Shri Krishna

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Friday 28 November 2014

अध्याय १

** ॐ नमःशिवाय * ॐ कृष्णाय नमः **
प्रथमोऽध्यायः
भारतीय दर्शन शास्त्रों में जहाँ भी आत्म-विषयक, निवृति विषयक ज्ञान का उपदेश हुआ है | वह अधिकांशतः गुरू शिष्य संवाद के रूप में है | रामचरित्रमानस शिव पार्वती, गरुड़ काकभुशंडी संवाद है, तो अष्टवक्रगीता अष्टवक्र जनक संवाद है, कठोपनिषद् नचिकेता यमराज संवाद और शिवगिता शिव राम संवाद रूप में है | इसी गुरु-शिष्य परंपरा में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र विषयक श्रीमद्भागवद्गीता उपनिषद रूपी श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद है |

इन संवादों का स्वरूप भी एक सा ही रहा है | जब भी किसी जीव को देह के भोगों, संबंधों, सांसारिक भोगों और भोग संग्रह में कोई सार नहीं दीखता, राज्य, राज्य भोग यहाँ तक की स्वर्गादिक सुखों की लालसा भी नहीं रहती, शरीर के भोग, देह के संबंध सभी मन का भ्रम मात्र प्रतीत होने लगते हैं | जैसा अर्जुन को हुआ था, युद्ध के स्वरूप को देख अर्जुन ने कहा था कि भ्रमतीव च मे मन: (१/३०) मेरा मन भ्रमित हो रहा है | ऐसी मनोदशा में जिस धर्म को लेकर, धर्मशास्त्रों को लेकर, मान्यताओं-परम्पराओं को लेकर मनुष्य संसार में प्रवृत होता है, उन्ही के प्रति उसे अपना अंतःकरण मोहित हुआ सा प्रतीत होता है | संसार के प्रति भ्रमित मन और धर्म के प्रति मोहित अंतःकरण से बुद्धि मूढ़ता से लिप्त हो जाती है, कायरता रूपी स्वभाव का जन्म होता है | कायरता रूपी स्वभाव अर्थात् जिस आधार पर मनुष्य धर्म, अर्थ और काम को लेकर निश्चय पूर्वक संसार में प्रवृत होता रहा है | वह आधार, वह निश्चय ही डगमगा जाता है, जीवन निरर्थक मालूम पड़ता है | तब मनुष्य परमात्मा विषयक संवाद, निवृति विषयक शास्त्र और तत्त्ववित्त महापुरुषों की शरण में जाता है | सम्पूर्ण भाव से परमात्मा के शरणागत होने पर, पुण्यकर्मो के फलस्वरूप अर्जुन सा भाग्य पाकर श्रीकृष्ण रूपी सद्गुरु भी मिल जाते हैं | श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद रूपी गीता शास्त्र भी मनुष्य की ऐसी ही परिस्थितियों, पुन्यकर्मो और शरणागति का श्रीफल है |

गीताशास्त्र का प्रथम अध्याय, गुरू-शिष्य संवाद की परम्परा में, भूमिका रूप में है | युद्ध के लिये उपस्थित दोनों सेनाओं का चित्रण है | शंखनाद द्वारा युद्ध का उद्घोष होता है | तभी दुर्योधन के पक्ष में युद्ध को एकत्रित हुए योद्धाओं को देखने की इच्छा से अर्जुन दोनों सेनाओं के मध्य में जा खड़ा होता है | वहां अर्जुन युद्ध का जो स्वरूप देखता है, वही उसके विषाद का कारण बन जाता है | यह प्रथम अध्याय इसी का चित्रण करता है | आइए संवाद में प्रवेश करते हैं |

धृतराष्ट्र उवाच :-    

श्लोकः -                                               धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता: युयुत्सव: |
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय || (१/१)

पदच्छेदः-                                         धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेताः युद्धः उत्सवः |
मामकाः पाण्डवाः च एव किम् अकुर्वत सञ्जय || (१/१)

शब्दार्थः-            धर्मक्षेत्रे(धर्मभूमि), कुरुक्षेत्रे(कुरुक्षेत्र), समवेता:(एकत्रित), युद्ध(युद्ध), उत्सवः(उत्सव की इच्छा से) |                                                                                                                                                                 
                       मामकाः(मेरे), पाण्डवा:(पाण्डुपुत्रो), (और), एव(भी), किम्(क्या), अकुर्वत(किया), सञ्जय(संजय) | (१/१)

वाक्यार्थः-         धृतराष्ट्र ने कहा – संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध उत्सव की इच्छा से एकत्रित मेरे पुत्रों और पाण्डु के                    
                                            पुत्रों ने क्या किया ? (१/१)

भावार्थ :-           ऐसा कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र नामक भूखंड कभी धर्म की जननी के रूप में देखा जाता था | देवताओं
                          द्वारा यहाँ यज्ञ किये जाते थे | ऋषि-मुनि यहाँ श्रुति अनुसार धर्म की व्याख्या और वेदों का अध्ययन करते थे | इस क्षेत्र से बहती सरिता, क्षेत्र के प्रभाव से, सरस्वती नाम से प्रसिद्ध थी | ऋषिगण तीन वेदों (ऋक, साम और यजुर्वेद) का अध्ययन करा करते थे | परन्तु अथर्ववेद मारण, उच्चाटन आदि मन्त्रों के कारण सदैव ही विवाद का विषय रहा | अथर्ववेद वेद के ऋषियों तथा शेष तीनो वेदों को मानने वाले ऋषियों में तीन वेदों अथवा चार वेदों की मान्यता को लेकर घोर विवाद हुआ करता था| जब अथर्ववेद को अन्य तीन वेदों के समान मान्यता और श्रेष्ठता का दर्जा नहीं दिया गया, तब अथर्ववेद वेद के ज्ञाता ऋषियों ने इस विवाद स्थल धर्मभूमि को ही शापित कर दिया | धर्मभूमि शापित हुई, सरस्वती की सरिता सूख गई | ऋषियों-मुनियों ने यह भूमि छोड़ दी | ऐसी भूमि सदैव राक्षस वृति को आकर्षित करती है | यहाँ राक्षस वृति के लोग रहने लगे, बाद में इस शापित भूमि को परशुराम ने भी कई बार क्षत्रियों के लहू से भर दिया था | कालान्तर में महामुनि वेदव्यास ने अपने पूर्वज़ों की इस धर्मभूमि के उत्थान का संकल्प किया | उनके आग्रह पर कुरुवंश के राजा शांतानु ने इस भूमि को राक्षसों से मुक्त करा कर, महामुनिः वेदव्यासजी को समर्पित कर, ऋषियों के लिए आश्रम आदि की व्यवस्था करवाई | इस प्रकार इस धर्मभूमि को कुरुक्षेत्र कहा जाने लगा | महामुनिः वेदव्यासजी ने यहीं चारों वेदों को मान्यता देते हुए उन्हें लिपिबद्ध भी किया | परन्तु यह प्राचीन शापित भूमि ही रही | इसी कारण ना भूतो ना भविष्यति जैसा महाभारत का प्रलयकारी युद्ध का उत्सव भी इसी शापित भूमि पर हुआ | परन्तु क्या परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा इसी  भूमि पर अर्जुन को यह गीता शास्त्र रूपी उपदेश कहे जाने से अब यह भूमि पुनः धर्मभूमि नहीं हो गई ?

इसी भूमि के इतिहास को इंगित करते हुए धृतराष्ट्र ने इसे धर्मभूमि, कुरुक्षेत्र कहा | इधर  पाण्डु की मृत्यु के पश्चात पाण्डु  का राज्य और पाण्डु के पुत्र, दोनों ही धरोहर के रूप में धृतराष्ट्र को मिले | पाण्डवों ने सदैव धृतराष्ट्र की उचित-अनुचित आज्ञायों का पालन पुत्रवत किया | परन्तु धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों और पाण्डु  पुत्रों के प्रति समभाव नहीं था | वे हमेशा अपने और पाण्डु पुत्रों मे पक्षपात करते थे | यहाँ भी ऐसा ही हुआ, युद्ध में क्या हुआ ? ऐसा जानने की इच्छा से, इस रूप में प्रश्न किया कि मेरे नहीं अपितु मेरे पुत्रों ने और पाण्डु के पुत्रों ने इस युद्ध उत्सव में क्या किया ? धृतराष्ट्र के प्रश्न स्वरूप संजय ने महामुनिः वेदव्यास की कृपा प्रसाद से प्राप्त दिव्यदृष्टि और दिव्य श्रवण से जो देखा और सुना उसे राजा धृतराष्ट्र से कहा |

संजय उवाच :-    
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा |
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत || (१/२)

दृष्ट्वा तु पाण्डव-अनीकम् व्यूढम् दुर्योधनः तदा |
आचार्यम् उप-सङ्गम्य राजा वचनम् अब्रवीत् || (१/२)

दृष्ट्वा(देखकर), तु(और), पाण्डव-अनीकम्(पाण्डव सेना को), व्यूढं(व्यूह रचना युक्त),  दुर्योधन:(दुर्योधन ने), तदा(उस समय) | आचार्यम्(द्रोणाचार्य के), उप-सङ्गम्य(पास जाकर), राजा(राजा), वचनम्(वचन) अब्रवीत्(कहे) | (१/२)

संजय ने राजा धृतराष्ट्र से कहा- दुर्योधन ने व्यूह रचना युक्त पाण्डवों की सेना को देखा और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहे | (१/२)

दुर्योधन का अपने प्रधान सेनापति पितामह भीष्म के पास ना जाकर, आचार्य द्रोण के पास जाकर संवाद करने का मुख्य कारण था कि पितामह भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा के कारण हस्तिनापुर से बंधे हैं परन्तु कौरवों के प्रति द्रोणाचार्य का संबंध केवल अर्थ रूपी, स्वार्थ सिद्ध है | ऐसे संबंध समय के साथ बदल सकते हैं | वैसे भी द्रोणाचार्य पाण्डवों और विशेष रूप से अर्जुन के प्रति प्रेम भाव रखते हैं | मोह सदा आशंकित रहता है, मोह रूपी दुर्योधन पाण्डवों के वध हेतु, द्रोणाचार्य का पाण्डवों के प्रति प्रेम को पहले ही मारना चाहता है, इसलिये द्रोणाचार्य को इंगित करना चाहता है कि आपका सर्वप्रिय शिष्य अब आपका नहीं है | आपके विरुद्ध शस्त्र धारण कर आपके विख्यात वैरी का साथ अब उसे प्राप्त है | इसीको स्पष्ट करने को कहता है कि –
पश्येतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् |
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता || (१/३)

पश्य एताम् पाण्डु पुत्राणाम् आचार्य महतीम् चमूम् |
व्यूढाम् द्रुपद पुत्रेण तव शिष्येण धीः मता || (१/३)
पश्य(देखिये), एताम्(इस), पाण्डु-पुत्राणाम्(पान्डु पुत्रों की), आचार्य(आचार्य), महतीम्(बड़ी भरी), चमूम्(सेना को) | व्यूढाम् (व्यूहरचना से खड़ी की हुई), द्रुपद पुत्रेण(द्रुपदपुत्र के द्वारा), तव(आपके), शिष्येण(शिष्य), धीमता(बुद्धिमान) | (१/३)

आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र (धृष्टधुम्न) के द्वारा व्यूहरचना के साथ खड़ी हुई पाण्डवों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये | (१/३)

यहाँ दुर्योधन द्रोणाचार्य को उनके जग-प्रसिद्ध वैरी राजा द्रुपद की तथा उनका नाश करने हेतु द्रुपद द्वारा यज्ञ से उत्पन्न द्रुपदपुत्र धृष्टधुम्न की ओर संकेत कर कहता है, कि आपका नाश करने की शपथ लेकर यज्ञ के अनुष्ठान से उत्पन्न द्रुपदपुत्र ही अब विपक्ष का प्रधान सेनापति है | आप से ही प्राप्त शस्त्र और युद्ध कला में निपुण धृष्टधुम्न ने ही पाण्डवों की सेना की
व्यूहरचना की है, और आपके नाश हेतु ही वह यहाँ उपस्थित है | इसलिये आप पाण्डवों के प्रेम को भूल विपक्ष को केवल
अपना शत्रु माने और जरा अधिक ही सतर्क रहें | पुनः कहता है कि

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युद्धि |
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः || (१/४)
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् |
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः || (१/५)
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् |
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः || (१/६)

अत्र शूराः महा इषु आसाः भीम अर्जुन समाः युधि |
युयुधानः विराटः च द्रुपदः च महारथः || (१/४)
धृष्टकेतुः चेकितानः काशिराजः च वीर्यवान् |
पुरुजित् कुन्तिभोजः च शैब्यः च नरपुङ्गवः || (१/५)
युधामन्युः च विक्रान्तः उत्तमौजाः च वीर्यवान् |
सौभद्रः द्रौपदेयाः च सर्वे महारथः || (१/६) 

अत्र(यहाँ, इस सेना में), शूराः(शूर-वीर), महा-इषु-आसाः(बड़े-बड़े धनुषों वाले), भीम-अर्जुन समः(समान) युद्धि(योद्धा) | युयुधानः (सात्यकि), विराटः(राजा विराट),(और), महारथः(महारथी) | (१/४)
धृष्टकेतुः, चेकितानः, काशिराजः च(और), वीर्यवान्(बलवान) | पुरुजित्(पुरुजीत), कुन्तिभोजः(कुन्तिभोज), च शैब्यः(शैब्य), च नरपुङ्गवः(मनुष्यों में श्रेष्ठ) | (१/५)
युधामन्युः च विक्रान्तः(पराक्रमी), उत्तमौजाः च वीर्यवान्(बलवान), | सौभद्रः(सुभद्रापुत्र अभिमन्यु) द्रोपदेयाः(द्रौपदी के पांचों पुत्र) च सर्वे(सभी), एव(ही) महारथः(महारथी) | (१/६)

यहाँ पाण्डवों की सेना में जो शूर-वीर हैं, उनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं | जो युद्ध में भी भीम और अर्जुन के समान योद्धा हैं, उनमे सात्यकि, राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं |(१/४)
धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं, पुरुजित और कुन्तिभोज तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य भी हैं | (१/५)
पराक्रमी युधामन्यु और बलवान उत्तमौजा भी हैं | सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं | यह सब के सब महारथी हैं | (१/६)

इस प्रकार पाण्डव पक्ष की व्यूहरचना और विशेषकर राजा द्रुपद और उसके पुत्र धृष्टधुम्न आदि योद्धाओं के विषय में कह कर भी दुर्योधन पाता है, कि आचार्य शांत और मौन ही है | तब दुर्योधन अपने पक्ष के विषय में द्रोणाचार्य को कहता है |

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम |
नायकाः मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते || (१/७)
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः |
अश्वथमा विकर्णश्च सौम्दत्तिस्त्तथैव च || (१/८)
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः |
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः || (१/९)
अस्माकम् तु विशिष्टाः ये तान् निबोध द्विज उत्तम |
नायकाः मम सैन्यस्य संज्ञा अर्थम् तान् ब्रवीमि ते || (१/७)
भवान् भीष्मः च कर्णः च कृपः च समितिञ्जयः |
अश्वथामा विकर्णः च सौमदत्तिः तथा एव च || (१/८)
अन्ये च बहवः शूराः मत् अर्थे त्यक्त जीविताः |
नाना शस्त्र प्रहरणाः सर्वे युद्ध विशारदः || (१/९)

अस्माकम्(अपने पक्ष मे), तु(भी), विशिष्टाः(मुख्य-मुख्य), ये(जो), तान(उनको), निबोध(ध्यान दीजिये), द्विजोत्तम(ब्राह्मण श्रेष्ठ) | नायकाः(नायक), मम(मेरी), सैन्यस्य(सेनाके), संज्ञा-अर्थम्(जानकारी हेतु), तान्(उनको), ब्रवीहि(बतलाता हूँ), ते(आपको) | (१/७) 
भवान्(आप), भीष्मः(पितामह भीष्म), च(और), कर्णः(कर्ण), च, कृपः(कृपाचार्य), च, समितिञ्जयः(संग्रामविजयी) | अश्वत्थामा, विकर्णः, च, सौमदत्तिः(सौमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा), तथा(वैसे), एव(हि), च(और) | (१/८)
अन्ये(और अन्य भी), च, बहवः(बहुत से) शूराः(शूर-वीर), मत्-अर्थे(मेरे लिये), त्यक्त-जीविताः(जीवन कि आशा त्याग कर) | नाना (बहुत प्रकार के), शस्त्र- प्रहरणाः (शस्त्रों से प्रहार करने वाले), सर्वे(सब के सब), युद्ध-विशारदः (युद्ध में प्रवीण) | (१/९)

ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्ष में भी जो मुख्य-मुख्य है, उनको भी ध्यान दीजिये | आपकी जानकारी की लिये मेरी सेना के जो सेनानायक है, उनको बतलाता हूँ | (१/७)
आप (स्वयं) और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा तथा वैसे ही विकर्ण और सौमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा | (१/८)
और अन्य भी बहुत से शूरवीर मेरे लिये जीवन की आशा त्याग कर और जो बहुत प्रकार के शस्त्रों से प्रहार करने वाले है, सब के सब युद्ध में प्रवीण है | (१/९) 

द्रोणाचार्य दुर्योधन के छल-कपट युक्त व्यव्हार से भलीभांति परिचित थे | दुर्योधन पहले तो उनके मन में पाण्डवों के प्रति द्वेष और द्रुपद आदि को इंगित कर युद्ध के प्रति जोश दिलाना चाहता था | परन्तु आचार्य शांत ही रहे | अपने पक्ष के योद्धाओं के विषय में सुनकर भी आचार्य मौन ही रहते हैं | और उधर पितामह भीष्म से कुछ भी कहने लायक चरित्र और व्यव्हार दुर्योधन का नहीं था | इसलिये युद्ध के लिये अपनी सेना को उत्साहित करने के लिये सेना को संबोधित करते हुए कहता है |

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् |
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् || (१/१०)
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः |
भिष्मेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि || (१/११)

अपर्याप्तम् तत् अस्माकम् बलम् भीष्म अभिरक्षितम् |
पर्याप्तम् तु इदम् एतेषाम् बलम् भीम अभिरक्षितम् || (१/१०)
अयनेषु च सर्वेषु यथा भागम् अवस्थिताः |
भीष्मम् एव अभिरक्षन्तु भवन्तः सर्वे एव हि || (१/११)

अपर्याप्तम्(अपरिमेय, असीमित), तत्(वह), अस्माकम्(हमारा), बलम्(बल), भीष्म(पितामह भीष्म), अभिरक्षितम्(द्वारा रक्षित) | पर्याप्तम्(परिमेय, सीमित), तु(परन्तु), इदम्(यह), एतेषाम्(इनका),  बलम्(बल), भीम(भीम), अभिरक्षितम्(द्वारा रक्षित) | (१/१०)
अयनेषु(मोर्चोंपर),(और), सर्वेषु(सब), यथा(जैसे), भागम्(विभागपूर्वक), अवस्थिताः(स्थित हैं) | भीष्मम्(पितामह भीष्म की), एव(ही), अभिरक्षन्तु(रक्षा करें), भवन्तः(आप), सर्वे(सब), एव(ही), हि(निःसंदेह) | (१/११)

पितामह भीष्म द्वारा रक्षित हमारा वह बल अपरिमेय, असीमित है, परन्तु भीम द्वारा रक्षित इनका यह बल परिमेय, सीमित है | (१/१०)
और सब के सब जैसे विभाग पूर्वक मोर्चों पर स्थित है, आप सब ही निःसंदेह पितामह भीष्म की ही रक्षा करे | (१/११)

दुर्योधन यहाँ अपनी सेना को प्रोत्साहित करने को तथा उसका मनोबल बढ़ाने को कहता है कि हमारा बल अर्थात् हमारा सामर्थ्य हर प्रकार से विपक्ष से अपरिमेय, असीमित है, गणना में हम उनसे चार अक्षौहिणी अर्थात् डेढ़ गुना अधिक हैं और पितामह भीष्म, जिन्हें इच्छा-मृत्यु का वर प्राप्त है उनसे हमारी सेना रक्षित है | परन्तु पाण्डवों का बल सामर्थ्य गणना में भी सीमित है तथा वह पितामह की भांति इच्छा मृत्यु के वरदान आदि से भी रक्षित नहीं है | दुर्योधन को विश्वास था कि जब तक पितामह जीवित हैं, उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता, इन्ही कारणों से दुर्योधन अपने पक्ष को सब प्रकार से अजेय मानता था और अपनी सेना को संबोधित करते हुए कहता है, कि जैसे आप सब अपने मोर्चो पर विभागपूर्वक स्थित हैं, उसी तरह अपनी-अपनी जगह स्थित हुए आप सभी लोग निःसंदेह पितामह की ही सब और से रक्षा करें |

दुर्योधन युद्ध के स्वरूप को लेकर कैसा मोहित और भ्रमित है ? इच्छा मृत्यु को प्राप्त पितामह भीष्म की ही रक्षा का संकल्प करता है | अजेय योद्धा की रक्षा व्यवस्था ? वस्तुतः दुर्योधन भोगी और कामी है, उसने पितामह की इच्छा मृत्यु को लेकर एक भ्रम पाल रखा है कि जब तक पितामह है, वह अजेय है तथा उसे भोग और काम की प्राप्ति होती रहेगी | समस्त संसार काम और भोगों से मोहित हुआ ऐसे ही भ्रम में जीता है | भोगों की लालसा केवल भोगों के प्रति मोह और भ्रम में ही जीती है | इसी भ्रम को जीवित रखने को दुर्योधन अजेय योद्धा पितामह भीष्म की ही रक्षा व्यवस्था का आहवान करता है | यही तो मोह और भ्रम से उपजा अद्भुत आश्चर्य है ! द्रोणाचार्य की भांति ही, पितामह भीष्म भी दुर्योधन की छल-कपट और चिकनी-चुपड़ी बांतों का मंतव्य जानते रहे होंगे | इसलिये पितामह भी कुछ नहीं कहते, परन्तु प्रधान सेनापति होने के कारण युद्ध के उद्घोष को तथा योद्धाओं के ह्रदय में उत्साह और जोश उत्पन्न करने को शंखनाद करते हैं | अब आगे –

तस्य सन्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः |
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् || (१/१२)
ततः शङ्खाश्चः भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः |
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् || (१/१३)

तस्य सन्जनयन् हर्षम् कुरु वृद्धः पितामहः |
सिंह नादम् विनद्य उच्चैः शङ्खम् दध्मौ प्रतापवान् || (१/१२)
ततः शङ्खाः च भेर्यः च पणव आनक गोमुखाः |
सहसा एव अभ्यहन्यन्त सः शब्दः तुमुलः अभवत् || (१/१३)

तस्य(उनमें), सन्जनयन्(उत्पन्न करते हुए), हर्षम्(हर्ष), कुरु-वृद्धः(कुरुवृद्ध), पितामहः(पितामह भीष्म) | सिंह-नादम् (सिंहनाद के समान), विनद्य(गरजकर), उच्चैः(उच्च स्वर से), शङ्खम्(शंख), दध्मौ(फुका, बजाय), प्रतापवान्(प्रतापी) | (१/१२)
ततः(इसके पश्चात्), शङ्खाः(शंख), (और), भेर्यः(भेरी),(और), पणव-आनक-गोमुखाः(ढोल, मृदंग और नरसिंघे) | सहसा (एकसाथ), एव(ही), अभ्यहन्यन्त(बज उठे), (वह), शब्दः(शब्द), तुमुलः(बड़ा भयंकर),अभवत् (हुआ) | (१/१३)

उनमें, दुर्योधन और सेना में, हर्ष उत्पन्न करने के लिये कुरु वंश के प्रतापी वृद्ध पितामह भीष्म ने सिंह के समान गरजकर जोर से शंख बजाया | (१/१२)
उसके पश्चात शंख और युद्धभेरियाँ तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे बाजे एक साथ ही बज उठे, वह शब्द बहुत भयंकर हुआ | (१/१३)

यहाँ ध्यान देने योग्य है कि कौरव पक्ष ने जब युद्ध का उद्घोष करा तब संजय के अनुसार बहुत भयंकर शब्द हुआ, भयंकर शब्द अर्थात् भय का संचार | वस्तुतः भय सदैव माया से लिप्त जीव का गुण है | राजा धृतराष्ट्र की जिज्ञासा के अनुसार दुसरे श्लोक से लेकर यहाँ तक संजय ने धृतराष्ट्र के पुत्रों ने युद्धस्थल में क्या करा, उसका विवरण धृतराष्ट्र को कहा | अब पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? इसका विवरण धृतराष्ट्र को देते हैं |

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितो |
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः || (१/१४)
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः |
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः || (१/१५)
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः |
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ || (१/१६)

ततः श्वेतैः हयैः युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधवः पाण्डवः च एव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः || (१/१५)
पाञ्चजन्यम् हृषीकेशः देवदत्तम् धनम्-जयः |
पौण्ड्रम् दध्मौ महा-शङ्खम् भीम-कर्मा वृकोदरः || (१/१६)
अनन्त विजयम् राजा कुन्ति-पुत्रः युधिष्ठिरः |
नकुलः सहदेवः च सुघोष मनिपुष्पकः एव | (१/१७)

ततः(उसके उपरान्त), श्वेतैः(श्वेत), हयैः(घोड़ों से), युक्त्ते(युक्त हुए), महति(उत्तम, महान), स्यन्दने(रथ में), स्थित्तौ(स्थित) | माधवः पाण्डवः,(और), एव(भी), दिव्यौ(दिव्य), शङ्खौ(शंख), प्रदध्मतुः(जोर से बजाये) | (१/१४)
पाञ्चजन्यम्(पांचजन्य-नामक), हृषीकेशः(अन्तर्यामी परमात्मा श्रीकृष्णने), देवदत्तम्(देवदत्त-नामक), धनम्-जयः(अर्जुनने) | पोण्ड्रम् (पौन्ड्र-नामक), दध्मौ(बजाया), महा-शङ्खं(महाशंख), भीम-कर्मा(भीमकाय कर्म करने वाले), वृकोदरः(अतिभोजि भीम) | (१/१५)
अनन्त-विजयं(अनन्तविजय नामक), राजा(राजा), कुन्तीपुत्रः(कुन्तीपुत्र), युधिष्ठिरः(युधिष्ठिर) | नकुलः(नकुल), सहदेवः(सहदेव), च (और) सुघोष(सुघोष नामक), मनिपुष्पकः(मणिपुष्पक नामक), एव(भी) | (१/१६)

उसके उपरान्त सफ़ेद घोड़ों से युक्त महान रथ पर बैठे माधव और अर्जुन ने भी दिव्य शंखों को जोर से बजाया | (१/१४)
अन्तर्यामी पमात्मा श्रीकृष्ण (ऋषिकेश) ने पांचजन्य नामक तथा धनंजय ने देवदत्त नामक शंख बजाया, भीमकाय कर्म करने वाले भीमसेन ने पौन्ड्र नामक महाशंख बजाया | (१/१५)
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक तथा नकुल और सहदेव ने क्रमशः सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये | (१/१६)

संजय के अनुसार जब कौरव पक्ष ने युद्ध का उद्घोष करा तब बहुत भयंकर शब्द हुआ, परन्तु श्रीकृष्ण सहित अर्जुन ने दिव्य शंखों से युद्ध का उद्घोष करा | मनुष्य के कर्म सदैव उसके स्वभाव का बोद्ध कराते हैं | दिव्य पुरुषों द्वारा युद्ध का उद्घोष भी भयंकर नहीं अपितु दिव्य ही होता है | श्रीकृष्ण और पाण्डु पुत्रों का उल्लेख कर अब संजय पाण्डव सेना के अन्य योद्धाओं के बारे में राजा धृतराष्ट्र को बताते हैं |

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः |
धृष्टधुधुम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः || (१/१७)
द्रुपदो द्रोपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते |
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् || (१/१८)
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् |
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् || (१/१९)

काश्यः च परम् ईषु वासः शिखण्डी च महारथः |
धृष्ट्धुम्नः विराटः च सात्यकिः च अपराजितः ||
द्रुपदः द्रौपदेयाः च सर्वशः पृथिवी-पते |
सौभद्रः च महा-बाहुः शङ्खान् दध्मुः पृथक् पृथक् || (१/१८)
सः घोषः धार्तराष्ट्राणाम् हृदयानि व्यदारयत्
नभः च पृथिवीम् च एव तुमुलः व्यनुनादयन् || (१/१९)

काश्यः(काशिराज),(और), परम्-ईषु-वासः(श्रेष्ठ-धनुर्धारी), शिखण्डी(शिखंडी),(और), महारथः(महारथी)| धृष्टधुधुम्नः (धृष्टधुम्न), विराटः(राजा विराट), च(और), सात्यकिः(सात्यकि), च(और), अपराजितः(अजेय) | (१/१७)
द्रुपदः(राजा द्रुपद), द्रोपदेयाः(द्रोपदी के पाँचों पुत्र), (और), सर्वशः(सब ओर से), पृथिवीपते(हे पृथ्वीपति) | सौभद्रः(सुभद्रापुत्र अभिमन्यु), (और), महाबाहुः(बाहुबली), शङ्खान्(शंख), दध्मुः(बजाये), पृथक्(अलग), पृथक्(अलग) | (१/१८)
सः(वह), घोषः(शब्द), धार्तराष्ट्राणाम्(धार्तराष्ट्रान), हृदयानि(हृदय), व्यदारयत्(विदीर्ण हुए), नभः(आकाश), (और), पृथिवीम् (पृथ्वी को), (और), एव(भी),  तुमुलः(भयंकर), व्यनुनादयन्(गुंजाते हुए) | (१/१९)

पृथ्वीपति ! श्रेष्ठ धनुर्धारी काशिराज और महारथी शिखन्डी, सेनापति धृष्टधुन्म, राजा विराट, अजेय सात्यकि | (१/१७)
द्रुपद और द्रोपदी के पाँचों पुत्र तथा बाहुबली सुभद्रापुत्र अभिमन्यु ने भी सब ओर से अलग अलग शंख बजाये | (१/१८)
और वह भयानक शब्द आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए अन्यायपूर्ण राज्य हडपने वालों के ह्रदय को विदीर्ण कर गया | (१/१९)

युद्धस्थल में तो पाण्डव तथा उनकी सेना भी खड़ी थी परन्तु हृदय विदीर्ण, केवल अन्यायपूर्वक राज्य हडपने वाले धृतराष्ट्र के पुत्रों और उनके साथियों के ही क्यों हुए ? क्योंकि जब निति, धर्म, पुन्य और न्याय ललकारता है, युद्ध का उद्घोष करता है, तब अनीति, अधर्म, पाप और दुष्कर्मों के कारण अन्यायी का हृदय स्वयं ही विदीर्ण हो जाता है | इस प्रकार दोनों पक्षों द्वारा युद्ध के उद्घोष के पश्चात् अर्जुन श्रीकृष्ण से एक निवेदन करता है | अब इस प्रसंग को संजय राजा धृतराष्ट्र को कहते है |

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः |
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः || (१/२०)
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते |
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेअच्युत || (१/२१)
यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् |
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे || (१/२२)
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः |
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः || (१/२३)

अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपि ध्वजः |
प्रवृते शस्त्र सम्पाते धनुः उद्यम्य पाण्डवः || (१/२०)
हृषीकेशम् तदा वाक्यम् इदम् आह महीपते |
सेनयोः उभयोः मध्ये रथम् स्थापय मे अच्युत || (१/२१)
यावत् एतान् निरीक्षे अहम् योद्धु कामान् अवस्थितान् |
कैः मया सह योद्धव्यम् अस्मिन् रण समुद्यते || (१/२२)
योत्स्यमानान् अवेक्षे अहम् ये एते अत्र समागताः |
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः युद्धे प्रिय चिकीर्षवः || (१/२३)

अथ(अब), व्यवस्थितान्(व्यवस्थित हुए), दृष्ट्वा(देखकर), धार्तराष्ट्रान्(अन्यायपूर्वक राज्य हडपने वाले, दुर्योधन आदि को), कपिध्वजः(हनुमानजी से अंकित पताका) | प्रवृत्ते(प्रवृत हुए), शस्त्र(शस्त्र), सम्पाते(चलाने की),  धनुः(धनुष), उद्धम्य(उठा कर), पाण्डवः(पाण्डु पुत्र) | (१/२०)
हृषीकेशम्(अन्तर्यामी परमात्मा श्रीकृष्ण), तदा(उस समय), वाक्यम्(वचन), इदम्(यह) आह(कहे), महीपते(महीपते) | सेनयोः (सेनाओं के), उभयोः(दोनों), मध्ये(मध्य), रथम्(रथ को), स्थापय(स्थापित कीजिये), मे(मेरे), अच्युत(अच्युत) | (१/२१)
यावत्(जब तक), एतान्(इन), निरीक्षे(निरिक्षण कर लूँ), अहम्(मै), योद्धुकामान्(युद्ध की कामना वाले), अवस्थितान्(व्यवस्थित हुए) | कैः(किन-किन के), मया(मुझे), सह(साथ), योद्धव्यम्(युद्ध योग्य है), अस्मिन्(इस), रण-समुद्यमे(रण रूप उद्यम में) | (१/२२)
योत्स्यमानान्(युद्ध करने वालों को), अवेक्षे(देखूंगा), अहम्(मै), ये(जो), एते(यह), अत्र(यहाँ),  समागताः(एकत्रित हुए है) | धार्तराष्ट्रस्य(दुर्योधन का), दुर्बुद्धे:(दुष्ट बुद्धि), युद्धे(युद्ध में), प्रिय-चिकीर्षवः(प्रिय की इच्छा वाले) | (१/२३)

महीपते धृतराष्ट्र ! अब शस्त्र चलाने की तैयारी हो रही थी, उसी समय अन्यायपूर्वक राज्य हडपने वाले दुर्योधन आदि  
को व्यवस्थित हुए देखकर, कपिध्वज धारण करे पाण्डव (अर्जुन) ने धनुष उठाकर | (१/२०)
हृषिकेश से यह वचन कहे | अच्युत ! मेरे रथ को दोनो सेनाओ के मध्य ले जाकर खड़ा कीजिये | (१/२१)
जब तक मैं युद्ध की कामना से व्यवस्थित हुए, इनका निरिक्षण कर लूँ, कि मुझे इस युद्ध रूप उद्योग में किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है | (१/२२)
दुष्ट बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय करने की इच्छा से यहाँ एकत्रित हुए हैं, इन युद्ध करने वालो को मै देख लूँ | (१/२३)

अर्जुन का यहाँ युद्ध को उद्योग कहने का तात्त्पर्य यह है कि सभी जानते हैं कि दुर्योधन का पक्ष अन्याय का है | फिर भी अपने अपने कारणों से स्वार्थवश जो राजा लोग युद्ध में दुर्योधन का साथ दे रहे थे, निश्चित रूप से वह राजा लोग इ
युद्ध से भी अपना स्वार्थ ही सिद्ध कर रहे थे | इसी को अर्जुन युद्ध उद्योग कहता है | इस प्रकार इस प्रसंग का वर्णन करके
संजय पुनः धृतराष्ट्र से संबोधित होते हैं |

संजय उवाच 
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत |
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् || (१/२४)
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति || (१/२५)

एवम् उक्तः हृषीकेशः गुडाकेशेन भारत |
सेनयोः उभयोः मध्ये स्थापयित्वा रथः उत्तमम् || (१/२४)
भीष्म द्रोण प्रमुखतः सर्वेषाम् च महि-क्षिताम् |
उवाच पार्थ पश्य एतान् समवेतान् कुरून् इति || (१/२५)

एवम्(इस तरह), उक्तः(कहने पर), हृषीकेशः(ऋषिकेश ने), गुडाकेशेन(निंद्रा विजयी अर्जुन के द्वारा), भारत(भरतवंशी राजा) | सेनयोः(सेनाओं के), उभयोः(दोनों), मध्ये(मध्य में), स्थापयित्वा(खड़ा करके), रथः(रथ को), उत्तमम्(उत्तम, महान) | (१/२४)
भीष्म(भीष्म), द्रोण(द्रोण), प्रमुखतः(के सामने), सर्वेषाम्(सभी के),(और), महीक्षिताम्(राजाओं के) | उवाच(कहा), पार्थ(पार्थ), पश्य(देश), एतान्(इन), समवेतान्(एकत्रित हुए), कुरून्(कुरुवंशियों), इति(इस तरह) | (१/२५)

भरतवंशी राजा धृतराष्ट्र ! निंद्रा विजयी अर्जुन के इस प्रकार कहने पर अन्तर्यामी परमात्मा श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओ के मध्य, पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य तथा समस्त राजाओं के सामने उत्तमरथ को खड़ा कर इस प्रकार कहा कि पार्थ ! इन एकत्रित हुए कुरुवंशियों को देख | (१/२४,२५)

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान् |
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा || (१/२६)
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि |
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बंधुनव्स्थितान् || (१/२७)
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् |
अर्जुन उवाच :-
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् || (१/२८)
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते || (१/२९)
गाण्डीवं सन्त्रसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते |
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः || (१/३०)

तत्र अपश्यत् स्थितान् पार्थः पितृन् अथ पितामहान् |
आचार्यान् मातुलान् भ्रातृन् पुत्रान् पौत्रान् सखीन् तथा || (१/२६)
श्वशुरान् सुहृदः च एव सेनयोः उभयोः अपि |
तान् समीक्ष्य सः कौन्तेयः सर्वान् बन्धून् अवस्थितान् || (१/२७)
कृपया परया आविष्टः विषीदन् इदम् अब्रवीत् |
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वा इमम् स्व-जनम् कृष्ण युयुत्सुम् समुपस्थितम् || (/२८)
सीदन्ति मम् गात्राणि मुखम् च परिशुष्यति |
वेपथुः च शरीरे मे रोम-हर्षः च जायते || (१/२९)
गाण्डीवम् सन्त्रस्ते हस्तात् त्वक् च एव परिदह्यते |
न च शक्नोमि अवस्थातुम् भ्रमति इव च मे मनः || (१/३०)

तत्र(वहाँ), अपश्यत्(देखा), स्थितान्(स्थित), पार्थः(पृथापुत्र), पितृन्-अथ(ताऊ-चाचों को), अथ(इसके बाद), पितामहान्(दादा-परदादा को) | आचार्यान्(आचार्यों को), मातुलान्(मामाओं को), भ्रातृन्(भाइयों को), पुत्रान्(पुत्रों को), पौत्रान्(पौत्रों को), सखीन् (मित्रों को), तथा(तथा) | (१/२६)
श्वशुरान् (श्वसुरों को), सुहृदः(सुहृदों को), (और), एव(ही), सेनयोः(सेनाओं के), उभयोः(दोनों), अपि(भी) | तान्(उनको), समीक्ष्य (देखकर), सः(वह), कौन्तेयः(कुन्तीपुत्र), सर्वान्(समस्त), बन्धून्(बंधुओं को), अवस्थितान्(उपस्थित) | (१/२७)
कृपया(करूणा, कायरता), परया(अत्यन्त), आविष्टः(युक्त होकर), विषीदन्(विषादपूर्ण), इदम्(यह), अब्रवीत्(बोले) |
अर्जुन उवाच:-
दृष्ट्वा(देखकर), इमम्(इसप्रकार), स्व-जनम्(स्वजनोंको), कृष्ण(कृष्ण), युयुत्सुम्(युद्ध-उत्सव), समुपस्थितम्(उपस्थित) | (१/२८)
सीदन्ति(शिथिल हो रहे), मम(मेरे), गात्राणि(समस्त अंग), मुखम्(मुख), (और), परिशुष्यति(सूख रहा है) | वेपथुः(कम्पन),(और), शरीरे(शरीर में), म (मुझे), रोम-हर्षः (रोम हर्ष),(और), जायते(हो रहा है) | (१/२९)  
गाण्डीवं(गाण्डीव धनुष), सन्त्रसते(गिर रह है), हस्तात्(हाथों से), त्वक्(त्वचा)(और), एव(भी), परिदह्यते(बहुत जल रही है) | (नहीं), (और), शक्नोमि(समर्थ), अवस्थातुम्(स्थिर), भ्रमित(भ्रम), इव(सा), (और), मे(मेरा), मनः(मन) | (१/३०)

इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने वहाँ ताऊ-चाचाओं को, दादा-परदादों को, आचार्यों को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को देखा | (१/२६)
दोनों सेनाओं में ही उपस्थित श्वसुरों को और सुहृदों को और समस्त बंधुओं को भी देखकर वह कुंतीपुत्र अर्जुन | (१/२७)
अत्यंत करुणापूर्वक और विषादयुक्त्त हो कर यह वचन बोला |
अर्जुन उवाच :-
कृष्ण ! इन स्वजनों को युद्ध उत्सव में भली प्रकार उपस्थित देखकर | (१/२८)
मेरे अंग शिथिल हो रहे है, मुख भी सूख रहा है | मेरे शरीर में कम्पन और रोमों में सिहरन हो रही है | (१/२९)
हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है, त्वचा भी जल रही है तथा स्थिर रहने में भी समर्थ नहीं हूँ और मेरा मन भ्रमित हो रहा है | (१/३०)

पहले तो अर्जुन धनुष उठा कर युद्ध को तत्पर हुआ, दोनों सेनाओ के मध्य जाकर दुष्ट-बुद्धि दुर्योधन के पक्ष में उपस्थित योद्धाओं का निरिक्षण करता है | परन्तु दोनों सेनाओ के मुख्य योद्धाओं को देखकर, वह कहता है कि “भ्रमतीव च मे मनः | परन्तु अर्जुन का मन भ्रमित क्यों हुआ ? अर्जुन को दोनो अर्थात् पक्ष और विपक्ष दोनों ओर अपना ही परिवार, अपने ही सम्बन्धी, मित्र दिखाई पड़ते है | जैसे भूरिश्रवा पाण्डु के भाई, पिता स्वरूप विपक्ष में, पितामह भीष्म और सोमदत्त विपक्ष में, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य भी विपक्ष में, मामा पुरुजित व कुन्तिभोज पक्ष में, मामा शल्य और शकुनी विपक्ष में, भीम आदि भाई पक्ष में, विकर्ण आदि भाई विपक्ष में, अभिमन्यु, घटोत्कच, द्रौपदी पुत्र पक्ष में, लक्ष्मण आदि विपक्ष में, अश्वत्थामा आदि मित्र विपक्ष में, चेकितान पक्ष में, कृष्ण, सात्यकि आदि सुहृदय पक्ष में, कृतवर्मा आदि विपक्ष में, प्रपितामह बाह्लीक विपक्ष में, श्वसुर द्रुपद पक्ष में, धृष्टधुन्म, शिखन्डी आदि शाले पक्ष में, जयद्रथ आदि बहनोई विपक्ष में | परिवार और मित्रों का युद्ध को लेकर ऐसे विभाजित पक्ष और विपक्ष का शायद ही मनुष्यता के इतिहास में अन्य कोई उदहारण हो |

अर्जुन एक बार किरात रूप धारण करे शिव से भी युद्ध कर चुका था, गन्धर्वों को परास्त कर दुर्योधन आदि को मुक्त करा
चुका था | विराट के युद्ध में अकेला ही पितामह, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन और शकुनी आदि को परास्त कर चुका  था | इन्द्रप्रस्थ की स्थापना के उपरान्त राजसूय-यज्ञ हेतु दिशाओं में वर्चस्व स्थापित कर चुका था | यहाँ भी विपक्ष के योद्धाओं को देखने हेतु ही दोनों सेनाओ के मध्य गाण्डीव धारण कर युद्ध को प्रस्तुत हुआ था | तब ऐसा क्या हुआ, कि उसके अंग शिथिल हो गये, मुख सूख गया, शरीर में कम्पन, रोओ में सिहरन, त्वचा में जलन और हाथ से उसका विश्व प्रसिद्ध गाण्डीव धनुष भी गिर रहा था और अर्जुन स्थिर खड़े रहने में भी सक्षम नहीं रहा ?

वस्तुतः युद्ध में विपक्ष अर्थात् शत्रु पक्ष होता है, परन्तु यहाँ केवल दुर्योधन की चौकड़ी को छोड़कर कोई भी उसे अपना वैरी नहीं दिखा | समस्त योद्धागण जो समान रूप से दोनों ओर उचित-अनुचित, स्वार्थवश कारणों से विभाजित हैं, अपना ही परिवार और मित्रगण है | इस युद्ध के स्वरूप और कारणों पर विचार करते हुए अर्जुन के मन में मोह, विषाद, करुणा और भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है | सभी व्याख्याकार कहते हैं कि यह अर्जुन का मोह और विषाद था | इस सम्पूर्ण अध्याय को ही अर्जुन विषाद योग कह देते हैं | परन्तु क्या यह सत्य है ? अगर इस युद्ध के परिणाम पर विचार करें तो इसे अर्जुन का मोह नहीं अपितु उसकी दूर-दृष्टि और युद्ध के परिणाम की भविष्यता का बोध कहना ही उचित होगा | युद्ध के उपरान्त अठाहर अक्षौहिणी सेना में से कौन-कौन बचे थे ? परिवार में पाँच पाण्डवों के अतिरिक्त कौन बचा था ? प्रपितामह से लेकर एक भी पुत्र-पौत्र तक किसी भी पक्ष का नहीं बचा था | क्या इसे अर्जुन की दूरदर्शिता न कह कर उसका मोह अथवा विषाद कहना उचित होगा ? अगर अर्जुन की मनोदशा पर थोड़ा विचार करें तो संसार की राज्य और भोगों के प्रति लिप्तता देखकर ही तो अर्जुन का मन भ्रमित हुआ था | अन्यथा दुर्योधन की चंडाल-चोकड़ी के अतिरिक्त समस्त विपक्ष में कौन उसका वैरी था ? पितामह ? आचार्य ? मामा शल्य ? कृतवर्मा ? अश्वत्थामा ? चाचा-ताऊ ? प्रपितामह ? अथवा कौन ? किसी भी मोह के कारण अर्जुन को विषाद नहीं हुआ था | अपने मोह अथवा विषाद को नहीं, अपितु अपनी दूरदर्शिता और युद्ध के परिणाम से भ्रमित मनोदशा को अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति व्यक्त करता है | इसी को व्याख्याकार अर्जुन का मोह और विषाद कहते हैं | वस्तुतः श्रीकृष्ण परं-भाव को प्राप्त एक योगस्थ महापुरुष थे | इस अवस्था को, इस स्तर को, परं-भाव को प्राप्त प्रत्येक महापुरुष मनुष्य के स्व-भाव से उत्पन्न नाना प्रकार के भावों से अतीत होता है | वह प्रस्तुत कर्तव्य-कर्म को ही धर्म मानकर द्रष्टा भाव से उसमें प्रवृत होता है | ऐसे महापुरुषों के समक्ष हमारे समस्त भाव हमारे मोहित अन्तकरण की अभिव्यक्ति मात्र होती है | हमारा मोह और विषाद ही प्रतीत होते हैं | सुख-दुःख रूपी द्वन्द्ध ही प्रतीत होते हैं | मेरे अनुभव में अर्जुन अपनी दूरदृष्टि और युद्ध के परिणाम की भविष्यता के बोध भाव से भ्रमित था, परन्तु परं-भाव की दृष्टि से वह मोहग्रस्त था | तो क्या समस्त व्याख्याकार अर्जुन के प्रति परं-भाव को प्राप्त दृष्टिकोण रखते रहे हैं ? कहने का तात्पर्य यह कि केवल परं-भाव को प्राप्त योगस्थ महापुरुष ही अर्जुन को मोहग्रस्त और विषादयुक्त देखने की क्षमता रखते हैं | तो क्या गीता शास्त्र के सभी व्याख्याकार परं-भाव को प्राप्त महापुरुष रहे हैं ? अगर ऐसा है तो इस व्याख्या के लिये मै परमपिता परमात्मा से लक्ष-कोटि क्षमा-याचना करता हूँ | जैसा भी है, मेरी अल्प-बुद्धि इसका निर्णय करने में सक्षम नहीं है, इसलिये इस विषय को मै साधकों के मनन करने हेतु यहीं विश्राम देता हूँ, यह तो हुआ अर्जुन के मोह और विषाद (?) पर एक मनन | अब अर्जुन की मनोदशा जानने हेतु प्रसंग में पुनः प्रवेश करते हैं |

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव |
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे || (१/३१)

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव |
न च श्रेयः अनुपश्यामि हत्वा स्व जनम् आहवे || (१/३१)

निमित्तानि(लक्षणों को), च(और), पश्यामि(देख रहा), विपरीतानि(विपरीत ही), केशव(केशव) | न(नहीं), च(और), श्रेयः(श्रेय), अनुपश्यामि(देखता), हत्वा(हत्या कर के), स्वजनम्(स्वजनों), आहवे(युद्ध में) | (१/३१)

मै लक्षणों को विपरीत ही देख रहा हूँ, आहवे अर्थात् युद्ध में मेरा आह्वान करने पर भी मै स्वजनों की हत्या में कोई श्रेय नहीं देखता | (१/३१)

निमित्तानि अर्थात् इस युद्ध में स्वजन, मित्र, पूज्यनीयऔर गुरुजन तो निमित्त मात्र है, युद्ध तो दुर्योधन से है | इस कारण
मै लक्षणों को अर्थात् युद्ध के स्वरूप और युद्ध के परिणाम को भी विपरीत देख रहा हूँ तथा जब युद्ध में मेरे स्वजन पितामह, आचार्य आदि युद्ध में मेरा आह्वान करेगें तो इन स्वजनों की हत्या में मैं कोई श्रेय भी नहीं देखता | यहाँ दो तथ्य अर्जुन ने स्पष्ट करे, पहला कि वो कायरता रूपी दोष से लिप्त नहीं है | युद्ध के इस स्वरूप में शत्रुवत भाव से उपस्थित स्वजनों के आह्वान पर युद्ध मे वह उनकी हत्या करने मे सक्षम है | तथा दूसरा कि इस प्रकार (स्वजनों) की हत्याओं में वह कोई श्रेय नहीं देखता | प्रेय अर्थात् प्रयास स्वरूप जीवन में लाभकारी प्राप्ति तथा श्रेय अर्थात् प्रयास स्वरूप जीवन में कल्याणकारी प्राप्ति | युद्ध के इस स्वरूप से प्राप्त राज्य और राज्यभोगों में स्वजनों की हत्या को अर्जुन कोई कल्याणकारी कृत नहीं मानता | लोक-परलोक की दृष्टि से अर्जुन को ऐसा युद्ध कल्याणकारी प्रतीत नहीं हो रहा | यहाँ अर्जुन का आत्मविश्वास और कल्याणकारी चिंतन दोनों स्पष्ट होते हैं | अपने इन्ही भावों को अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है |

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च |
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा || (१/३२)
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च |
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणान्स्त्यक्त्वा धनानि च || (१/३३)
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः |
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा || (१/३४)
एतान्न हन्तुमिच्छामि ध्नतोऽपि मधुसूदन |
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किम् नु महीकृते || (१/३५)

न काङ्क्षे विजयम् कृष्ण न च राज्यम् सुखानि च |
किम् नः राज्येन गोविन्द किम् भोगैः जीवितेन वा || (१/३२)
येषाम् अर्थे काङ्क्षितम् नः राज्यम् भोगाः सुखानि च |
ते इमे अवस्थिताः युद्धे प्राणान् त्यक्त्वा धनानि च || (१/३३)
आचार्याः पितरः पुत्राः तथा एव च पितामहाः |
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनः तथा || (१/३४)
एतान् न हन्तुम् इच्छामि ध्नतः अपि मधुसूदन |
अपि त्रैलोक्य राज्यस्य हेतोः किम् नु महीकृते || (१/३५)

(ना), काङ्क्षे(आकांक्षा है), विजयम्(विजय की), कृष्ण(कृष्ण), (ना), (और), राज्यम्(राज्य की), सुखानि(सुखों की), (और) | किम्(क्या प्रयोजन है), नः(हमें), राज्येन(राज्य से), गोविन्द(गोविन्द), किम्(क्या प्रयोजन),भोगैः(भोगों से), जीवितेन(जीवन से), वा(अथवा) | (१/३२)
येषाम्(जिनके), अर्थे(लिये), काङ्क्षितं(आकांक्षा), नः(हमें), राज्यम्(राज्य की), भोगाः(भोगों की),सुखानि(सुखो की), (और) | ते (वे), इमे(यह सब), अवस्थिताः(स्थित है), युद्धे(युद्ध में), प्राणान्(प्राणों की), त्यक्त्वा(त्यागकर) धनानि(धन की) (और) | (१/३३)
आचार्याः(आचार्यगण), पितरः(पिता, चाचा-ताऊ), पुत्राः(पुत्र), तथा(तथा), एव(ही),(और), पितामहाः(पितामह) | मातुलाः (मामा), श्वशुराः(ससुर), पौत्राः(पौत्र), श्यालाः(साले), सम्बन्धिनः(सम्बन्धी), तथा(तथा) | (१/३४)
एतान्(इनको), (ना), हन्तुम्(मारकर), इच्छामि(इच्छा), ध्नतः(प्रहार करने पर), अपि(भी), मधुसूदन(मधु-कैटभ नाम के दैत्यों का नाश करने वाले) | अपि(भी), त्रैलोक्य(त्रिलोकी का), राज्यस्य(राज्य के), हेतोः(हेतु भी), किम्(क्या प्रयोजन है), नु(फिर), महीकृते (पृथ्वी के लिये) | (१/३५)

कृष्ण ! ना तो विजय की आकांक्षा है, ना राज्य की और ना सुख की | गोविन्द ! हमें राज्य से, भोगों से क्या प्रयोजन ? अथवा ऐसे जीवन से भी क्या प्रयोजन ? (१/३२)
जिनके लिये हमें राज्य, भोगों और सुखों की आकांक्षा है, वे यह सब प्राणों धन को त्यागकर युद्ध मे स्थित है | (१/३३)
आचार्य जन, पिता-चाचा-ताऊ, पुत्र और पितामह भी तथा मामा लोग, ससुर, पौत्र, साले तथा सम्बन्धी | (१/३४)
मधुसूदन ! प्रहार करने पर, त्रिलोकी के राज्य हेतु भी इनको मारने की इच्छा नहीं है, फिर पृथ्वी के राज्य हेतु क्या
प्रयोजन ? (१/३५)

अर्जुन नीति, न्याय और धर्म की दृष्टि से अपने अधिकार की प्राप्ति को दुर्योधन से युद्ध करने को प्रस्तुत हुआ था | परन्तु आदरणीय, पूज्यनीय, सुहृदय, स्वजनों और मित्रों को, जिनसे उसका किसी प्रकार का वैरभाव भी नहीं था | परन्तु अपने अपने कारणोंवश अथवा स्वार्थवश पक्ष-विपक्ष में विभाजित हो उपस्थित थे | उस कारण युद्ध का जो स्वरूप उसके समक्ष प्रस्तुत हुआ था | उसे देखते हुए और इस युद्ध के दूरगामी परिणामों का चिंतन करते हुए उसके अन्तकरण में जो भाव उठे थे, उससे ऐसी विजय तथा उससे प्राप्त राज्य, भोग, सुख और जीवन से उसे कोई श्रेय अर्थात् कल्याणकारी प्राप्ति का अनुभव नहीं हो रहा था | अपने भावों को श्रीकृष्ण के प्रति कहता हुआ अर्जुन अन्त में स्पष्ट कह देता है, कि पृथ्वी के राज्य हेतु तो क्या प्रयोजन, अगर ऐसे युद्ध से त्रिलोकी का राज्य भी मिले, तो भी इन स्वजनों का मुझ पर प्रहार करने पर भी, मेरी इनको मारने की इच्छा नहीं है |

यहाँ तक अर्जुन अपने आदरणीय, पूज्यनीय, सुहृदय स्वजनों तथा मित्रों के प्रति अपने भावो को श्रीकृष्ण के प्रति कहता है | अर्जुन का मोह केवल उनके प्रति नहीं था, जो अपने पक्ष मे प्राणों की आशा त्याग कर युद्ध उत्सव में उपस्थित थे | अपितु उनके प्रति भी अर्जुन समान रूप से चिंतित था, जो बिना किसी वैरभाव के, उचित-अनुचित कारणों से अथवा स्वार्थवश विपक्ष में शत्रुवत उपस्थित थे |   

अब यहाँ से आगे दो श्लोकों में अर्जुन धार्तराष्ट्रान्न अर्थात् धृतराष्ट्र के पक्षपात और मोह से उत्पन्न उनका राज्य हडपने वाले दुर्योधन तथा उसके सहयोगियों जैसे दु:शासन, कर्ण, शकुनी और जयद्रथ के बारे में, अपने भाव श्रीकृष्ण को कहता है | परन्तु यह ध्यान में रहे कि स्वजनों की उपस्थिति से जिन भावों से अर्जुन भावित हो रहा था, उनका प्रभाव अब  दुर्योधन के प्रति भी अर्जुन की भावदशा पर भी पड़ा होगा, अर्जुन इतना तो जानता ही होगा, कि दुर्योधन पर विजय हेतु स्वजनों से युद्ध अनिवार्य है |

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन |
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः || (१/३६)
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् |
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव || (१/३७)

निहत्य धार्तराष्ट्रान् का प्रीतिः स्यात् जनार्दन |
पापम् एव आश्रयेत् अस्मान् हत्वा एतान् आततायिनः || (१/३६)
तस्मात् न अर्हाः वयम् हन्तुम् धार्तराष्ट्रान् स्व बान्धवान् |
स्व जनम् हि कथम् हत्वा सुखिनः स्याम माधव || (१/३७)

निहत्य(हत्या करके), धार्तराष्ट्रान्(^), नः(हमें), का(क्या), प्रीतिः(प्रियकर), स्यात्(होगा), जनार्दन(जनों पर दया करने वाले) | पापम्(पाप का), एव(ही), आश्रयेत्(आश्रय), अस्मान्(हमें), हत्वा(मारकर), एतान्(इन), आततायिनः(आततायियों को) | (१/३६)
तस्मात्(अतएव), (नहीं), अर्हाः(योग्य), वयम्(हम), हन्तुम्(हत्या करने के), धार्तराष्ट्रान्(^), स्व(अपने), बान्धवान्(बन्धुओं को), स्वजनम्(स्वजनों), हि(क्योंकि), कथम्(कैसे), हत्वा(हत्या कर), सुखिनः(सुखी), स्याम(होंगे), माधव(माधव) | (१/३७)

जनार्दन ! धार्तराष्ट्रान्^ की हत्या करके हमारा क्या प्रियकर होगा ? इन आततायियों की हत्या से हमें पाप का
ही तो आश्रय मिलेगा | (१/३६)
माधव धार्तराष्ट्रान् की हत्या को हम योग्य नहीं है | क्योंकि अपने ही बन्धुओं को, मारकर हम कैसे सुखी होंगे | (१/३७)

धार्तराष्ट्रान्^ अर्थात् धृतराष्ट्र के पुत्र नहीं अपितु धृतराष्ट्र के पक्षपात और मोह से उत्पन्न अनीतिपूर्ण राज्य हडपने वाले दुर्योधन और उसके सहयोगी जैसे दु:शासन, कर्ण, शकुनी और जयद्रथ इत्यादि | अर्जुन के अनुसार ये सभी आततायी है | आततायी अर्थात् अधम कर्म करने वाले नीच प्रवृति के मनुष्य | शास्त्रों में (वसिष्ठस्मृति ३/१९) छह प्रकार के आततायी कहे गये है | आग लगाने वाला (लाक्षाग्रह), विष देने वाला (भीम को दिया), हाथ में शस्त्र लेकर निहत्थे को मारने को उद्यत हुआ (दूत रूपी कृष्ण को), धन का हरण करने वाला (मामा शकुनी छल से जुए में), जमीन हडपने वाला (दुर्योधन) और स्त्री का हरण (जयद्रथ ने वनवास में द्रोपदी का हरण करा) तथा उसे तिरस्कृत करने वाला (इन सभी ने जुए के बाद द्रोपदी के साथ किया) | दुर्योधन और उसकी चंडाल-चौकड़ी ने मिलकर यह छह के छह अधम कर्म करे अतः वे आततायियों में भी अधम गति को प्राप्त आततायी हुए | अन्यथा भी भोग की प्राप्ति को कुल का नाश करने वाला भी आततायी होता है, और इन धार्तराष्ट्रान् के नाश को अपने बन्धुओं तथा स्वजनों का नाश भी अनिवार्य हो जाता है |     इसीलिए अर्जुन कहता है कि इन आततायी धार्तराष्ट्रान् को मारकर भी हमारा क्या प्रिय होगा ? इनकी हत्या करने के लिये हमें अपने बन्धुओं और स्वजनों को भी मारना पड़ेगा और इन स्वजनों की हत्याओं से हमें पाप का ही आश्रय मिलेगा | अतएव इनकी हत्या के लिये हम योग्य नहीं है | क्योंकि किसी भी कारण हम पाप का आश्रय नहीं लेंगे | जीवन निर्वाह हेतु किसी भी कारणवश पाप का आश्रय ना लेने के कारण ही परमात्मा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निष्पाप अर्जुन कहा था | अपने निष्पाप स्वभाव के कारण अर्जुन अब श्रीकृष्ण को युद्ध से उपराम होने को तर्क देता है |

यधप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः |
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् || (१/३८)
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् |
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन || (१/३९)

यद्यपि एते न पश्यन्ति लोभ उपहत चेतसः |
कुल-क्षय कृतम् दोषम् मित्र द्रोहे च पातकम् || (१/३८)
कथम् न ज्ञेयम् अस्माभिः पापात् अस्मात् निवर्तितुम् |
कुल-क्षय कृतम् दोषम् प्रपश्यद्भि: जनार्दन || (१/३९)

यद्यपि(यद्यपि), एते(यह लोग), (नहीं), पश्यन्ति(देखते हैं), लोभ(लोभ से), उपहत(अभिभूत), चेतसः(चित्त वाले) | कुल-क्षय (कुलनाश), कृतम्(कृत्य), दोषम्(दोष को), मित्र(मित्र से), द्रोहे(शत्रुता को),(और), पातकम्(पाप को) | (१/३८)
कथम्(क्यों), (नहीं), ज्ञेयम्(जानने योग्य), अस्माभिः(हमें), पापात्(पाप से), अस्मात्(इस), निवर्तितुम्(निवृति के लिये) | कुल-क्षय कृतम्(कुलनाश के कृत्यरूप), दोषम्(दोष को), प्रपश्यद्भिः(जानने-समझने वाले), जनार्दन(जनार्दन) | (१/३९)

यद्यपि लोभ के कारण भ्रष्ट-चित्त हुए यह लोग कुलनाश रूपी कृत के दोष को, मित्रों के प्रति द्रोह को, और पाप को नहीं देखते | (१/३८)
जनार्दन ! कुलनाश रूपी कृत के दोष को जानने-समझने वाले हम लोग क्यों न इस पाप से निवृति के लिये विचार करें ? (१/३९)

अर्जुन का युद्ध ना करने का कारण यहाँ बहुत ही स्पष्ट है | दुर्योधन और उसकी चंडाल-चौकड़ी को तो अर्जुन आततायी मानता है उनको तो मारने को ही वह युद्ध हेतु प्रस्तुत हुआ था | परन्तु स्वजनों के कारण युद्ध का जो स्वरूप हुआ, उससे कुल का नाश अवश्यंभावी हो गया | अर्जुन इस कुल के नाश को प्रस्तुत नहीं हो पा रहा था | युद्ध का यह स्वरूप दुर्योधन आदि के लिये भी समान था | अपितु यह कहें कि दुर्योधन के सत्ता लोलुपता ने ही इस न भूतो न भविष्यति युद्ध को यह रूप दिया था, तो अत्तिश्योक्त्ती न होगी | यही अर्जुन का मत था, अर्जुन के अनुसार लोभ के कारण भ्रष्ट-चित्त हुए यह लोग कुल नाश रूपी कृत के दोष और पाप को नहीं देखते | सिद्ध है कि अर्जुन कुलनाश से प्राप्त राज्य के लोभ से निर्लिप्त था | इसलिये अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है कि हम ही क्यों नहीं इस पाप से निवृत होने को विचार करे ?

अर्जुन की कुलनाश के दोष रूपी पाप से अर्थात् अधर्म का आश्रय ना लेने के संकल्प से उत्पन्न यह मनोदशा, इतिहास का यह क्षण और युद्ध जैसे विषम स्थल में, अर्जुन जैसे विवेकशील नर और नारायण श्रीकृष्ण के सानिध्य से धर्म की, सनातन धर्म की जिस व्याख्या ने जन्म लिया, गीता रूपी जिस शास्त्र का अविर्भाव हुआ, वह योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को, वस्तुतः अर्जुन तो निमित्त मात्र रहा, इस संसार को परमपिता परमेश्वर की अमूल्य देन है | सभी धर्म-धर्मान्तरों, धार्मिक मान्यताओं से मुक्त, जिस परमार्थ मार्ग का उपदेश योगस्थ श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया, वही श्रीकृष्ण-अर्जुन के संवाद के रूप में विख्यात श्रीमद्भागवद्गीता उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक शास्त्र, आपका गीता शास्त्र है | मनुष्य के उत्थान को, कल्याणकारी रूप से जीवन निर्वाह तथा जीवन यात्रा की सिद्धि हेतु अर्थात् मुक्ति को, मोक्ष को,
इतना सरल और सुगम परमार्थ मार्ग मनुष्यता के इतिहास में शायद ही कोई अन्य हो |

एक ही परिवार की चार पीड़ियाँ, प्रपितामह बाह्लिक से लेकर अर्जुन पुत्र अभिमन्यु तक तथा आर्यावर्त के समस्त राजा, पितामह भीष्म जैसे धर्म के ज्ञाता, धर्मराज कहे जाने वाले युद्धिष्ठिर और महर्षि वेदव्यास की न्याय, नीति और धर्म की व्याख्या के अनुसार महाभारत के तथाकथित धर्म युद्ध में एकत्रित अठाहर अक्षौहिणी सेना में से एक भी मनुष्य ऐसा नहीं था, जो युद्ध के इस स्वरूप को देख विचलित हुआ हो | अपने अपने कारणों से, बन्धनों से अथवा स्वार्थवश सभी युद्ध उत्सव में उपस्थित थे | स्वयं श्रीकृष्ण ने भी शांति के समस्त प्रयासों के उपरान्त युद्ध की अनिवार्यता को स्वीकार कर लिया था | परन्तु आत्मा की पुकार केवल अर्जुन ने सुनी | अर्जुन की आत्मा वस्तुतः किन कारणों से उसे इस युद्ध से निवृत होने को पुकार रही थी, इस तथ्य से शायद अर्जुन भी अनभिज्ञ था | परन्तु अर्जुन जिस तथाकथित कुलधर्म का, सनातन धर्म का ज्ञाता था उस रुड़ीवादी धारणाओं के सिद्धांत ही अर्जुन को युद्ध में प्रवृत होने से रोक रहे थे | क्या अर्जुन वास्तव में सनातन धर्म का ज्ञाता था ? नहीं, अर्जुन सनातन धर्म का नहीं, अपितु सनातन धर्म के नाम से चल रही सामाजिक व्यवस्थाओं का, राजधर्म का, कुलधर्म का ज्ञाता था | और यही धर्म उसे कुलनाश से प्राप्त राज्य, राज्य-भोग, सुख और जीवन की अनुमति नहीं दे रहा था | परन्तु इन अठाहर अक्षौहिणी पुरूषों में केवल एक अर्जुन ही आत्मा की पुकार सुन रहा था | अर्जुन का यही विवेक, यही पुण्य उसे परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा आत्मा के, सम्पूर्ण सृष्टि का केवल एक तत्त्व जो सनातन है, उस आत्मा के और सर्वस्य व्याप्त आत्मा अर्थात् परमात्मा के सनातन धर्म के ज्ञान का अधिकारी बनाता है | और अर्जुन के इसी अधिकार को परमात्मा श्रीकृष्ण ने अंगीकार कर उसे गीता शास्त्र रूपी उपदेश दिया |

परन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेश से पूर्व, गुरु-शिष्य संवाद में संधर्भ के अनुसार, अर्जुन जिस कुलधर्म, सनातन धर्म का ज्ञाता था | युद्ध से निवृत होने को उस धर्म के अनुसार अपने तर्क अथवा कहें कि सामाजिक वयास्थाओं के, रुड़ीवादी पम्पराओं के कुतर्क श्रीकृष्ण के समक्ष प्रस्तुत करता है | आइये जाने की अर्जुन क्या कहता है |

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः |
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत || (१/४०)

कुल-क्षये प्रणश्यन्ति कुल धर्माः सनातनाः |
धर्मे नष्टे कुलम् कृत्स्नम् अधर्मः अभिभवति उत || (१/४०)

कुलक्षये(कुल-क्षय से), प्रणश्यन्ति(नष्ट हो जाता है), कुलधर्माः(कुलधर्म), सनातनाः(सनातन) | धर्मे(धर्म के), नष्टे(नाश होने पर), कुलं (कुल), कृत्स्नम्(सम्पूर्ण), अधर्मः(अधर्म, पाप), अभिभवति(भावित होता है), उत(और) | (१/४०)

कुलक्षय होने से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाता है, सम्पूर्ण कुल अधर्म से, पाप से भावित हो जाता है | (१/४०)

अर्जुन की ही नहीं, समस्त भारतीय इतिहास की यही विडम्बना रही कि यहाँ लोग सामाजिक व्यवस्था को, आचार संहिता को सनातन धर्म मानते है | नीच जात के छूने से, किसी विधवा का  कुल-उत्सव में उपस्थित होने आदि पर यहाँ का सनातन धर्म नष्ट हो जाता है | मदिरा-मॉस के सेवन से, सेवन करने वाला तो बाद में नष्ट होगा परन्तु तथाकथित सनातन धर्म तुरंत नष्ट हो जाता है | जैसे यह धर्म ना होकर कोई छुईमुई का पौधा हो | परन्तु कहते इसे सनातन है अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता | अर्जुन भी इन्ही कुरीतियों से, अज्ञान से भावित था | इसीलिए कहता है कि कुलक्षय से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाता है और धर्म के नष्ट होने पर अधर्म से, पाप से कुल भावित हो जाता है | इन  अधर्म और पाप रूपी कृत्यों में प्रवृत ना होने को ही तो अर्जुन युद्ध से निवृत होना चाहता था | परिवार अधर्म और पाप से किस प्रकार भावित होता है ? उसका भी विस्तारपूर्वक वर्णन अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति करता है |

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः |
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः || (१/४१)
सङ्करो नरकायैव कुलध्नानां कुलस्य च |
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः || (१/४२)
दोषैरेतैः कुलध्नानाम् वर्णसंकरकारकैः |
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः || (१/४३)
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन |
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम || (१/४४)
अधर्मः अभिभवात् कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुल स्त्रियः |
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्ण सङ्करः || (१/४१)
सङ्करः नरकाय एव कुल ध्नानाम् कुलस्य च |
पतन्ति पितरः हि एषाम् लुप्त पिण्ड उदक क्रिया: || (१/४२)
दोषैः एतैः कुल ध्नानाम् वर्ण सङ्कर कारकैः |
उत्साह हन्ते जाति धर्माः कुल धर्माः च शाश्वताः || (१/४३)
उत्सन्न कुल धर्माणाम् मनुष्याणाम् जनार्दन |
नरके नियतम् वासो भवति इति अनुशुश्रुम || (१/४४)
  
अधर्मः(अधर्म के, पाप के), अभिभवात्(भावित होने से), कृष्ण(कृष्ण), प्रदुष्यन्ति(अत्यंत दूषित होता है), कुल-स्त्रियः(कुल की स्त्रियाँ) | स्त्रीषु(स्त्रीयों के), दुष्टासु(दूषित होने पर), वार्ष्णेय(वृष्णिवंश में जन्म के कारण कृष्ण को वार्ष्णेय भी कहते है), जायते (पैदा, उत्पन्न हो जाता है), वर्ण-सङ्करः(वर्ण संकर) | (१/४१)
सङ्करः(संकर), नरकाय(नरक हेतु), एव(ही), कुलध्नानां(कुलधातियों को), कुलस्य(कुल को), (और) | पतन्ति(गिरते हैं), पितर: (पितृ आदि), हि(क्योंकी), एषाम्(इनके), लुप्तः(लूप होने से), पिण्ड-उदक (पिण्ड जल आदि), क्रियाः(कर्म) | (१/४२)
दोषैः(दोषों से), एतैः(इन), कुलध्नानां(कुलधातियों), वर्णसङ्करः(वर्ण संकर), कारकैः(कारणों से) | उत्साहः(उत्साह), हन्ते(हत्या), जातिधर्माः(जातिधर्म), कुलधर्माः(कुलधर्म), (और), शाश्वताः(सनातन) | (१/४३)
उत्सन्न(नष्टप्राय), कुलधर्माणां(कुलधर्म से), मनुष्याणां(मनुष्यों का), जनार्दन(जनार्दन), नरके(नरक में), अनियतम्(अनिश्चित काल तक), वासः(वास), भवति(होता है), इति(ऐसा), अनुशुश्रुम(सुनते आए हैं) | (१/४४)   

कृष्ण ! अधर्म से भावित होने पर कुल की स्त्रियाँ अत्यंत दूषित हो जाती हैं | वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्ण-संकर उत्पन्न होता है | (१/४१)
वर्ण-संकर कुलधातियों को और कुल को नरक में ले जाने वाला होता है | श्राद्ध और तर्पण आदि ना मिलने से इन कुलधातियों के पितर भी गिरते हैं | (१/४२)
इन वर्ण-संकरता के कारणों से उत्पन्न दोषों से सनातन कुलधर्म और जातिधर्म के प्रति उत्साह की हत्या हो जाती है | (१/४३)
जनार्दन ! जिनके कुलधर्म नष्टप्राय हो जाते हैं, उन मनुष्यों का बहुत समय तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए हैं | (१/४४)

एक ही परिवार के समस्त सदस्यों का आपस में युद्ध होने से, कुलक्षय अर्थात् ऐसे युद्ध में कुल के पुरूषों का तो क्षय हो जाता है और परिवार की स्त्रियाँ तथा विधवाएं ही शेष रह जाती हैं | पुरूषों के ना रहने से, कुलक्षय के दोष से उत्पन्न अधर्म और पाप से कुल की स्त्रियाँ दूषित अर्थात् चरित्रहीन अथवा व्याभिचारिणी हो जाती हैं | स्त्रियों के दूषित होने से वर्ण-संकर उत्पन्न होता है | वर्णसंकर अर्थात् या तो स्त्रियाँ व्याभिचारिणी हो जाती है अथवा दूसरे वर्ण के पुरूषों से विवाह आदि कर लेती है | इस प्रकार व्याभिचार को, अलग अलग वर्ण के विवाह को तथा ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान को वर्ण-संकर कहते हैं | अधर्म से उत्पन्न ऐसी वर्ण संकर संतानों से पितर श्राद्ध और तर्पण आदि पिण्डोदक क्रियाओं को ग्रहण नहीं करते | अथवा कहें कि ऐसी संतानों द्वारा किये गये श्राद्ध और तर्पण से पितर अधोगति को प्राप्त होते हैं | अत: यह कुलधातियों को और कुल को नरक में ले जाने वाला होता है तथा इन वर्ण संकर के उत्पन्न दोषों के कारण कुलधर्म और जातिधर्म के प्रति उत्साह अर्थात् कुलधर्म और जातिधर्म के प्रति मनुष्य की आस्था और अपने वर्ण के प्रति सम्मानभाव की हत्या हो जाती है | और जिनके कुलधर्म नष्टप्राय हो जाते हैं उन मनुष्यों का नरक में बहुत समय तक वास होता है | ऐसा हम सुनते आए हैं |

अर्जुन ने सनातन कुलधर्म और जातिधर्म की जो भी व्याख्या करी, वो एक अलग विषय है, अर्जुन  सनातन धर्म का ज्ञाता भी था अथवा नहीं था, यह भी एक अलग विषय है | परन्तु देवी-गुणों से संपन्न, सत्य के प्रति उसकी अटूट निष्ठा के कारण केवल अर्जुन ही साक्षात् परमात्मा से इस परमार्थ मार्ग के उपदेशों के श्रवण का अधिकारी था | क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रति तथाकथित सनातन धर्म की व्याख्या करने के पश्चात् अर्जुन यह भी स्पष्ट कह देता है, कि जिस सनातनधर्म की व्याख्या मैंने आपसे की है उस सनातन धर्म को मै जानता हूँ अथवा नहीं जानता, ज्ञात नहीं, परन्तु इति अनुशुश्रुम (१/४४), अर्थात् ऐसा (हम) सुनते आए हैं | जिस सनातन धर्म को अर्जुन ने सुन रखा था उसका वर्णन कर युद्ध से निवृत होने के अपने निश्चय के प्रति अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है |

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् |
यद्राज्यसुखलॊभॆन हन्तुं स्वजनमुद्यताः || (१/४५)
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः |
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मॆ क्षेमतरं भवेत् || (१/४६)

अहो बत महत् पापम् कर्तुम् व्यवसिता वयम् |
यत् राज्य सुख लोभेन हन्तुम् स्व जनम् उद्यताः || (१/४५)
यदि माम् अप्रतीकारम् अशस्त्रम् शस्त्र पाणयः |
धार्तराष्ट्राः रणे हन्युः तत् मे क्षेम तरम् भवेत् || (१/४)

अहो(हा!), बत(शोक), महत्(महान), पापम्(पाप), कर्तुम्(करने को), व्यवसिताः(व्यवस्था कर बैठे), वयम्(हम) | यत्(जो), राज्यः (राज्य), सुखः(सुख), लोभेन(लोभ से), हन्तुं(हनन करने को), स्वजनम्(स्वजनों को), उद्यताः(उद्यत हो गये) | (१/४५)
यदि(यदि), माम्(मुझे), अप्रतीकारम्(प्रतिकार ना करने), अशस्त्रम्(शस्त्ररहित), शस्त्र-पाणयः(शस्त्र धारण करे) | धार्तराष्ट्रा (धार्तराष्ट्रान), रणे(रण मे), हन्युः(हनन करें), तत्(वह), मे(मेरे लिये), क्षेम-तरम्(कल्याणकारी), भवेत्(होगा) | (१/४६)

आश्चर्य और खेद है कि हम लोग महान पाप करने की व्यवस्था कर बैठे, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों के हनन को उद्यत हो गये | (१/४५)
यदि मुझ प्रतिकार ना करने वाले शस्त्ररहित को, शस्त्र धारण करे धार्तराष्ट्रान मार भी दें, वह मेरे लिये कल्याणकारी होगा | (१/४६)

तथाकथित सनातन धर्म की व्याख्या कर अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है | कि यह बहुत आश्चर्य और खेद की बात है कि वयं, केवल मैं ही नहीं अपितु आप भी, राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों की हत्या का निश्चय कर बैठे हैं | शायद अर्जुन ने यह आश्चर्य और खेद अपने लिये नहीं अपितु श्रीकृष्ण के लिये ही प्रकट करा था कि मैं तो अज्ञानी ही हूँ, परन्तु आप भी ? क्या आपको भी सनातन धर्म के नाश का ध्यान नहीं आया ? जो आप भी इस युद्ध के लिये अपनी स्वीकृति दे बैठे | अर्जुन के इसी अज्ञान का समाधान गीता शास्त्र है | क्योंकि अर्जुन सोचता था कि स्वजनों की हत्या के पाप से तो कल्याणकारी होगा कि मै छल से राज्य हडपने वालो का प्रतिकार ना करते हुए निःशस्त्र ही शस्त्रधारियों के हाथ से मारा जाऊ | कम से कम सनातन धर्म के नाश रूपी अधर्म और कुलक्षय के पाप से तो मुक्त रहूँगा |  

संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् |
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः || (१/४७)

एवम् उक्त्वा अर्जुनः सङ्ख्ये रथ उपस्थे उपाविशत् |
विसृज्य स-शरम् चापम् शोक संविग्न मानसः || (१/४७)

एवम्(इस प्रकार), उक्त्वा(कहकर), अर्जुनः(अर्जुन), सङ्ख्ये(रणभूमि में), रथ-उपस्थे (रथ के आसन पर), उपाविशत्(बैठ गया) | विसृज्य(त्यागकर), स-शरम्(बाणसहित), चापम्(धनुष को), शोक-संविग्न(शोकाकुल), मानसः(मनसे) | (१/४७)

ऐसा कह शोकग्रस्त मन से अर्जुन युद्धभूमि में बाणसहित धनुष का त्याग करके रथ के आसन पर बैठ गया | (१/४७)

यहाँ तक जो भी धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्रों ने धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में करा, उसे महर्षि वेदव्यासजी जी की कृपा प्रसाद से प्राप्त दिव्य-दृष्टि और दिव्य-श्रवण उपाय रूप से संजय ने राजा धृतराष्ट्र के प्रति कहा | इस प्रकार गीताशास्त्र के प्रथम अध्याय का समापन होता है |







                                                  ~~~~~ ॐ तत् सत् ~~~~~