्रकृति (प्रकृति), सम्भवाः (उत्पन्न) | निबध्नन्ति (बाँधते हैं) महाबाहो (महाबाहो), देहे (देह से), देहिनम् (देही को), अव्ययम् (अविनाशी) | (१४/५)

महाबाहो ! प्रकृति से उत्पन्न यह सत्त्व, रज (और) तमोगुण देह से अविनाशी देही को बाँधते हैं | (१४/५) 

पूर्व अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण प्रकृतिजन्य गुणों का नाम भर लेते हुए केवल इतना कहा है कि प्रकृति और पुरुष दोनों को भी आदि रहित ही जान और विकारों को और गुणों को प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले ही जान | (१३/१९) और क्योंकी पुरुष प्रकृति में स्थित हुआ प्रकृति से उत्पन्न गुणों को भोगता है, गुणों से तादाम्य के कारण इसका अच्छी बुरी योनियों में जन्म होता है | (१३/२१) परन्तु वे गुण क्या है, यह नहीं कहा, अब इस अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण उन गुणों पर प्रकाश डालते हैं कि वे प्रकृतिजन्य गुण क्या हैं ? जो पुरुष को इस क्षेत्र से बाँधे रखते हैं तथा वे गुण किस प्रकार इस पुरुष को बाँधते हैं ? योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रकृति से उत्पन्न केवल यह सत्त्व, रज, और तमोगुण ही देह से देही को बाँधते हैं | यहाँ ध्यान देने योग्य है कि यह देह ही प्रकृति है, क्षेत्र है तथा जिस देही को योगेश्वर श्रीकृष्ण अविनाशी, अव्ययस्य, अप्रेमस्य, सनातन, अनादि, शाश्वत, अजम, नित्य, अच्छेद्यः, अदाह्यः, अक्लेद्यः, अशोष्यः, सर्वगतः, अचल, स्थाणुः, अव्यक्त, अचिन्त्य, अविकार्य इत्यादि विशेषणों से कहते हैं, वह देही भी प्रकृतिजन्य इन गुणों से परवश हुआ इस प्रकृति से, इस देह से, इस क्षेत्र से बँधा रहता है, प्रकृतिजन्य गुणों का ऐसा क्या प्रभाव है, जो इन विशेषताओं से युक्त देही को भी कार्यकरण से उत्पन्न कर्ताभाव से भावित करके इस क्षेत्र से बाँधे रखता हैं, प्रकृतिजन्य गुणों के उन भावों पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि     

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् |
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ || (१४/६)

तत्र सत्त्वम् निर्मलत्वात् प्रकाशकम् अनामयम् |
सुख सङ्गेन बध्नाति ज्ञान सङ्गेन च अनद्य || (१४/६)

तत्र (उनमें), सत्त्वम् (सतोगुण), निर्मलत्वात् (निर्मलता के कारण), प्रकाशकम् (प्रकाशित करनेवाला), अनामयम् (पापरहित है) | सुख (सुख), सङ्गेन (संग), बध्नाति (बाँधता है), ज्ञान (ज्ञान), सङ्गेन (संग), (और), अनद्य (निष्पाप) | (१४/६)

निष्पाप अर्जुन ! उनमें सतोगुण निर्मल (और) प्रकाशवान होने के कारण पापरहित सुख और ज्ञान की आसक्ति से बाँधता है | (१४/६)

योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन प्रकृतिजन्य गुणों में से सतोगुण निर्मल अर्थात् मलरहित, दोषरहित होने के कारण पापरहित सुख से और प्रकाशवान अर्थात् ज्ञानमय होने के कारण ज्ञान की आसक्ति से बाँधता है | सतोगुण के इस प्रभाव को जानकर ऐसी प्रतीति होती है कि इस बंधन में दोष क्या है, यह तो असीम सुख का, ज्ञान का कारण है परन्तु समस्त बंधन अन्ततः दुःख के कारण होते हैं तथा इस सतोगुण के बंधन के दोष को हम श्लोक संख्या (१४/१०) में मनन करेंगे | अब रजोगुण     

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् |
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् || (१४/७)

रजः रागात्मकम् विद्धि तृष्णा सङ्ग समुद्भवम् |
तत् निबध्नाति कौन्तेय कर्म सङ्गेन देहिनम् || (१४/७)

रजः (रजोगुण), रागत्मकम् (राग रूप), विद्धि (जान), तृष्णा (तृष्णा), सङ्ग (संग), समुद्भवम् (उत्पन्न) | तत् (वह), निबध्नाति (बाँधता है), कौन्तेय (कौन्तेय), कर्म (कर्म), सङ्गेन (के संग), देहिनम् (देही को) | (१४/७)

कौन्तेय ! राग रूप रजोगुण तृष्णा के संग से उत्पन्न जान, वह देही को कर्म के संग बाँधता है | (१४/७)

अप्राप्त की अभिलाषा का नाम ‘तृष्णा’ है तथा प्राप्त के प्रति प्रीति का नाम ‘आसक्ति’ है और इन दोनों भावों का मिश्रण राग है इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि राग रूप रजोगुण को तृष्णा के संग से उत्पन्न जान और यह रजोगुण देही को कर्म के संग बाँधता है तात्पर्य यह कि अनन्त तृष्णाओं और आसक्तियों से बँधा यह देही उनकी पूर्ति हेतु अनन्त शाखाओं वाली बुद्धि का आश्रय लेकर कभी ना तृप्त होने वाली कामाग्नि की तृप्ति में लग जाता है, काम्यकर्मों में प्रवृत रहता है |  

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् |
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत || (१४/८)

तमः तु अज्ञान जम् विद्धि मोहनम् सर्व देहिनाम् |
प्रमाद आलस्य निद्राभिः तत् निबध्नाति भारत || (१४/८)

तमः(तमोगुण), तु(परन्तु),अज्ञानजम्(अज्ञानजनित), विद्धि(जान), मोहनम्(मोहित करनेवाला), सर्व(समस्त), देहिनाम् (देहियों को) | प्रमाद(प्रमाद), आलस्य(आलस्य), निद्राभिः(निद्रा), तत्(वह), निबध्नाति(बाँधता है), भारत(भारत) | (१४/८)

भारत ! परन्तु समस्त देहियों को मोहित करनेवाला तमोगुण को अज्ञानजनित जान, वह प्रमाद, आलस्य (और) निद्रा से बाँधता है | (१४/८)

समस्त देहियों को मोहित करनेवाला तमोगुण अज्ञान के, अविद्या के कारण उत्पन्न होता है और यह देही को
प्रमाद, आलस्य और निद्रा से बाँधता है | प्रमाद अर्थात् कर्तव्य कर्म को ना करने की प्रवृति, आलस्य अर्थात् कर्तव्य कर्म को कल पर टालना तथा निद्रा अर्थात् कर्तव्य कर्म को भूल ही जाना और पुरुष का कर्तव्य कर्म है, अपने को अधोगति में ना डालते हुए, अपने को परमार्थ मार्ग में लगाना, अध्यात्मविद्या में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा की प्राप्ति को नित्य यज्ञार्थ कर्मों का आचरण |     

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत |
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत || (१४/९)

सत्त्वम् सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत |
ज्ञानम् आवृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयति उत || (१४/९)

सत्त्वम्(सतोगुण), सुखे(सुख में), सञ्जयति(संजोता है), रजः(रजोगुण), कर्मणि(कर्मों में), भारत(भारत) | ज्ञानम्(ज्ञान को), आवृत्य(आवृत करके), तु(परन्तु), तमः(तमोगुण), प्रमादे(प्रमाद में), सञ्जयति(संजोता है), उत(ऐसा कहा जाता है) | (१४/९)

भारत ! सतोगुण सुख में लगाता है, रजोगुण कर्मों में, परन्तु ज्ञान को आवृत करके तमोगुण प्रमाद में लगाता है, ऐसा कहा जाता है | (१४/९)

सतोगुण कितना भी प्रकाशवान हो, कितना भी ज्ञान का कारण हो परन्तु आसक्ति का कारण है और अन्ततः ज्ञान में आसक्त करके भी सुख में ही लगाता है, इसी प्रकार रजोगुण तृष्णाओं की पूर्ति हेतु काम्य कर्मों में और तमोगुण ज्ञान को, विवेक बुद्धि को आवृत करके प्रमाद में लगाता है और तीनों ही गुण परमार्थ मार्ग से भटकाते हैं |  

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत |
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा || (१४/१०)

रजः तमः च अभिभूय सत्त्वम् भवति भारत |
रजः सत्त्वम् तमः च एव तमः सत्त्वम् रजः तथा || (१४/१०)

रजः (रजोगुण), तमः (तमोगुण),(और), अभिभूय(दबाकर उन्नत), सत्त्वम् (सतोगुण), भवति (होता है), भारत (भारत) | रजः (रजोगुण), सत्त्वम् (सतोगुण), तमः (तमोगुण), (और), एव (ही), तमः (तमोगुण), सत्त्वम् (सतोगुण), रजः (रजोगुण), तथा (वैसे ही) | (१४/१०)

भारत ! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सतोगुण उन्नत होता है, वैसे ही रजोगुण, सतोगुण और तमोगुण ही तमोगुण, सतोगुण, रजोगुण (को दबाकर उन्नत होते हैं) | (१४/१०)  

रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सतोगुण उन्नत होता है, वैसे ही रजोगुण और तमोगुण उन्नत होते हैं | जैसा पूर्व में सतोगुण के विषय में मनन किया है कि सतोगुण निर्मल अर्थात् मलरहित, दोषरहित होने के कारण पापरहित सुख में और प्रकाशवान अर्थात् ज्ञानमय होने के कारण ज्ञान की आसक्ति से बाँधता है | सतोगुण के इस प्रभाव को जानकर ऐसी प्रतीति होती है कि इस बंधन में दोष क्या है ? इस बंधन के दो दोष हैं, पहला दोष योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व श्लोक में कह आये हैं कि सतोगुण अन्ततः सुख में लगाता है, सतोगुण कितना भी प्रकाशवान हो, इस गुण के कारण ज्ञान के प्रति कितनी भी आसक्ति हो, परन्तु वह समस्त ज्ञान सुख में अर्थात् स्वर्गादिक निर्मल, मलरहित, दोषरहित और पापरहित सुखों में ही प्रवृत करता है और इन सुखों के विषय में भी योगेश्वर श्रीकृष्ण बहुत ही स्पष्ट रूप से कह आये हैं कि सतोगुण द्वारा प्रवृत हुआ मनुष्य अपने पुण्य कर्मों, त्रैगुन्यविषया वेदों के कर्मकाण्डों के फल स्वरूप स्वर्गादिक सुख भोग तो पा लेता है परन्तु पुण्यों के क्षीण होने पर, पुनः संचित पुण्य कर्म फल की दरिद्रता को प्राप्त होकर भिन्न भिन्न योनियों में आवागमन को ही प्राप्त होता है |

और दूसरा दोष यह कि जो इन स्वर्गादिक सुखों में आसक्त नहीं होते, जैसे तन, मन से सगुण साकार परमात्मा की भक्ति में रहते हैं, उन आसक्त भक्तों को यह कहते सुना जाता है कि मोक्ष की किसको अभिलाषा है, हम तो केवल परमात्मा की भक्ति का आनंद लेना चाहते हैं, उन भक्तों के विषय में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह माया बहुत ठगनी है, इस माया के प्रकृतिजन्य गुणों ने विश्वामित्र जैसे तपस्वी की साधना भी तीन बार भंग कर दी क्योंकी जिस प्रकार रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सतोगुण उन्नत होता है, उसी प्रकार इस माया के प्रपंच द्वारा सतो और तमो को दबाकर रजोगुण उन्नत हो जाता है और सतो और रजो को दबाकर तमोगुण उन्नत हो जाता है क्योंकी प्रत्येक पुरुष में यह तीनों गुण एक साथ पाए जाते हैं और अपना प्रभाव भी उस पुरुष पर रखते हैं, कोई भी पुरुष पूर्णतया सतोगुणी अथवा रजोगुणी अथवा फिर तमोगुणी नहीं होता, प्रत्येक पुरुष में इन तीनों गुणों का मिश्रित भाव होता है और ना जाने कब माया के कारण कौन सा गुण उन्नत हो जाए | इसलिये केवल रजो और तमोगुण ही नहीं सतोगुण भी बंधनकारी है और बंधन अन्ततः दुखदायी ही होता है |

जैसा अभी मनन किया कि प्रत्येक पुरुष में इन तीनों गुणों का मिश्रित भाव होता है और ना जाने कब कौन सा गुण उन्नत हो जाए | तब यह कैसे ज्ञात हो की किस काल कौन सा गुण उन्नत अवस्था को प्राप्त है, इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि           

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपाजयते |
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत || (१४/११)

सर्व द्वारेषु देहे अस्मिन् प्रकाशः उपजायते |
ज्ञानम् यदा तदा विद्यात् विवृद्धम् सत्त्वम् इति उत || (१४/११)

सर्व (समस्त), द्वारेषु (द्वारों में), देहे (देह के), अस्मिन् (इस), प्रकाशः (तेज), उपजायते (उत्पन्न होता है) | ज्ञानम् (ज्ञान से), यदा (जब), तदा (तब), विद्यात् (जानो), विवृद्धम् (बढ़ा है), सत्त्वम् (सतोगुण), इति (ऐसा), उत (कहा जाता है) | (१४/११)

जब ज्ञान द्वारा इस देह के समस्त द्वारों में तेज उत्पन्न होता है, तब जानो सतो गुण उन्नत हुआ है, ऐसा कहा है | (१४/११)

जब ज्ञान द्वारा इस देह के समस्त द्वारों में तेज अर्थात् ईश्वरीय प्रकाश अर्थात् ज्ञान द्वारा समस्त ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का निग्रह हो जाए, वे परमार्थ मार्ग में लग जाएँ, तब जानो कि सतोगुण उन्नत हो रहा है |   

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा |
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ || (१४/१२)

लोभः प्रवृतिः आरम्भः कर्मणाम् अशमः स्पृहा |
रजसि एतानि जायन्ते विवृद्धे भरत ऋषभ  || (१४/१२)

लोभः(लोभ), प्रवृतिः(प्रवृति), आरम्भः(आरम्भ), कर्मणाम्(कर्मों का), अशमः(अशांति), स्पृहा( ज्यादा प्राप्ति की लालसा) | रजसि(राजसिक प्रवृति), एतानि(ये सब), जायन्ते(उत्पन्न होते हैं), विवृद्धे(वृद्धि काल में), भरत ऋषभ(भरतश्रेष्ठ) | (१४/१२)

भरतश्रेष्ठ ! राजसिक प्रवृति के वृद्धि काल में लोभ, प्रवृति, कर्मों का आरम्भ, अशांति, स्पृहा (आदि) यह सब उत्पन्न होते हैं | (१४/१२)

रजोगुण के उन्नत होने पर लोभ प्रवृति अर्थात् अप्राप्य भोगों को प्राप्त करने की लालसा, सकाम कर्मों का, काम्य कर्मों का आरम्भ, अशान्ति अर्थात् तृष्णा और काम के कारण भोग से उपराम होने का अभाव और स्पृहा अर्थात् विषय भोगों की लालसा से भोग सामग्री का संग्रह करने प्रवृति उत्पन्न होती है | पुरुष कभी भी पूर्ण ना होने वाली कामाग्नि के चक्र में फंस जाता है | 

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च |
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन || (१४/१३)


अप्रकाशः अप्रवृतिः च प्रमादः मोहः एव च |
तमसि एतानि जान्यते विवृद्धे कुरु नन्दन || (१४/१३)

अप्रकाशः (अप्रकाश), अप्रवृतिः (अप्रवृति), (और), प्रमादः (प्रमाद), मोहः (मोह), एव (ही), (और) | तमसि (तामसिक प्रवृति), एतानि (ये सब), जान्यते (उत्पन्न होते हैं), विवृद्धे (वृद्धि काल में), कुरु नन्दन (कुरुनन्दन) | (१४/१३)

कुरुनन्दन ! तामसिक प्रवृति के वृद्धिकाल में यह अप्रकाश, अप्रवृति, प्रमाद और मोह ही उत्पन्न होते हैं | (१४/१३)

जब अप्रकाश अर्थात् अज्ञान, अप्रवृति अर्थात् कर्मों में प्रवृत ना होने का स्वभाव, प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं, तब यह जानना चाहिए कि तमोगुण उन्नत है | 

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् |
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते || (१४/१४)
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते |
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते || (१४/१५)

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयम् याति देह भृत् |
तदा उत्तम विदाम् लोकान् अमलान् प्रतिपद्यते || (१४/१४)
रजसि प्रलयम् गत्वा कर्म सङ्गिषु जायते |
तथा प्रलिनः तमसि मूढ योनिषु जायते || (१४/१५)

यदा (जब), सत्त्वे (सतोगुण), प्रवृद्धे (प्रवृद्ध होता है), तु (परन्तु), प्रलयम् (प्रलय को), याति (प्राप्त होता है), देह भृत् (देहधारी) | तदा (तब), उत्तम विदाम् (उत्तम तत्त्व को जाननेवाले), लोकान् (लोकों को), अमलान् (मलरहित, निर्मल), प्रतिपद्यते (प्राप्त होता है) | (१४/१४)
रजसि (राजसिक प्रवृतिवाले), प्रलयम् (मृत्यु को), गत्वा (प्राप्त करके), कर्म सङ्गिषु (कर्मके संग), जायते (जाते हैं) | तथा (वैसे ही),  प्रलिनः (विलीन होकर), तमसि(तामसिक प्रवृतिवाले), मूढ योनिषु(मूढ़ योनियों में), जायते(जाते हैं) | (१४/१५)

जब सतोगुण प्रवृद्ध होता है परन्तु देहधारी मृत्यु को प्राप्त होता है, तब उत्तम तत्त्व को जाननेवाले निर्मल लोकों को प्राप्त होता है | (१४/१४)
राजसिक प्रवृतिवाले मृत्यु को प्राप्त करके कर्मसंगी अर्थात् मनुष्य योनि में जाते है, वैसे ही तामसिक प्रवृतिवाले विलीन होकर मूढ़ योनियों में जाते हैं | (१४/१५)

भावार्थ स्वयं सिद्ध है | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहने का यही तात्पर्य है कि इन गुणों से भावित पुरुष मुझको  प्राप्त नहीं होते अपितु आवागमन को ही प्राप्त होते हैं, मृत्यु उपरान्त सतोगुणी इस जन्म से उत्तम योनि को, रजोगुणी इस जन्म के समान और तमोगुणी इस जन्म से भी अधम योनि को प्राप्त हैं | इस गुणों से भावित पुरूषों का आवागमन लगा ही रहता है |

यहाँ एक और तथ्य मनन को प्रस्तुत है कि काम्य कर्मों में प्रवृत रजोगुणी पुनः मनुष्य योनि को ही प्राप्त होते हैं और तमोगुणी अधम योनियों को जाते हैं परन्तु सतोगुण से उच्च निर्मल लोकों की प्राप्ति से अभिप्राय क्या है ? स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति, बस इतना ही ना ? एक साधन संपन्न, धनी परिवार का कुत्ता भी प्रतिदिन शैम्पू से नहाता है, मांस खाता है, दूध पिता है, कारों में घूमता है, सडक के कुत्तों से बहुत अच्छे भोगों को प्राप्त होता है परन्तु यह कुत्ता अपना उत्थान नहीं कर सकता और सतोगुण से प्राप्त इन उच्च लोकों में पुरुष क्या करते हैं ? स्वर्गादिक भोगों का ही तो भोग करते हैं, वहाँ पुरुष के उत्थान का कोई अन्य साधन भी नहीं है, मनुष्य योनि के अन्यत्र सभी योनियाँ भोग योनियाँ ही तो हैं | पुण्य कर्मों से उन्नत भोग भोगकर, पुण्यों के क्षीण होने पर संचित पुण्य कर्मफल की दरिद्रता के साथ पुनः लोट कर यहीं मनुष्य योनि में ही तो आना है, आवागमन तो सतोगुणी का भी लगा रहता है, तब अन्ततः सतोगुण से प्राप्ति क्या ?
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् |
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् || (१४/१६)
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च |
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च || (१४/१७)
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः|| (१४/१८)

कर्मणः सुकृतस्य आहुः सात्त्विकम् निर्मलम् फलम् |
रजसः तु फलम् दुःखम् अज्ञानम् तमसः फलम् || (१४/१६)
सत्त्वात् सञ्जायते ज्ञानम् रजसः लोभः एव च |
प्रमाद मोहौ तमसः भवतः अज्ञानम् एव च || (१४/१७)
ऊर्ध्वम् गच्छन्ति सत्त्व स्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः |
जघन्य गुण वृति स्थाः अधः गच्छन्ति तामसाः || (१४/१८)

कर्मणः (कर्मों का), सु कृतस्य (अच्छे किये), आहुः (कहा गया है), सात्त्विकम् (सात्विक), निर्मलम् (निर्मल), फलम् (फल) | रजसः(रजस का), तु(परन्तु), फलम्(फल), दुःखम्(दुःख है), अज्ञानम्(अज्ञान), तमसः(तमस का), फलम्(फल है) | (१४/१६)
सत्त्वात् (सतोगुण), सञ्जायते (संजोता है), ज्ञानम् (ज्ञान), रजसः (रजस), लोभः (लोभ), एव (ही), (और) | प्रमाद (प्रमाद), मोहौ (मोह रूप), तमसः (तमस), भवतः (होता है), अज्ञानम् (अज्ञान), एव (ही), (और) | (१४/१७)
ऊर्ध्वम्(ऊपर), गच्छन्ति(जातेहैं), सत्त्व(सत्त्वगुण), स्थाः(में स्थित), मध्ये(मध्य में), तिष्ठन्ति(बैठते हैं), राजसाः(रजोगुणी) | जघन्य(घृणित), गुण(गुण), वृति(वृति), स्थाः(में स्थित), अधः(निचे), गच्छन्ति(जाते हैं), तामसाः(तामसी)| (१४/१८)

अच्छे  कर्मोंका सात्त्विक, निर्मल फल है, परन्तु रजसका फल अन्ततः दुःख और अज्ञान तमसका फल है | (१४/१६)
सतोगुण ज्ञान संजोता है और रजस लोभ और प्रमाद ही, मोह रूप अज्ञान तमस से ही होता है | (१४/१७)
सत्त्वगुण में स्थित उच्च लोकों को जाते हैं, राजसी मध्ये अर्थात् मनुष्य लोक में रहते है (और) निंदनीय तामसी गुणों  में स्थित अधोगति में जाते हैं | (१४/१८)

जैसे गुण उनमें प्रवृत होने पर इस जन्म में फल की प्राप्ति है, उसी प्रकार मृत्यु उपरान्त भी वैसे ही फल की प्राप्ति होती है, कर्मफल को भोगने हेतु आवागमन लगा ही रहता है | प्रकृतिजन्य इन गुणों से भावित देह से देही का उद्धार कैसे हो, परमात्मा का साक्षात्कार कैसे हो ? इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं | कि 

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति |
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति || (१४/१९)
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् |
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते || (१४/२०)

न अन्यम् गुणेभ्यः कर्तारम् यदा दृष्टा अनुपश्यति |
गुणेभ्यः च परम् वेत्ति मत् भावम् सः अधिगच्छति || (१४/१९)
गुणान् एतान् अतीत्य त्रीन् देही देह समुद्भवान् |
जन्म मृत्यु जरा दुःखैः विमुक्तः अमृतम् अश्नुते || (१४/२)

(न), अन्यम् (अन्य को), गुणेभ्यः (गुणों से), कर्तारम् (कर्ता), यदा (जब), दृष्टा (साक्षी), अनुपश्यति (देखता है) | गुणेभ्यः (गुणों से), (और), परम् (परम), वेत्ति (विदित कर लेता है), मत् (मेरे), भावम् (भाव को), सः (वह), अधिगच्छति (प्राप्त होता है) | (१४/१९)
गुणान्(गुणों से), एतान्(इन), अतीत्य(अतीत होकर), त्रीन्(तीन), देही(देही), देह(देह), समुद्भवान्(उत्पत्ति के कारण) | जन्म (जन्म), मृत्यु(मृत्यु), जरा(बुढ़ापा), दुःखैः(दुःखोंसे), विमुक्तः(मुक्तहोकर), अमृतम्(अमृतका), अश्नुते(सेवन करताहै)| (१४/२)

जब दृष्टा गुणों से अन्य को कर्ता नहीं देखता और गुणों से परम् को विदित कर लेता है, वह मेरे भाव को प्राप्त होता है | (१४/१९)
देही देह की उत्पत्ति के कारण इन तीनों गुणों से अतीत होकर जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा (और) दुःखों से मुक्त होकर अमृत का सेवन करता है | (१४/२०)

जब दृष्टा रूप में स्थित होकर गुणों से अन्य को कर्ता नहीं देखता तात्पर्य यह कि कार्यकरण से उत्पन्न कर्ताभाव से से परे अकर्ताभाव में स्थित होकर, इन तीनों गुणों से अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और गुणों से परे परम को विदित कर लेता है अर्थात् अपने स्वरूप को विदित कर लेता है, जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में ही स्पष्ट कर आये हैं कि ‘देहे अस्मिन् पुरुषः परः’ इस देह में स्थित यह पुरुष ‘परः’ है, सर्वथा इस प्रकृति से परे का तत्त्व है तथा ‘परमात्मा इति च अपि उक्तः’ और इस पुरुष को ‘परमात्मा’ ऐसा भी कहा जाता है | तात्पर्य यह कि जब यह पुरुष अपने स्वरूप को विदित कर लेता है, तब वह मेरे भाव को, परमभाव को प्राप्त हो जाता है | और अपने स्वरूप को, परम भाव को प्राप्त पुरुष, यह देही देह की उत्पत्ति के कारण इन तीनों गुणों से अतीत होकर, परमात्मा की तरह गुणातीत होकर जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और दुःखों से मुक्त होकर अमृत का सेवन करता है |

परन्तु पुरुष तो इन प्रकृतिजन्य गुणों से भावित है, उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता रूप में स्थित है, वह कैसे दृष्टा रूप में स्थित होकर इन गुणों को कर्ता रूप से देखे और स्वयं को अकर्ताभाव से ?

अर्जुन उवाच

कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो |
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते || (१४/२१)

कैः लिङ्गैः त्रीन् गुणान् एतान् अतीतः भवति प्रभो |
किम् आचारः कथम् च एतान् त्रीन् गुणान् अतिवर्तते || (१४/२१)

कैः (किन), लिङ्गैः (लक्षणों के द्वारा), त्रीन् (तीन), गुणान् (गुणों से), एतान् (इन), अतीतः (अतीत), भवति(होता है), प्रभो (प्रभु) | किम् (क्या), आचारः (आचरण से), कथम् (कैसे), (और), एतान् (इन), त्रीन् (तीन), गुणान् (गुणों से), अतिवर्तते (अतीत हुआ जाता है) | (१४/२१)

प्रभु ! किन लक्षणों के द्वारा इन तीन गुणों से अतीत होता है, क्या और कैसे आचरण से इन तीन गुणों से अतीत हुआ जाता है | (१४/२१)

जो प्रश्न हमारा है, वही प्रश्न अर्जुन करता है कि किन लक्षणों के द्वारा इन तीन गुणों से अतीत हुआ जाता है, क्या और कैसे आचरण से इन तीन गुणों से अतीत हुआ जाता है ? देखें कि योगेश्वर श्रीकृष्ण क्या कहते हैं |

श्रीभगवानुवाच

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव |
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति || (१४/२२)
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते |
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते || (१४/२३)

प्रकाशम् च प्रवृत्तिम् च मोहम् एव च पाण्डव |
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति || (१४/२२)
उदासीनवत् आसीनः गुणैः यः न विचाल्यते |
गुणाः वर्तन्त इति एव यः अवितिष्ठति न इङ्गते || (१४/२३)

प्रकाशम् (प्रकाश), (और), प्रवृत्तिम् (प्रवृति), (और), मोहम् (मोह), एव (ही), (और), पाण्डव (पाण्डव) | न (न),
द्वेष्टि (द्वेष करता है), सम्प्रवृत्तानि (प्रवृत होने से), (न), निवृत्तानि(निवृति की), काङ्क्षति(आकांक्षा करता है) | (१४/२२)
उदासीनवत् (उदासीनवत), आसीनः (स्थित), गुणैः (गुणों से), यः (जो), (नहीं), विचाल्यते (विचलित होता है) | गुणाः (गुण), वर्तन्त (बरत रहे हैं), इति (ऐसा), एव (ही), यः (जो), अवितिष्ठति (अविचल भाव से स्थित रहता है), (न), इङ्गते (चलायमान होता) | (१४/२३)

पाण्डव ! प्रकाश, प्रवृति और मोह के ही प्रवृत होने से न द्वेष करता है, न निवृति की आकांक्षा करता है | (१४/२२)
जो उदासीनवत गुणों द्वारा विचलित नहीं होता, गुण ही बरत रहे हैं, ऐसा जो अविचल भाव से स्थित रहता है, चलायमान नहीं होता | (१४/२३)

अर्जुन ने योगेश्वर श्रीकृष्ण से प्रश्न किया है कि प्रकृतिजन्य गुणों से अतीत पुरुष के लक्षण क्या होते हैं और उस पुरुष का आचरण कैसा होता है | इन प्रकृतिजन्य गुणों से अतीत पुरुष के लक्षणों पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते | हैं कि प्रकाश अर्थात् सतोगुण रूपी विवेकबुद्धि, ज्ञान में आसक्ति तथा प्रवृति अर्थात् रजोगुण रूपी काम्य कर्मों के प्रति आसक्ति, काम और भोग में आसक्ति और मोह अर्थात् तमोगुण रूपी अज्ञान जो प्रमाद, आलस्य और निद्रा का कारण होता है | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण यह सन्देश देना चाहते हैं कि इन तीनों गुणों में से किसी भी गुण के उन्नत होने से, काल के सापेक्ष में किसी भी गुण के प्रभावी होने से जो पुरुष इन गुणों से उत्पन्न भावों से ना द्वेष करता है, और ना इन गुणों की निवृति की आकांक्षा करता है अर्थात् उदाहरणार्थ कभी तमोगुणी प्रवृति हो जाए तो ऐसा पुरुष इस प्रवृति से ना द्वेष करता है और ना ही इस तमोगुणी प्रवृति की निवृति की आकांक्षा ही करता है, अपितु

‘गुणाः वर्तन्त’ गुण ही बरत रहे हैं, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में भी कह आये हैं कि ‘महाबाहो ! गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त, समस्त गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होते | (३/२८) और यहाँ भी कहते हैं कि गुण ही बरत रहे हैं, प्रकृतिजन्य गुणों से अतीत पुरुष ऐसे अविचल भाव में स्थित रहता है, इन तीनों गुणों में से किसी भी गुण के उन्नत होने पर चलायमान नहीं होता, प्रकृतिजन्य इन गुणों के प्रभाव से विचलित नहीं होता, इन गुणों के उन्नत होने पर इन गुणों में आसक्त नहीं होता अपितु इन गुणों के प्रति उदासीन भाव से रहता है, इन गुणों के संगदोश से भावित नहीं होता | यह तो प्रकृतिजन्य गुणों से अतीत पुरुष के लक्षण हुए और अब उसके आचरण के बारे में कहते हैं | कि

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः |
तुल्यप्रियाप्रियो धिरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः || (१४/२४)
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः |
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते || (१४/२५)

सम दुःख सुखः स्व स्थः सम लोष्ट अश्म काञ्चनः |
तुल्य प्रिय अप्रियः धीरः तुल्य निन्दा आत्म संस्तुतिः || (१४/२४)
मान अपमानयोः तुल्यः तुल्यः मित्र अरि पक्षयोः |
सर्व आरम्भ परित्यागी गुण अतीतः सः उच्यते || (१४/२५)

सम (सम), दुःख सुखः (दुःख सुख में), स्व स्थः (स्वयं में स्थित), सम (सम), लोष्ट (मिट्टी का ढेला), अश्म (पत्थर), काञ्चनः (सोना) | तुल्य (समान), प्रिय (प्रिय), अप्रियः (अप्रिय में), धीरः (धीर), तुल्य (समान), निन्दा (निन्दा), आत्म (स्वयं की), संस्तुतिः (प्रशंसा में) | (१४/२४)
मान(मान), अपमानयोः(अपमान में), तुल्यः(समान), तुल्यः(समान), मित्र(मित्र), अरि(शत्रु), पक्षयोः(पक्ष में) | सर्व (समस्त), आरम्भ(आरम्भों का), परित्यागी(परित्यागी), गुण अतीतः(गुणों से अतीत), सः(वह), उच्यते(कहा जाता है) | (१४/२५)

दुःख सुख में समभाव, स्वयं में स्थित, मिट्टी के ढेले, पत्थर, सोने में समभाव, प्रिय अप्रिय में समान, धीर, स्वयं की निन्दा प्रशंसा में समान | (१४/२४)   मान अपमान में, मित्र शत्रु पक्ष में समान, समस्त काम्य कर्मों के आरम्भ का परित्यागी है, वह गुणातीत कहा जाता है | (१४/२५)
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण जिस समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह का उपदेश सांख्यदर्शन के अनुसार अर्जुन को पूर्व में, अध्याय दो में कहा है, उसी ज्ञान को पुनः सांख्यदर्शन की दृष्टि से ही यहाँ कह रहे हैं कि दुःख सुख में समभाव, प्रिय अप्रिय में समभाव, मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने के प्रति समभाव, निन्दा प्रशंसा में, मान अपमान में, मित्र शत्रु में समभाव से युक्त पुरुष, तात्पर्य यह कि समभाव, समबुद्धि से युक्त होकर जीवन निर्वाह करता हुआ पुरुष जो ‘धीर’ भी हो अर्थात् जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ऐसा ‘धीर’ पुरुष अमृततत्त्व की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त कर लेता है और जो ‘स्व स्थः’ अर्थात् आत्मवान भी हो, एक हृदयस्थ ईष्ट के प्रति समर्पित हो, तथा समस्त काम्य कर्मों के आरम्भ का परित्यागी, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा है कि ‘जय-पराजय में, लाभ हानि में और सुख दुःख में मन एवं बुद्धि को सम करके, उसके बाद युद्ध में लग जा, इस प्रकार पाप को प्राप्त नहीं होगा | (२/३८) अर्थात् जीवन निर्वाह को आवश्यक कर्मों में आसक्ति का, कामनाओं का त्याग करके जो प्रवृत होता है, वह पाप को अर्थात् नये कर्मबन्धनों को प्राप्त नहीं होता होता | इस प्रकार से आचरण करनेवाला पुरुष गुणातीत कहा जाता है |

इस प्रकार सांख्यदृष्टि से गुणातीत पुरुष के लक्षण और उसके आचरण पर प्रकाश डाल कर योगेश्वर श्रीकृष्ण अब इस गुणातीत की प्राप्ति का उपाय कहते हैं |    

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभुयाय कल्पते || (१४/२६)
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च |
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च || (१४/२७)

माम् च यः अव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते |
सः गुणान् समतीत्य एतान् ब्रह्म भूयाय कल्पते || (१४/२६)
ब्रह्मणः हि प्रतिष्ठा अहम् अमृतस्य अव्ययस्य च |
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्य ऐकान्तिकस्य च || (१४/२७)

माम् (मुझको), (और), यः (जो), अव्यभिचारेण भक्ति(अव्यभिचारी भक्ति द्वारा), योगेन(युक्त होकर), सेवते(सेवन करते हैं, भजते हैं) | सः (वह),  गुणान् (गुणों से), समतीत्य(अतीत होकर), एतान्(इन), ब्रह्म भूयाय(ब्रह्मभाव की प्राप्ति के), कल्पते(योग्य होजाते हैं ) | (१४/२६)
ब्रह्मणः (ब्रह्म का), हि (क्योंकी), प्रतिष्ठा (आश्रय), अहम् (मैं), अमृतस्य (अमृत्य का), अव्ययस्य (अविनाशी का), (और) | शाश्वतस्य (शाश्वत का), (और), धर्मस्य (धर्म का), सुखस्य (सुख का), ऐकान्तिक्(चरम), अस्य(इस), च(और) | (१४/२७)

और जो अव्यभिचारिणी भक्ति से युक्त होकर मुजको भजते हैं, वे इन गुणो से अतीत होकर ब्रह्मभाव की प्राप्ति के योग्य हो जाते हैं | (१४/२६)
क्योंकी ब्रह्म का और अविनाशी अमृत्य का और शाश्वत धर्म का और इस चरम सुख का मैं आश्रय हूँ | (१४/२७)

योगेश्वर श्रीकृष्ण का यह उपदेश सांख्यदृष्टि से कहा गया है इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ ‘अव्यभिचारिणी भक्ति’ कहते हैं क्योंकी सांख्यदर्शन के अनुयायी, ज्ञानियों के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण पहले ही कह आये हैं कि ‘उन अव्यक्त में आसक्त चित्तवालों को कष्ट विशेष है क्योंकी अव्यक्त विषयक गति देहाभिमान द्वारा दुःखद प्राप्त होती है | (१२/५) उस अव्यक्त विषयक गति की प्राप्ति हेतु ज्ञानियों का देहाभिमान से परे जो भाव है, उस देह भाव के त्याग को ही योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ अव्यभिचार कहते हैं और देहाभिमान से परे जो भक्तिभाव है, उसे अव्यभिचारिणी भक्ति भाव कहते हैं | तात्पर्य यह कि सांख्यदर्शन के अनुयायी जो अव्यभिचारिणी भक्ति से युक्त होकर मुझको अर्थात् मेरे अव्यक्त अचिन्त्य स्वरूप को, ब्रह्म को भजते हैं, वे इन गुणों से अतीत होकर ब्रह्म भाव की प्राप्त के योग्य हो जाते हैं क्योंकी ब्रह्म का और ब्रह्म की प्राप्ति हेतु ‘अमृत्य’ का अर्थात् अमृततत्त्व के पान का और शाश्वत धर्म का और इस चरम सुख का, इस अखंड आनंद का आश्रय मैं हूँ |  

***** ॐ तत् सत् *****