** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
त्रयोदशोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते |
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति
तद्विदः || (१३/१)
इदम्
शरीरम् कौन्तेय क्षेत्रम् इति अभिधीयते |
एतत्
यः वेत्ति तम् प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तत् विदः || (१३/१)
इदम्
(यह), शरीरम्
(शरीर), कौन्तेय
(कुंती पुत्र), क्षेत्रम्
(क्षेत्र), इति
(ऐसा), अभिधीयते
(कहा जाता है) |
एतत् (यह), यः (जो), वेत्ति (विदित कर लेता है), तम्
(उसको), प्राहुः
(कहा जाता है), क्षेत्र (क्षेत्र का), ज्ञः (ज्ञाता,
‘क्षेत्रज्ञ’), इति (ऐसा), तत् (उसको),
विदः (विदित किये जन कहते
हैं) |
(१३/१)
कौन्तेय
! यह शरीर ‘क्षेत्र’ है, ऐसा कहा जाता है, जो यह विदित कर लेता है उसको क्षेत्र का
ज्ञाता ‘क्षेत्रज्ञ’ कहा जाता है, ऐसा उसको विदित करनेवाले कहते हैं | (१३/१)
पंच महाभूतों का एक नियमित विस्तार,
जिसमें अच्छा बुरा बोया हुआ समय पर फलित होता है, क्षेत्र कहलाता है, योगेश्वर
श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसी प्रकार यह शरीर भी एक क्षेत्र है, जो अच्छे बुरे
संस्कारों स्वरूप फलित होता है, प्राप्त होता है और जो यह विदित कर लेता है कि
योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा इसे क्षेत्र कहने से तात्पर्य यह है कि इसका पंचभोतिक
स्वरूप अर्थात् योनि और उस योनि में अच्छे बुरे संस्कारों अनुरूप कर्मफल तथा इस
क्षेत्र की प्राप्ति का क्या कारण है, उसको क्षेत्र का ज्ञाता अर्थात् क्षेत्रज्ञ
कहते हैं | केवल श्रीकृष्ण ही ऐसा कहते हों, ऐसा भी नहीं है, ऐसा उस क्षेत्र को
विदित करनेवाले क्षेत्रज्ञ कहते हैं | तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण भी एक
क्षेत्रज्ञ हैं | गीता शास्त्र में कहा गया क्षेत्र, देह, शरीर, पुर, अधिभूत, क्षर
पुरुष का एक ही अभिप्राय है तथा इस क्षेत्र में रहनेवाला, देही, शरीरी, अधिदैव, अक्षय
पुरुष, जीवात्मा एक ही तत्त्व के नाम हैं |
यहाँ ध्यान रखने योग्य है कि इस क्षेत्र
में रहनेवाला क्षेत्रज्ञ नहीं है अपितु इस क्षेत्र को विदित करनेवाला, इस क्षेत्र
के बंधन को विदित करनेवाला और योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों के अनुसरण अनुसार इस
क्षेत्र के बंधन से मुक्त हो गया पुरुष ही क्षेत्रज्ञ है, सांख्यदृष्टि से कहे गये
इस व्यक्तव्य से अभिप्राय यह है कि जो इस क्षेत्र में इस क्षेत्र से तादाम्य करके
रहता है, क्षेत्र के विकारों और प्रभावों को अपना ही मान लेता है, वह भी क्षेत्र
ही है | अपने इस व्यक्तव्य में क्षेत्रज्ञ को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण
कहते हैं | कि
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु
भारत |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं
मम || (१३/२)
क्षेत्रज्ञम्
च अपि माम् विद्धि सर्व क्षेत्रेषु भारत |
क्षेत्र
क्षेत्र ज्ञयोः ज्ञानम् यत् तत् ज्ञानम् मतम् मम || (१३/२)
क्षेत्रज्ञम्
(क्षेत्रज्ञ), च
(और), अपि
(भी), माम्
(मुझको), विद्धि
(जान), सर्व
(समस्त), क्षेत्रेषु
(क्षेत्रों में), भारत
(भारत) |
क्षेत्र (क्षेत्र), क्षेत्र ज्ञयोः (क्षेत्र का ज्ञाता), ज्ञानम्
(ज्ञान), यत्
(जो), तत्
(वह), ज्ञानम्
(ज्ञान), मतम्
(मत), मम
(मेरा) |
(१३/२)
और
भारत ! मुझको भी समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ जान, जो क्षेत्र, क्षेत्र के
ज्ञाता का ज्ञान है, वह (ज्ञान ही) मेरे मत में ज्ञान है | (१३/२)
और मुझको भी समस्त क्षेत्रों में
क्षेत्रज्ञ जान | पूर्व श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि यह शरीर एक
क्षेत्र है और जो इस क्षेत्र को जो इसको विदित कर लेता है वह क्षेत्रज्ञ है और
यहाँ कहते हैं कि मुझको भी समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ जान, इस तथ्य को
योगेश्वर श्रीकृष्ण पहले भी स्पष्ट कर आये हैं और इस अध्याय में पुनः स्पष्ट करते
हैं कि ‘अविभक्तम्
च भूतेषु विभक्तम् इव च स्थितम्’ (१३/१६) विभागरहित परमात्मा समस्त प्राणियों में विभक्त होकर
स्थित है’ और आगे भी कहते हैं कि ‘जीवलोक अर्थात् देह में देही मेरा ही सनातन अंश
है’ (१५/७) तात्पर्य यह की परमतत्त्व परमात्मा समस्त क्षेत्रों के क्षेत्रज्ञ है और
जो क्षेत्र में, क्षेत्र से तादाम्य करके रहता है, वह परमात्मा का ही अंश है,
परन्तु अज्ञान के कारण यहाँ क्षेत्र रूप में ही स्थित है | परमात्मा अपने इस क्षेत्रज्ञ
रूप को ही पुरुषोत्तम, अधियज्ञ और यहाँ क्षेत्रज्ञ माम् कहते हैं | तथा
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वह
ही योगेश्वर श्रीकृष्ण के मतानुसार यथार्थ ज्ञान है तात्पर्य यह कि क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ पृथक् हैं तथा अज्ञान के कारण इन दोनों के सम्बन्ध में, बंधन में जो
हेतु हैं, उन कारणों का ज्ञान, क्षेत्र में रहनेवाले का क्षेत्र से बन्धन के कारणों का ज्ञान और इस
क्षेत्र से मुक्ति हेतु समस्त क्षेत्रों के क्षेत्रज्ञ का, क्षेत्रज्ञ माम् का ज्ञान, परमात्मा का
ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है, यहाँ ध्यान देने योग्य है कि ज्ञाता का क्षेत्र से
बन्धन है परन्तु क्षेत्रज्ञ माम् समस्त बन्धनों से मुक्त है, अर्थात्
ज्ञाता और क्षेत्रज्ञ माम् दो भिन्न और विलक्षण तत्त्व हैं |
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्
|
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ||
(१३/३)
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् |
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः
|| (१३/४)
तत्
क्षेत्रम् यत् च यादृक् च यत् विकारि यतः च यत् |
सः
च यः यत् प्रभावः च तत् समासेन मे श्रृणु || (१३/३)
ऋषिभिः
बहुधा गीतम् छन्दोभिः विविधैः पृथक् |
ब्रह्म
सूत्र पदैः च एव हेतु मद्भीः विनिश्चितैः || (१३/४)
तत्
(वह), क्षेत्रम्
(क्षेत्र), यत्
(जो), च
(और), यादृक्
(जैसा है), च
(और), यत्
(जिन), विकारि
(विकारों वाला है), यतः
(जिस कारण से), च
(और), यत्
(जिस), |
सः (वह), च
(और), यः
(जो), यत्
(जिस), प्रभावः
(प्रभाव वाला), च
(और), तत् (वह), समासेन (संक्षेप में), मे
(मुझसे), श्रृणु
(सुन) |
(१३/३)
ऋषिभिः
(ऋषियों द्वारा), बहुधा
(बहुत प्रकार से), गीतम्
(गीतों), छन्दोभिः
(छंदों द्वारा), विविधैः
(विविधासे), पृथक्
(विभागपूर्वक) |
ब्रह्म (ब्रह्म), सूत्र
(सूत्र), पदैः
(पदों द्वारा), च
(और), एव
(ही), हेतु मद्भीः
(युक्ति युक्त), विनिश्चितैः
(भलीभाँति निश्चित रूप
से) |
(१३/४)
और
वह जो क्षेत्र है, जैसा है और जिन विकारों वाला है और जिस कारण से है और जो वह जिस
प्रभाव वाला है, वह संक्षेप में मुझसे सुन | (१३/३)
ऋषियों
द्वारा बहुत प्रकार से गाया गया है, छंदों द्वारा अर्थात् वेदों की ऋचाओं द्वारा
विविध प्रकार से विभाग पूर्वक कहा गया है और ब्रह्म सूत्र के पदों द्वारा ही
युक्ति युक्त भलीभाँति निश्चित रूप से कहा गया है | (१३/४)
योगेश्वर श्रीकृष्ण के मन्तव्य को स्पष्ट
रूप से समझने को हम पहले चौथें श्लोक पर मनन करेंगें | योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते
हैं कि जो ज्ञान मैं तुझसे कहने जा रहा हूँ, वह ज्ञान ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार
से गाया गया है, जैसे वेदों की ऋचाओं द्वारा, युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों
द्वारा बहुत विस्तारपूर्वक और विभागपूर्वक कहा गया है अर्थात् यह ज्ञान बहुत
विस्तारपूर्वक और विभागपूर्वक जानने को उपलब्ध है, परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण
अर्जुन को तीसरे श्लोक में कहते हैं कि वह सब मुझसे संक्षेप में सुन | जो ज्ञान
इतना विस्तारपूर्वक और विभागपूर्वक उपलब्ध है, उस ज्ञान को योगेश्वर श्रीकृष्ण
अर्जुन को और अर्जुन तो हमारे लिये माध्यम मात्र है, वह ज्ञान गीता शास्त्र के
माध्यम से हम साधकों के प्रति संक्षेप में क्यों कह रहे हैं ? क्योंकी योगेश्वर
श्रीकृष्ण पूर्व में ही कह आये हैं कि ज्ञानियों से योगी श्रेष्ठ है, योगी अर्थात्
वह साधक जो योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार तत्त्वज्ञान एवं अध्यात्मविद्या और
योगशास्त्र रूपी मोक्ष की साधना का साधक है, ना कि सांख्यदर्शन का अथवा ज्ञान का
साधक, तथाकथित ज्ञानयोगी है | कृष्णयोग परायण योगी के प्रति इस सांख्यदर्शन रूपी
ज्ञान को, संक्षेप में उतना ही कहते हैं जितना उस योगी को इस कृष्णयोग रूपी साधना
को आत्मसात करने को आवश्यक है, उतना ही इस सांख्यदर्शन रूपी ज्ञान का समावेश
योगेश्वर श्रीकृष्ण कृष्णयोग रूपी अध्यात्मविषयक उपदेशों हेतु करते हैं | अतः
स्पष्ट है कि गीता शास्त्र ज्ञान विषयक नहीं अपितु तत्त्वज्ञान विषयक, अध्यात्मविषयक
योग शास्त्र है | अब तीसरे श्लोक पर मनन |
योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कह रहे हैं कि
वह क्षेत्र जो है और जैसा है और जिन विकारोंवाला है अर्थात् उस क्षेत्र का जो
संगठित रूप है और जैसा है वह कहूँगा और यह क्षेत्र विकारोंवाला है अर्थात्
परिवर्तनशील है, नाशवान है और और जिस प्रभाववाला है, वह मुझसे संक्षेप में सुन |
स्पष्ट है कि क्षेत्र विकारोंवाला है, बालावस्था, कौमार्य, यौवन, जरा, मृत्यु, रोग
वाला है और क्षेत्र प्रभाव वाला भी है, प्रकृतिजन्य भावों से, गुणों से भावित रहता
है, तात्पर्य यह की प्रकृतिजन्य क्षेत्र से जो भाव उत्पन्न होते हैं, वह भाव
अर्थात् जो रागद्वेष आदि हैं, वे भी क्षेत्र के कारण ही हैं | तथा योगेश्वर
श्रीकृष्ण यह भी कह आये हैं कि केवल मात्र अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, इसलिये
कृष्णयोग परायण साधक को सांख्यदर्शन के अनुसार इस क्षेत्र क्षेत्रज्ञ अर्थात् देह
देही, शरीर शरीरी, पुर पुरुष, अधिभूत अधिदैव, क्षयपुरुष अक्षयपुरुष का ज्ञान अवश्य
होना चाहिये, ऐसा योगेश्वर श्रीकृष्ण का मत है तथा अब आगे छह अध्यायों में
योगेश्वर श्रीकृष्ण जो भी ज्ञान का उपदेश सांख्यदर्शन के अनुसार कृष्णयोग परायण
साधक को संक्षेप में कहेंगें, हमें उतना ही आत्मसात करना है | यह ज्ञान विस्तारपूर्वक
और विभागपूर्वक अन्य शास्त्रों में उपलब्ध है, परन्तु कृष्णयोग परायण साधक को इस
ज्ञान से जितना अभिप्राय है, उतना ही योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ गीता शास्त्र में कह
रहे हैं |
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च |
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ||
(१३/५)
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः
|
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ||
(१३/६)
महा
भूतानि अहङ्कारः बुद्धिः अव्यक्तम् एव च |
इन्द्रियाणि
दश एकम् च पञ्च च इन्द्रिय गौ चराः || (१३/५)
इच्छा
द्वेषः सुखम् दुःखम् सङ्घात चेतना धृतिः |
एतत्
क्षेत्रम् समासेन स विकारम् उदाहृतम् || (१३/६)
महा
भूतानि (पंच महाभूत), अहङ्कारः
(अहंकार), बुद्धिः
(बुद्धि), अव्यक्तम्
(चेतना), एव
(ही), च
(और) |
इन्द्रियाणि (इन्द्रियाँ), दश एकम् (दस और एक मन), च
(और), पञ्च
(पाँच), च
(और), इन्द्रिय गौ
चराः (इन्द्रियों के विषय) |
(१३/५)
इच्छा
(इच्छा), द्वेषः
(द्वेष), सुखम्
(सुख), दुःखम्
(दुःख), सङ्घात
(समूह), चेतना
(चेतना), धृतिः
(धारणा, धैर्य) |
एतत् (यह), क्षेत्रम् (क्षेत्र), समासेन
(संक्षेप में), स
(सहित), विकारम्
(विकारों के), उदाहृतम्
(कहा गया है) |
(१३/६)
पंच
महाभूत, अव्यक्त ही, अहंकार और बुद्धि, दस इन्द्रियाँ और एक मन और पाँच इन्द्रियों
के विषय | (१३/५)
इच्छाद्वेष,
सुखदुःख चेतना और धृति का समूह यह क्षेत्र संक्षेप में विकारों सहित कहा गया है |
(१३/६)
पंच महाभूत अर्थात् पृथ्वी, जल, वायु,
अग्नि और आकाश तथा अहंकार और बुद्धि और अव्यक्त अर्थात् अव्यक्त परा प्रकृति की
जीव शक्ति तथा दस इन्द्रियाँ और एक मन, दस इन्द्रियाँ अर्थात् पाँच
ज्ञानेन्द्रियाँ जैसे आँख, कान, नाक, त्वचा और जिव्हा तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ
जैसे रसना, हाथ, पैर, उपदस्थ और गुदा और पाँच इन्द्रियों के विषय जैसे रूप, रस,
गंध, शब्द और स्पर्श | इस प्रकार इन चौबीस तत्त्वों का विकार वाला यह जो समूह है,
स्थूल देह का यह पिण्ड जो संक्षेप से कहा गया है, क्षेत्र कहलाता है | इस क्षेत्र
के इच्छाद्वेष, सुखदुःख आदि द्वन्द्वात्मक भाव तथा चेतना अर्थात् इस क्षेत्र की
चेष्टात्मक प्रवृति और धृति अर्थात् धारणा शक्ति इत्यादि जितने भी भाव हैं, वह
इस भाव इस क्षेत्र के प्रभाव हैं, जो
प्रकृतिजन्य सत, रज, तम भावों से, गुणों से उत्पन्न होते हैं |
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि यह क्षेत्र
विकारवाला और प्रभाव वाला है तथा क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही यथार्थ
ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है | तात्पर्य यह की इस क्षेत्र का जो बन्धन है, उसके
निवारण हेतु जो ज्ञान है, वही यथार्थ ज्ञान है | सांख्यदृष्टि से संक्षेप में कहे गये
इस क्षेत्र के रूप, उसके विकार और उसके प्रभाव को कहने के पश्चात् अब योगेश्वर
श्रीकृष्ण सांख्यदर्शन अनुसार अगले चार श्लोकों में उस यथार्थ ज्ञान की विवेचना
करते हैं तथा पांचवें श्लोक में ज्ञान के तत्त्व को स्पष्ट करते हुए, उस ज्ञान से
जो जानने योग्य है अर्थात् जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ‘क्षेत्रज्ञ’ अर्थात् समस्त
क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जान, उस जानने योग्य ‘ज्ञेय’ का, पुरुषोत्तम के
ज्ञान को अर्जुन के प्रति कहते हैं | पहले ज्ञान फिर ज्ञेय |
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् |
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ||
(१३/७)
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च |
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ||
(१३/८)
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु |
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ||
(१३/९)
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी |
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि || (१३/१०)
अमानित्वम्
अदम्भित्वम् अहिंसा क्षान्तिः आर्जवम् |
आचार्य
उपासनम् शौचम् स्थैर्यम् आत्मविनिग्रहः || (१३/७)
इन्द्रिय
अर्थेषु वैराग्यम् अनहङ्कारः एव च |
जन्म
मृत्यु जरा व्याधि दुःखः दोष अनुदर्शनम् || (१३/८)
असक्तिः
अनभिष्वङ्गः पुत्र दार गृह आदिषु |
नित्यम्
च सम चित्तत्वम् इष्ट अनिष्ट उपपत्तिषु || (१३/९)
मयि
च अनन्य योगेन भक्तिः अव्यभिचारिणी |
विविक्त
देश सेवित्वम् अरतिः जन संसदि || (१३/१०)
अमानित्वम्
((अभिमान रहित), अदम्भित्वम्
(दम्भरहित), अहिंसा
(अहिंसा), क्षान्तिः
(सहनशीलता), आर्जवम्
(सरलता) |
आचार्य उपासनम् (गुरु के प्रति श्रद्धा व सेवा भाव), शौचम्
(पवित्रता), स्थैर्यम्
(दृढ़ता), आत्म विनिग्रहः
(मन, इन्द्रियों सहित
शरीर का विशिष्ट निग्रह) | (१३/७)
इन्द्रिय
अर्थेषु (इन्द्रियों के विषयों
में), वैराग्यम्
(वैराग्य), अनहङ्कारः
(अहंकार रहित), एव
(ही), च
(और) |
जन्म (जन्म), मृत्यु
(मृत्यु), जरा
(बुढ़ापा), व्याधि
(रोग), दुःखः
(दुःख), दोष
(दोष), अनुदर्शनम्
(देखते हुए) |
(१३/८)
असक्तिः
(आसक्तिरहित), अनभिष्वङ्गः
(मोह, ममता रहित ), पुत्र
(पुत्र), दार
(स्त्री), गृह
(घर), आदिषु
(आदि में) |
नित्यम् (नित्य), च
(और), सम
(समभाव), चित्तत्वम्
(चित्त का), इष्ट
(प्रिय), अनिष्ट
(अप्रिय), उपपत्तिषु
(प्राप्त करके) |
(१३/९)
मयि
(मुझमें), च
(और), अनन्य
(अन्य ना), योगेन
(योगद्वारा), भक्तिः
(भक्ति), अव्यभिचारिणी
(अव्यभिचारी) |
विविक्त (एकान्त), देश
(देश), सेवित्वम्
(सेवन करना), अरतिः
(प्रेम ना होना), जन संसदि
(जन समुदाय) |
(१३/१०)
अभिमानरहित,
दम्भरहित, अहिंसा, सहनशीलता, सरलता, आचार्य उपासना, पवित्रता, दृढ़ता, मन
इन्द्रियों सहित शरीर का विशिष्ट निग्रह | (१३/७)
इन्द्रियोंके
विषयोंमें वैराग्यभाव और अहंकाररहित, जन्म मृत्यु, जरा, वृद्धावस्था के दोषों को
देखते हुए | (१३/८)
पुत्र,
स्त्री, घर आदि में आसक्ति, मोह, ममता रहित और प्रिय अप्रिय को प्राप्त करके नित्य
चित्त का समभाव | (९)
और
मुझसे अव्यभिचारिणी भक्ति द्वारा अनन्य योग से युक्त होकर, एकान्त देश का सेवन
करना और जन समुदाय में प्रीति का ना होना | (१३/१०)
‘अमानित्वं’ श्रेष्ठता के भाव का जो अभिमान होता है,
उसका अभाव, उसका ना होना ‘अमानित्वं’ ‘अ मानि त्वं’ कहलाता है, ‘अदम्भित्वं’
श्रेष्ठता के भाव का प्रदर्शन करना, प्राप्य सामर्थ्य का, वस्तु संग्रह का, धन का,
ज्ञान का, धर्म का प्रदर्शन करना दम्भ अर्थात् पाखण्ड कहलाता है, इस दम्भाचरण के
भाव का अभाव होना ‘अदम्भित्वं’ ‘अ दम्भी त्वं’ कहलाता है, ‘अहिंसा’ परस्पर भावों
में, अन्य मनुष्यों के संबंध में मन, कर्म और वचन से दूसरों को व्यथित ना करना और
ना ही दूसरों के व्यवहार से स्वयं उद्वेग को प्राप्त होना बाह्य अहिंसा है तथा काम
और भोगों में आसक्त होकर स्वयं को अधोगति में ना डालना स्वयं के प्रति आंतरिक अहिंसा
है, दोनों का पालन अहिंसा है, ‘क्षान्ति’ परमार्थ हेतु साधक का सांसारिक
मनुष्यों के उचित अनुचित व्यवहार द्वारा उद्विग्नता को प्राप्त ना होकर, उनके
व्यवहार के प्रति सहनशीलता का भाव ‘क्षमा’ भाव कहलाता है, इस भाव से भावित रहना
‘क्षान्ति’ कहलाता है, ‘आर्जवम्’ मनुष्य का मन, कर्म और वचन से सरल और सहज
भाव में नित्य स्थित रहना ‘आर्जवम्’ कहलाता है, ‘आचार्य उपासना’ गुरु के
प्रति सेवा, सम्मान, श्रद्धा और भक्तिभाव आचार्य उपासना है, ‘शौचम्’ बाह्य
अर्थात् शारीरिक और आंतरिक अर्थात् अन्तःकरण की पवित्रता का, शुद्धि का नाम शौच
है, इस पवित्रता में अपनी स्थिति बनाये रखना ‘शौचम्’ कहलाता है, ‘स्थैर्यम्’
स्थिरभाव अर्थात् परमार्थ हेतु, परमभाव की प्राप्ति हेतु एकानिष्ठा भाव में स्थिर
रहना ‘स्थैर्यम्’ कहलाता है, ‘आत्मविनिग्रहः’ मन, इन्द्रियों सहित शरीर को
नियमित, नियंत्रित करके उसे आत्मपरायण बनाने का अभ्यास ‘आत्मविनिग्रहः’ कहलाता है
| (१३/७)
‘इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम्’ इस लोक और परलोक में देखे
सुने भोगों में आसक्ति का अभाव, ‘अनहंकार’ अहंकार भाव का, ‘मैं और मेरा’
भाव का अभाव, तथा जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग आदि में दुःख और दोषों को
देखते हुए ‘अन्भिष्वंग’ भाव अर्थात् जो प्रियजनों के सुख दुःख में ऐसा
मानना कि मैं सुखी अथवा दुःखी हूँ, ऐसे भाव का अभाव और इसके लिये स्त्री, पुत्र,
घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव और प्रिय अथवा अप्रिय की प्राप्ति में चित्त का
नित्य ही समभाव में स्थित रहना ‘अन्भिष्वंग’ कहलाता है | (१३/८,९)
मुझमें अनन्य योगेन अर्थात् अन्य किसी भी
भाव से भावित हुए बिना, अनन्यभाव से साधना द्वारा मुझसे युक्त, अव्यभिचारिणी भक्ति तात्पर्य यह कि व्यभिचार
देह के प्रति होता है और योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ सांख्यदर्शन के अनुसार क्षेत्र
में रहनेवाले को इस ज्ञान का उपदेश दे रहे हैं और सांख्यदर्शन के अनुयायी,
ज्ञानियों के प्रति योगेश्वर श्रीकृष्ण पहले ही कह आये हैं कि ‘उन अव्यक्त में
आसक्त चित्तवालों को कष्ट विशेष है क्योंकी अव्यक्त विषयक गति देहाभिमान द्वारा
दुःखद प्राप्त होती है | (१२/५) उस अव्यक्त विषयक गति की प्राप्ति हेतु ज्ञानियों
का देहाभिमान से परे जो भाव है, उस देह भाव के त्याग को ही योगेश्वर श्रीकृष्ण
यहाँ अव्यभिचार कहते हैं और देहाभिमान से परे जो भक्तिभाव है, उसे अव्यभिचारिणी
भक्ति भाव कहते हैं | ‘एकान्त सेवी’ एकान्त में अर्थात् जहाँ एक मैं तो
हूँ, इस भाव का भी अन्त हो सके, एक ‘मैं’ भाव का भी अन्त करने में सक्षम स्थान
एकान्त कहलाता है, जहाँ साधना परायण होकर साधक अपने को भी भूल पाये, ऐसे एकान्त
में स्थित होकर साधना करने वाला ‘एकान्त सेवी’ कहलाता है तथा जन समुदाय में प्रीति
ना होना, जन समुदाय अर्थात् वे लोग जो सांसारिक विषय भोगों में आसक्त रहते हैं, उन
मनुष्यों में प्रीति का ना होना, साधक को साधना में हितकारी होता है | (१३/१०)
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं
तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् |
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ||
(१३/११)
अध्यात्म
ज्ञान नित्यत्वम् तत्त्व ज्ञान अर्थ दर्शनम् |
एतत्
ज्ञानम् इति प्रोक्तम् अज्ञानम् यत् अतः अन्यथा || (१३/११)
अध्यात्म
(अध्यात्म), ज्ञान
(ज्ञान), नित्यत्वम्
(नित्य स्थिति), तत्त्व
(तत्त्व), ज्ञान
(ज्ञान), अर्थ
(अर्थरूप), दर्शनम्
(देखना) |
एतत् (यह), ज्ञानम्
(ज्ञान है), इति
(ऐसा), प्रोक्तम्
(कहा है), अज्ञानम्
(अज्ञान), यत्
(जो), अतः
(इससे), अन्यथा
(अन्यथा, विपरीत है) |
(१३/११)
अध्यात्म
ज्ञान में नित्य स्थित और तत्त्व ज्ञान के अर्थरूप देखना, यह ज्ञान है, जो इससे
अन्यथा है वह अज्ञान है, ऐसा कहा गया है | (१३/११)
योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया यह
व्यक्तव्य गीता शास्त्र का एक महावाक्य है | यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पहली बार
स्पष्ट किया है कि गीता शास्त्र में वे दो प्रकार के ज्ञान के उपदेश का समावेश
करके समानांतर रूप से अर्जुन को कह रहे हैं | एक अध्यात्म ज्ञान है और दूसरा
तत्त्व ज्ञान है | योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि साधक का अध्यात्म ज्ञान के
अनुरूप नित्य अपनी स्थिति को बनाये रखना और तत्त्व ज्ञान के अर्थरूप देखना, तत्त्व
ज्ञान के अनुरूप परमात्मा तत्त्व का दर्शन करना, यह तो ज्ञान है और जो इससे अन्यथा
है, इसके विपरीत है, अन्यत्र जो भी ज्ञान है, वस्तुतः वह अज्ञान है | योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने पूर्व चार श्लोकों जिस ज्ञान की विवेचना की है, वह अध्यात्म विषयक ज्ञान
है और साधक को इस ज्ञान के अनुरूप नित्य अपनी स्थिति को बनाये रखना चाहिये,
तत्पश्चात् तत्त्व ज्ञान के अर्थ रूप परं तत्त्व की खोज करनी चाहिये | यहाँ ध्यान
देने योग्य योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया इनका क्रम है, पहले समभाव समबुद्धि
से युक्त होकर जीवन निर्वाह और फिर तत्त्व ज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा तत्त्व की
खोज | यही गीता शास्त्र का सारांश है, आप कितना भी योग का अभ्यास करें, परन्तु पार
नहीं लगता | संसार समुद्र को पार करने को योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में ही
मन्त्ररुपी महावाक्य कह आये हैं कि योगी तपस्वियों से अधिक, ज्ञानियों से भी अधिक
और कर्मियों से भी अधिक मान्य है, इसलिये अर्जुन ! तू योगी हो | (६/४६) तथा अभ्यास
से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान विशेष है, ध्यान से कर्मफल का त्याग विशेष
है, त्याग से तत्काल शान्ति प्राप्त होती है | (१२/१२) तात्पर्य यह कि केवल मात्र
अभ्यास करते रहने से, ज्ञान युक्त अभ्यास जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है
कि इस समबुद्धि से युक्त हुआ, योग द्वारा तू कर्मबंधन का नाश कर सकेगा, इसलिये
केवल मात्र अभ्यास से अध्यात्मज्ञान और तत्त्वज्ञान से युक्त अभ्यास श्रेष्ठ है और
इस बौद्धिक ज्ञान से युक्त होकर अभ्यास से ध्यान श्रेष्ठ है क्योंकी जब इस बौद्धिक
ज्ञान से युक्त होकर अभ्यास करता हुआ तू ध्यान में उतरेगा, तभी परमात्मा का दिशा
निर्देश तुझे प्राप्त होगा, जो आत्मज्ञान है, क्योंकी परमात्मा तत्त्व का प्रवाह
सदैव ध्यान में होता है तथा बौद्धिक ज्ञान से युक्त अभ्यास द्वारा जब तू ध्यान को
प्राप्त करेगा तब कर्मफल का भी त्याग कर, क्योंकी कर्मफल की कामना ही बंधन का कारण
है और यह सब किस लिये ?
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि
‘स्वभावः अध्यात्मं उच्यते’ (८/३), स्वभाव अध्यात्म कहलाता है, इससे पूर्व
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो सात्त्विक भाव ही है और जो राजस और तामस भाव
हैं, मुझसे ही हैं, उनको ऐसा जान, परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं |
(७/१२) यह तीनों भाव योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार उनसे ही हैं, परन्तु योगेश्वर
इन भावों से अतीत हैं, भावातीत हैं | लेकिन उन्हीं का सनातन अंश ‘जीवात्मा’
प्रकृति से तादाम्य कर, इन भावों से भावित हो जाता है इन तीनों भावों के संयोग
वियोग से ही, मिश्रण से ही क्षेत्र के जो भाव होते हैं, उनके अनुरूप ही क्षेत्र
में (मनुष्यों में) गुण उत्पन्न होते हैं और इन भावों तथा इन भावों से उत्पन्न
कार्यरूप गुणों के कारण ही क्षेत्र (मनुष्य) जिन भावों से भावित रहता है, उससे
प्रत्येक क्षेत्र के अपने भाव का अर्थात् क्षेत्र के (मनुष्य के) ‘स्व-भाव’ का
निर्माण होता है | जन्म जन्मान्तरों से इन भावों और इनके कार्यरूप गुणों से भावित
रहा क्षेत्र (मनुष्य), अपने शुभाशुभ कर्मों और कर्मफल को भोगता हुआ, इनके परवश
हुआ, अपने ‘स्व-भाव’ के वश हुआ प्रकृति से बंधा रहता है |
प्रकृति से तादाम्य के कारण, प्रकृतिजन्य
सत, रज और तम भावों और उनके कार्यरूप गुणों के कारण अन्तकरण में स्थित मनुष्य का
यह स्वभाव वस्तुतः परमतत्त्व परमात्मा के परं भाव का ही विकृत रूप है | मनुष्य का
यह स्वभाव ही परिणाम में ब्रह्म स्वरूप है और जो विद्या इस स्वभाव को ज्ञात कराती
है, उसे अध्यात्मविद्या कहते हैं, तात्पर्य यह कि प्रकृतिजन्य भाव और उनके
कार्यरूप गुण परिवर्तनशील हैं, मनुष्यों के प्रयास स्वरूप इनका उत्कर्ष अपकर्ष
होता ही रहता है और जो पुरुष परमात्मा के आश्रय होकर, योगेश्वर श्रीकृष्ण के
उपदेशानुसार योग परायण होते हैं, यज्ञार्थ कर्मों का आचरण करते हैं, उनके
‘स्व-भाव’ का उर्ध्वमुखी उत्थान होता है और अंततः उन्हें ‘परं-भाव’ की, परमात्मा तत्त्व की प्राप्ति
होती है |
सारांशतः मनुष्य का यह ‘स्व-भाव’ ही
परिणाम में ‘परं-भाव’ है, ब्रह्म स्वरूप है, इस स्वभाव का रूपांतरण करने में सक्षम
ज्ञान अध्यात्म ज्ञान कहलाता है और स्वभाव अध्यात्म कहलाता है तथा योगेश्वर
श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित उपर्युक्त चार श्लोक अध्यात्म विषयक ज्ञान से ही
सम्बंधित हैं, मनुष्य के स्वभाव के रूपांतरण में हेतु है, इसके आचरण स्वरूप मनुष्य
के स्व-भाव का रूपांतरण होकर उसे परं-भाव की प्राप्ति होती है |
और अब तत्त्व ज्ञान | यह जो सृष्टि है,
यह ब्रह्माण्ड, यह सूर्य, यह चन्द्र, ब्रह्मभुवन पर्यन्त समस्त लोक, यह मनुष्य, ये
देवता जो भी दृश्य अदृश्य जगत है, उसका एक नियन्ता है, एक परमतत्त्व परमात्मा है,
एक अक्षय परं ब्रह्म है | यह सम्पूर्ण जगत उस नियन्ता के नियमों अनुसार, सिद्धांतो
के अनुसार प्रवृत होता है, सूर्य का तपना, ऋतुओं का बदलना, दिन रात, मनुष्यों की
उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय, भिन्न भिन्न योनियों में उसका आवागमन, स्वर्गलोक अथवा
अधोगति की प्राप्ति, जल में रस, वायु में स्पर्श, आकाश में शब्द, यह सभी उस
नियन्ता के सिद्धांत अनुसार होता है | तत्त्व रूप से उन सिद्धान्तों का ज्ञान ही तत्त्व
ज्ञान है | गीता शास्त्र मनुष्य के उत्थान का शास्त्र है, उसके सव-भाव के रूपांतरण
स्वरूप उसके परं-भाव की प्राप्ति का शास्त्र है और इसमें हेतु जिन आवश्यक
सिद्धांतों की, तत्त्वों की विवेचना योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस शास्त्र में करी है,
उसे योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ तत्त्व ज्ञान कहते हैं | जैसे समस्त कर्म सदैव
प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित जीव मैं कर्ता हूँ, ऐसा
मानता है | (३/२७) गुण और कर्म के विभागपूर्वक तत्त्ववित्त, समस्त गुण गुणों में
बरत रहे हैं, ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होते | (३/२८) योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यह
दोनों व्यक्तव्य सिद्धांत रूप से, तत्त्व रूप से कहे हैं | यहाँ ‘समस्त कर्म सदैव
प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं’ तथा ‘समस्त गुण गुणों में बरतते हैं’ यह
सिद्धांत रूप से कहा गया तत्त्वज्ञान है | इसी प्रकार अध्याय दो में देह देही के
भेद को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘असत का तो भाव विद्यमान नहीं है, सत का अभाव विद्यमान नहीं है
| इन दोनों का अन्तर तत्त्वदर्शियों ने देखा है | (२/१६) तथा ‘नाशरहित, सनातन तो
उसे जान जिससे यह सर्वत्र व्याप्त है | इस अपरिवर्तनशील का विनाश करने में कोई भी
समर्थ नहीं है | (२/१७) यहाँ सत असत की परिभाषा और सिद्धांत रूप से अविनाशी,
सनातन, अव्ययस्य, अप्रमेयस्य कहकर, जिस देही तत्त्व की व्याख्या की गयी है, यह
तत्त्व ज्ञान है | इसी प्रकार सुख-दुःख में सम रहने वाले जिस धीर पुरुष को यह
व्यथित नहीं करते, वह अमृत की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१५) यह तत्त्व
ज्ञान है, जल में रस मैं हूँ, यह तत्त्व ज्ञान है, वायु में स्पर्श मैं हूँ, यह
तत्त्व ज्ञान है | यहाँ जानने योग्य है कि तत्त्व ज्ञान, आत्मज्ञान के समकक्ष है,
अध्यात्म ज्ञान की तरह तत्त्व ज्ञान, कहने सुनने का विषय नहीं है, यह कहने में
नहीं आता, यह देखा जाता है, इसे तत्त्व दर्शियों ने देखा है, इसलिये
अध्यात्मविद्या, ब्रह्मविद्या के समान आत्मविद्या अथवा तत्त्वविद्या नहीं होती,
केवल आत्मज्ञान और तत्त्वज्ञान होता है क्योंकी यह केवल देखा जाता है, साक्षात्
किया जाता है, यह अनुभव की अनुभूति है, कहने सुनने का विषय नहीं है |
अध्यात्म ज्ञान और तत्त्व ज्ञान पर इस
मनन से तात्पर्य यह कि गीता शास्त्र में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अध्यात्मविद्या और तत्त्वज्ञान
दोनों का समावेश करते हुए अर्जुन को परं अक्षय ब्रह्म की प्राप्ति हेतु उपदेश दिये
हैं | इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए भगवन् वेद व्यास ने इस शास्त्र को ‘श्रीमद्भगवद्गीतारूपी
उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुनसंवाद’ कहा है | तात्पर्य यह कि
यह शास्त्र ‘श्रीमद्भगवद्गीतारूपी’ भगवत् रूपी, ब्रह्ममय
रूपी, गीता अर्थात् ब्रह्म गीत का गायन, ब्रह्म भाव को प्राप्त करने में हेतु तथा ‘उपनिषद्
एवं ब्रह्मविद्या’ उपनिषद अर्थात् तत्ववित्
ऋषियों, मुनियों द्वारा देखे गये तत्त्वज्ञान एवं ब्रह्मविद्या अर्थात् ऋषियों
मुनियों द्वारा उपदेशित ब्रह्म को प्राप्त करने में हेतु ब्रह्मविद्या, वस्तुतः
स्वभाव के रूपांतरण की जो अध्यात्मविद्या ब्रह्म को साक्षात् कराती है, वही
ब्रह्मविद्या है तथा इस तत्त्वज्ञान और ब्रह्मविद्या से युक्त होकर कहा गया योगशास्त्र,
जो परमतत्त्व परमात्मा से योग कराता है, वही ‘श्रीमद्भगवद्गीतारूपी
उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुनसंवाद’ है | सारांशतः योगेश्वर
श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित गीता शास्त्र न तो ज्ञानयोग है, न कर्मयोग, न ध्यानयोग,
न भक्तियोग है, यह तो कृष्णयोग है |
और इस मनन से भी यही तात्पर्य है कि हम
योगेश्वर श्रीकृष्ण के इस महावाक्य रूपी उपदेश को आत्मसात कर पायें कि
अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थित और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप देखना, यह ज्ञान है, जो
इससे अन्यथा है, इसके विपरीत है, वह अज्ञान है |
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि
यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते |
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ||
(१३/१२)
ज्ञेयम्
यत् तत् प्रवक्ष्यामि यत् ज्ञात्वा अमृतम् अश्नुते |
अनादि
मत् परम् ब्रह्म न सत् तत् न असत् उच्यते || (१३/१२)
ज्ञेयम्
(जानने योग्य), यत् (जो), तत्
(वह), प्रवक्ष्यामि
(कहूँगा), यत्
(जिसको), ज्ञात्वा
(ज्ञात करके), अमृतम्
(अमृत का), अश्नुते (पान करते हैं)
| अनादि मत्
(अनादि तत्त्व), परम्
(परम), ब्रह्म
(ब्रह्म), न
(न), सत्
(सत्य), तत्
(वह), न
(न), असत् (असत्य),
उच्यते (कहा जाता है) |
(१३/१२)
जो
जानने योग्य है, जिसको ज्ञात करके अमृत का सेवन करते है, वह कहूँगा, अनादि तत्त्व वह
परं ब्रह्म न सत्य, न असत्य कहा जाता है | (१३/१२)
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की त्रिपुटी
अनुसार, ज्ञाता द्वारा अभी पूर्व में कहे गये ज्ञान से युक्त होकर जो जानने योग्य
है, ज्ञेय है, जिसको ज्ञात करके ज्ञाता अमृत का सेवन करता है, क्षेत्रज्ञ होने का
अधिकारी हो जाता है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्व में ही कह आये हैं कि कौन्तेय
! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख देनेवाले इन्द्रियों और विषयों के संयोग-वियोग तो
आने-जाने वाले, अनित्य हैं | भारत ! उनको सहन करो | (२/१४) क्योंकि पुरुष
श्रेष्ठ ! सुख-दुःख में सम रहने वाले जिस धीर पुरुष को यह व्यथित नहीं करते, वह
अमृत की प्राप्ति के योग्य हो जाता है | (२/१५) उस अमृत तत्त्व, परं तत्त्व को
योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ ज्ञेय कह रहे हैं और अब इस श्लोक सहित अगले पाँच श्लोकों
में योगेश्वर श्रीकृष्ण उस ज्ञेय की महिमा कहते हैं |
वह अनादि तत्त्व अर्थात् जिसके होने में
कोई आदि नहीं, कोई कारण नहीं, ऐसा अनादि तत्त्व परं ब्रह्म है और वह न सत कहा जाता
है, न असत कहा जाता है | जब तक ज्ञात नहीं होता, तब तक वह है और ‘सत’ है, ऐसा
भासता है परन्तु उसे ज्ञात करने के पश्चात् अर्थात् उस अमृत तत्त्व की, ब्रह्म
तत्त्व की प्राप्ति के पश्चात्, ‘क्षेत्रज्ञ’ और ‘क्षेत्रज्ञ माम्’ के भेद के समाप्त होने के पश्चात,
ज्ञात और ज्ञेय के भेद के समाप्त होने के पश्चात्, उस ब्रह्म तत्त्व से एकीभाव के पश्चात्, अब
आगे जानने योग्य कुछ शेष नहीं रहता, तब वह
‘असत’ सा भासता है, क्योंकी अब तुम भी वही हो, इसलिये पहले जो वह था, अब वह नहीं
है, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक हो गये हैं, इसलिये वह न ‘सत’ है और न ‘असत’, केवल
अमृततत्त्व है, परं अक्षय ब्रह्म है, भेद तो एकीभाव की प्राप्ति तक का है और उस
भेद का छेदन यह तत्त्व ज्ञान और अध्यात्मविद्या से युक्त योग के द्वारा होता है |
परन्तु जब तक भेद है, तब तक उसकी अनुभूति कैसे हो ? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण
कहते हैं |
सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् |
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ||
(१३/१३)
सर्वत्रः
पाणि पादम् तत् सर्वतः अक्षि शिरः मुखम् |
सर्वतः
श्रुतिमत् लोके सर्वम् आवृत्य तिष्ठति || (१३/१३)
सर्वत्रः
(सर्वत्र), पाणि
(हाथ), पादम्
(पाँव), तत्
(वह), सर्वतः
(सर्वत्र), अक्षि
(नेत्र), शिरः
(सिर), मुखम्
(मुख) |
सर्वतः (सर्वत्र), श्रुतिमत् (सुननेवाला), लोके
(लोक में), सर्वम्
(सभी को), आवृत्य
(व्याप्त होकर), तिष्ठति
(बैठा है) |
(१३/१३)
वह
सर्वत्र हाथ पाँव, सर्वत्र नेत्र सिर मुख, सर्वत्र सुननेवाला, लोक में सभी को आवृत
करके बैठा है | (१३/१३)
वही भाव जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण अभी
पूर्व में श्लोक संख्या (१३/२) में कह आये हैं कि सभी क्षेत्रों में भी क्षेत्रज्ञ
मुझे ही जान, ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ माम्’ के भेद को स्पष्ट करते
हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि प्रत्येक क्षेत्र के हाथ, पाँव, नेत्र, सिर,
मुख, कान आदि का भोक्ता भी मैं ही हूँ, वह मेरे ही हैं, मेरे ही कारण हैं, अर्थात्
पूर्व श्लोक में कहे ‘अनादिमत्परं ब्रह्म’ के ही हैं | परन्तु मनुष्य क्षेत्र से
तादाम्य कर, अपने स्वरूप को विस्मृत कर, अपने को ही क्षेत्र मान बैठा है और
क्षेत्र के उस अज्ञान के निवारण को ही योगेश्वर श्रीकृष्ण यह ज्ञान कह रहे हैं |
इस प्रकार उस अक्षय परं ब्रह्म की
व्याख्या को सांख्यदर्शन कहते हैं, जहाँ अध्यारोप तथा अपवादद्वारा ही उस
प्रपंचरहित अव्यक्त ब्रह्म की व्याख्या की जाती है कि जैसे वह अक्षय परं ब्रह्म
समस्त प्राणियों के नेत्रों से देखता है, कानों से सुनता है इत्यादि | इसी भाव को
स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण अगले श्लोकों में कहते है | कि
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्
|
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ||
(१३/१४)
सर्व
इन्द्रिय गुण आभासम् सर्व इन्द्रिय विवर्जितम् |
असक्तम्
सर्व भृत च
एव निर्गुणम् गुण भोक्तृ च || (१३/१४)
सर्व
(समस्त), इन्द्रिय
(इन्द्रियों के), गुण
(गुणों का), आभासम्
(जाननेवाला), सर्व
(समस्त), इन्द्रिय
(इन्द्रियों से), विवर्जितम् (विहीन हुआ)
| असक्तम् (आसक्तिरहित), सर्व (समस्त), भृत (प्राणियों का
पालनहार), च (और), एव
(ही), निर्गुणम्
(निर्गुण हुआ), गुण
(गुना), भोक्तृ
(भोगनेवाला), च
(और) |
(१३/१४)
समस्त
इन्द्रियों के गुणों को जाननेवाला, समस्त इन्द्रियों को विसर्जित किये हुआ और
आसक्तिरहित ही समस्त
प्राणियों
का पालनहार और निर्गुण हुआ गुणों को भोगनेवाला | (१३/१४)
पूर्व श्लोक में कहे अनुसार वह सब ओर
हाथ, पाँव, नेत्र, सिर वाला होकर सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है,
ऐसा होते हुए भी समस्त इन्द्रियों से रहित है, समस्त इन्द्रियों को विसर्जित किये
हुए है, केवल इतना ही नहीं, समस्त इन्द्रियों के विसर्जित होते हुए भी आसक्तिरहित
अर्थात् इन्द्रियों और इन्द्रियों के विषयों से अनासक्त भाव से स्थित हुआ सबका
पालनहार है, तात्पर्य यह कि गुणों को भोगने वाला होकर भी गुणातीत है, निर्गुण है,
निराकार है | यह भी सांख्यदर्शन अनुसार अध्यारोप तथा अपवादद्वारा ही उस प्रपंचरहित
अव्यक्त ब्रह्म की व्याख्या है | तथा इसी प्रकार
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च |
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च
तत् || (१३/१५)
बहिः
अन्तः च भूतानाम् अचरम् चरम् एव च |
सूक्ष्मत्वात्
तत् अविज्ञेयम् दुर स्थम् च अन्तिके च तत् || (१३/१५)
बहिः
(बाहर), अन्तः
(भीतर), च
(और), भूतानाम्
(प्राणियों में), अचरम्
(अचर), चरम्
(चर), एव
(ही), च
(और) |
सूक्ष्मत्वात् (सूक्ष्म होने के कारण), तत्
(वह), अविज्ञेयम्
(अज्ञेय है), दुर
(दूर), स्थम्
(स्थित), च
(और), अन्तिके
(अति समीप), च
(और), तत्
(वह) |
(१३/१५)
समस्त
प्राणियों के बाहर भीतर, चर अचर रूप ही है, सूक्ष्म होने के कारण वह अज्ञेय है, और
अति समीप और दूर में स्थित वह है | (१३/१५)
समस्त प्राणियों के बाहर भीतर भी वही है
अर्थात् बाहर समष्टि रूप से ‘परमात्मा’ रूप से व्याप्त है और भीतर हृदय देश में व्यष्टि
रूप से, ‘आत्मा’ रूप से स्थित है तथा चर अचर भी वही है तात्पर्य यह कि समस्त
ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है, वह उसकी विभूतियों का ही विस्तार है, जैसे अष्टधामूल
प्रकृति, जल में रस, सूर्य चन्द्रमा का प्रकाश, ब्रह्मभुवन पर्यन्त समस्त लोक
इत्यादि | सूक्ष्म होने के कारण वह अज्ञेय है, जैसे जल में रस व्याप्त है, वायु
में स्पर्श व्याप्त है, यह सब उस अव्यक्त परमात्मा का ही प्रसार है परन्तु सूक्ष्म
होने के कारण, अव्यक्त, अचिन्त्य होने के कारण केवल ध्यान से, अनुभव से उस
परमतत्त्व की अनुभूति होती है तथा अति समीप और अति दूर भी वही है तात्पर्य यह की
ज्ञानचक्षुओं द्वारा देखने पर सर्वत्र वही है जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने
अभी कहा है कि अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थित और तत्त्व ज्ञान के अर्थरूप देखना,
यह ज्ञान है, जो इससे अन्यथा है वह अज्ञान है, और तमस के कारण, अज्ञान के कारण,
अविद्या के कारण अति दूर स्थित हुआ भी वही अव्यक्त, अचिन्त्य परं अक्षय ब्रह्म है
|
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् |
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च
|| (१३/१६)
अविभक्तम्
च भूतेषु विभक्तम् इव च स्थितम् |
भूत
भतृ च तत् ज्ञेयम् ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च || (१३/१६)
अविभक्तम्
(विभागाहित), च
(और), भूतेषु
(प्राणियों में), विभक्तम्
(विभक्त हुआ), इव
(ही), च
(और), स्थितम्
(स्थित है) |
भूत (प्राणियों का), भतृ
(पालनहार), च
(और), तत्
(वह), ज्ञेयम्
(जानने योग्य), ग्रसिष्णु
(संहारकर्ता), प्रभविष्णु
(उत्पन्न करनेवाला), च
(और) |
(१३/१६)
और
विभागाहित होकर समस्त प्राणियों में विभक्त हुआ ही स्थित है और समस्त प्राणियों का
पालनहार, उत्पन्न करनेवाला और संहारकर्ता, वह जाननेयोग्य है | (१३/१६)
वह विभागरहित होते हुए भी अर्थात् समस्त
जगत का आधार, आश्रय, समरूप से सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी समस्त प्राणियों में
विभक्त हुआ स्थित है, समष्टि परमात्मा समस्त प्राणियों के हृदय देश में व्यष्टि
रूप से, ‘आत्मा’ रूपसे स्थित है, परन्तु समस्त प्राणियों में विभक्त रूप से स्थित है
अर्थात् मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार, मनुष्यों के यज्ञार्थ कर्मों के आचरण
अनुसार, सभी मनुष्यों के हृदय देश में उस एक तत्त्व परमात्मा का संभव होना, उस एक
तत्त्व परमात्मा का प्रभव, उस एक तत्त्व परमात्मा का सृजन भिन्न और विलक्षण रूप से
होता है, समस्त प्राणियों में अलग अलग रूप से भासता है | वही एक परं तत्त्व
परमात्मा, हृदयस्थ ‘आत्मा’ समस्त प्राणियों की उत्पत्ति अर्थात् उस प्राणी का जन्म
किस प्रकार का होगा, श्रीमानों के घर में अथवा वह अधोगति को प्राप्त होगा अथवा फिर
वह स्वर्गादिक लोकों को प्राप्त होगा, इस प्रकार समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और
उनकी गति करनेवाला भी वही एक परमतत्त्व परमात्मा है और इसी रूप में उनका भरण पोषण
करनेवाला भी वही है |
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते |
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य
विष्ठितम् || (१३/१७)
ज्योतिषाम्
अपि तत् ज्योतिः तमसः परम् उच्यते |
ज्ञानम्
ज्ञेयम् ज्ञान गम्यम् हृदि सर्वस्य विष्ठितम् || (१३/१७)
ज्योतिषाम्
(ज्योतियों का), अपि
(भी), तत्
(वह), ज्योतिः
(ज्योति है), तमसः
(तमस से), परम्
(अत्यंत परे), उच्यते
(कहा जाता है) |
ज्ञानम् (ज्ञान), ज्ञेयम्
(जानने योग्य), ज्ञान गम्यम्
(ज्ञान द्वारा
प्राप्य), हृदि (हृदय में), सर्वस्य
(सबके), विष्ठितम्
(विशेष रूप से स्थित
है) |
(१३/१७)
वह
ज्योतियों का भी ज्योति है, तमस से अत्यंत परे कहा जाता है, वह ज्ञान, ज्ञान
द्वारा जानने योग्य (तथा) ज्ञान द्वारा प्राप्य सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित
है | (१३/१७)
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी पूर्व श्लोक
में कहा है कि सूक्ष्म होने के कारण वह अज्ञेय है और यहाँ कहते हैं कि वह
ज्योतियों का भी ज्योति है, तब वह अज्ञेय कैसे है ? इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर
श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह ज्योतियों का भी ज्योति है परन्तु तमस से अन्यंत परे कहा
जाता है, अज्ञान, अविद्या से अत्यंत परे है, माया के भावों से, गुणों से लिप्त क्षेत्र
के लिये अत्यंत परे है, इसलिये अज्ञेय है | तो समीप किसके है ? इसको स्पष्ट करते
हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह ज्ञान के समीप है, विद्या के समीप है,
ज्ञान द्वारा जानने योग्य है और केवल इतना ही नहीं अपितु ज्ञान द्वारा प्राप्त
करने योग्य भी वही है, और इसलिये ही एकीभाव को प्राप्त होने के लिये ही वह सबके
हृदय में विशेष रूप से स्थित है |
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तंसमासतः
|
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ||
(१३/१८)
इति
क्षेत्रम् तथा ज्ञानम् ज्ञेयम् च उक्तम् समासतः |
मत्
भक्तः एतत् विज्ञाय मत् भावाय उपपद्यते || (१३/१८)
इति
(इस प्रकार), क्षेत्रम्
(क्षेत्र का), तथा
(तथा), ज्ञानम्
(ज्ञान), ज्ञेयम्
(जानने योग्य को), च
(और), उक्तम्
(कहा गया), समासतः
(संक्षेप से) |
मत् भक्तः (मेरा भक्त), एतत् (इसको), विज्ञाय
(ज्ञात करके), मत्
(मेरे), भावाय
(भाव को), उपपद्यते
(प्राप्त करता है) |
(१३/१८)
इस
प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और ज्ञेय को संक्षेप से कहा गया है, मेरा भक्त इसको
ज्ञात करके मेरे भाव को प्राप्त करता है | (१३/१८)
इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को संक्षेप
से कहा गया है | किससे कहा गया है ? जिज्ञासु क्षेत्र से कहा गया है, वस्तुतः
सम्पूर्ण गीता शास्त्र ही देही के प्रति कहा गया है क्योंकी यह क्षेत्र (मनुष्य)
अज्ञान के कारण ही क्षेत्र (देह) से बँधा है और ज्ञेय तमस से अत्यंत परे है,
इसलिये क्षेत्र (मनुष्य) को यह क्षेत्र का ज्ञान, अध्यात्म ज्ञान, तत्त्व ज्ञान और
ज्ञेय संक्षेप से कहा गया है, जिससे वह अध्यात्म ज्ञान में नित्य अपनी स्थिती बनाये
रखे, समभाव, समबुद्धि से जीवन निर्वाह करे और तत्त्व ज्ञान के अर्थरूप यज्ञार्थ
कर्मों का आचरण करता हुआ उस परमात्मा को साक्षात् करे, अपनी जीवन यात्रा को सिद्ध
करे, क्योंकी यही ज्ञान है, जो इससे अन्यथा है वह अज्ञान है तथा जो इस प्रकार
योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों का अक्षरशः पालन करते हैं उनको अपना भक्त कहते हुए
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरा भक्त इसको ज्ञात करके मेरे भाव प्राप्त करता
है, इस अध्यात्मज्ञान और तत्त्वज्ञान से युक्त होकर योग का आचरण करते हुए अपने
स्व-भाव का रूपांतरण करता हुआ मेरे भाव को, परं-भाव को प्राप्त होता है |
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि |
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्
|| (१३/१९)
प्रकृतिम्
पुरुषम् च एव विद्धि अनादि उभौ अपि |
विकारान्
च गुणान् च एव विद्धि प्रकृति सम्भवान् || (१३/१९)
प्रकृतिम्
(प्रकृति), पुरुषम्
(पुरुष), च
(और), एव
(ही), विद्धि
(जान), अनादि
(आदिरहित), उभौ
(दोनों को), अपि
(भी) |
विकारान् (विकारों को), च (और), गुणान्
(गुणों को), च
(और), एव
(ही), विद्धि
(जान), प्रकृति
(प्रकृति), सम्भवान्
(उत्पन्न होनेवाले) |
(१३/१९)
प्रकृति
और पुरुष दोनों को भी आदि रहित ही जान और विकारों को और गुणों को प्रकृति से
उत्पन्न होनेवाले ही जान | (१३/१९)
प्रकृति और पुरुष दोनों को अनादि अर्थात्
आदि रहित जान तात्पर्य यह कि जिस प्रकार मैं आदि रहित हूँ, उसी प्रकार मेरा प्रसार
भी, यह प्रकृति और यह पुरुष भी आदि रहित हैं | यहाँ प्रकृति से योगेश्वर श्रीकृष्ण
का तात्पर्य अष्टधामूल प्रकृति तो है ही परन्तु इस श्लोक के संदर्भ में प्रकृति
अर्थात् अष्टधामूल प्रकृति से बना यह क्षेत्र, यह पुर और पुरुष अर्थात् इस क्षेत्र
में रहने वाला पुरुष दोनों ही आदि रहित हैं, इनके होने में मुझ परमात्मा के अन्यत्र
कोई कारण नहीं है, तथा विकारो और गुणों को प्रकृति से उत्पन्न होनेवाला ही जान |
योगेश्वर श्रीकृष्ण का वही व्यक्तव्य जिसे अभी योगेश्वर ने अन्य शब्दों में कहा है
कि वह जो क्षेत्र है, जैसा है और जिन विकारों वाला है और जिस कारण से है और जिस
प्रभाव वाला है, अर्थात् क्षेत्र
विकारोंवाला है, बालावस्था, कौमार्य, यौवन, जरा, मृत्यु, रोग वाला है और रागद्वेष
की उत्पत्ति में हेतु होने का कारण प्रभाव वाला है, तात्पर्य यह की क्षेत्र द्वारा
प्रकृतिजन्य जो भाव, जो गुण उत्पन्न होते हैं, वह भाव अर्थात् रागद्वेष आदि
प्रकृतिजन्य हैं और दोनों को अर्थात् क्षेत्र के विकारों को और गुणों को उत्पन्न
करने में हेतु प्रकृति ही है |
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते |
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ||
(१३/२०)
कार्य
करण कर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिः उच्यते |
पुरुषः
सुख दुःखानाम् भोक्तृत्वे हेतुः उच्यते || (१३/२०)
कार्य
(कार्य), करण
(करण), कर्तृत्वे
(कर्तापन), हेतुः
(हेतु), प्रकृतिः
(प्रकृति), उच्यते
(कही जाती है) |
पुरुषः (पुरुष), सुख (सुख), दुःखानाम् (दुःखों को), भोक्तृत्वे
(भोगने में), हेतुः
(हेतु), उच्यते
(कहा जाता है) |
(१३/२०)
कार्य,
करण, कर्तापन में प्रकृति हेतु कही जाती है, पुरुष सुख दुःखों को भोगने में हेतु
कहा जाता है | (१३/२०)
मन, कर्म और वचन द्वारा की गयी चेष्टाओं
का नाम कार्य है जो वस्तुतः क्षेत्र द्वारा की जाती हैं तथा क्षेत्र में स्थित मन,
बुद्धि और अहंकार तथा दस इन्द्रियाँ, जिनमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच
कर्मेन्द्रियाँ हैं, करण कहलाती हैं जो क्षेत्र द्वारा मन, कर्म और वचन द्वारा की
गयी चेष्टाओं के होने में करण स्वरूप हैं | इनमें दस इन्द्रियाँ बाह्य करण हैं और
तीन करण मन, बुद्धि और अहंकार अन्तःकरण हैं | इन करणों द्वारा इस क्षेत्र से जो
कार्य किया जाता है, उसको उत्पन्न करने हेतु जो भाव है, जिसके लिये योगेश्वर
श्रीकृष्ण ने कहा है कि यह क्षेत्र प्रभाव वाला है, यह प्रकृतिजन्य भाव क्षेत्र
के ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ से उत्पन्न होता
है और इसी को ‘कर्ताभाव’ कहते हैं | तात्पर्य यह कि इस क्षेत्र का कर्ताभाव इस
क्षेत्र के कार्य और करण से उत्पन्न होता है, अन्य शब्दों में कार्य करण के
कर्ताभाव से यह क्षेत्र संचलित होता है, अतः स्पष्ट है कि कार्य, करण और कर्ताभाव
की त्रिपुटी इस क्षेत्र के कारण ही है और इस क्षेत्र में रहनेवाला पुरुष इस
त्रिपुटी से तादाम्य करके, स्वयं को इस क्षेत्र का कर्ता मानकर इस क्षेत्र से बंध
जाता है
और क्षेत्र के सुख दुःख भोगने में हेतु
कहा जाता है | इस तथ्य को योगेश्वर श्रीकृष्ण अन्य शब्दों में पूर्व में भी कह आये
हैं कि समस्त कर्म सदैव प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित
जीव मैं कर्ता हूँ, ऐसा मानता है, (३/२७) तात्पर्य यह कि पुरुष इस क्षेत्र के सबसे
सूक्ष्म करण ‘अहंकार’ से मोहित होकर, उससे तादाम्य करके, इस क्षेत्र से बँधा रहता
है और क्षेत्र से उत्पन्न गुणों को, उसके प्रभाव को, सुख दुःख को भोगने में हेतु
बनाता है | और इसी कारण
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते
प्रकृतिजान्गुणान् |
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ||
(१३/२१)
पुरुषः
प्रकृति स्थः हि भुङ्क्ते प्रकृति जान् गुणान् |
कारणम्
गुण सङ्गः अस्य सत् असत् योनि जन्मसु || (१३/२१)
पुरुषः
(पुरुष), प्रकृति
स्थः (प्रकृति में स्थित हुआ),
हि
(क्योंकी), भुङ्क्ते
(भोगता है), प्रकृति
(प्रकृति से), जान्
(उत्पन्न), गुणान्
(गुणों को) |
कारणम् (कारण है), गुण
(गुणों से), सङ्गः
(तादाम्य), अस्य
(इसका), सत्
(सत्य), असत्
(असत्य), योनि (योनि),
जन्मसु (जन्म होता है) |
(१३/२१)
क्योंकी
पुरुष प्रकृति में स्थित हुआ प्रकृति से उत्पन्न गुणों को भोगता है, गुणों से
तादाम्य के कारण इसका अच्छी बुरी योनियों में जन्म होता है | (१३/२१)
पुरुष प्रकृति में, क्षेत्र में स्थित
हुआ प्रकृति से उत्पन्न अर्थात् क्षेत्र से उत्पन्न गुणों को भोगता है, क्षेत्र के
अहंकार से, क्षेत्र के भावों से, गुणों से तादाम्य के कारण, इन गुणों को भोगने के
कारण पुरुष का अच्छी बुरी योनियों में जन्म होता है क्योंकी अपने को कर्ता मानकर
वह जिन कार्यों में प्रवृत होता है, उनके कर्मफल को भोगने को आवागमन को प्राप्त
होता है | सारांशतः यह स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में कर्ता और पुरुष दो भिन्न और
विलक्षण तत्त्व हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष अपने को कर्ता मान लेता है | यहाँ
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पुरुष के आवागमन के कारण को स्पष्ट किया, क्षेत्र के विकार
और प्रभाव को स्पष्ट किया, ज्ञान को कहा और क्षेत्रज्ञ के स्वरूप को कहा परन्तु
पुरुष जो अज्ञान के, अविद्या के कारण अहंकार से मोहित होकर अपने को कर्ता मान लेता
है, उस पुरुष का क्या स्वरूप है, उस पुरुष के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर
श्रीकृष्ण कहते हैं | कि
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः |
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः
|| (१३/२२)
उपदृष्टा
अनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः |
परमात्मा
इति च अपि उक्तः देहे अस्मिन् पुरुषः परः || (१३/२२)
उपदृष्टा
(साक्षीभाव), अनुमन्ता
(अनुमति देनेवाला), च
(और), भर्ता
(पालनहार), भोक्ता
(भोगनेवाला), महेश्वरः
(महान ईश्वर) |
परमात्मा (परमात्मा), इति (ऐसा), च
(और), अपि
(भी), उक्तः
(कहा गया है), देहे
(देह में), अस्मिन्
(इस), पुरुषः (पुरुष को),
परः (परे है) |
(१३/२२)
इस
देह में स्थित यह पुरुष ‘परः’ है और परमात्मा ऐसा भी कहा गया है , (इसीको)
उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर भी कहा गया है | (१३/२२)
योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ एक बहुत ही
महत्त्वपूर्ण और यथार्थ सत्य की घोषणा करते हैं, जिसे हर मनुष्य को जानकर आत्मसात
करना चाहिये कि ‘देहे
अस्मिन् पुरुषः परः’ इस देह में स्थित यह पुरुष ‘परः’ है, सर्वथा इस प्रकृति से परे का तत्त्व
है तथा ‘परमात्मा
इति च अपि उक्तः’ और इस पुरुष को
‘परमात्मा’ ऐसा भी कहा जाता है | तब यह पुरुष इस पुर के बंधन में, यह देही इस देह
के बंधन में किस प्रकार आ जाता है ? प्रकृति से सर्वथा परे, जिसका परमात्मा होना
संभव है, वह इस देही रूपमें, क्षेत्र रूपमें, गुरु रूपमें, देव रूपमें, ईश्वर
रूपमें कैसे पाया जाता है ? इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते
हैं | कि
तत्त्ववित् महापुरुषों को जो ब्रह्ममय
होकर तत्त्व ज्ञान को विदित करते हैं, देखते हैं, उन्हें दृष्टा कहते हैं और इन्ही
अर्थों में परमात्मा को भी दृष्टा कहा जाता है, यह पुरुष भी परमात्मा ही है, वैसा
ही दृष्टा है जैसा योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अभी कहा कि वह सब ओर नेत्रों, सिर, मुख
वाला होता है अर्थात् समस्त प्राणियों के नेत्र, मुख, और सिर उसके ही हैं, परन्तु इस
क्षेत्र में पुरुष और कर्ता दो भिन्न और विलक्षण तत्त्व हैं, अहंकार से मोहित हुआ
पुरुष क्षेत्र के ‘कार्यकरणकर्तृत्वे’ अर्थात् कार्यकरण से उत्पन्न कर्ता भाव से भावित
होकर, क्षेत्र से तादाम्य करके, अपने को ही क्षेत्र मान लेता है, क्षेत्र के
नेत्र, मुख, सिर को; अपने नेत्र, मुख, सिर मान लेता है, और क्षेत्र के ही भावों को,
सुख दुःख को, अपने ही सुख दुःख मानकर उन्हें भोगता है, वह अपने सामर्थ्य को
क्षेत्र तक ही सीमित कर लेता है, इस कारण वह पुरुष दृष्टा ना होकर, उपदृष्टा हो
जाता है, केवल मात्र क्षेत्र का दृष्टा हो जाता है |
शुभ अशुभ समस्त कर्म क्षेत्र के कर्ताभाव
द्वारा होते हैं परन्तु क्षेत्र में स्थित यह पुरुष उन शुभ अशुभ कर्मों के होने
में अज्ञान, अविद्या के कारण हस्तक्षेप नहीं करता अपितु कर्ताभाव से भावित हुआ क्षेत्र
के उन कर्मों के होने अनुकूल सा प्रवृत हुआ भासता है, उन कर्मों के होने में,
भोगों को भोगने में इस पुरुष की भी अनुमति है, ऐसा प्रतीत होता है, इसलिये यह
पुरुष अनुमन्ता कहलाता है | क्षेत्र के ही इन्द्रियों, मन, बुद्धि और अहंकार से
उत्पन्न भोगों से अज्ञानवश लिप्त रहता है, इसलिये भर्ता कहलाता है | क्षेत्र के
भावों को, भोगों को भोगता है, उनका निवारण नहीं करता, इस कारण भोक्ता कहलाता है | तात्पर्य यह कि जब तक पुरुष प्रकृतिजन्य भावों
से, गुणों से भावित रहता है, तब तक पुरुष का यही रूप है, परन्तु जब योगेश्वर
श्रीकृष्ण के उपदेशों के अनुसरण स्वरूप आत्मविद्या में नित्य स्थिति स्वरूप
अविद्या, अज्ञान से पार पाता है, तत्त्व ज्ञान के अर्थ रूप यज्ञार्थ कर्मों का
आचरण करता है, तब यह पुरुष क्षेत्र के बंधन को, कार्यकरण से उत्पन्न कर्ताभाव से
पार पाता है, और अपने स्वरूप का पहचान पाता है |
जब पुरुष आत्मविद्या और तत्त्वज्ञान से
युक्त होकर योग का आचरण करता है, क्षेत्र के कार्यकरण से उत्पन्न कर्ताभाव से
मुक्त होता है, उसी क्षण वह प्रकृति से भी मुक्त हो जाता है और इस प्रकृति और
प्रकृतिजन्य भावों का, गुणों का, दास ना होकर उनका स्वामी हो जाता है, उनका ईश्वर
हो जाता है, और महेश्वर कहलाता है, परन्तु प्रकृति अभी है, उसका प्रकृति से अभी
संबंध है, तभी तो प्रकृति का स्वामी, ईश्वर है, इससे भी उन्नत अवस्था को प्राप्त
करके वही पुरुष इस प्रकृति, प्रकृतिजन्य भावों और गुणों से भी परे जाता है और
परमात्मा कहलाता है |
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह |
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ||
(१३/२३)
यः
एवम् वेत्ति पुरुषम् प्रकृतिम् च गुणैः सह |
सर्वथा
वर्तमानः अपि न सः भूयः अभिजायते || (१३/२३)
यः
(जो), एवम्
(इस प्रकार), वेत्ति
(विदित कर लेता है), पुरुषम्
(पुरुष को), प्रकृतिम्
(प्रकृति को), च
(और), गुणैः
(गुणों के), सह
(सहित) |
सर्वथा (सब प्रकार से), वर्तमानः
(बरतता हुआ), अपि
(भी), न
(नहीं), सः
(वह), भूयः
(फिर से), अभिजायते
(जन्म लेता है) |
(१३/२३)
जो
इस प्रकार पुरुष को और गुणों सहित प्रकृति को विदित कर लेता है, वह सब प्रकार से
बरतता हुआ भी फिर से जन्म नहीं लेता है | (१३/२३)
इस प्रकार पुरुष को अर्थात् क्षेत्र और
पुरुष के भेद को और गुणों सहित प्रकृति के भेद को अर्थात् कार्यकरण से उत्पन्न
कर्ताभाव को विदित कर लेता है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने प्रथम श्लोक में
कहा है कि जो इस क्षेत्र को विदित कर लेता है, वह क्षेत्रज्ञ है, और मैं भी समस्त
क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ हूँ, इस प्रकार जो क्षेत्रय हो जाता है, वह सब प्रकार से
बरतता हुआ भी फिर से जन्म नहीं लेता क्योंकी वह जीते जी ही परमभाव को, परमब्रह्म
को प्राप्त हो जाता है और इस स्थित की प्राप्तिके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते
हैं |
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना |
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ||
(१३/२४)
ध्यानेन
आत्मनि पश्यन्ति केचित् आत्मानम् आत्मना |
अन्ये
साङ्ख्येन योगेन कर्म योगेन च अपरे || (१३/२४)
ध्यानेन
(ध्यान द्वारा), आत्मनि
(स्वयं को), पश्यन्ति
(देखते हैं), केचित्
(कुछ), आत्मानम्
(स्वयं ही), आत्मना
(स्वयं में) |
अन्ये (अन्य), साङ्ख्येन
योगेन (सांख्यदर्शन द्वारा),
कर्म योगेन (योग द्वारा), च (और), अपरे
(अन्य) |
(१३/२४)
कुछ
ध्यान द्वारा स्वयं को स्वयं ही स्वयं में देखते हैं, अन्य सांख्यदर्शन द्वारा और
अन्य कर्मयोग द्वारा | (१३/२४)
कुछ लोग ध्यान द्वारा, कुछ सांख्यदर्शन
द्वारा और अन्य कर्मयोग द्वारा स्वयं को स्वयं ही स्वयं में देखते हैं, योगेश्वर
श्रीकृष्ण के इस व्यक्तव्य में यहाँ जानने योग्य पद्धति नहीं अपितु जो जानने योग्य
तथ्य है वह यह कि आपकी निष्ठा कोई भी हो, आपको स्वयं ही, स्वयं को, स्वयं में
देखना है अर्थात् अध्यात्मविद्या, तत्त्वज्ञान और योगशास्त्र तो आपके उद्धार हेतु
योंगेश्वर श्रीकृष्ण ने कह दिया परन्तु आपको अपना उद्धार स्वयं ही करना होगा,
अध्यात्मविद्या को आत्मसात करना होगा, तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप सर्वत्र परमात्मा
तत्त्व के दर्शन करने होंगे, यज्ञार्थ कर्मों का आचरण आपको स्वयं ही करना होगा | और
यह सब इतना कठिन भी नहीं है | क्योंकी
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते |
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ||
(१३/२५)
अन्ये
तु एवम् अजानन्तः श्रुत्वा अन्येभ्यः उपासते |
ते
अपि च अतितरन्ति एव मृत्युम् श्रुति परायणाः || (१३/२५)
अन्ये
(अन्य), तु
(परन्तु), एवम्
(इस प्रकार), अजानन्तः
(न जानते हुए), श्रुत्वा
(सुनकर), अन्येभ्यः
(अन्यों से), उपासते(उपासना करते हैं)
| ते (वे), अपि
(भी), च
(और), अतितरन्ति
(पार कर जाते हैं), एव
(ही), मृत्युम्
(मृत्यु को), श्रुति (श्रवण),
परायणाः (परायण हुए) |
(१३/२५)
परन्तु
इस प्रकार न जानते हुए अन्य दुसरों से सुनकर उपासना करते हैं और श्रवण परायण हुए
वे भी मृत्युरूप संसार सागर को पार कर जाते हैं | (१३/२५)
अन्य जो इस प्रकार नहीं जानते अर्थात्
जिन्होंने अध्यात्मविद्या को आत्मसात नहीं किया, जिन्हें तत्त्वज्ञान की
अनुभूतियाँ नहीं होती हैं, वे भी दूसरों से अर्थात् जिन्होंने अध्यात्मविद्या को
आत्मसात किया है, तत्त्वज्ञान के तत्त्व को समझा है उनसे सुनकर जो उपासना करते
हैं, श्रवण परायण हुए अर्थात् जो केवल सुनकर ही योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशों का
अनुसरण करते हैं, वे भी मृत्युरूपी संसार सागर को पार कर जाते हैं | सारांश यह कि
आपका अध्यात्मविद्या का, तत्त्वज्ञान का, सांख्यदर्शन का ज्ञानी होना जरुरी नहीं
है, आप केवल योगेश्वर श्रीकृष्ण के कहे अनुसार उनके उपदेशों का पालन करें, आपका
उद्धार निश्चित है |
यावत्सन्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्
|
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ
|| (१३/२६)
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् |
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ||
(१३/२७)
यावत्
सञ्जायते किञ्चित् सत्त्वम् स्थावर जङ्गमम् |
क्षेत्र
क्षेत्रज्ञ संयोगात् तत् विद्धि भरतर्षभ || (१३/२६)
समम्
सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तम् परमेश्वरम् |
विनश्यस्तु
अविनश्यन्तम् यः पश्यति सः पश्यति || (१३/२७)
यावत्
(यावन्मात्र), सञ्जायते
(उत्पन्न होते हैं), किञ्चित्
(जितने भी), सत्त्वम्
(जीव), स्थावर
जङ्गमम् (चर अचर) |
क्षेत्र (क्षेत्र),
क्षेत्रज्ञ (क्षेत्रज्ञ), संयोगात् (संयोग से), तत्
(उनको), विद्धि
(जान), भरत ऋषभ (भरतवंशी श्रेष्ठ)
|
(१३/२६)
समम्
(समरूप से), सर्वेषु
(समस्त), भूतेषु
(प्राणियों में), तिष्ठन्तम्
(स्थित है), परमेश्वरम्
(परम ईश्वर) |
विनश्यस्तु (विनाश होते हुए), अविनश्यन्तम् (नाशरहित), यः
(जो), पश्यति
(देखता है), सः
(वह), पश्यति
(देखता है) |
(१३/२७)
भरतश्रेष्ठ
! यावन्मात्र जितने भी चर अचर जीव उत्पन्न होते हैं, उनको क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के
संयोग से ही (उत्पन्न) जान | (१६/२६)
परमेश्वर
समरूप से समस्त प्राणियों में स्थित हैं, जो नाश होते हुए (उस) नाशरहित को देखता
है, वह (यथार्थ) देखता है |(१३/२७)
यावन्मात्र जितने भी चर अचर जीव उत्पन्न
होते हैं अर्थात् ज्ञात अज्ञात, दृश्य अदृश्य इस समस्त सृष्टि में जो भी चर अचर
जीवों की उत्पत्ति होती है उन सबको क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न
जान, क्योंकी जो अपने स्वरूप को, क्षेत्रज्ञ भाव को प्राप्त हो गया है, वह तो
दोबारा जन्मता नहीं अतः जो भी उत्पन्न होता है वह क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के संयोग को
ही प्राप्त होता है, बंधन को प्राप्त होता है |
जो पुरुष नष्ट होते हुए समस्त प्राणियों
में अर्थात् जो अभी परमभाव को, क्षेत्रज्ञ भाव को प्राप्त नहीं हुए हैं अपितु
उत्पत्ति, प्रलय को, आवागमन को ही प्राप्त हैं उनको भी पूर्व श्लोक में हेक अनुसार
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न देखता है, उनमे भी समरूप से स्थित
परमेश्वर को ही देखता है, वही यथार्थ देखता है अर्थात् वह ऐसा देखता है कि वे भी
क्षेत्रज्ञ ही हैं परन्तु कार्यकरण से उत्पन्न कर्ताभाव से भावित हुए क्षेत्र रूप
से स्थित हैं, वही यथार्थ देखता है | तो क्या अन्य यथार्थ नहीं देखते ? सत्य है कि
अन्य यथार्थ नहीं देखते,ममतामय होकर देखते हैं, अहंकारवश, अभिमानवश, कर्ताभाव से,
उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता भाव से देखते हैं, यथार्थ नहीं देखते | तब यह पुरुष जो क्षेत्रज्ञ भाव को प्राप्त हो
गया है, यह किस भाव से देखता है, इसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते
हैं |
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् |
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्
|| (१३/२८)
समम्
पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितम् ईश्वरम् |
न
हिनस्ति आत्मना आत्मानम् ततः याति पराम् गतिम् || (१३/२८)
समम्
(समरूपत से), पश्यन्
(देखता हुआ), हि
(क्योंकी), सर्वत्र
(सर्वत्र), समवस्थितम्
(समरूप से स्थित है), ईश्वरम्(ईश्वर को) |
न (न), हिनस्ति
(हीनता करता है), आत्मना
(स्वयं की), आत्मानम्
(स्वयं के द्वारा), ततः
(इस कारण), याति
(प्राप्त करता है), पराम्
(पराम), गतिम्
(गति) |
(१३/२८)
क्योंकी
सर्वत्र समरूप से स्थित ईश्वर को समरूप से देखता हुआ (पुरुष) स्वयं के द्वारा
स्वयं के प्रति हीनता नहीं
करता,
इस कारण परमगति को प्राप्त करता है | (१३/२८)
वह सर्वत्र अर्थात् केवल प्रकृति में ही
नहीं, समस्त प्राणियों में भी ईश्वर को समरूप से स्थित देखता है, किसी भी प्राणी
के प्रति ईश्वर को प्रिय अथवा अप्रिय भाव से रहित, सभी में समरूप से स्थित देखता
है और वह पुरुष स्वयं भी समस्त प्राणियों को ना देखते हुए उनके हृदयदेश में समरूप
से स्थित ईश्वर को ही देखता है और स्वयं के द्वारा स्वयं के प्रति हीनता नहीं
करता, क्योंकी वह अब इस भाव से भावित हो गया है कि वह ना अच्छा मनुष्य है और ना ही
बुरा, ना योगी है, ना ध्यानी, ना ज्ञानी | ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की त्रिपटी का
नाश हो चुका है और अब वह वही है, जो सब में स्थित है, तत्त्वज्ञान के अर्थरूप इस
समरूप दर्शन के कारण वह क्षेत्र से लिप्त नहीं होता, इसलिये वह परमगति को प्राप्त
होता है |
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः |
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ||
(१३/२९)
प्रकृत्या
एव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः |
यः
पश्यति तथा आत्मानम् अकर्तारम् सः पश्यति || (१३/२९)
प्रकृत्या
(प्रकृति, स्वभाव
द्वारा), एव (ही), च
(और), कर्माणि
(समस्त कर्म), क्रियमाणानि
(किये जाते हैं), सर्वशः
(सदैव) |
यः (जो),
पश्यति (देखता है), तथा
(तथा), आत्मानम्
(स्वयं को), अकर्तारम्
(अकर्ता), सः
(वह), पश्यति
(देखता है) |
(१३/२९)
और
समस्त कर्म सदैव ‘प्रकृत्या’ प्रकृति द्वारा (स्वभाव द्वारा) ही किये किये जाते
हैं, जो ऐसा देखता है तथा स्वयं को अकर्ता देखता है, वह (यथार्थ) देखता है |
(१३/२९)
साधकों को इस अध्यात्मविद्या को हर संभव
तरीके समझाते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं कि समस्त कर्म प्रकृत्या
द्वारा अर्थात् क्षेत्र के कार्यकरण से उत्पन्न कर्ताभाव के द्वारा किये जाते हैं,
जो ऐसा देखता है तथा स्वयं को अकर्ता देखता है, वह यथार्थ देखता है |
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति |
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ||
(१३/३०)
यदा
भूत पृथक् भावम् एक स्थम् अनुपश्यति |
ततः
एव च विस्तारम् ब्रह्म सम्पद्यते तदा || (१३/३०)
यदा
(जिस काल), भूत
(प्राणी), पृथक्
(भिन्न), भावम्
(भावों को), एक
स्थम् (एक में स्थित), अनुपश्यति
(देखता है) |
ततः (इस कारण),
एव(ही), च(और), विस्तारम्(विस्तार को), ब्रह्म
(ब्रह्म), सम्पद्यते
(भाव होता है), तदा
(उस काल) |
(१३/३०)
जिस
काल में प्राणियों के भिन्न भिन्न भावों को एक (भाव) में स्थित देखता है और इस
कारण एक का ही विस्तार देखता है, उस काल ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है | (१३/३०)
जिस काल में प्राणियों के भिन्न भिन्न
भावों को अर्थात् केवल सुख दुःख, इच्छाद्वेष, कामक्रोध आदि भावों को ही नहीं अपितु
मनुष्यों के ब्राह्मण होने में, क्षत्रिय होने में, वैश्य अथवा शुद्र होने में भी,
इस प्रकार प्राणियों के भिन्न भिन्न भावों को एक भाव में स्थित देखता है, केवल
एकमात्र कार्यकरण से उत्पन्न कर्ताभाव में स्थित देखता है और इस कारण एक का ही
विस्तार, इस एक कर्ताभाव का ही विस्तार समस्त क्षेत्रों में देखता है, उस काल वह
ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है | यही गीता शास्त्र का, योगेश्वर श्रीकृष्ण का
उपदेश है कि आप अध्यात्मविद्या और तत्त्वज्ञान से युक्त होकर योग के आचरण स्वरूप
प्रकृतिजन्य इन भावों से, अपने स्व-भाव से मुक्त हों और परमभाव को, ब्रह्मभाव को
प्राप्त हो जाएँ |
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || (१३/३१)
अनादित्वात्
निर्गुणत्वात् परमात्मा अयम् अव्ययः |
शरीर
स्थः अपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || (१३/३१)
अनादित्वात्
(अनादि होने के कारण), निर्गुणत्वात्
(निर्गुण होने के
कारण), परमात्मा
(परमात्मा), अयम्
(यह), अव्ययः
(अविनाशी) |
शरीर स्थः (शरीर में स्थित), अपि (भी), कौन्तेय
(कौन्तेय), न
(न), करोति
(करता है), न
(न), लिप्यते
(लिप्त होता है) |
(१३/३१)
कौन्तेय
! अनादि होने के कारण, निर्गुण होने के कारण यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित
होने पर भी न (कुछ) करता है, न लिप्त होता है | (१३/३१)
जिस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने प्रथम
श्लोक में कहा था कि ‘इदम् शरीरम्’ यह शरीर, उसी प्रकार यहाँ कहते हैं कि ‘अयम्
अव्ययः परमात्मा’ यह अविनाशी परमात्मा
तात्पर्य यह कि योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ ‘वह परमात्मा नहीं कह रहे जो सर्वत्र व्याप्त
है’ अपितु ध्यान दें ‘यह परमात्मा’ कह रहे हैं अन्यथा भी परमात्मा कभी भी शरीर को
प्राप्त नहीं होता, शरीर में स्थित नहीं होता, जिसे शरीर मिला था, वह परमात्मा
नहीं था, परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार जो अध्यात्मविद्या और
तत्त्वज्ञान से युक्त होकर योग के आचरण स्वरूप पूर्व श्लोक में कहे ब्रह्मभाव को,
स्वस्वरूप को प्राप्त हुआ है, जिसके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने (१३/२२) में कहा
है कि इस देह में स्थित यह पुरुष प्रकृति से सर्वथा परे है, इसको परमात्मा ऐसा भी
कहा जाता है, उस पुरुष को ‘यह अविनाशी परमात्मा’ कहते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते
हैं कि यह अविनाशी परमात्मा अनादि होने के कारण, जो तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप कहा
गया है कि यह पुरुष अंडी है, तथा निर्गुण होने के कारण, यह स्थिति उस पुरुष ने
अध्यात्मविद्या, तत्त्वज्ञान से युक्त
होकर योग के आचरण स्वरूप पायी है इस निर्गुण भाव के कारण अब वह प्रकृतिजन्य भावों
से, कार्यकरण से उत्पन्न कर्ताभाव से लिप्त नहीं होता और अंततः ब्रह्मभाव की
प्राप्ति के उपरान्त शरीर में स्थित होने पर भी न कुछ करता है और ही इस क्षेत्र से
लिप्त होता है | जो पुरुष ब्रह्म भाव को, स्वस्वरूप को प्राप्त हो गया है, वह इस
क्षेत्र में किस प्रकार रहता है, उसको स्पष्ट करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते
हैं | कि
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते |
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ||
(१३/३२)
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः |
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति
भारत || (१३/३३)
यथा
सर्व गतम् सौक्ष्म्यात् आकाशम् न लिप्यते |
सर्वत्र
अवस्थितः देहे तथा आत्मा न उपलिप्यते || (१३/३२)
यथा
प्रकाशयति एकः कृत्स्नम् लोकम् इमम् रविः |
क्षेत्रम्
क्षेत्री तथा कृत्स्नम् प्रकाशयति भारत || (१३/३३)
यथा
(जैसे), सर्व
गतम् (सर्वव्यापी), सौक्ष्म्यात्
(सूक्ष्म होने के
कारण), आकाशम्
(आकाश), न
(न), लिप्यते
(लिप्त होता है) |
सर्वत्र (सर्वत्र), अवस्थितः
(स्थित), देहे
(देह में), तथा
(वैसेही), आत्मा
(स्वयं), न
(न), उपलिप्यते(लिप्त होता है) |
(१३/३२)
यथा
(जैसे), प्रकाशयति
(प्रकाशित करता है), एकः
(एक), कृत्स्नम्
(सम्पूर्ण), लोकम्
(लोक को), इमम्
(यह), रविः
(सूर्य) |
क्षेत्रम् (क्षेत्र को), क्षेत्री (क्षेत्री), तथा
(वैसे ही), कृत्स्नम्
(सम्पूर्ण), प्रकाशयति
(प्रकाशित करता है), भारत(भारत) |
(१३/३३)
जैसे
सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही समस्त देहों
में स्थित होने पर भी स्वयं लिप्त नहीं होता | (१३/३२)
भारत
! जैसे एक सूर्य इस समस्त लोक को प्रकाशित करता है, वैसे ही क्षेत्री समस्त
क्षेत्रों को प्रकाशित करता है | (१३/३३)
दोनों उदाहरण स्वयं सिद्ध हैं |
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा |
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्
|| (१३/३४)
क्षेत्र
क्षेत्र ज्ञयोः एवम् अन्तरम् ज्ञान चक्षुषा |
भूत
प्रकृति मोक्षम् च ये विदुः यान्ति ते परम् || (१३/३४)
क्षेत्र(क्षेत्र), क्षेत्र
ज्ञयोः(क्षेत्र के ज्ञाता), एवम्(इसप्रकार), अन्तरम्(भेद को), ज्ञान
चक्षुषा (ज्ञानचक्षु द्वारा) |
भूत(प्राणी), प्रकृति (प्रकृति), मोक्षम्(मोक्षको), च(और), ये(जो), विदुः(विदित करताहै), यान्ति(प्राप्त करतेहैं), ते(वे), परम्(परम ) |
(१३/३४)
इस
प्रकार जो क्षेत्र को, क्षेत्र के ज्ञाता के भेद को, पुरुष को, प्रकृति को, मोक्ष
को ज्ञान चक्षुओं द्वारा विदित कर लेते हैं, वे परम् को प्राप्त होते हैं |
(१३/३४)
इस प्रकार जो पुरुष क्षेत्र को और
क्षेत्र के ज्ञाता के भेद को अर्थात् पूर्व में कार्यकरण से उत्पन्न कर्ताभाव से स्वयं
की लिप्तता को और ब्रह्मभाव की प्राप्ति के उपरान्त क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के भेद को
और इसी कारण प्रकृति को जो विकारों और प्रभाव वाली है तथा इस प्रकृति से मुक्त
होकर मोक्ष को ज्ञानचक्षुओं द्वारा अर्थात् अध्यात्मविद्या और तत्त्वज्ञान से
युक्त होकर योग द्वारा विदित कर लेता है, वह परं को, परमभाव को, परमगति को, परमधाम
को होता है |
इस प्रकार तेहरवें अध्याय का समापन होता
है |
***** ॐ तत् सत् *****